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( १)
पास्तुसारे "मण्डपानुक्रमेणैव सपादांशेन साईवः।
द्विगुणा वायता कार्या स्वहस्तायतनविधिः ॥६॥" मण्डप के क्रम से सवाई डेढी या दुगुनी विस्तारवाली जगती करना चाहिये ।
"त्रिद्वकभ्रमंसयुक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका ।
उच्छायस्य त्रिभागेन भ्रमणीनां समुच्छयः ॥७॥" तीन भ्रमणीवाली ज्येष्ठा, दो भ्रमणीवाली मध्यमा और एक भ्रमणीवाली कनिष्ठा जगती जानना । जगती की ऊंचाई का तीन भाग करके प्रत्येक भाग भ्रमणी की ऊंचाई जानना ॥ ७॥
"चतुष्कोणैस्तथा सूर्य-कोणैर्विशतिकोणकैः ।
__ अष्ठाविंशति-पत्रिंशत्-कोणैः स्वस्य प्रमाणतः॥ ८॥" जगती चार कोनावाली, बारह कोनावाली, बीस कोनावाली, अट्ठाइस कोनावाली और छत्तीस कोनावाली करना अच्छा है ॥८॥
"प्रासादाद्वार्कहस्तान्ते व्यंशे द्वाविंशतिकरात् ।
द्वात्रिंशचतुर्थांशे भूतांशोच्च शतार्द्धके ॥ ६॥" बारह हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को प्रासाद के तीसरे भाग अर्थात् प्रत्येक हाथ ८ अंगुल, बाईस से बत्तीस हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को चौथे भाग अर्थात् प्रत्येक हाथ छः अंगुल और तेंतीस से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को पांचवें भाग जगती ऊंची बनाना चाहिए ॥ ४॥
"एक हस्ते करेणैव सार्द्धद्वयंशाश्चतुष्करे ।
सूर्यजैनशतान्तिं क्रमाद् द्वित्रियुगांशकैः ॥१०॥" एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को एक हाथ ऊंची जगती, दो से चार हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद को ढाईवें भाग, पांच से बारह हाथ तक के प्रासाद को इसरे भाग, तेरह से चौवीस हाथ के प्रासाद को तीसरे भाग और पचीस से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को चौथे माग जगती ऊंची करना चाहिये ॥१०॥
"तदुच्छ्राय मजेत् प्राज्ञः त्वष्टाविंशतिभिः पदैः। त्रिपदो जाड्यभस्य द्विपदं कर्णिकं तथा ॥११॥ पनपत्रममायुक्ता त्रिपदा सरपत्रिका । द्विपदं खुरकं कुर्यात् सप्तभागं च कुंभकम् ॥ १२ ॥
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