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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
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(२-३-६-६-१०-११) रहा ह तो श्रेष्ठ है । मंगल और शनि तीसरे, ग्यारहवें और द्वे स्थान में रहे हों तो श्रेष्ठ हैं। बुध और गुरु बारहवें और आठवें इन दोनों स्थानों को छोड़कर बाकी कोई भी स्थान में रहे हों ता अच्छे हैं, शुक्र लग्न से पांचवें स्थान तक (१-२-३-४-५ ) तथा नवम, दसम और ग्यारहवाँ इन स्थानों में रहा हो तो श्रेष्ठ है ॥ ८३ ॥
लग्नमृत्युसुतास्तेषु पापा रन्ध्रे शुभाः स्थिताः ।
त्याज्या देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी ॥ ८४ ॥
पापग्रह (रवि मंगल, शनि, राहु और केतु) यदि पहले, आठवें, पांचवें और सातवें स्थान में रह हो, शुभग्रह आठवें स्थान में रहे हों और चन्द्रमा पहले, छट्ठे या आठवें स्थान में रहा हो, इस प्रकार कुण्डली में ग्रह स्थापना हो तो वह लग्न देव की प्रतिष्ठा में त्याग करने योग्य है ।। ८४ ।।
नारचंद्र में कहा है कि
त्रिरिपा १ वासुतखे २ स्वत्रिकोणकेन्द्र ३ विरैस्मरेत्राग्न्यर्थे ५ | लाभेद क्रूर' बुधा २ चिंत३ भृग४ शशि५ सर्वे ६ क्रमेण शुभाः ॥ ८५ ।
क्रूग्रह तीसरे और छट्ठे स्थान में शुभ हैं, बुध पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांच या दसवें स्थान में रहा हो तो शुभ है । गुरु दूसरे, पांचवें, नववें और केन्द्र ( १-२-३-४) स्थान में शुभ है। शुक्र (E-५-१-४-१० ) इन पांच स्थानों में शुभ है । चन्द्रमा दुमरे और तीसरे स्थान में शुभ और समस्त ग्रह ग्यारहवें स्थान में शुभ हैं ॥ ८५ ॥
ash: केन्द्रारिधर्मेषु शशी ज्ञोऽरिन वास्तगः ।
षष्ठेज्य स्वनिगः शुक्रो मध्यमाः स्थापना दो || ८६ ॥ नरेन्द्रर्काः सुतेऽस्तारिरिष्फे शुक्रस्त्रिगो गुरुः । विमध्यमाः शनिर्धीखे सर्वे शेषेषु निन्दिताः ॥ ८७ । दसवें स्थान में रहा हुआ सूर्य, केन्द्र (१-४-७-१०), अरि ( ६ ) और धर्म
( ६ ) स्थान में रहा हुआ चंद्र, छट्ठे, सातवें और नववें स्थान में रहा हुआ बुध, बड़े स्थान में गुरु, दूसरे व तीसरे स्थान में शुक्र हो तो प्रतिष्ठा के समय में मध्यम फलदायक है ।
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