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________________ (१८४) वास्तुसारे योनि वैरश्वेणं हरीभमहिष पशुप्लवंगं, गोव्याघ्रमश्वमहमोतुकमूषिकं च । लोकात्तथाऽन्यदपि दम्पतिभर्तृभृत्य-योगेषु वैरमिह वय॑मुदाहरन्ति ॥२४ । श्वान और मृग को, सिंह और हाथी को, सर्प और नकुल को, बकरा और वानर को, गौ और बाघ को, घोड़ा और भैंसा को, बिलाव और उदुर को परस्पर वैर है । इस प्रकार लोक में प्रचलित दूसरे वैर भी देखे जाते हैं । यह वैर पति पत्नी, स्वामी सेवक और गुरु शिष्य आदि के सम्बन्ध में छोड़ना चाहिये ।। २४ ।। नक्षत्रों के गणदिव्यो गपः किल पुनर्वसुपुष्यहस्त स्वात्यश्विनीश्रवणपोष्णमृगानुराधाः । स्यान्मानुषस्तु भरणी कमलासनः पूर्वोत्तरात्रितयशंकरदेवतानि । २५ ।। रदोगणः पितृभराक्षसवासवेन्द्र चित्राद्विदैववरुणाग्निभुजङ्गभानि । प्रीतिः स्वयोरति नरामरयोस्तु मध्या, वैरं पलादसुरयोतिरन्स्ययोस्तु ॥ २६ ॥ पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अश्विनी, श्रवण, रेवती, मृगशीर्ष और अनुराधा ये नव नक्षत्र देवगणवाले हैं। भरणी, रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा और आर्द्रा ये नव नक्षत्र मनुष्य गण वाले हैं । मघा, मूल, धनिष्ठा ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, शतभिषा, कृत्तिका और आश्लेषा ये नव नक्षत्र राक्षसगण वाले हैं। उनमें एक ही वर्ग में अत्यन्त प्रीति रहे एक का मनुष्य गण हो और दूसरे का देवगण हो तो मध्यम प्रीति रहे, एक का देवगण हो और दूसरे का राक्षसगण हो तो परस्पर वैर रहे तथा एक का मनुप्यगण हो और दूसरे का राक्षसगण हो तो मृत्यु कारक है ॥ २५ ॥ २६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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