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वास्तुलारे
राजयोग
राजयोगो भरण्यायै-बर्थन्तरै|ः शुभावहः ।
भद्रातृतीयाराकासु कुजज्ञभृगुभानुषु ॥ ५६ ॥
मंगल, बुध, शुक्र और रवि इनमें से कोई एक वार को भरणी आदि दो २ अंतरवाले नक्षत्र हो अर्थात् भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपदा इनमें से कोई नक्षत्र हो तथा दूज, सातम, बारस, तीज और पूनम इनमें से कोई तिथि हो तो राजयोग नाम का शुभ कारक योग होता है। इस योग को पूर्णभद्राचार्य ने तरुण योग कहा है ॥ ५६ ॥ स्थिर योग
स्थिरयोगः शुभो रोगो-च्छेदादौ शनिजीवयोः ।
त्रयोदश्यष्टरिक्तासु व्यन्तः कृत्तिकादिभिः॥ ५७ ॥
गुरुवार या शनिवार को तेरस, अष्टमी, चौथ, नवमी और चौदस इनमें से कोई तिथि हो तथा कृत्तिका आदि दो २ अंतरवाले नक्षत्र हों अर्थात् कृत्तिका, आर्द्रा,
आश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढा, शतभिषा और रेवती इनमें से कोई नक्षत्र हो तो रोग आदि के विच्छेद में शुभकारक ऐसा स्थिरयोग होता है। इस योग में स्थिर कार्य करना अच्छा है ॥ ५७ ॥ वज्रपात योग
वज्रपातं त्यजेद् द्वित्रिपञ्चषट्सप्तमे तिथौ। मैत्रेऽथ त्र्युत्तरे पैञ्ये ब्राले मूखकरे क्रमात् ।। ५८ ॥
दूज को अनुराधा, तीज को तीनों उत्तरा (उत्तग फाल्गुनी, उत्तराषाढा या उत्तराभाद्रपदा), पंचमी को मघा, छह को रोहिणी और सातम को मूल या हस्त नक्षत्र हो तो वज्रपात नाम का योग होता है । यह योग शुभकार्य में वर्जनीय है। नारचंद्र टिप्पन में तेरस को चित्रा या स्वाति, सातम को भरणी, नवमी को पुष्य और दसमी को आश्लेषा नक्षत्र हो तो वज्रपात योग माना है । इस वज्रपात योग में शुभ कार्य करें तो छ: मास में कार्य करनेवाले की मृत्यु होती है, ऐसा हर्षप्रकाश में कहा है ॥ ५५॥
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