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वास्तुलारे
मूलगिहे पच्छिममुहि जो बारइ दुन्नि बारा ग्रोवरए । सो तं गिहं न भुंजइ ग्रह भुंजइ दुखियो हवइ ॥ १३३ ॥
पश्चिम दिशा के द्वारवाले मुख्य घर में दो द्वार और शाला हो ऐसे घर को नहीं भोगना चाहिये अर्थात् निवास नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसमें रहने से दुःख होता है ।। १३३ ॥
कमलेगि जं दुवारो ग्रहवा कमलेहिं वजियो हवइ । हिहाउ उवरि पिहलो न ठाइ थिरु लच्छितम्मि गिहे ।। १३४ ॥
जिस घर के द्वार एक कमलवाले हों या बिलकुल कमल से रहित हों, तथा नीचे की अपेक्षा ऊपर चौड़े हों, ऐसे द्वारवाले घर में लक्ष्मी निवास नहीं करती है ॥ १३४॥
वलयाकारं कूणेहिं संकुलं अहव एग दु ति कूणं । दाहिणवामइ दीहं न वासियवेरिसं गेहं ॥ १३५ ॥
गोल कोनेवाला या एक, दो, तीन कोनेवाला तथा दक्षिण और बांयी ओर लंबा, ऐसे घर में कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १३५ ॥
सयमेव जे किवाडा पिहियंति य उग्घडंति ते असुहा । चित्तकलसाइसोहा सविसेसा मूलदारि सुहा ॥ १३६ ॥
जिस घर के किवाड़ स्वयमेव बंध हो जाय या खुल जाय तो ये अशुभ समझना चाहिये । घर का मुख्य द्वार कलश आदि के चित्रों से सुशोभित हो तो बहुत शुभकारक है ॥ १३६ ॥
छत्तिंतरि भित्तिरि मग्गंतरि दोस जे न ते दोसा । साल-श्रोवरय-कुक्खी पिट्टि दुवारेहिं बहुदोसा ॥ १३७॥
ऊपर जो वेध आदि दोष बतलाये हैं, उनमें यदि छत का, दीवार का या मार्ग का अन्तर हो तो वे दोष नहीं माने जाते हैं। शाला और ओरडा की कुक्षी (बगल भाग) यदि द्वार के पिछले भाग में हो तो बहुत दोषकारक है ॥ १३७ ॥
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