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: पास्तुसारे लग्न कुण्डली में चंद्रमा का बल अवश्य देखना चाहिये। कहा है कि
लग्नं देहः षट्कवर्गोऽङ्गकानि, प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचरेन्द्राः । प्राणे नष्टे देहधात्वगनाशो, यत्नेनातश्चन्द्रवीर्य प्रकल्प्यम् ।। ८० ।।
लग्न शरीर है, षड्वर्ग ये अंग हैं, चन्द्रमा प्राण है और अन्य ग्रह सप्त धातु हैं। प्राण का विनाश हो जाने से शरीर, अंगोपांग और धातु का भी विनाश हो जाता है। इसलिये प्राणरूप चन्द्रमा का बल अवश्य लेना चाहिये ॥८॥ लग्न में सप्तम आदि स्थान की शुद्धि
रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः ।
हन्ति स्थापककर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥१॥
रवि, मंगल, शनि, राहु या शुक्र यदि सप्तम स्थान में रहा हो तो स्थापन करानेवाले गुरु का और करनेवाले गृहस्थ का तथा प्रतिमा का भी शीघ्र ही विनाश कारक है ॥ ८१ ॥
त्याज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात् षष्ठे शुक्रन्दुलग्नपाः ।
रन्ध्र चन्द्रादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽब्जगरू समौ । ८२ ।।
लग्न में शनि, रवि, सोम या मंगल, छठे स्थान में शुक्र, चन्द्रमा या लग्न का स्वामी, आठवें स्थान में चंद्र, मंगल, बुध, गुरु या शुक्र वर्जनीय है तथा सप्तम स्थान में कोई भी ग्रह हो तो अच्छा नहीं हैं। किन्तु कितनेक आचार्यों का मत है कि चन्द्रमा या गुरु सातवें स्थान में हों तो मध्यम फलदायक है ।। ८२ ॥ प्रतिष्ठा कुण्डली में ग्रह स्थापनाप्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरुपचये शीतकिरणः ,
स्वधर्मात्ये तत्र क्षितिजरविजो त्र्यायरिपुगौ। बुधस्वाचायौँ व्ययनिधनवौं भृगुसुतः ,
सुतं यावल्लग्नान्नवमदशमायेष्वपि तथा ॥८३ ।। प्रतिष्ठा के समय लग्न कुण्डली में सूर्य यदि उपचय (३-६-१०-११) स्थान में रहा हो तो श्रेष्ठ है। चन्द्रमा धन और धर्म स्थान सहित पूर्वोक्त स्थानों में
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