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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
गला तथा कान के अंतराल भाग का विस्तार डेढ़ अंगुल और उदय तीन अंगुल करना । अंचलिका ( लंगोड ) आठ भाग विस्तार में और लंबाई में गादी के मुख तक लंबा करना ॥ २३ ॥
केसंतसिहा गद्दिय पंचट्ठ कमेण अंगुलं जाण । पउमुड्ढरेहचक्कं करचरण-विहूसियं निच्चं ॥ २४ ॥
केशांत भाग से शिखा के उदय तक पांच भाग और गादी का उदय आठ भाग जानना । पद्म ( कमल ) ऊर्ध्व रेखा और चक्र इत्यादि शुभ चिन्हों से हाथ और पैर दोनों सुशोभित बनाना चाहिये ॥ २४ ॥ ब्रह्मसूत्र का स्वरूप
नक्क सिरिवच्छ नाही समगब्भे बंभसुत्तु जाणेह । तत्तो अ सयलमाणं परिगरबिंबस्स नायव्वं ॥ २५ ॥
जो सूत्र प्रतिमा के मध्य-गर्भ भाग से लिया जाय, यह शिखा, नाक, श्रीवत्स और नाभि के बराबर मध्य में आता है, इसको ब्रह्मसूत्र कहते हैं। अब इसके बाद परिकरवाले बिंब का समस्त प्रमाण जानना ॥ २५ ।। . परिकर का स्वरूप
सिंहासणु विबायो दिवढयो दीहि वित्थरे श्रद्धो। पिंडेण पाउ घडियो रूवग नव अहव सत्त जुयो ॥ २६ ॥
सिंहासन लंबाई में मूर्ति से डेढ़ा, विस्तार में आधा और मोटाई में पाव भाग होना चाहिये। तथा गज सिंह आदि रूपक नव या सात युक्त बनाना चाहिये ॥२६॥ उभयदिसि जक्खजक्खिणि केसरि गय चमर मज्झि-चक्कधरी । चउदस बारस दस तिय छ भाय कमि इथ भवे दीहं ॥ २७॥
सिंहासन में दो तरफ यक्ष और यक्षिणी अर्थात् प्रतिमा के दाहिनी ओर यक्ष और घाँयी मोर यक्षिणी, दो सिंह, दो हाथी, दो चामर धारण करनेवाले और
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