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वास्तुसारे
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पंथकार प्रशस्ति
सिरि-धंधकलस-कुल-संभवेण चंदासुएण फेरेण । कनाणपुर-ठिएण य निरिक्खिउं पुवसत्थाई ॥ ६१ ॥ सपरोवगारहेऊ नयण मुणि रामचंद्र' वरिसम्मि । विजयदशमीइ रइअं गिहपडिमालक्खणाईणां ॥ ७० ॥ इति परमजैनश्रीचन्द्राङ्गजठक्कर फेरुविरचिते वास्तुसारे
प्रासादविधिप्रकरणं तृतीयम् । श्री धंधकलश नामके उत्तम कुल में उत्पन्न हुए मेठ चंद्र का सुपुत्र 'फेरु' ने कल्याणपुर (करनाल) में रहकर और प्राचीन शास्त्रों को देखकर स्वपर के उपकार के लिये विक्रम संवत् १३७२ वर्ष में विजयदशमी के दिन यह घर, प्रतिमा और प्रासाद के लक्षण युक्त वास्तुसार नामका शिल्पग्रंथ रचा ॥ ६६ । ७०॥
नन्दाष्टनिधिचन्द्रे च वर्षे विक्रमराजतः ।
ग्रन्थोऽयं वास्तुसारस्य हिन्दीभाषानुवारितः॥ इति सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्या जैनेनानुवादितं गृह-बिम्ब-प्रासादप्रकरणत्रययुक्तं वास्तुसारनामकं
प्रकरणं समाप्तम् ।
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