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________________ - - प्रासाद प्रकरणम् ( १२२) समरांगणसूत्रधार में कहा है कि "शुकनासोच्छ्रितरूज़ न कार्या मण्डपोच्छ्रितिः।" शुकनास की ऊंचाई से मंडप की ऊंचाई अधिक नहीं करना चाहिये, किन्तु बराबर या नीची करना चाहिये । प्रासादमण्डन में भी कहा है कि "शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका ।" शुकनास के बराबर मडंप का कलश करना, या नीचा करना अच्छा है, परन्तु ऊंचा रखना अच्छा नहीं । मंदिर में लकड़ी कैसी वापरना सुहयं इग दारुमयं पासायं कलस-दंड-मकडिग्रं । सुहकह सुदिट्ट कीरं सीसिमखयरंजणं महुवं ॥३१॥ ... प्रासाद ( मन्दिर ), कलश, ध्वजादंड और ध्वजादंड की पाटली ये सब एक ही जात की लकड़ी के बनायें जाय तो सुखकारक होते हैं। साग, केगर, शीसम खेर, अंजन और महुआ इन वृक्षों की लकड़ी प्रासादिक बनाने के लिये शुभ मानी है ॥ ३१ ॥ नीरतलदलविभत्ती भद्दविणा चउरसं च पासायं । फंसायारं सिहरं करंति जे ते न नंदति ॥३२॥ पानी के तल तक जिस प्रासाद का खात खोदा हो, ऐसा समचौरस प्रासाद यदि मद्र रहित हो, तथा फांसी के आकार के शिखरवाला हो, ऐमा मन्दिर जो मनुष्य करावे वह मनुष्य सुखपूर्वक आनन्द में नहीं रहता ।। ३२ ॥ कनकपुरुष का मान श्रद्धंगुलाइ कमसो पायंगुलवुढिकणयपुरिसो । कीरइ धुव पासाए इगहत्थाई खवाणंते ॥ ३३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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