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वास्तुसारे
विमलाइ सुंदराई हंसाई किया प्रभवाई | पम्मोय सिरिभवाई चूडामणि कलसमाई य ॥ १०४ ॥ एमाइयासु सव्वे सोलस सोलस हवंति गितत्तो । satara er r दिसि - अलिंदभेएहिं ॥ १०५ ॥ तिलोयसुंदराई चउसट्ठि गिहाई हुंति रायाणो । ते पुण वट्ट संपर मिच्छा ण च रज्जभावेण ॥ १०६ ॥
विमलादि, सुंदरादि, हंसादि, अलंकृतादि, प्रभवादि, प्रमोदादि, सिरिभवादि चूड़ामणि और कलश आदि ये सब सूर्यादि घर के एक से चार चार दिशाओं के लिन्द के भेदों से सोलह २ भेद होते हैं । त्रैलोक्यसुन्दर यदि चौसठ घर राजाओं के लिए हैं । इस समय गोल घर बनाने का रिवाज नहीं है, किन्तु राज्यभाव से मना नहीं है अर्थात् राजा लोग गोल मकान भी बना सकते हैं ।। १०४ से १०६ ।।
घर में कहां २ किस २ का स्थान करना चाहिये यह बतलाते हैं—
पुव्वे सीहदुवारं श्रग्गी रसोइ दाहिणे सयणं । रह नीहार ठिई भोयग ठिह पच्छिमे भणियं ॥ १०७ ॥ वायव्वे सव्वाउह कोसुत्तर धम्मठागु ईसा । पुव्वाइ विणिद्देसो मूलग्गिहदारविक्खाए ॥
१०८ ॥
मकान की पूर्व दिशा में सिंह द्वार बनाना चाहिये, अग्निकोण में रसोई बनाने का स्थान, दक्षिण में शयन (निद्रा) करने का स्थान, नैऋत्य कोण में निहार ( पाखाने) का स्थान, पश्चिम में भोजन करने का स्थान, वायव्य कोण में सब प्रकार के आयुध का स्थान, उत्तर में धन का स्थान और ईशान में धर्म का स्थान बनाना चाहिये । इन सब का घर के मूलद्वार की अपेक्षा से पूर्वादिक दिशा का विभाग करना चाहिये अर्थात् जिस दिशा में घर का मुख्य द्वार हो उसी ही दिशा को पूर्व दिशा मान कर उपरोक्त विभाग करना चाहिये ।। १०७ से १०८ ॥
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