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________________ ( १३०) वास्तुसारे गर्भगृह में देवों की स्थापना गब्भगिहड्ढ-पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए । जिणकिराहरवी तइए बंभु चउत्थे सिवं पणगे ॥ ४५ ॥ प्रासाद के गर्भगृह के आधे का पांच भाग करना, उनमें प्रथम भाग में यक्ष, दूसरे भाग में देवी, तीसरे भाग में जिन, कृष्ण और सूर्य, चौथे भाग में ब्रह्मा और पांचवें भाग में शिव की मूर्ति स्थापित करना चाहिये ।। ४५ ।। नहु गम्भे ठाविज्जइ लिंगं गम्भे चइज्ज नो कहवि । तिलश्रद्धं तिलमित्तं ईसाणे किंपि आसरिओ॥४६॥ महादेव का लिंग प्रासाद के गर्भ (मध्य) में स्थापित नहीं करना चाहिये । यदि गर्भ भाग को छोड़ना न चाहें तो गर्भ से तिल आधा तिलमात्र भी ईशानकोण में हटाकर रखना चाहिये ॥ ४६ ॥ भित्तिसंलग्गबिंब उत्तमपुरिसं च सव्वहा असुहं । चित्तमयं नागायं हवंति एए 'सहावेण ॥ ४७ ॥ दीवार के साथ लगा हुआ ऐसा देवबिंब और उत्तम पुरुष की मूर्ति सर्वथा अशुभ मानी है। किन्तु चित्रमय नाग मादि देव तो स्वाभाविक लगे हुए रहते हैं, उसका दोष नहीं ॥ ४७ ॥ जगती का स्वरूप जगई पासायंतरि रसगुणा पच्छा नवगुणा पुरओ। दाहिण-वामे तिउणा इअ भणियं खित्तमझायं ॥ ४८ ॥ जगती (मंदिर की मर्यादित भूमि) और मध्य प्रासाद का अंतर पिछले भाग में प्रासाद के विस्तार से छः गुणा, आगे नव गुणा, दाहिनी और बायीं ओर तीन २ गुणा होना चाहिये । यह क्षेत्र की मर्यादा है।॥४८॥ . 'समासेय' इति पाठान्तरे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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