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वास्तुसारे बहत्तर जिनालय का क्रम
पणवीसं पणवीसं दाहिण-वामेसु पिठि इक्कारं ।
दह अग्गे नायव्वं इअ बाहत्तरि जिणिदालं ॥ ६० ॥ . मध्य मुख्य प्रासाद के दाहिनी और बायीं तरफ पच्चीस पच्चीस, पिछाडी ग्यारह, आगे दस और एक बीच में मुख्य प्रासाद, एवं कुल बहत्तर जिनालय जानना ॥६०॥ शिखरबद्ध लकड़ी के प्रासाद का फल
अंग विभूसण सहिअं पासायं सिहरबद्ध कट्ठमयं । नहु गेहे पूइज्जइ न धरिज्जइ किंतु जत्तु वरं ॥ ६१ ॥
कोना, प्रतिरथ और भद्र आदि अंगवाला, तथा तिलक तवंगादि विभूषण वाला शिखरबद्ध लकड़ी का प्रासाद घर में नहीं पूजना चाहिये और रखना भी नहीं चाहिये । किन्तु तीर्थ यात्रा में साथ हो तो दोष नहीं ।। ६१॥
जत्त कए पुणु पच्छा ठविज्ज रहसाल अहव सुरभवणे । जेण पुणो तस्सरिसो करेइ जिणजत्तवरसंघो ॥ ६२ ॥ तीर्थ यात्रा से वापिस आकर शिखरबद्ध लकड़ी के प्रासाद को रथशाला या देवमन्दिर में रख देना चाहिये कि फिर कभी उसके जैसा जिन यात्रा संघ निकालने में काम आवे ॥ ६२॥ गृहमन्दिर का वर्णन
गिहदेवालं कीरइ दारुमयविमाणपुष्फयं नाम । उववीढ पीठ फरिसं जहुत्त चउरंस तस्सुवरि ॥६३ ॥
पुष्पक विमान के आकार सदृश लकड़ी का घर मंदिर करना चाहिये। उपपीठ, पीठ और उसके ऊपर समचौरस फरश आदि जैसा पहले कहा है वैसा करना ॥६३॥
चउ थंभ चउ दुवारं चउ तोरण चउ दिसेहिं छज्जउडं । - पंच कणवीरसिहरं एग दु ति बारेगसिहरं वा ॥ ६४ ॥
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