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प्रासाद प्रकरणम्
( १३१) प्रासादमण्डन में जगती का स्वरूप विशेषरूप से कहा है कि
"प्रासादानामधिष्ठानं जगती सा निगद्यते ।
यथा सिंहासनं राज्ञां प्रासादानां तथैव च ॥ १॥"
प्रासाद जिस भूमि में किया जाय उस समस्त भूमि को जगती कहते हैं। अर्थात् मंदिर के निमित्त जो भूमि है उस समस्त भूमि भाग को जगती कहते हैं । जैसे राजा का सिंहासन रखने के लिये अमुक भूमि भाग अलग रखा जाता है, वैसे प्रासाद की भूमि समझना ॥१॥
"चतुरस्रायतेऽष्टासा वृत्ता वृत्तायता तथा ।
जगती पञ्चधा प्रोक्ता प्रासादस्यानुरूपतः ॥ २॥" समचौरस, लंबचौरस, आठ कोनेवाली, गोल और लंबगोल, ये पांच प्रकार की जगती प्रासाद के रूप सदृश होती है। जैसे-समचौरस प्रासाद को समचौरस जगती, लंगचौरस प्रासाद को लंबचौरस जगती इसी प्रकार समझना ॥ २ ॥
"प्रासादपृथुमानाच्च त्रिगुणा च चतुर्गुणा ।
क्रमात् पञ्चगुणा प्रोकना ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका ।। ३॥" प्रासाद के विस्तार में जगनी तीन गुणी, चार गुणी या पांच गुणी करना । त्रिगुणी कनिष्ठमान, चतुगुणी मध्यममान और पांच गुणी जेष्ठमान की जगती है ।। ३ ।।
"कनिष्ठे कनिष्ठा ज्येष्ठे ज्येष्ठा मध्यमे मध्यमा ।
प्रासादे जगती कार्या स्वरूपा लक्षणान्विता ॥ ४॥" कनिष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठमान जगती, ज्येष्ठमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान जगती और मध्यमान प्रासाद में मध्यममान जगती। प्रासाद के स्वरूप जैसी जगती करना चाहिये ॥४॥
"रससप्तगुणाख्याता जिने पर्यायसंस्थिते ।
द्वारिकायां च कर्तव्या तथैव पुरुषत्रये ॥ ५॥" च्यवन, जन्म, दीचा, केवल और मोक्ष के स्वरूपवाले देवकुलिका युक्त जिनप्रासाद में छ. या सात गुणी जगती करना चाहिये । उसी प्रकार द्वारिका प्रासाद और त्रिपुरुष प्रासाद में भी जानना ।। ५॥
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