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वास्तुसारे
मध्य में चक्र को धारण करनेवाली चक्रेश्वरी देवी बनाना। इनमें प्रत्येक का नाप इस प्रकार है-चौदह २ भाग के प्रत्येक यक्ष और यक्षिणी, बारह २ भाग के दो सिंह, दश २ भाग के दो हाथी, तीन २ भाग के दो चँवर करनेवाले, और छ। भाग की मध्य में चक्रेश्वरी देवी, एवं कुल ८४ भाग लम्बा सिंहासन हुमा ॥ २७ ॥
चक्कधरी गरुडंका तस्साहे धम्मचक्क-उभयदिसं। हरिणजुग्रं रमणीयं गद्दियमझम्मि जिणचिराहं ॥ २८ ॥
सिंहासन के मध्य में जो चक्रेश्वरी देवी है वह गरुड की सवारी करनेवाली है, उनकी चार भुजाओं में ऊपर की दोनों भुजाओं में चक्र, तथा नीचे की दाहिनी भुजा में वरदान और बाँयी भुजा में बिजोरा रखना चाहिये। इस चक्रेश्वरी देवी के नीचे एक धर्मचक्र बनाना, इस धर्मचक्र के दोनों तरफ सुन्दर एक २ हरिण बनाना और गादी के मध्य भाग में जिनेश्वर भगवान् का चिन्ह करना चाहिये ॥ २८ ॥
चउ कणइ दुन्नि छज्जइ बारस हथिहिं दुन्नि ग्रह कणए । श्रड अक्खरवट्टीए एवं सीहासणस्सुदयं ॥ २१ ॥
चार भाग का कणपीठ ( कणी), दो भाग का छज्जा, बारह भाग का हायी आदि रूपक, दो भाग की कणी और पाठ भाग अक्षर पट्टी, एवं कुल २८ भाग सिंझसन का उदय जानना ॥ २६ ॥ परिकर के पखवाडे (बगल के भाग) का स्वरूप
गद्दियसम-वसु-भाया तत्तो इगतीस-चमरधारी य । - तोरणसिरं दुवालस इअ उदयं पक्खवायाण ॥३०॥ . प्रतिमा की गद्दी के बराबर आठ भाग चैवरधारी या काउस्सग्गीये की गादी करना, इसके ऊपर इकतीस भाग के चामर धारण करनेवाले देव या काउस्सग ध्यान में खड़ी प्रतिमा करना और इसके ऊपर तोरण के शिर तक बारह भाग रखना, एवं कुल इक्कावन भाग पखवाड़े का उदयमान समझना ॥ ३०॥
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