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गृहप्रकरणम्
वाराही संहिता में द्वारवेध बतलाते है
"रथ्याविद्धं द्वारं नाशाय कुमारदोषदं तरुणा। पंकद्वारे शोको व्ययोऽम्बुनिःस्राविणि प्रोक्तः ॥ कूपेनापस्मारो भवति विनाशश्च देवताविद्धे ।
स्तंभेन स्त्रीदोषाः कुलनाशो ब्रह्मणाभिमुखे ॥" दूसरे के घर का रास्ता अपने द्वार से जाता हो ऐसे रास्ते का वेध विनाश कारक होता है। वृक्ष का वेध हो तो बालकों के लिये दोषकारक है । कादे वा कीचड़ का हमेशा वेध रहता हो तो शोककारक है। पानी निकलने के नाले का वेध-हो तो धन का विनाश होता है । कूए का वेध हो तो अपस्मार का रोग ( वायु विकार) होता है । महादेव सूर्य आदि देवों का वेध हो तो गृहस्वामी का विनाश करने वाला है। स्तंभ का वेध हो तो स्त्री को दोष रूप है और ब्रह्मा के सामने द्वार हो तो कुल का नाश करनेवाला है ।
इगवेहेण य कलहो कमेण हाणिं च जत्थ दो हुंति । तिहु भूत्राणनिवासो चउहिं खयो पंचहिं मारी॥१२४॥
एक वेध से कलह, दो वेध से क्रमशः हानि, तीन वेध हो तो घर में भूतों का वास, चार वेध हो तो घर का क्षय और पांच वेध हो तो महामारी का रोग होता है ॥ १२४॥
वास्तुपुरुष चक्र--- अछुत्तरसउ भाया पडिमारूखुब करिवि भूमितयो । सिरि हियइ नाहि सिहिणो थंभं वजेह जत्तेणं ॥१२५॥
'घर बनाने की भूमि के तलभाग का एक सौ आठ* भाग कर के इसमें एक मूर्ति के आकार जैसा वास्तुपुरुष का आकार बनाना, जहां जहां इस वास्तुपुरुष के मस्तक, हृदय, नाभि और शिखा का भाग आवे, उसी स्थान पर स्तंभ नहीं रखना चाहिये ॥१२॥
* एकसौ आठ भाग की कल्पना की गई है, इसमें से सौ भाग वास्तुमंडल के और भाठ भाग वास्तुमंडल के बाहर कोने में चरकी प्रादि माठ राक्षसणी के समझना चाहिये ऐसा प्रासाद मंडन में कहा है।
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