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वास्तुसारे ३-सामान्य मंडोवर का स्वरूप
"सप्तभागा भवेन्मञ्ची कूटं छाद्यस्य मस्तके ॥६॥ षोडशांशाः पुनर्जेङ्घा भरणी सप्तभागिका ।। शिरावटी चतुभांगा पद: स्यात् पञ्चभागिकः ॥७॥ सूर्योशेः कुटछाद्यं च सर्वकामफलप्रदम् ।।
कुंभकस्य युगांशेन स्थावराणां प्रवेशकम् ॥८॥ 'सामान्य मंडोवर में मची सात भाग की करना । छज्जा के ऊपर कूट का छाद्य करना । जंघा सोलह भाग की, भरणी सात भाग की, शिरावटी चार भाग की, केवाल पांच भाग की और छज्जा बारह भाग का करना । बाकी के थरों का मान मेरु जाति के मण्डोवर के मुआफिक समझना । यह मण्डोवर सब काये में फलदायक है । ४-अन्य प्रकार से मंडोवर का स्वरूप
"पीठतश्छाद्यपर्यन्तं सप्तविंशतिभाजितम् । द्वादशानां खुरादीनां भागसंख्या क्रमेण च ॥ स्यादेकवेदसाोद्धे-सार्द्धसा ष्टभित्रिभिः ।
सार्द्धसार्द्धार्द्धभागैश्च द्विसार्द्धमंशनिर्गमम् ॥" पीठ के ऊपर से छज्जा के अन्त्य भाग तक मंडोवर के उदय का सत्ताईस भाग करना। उनमें खुर आदि बारह थरों की भाग संख्या क्रमशः इस प्रकार हैखुर एक भाग, कुंम चार भाग, कलश डेढ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग, केवाल डेढ भाग, मंची डेढ भाग, जंघा आठ भाग, ऊरुजंघा तीन भाग, भरणी डेढ भाग, केवाल डेढ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग और छजा ढाई भाग, इस प्रकार कुल २७ भाग के मंडोवर का स्वरूप है। छज्जा का निर्गम एक भाग करना ।
अहमदाबाद निवासी मिस्त्री जगन्नाथ अंबाराम सोमपुरा ने बृहद् शिल्प शास्त्र नामक एक पुस्तक महा अशुद्ध और बिना विचार पूर्वक लिखी है उसके प्रथम भाग में सामान्य मंडोवर और प्रकारान्तर मंडोघर के भाग मूल श्लोक के मुश्राफिक नहीं है । जैसे- 'शिरावटी चतुर्भागा' मूल है, उसका अर्थ मिस्त्रीजी ने 'शिरावटी पाठ भाग की करना' लिखा है। प्रकारान्तर मंडोवर में कुंभा चार भाग का है, इसमें श्र 'चार भाग का कुंभा करना किन्तु उसमें से एक भाग का खुरा करना' लिखते हैं. एवं भाषान्तर में ढाई भाग का छजा लिखते हैं तो नकशे में दो भाग का छज्जा बतलाते हैं. इस प्रकार सारी पुस्तक में ही कई जगह भूल कर दी है, इसके समाधान के लिये पत्र द्वारा पूछा गया था तो संतोषप्रद जवाब नहीं मिला।
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