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________________ पास्तुलारे कच्चे तेंदुफल, कच्चे कैथफल, सेमल के पुष्प, शालवृक्ष के बीज धामनवृक्ष की छाल, और बच इन औषधों को बगवर लेकर एक द्रोण भर पानी में अर्थात २५६ पल-१०२४ तोला पानी में डाल कर क्वाथ बनावें । जब पानी आठवां भाग रह जाय, तब नीचे उतार कर उसमें श्रीवासक ( सरो) वृक्ष का गोंद, हीराबोल, गुग्गुल, भीलवा, देवदारु का गोंद ( कुंदुरु), राल, अलसी और बेलफल, इन बरावर औषधों का चूर्ण डाल देने से वज्रलेप तैयार होता है । वत्रलेप का गुण प्रासादहयंवलभी-लिङ्गप्रतिमासु कुज्यकूपेषु । सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्रायुतस्थायी ॥४॥ प्रासादो देवप्रासादः । हर्म्यम् । बलमी वातायनम् । लिङ्गं शिवलिङ्गम् । प्रतिमार्चा । एतासु तथा कुड्येषु भित्तिषु । कूपेषूदकोद्गारेषु । सन्तप्तोऽत्युप्णो दातव्यो देयः। वर्षसहस्रायुतस्थायी भवति । वर्षाणां सहस्रायुतं वर्षकोटिं तिष्ठतीत्यर्थः ॥४॥ उक्त वज्रलेप देवमंदिर, मकान, बरमदा, शिवलिंग, प्रतिमा ( मूर्ति ), दीवार और कूआँ इत्यादि ठिकाने बहुत गरम २ लगाने से उन मकान आदि की करोड़ वर्ष की स्थिति रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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