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पास्तुसार
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है॥६॥ दीमक वाली व्याधि कारक है, खारी भूमि निर्धन कारक है, बहुत फटी हुई भूमि मृत्यु करने वाली और शल्य वाली भूमि दुःख करने वाली है ॥ १०॥ समरांगणसूत्रधार में प्रशस्त भूमि का लक्षण इस प्रकार कहा है कि
"धर्मागमे हिमस्पर्शा या स्यादुष्णा हिमागमे ।
प्रावृष्युष्णा हिमस्पर्शा सा प्रशस्ता वसुन्धरा ॥" ग्रीष्म ऋतु में ठंढी, ठंढी ऋतु में गरम और चौमासे में गरम और ठंढी जो भूमि रहती हो वह प्रशंसनीय है।
बृहत्संहिता में कहा है कि"शस्तौषधिद्रुमलता मधुरा सुगंधा,
* स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम् । अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागताना,
धत्ते श्रियं किमुत शास्वतमन्दिरेषु ॥" जो भूमि अनेक प्रकार के प्रशंसनीय औषधि वृक्ष और लताओं से सुशोभित हो तथा मधुर स्वाद वाली, अच्छी सुगन्ध वाली, चिकनी, बिना खड़े वाली हो ऐसी भूमि मार्ग में परिश्रम को शांत करने वाले मनुष्यों को आनन्द देती है ऐसी भूमि पर अच्छा मकान बनवाकर क्यों न रहे । वास्तुशास्त्र में कहा है कि
"मनसश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भूवि ।
तस्यां कार्य गृहं सर्वै-रिति गर्गादिसम्मतम् ॥" जिस भूमि के पर मन और आंख का सन्तोष हो अर्थात् जिस भूमि को देखने से उत्साह बढ़े उस भूमि पर घर करना ऐसा गर्ग आदि ऋषियों का मत है । शल्य सोधन विधि
बकचतएहसपज्जा इय नव वराणा कमेण लिहियव्वा । पुवाइदिसासु तहा भूमि काऊण नव भाए ॥११॥
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