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________________ प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त (२०५) का बल सौ गुणा है, चंद्रमा से लग्न का बल हजार गुणा है और लग्न से होरा आदि पवर्ग का बल उत्तरोत्तर पांच २ गुणा अधिक बलवान् है। होरा और द्रेष्काण का स्वरूप होरा राश्यर्द्धमोजऽर्केन्द्रोरिन्धर्कयोः समे । द्रेष्काणा भे त्रयस्तु स्व-पञ्चम-त्रित्रिकोणपाः ॥ ७५ ॥ राशि के अर्द्ध भाग को होरा कहते हैं, इसलिये प्रत्येक राशि में दो दो हारो हैं। मेष आदि विषम राशि में प्रथम होरा रवि की और दूसरी चंद्रमा की है। वृष आदि सम राशि में प्रथम होरा चंद्रमा की और दूसरी होरा सूर्य की है। प्रत्येक राशि में तीन२ द्रेष्काण हैं, उनमें जो अपनी राशि का स्वामी है वह प्रथम द्रेष्काण का स्वामी है। अपनी राशि से पांचवी राशि का जो स्वामी है वह दूसरे द्रेष्काण का स्वामी है और अपनी राशि से नववीं राशि का जो स्वामी है वह तीसरे द्रेष्काण का स्वामी है ॥ ७५॥ नवमांश का स्वरूप नांशाः स्युरजादीना-मजेणतुलकर्कतः । वर्गोत्तमाश्चरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ ७६ ॥ प्रत्येक राशि में नव२ नवमांश हैं। मेष राशि में प्रथम नवमांश मेष का, दसरा वृष का, तीसरा मिथुन का, चौथा कर्क का, पांचवां सिंह का, छट्ठा कन्या का, सातवां तुला का, आठवां वृश्चिक का और नवां धन का है। इसी प्रकार वृष राशि में प्रथम नवमांश मकर से, मिथुन राशि में प्रथम नवमांश तुला से, कर्कराशि में प्रथम नवमांश कर्क से गिनना । इसी प्रकार सिंह और धनराशि के नवमांश मेष की तरह, कन्या और मकर का नवमांश वृष की तरह, तुला और कुंभ का नवमांश मिथुन की तरह, वृश्चिक और मीन का नवमांश कर्क की तरह जानना। चर राशियों में प्रथम नवमांश वर्गोत्तम, स्थिर राशियों में पांचवाँ नवमांश और द्विस्वभाव राशियों में नववा नवमांश वर्गोत्तम है । अर्थात् सब राशियों में अपनार नवमांश वर्गोत्तम है ॥ ७६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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