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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
(८५.).
चंद्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि आदि सब रत्नमणि के जाति की प्रतिमा समस्त गुणवाली है।
"स्वर्णरूप्यताम्रमयं वाच्यं धातुमयं परम् । कांस्यसीसबङ्गमयं कदाचिन्नैव कारयेत् ॥ तत्र धातुमये रीति-मयमाद्रियते क्वचित् ।
निषिद्धो मिश्रधातुः स्याद् रीतिः कैश्चिच्च गृह्यते ॥" सुवर्ण, चांदी और तांबा इन धातुओं की प्रतिमा श्रेष्ठ है । किन्तु काँसी, सीसा और कलई इन धातुओं की प्रतिमा कभी भी नहीं बनवानी चाहिये । धातुओं में पीतल की भी प्रतिमा बनाने को कहा है, किन्तु मिश्रधातु ( कांसी आदि ) की बनाने का निषेध किया है । किसी आचार्य ने पीतल की प्रतिमा बनवाने का कहा है।
"कार्य दारुमयं चैत्ये श्रीपा चन्दनेन वा । बिल्वेन वा कदम्बेन रक्तचन्दनदारुणा॥ पियालोदुम्बराभ्यां वा क्वचिच्छिशिमयापि वा । अन्यदारूणि सर्वाणि बिम्बकार्ये विवर्जयेत् ॥ तन्मध्ये च शलाकायां बिम्बयोग्यं च यद्भवेत् ।
तदेव दारु पूर्वोक्तं निवेश्य पूतभूमिजम् ॥" चैत्यालय में काष्ठ की प्रतिमा बनवाना हो तो श्रीपर्णी, चंदन, बेल, कदंब, रक्तचंदन, पियाल, उदुम्बर ( गूलर ) और क्वचित् शीशम इन वृक्षों की लकड़ी प्रतिमा बनवाने के लिए उत्तम मानी है । बाकी दूसरे वृक्षों की लकड़ी वर्जनीय है । ऊपर कहे हुए वृक्षों में जो प्रतिमा बनने योग्य शाखा हो, वह दोषों से रहित और वृक्ष पवित्र भूमि में ऊगा हुआ होना चाहिये ।
"अशुभस्थाननिष्पन्नं सत्रासं मशकान्वितम् । सशिरं चैव पाषाणं विम्वार्थ न समानयेत् ॥ नीरोगं सुदृढं शुभ्रं हारिद्रं रक्तमेव वा । कृष्णं हरिं च पाषाणं बिम्बकार्ये नियोजयेत् ॥"
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