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वास्तुसारे
अपवित्र स्थान में उत्पन्न होनेवाले, चीरा, मसा या नस आदि दोषवाले, ऐसे पत्थर प्रतिमा के लिये नहीं लाने चाहिये। किन्तु दोषों से रहित मजबूत सफेद, पीला, लाल, कृष्ण या हरे वर्णवाले पत्थर प्रतिमा के लिये लाने चाहिये। समचतुरस्र पद्मासन युक्त मूर्ति का स्वरूप
अन्नुन्नजाणुकंधे तिरिए केसंत-अंचलंते यं । सुत्तेगं चउरंसं पज्जंकासणसुहं बिंबं ॥४॥
दाहिने घुटने से बाँये कंधे तक एक सूत्र, बांये घुटने से दाहिने कंधे तक दूसरा सूत्र, एक घुटने से दूसरे घुटने तक तिरछा तीसरा सूत्र, और नीचे वस्त्र की किनार से कपाल के केस तक चौथा सूत्र । इस प्रकार इन चारों सूत्रों का प्रमाण बराबर हो तो यह प्रतिमा समचतुरस्र संस्थानवाली कही जाती है। ऐसी पर्यकासन (पद्मासन) वाली प्रतिमा शुभ कारक है ॥ ४॥ पर्यकासन का स्वरूप विवेकविलास में इस प्रकार है
"वामो दक्षिणजङ्घोर्वो-रुपयंघ्रिः करोऽपि च ।
दक्षिणो वामजयोर्वो-स्तत्पर्यङ्कासनं मतम् ॥" बैठी हुई प्रतिमा के दाहिनी जंघा और पिण्डी के ऊपर चाँया हाथ और बाँया चरण रखना चाहिए । तथा बाँयी जंघा और पिएडी के ऊपर दाहिना चरण और दाहिना हाथ रखना चाहिये। ऐसे श्रासन को पर्यकासन कहते हैं। प्रतिमा की ऊंचाई का प्रमाण
नवताल हवइ रूवं रूवस्स य बारसंगुलो तालो। अंगुलअट्टहियसयं ऊड्ढं बासीण छप्पन्नं ॥५॥
प्रतिमा की ऊंचाई नव ताल की है। प्रतिमा के ही बारह अंगुल को एक ताल कहते हैं । प्रतिमा के अंगुल के प्रमाण से कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ी प्रतिमा नव ताल अर्थात् एक सौ आठ अंगुल मानी है और पद्मासन से बैठी प्रतिमा छप्पन अंगुल मानी है॥५॥
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