Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम तुलसी शब्द-कोश राम राम राम, राम राम राम www.kobatirth.org राम राम राम राम Po mns Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राम राम राम राम राम For Private and Personal Use Only राम आचार्य बच्चूलाल अवस्थी राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम रा म म म म म राम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश द्वितीय भाग प्राचार्य बच्चलाल अवस्थी 'ज्ञान' आचार्य कुलोपाध्याय, कालिदास अकादमी उज्जैन (म०प्र०) बुक्स एन बुक्स दिल्ली-110009 For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra © लेखक प्रथम संस्करण 1991 प्रकाशक : बुक्स एन' बुक्स 77, टैगोर पार्क fact-110009 मुद्रक : संगीता प्रिंटस भोजपुर, दिल्ली- 53 www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंख : पंख । गी० २.६.४ पवारो : सं००कए० । कीतिकथा, वीरगाथा । 'अजहूं जग जागत जासु पँवारो।' कवि० ६.३८ प: (समासान्त में) वि०पू० (सं०) । पालनकर्ता । 'लोकप ।' कवि० ७.२६ अहिप, महिम, नृप आदि । पंक : सं०० (सं.)। कीचड़ । मा० २.१४६ पंकज : सं०० (सं.)। कमल । मा० १.१७.४ पंकजराग : पदुमराग । मणिविशेष-(दे० नवरत्न) । गी० १.२६.५ पंकजे : पंकज+अधिकरण (सं.)। कमल में । विन० १०.६ पंकरुह : सं०० (सं०) । पङक में उगने-बढ़ने वाला=कमल । मा० १.१४३ पंख : सं०० (सं० पक्ष>प्रा० पक्ख) । डैने आदि । मा० ३.२६.२२ पंखन्ह : पंख+ संब० । पंखों (के)। 'बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ।' मा० १.७८.६ पंगति : पाति । 'बर दंत की पंगति कुंद कली।' कवि० १.५ पंगु : (१) वि० (सं०) । खंज, लँगड़ा। मा० १.०.१ (२) गतिहीन, निष्क्रिय । ___कबि भारति पंगु भई ।' कवि० १.७ पंच : संख्या (सं०)। (१) पाँच। 'मुख पंच पुरारी।' मा० १.२२०.७ (२) पञ्चजन, प्रभावशाली लोग, विविध वर्गों के मुख्य जन, जनता, सब लोग । 'पंच कहें सिवं सती बिबाही ।' मा० १.७६.८ (३) महाभूत । 'पंच रचित यह अधम सरीरा।' मा० ४.११.४ (४) पांच सूक्ष्म भूतों के पञ्चीकरण से स्थूलभूतों की सष्टि को प्रपञ्च कहते हैं जिसकी व्यञ्जना के साथ द्वयर्थक प्रयोग भी द्रष्टव्य है । 'रचहु प्रपंचहि पंच मिलि ।' मा० २.२६४ पंचकवल : भोजन के आरम्भ में वे पाँच ग्रास जो पाँच मन्त्रों के साथ लिये जाते हैं - प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा । 'पंच कवल करि जेवन लागे ।' मा० १.३२६.१ पंचकोस : पाँच कोस के विस्तार में बसा हुआ काशी क्षेत्र=पञ्चक्रोशी। कवि० ७.१७२ पंच-कोसि : संस्त्री० (सं० पञ्चक्रोशी>प्रा० पंचक्कोसी)। काशी क्षेत्र जो पांच कोसों में बसा है। विन० २२.५ पंचग्रह : मंगल, बुध, गुरु, शक्र और शनि । दो० ३६७ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 552 तुलसी शब्द-कोश पंचदस, सा : (सं० पञ्चदश>प्रा० पंचदस) (१) पन्द्रह । 'नयन पंचदस अति प्रिय लागे ।' मा० १.३१७.२ (२) पांच या दस । 'लघु जीवन संबतु पंचदसा ।' मा० ७.१०२.४ पंचधुनि : पाँच प्रकार की ध्वनियां-वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शङ्खध्वनि और हुलहुलुध्वनि=स्त्रियों (आदि) का कलख । मा० १.३१६.३ इन्हें गोस्वामी जी ने परिगणित भी किया है। 'जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान ।' मा० १.३२४ पंचनदा : पंचगंगा नामक काशी का तीर्थ । विन० २२.७ पंचवटी : पञ्चवटी में । 'पंचबटी बसि श्री रघुनायक ।' मा० ३.२१.४ पंचवटी : सं०स्त्री० (सं० पञ्चानां वटानां समाहार:=पञ्चवटी) । (१) बरगद, पीपल, आमला, अशोक और बिल्व वृक्षों का झुरमुट । (२) दण्डकारण्य का प्रसिद्ध स्थान विशेष । मा० ३.१३.१५ पंचबान : सं०० (सं० पञ्चबाण) । (कमल, अशोक, आम्र, नवमल्लिका=बेला और नीलकमल के पांच पुष्पों के बाणों वाला) = कामदेव । विन० १४.८ पंचबीस : संख्या (सं० पञ्चविंशति) । पच्चीस । मा० ७.१३.५ पंचभूत : पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । मा० ४.११.४ पंचम : संख्या (सं०) । पाँचवाँ । मा० ३.३६.१ पंचमुख : पाँच मुखों वाला=शिवजी। हनु० ३ पंचसत : पाँच सौ (संख्या) । गी० ७.२५.१ पंचसबद : पाँच प्रकार के वाद्यों की ध्वनि (तन्त्री वाद्य-वीणा आदि+तालवाद्य = मृदङ्ग आदि+आहत वाद्य = दुन्दुभि आदि+सुषिर वाद्य वंशी आदि और झाँझ)। मा० १.३१६.३ पंचाच्छरी : सं०स्त्री० (सं० पञ्चानाम् अक्षराणां समाहार:= पञ्चाक्षरी)। 'नमः शिवाय' मन्त्र (जिसमें पांच अक्षर हैं) । विन० २२.७ पंचानन : सं०० (सं०-पञ्चं विस्तृतम् आननं यस्य सः= पञ्चाननः)। (फैले मुख वाला) सिंह । 'रहहिं एक सँग गज पंचानन ।' मा० ७.२३.१ पंछी : सं०पू० (सं० पक्षिन्) । चिड़िया । गी० २.६७.३ पंजर : सं०० (सं.)। पिंजड़ा, घेरा । 'माया बल कीन्हेसि सर पंजर ।' मा० पंडित : सं०+वि० (सं.)। (१) ज्ञानी, विवेकी। पंडित मूढ़ मलीन उजागर । मा० १.२८.६ (२) परम तत्त्व का ज्ञाता । 'तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता।' मा० १.१४३.२ (३) विशेषज्ञ । 'सब गुनग्य सब पंडित ग्यानी ।' मा० ७.२१.८ (४) कुशल, दक्ष । 'खर दूषन बिराध बध पंडित ।' मा० ७.५१.५ (५) विद्वान, सुशिक्षित । 'जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं ।' कवि० ७.११६ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 553 पंडू : पांडु । कवि० ७.१३१ पंथ : सं०० (सं० पथिन् >प्रा० पंथ)। (१) मार्ग । 'बीचहिं पंथ मिले दनुजारी।' मा० १.१३६.४ (२) सिद्धान्त, प्रस्थान । 'पयान पंथ कृपान के धारा।' मा० ७.११६.१ (३) सम्प्रदाय, मतवाद । 'कल्पहिं पंथ अनेक ।' मा० ७.१०० ख (४) साधन, उपाय । 'संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ ।' मा० ७.३३ (५) यातना, गति (मार्ग)। 'भव पंथ भ्रमत ।' मा० ७.१३.२ (६) आचरण पद्धति (मार्ग) । 'हठि पंथ सबके लाग ।' मा० ६.११३.४ पंथकथा : मार्ग का वृत्तान्त । मा० १.४२.४ पंह : मार्ग में । 'हठि सबही के पंथहिं लागा।' मा० १.१८२.११ (राह लगना मुहावरा है जो पथिकों को लूटने का अर्थ देता है।) पंथाना : पंथ+ब० (सं० पन्थान:) । मार्ग। 'रघुपति भगति केर पंथाना ।' मा० ७.१२६.३ पंथि, पंथी : पथिक (सं० पान्थ) । 'मग पंथी तन ऊख ।' दो० ३१० पंथ : पंथ+कए. 'आगम पंथु गिरि कानन ।' मा० २.११२.६ पंनग : पन्नग । सर्प । मा० १.३१.६ पंपा : सं०स्त्री० (सं.)। दण्डकारण्य का एक सरोवर । मा० ३.३६.११ पद : अव्यय (सं० प्रति>प्रा० पइ) । पर, बाद, केवल । 'काटेहिं पइ कदरी फरइ... डाटेहिं पइ नवनीच ।' मा० ५.५८ पइज : सं०स्त्री० (सं० प्रतिज्ञा>प्रा० पइज्जा>अ० पइज्ज)। संकल्प, पण, व्रत। ___'अब करि पइज पंच मह जो पन त्याग ।' जा०म० ७० पइठि : पूकृ० । पैठ कर, प्रवेश करके । 'बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।' मा० ५.२.११ पइसार : सं०पु० (सं० प्रतिसार>प्रा० पइसार) । प्रवेश, अभियान । 'नगर करौं पइसार।' मा० ५.३ पउ : सं०पु०कए० (सं० पदम्>प्रा० पयं>अ० पउ) । स्थान, स्थिति, अवस्था । 'फिरी अपन पउ पितु बस जाने ।' मा० १.२३४.८ पकए : भूकृ००ब० । पकाये हुए । दो० ५१० /पकर पकरइ : (सं० प्रकडति–कड मदे ?>प्रा० पकडइ) आ०प्रए । पकड़ता है, दृढ़ता से ग्रहण करता है। 'अस्थि पुरातन छधि स्वान अति ज्यों मुख भरि पकरै ।' विन० ६२.४ परि : पू० । पकड़ कर । 'पट पकरि उठायो हाथ ।' दो० १६८ पकवाना : सं०० (सं० पक्वान्न) । तल कर बनाया हुआ भोज्य पदार्थ ।' मा० १.३३३.४ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 554 तुलसी शब्द-कोश पकवाने : पकवाना+ब० । भाँति अनेक परे पकवाने ।' मा० १.३२६.२ पक्षकर्ता : वि० (सं.) । पक्षधर । विन० ५०.४ पख : पाख । गी० १.२.२ पखवारा : सं०० (सं० पक्षवारक>प्रा० पक्खवारअ)। पन्द्रह दिनों का समय । परिखेहु मोहि एक पखवारा ।' मा० ४.६.६ पखाउज : सं०० (सं० पक्षातोद्य >प्रा० पक्खाउज्ज)। पखावज नाम का वाद्य विशेष । मा० ६.१०.६ पखारत : वकृ.पु. (सं० प्रक्षालयत् >प्रा० पक्खालंत) । पखारता-ते; धोता धोते । 'ते पद पखारत भाग्य भाजनु जनकु।' मा० १.३२४ छं० २ पखारन : भकृ० अव्यय (सं० प्रक्षालयितुम् >प्रा० पक्खालिउ>अ० पक्खालण)। पखारने, धोने । 'चरन सरोज पखारन लागा ।' मा० २.१०१.७ पखारि: प्रकृ० । प्रक्षालन करके । 'चरन पखारि पलँग बैठाए।' मा० ४.२०.५ पखारिहौं : आ०भ० उए० (सं० प्रक्षालयिष्यामि>प्रा० पक्खालिहिमि>म० पक्खालिहिउँ) । पखारूँगा, धो लूंगा। 'जब लगि न पाय पखारिहौं ।' मा० २.१०० छं० पखारू : आ०-आज्ञा-मए । तू प्रक्षालन कर। 'बेगि आनु जल पाय पखारू ।' मा० २.१०१.२ पखारें : प्रक्षालन से, धोने पर । 'तुलसी पहिरिअ सो बसन जो न पखारें फीक ।' दो० ४६६ पखारे : (१) भूकृ०पू०ब० (सं० प्रक्षालित>प्रा० पक्खालिय)। धोये । 'लछिमन सादर चरन पखारे ।' मा० ३.४१.११ (२) पखारें। पखार कर । 'तन पावन करिअ पखारे।' विन० ११५.४ । पग : (१) सं०० (सं० पद)। 'नहिं परसति पग पानि ।' मा० १.२६५ (२) (सं० पदाग्र>प्रा० पअग्ग) पैरों का अग्र भाग । 'लागि सासु पग कह कर जोरी ।' मा० २.६४.५ (३) (सं० पदक>प्रा० पइग)। पैरों की दूरी को नाप = डग । 'सब हमार प्रभु पग पग जोहा ।' मा० २.१३६.६ पगतर : पैरों के नीचे । 'पगतर छाँह ।' दो० ६६ पगतरी : संस्त्री० (पग+सं० तला=चर्मपट्ट) । जूती, पनही । 'ताके पग की पगतरी मेरे तन को चाम ।' वैरा० ३७ पगनि : पग+संब० । (१) पैरों (से)। 'पाछिले पनि गम् गगन ।' हनु० ४ (२) चरणों में । 'नाइ माथो पगनि ।' कवि० ५.२६ पगाई : भूकृ०स्त्री० । पागी (जैसे पाग में खाद्य वस्तुओं को) ओत-प्रोत की। गनिकों कबहीं मति पेम पगाई।' कवि० ७.६३ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 555 पगार : सं०० (सं० प्राकार>प्रा० पागार) । घेरा (चारदीवारी)। 'पवरि पगार प्रति बानरु बिलोकिए ।' कवि० ५.१७ (२) रक्ष क, शरण । 'बाह पगार ।' हनु० ३६ पगारु : (१) पगार+कए । एकमात्र आश्रय । कवि० ७.१६ (२) घेरा, रक्षाभित्ति । 'अगारु न पगारु न बजारु बच्यो।' कवि० ५.२३ पगि : पूकृ० । चासनी में पग कर, शर्करा द्रव से ओतप्रोत होकर । 'आखर अरथ मंज़ मदु मोदक राम प्रेम पगि पागिहै।' विन० २२४.३ पगिया : सं०स्त्री० । सिर पर बांधा जाने वाला वस्त्रविशेष-साफा । 'सिर पगिया जरकसी।' गी०१.४४.१ पग : पग+कए । एक डग, एक चरण, एक पदन्यास । 'रंगभूमि जब सिय पगु धारी।' मा० १.२४८४ पघिलाइ : पूकृ० (सं० प्रघार्य) । पिघलाकर, द्रवरूप करके । 'लंक पघिलाइ पाग पागिहै ।' कवि० ५.१४ । पचत : वकृ००। (१) (सं० पचत्>प्रा० पच्चत) । पकाता-पकाते । (२) (सं० पच्यमान>प्रा० पच्चंत)। कष्ट उठाता-ते, पकता-ते। पेट ही को पचत, बचत बेटा बेटकी।' कवि० ७.६६ 'तुलसी बिकल पाहि पचत कुपीर हौं।' कवि० ७.१६६ /पचव पचवइ : (सं० पाचयति>प्रा० पच्चवइ) आ०प्रए० । पचाता है, उदर में परिपाक देता है । जिमि सो असन पचवै जठरागी।' मा० १.११६.६ पहिं : आ०प्रब० । पकाते हैं (क्लेशरूप फल भोगते हैं)। 'परिनाम पहिं पातकी पाप ।' गी० ५.१६.७ पचा : भूकृ००। पच मरा, क्लेश में पड़कर खप गया। 'हारि निसाचर सैनु पचा।' कवि० ६.१५ /पचार पचारइ : (सं० प्रचारयति ?>प्रा० पच्चारइ= उपालभते) आ०प्रए । ललकारता है । 'बार बार पचार हनुमाना।' मा० ६.५१.४ । पचारहि, हीं : आ०प्रब० । ललकारते हैं । 'एक एक सन भिरहिं पचारहिं ।' मा० ६.८१.४ पचारि : पूकृ० । ललकार कर । भिरहिं पचारि पचारि ।' मा० ६.४२ पचारी : पचारि । 'पुनि रावन कपि हते उ पचारी।' मा० ६.६५.४ पचारे : भूकृ००ब० । ललकारे । 'तब रघुबीर पचारे धाए कीस पचंड ।' मा० पचार : (१)/पचारइ । ललकारे, ललकारता है । 'जौं रन हमहि पचार कोऊ।' मा० १.२८४.२ (२) भकृ० अव्यय । ललकारने । 'लागेसि अधम पचारै मोही।' मा० ६.७४.५ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 556 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश पचास : संख्या (सं० पञ्चाशत् > प्रा० पंचास) । पचासक : (पचास + एक ) लगभग पचास । 'सुनि मन मुदित पचासक आए ।' मा० २.१०६.३ पचि : : पूकृ० । पक कर, क्लेश उठा कर, कष्टपूर्वक प्रयास करके । 'कोटि जतन पचि पचि मरिअ ।' मा० ७.८६ ख पचीस : संख्या (सं० पञ्चविंशति > प्रा० पंचवीसा = पंचईसा) । मा० १.३३३.६ पच्छ : सं०पु ं० (सं० पक्ष) । (१) पाख मास का अर्धभाग = शुक्लपक्ष या कृष्ण पक्ष । 'सुकुल पच्छ अभिजित हरि प्रीता । मा० १.१६१.१ ( २ ) प्रस्थान, दर्शन, सम्प्रदाय । 'भगति पच्छ हठ नहि सठताई ।' मा० ७.४६.८ (३) पंख । 'सिर के कि पच्छ बिलोल कुंडल ।' कृ० २३ ( ४ ) दल की मान्यता, स्थिति 1 'रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा । मा० ५.४१.३ (५) तर्क में स्वपक्ष और विपक्ष के साथ पक्ष वह वस्तु है जिसमें साध्य और साधन की एकत्र स्थिति रहती है । 'पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा ।' मा० ७.११२.१२-१५ पच्छजुत : (१) पंखों से युक्त ( २ ) प्रेरणापूर्ण पक्षपात (प्रोत्साहन से युक्त ) । 'भए पच्छजुत मनहुं गिरिदा । मा० ५.३५.३ पच्छधर : वि० (सं० पक्षधर ) । पक्ष लेने वाला, अनुकूल, पक्षपाती सहायक | 'हरि भए पच्छधर ।' दो० १०७ पच्छ्पात : सं०पु० (सं० पक्षपात) । (१) अपने मत आदि का समर्थन ( २ ) आत्मीय आदि के लिए (तर्क छोड़कर भी) समर्थन का भाव । ' इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ ।' मा० ७.११६.१ पच्छ पातु: पच्छ्पात + कए । 'नाहीं कछु पच्छपातु ।' कवि० ७.२३ पच्छहीन : पंखों से रहित । पच्छहीन मंदर गिरि जैसा । मा० ६.७०.११ पच्छिउ : पक्षी भी । 'हित अनहित पसु-पच्छिउ जाना ।' मा० २.२६४.४ पच्छिम : सं० स्त्री० (सं० पश्चिमा > प्रा० पच्छिमा ) । सूर्यास्त की दिशा । मा० ७.७३.४ पच्छी: सं०पु० (सं० पक्षिन्) । (१) चिड़िया । मा० १.८५.४ (२) पक्षपाती, स्वमत का आग्रही । 'सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला । सपदि होहि पच्छी चंडाला ।' मा० ७.११२.१५ ( यहाँ प्रथम अर्थ के साथ द्वितीय भी है) For Private and Personal Use Only पच्छु : पच्छ+कए० । एकमात्र पक्ष, सहारा । 'गारो भयो पंच में पुनीत पच्छु पाइ के ।' कवि० ७.६१ पछारोह : आ०प्रब० । पटकते हैं, पटक कर आक्रान्त करते हैं । ' मारहि काहि धरहिं पछारहिं ।' मा० ६.८१.५ पछार : आ०म० । पटक दो । 'पद गहि धरनि पछारहु कीसा ।' मा० ६.३४.१० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 557 पछारा : भूक०० । पटक दिया। सिर लंगूर लपेटि पछारा।' मा० ६.५८.५ पछारि : पू० । पटक कर । 'महि पछारि निज बल देखरायो।'मा० ६.७४.८ पछारु : आ०-आज्ञा-मए । तू पटक दे। 'धरु मारु काटु पछारु ।' मा० ६.८१ छं० २ पछारे : भूक ०पू० ब० । पटक डाले । 'मारे पछारे उर बिदारे ।' मा० ३.२० छं. २ पछारेसि : आ०-भूकृ००+प्रए । उसने पटका-पटके । 'पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि ।' मा० ६.६५.६ पछालि : पू० (सं० प्रक्षाल्य) पखारि । धो कर । रान० १५ /पछिता, पछिताइ : (सं० प्रायश्चित्त>प्रा० पच्छित्त) आ०प्रए० । पश्चात्ताप करता है, पछताता है । 'सो पर दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।' मा० ७.४७ पछिताइ : पू० । पछता कर । पछिताई : (१) पछिताइ । पछताता है। मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई ।' मा० २.१४४.७ (२) पछिताइ । पछता कर । मा० ७.११३.५ पछिताउँ, ऊ : आ० उए । पछताता-ती हूं। 'मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ ।' मा० २.५६.८ पछिताउ, ऊ : सं००कए० (सं० पश्चात्ताप:>प्रा० पच्छित्ताओ>अ० पच्छिताउ)। अनुताप, पछतावा । 'जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ ।' मा० २.४.५ पछितात : वकृ०० । पश्चात्ताप करता-करते । रा०प्र० ६.७.२ पछिताति, ती : वक०स्त्री० । पश्चात्ताप करती। मा० १.२७०.७; २.१२.१ पछिताना : (१) भूक०० । पछताया, पश्चाताप किया। पाछिल मोह समझि पछिताना ।' मा० ७ ६३.३ (२) भकृ० अव्यय । पछताने । पश्चात्ताप करने । 'सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ।' मा० १.११.७ पछितानि, नी : (१) सं०स्त्री० । पछताने की क्रिया। 'प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई ।' मा० २.१०.८ (२) भूक०स्त्री० । पछतायी। 'कुटिल रानि पछितानि अघाई ।' मा० २.२५२.५ 'करि कुचालि अंतहुं पछितानी।' मा० २.२०७.६ पछिताने : पछताने से । 'समय चुकें पुनि का पछितानें ।' मा० १.२६१.३ पछिताने : भूकृ.पु.ब० । पछताये । 'आठइ नयन जानि पछिताने ।' मा० १.३१७.४ पछिताब : भवि००० । पछताना (होगा, पड़ेगा)। 'भली भांति पछिताबा पिताहूं।' मा० १.६४.२ ।। पछिताय : पछितावा (प्रा० पछित्ताव =पच्छित्ताय) । होत परीछितहि पछिताय ।' विन० २२०.५ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 558 तुलसी शब्द-कोश पछिताये : पछितानें । 'अवसर बीते का पुनि के पछिताये ।' विन० २०१.५ पछितायो : पछिताय+कए। पश्चात्ताप । 'तब वैहै पछितायो।' गी० ६.४.३ पछितावा : सं०० (सं० पश्चात्ताप>प्रा० पच्छित्ताव) । अनुताप । 'जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा ।' मा० १.४६.२ पछिताहि, हीं : आ०प्रब० । पछताते हैं । 'धु नहिं सीस पछिताहिं ।' मा० २.६६ पछिताहु, हू : आ०मब० । पश्चात्ताप करो। पहहु सीतहि जनि पछिताहू।' मा० ४.२५.५ पछितैहसि : आ०भ०मए । तू पछतायगी। 'पुनि पछितहसि अंत अभागी।' मा० २.३६.८ पछितहहु : आ०भ०मब० । तुम पछताओगे-गी । 'ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितहहु ।' पा०म० ५६ पछितैहैं : आ०भ०प्रब० । पछतायेंगे-गी। 'बिकल जातुधानी पछित हैं ।' गी० ५.५१.२ पछितैहै : आ०भ० (१) प्रए । वह पछतायगा । (२) मए० तू पछतायगा। 'तौ तू पछितैहै मन मीजि हाथ ।' विन० ८४.१ पछितैहो : पछितहहु । कवि० ७.१०२ पछिले : 'पछिल' का रूपान्तर । (१) ए.। पिछले । 'पछिले पर भूप नित जागा।' मा० २.३८.१ (२) ब० । पिछले। 'पछिले बाढहिं ।' मा० ७.३१ पछोरन : सं.पु. (सं० प्रक्षोटन>प्रा० पच्छोडण)। सूप से अन्न को स्वच्छ करना । 'कह्यो है पछोरन छूछो।' कृ० ४३ पट : सं०० (सं.)। (१) वस्त्र । 'भूषन मनि पट नाना जाती।' मा० १.३४६.२ (२) परिधान । 'तन बिभूति पट केहरि छाला ।' मा० १.१२.२ (३) आवरण । 'एक टक रहे नयन पट रोकी ।' मा० १.१४८.५ (४) किवाड़। 'धवल धाम मनि पुरट पट ।' मा० १.२१३ (५) पर्दा या चिलमन । 'ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू ।' मा० १.२६६.७ (६) चिथड़ा, वस्त्रखण्ड । 'तेल बोरि पट बांधि ।' मा० ५.२४ (७) वह वस्तु जिस पर कलई की जाय । 'ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग । होहिं कु बस्तु सुबस्तु ।' मा० १.७ क (८) (सं० पट्ट) रेशम । 'पट पावड़े परहिं बिधि नाना ।' मा० १.३१६.३ /पटक, पटकइ : (सं० पटत्करोति>प्रा० पटक्कइ) आ०ए० । पटकता है, ध्वनिविशेष पूर्वक पछाड़ता है, धराशायी करता है । 'गहि पद महि पटकइ भट नाना।' मा० ६.९८.१४ पटकत : वकृ.पु । पटकता-ते, पटकते समय । ‘महि पटकत भजे भुजा मरोरी।' मा० ६.६८.६ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 559 पटकहि : आ०प्रब० । पटकते हैं । भागत भट पटकहिं धरि धरनी।' मा० ६.४७.७ पटकि : पूकृ० । पटक कर । 'जहँ तह पटक पटकि भट डारेसि ।' मा० ६.६५६ पटके : भूकृ००ब० । पछाड़ दिये, पटक डाले । 'पटके सब सूर सलीले।' कवि० ६.३२ पटकेउ : भूक०पु०कए । पटक दिया । 'गहि पद पटके उ भूमि भवाई ।' मा० पटक : पटकइ । कवि० ६.३६ पटौं : आउए । पछाड़ दूं', पटक देता-दे सकता हूं। 'पटकों मीच नीच मूषक ज्यों।' गी० ६.८.३ पटडोरि : सं०स्त्री० (सं० पट्ट-दोर)। रेशमी सूत्र । 'प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर . गुन-मनि । पा०म० १४८ । पटतर : सं० । उपमा, सादृश्य । 'सुरपति सदनु न पटतर पावा ।' मा० २.६०.७ पटतरिअ : आ०कवा०प्रए० । सदृश माना जाय, उपमा में लाया जाय । 'यह छबि सखा पटतरिअ जाही।' मा० १.२२०.८ पटतरौं : आ० उए । उपमा हूँ। 'केहि पटतरौं बिदेह कुमारी ।' मा० १.२३०.८ पटधारि : सं०+वि०० (सं० पट्टधारिन्) । (१) रेशमी वस्त्र धारण किये हुए। (२) जिसे राजा द्वारा पट्टा दिया गया हो, ऐसा सम्मान्य व्यक्ति । (३) वस्त्रागार का अधिकारी । 'बोलि सचिव सेवक सखा पटधारि भंडारी।' गी० १.६.२२ पटनि : पट+संब० । पट्ट वस्त्रों, रेशमी कपड़ों। 'मुनि-पट लूटक पटनि के।' कवि० २.१६ पटल : सं०पु० (सं०) । (१) आवरण, आच्छादन । ‘उघरे पटल पर सुधर मति के ।' मा० १.२८४.६ (२) भाग, अङ्ग । 'तिलक ललाट पटल दुतिकारी।' मा० १.१४७.४ (३) झिल्ली, झीना पर्दा, चकचौंधने वाला आवरण । 'तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं।' मा० ६.१०३ छं० २ (४) समूह, पुज+ आवरण । 'महामोह घन पटल प्रभंजन ।' मा० ६.११५.२ ।। पटली : सं०स्त्री० (सं.) । समूह+आवरण, श्रेणीबद्ध आच्छादन, पुञ्ज । 'चंचरीक पटली कर गाना।' मा० ३.४०.७ पटी : सं० स्त्री० (सं० पट्टी) । पटुली, किनारी। 'चारु पाटि पटी पुरट की।' गी० ७.१६.३ पटु : वि० (सं०) । (१) निपुण । 'पाप ताप तुहिन बिघटन पटु ।' हनु० । (२) कौशलपूर्ण, तर्क संगत, उचित । 'पट प्रश्न अनेका ।' मा० १.४१.२ (३) उपयुक्त, उत्तम। 'रघुपति पटु पालकी मगाई।' मा० २.३२०.४ (४) पट+कए० । एक वस्त्र । भूमि सयन पटु मोट पुराना ।' मा० २.२५.६ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 560 तुलसी शब्द-कोश पटुली : सं०स्त्री० (सं० पट्ट, पट्टी>प्रा० पटटुल्ली)। बैठकी, आसन-विशेष । गी० ७.१८.२ पटो : सं०पू०कए० (सं० पट्ट:>प्रा० पट्टो) । राजपट्ट, पट्टा, (मस्तक पर बांधा जाने वाला पट्ट) । 'घन धावन बगांति पटो सिर ।' कृ. ३२ (२) सम्पत्ति के दायाधिकार का पट्टा । 'बिधि के कर को जो पटो लिखि पायो।' कवि० ७.४५ पटोर : सं०० (सं० पटोल, पट्टोल) । रेशमी उत्तम वस्त्र । पटोरन्हि : पटोर+संब०। पटोरों (से) । 'हाट पटोरन्हि छाइ सकल तरु लाइन्हि।' पा०म० ८७ पटोरे : पटोर का रूपान्तर। (१) विविध रेशमी वस्त्र । 'कंबल बसन बिचित्र पटोरे ।' मा० १.३२६.३ (२) रेशम, रेशमी धागा। 'सिअनि सुहावनि टाट पटोरे।' मा० १.१४.११ पठंति : आ०प्रब० (सं० पठन्ति) । पढ़ते हैं । मा० ३.४ छं० पठइ : पू० (सं० प्रस्थाप्य>प्रा० पट्टविअ>अ० पट्टवि) । भेज कर । 'जहँ तह धावन पठइ पुनि मंगल दब्य मगाइ ।' मा० ७.१० ख । पठइअ : आ०कवा०प्रए० (सं० प्रस्थ्याप्यते>प्रा० प्रट्ठवीअइ)। भेजा जाता है, भेजा जाय । 'पठइअ काज नाथ असि नीती।' मा० २.६.६ पठइन्हि : आ०-भूक स्त्री०+प्रब० । उन्होंने भेजी । 'सुरसा पठइन्हि ।' मा० ५.२.२ पठइब : भूक०० (सं० प्रस्थापयितव्य>प्रा० पट्टविअन्व)। भेजना (होगा), (भेजा जायगा) । 'अवसि दूतु मैं पठइब प्राता ।' मा० २.३१.७ पठइहि : आ०भ०प्रए । भेजेगा । 'तासु खोज पठइहि प्रभु दूता।' मा० ४.२८.८ पठई : भूक स्त्री०ब० । भेजीं। 'पठई जनक अनेक सुसारा ।' मा० १.३३३.५ पठई : भूकृ०स्त्री० । भेजी। 'सो कही जो मोहन कहि पठई।' कृ. ३६ (२) (सहायक क्रिया के रूप में) । 'सीय तब पठई जनक बोलाइ ।' मा० १.२४६ (३) पठइअ । भेजा जाय । 'लंका रहइ सो पठइअ लेना।' मा० ६.५५.७ पठउ : आo-आज्ञा, प्रार्थना-मए । तू भेज । 'प्रथम बसीठ पठउ सुन नीती।' मा० ६.६.१० पठए : भूक०० ब० । भेजे । “पठए बालि होहिं मन मैला।' मा० ४.१.५ पठए सि : आ०भूकृ.पुं०+प्रए । उसने भेजा । 'पठएसि मेघनाद बलवाना ।' मा० ५.१६.१ पठएहु : आ०भ०+आज्ञा-मब० । तुम भेज देना। 'गिरिहि प्रेरि पठए हु भवन ।' मा० १७७ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 561 पठन्ति : पठति । मा० ७.१०८ छं०६ पठयउ : भूकृ.पु.कए० । भेजा । 'पुनि पठयउ तेहिं अच्छ कुमारा।' मा० ५.१८.७ पठये : पठए । रा०प्र० १.४.६ पठयो : पठयउ। 'पठयो है छपदु छबीलें कान्ह ।' कवि० ७.१३५ /पठव, पठवइ : (सं० प्रस्थापयति>प्रा० पट्टवइ) आ.प्रए । भेजता है, प्रेषित करता है। पठवउँ : आ०उए । भेजता हूँ। “पठवां तहां सुनहु तुम्ह जाई ।' मा० ७.६१.७ पठवत : वक०० (सं० प्रस्थापयत् >प्रा० पटुवंत) । भेजता, भेजते। 'तो बसीठ पठवत केहि काजा।' मा० ६.२८.७ पठवति : वक०स्त्री० । भेजती। गी० ७.२६.२ पठवन : भक० अव्यय । भेजने । पठवन चले भगत कृत चेता।' मा० ७.१६.१ पटवह : आ०मब० (सं० प्रस्थापयत>प्रा० पट्ठवह>अ० पट्ठवहु)। भेजो। 'पठवहु काम, जाइ सिव पाहीं।' मा० १.८३.५ पठवा : भूक०० । भेजा । “पठवा तुरत राम पहिं ताही ।' मा० ३.२.१० पठवौं : पठवउँ । भेजू', भेज सकता हूं। 'पठवौं तोहि जहें कृपा-निकेता।' मा० पठाइन : पठइअ । भेजा जाए, भेजना चाहिए । 'दूत पठाइअ बालिकुमारा।' मा० ६.१७.४ पठाइहि : पठइहि । भेजेगा । 'जहँ तह मरकट कोटि पठाइहि । मा० ४.४.४' पठाई: पठई । 'भूप पहनई करन पठाई।' मा० १.३०६.८ पठाई : (१) पठई । 'गिरिजा पूजन जननि पठाई ।' मा० १.२२८.२ (२) पठइ । भेजकर । 'जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।' मा० १.३३४.१ पठाए : पठाए । 'मम हित लागि नरेस पठाए।' मा० १.२१६.८ पठायउँ : आo-भूकृ०० + उर। मैं भेजा गया (मुझे भेजा)। 'अस बिचारि रघुबीर पठायउँ ।' मा० ६.३०.२ पठायउ, ऊ : पठयउ । 'दूत पठायउ तव हित हेतू ।' मा० ६.३७.२ पठायो : पठायउ । 'इहां देवरिषि गरुड़ पठायो।' मा० ६.७४.१० पठावउँ : पठयउँ । 'आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ।' मा० ६.१० ६.४ पठावनी : सं०स्त्री० । पार पहुंचाने का कारोबार तथा उससे मिलने वाला पारि श्रमिक । 'ख्वहीं ना पठावनी ।' कवि० २.६ पठावा : पठवा । भेजा । 'यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।' मा० १.६२.१ पठावौंगी : आ०भ०स्त्री० उए । भेजूगी। 'ती संग प्रान पठावौंगी।' गी० २६.३ पठं : पठइ । 'पठे दीन्हि नारद सन सोई ।' मा० १.३१२.७ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 562 तुलसी शब्द-कोश /पढ़ पढ़इ : (सं० पठति >प्रा. पढइ) आ.प्रए । पढ़ता है, शिक्षा लेता है । 'सो हरि पढ़ यह संसय भारी ।' मा० १.२०४.५ पढ़त : वकृ०० (सं० पठत् >प्रा० पढंत)। पढ़ता-ते । पाठ करते । 'चले पढ़त गावत गुन गाथा ।' मा० १.२३१.७ पढ़न : भक० अव्यय । पढ़ने, शिक्षा लेने । गुर गृह. गए पढ़न रघुराई ।' मा० १.२०४.४ पढ़हिं : आ० प्रब० (सं० पठन्ति>प्रा० पढंति>अ० पढ़ाह) । पढ़ते हैं, पाठ करते हैं । 'बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ।' मा० ४.१५.१ पढ़ाई : पूक० (सं० पाठयित्वा>प्रा० पढाविअ>म० पढावि) । पढ़ा कर । 'हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ।' मा० ७.११०.८ पढ़ाइहौं : आ०भ० उए ० । पढ़ाऊँगा, शिक्षा दिलाऊँगा । 'केवट की जाति कछु बेद न पढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ पढ़ाई : (१) पढाइ । पढ़ा कर । मा० ७.११०.८ (२) भूक०स्त्री० । शिक्षित की। 'कोटि कुटिल मनि गुरु पढ़ाई ।' मा० २.२७.६ पढ़ाए : भूकृ०पू०ब० । शिक्षित किए। 'कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए। मा० १.३३८.१ पढ़ायो : भूकृ.पु०कए । शिक्षित किया। 'सो कहै जगु जान की नाथ पढ़ायो।' कवि० ७.६० /पढ़ाव पढ़ावइ : ( /पढ़+प्रेरणा-सं० पाठयति>प्रा. पढावइ) आ० प्रए । पढ़ता है, शिक्षित करता है । 'बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाई।' मा० ७.१०५.६ पढ़ावहिं : आ०प्रब० (सं० पाठयन्ति >प्रा० पढावेन्ति>अ.पढावहिं) । पढ़ाते हैं । 'सुक सारिका पढ़ावहिं बालक ।' मा० ७.२८.७ पढ़ावा : भूक: पु० । पढ़ाया, शिक्षित किया । 'प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा ।' मा ७.११०.५ पढ़ाव : पढ़ावहिं । गी० ३.६.३ पढ़ाही : पढ़हिं । 'बेद जुबा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।' कवि० १.१७ पढ़ि : पूकृ० । पढ़ कर । 'गाडि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्र ।' मा० २.२१२.४ पढ़िबे : भकृ.पु० । पढ़ने । 'पढ़िबे को कहा फल ।' कवि० ७.१०४ पढ़िबो : भकृ.पु०कए० (सं० पठितव्यम् >प्रा० पढिअवं>अ० पढिव्वउ) । पढ़ना। __ 'पढ़िबो पर्यो न छठी।' विन ० १५५.१२ पढ़िय : आ०कवा०प्रए । पढ़ा जाता है, पढ़ा जाय । 'पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर ।' विन० १९७.२ ।। पढ़ें : पढ़ने से । 'श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ ।' मा० ३.२१.६ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 563 पढ़े : भूक००। (१) पठित, अधीत (विषय) । (पढ़े सुने कर फन प्रभु एका।' ___ मा० ७.४६.३ (२) पाठ याजप किये । 'नरसिंह मंत्र पढ़े।' गी० १.१२.३ (३) सीखे-पढ़े हुए। 'प्रभु..... पढ़े..... कपट बिनु टोने ।' गी० १.२३.३ पढ़ें: पढ़हिं । 'बैद पढ़े बिधि ।' कवि० ७.२ पढ़या : वि० । पढ़ने वाला । 'बिनु गिरा को पढ़या।' कवि० ७.१३५ पतंग : सं०पु० (सं.)। (१) पतिंगा, शलभ । 'दीपसिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।' मा० ३.४६ ख (२) सूर्य । 'कबहुं दिवस महुं निबिड़ तम कबहुंक प्रकट पतंग ।' मा० ४.१५ ख (३) लघु पक्षी । पतंगा : पतंग । 'बहु बिधि क्रीडहिं पानि पतंगा।' मा० १.१२६.५ यहाँ कन्दुक-पर्याय पतंग का प्रयोग है। पतंति : आ०प्रब० (सं० पतन्ति) । गिरते हैं, पड़ते हैं । मा० ३.४ छं० पताक : पताका । मा० २.६ पताफनि : पातक+संब० । पताकाओं (से)। 'केतु पताकनि पुरी रुचिर करि छाई ।' गी० १.१.६ पताका : सं०स्त्री० (सं०) । (१) ध्वज-वस्त्र । 'रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जसु जा का ।' मा० १.१७.६ (२) ध्वज-दण्ड । 'कदलि ताल बर धुजा पताका ।' मा० ३.३८.२ पताल, ला : पाताल । मा० ७.६२.१ पति : (१) सं०पु० (सं.)। स्वामी, ईश्वर, प्रभु । 'भुवन-निकाय-पति ।' मा० १.५१ छं० (२) राजा । कोसलपति, अवधपति आदि । (३) स्त्री का विवाहित पुरुष । मा० १.५६.२ (४) (समासान्त में) वि.पु । श्रेष्ठ । तीरथपति, खगपति आदि । (५) सं०स्त्री० । पात्रता, प्रतिष्ठा । 'कैसे ताके बचन मेटि पति पावौं ।' गी० २.७२.२ (६) शील, मर्यादा (इज्जत) । 'बजाइ रही पति पांड बधू की।' कवि० ७.८६ 'पतिनाउ : आ-आज्ञादि-प्रए० । विश्वास करे । 'पुनि पुनि भुजा उठाइ कहत __ हौं सकल सभा पतिआउ ।' गी० ५.४५.४ पतिआतो : क्रियाति०पू०ए० । यदि.....तो..... विश्वास करता। तोहिं सब पतिआतो.' विन० १५१.५ ।। पतिआनि : भूक०स्त्री० । (विश्वस्त हुई । 'सुहृद जानि पतिआनि । मा० २.१६ पतिआहु, हू : आ०मब० । विश्वास करो । 'महसा जनि पतिआहु ।' मा० २.२२ पतित : भूकृ.वि० (सं.)। गिरा हुआ, धर्मच्युत, पातकी । मा० ७.१३०.७ पतितन : पतित+संब० । पतितों (को)। 'तुम कृपाल पतितन गतिदाई ।' विन० २४२.२ पतितपावन : पतितों को पवित्र करने वाला। विन० ६७.५ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 564 तुलसी शब्द-कोश पतित-पुनीत : पतितपावन । ऐसो को कह पतित-पुनीत ।' विन. १९१.६ पतितायो : भूकृ०० कए० (सं० पतितायितः)। पतित हुआ, गिरा। 'सब थल पतितायो।' विन० २७६.५ ।। पतिदेवता : वि०स्त्री० (सं.)। पतिव्रता, पति को ही एकमात्र आराध्य मानने वाली। मा० १.२३५ पतिनि, नी : पत्नी । मा० २.२४६.२ पतिन्ह : पति+संब० । पतियों (को) 1 'पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ।' मा० १.३३८.८ पतिप्रिय : वि०स्त्री० (सं० पतिप्रिया)। (१) पति को प्यारी (२) पतिप्राणा। ___ 'पारबती सम पति प्रिय होहू ।' मा० १.११८.१ पतिव्रत : सं०० (सं० पतिव्रत, पातिव्रत) । एक चारिणी-व्रत । विवाहित पुरुष __ के प्रति एक-निष्ठा । 'त्रिय चढ़िहहिं पतिव्रत असिधाग।' मा० १.६७.६ पतिव्रता : वि०स्त्री० (सं० पतिव्रता) । एकचारिणी; स्वपति के प्रति एक निष्ठा । __ मा० ३.५.११ पतिहि : पति को। 'पतिहि एकंत पाइ कह मैना।' मा० १७१.२ पतीजे : आ०कवा०प्र० । विश्वास किया जाय । 'आपुहि भवन मेरे देखि जो न पतीज।क०७ पतौआ, वा : सं० । पत्ते । 'सूखि गए गात हैं पतोआ भए बाच के।' गी. १.६७२ पत्यात : पतिआत । वक०पु । विश्वास करता-करते । 'तो लौं तुम्हहि पत्यात लोग सब ।' कृ० ११ पत्र : सं०पू० (सं.)। (१) चिट्ठी। तेहिं खल जहें तहँ पत्र पठाए।' मा०. १.१७५.४ (२) पत्ता । 'हरित मनिन्ह के पत्र फल ।' मा० १.२८७ (३) रुक्का, ऋणपत्र । 'रिनिया हौं, धनिक तू, पत्र लिखाउ ।' विन० १००.७पत्रिका : सं०स्त्री० (सं०) । चिट्ठी। मा० १.२६३ पत्री : पत्रिका । (१) चिट्ठी । 'पत्री सप्तरिषिन्ह सो दीन्ही ।' मा० १.६१.५ (२) कागज । 'महि पत्री करि सिंधु मसि ।' वैरा० ३५ ।। पथ : सं०० (सं.)। (१) मार्ग। 'पथ गति कुसल ।' मा० २.२१६.३ (२) सिद्धान्त, प्रस्थान । 'परमारथ पथ परम सुजाना।' मा० १.४४.२ (३) उपाय, साधन । 'राम धाम पथ पाइहि सोई।' मा० २.१२४.२ (४) सम्प्रदाय, पंथ, मतवाद । 'तजि श्रुति बाम पथ चलहीं।' मा० २१६८.७, (५) (स० पथ्य)-दे० कुपथ ।। पथि : पथ (सं० पथिन्) । मार्ग । मा० ३ श्लो० २ पथिक : सं०० (सं०) । यात्री, बटोही । मा० १.४१.३ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 565 पथिकथा : पंथकथा । मा० २.१२२.८ पथिगत : मार्ग पर स्थित । मा० ४ श्लो० १ पथी : पथिक । 'स्वारथ परमारथ पथी।' गी० २.८०.१ पथीन : वि.पु. (सं० पथिल)। पथिक । 'बद बुध संमत पथीन निरबान के ।' गी. १.८८.३ पथु : पथ+कए । अद्वितीय प्रस्थान । 'मिटइ भगति पथु होइ अनीती।' मा० १.५६.८ पर्थे : मार्ग में। कवि० २.१७ पथ्य : वि. (सं.)। उचित, हितकर । 'पूत पथ्य गुर आयसु अहई ।' मा० २.१७६.१ पद : सं०० (सं०)। (१) चरण । 'बंदउँ गुरुपद ।' मा० १.१.१ (२) पदवी। 'जुबराज-पद ।' मा० २.१ (३) साध्य, लक्ष्य । 'कासीं मरत परम पद लहहीं।' मा० १.४६.४ (४) लोक, स्थान, धाम । 'दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ।' मा० १.२०६.६ पदचर : सं०० (सं०) । पदाति, पैदल सैनिक । मा० १.३०४; ३.३८.७ पदचार : सं०० (सं०) । पैदल (बिना वाहक के) चलने की क्रिया । 'बन पदचार करिबे ।' गी० २.४१.३ पदचारी : वि.पु. (सं० पदचारिन्) । पैदल (बिना वाहन चलने वाला)। 'ते अब फिरत बिपिन पदचारी ।' मा० २.२०१.३ पदचिन्ह : पैरों का निशान । गी० ७.१६.४ पदज : सं०पु० (सं०)। पैरों की अंगुली । “पदज रुचिर, नख ससि दुति रहना। मा० ७.७६.६ पवत्रान, ना : सं०० (सं० पदत्राण) । जूता, खड़ाऊँ। मा० २.६२.५ पददद्व : (दे० द्वंद्व) चरण-युगल । विन० ४६.५ पदपीठ : स.पु० (सं.)। (१) पावदान, पैर रखने की चौकी। (२) खड़ाऊँ। "प्रभु पद-पीठ रजायसु पाई ।' मा० २.३०४.१ (३) चरणों का ऊपरी भाग । 'स्याम बरन पदपीठा।' गी० ७.१५.२ पदपीठा : पदपीठ । पावदान+चरणोपरिभाग । 'नपमनि मुकुट मिलित पदपीठा ।' मा० २.६८.१ पदवी : सं०स्त्री० (सं० पदवी)। (१) स्थान, अधिकार पद । 'रंक धनद पदवी जन पाई।' मा० २.५२.५ (२) स्वरूप (महत्त्व) । तेहि बुझाव घन पदबी पाई ।' मा० ७.१०६.१० पदांबुज : (सं० पद+अम्बुज्) । पदाध्वज । मा० ३.४ छं० For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 566 तुलसी शब्द-कोश पदाति : सं०पू० (सं.)। पैदल (सेना) । मा० ६.८६.३ पदादपि : (सं0-पदात्+अपि) पद से भी, स्थान से भी। मा० ७.१३ छं० ३ पदादिका : पदाति (सं० पदातिका)। पैदल सेना । दो० ५२५ । पदाब्ज : सं०-पद+अब्ज)। चरण कमल, कमल-तुल्य सुन्दर कोमल चरण, चरण ___ रूपी कमल । मा० ३.४ छं० पदारथ : सं०० (सं० पदार्थ) । कोई वस्तु जो शब्दबोधक हो। (२) पुरुषार्थ चतुष्टय । 'चारि पदारथ करतल तोरें । मा० १.१६४.७ पदारबिंद : (सं०-पद+अरबिंद) पदाब्ज । मा० ६.५५ पदारबिंदु : पदारबिंद+कए ० । एकमात्र चरण कमल । ‘राम पदारबिंदु अनुरागी।' ___ मा० ७.१.३ पदिक : (१) सं०० (सं०) । पैर की नोक । (२) वि० । पैरों तक (लम्बा)। 'पदिक हार भूषन मनि जाला ।' मा० १.१४७.६ 'उर बनमाल पदिक अति सोभित ।' विन० ६३.४ (३) चरणचिह्न+ लम्बा हार। 'उरसि राजत पदिक ।' गी० ७.५.६ (दे० भगुचरन)। पदु : पद+कए । अधिकार । 'जगु बौराइ राज पदु पाएँ।' मा० २.२२८.८ पदम : पद्म । (१) कमल । बंदउँ गुरुपद पदुम परागा।' मा० १.१.१ (२) संख्या विशेष जिसमें सो खर्व होते हैं । 'पदुम अठारह जूथप बंदर ।' मा० ५.५५.३ पदुमकोस : सं०० (सं० पद्मकोश)। कमल पुष्प का सम्पूर्ण भीतरी भाग, कमल पुष्प का आकार । गी० १.१०८.७ पदुमराग : सं०० (सं० पद्मराग) । मणिविशेष । मा० १.२८७ पद्म : सं०० (सं०) । कमल । विन० २६.५. पद्मालया : सं०स्त्री० (सं.)। लक्ष्मी । विन० ५१.६ पदमासन : सं०० (सं.)। योग में बैठने की एक मुद्रा जिसमें बायाँ पैर दाहिने ऊरुमूल के ऊपर टिका कर दायाँ पैर बाएँ ऊरुमल पर रखा जाता है और फिर सीधे तन कर बैठा जाता है । विन० ६०.५ पन : सं०पु० (सं० पण) । (१) प्रतिज्ञा, संकल्प, व्रत । 'अस पन तुम्ह बिनु करै को आना ।' मा० १.५७.५ (२) वय, अवस्था । 'चौथें पन जेहिं अजसु न होई ।' मा० २.४३.५ (३) (अ० प्रत्यय) भाव, स्थिति, अवस्था । बाल पन आदि। पनच : सं०स्त्री० (सं० पतञ्चिका=पतञ्चा>प्रा० पडंचा>० पडंच) । धनुष की डोरी । मा० २.१३३.३ पनव : सं०० (सं० पणव) । वाद्यविशेष, छोटा नक्कारः । मा० १.२६६२ पनवानक (पणव + आनक) नक्कारे तथा ढोल । गी० २.४८.३ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसा शब्द-कोश 567 पनवारे : सं०पू०ब० (सं० पर्णवारा:>प्रा० पण्णवारया-पर्ण=पत्ता+वार= पात्र) । पर्णपात्र, पत्तों का थाल । 'सादर लगे परन पनवारे ।' मा० १.३२८.८ पनवारो : सं.पु०कए० (सं० पर्णवार:>प्रा. पण्णवारो)। पर्णपात्र, पत्तों का थाल । 'परसत पनवारो फारो।' विन० ६४.३ पनस : सं०० (सं.)। कटहल, शाकफलविशेष मा० ३.१०.१५ पनहि : पनही । रा०न० ७ पनहियाँ : सं०स्त्री०ब० (सं० प्रणाहिका:>प्रा० पणाहिआओ>अ० प्रणाहिआई)। जूतियाँ । 'पनहियाँ प्रगनि छोटी।' गी० १.४४.१ पनहीं : पनही+ब० =पनहियाँ । जूतियों । 'राम लखन सिय बिनु पग पनहीं।' ___ मा० २.२११.८ पनही : सं०स्त्री० (सं० प्रणद्विका, प्रणाहिका, उपानह >प्रा० पणाहिआ> अ. पणाही=पाणही) । जूती । 'मोरे सरन राम की पनही।' मा० २.२३४.२ पनह्यो : पनही भी जूती भी। 'पाइँ पन ह्यो न ।' गी० २ २७.३ पनारे : सं००ब० (सं० प्रणालक>प्रा० पणलय)। परनाले, सोते । 'जनु कज्जल गिर मेरु पनारे ।' मा० ६.६६.७ पनिघट : सं०० (सं० पानीय-घट्ट)। पानी भरने का घाट । मा० ७.२६.२ पनी : (१) वि०० (सं० पणिन्)। पण वाला= व्यवसायी+प्रतिज्ञाबद्ध । 'नतपालक पावन पनी ।' गी० ५.३६.४ (२) पन (प्रत्यय) स्त्री० । भाव । 'जान पनी ।' कवि० ७.३६ पनु : पन+कए । एक विशिष्ट व्रत । 'आए सृनि हम जो पन ठाना।' मा० १.२५१.७ पनो : पन (प्रत्यय) कए । भाव । 'साधपनो।' कवि० ७.६३ पन्नग : सं०० (सं.)। सर्प । पन्नगारि : सर्पशत्रु =गरुड । मा० ७.६५ क पपीहहि : पपीहा को । 'प्यास पपीहहि प्रेम की।' दो० ३०६ पपीहा : सं०० (प्रा० वप्पीहा) । चातक पक्षी । दो० २८६ पबारें : पवारें। पबारे : भूक०० (ब०) (सं० प्लावित, प्रवालित>प्रा. पव्वालिय) । फेंके, उछाल दिये । 'कछु अंगद प्रभु पास पबारे।' मा० ६.३२.६ पबि : सं०पु० (सं० पवि) । (१) वज्र (२) बिजली । मा० २.१६६ पबिपंजर : वज्र का घेरा (दृढ़ आश्रय)। 'सरनागत पबिपंजर नाउ।' विन० १५३.३ पबिपात : वज्रपात । 'घहरात जिमि पबिपात ।' मा० ६.४६ छं. पवित्र वि० (सं० पवित्र) । पावन, शुद्ध, निष्कलुष । मा० २.३१२.३ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 568 तुलसी शब्द-कोश पर्व : आ०ए० (सं० पर्वति>प्रा. पव्वइ-पर्व पूरणे) । पूरी पड़ती है, पूरा कर पाती है । 'बिचारि फिरी उपमा न पब ।' कवि० १.७ पन्बय, पब्बै : संपु० (सं० पर्वत>प्रा० पव्वय) । पहाड़ । कवि० ७.६८ पब्बय । कवि० १.११ पर्य : जल में, जल से । 'पावन पर्यं तिहुं काल नहाहीं।' मा० २.२४६.२ पय : सं०पू० (सं० पयस्) । (१) जल । 'लखन दीख पय उतर करारा ।' मा० २.१३३.२ (२) दूध । ' स्याम सुरभि पय बिसद अति ।' मा० १.१० ख (३) जलाशय, नदी आदि । 'कोन्ह बास पय पास ।' रा०प्र० २.३.१ पयज : पइज । प्रतिज्ञा । गी० १.८०.३ पयद : पयोद । (१) मेघ । 'बरषि परुष पाहन पयद ।' दो० २८२ (२) स्तन । 'स्रवत प्रेम रस पयद सुहाए।' मा० २.५२.४ पयनिधि : पयोनिधि । समुद्र । क्षीरसागर । मा० १.१८५.२ पयपयोधि : क्षीरसागर । मा० २.१३६.५ पयपान : दुग्धपान । गी० १.७.२ पयमुख : वि० (सं० पयोमुख) । (१) दुधमुहा (बच्चा) (२) दूध पीने योग्य मुख वाला (३) जिसके मुख में (वचन में) दूध सी मिठास हो। 'काल कूट-मुख पयमुख नाहीं।' मा० १.२७७.७ पयाग, गा : प्रयाग । मा० २.२१०.५-८ पयाग : पयाग+कए। प्रतागतीर्थ । 'भयउ भूप मनु मनहुं पयाग ।' मा० २.२८६.५ पयादें : क्रि०वि० । पैदल (स्थिति में) । 'चलत पयादें खात फल ।' मा० २.२२२ पयादे : वि० (सं० पदातिक>प्रा० शौरसेनी-पयादिय-फा० प्यादः) । पैदल । पदचारी । 'पथिक पयादे जात पंकज से पाय हैं।' गी० २.२८.१ पयादेहि, हि : पैदल ही । 'गवने भरत पयादेहिं पाए ।' मा० २.२०३.४; ११२.५ पयान, ना : सं० (सं० प्रयाण>प्रा० पयाण) । (१) निष्क्रमण । 'करहिं न प्रान पयान अभागे।' मा० २.७६.६ (२) अभियान, आक्रमण हेतुक प्रस्थान । 'हरषि राम तब कीन्ह पयाना।' मा० ५.३५.४ (३) प्रस्थान, यात्रा । 'एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना।' मा० १.३०४.४ पयानो : पयाना+कए । यात्रा, चढ़ाई। 'जब रघुबीर पयानो कीन्हो ।' गी० ५.२२.१ पयार : सं०पु० (सं० पलाल) । पुआल, धान आदि का सूखा तृणपुज । 'धान को __ गांव पयार तें जानिय ।' कृ० ४४ पयोद : सं०० (सं०) । मेघ । मा० ६.४६.१ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश पद्योदनाद : मेघनाद । हनु० ७ पयोधर : सं०पु० (सं०) । (१) मेघ । ( २ ) स्तन । 'अजहुं न तजत पयोधर पीबो ।' कृ० ६ पोषि: सं०पु० (सं० ) । समुद्र । क्षीरसागर । 'संत समाज पयोधि रमा सी ।' 569 मा० १.३१.१० पयोधी : पयोधि । मा० ७.६७.५ पयोनिधि : पयोधि । मा० १.२७.४ पर : ( १ ) अव्यय । ऊपर = प्रति । 'कपि के ममता पूँछ पर ।' मा० ५.२४ (२) वि०पु० (सं० ) । अन्य, इतर । 'पर अकाज भट सहसबाहु से ।' मा० १.४.३ (३) श्रेष्ठ, परम | 'अज सच्चिदानन्द पर धामा । मा० १.१३.३ ( ४ ) ( समासान्त में ) तत्पर, परामण, आसक्त, रत । 'सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न ।' मा० ७.४०.१ ( ५ ) अनन्तर बाद वाला । 'परलोक ।' मा० ७.४१.४ (६) क्रि०वि० । अनन्तर बाद । एतेहुं पर करिहहि जे असंका ।' मा० १.१२.८ (७) ऊपर = श्रेष्ठ । 'सब बरननि पर जोउ ।' मा० १.२० ( ८ ) ( नीचे का विलोम ) ऊपर । 'प्रभुतरु तर कपि डार पर ।' मा० १.२६ क ( 8 ) भाग में (ऊपर) । निज अग्यानु राम पर आना । मा० १.५४.१ (१०) ग्राह्न (ऊपर) । 'अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ।' मा० १.७७.४ (११) लक्ष्य करके (ऊपर) । 'एक बार कुबेर पर धावा ।' मा० १.१७६.८ ( १२ ) परकीय | 'आपनि पर कछु सुनइ न कोई।' मा० १.३१६.७ (१३) शत्रु । 'जाहु न निज पर सूझ मोहि ।' मा० ६.६४ (१४) परन्तु । 'तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर ।' दो० ३०१ (१५) अपर । विन० १३.७ (१६) सं०पु० ( फा० ) पंख, डैने । 'जस हंस किए जोगवत जुग पर को ।' गी० १.६६.२ परंतु : क्रि०वि० (सं०) । (१) फिर भी, तथापि । 'सखि परंतु पनु राउन तजई ।' मा० १.२२२.४ (२) इसके विपरीत । प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई ।' मा० १.१५०.५ ( ३ ) इसके अतिरिक्त । ' तहाँ परंतु एक कठिनाई ।' मा० १.१६७.२ For Private and Personal Use Only 'पर, परइ, ई : (सं० पटति पतति > प्रा० पडइ) आ०प्र० । (१) गिरताती है । 'बेल पाती महि परइ सुखाई ।' मा० १.७४.६ ( २ ) पड़ता है (ज्ञात ) होता है । 'समुझि परइ अस कारन मोही ।' मा० १.१२१.५ ( ३ ) गति लेता है । 'भयबस अगहुड़ परइ न पाऊ ।' मा० २.२५.१ (४) टूट पड़ता है, आक्रमण करता है । 'सब कहुं परइ दुसह् दुख भारू ।' मा० २.७१.४ (५) विफल हो जाता है-जाती है । 'बाट परह मोरि नाव उड़ाई ।' मा० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 570 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश २.१००.६ (६) आता-ती है । 'नीद परइ नहिं राति । मा० ३.२२ (७) शक्य होता-ती है । 'ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ।' मा० ७.११७.७ (८) निमग्न होता है । होइ सुखी जो एहि सर परई ।' मा० १.३५.८ ( ६ ) डाला जाता है। परउँ : आ०उए० (सं० पतामि> प्रा० पडमि> अ० पडउँ) । (१) गिरता-ती हूं । 'मैं पा परउँ, कहइ जगदंबा ।' मा० १.८१.७ (२) गिर सकता-ती हूं । परउ कूप तुअ बचन लगि ।' मा० २.२१ / परख, परखइ : (सं० परीक्षते > प्रा० परिक्खइ) आ०प्र० । परखता है, जाँचता है, परीक्षा करता है | 'पापि न परखइ भेदु ।' दो० ३५० परखत: वकृ०पुं० । परखते, जाँचते । 'परखत प्रीति प्रतीति पयज पनु ।' गी० १. ८०.३ परखि: पूकृ० (सं० परीक्ष्य > प्रा० परिक्खि > अ० परिक्खि ) । परीक्षा ले कर जाँच-परख कर । 'तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति.....।' कृ० ६० परखिअ : परखिए । परख में आता है 'प्रेम न परखिअ परुषपन ।' दो० २६८ परखिए, ऐ : आ०कवा०प्र० (सं० परीक्ष्यते > प्रा० परिक्खी अइ ) । परखा जाता है, जाँचने में आता है । 'बिरुचि परखिए सुजन जन, राखि परखिऐ मंद ।' दो० ३७४ परखी : भूकृ० स्त्री० । परख ली, जान ली । 'परखी पराई गति, आपनेहू कीय की । " विन० २६३.२ परखे : भूकृ०पु०ब० । परख लिए, जाँच-समझ लिए । 'परखे प्रपंची प्रेम ।' विन० २६४.२ परख्यो : भूकृ०पु०कए० । परखा, जाँचा 'परख्यो न फेरि खर खोट । विन० 1 १६१.८ परचंड : प्रचंड | विन० ५०.१ परचारि : सं० स्त्री० (सं० परिचार = परिचर्या) । सेवा, भक्ति । गी० ३.१७.५ 1 परचारे पचारे | मा० ६.३५.१ : परछाहीं : परिछाहीं । कवि० १.१७ परज : क्रि०वि (सं० पयंक > प्रा० परिय ) । सब ओर, सर्वथा । 'सो पुरइहि जगदीस परज पन राखिहि ।' जा०मं० ६८ (२) (अरबी - फर्ज ) कर्त्तव्य | परवरा : भूकृ०पुं० (सं० परिज्वलित > प्रा० परिजलिअ ) । जलभुन गया । 'सुनत बचन रावन परजरा।' मा० ६.२७.८ परत : वकृ०पु० । (१) गिरता - गिरते । 'धर परत कुधर समान ।' मा० ३.२०.१० (२) पड़ते ही । 'पावक परत निषिद्ध लाकरी होति अनल जग जानी ।' कृ० ४८ (३) डाले जाते । 'परत पांवड़े बषन अनूपा । मा० १.३२८.२ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 571 (४) प्रणाम करता-करते । 'चरन परत नप रामु निहारे ।' मा० २.४४.३ (५) रखा जाता-रखे जाते । 'तब पथ परत उताइल पाऊ।' मा० २.२३४.६ (६) लेटता-ते । 'परत पराई पौरि ।' दो० ६६ (७) शक्य होता । 'कहो क्यों परत मो पाहीं ।' विन० ४.२ परति : वकृ०स्त्री० । (१) गिरती, प्रणत होती। परति गहि चरना ।' मा० १.१०२.७ (२) शक्य होती । 'न परति बखानी ।' मा० १.२१.७ (३) बिखेरी जाती । 'नभ पुर परति निछावरि ।' गी० १.४५.६ (४) आती, प्राप्त होती। 'नींद न परति राति ।' गी० १.६६.२ परतिय : परकीया स्त्री, पराई पत्नी। मा० १.२३१.७ परतिहुं : गिरती (वेला) में भी। परतिहुं बार कटकु संघारा।' मा० ५.२०.१ परतीति, ती : प्रतीति । 'असि परतीति तजहु जनि भोरें।' मा० १.१३८.६ ४.७.१३ परत्र : अव्यय (सं.) । परलोक में । 'सो परत्र दुख पावइ ।' मा० ७.४७ परत्रिय : परतिय । मा० ७.११२.४ परदखिना : सं०स्त्री० (सं० प्रदक्षिणा) । दाहिनी ओर से परिक्रमा । 'परदखिना __ करि करहिं प्रनामा ।' मा० २.२०२.३ परदा : सं०० (फा० पर्दः) । (१) चिलमन, चिक । चित्र बिचित्र चहं दिसि परदा ।' गी० ७.१६.३ (२) परिधान+आवरण । 'सेवक को परदा फट तू समरथ सी ले।' विन० ३२.४ (३) घेरा। भांग की टाटिन्ह के परदा हैं।' कवि० ७.१५५ (४) छिपाव-दुराव । 'नारद सों परदा न ।' कवि० १.१६ परदार, रा : परायी स्त्री, परकीया। मा० १.१८४.१ परवेस : पराया देश, विदेश । गी० २.१३.२ परदोषा : दूसरे के दोष । मा० ३.३६.४ परद्रोह : अन्य के प्रति द्वेष, ईर्ष्या आदि । मा० ६.६२.४ परद्रोही : परद्रोह-शील । मा० १.१८४.५ परधन : पराया धन । मा० १.१८४.१ परधनु : परधन+कए । 'जे ताकहिं परधनु परदारा ।' मा० २.१६८.३ परधान : प्रधान । दो० ४६८ (यहाँ प्रकृति-पर्याय भी है)। परिधान : परधान+कए । एकमात्र प्रधान, सर्वोपरि । 'जहँ नहिं राम पेम पराधान ।' मा० २.२६१.२ परषामा : (१) (सं० पर+धामन् ) परम धाम, चरन अधिष्ठान, सर्वाधार, सर्वोच्च प्राप्य, परमेश्वर-सालोक्य का स्वरूप । (२) परम प्रकाश । 'अज सच्चिदानंद परधामा।' मा० १.५०.७ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 372 तुलसी शब्द-कोश परन : (१) भकृ० अव्यय । गिरने । 'जहें तह लगे महि परन।' मा० ३.२०.६ (२) डाले जाने । 'सादर लगे परन पनवारे ।' मा० १.३२८.८ (३) सं०० (सं० पर्ण) । पत्ता, पत्ते । 'तह रचि रुचिर परन तन साला।' मा० २.१२६.६ परनकुटी : (सं० पर्णकुटी) । पत्तों से छायी-बनायी कुटी । मा० २.१०४.५ परनकुटीर, रा : परनकुटी। मा० २.३२१ परनगृह : (सं० पर्णगृह) पत्तों का घर=पर्णकुटी । मा० ३.१३ परनसाल : (सं० पर्णशाला) पर्णकुटी। मा० २.६५ परना : परन । पत्ते । 'पुनि परिहरे सुखानेउ परना।' मा० १.७४.७ परनामा : प्रनाम । मा० १.१४.४ परनारि, री : पर-स्त्री, परकीया। मा० १.२३१६; ६.३०.६ परनिंदक : दूसरों की निन्दा करने वाला । मा० ७.१०२ छं० परनि : सं०स्त्री० । पड़ने की क्रिया, गिरना । 'उठि चलनि गिरि गिरि परनि।' गी० १.२८.२ परपंचु : प्रपंच । भौतिक सृष्टि । 'रचइ परपंच बिधाता।' मा० २.२३२.५ परपति : उपपति, अन्य स्त्री का पति । मा० ३.५.१३-१६ परपुर : (१) पराया नगर । 'हँसी करैहहु पर-पुर जाई ।' मा० १.६३.१ (२) शत्रु ___ का नगर । 'निपट निसंक परपुर गलवल भो।' हनु०६ परबंचनता : सं०स्त्री० । दूसरे को धोखा देने का कर्म । मा० ७.१०२.११ परब : सं०० (सं० पर्वन्) । (१) शुभ तिथि आदि। 'परब जोग जनु जुरे समाजा ।' मा० १.४१.७ (२) पूर्णिमा तिथि । 'सरद परब बिधु ।' मा० २.११५ (३) अमावस्या तिथि । 'भयउ परब बिनु रबि उपरागा।' मा० ६.१०२.६ (४) पोर, गाँठ । दे० सपरब (५) भकृ०० (सं० पतितव्य>प्रा० पडिअव्व) । पड़ना (होगा) । 'बहुरि परब भवकूप ।' विन० २०३.६ परबत : सं०० (सं० पर्वत)। पहाड़ । मा० ३.२६.१० परबस : वि० (सं० परवश) । पराधीन। (१) पराधीनचित्त, मानसिक रूप से सुधबुध रहित । 'परबस सखिन्ह लखी जब सीता।' मा० १.२३४.५ (२) दासभाव से पराधीन । 'करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा ।' मा० २.१६.५ (३) शरीर से पराधीन । 'परबस परी बहुत बिलपाता।' मा० ४.५.४ (४) प्रकृति से पराधीन । 'परबस जीव ।' मा० ७.७८.७ परबसताई : सं०स्त्री० (सं० परवशता) । पराधीनता । गी० १.३०.५ परबास : (पर=ऊपर+वास= वस्त्र) ऊपरी आवरण । 'कपट सार सूची सहस बांधि बचन परबास ।' दो० ४१० परब्बत : परबत । कवि० ६.५४ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 573. परमात : प्रभात । मा० २.१८६.१ परम : (१) वि० (सं०) । अन्तिम, सर्वोपरि, श्रेष्ठ । 'परम धरम यह नाथ हमारा ।' मा० १.७७.२ (२) संपु । रहस्य, मर्म । 'परम तुम्हार राम कर जानिहि।' मा० २.१७५.७ (३) क्रि०वि० । अतिशय । 'परम सुभट रजनीचर भारी।' मा० ५.१७.८ परमतत्त्व : ब्रह्म । 'पावा परम तत्त्व जनु जोगीं।' मा० १.३५०.६ परमपद : परम धाम, चरम साध्य, सर्वोत्तम लक्ष्य, परम पुरुषार्थ =मोक्ष । 'कासीं मरत परम पद लहहीं।' मा० १.४६.४ परमफल : (दे० फलु) (१) एकमात्र परम पुरुषार्थ । “इहै परम फलु इहै बड़ाई।' विन० ६२.१ (२) सबसे बड़ी उपलब्धि । 'मन इतनोइ या तनु को परमफलु ।' मा० ६३.१ परमाणु, नु : सं०० (सं०) । (१) न्याय के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज और वायु के सूक्ष्मतम कण जो नित्य माने गये हैं। (२) सांख्य में पञ्चतन्मात्ररुपतन्मात्र=सूक्ष्म तेज; स्पर्शतन्मात्र=सूक्ष्म वायु; रसतन्मात्र=सूक्ष्म जल; गन्धतन्मात्र=सूक्ष्म पृथ्वी और शब्दतन्मात्र= सूक्ष्म आकाश । ये ही पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं और इन्हीं से महाभूतों की सृष्टि परिणत होती है। विन० ५४.२ परमातमा : परमात्मा । मा० १.११६.५ परमातुर : अत्यन्त आतुर, अत्यधिक हड़बड़ी से बिकल, अतिशीघ्रगामी । परमातुर बिहंगपति आयउ ।' मा० ७.६० परमात्मा : सं०० (सं.)। परम तत्त्व, सर्वोपरि आत्मतत्त्व, परमेश्वर= ब्रह्म । 'भव कि परहिं परमात्मा बिंदक ।' मा० ७ ११२.५ परमानंद : (१) अत्यन्त आनन्दमय जिसमें सर्वोपरि सुख हो, आत्यन्तिक आनन्द मय = ब्रह्म (वल्याण गुण सम्पन्न ) । 'परमानंद परेस पुराना।' मा० १.११६.८ (२) आत्यन्तिक सुख । 'परमानंद सुर मुनि पावहीं।' मा० ७.१२.१ परमानंदा : परमानंद । मा० १.१८६ छं० परमानु : परमाणु । मा० ६.०.१ परमायतन : (परम+आयतन) अन्तिम आश्रय, चरम अधिष्ठान, परधाम : मा० ७.१४.१० परमारथ : सं००+वि० (सं० परमार्थ) । (१) सत्य, यथार्थ । 'सपनेहुं प्रभ परमारथ नाहीं ।' मा० ७.४७.६ (२) प्रातिभासिक तथा व्यावहारिक प्रत्ययों से पृथक् वस्तु सत्य । 'मायाकृत परमारथ नाहीं।' मा० ४७.१८ (३) सर्वोपरि सत्य तत्त्व= परब्रह्म । 'परमारथ पथ परम सुजाना।' मा० २ ६३.७ (४) स्वार्थ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 574 तुलसी शब्द कोश भिन्न वस्तु तत्त्व । 'नीति प्रीति परमारथ स्वारथु ।' मा० २.२५४.५ (५) परम पुरुषार्थ =मोक्ष+ भक्ति । 'चहत सकल परमारथ बादी ।' मा० ३.६.५ परमारथवादी : वि०० (सं० परमार्थवादिन्) । ब्रह्मवादी, सत्य तत्त्व को ही सिद्धान्त रूप में मानने वाला । मा० १.१०८.५ परमारथमई : वि०स्त्री० (सं० परमार्थमयी)। ब्रह्म स्वरूप। परम सत्यरूप । 'मूरति मनोहर चारि बिरचि बिरंचि परमारथमई ।' गी० १.५.३ परमारथी: वि० (सं० परमाथिन्) । परमार्थ तत्त्व (ब्रह्म) का ज्ञाता, सत्य का द्रष्टा=मुक्त । ‘परमारथी प्रपंच बियोगी।' मा० २.६३.३ परमारथु : परमारथ+कए । (१) एकमात्र सत्य, परम पुरुषार्थ । 'सखा परम पुरुषारथ एहू ।' मा० २.६३.६ (२) निरपेक्ष तत्त्व, ब्रह्म । 'जनु जोगी परमारथ पावा।' मा० २.२३६.३ परमिति : सं० स्त्री० (सं.)। (पर+मिति) चरम सीमा, अन्तिम छोर । 'रघुपति भगति प्रेम परमित सी।' मा० १.३१.१४ परमोसा : (सं० परमेश; परमीश=परम्+ईश>प्रा० परमीस) परमेश्वर । ___ 'माया मोह पार पर मीसा ।' मा० ७.५८.७ परमेस्वर : (सं० परमेश्वर) परमात्मा । अखिल विश्व पर स्वतन्त्र प्रभु।' दो० परमेस्वरु : परमेस्वर+कए० । अद्वैत ब्रह्म। 'पाहन तें परमेस्वर काढ़े।' कवि० ७.१२७ परलोक, का : (इहलोक का विलोम) वर्तमान जीवन से परे लोक = आमुष्तिक गति । मा० १.२०.२ परलोकु, कू : परलोक+कए । 'सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ ।' मा० २.७६.४ परवान, ना : (१) प्रमान । प्रमाणित, सिद्ध, सत्य । कियो प्रेम परवान ।' गी० २.५९.४ (२) स०प० (सं० परिमाण =प्रमाण>अ० परिवाण)। पर्यन्त । 'रखिहउँ इहाँ बरष परवाना।' मा० १.१६९.५ परवाह : सं०स्त्री० (फा० परवा खौफ, दहशत)। (अपेक्षा) आशङ का, डर, सोच । 'परवाह है ताहि कहा नर की।' कवि० ७.२७ परशु : सं०पु० (सं०) । कुल्हाड़ा। विन० ५२.६ परस : (१) परसइ । छूता है, छु सकता है। ‘तन बिनु परस नयन बिनु देखा।' मा० १.११८.७ (२) सं०पू० (सं० परश)। पारस पत्थर, जिसके स्पर्श से लोहा सोना बन जाने की किंवदन्ती है । 'गुजा ग्रहइ परस मनि खोई।' मा० ७.४४.३ (३) सं० (सं० स्पर्श>प्रा० फरिस) । छुवन, छूना । पारस परस कुधातु सुहाई ।' मा० १.३.६ (४) वायु का असाधारण गुण । 'परस कि For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश होइ बिहीन समोरा ।' मा० ७.६०.७ (५) पांच विषयों में अन्यतम ( स्पर्श - तन्मात्र ) । 'परस रस सब्द गंध अरु रूप ।' विन० २०३.६ / परसपरसइ : (सं० स्पृशति > प्रा० फरिसइ) आ०प्र० । स्पर्श करता है, छूता है, छू सकता है । 'परसै बिना निकेत । वैरा० ३ परसत : (१) वकृ०पु० (सं० स्पृशत् > प्रा० फरिसंत ) । छूता - छ्ते, छूते हो । परसत तुहिन तामरसु जैसें ।' मा० २.७१.८ (२) (सं० परिवेषयत् > प्रा० परिवेसंत) । परोसते, भोजन देते हुए । 'परसत पनवारो फारो ।' विन० ६४.३ परसति : वकृ० स्त्री० । छूती । 'नहिं परसति पग पानि । मा० १.२६५ 575 परसपर परस्पर । मा० १.४२ परसमनि : सं०पु० (सं० परशमणि ) । पारस पत्थर जिसके लिए प्रसिद्ध है कि लोहे को सोना बना देता है । 'तेहि कि दरिद्र परसमनि जा के ।' मा० ७.११२.१ परसा : भूक०पु० । छुआ। 'कर परसा सुग्रीव सरीरा ।' मा० ४.८.६ परसि : पूकृ० । छूकर । 'परसि अखयबट हरषह गाता ।' मा० १.४४.५ परसी : भूकृ० स्त्री० । छुई, स्पर्श पाई हुई । 'नाम बल बिपुल मति मल न परसी ।' विन० ४६.६ परसु : परशू । मा० १.२७२ परसुघर : बि० + सं०पु० (सं० परशुधर ) । कुठार धारी; परशुराम । मा० १.२८४.६ परसुपानि: परसुधर । गी० ७.१३.५ परसुराम : जमदग्नि मुनि के पुत्र राम जो कुठारधारी होने से 'परशुराम' कहे जाते हैं । मा० १.२८० परसें : स्पर्श करने से । परसें पद पापु लहौंगो ।' कवि० ७.१४७ परसे : भूकृ०पु०ब० । छुए । 'सिर पर से प्रभु निज कर कंजा ' मा० १.१४८.८ परसेउ : भूकृ०पु०कए० । छुआ । 'कर सरोज सिर परसेउ ।' मा० ३.३० परसेन : शत्रु की सेना | कवि० ६.४७ परस : परसइ | परस्पर: क्रि०वि० (सं० ) । एक- दूसरे से, आपस में, आपसी तौर पर । मा० For Private and Personal Use Only १.४१.३ परस्यो : परसेउ । 'ज्यों चह पाँवर परस्यो ।' विन० १७०.४ परहि, हीं : आ०प्रब० (सं० पतन्ति > प्रा० पति > अ० पहि) । (१) गिरते हैं । 'घुम घुमि जहँ तहँ महि परहीं ।' मा० ६.८७.६ (२) अधोगति पाते हैं । 'भव कि परहिं परमात्मा बिदक । मा० ७.११२.५ (३) डाले जाते हैं । 'पट पाँवड़े Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 576 तुलसी शब्द कोश परहि बिधि नाना ।' मा० १.३१६.३ (४) शयन करते हैं। 'ए महिं परहि डासि कुस पाता।' मा० २.११६.७ (५) (ज्ञात) हो जायें । 'लखि जनि परहिं सरोष ।' दो० १८७ परहित : दूसरे का कल्याण, परोपकार । मा० २.२१६ परहुं : अव्यय (सं० परश्व:>प्रा० परसो)। आगामी कल के बाद वाले दिन को। 'आजु कालि परहुं जागन होहिंगे।' गी० १ ५.५ परहेलि : पूकृ० (सं० परिहेल्य) । अवज्ञा करके, अलग डाल कर । 'सींचि सनेह सुधा खनि काढ़ी लोक बेद परहेलि ।' कृ० २६ परहेल : आ०-आज्ञा-मए । तू उपेक्षित कर दे, छोड़ दे । 'के ममता परहेल ।' दो०७६ परहेलें : क्रिवि. । उपेक्षित किये हुए। अपेक्षा न करके। (चिन्तनीय को) चिन्ता से रहित होकर । 'सुदर जुवा जीव परहेलें ।' मा० १.१५९.३ परा : भूकृपु । (१) गिरा हुआ, लेटा हुआ। 'भूमि परा कर गहत अकासा।' मा० ५.५७.२ (२) जा पड़ा! 'कूदि परा।' मा० ५.२६.८ (३) भ्रान्त हुआ। 'परा भवकूपा ।' मा० ३.१५.५ (४) थक गया। 'हारि परा।' मा० ३.२९६ (५) बरसा । सूखत धान परा जनु पानी ।' मा० १.२६३.३ (६) व्याप्त हुआ, मच गया । 'जग खरमरु परा।' मा० १.८४ छं० (७) गिर गया। 'मुरुछि परा।' मा० २.८२.८ (८) प्रवृत्त हुआ। 'मनु हठ परा।' मा० १.७८.५ 'परा पराइ, ई : (सं० पलायते'>प्रा० पलाइ) आ०ए० । भागता है। 'तुलसी छवत पराइ ज्यों पारद पावक आंच ।' दो० ३३६ 'कबहुं निकट पुनि कबहुं पराई।' मा० ३ २७.१२ पराइ : (:) पराई । परकीय, दूसरे की । 'देखि न सकहिं पराइ बिभूती।' मा० २.१२.६ (२) पूकृ० (सं० पलाय्य)। भाग कर । 'पुनि कपि चले पराइ।' मा० ६.४१ (३) दौड़कर । 'गढ़ पर चढ़े पराइ ।' मा० ६.७४ ख पराई : (१) दे/परा (२) पराइ । भागकर । 'श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ।' मा० १.६४.४ (३) वि०स्त्री० (सं० परकीया>प्रा० पराई)। दूसरे की। 'बेगि पाइअहिं पीर पराई ।' मा० २.८५.२ पराउ : आ०-संभावना-प्रए० (स० पलायेत>प्रा० पलाउ)। चाहे भाग जाय । • रबि दै पीठि पराउ ।' दो० ३१६ पराएँ : पराए..... में (पराधीन)। 'मुनिहि मोह, मन हाथ पराएँ ।' मा० १.१३४.५ पराए : पराये । कृ० ४७ पराक्रम : सं०पू० (सं.)। शक्ति, आक्रमण आदि का उत्साह, पौरुष । मा. ६.२७ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब-कोश 677 पराग : सं०० (सं.)। पुष्प-रज । मा० १.३२५.६ परागा : पराग । 'बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।' मा० १.१.१ परात : वकृ० । भागते । 'भभरे, बनइ न रहत न बनइ परातहिं ।' पा०म० पराध : अपराध । दो० ४७२ पराधीन : (पर+अधीन) परवश, परतन्त्र । मा० १.१०२.५ पराधीनता : सं०स्त्री. (सं०) । परवशता, परतन्त्रता । विन० २६२.३ परान : भक० अव्यय । भागने, पलायन करने । 'तब लगे कीस परान ।' मा० ६.१०१.३ परानंद : परमानंद । मा० ७.४६ परानि : परानी । 'मानहुं सती परानि।' दो० २५३ परानी : भूक स्त्री० । भागी, भाग चली। 'रानी जाति हैं परानी। कवि० ५.१० पराने : भूक००ब० । भाग चले । 'बालक सब लै जीव पराने।' मा० १.६५.५ परान्यो : भक.पु.कए । भाग चला। 'पांवर लै प्रभुप्रिया परान्यो।' गी० ३.८.२ पराभउ : पराभव+कए । एकमात्र तिरस्कार । 'सोउ तेहि सभी पराभउ पावा।' मा० १.२६२.८ पराभव, भौ : सं०पु० (सं०)। (१) तिरस्कार । (२) तिरोभाव, प्रलय= लीनावस्था । 'भव भव बिभव पराभव कारिनि ।' मा० १.२३५.८ पराभो : पराभउ । कवि० ७.१२५ पराय : (१) वि.पु. (सं० परकीय>प्रा० पराय) । पराया, दूसरे का । 'पिसुन पराय पाप कहि देहीं ।' मा० २.१६८.१ (२) पराइ। भाग जाता है । 'पुन्य पराय पहार बन ।' दो० ५५६ परायन : वि० (सं० परायण) । (१) समर्पित अनन्य भाव से अनुरक्त=एक निष्ठ । 'विगत काम मम नाम परायन ।' मा० ७.३८.५ (२) आसक्त । 'काम क्रोध मद लोभ परायन ।' मा० ७.३६.५ पराये : पराय । 'कबहुं न जात पराये धामहिं ।' कृ. ५ । पराव, वा : पराय । परकीय । 'धनु पराव विष तें बिष भारी।' मा० २.१३०.६ परावन : सं०० (सं० पलायन) । भगदड़ । 'सुरपुर नितहिं परावन होई ।' मा० १.१८०.८ परावनो : परावन+कए । भगदड़। 'परावनो परो सो है ।' कवि० ७.८४ परावर : वि० (सं० परापर, परावर>प्रा० परावर) । सबसे ऊपर तथा सबसे नीचे; दूर तथा निकट, पुरातन तथा नवीन=चिरन्तन ; सर्वत्र देशकाल में व्यापक; आरपार ।' मा० १.११६ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 578 तुलसी शब्द-कोश परावा : पराव । 'करहिं मोह बस द्रोह परावा ।' मा० ७.४०.६ परास : सं०० (सं० पलाश) । टेसू का वृक्ष, किंशुक । मा० ३.४०.६ पराहि, हीं : आ०प्रब० (सं० पलायन्ते>प्रा० पलंति>अ० पलाहिं) । भागते हैं। 'हमहि देखि मृग निकर पराहीं ।' मा० ३.३७.५ पराहि : आ०मए । तू भाग । 'पराहि जाहि पापिनी ।' हनु० २६ परि : (१) पूकृ० । पड़ कर । 'बिनय करबि परि पायें। मा० २.६८ (२) परी । गिर पड़ी। 'परि मुह भर महि ।' मा० २.१६३.४ (३) (ज्ञात) हो सकी। 'जरी न परि पहिचानि ।' गी० ६.६.४ (४) अव्यय (सं० परम्) । केवल । 'संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेहीं।' मा० ७.६६.७ (५) अवश्य । 'राम परायन सो परि होई ।' मा० ७.६७.६ परिअ : आ०भावा० । पड़ा जाय, पड़ना चाहिए। 'मारतहूं पा परिअ तुम्हारें।' मा० १.२७३.७ परिकर : सं०० (सं.)। (१) फेंटा, कमरबन्द । 'पीत बसन परिकर कटि भाथा ।' मा० १.२१६.३ (२) परिकर बाँधना=तैयार होना । 'परिकर बाँधि उठे अकुलाई ।' मा० १.२५०.६ परिखिहि : आ०कवा०प्रब० (सं० परीक्ष्यन्ते>प्रा० परिक्खीअंति>अ० परिक्खिअहिं) । परखे जाते हैं, जाँच में आते हैं। 'पुरुष परिखिअहिं समय सुभाएँ।' गी० २.२८३.६ परिखेसु : आo-भ०+आज्ञा-मए० (सं० प्रतीक्षेथाः>प्रा० पडिक्खेसु) । तू प्रतीक्षा करना । 'परिखेसु मोहि एक पखवारा।' मा० ४.६.६ परिखेहु : आ० -- भ०+प्रार्थना-मब० (सं० प्रतीक्षेध्वम् >प्रा० पडिक्खेह>अ० पडिक्खेहु) । तुम प्रतीक्षा करना । 'तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ।' मा० ५.१.२ परिखौ : आ०मब० (सं० प्रतीक्षध्वम् >प्रा० पडिक्खह>अ० पडिक्खह) । प्रतीक्षा करो । 'परिखो पिय छाँह घरीक टं ठाढ़े।' कवि० २.१२ परिगहैगो : आ० भ००प्रए० । ग्रहण करेगा। अपनायेगा । 'लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ।' विन० २५९.३ परिघ : सं०० (सं०) । लोहे का बड़ा भाला। मा० ३.१६ छं० परिचरजा : सं०स्त्री० (सं० परिचर्या) । सेवा, टहल । मा० ७.२४.६ परिचारक : सं०+वि०० (सं.)। सेवक, दास । मा० १.२८७.५ परिचारिका : सं+वि०स्त्री० (सं०) । दासी, सेविका । मा० १.३२६ छं० २ परिचेहु : आ०- भूकृ००+मब० । (१) परक गये हो, अभ्यस्त हो चुके हो। (२) परख चुके हो। 'डहकि डहकि परिचेहु सब काहू।' मा० १.१३७.३ For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्द-कोश 579 परियो : सं०० (सं० परिचय) कए। पहचान । 'बहतन्ह परिची पायो ।' गी० १.१७.१ परिच्छा : सं०स्त्री० (सं० परीक्षा)। परख, जाँच । मा० १.७७ परिच्छित : (१) भूक०० (सं० परीक्षित) । परखा हुआ। पाप को दाम परिच्छित ।' कवि० ७.१७६ (२) सं०० (सं० परीक्षित्) । कुरुवंश का एक राजा जो जनमेजय का पिता और अभिमन्यु का पुत्र था। 'परिछन : भकृ० अव्यय (सं० प्रतीक्षितुम् >प्रा० पडिच्छिउँ>अ० पडिच्छण)। पूजन करने, (वर का) स्वागत-सम्मानादि करने । 'परिछन चली हरहि हर वानी।' मा० १.६६.३ परिछनि : सं०स्त्री० (सं० प्रतीक्षण>प्रा० पडिच्छण) । पूजन, वर पूजन । 'चली मुदित परिछनि करन ।' मा० १.३१७ परिछोहि : परिछाहीं। 'तनु परिहरि परिछांहि रही है।' गी० २.६.३ 'परिछाहीं : सं०स्त्री० (सं० प्रतिच्छाया>प्रा० पडिछाही) । प्रतिच्छवि, प्रतिबिम्ब । 'जहें तह देखहि निज परिछाहीं।' मा० ७.२८.५ परिछि : पू० (सं० प्रतीक्ष्य>प्रा० पडिक्खिअ>अ० पडिक्खि) । पूजित करके । 'बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ।' मा० १.३४६ परिछिन्न : वि० (सं० परिच्छिन्न)। सीमित, आवृत, परिमित । 'माया बस परिछिन्न जड़ जीव ।' मा ० ७.१११ ख परिजन : सं०० (सं०) । (१) परिचारक वर्ग जो परिवार के परिवेश में रहता है। 'नतरु प्रजा परिजन परिवारू ।' मा० २.३०५.६ (२) गोस्वामी जी ने परिवार अर्थ में भी लिया है । 'हरहु दुसह आरति परिजन की।' मा० २.७१.२ परिजनन्हि : परिजन+संब० । परिजनों (को)। 'प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।' मा० ७.२०.५ परिजनहि : परिजन को ! 'सासु ससुर परिजनहि पिआरी ।' मा० २.५८.८ परिताप : सं०० (सं.)। (१) तचन, तीव्र आतप (घाम)। 'भय बिषाद परिताप घनेरे ।' मा० २.६६.५ (२) व्यापक क्लेश, यन्त्रणा । 'मिटहिं पाप परिताप हिए तें।' मा० १.४३.६ परितापा : परिताप । मा० १.६३.६ ।। परितापी : वि०पु० (सं० परितापिन्) । अति क्लेशदायी। 'निसिचर निकर देव परितापी ।' मा० १.१८३.३ परितापु : परिताप+कए । अद्वितीय सन्ताप । 'जितें पाप परितापु ।' दो० ४३२ परितोष : सं०० (सं.)। पूर्ण सन्तोष । 'मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा ।' मा० ७.११३.६ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 380 तुलसी शब्द-कोश परितोषत : वकृ०० । परितृप्त करता या परितृप्ति पाता । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें।' मा० १.२७.३ परितोषा : भूकृ०० । परितोष दिया । 'कहि प्रिय बचन काम परितोषा।' मा० १.१२७.१ परितोषि, षी : पूकृ० । परितोष देकर । मा० २.१५१ छं परितोषिके : भकृ०० । परितोष देने । 'जन परितोषिबे को मोदक सुदान भो । हनु० ११ परितोषी : भूकृ०स्त्री०ब० । पूर्ण सन्तुष्ट की। ‘मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। मा० २.११८.४ परितोषी : परितोषि । परितोष देकर । मा० १.१७१.६ परितोषु, पू : परितोष+कए० । 'दुचित कतहुं परितोषु न लहहीं।' मा० १.३०२.७ परितोषे : भूक००ब० । (१) परितुष्ट किये । 'मीत पुनीत प्रेम परितोष ।' मा० २.८०.४ (२) परितुष्ट हुए । 'पूरनकाम रामु परितोषे ।' मा० १.३४२.६ परितोसु : परितोष । विन० १५६.५ परित्याग : सम्पूर्णत: त्याग । मा० १.६१.७ परित्राता : सर्वथा त्राण देने वाला, पूर्ण रक्षक । मा० १.१६३.१ परिधन : सं०० (सं० परिधान) । वस्त्र, पहनावा । 'भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा।' मा० १.१०६.६ परिधान : सं.पु. (सं.) । पहनावा । परिधाना : परिधान । 'कृस सरीर मुनि पट परिधाना ।' मा० १.१४३.८ परिनाम : सं०० (सं० परिणाम) । (१) फल । 'भल परिनाम न पोचु ।' मा० २.२८२ (२) कर्मफल । 'परिनाम मंगल जानि ।' मा० २.२०१ (३) तात्त्विक परिवर्तन जैसे दूध से दही। (४) अविकृत परिवर्तन जैसे, ब्रह्म से जगत् । (५) अन्त । 'सुनत मधुर परिनाम हित ।' मा० २.५० । परिनामहि : अन्ततः, फलतः । 'तो कोउ नृपहि न देत दोष परिनामहि । जा०म०७४ परिनामा : परिनाम । मा० २.२३.६ परिनामु, मू : परिनाम+कए । 'लागत मोहि नीक परिनाम् ।' मा० २.२६१.८ परिनामें : परिनामहिं । 'मतो नाथा सोई जातें नीक परिनाम।' गी० ५.२५.३ पारनामो : परिणाम भी, अन्त भी। 'ता को भलो..... आदि मध्य परिनामो। विन० २२८.१ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 581 परिपाका : वि०पु० (सं० परिपक्व) । पका हुआ परिणत । 'सोइ पाइहि महु फलु ___ परिपाका ।' मा० २.२१.५ परिपाक : सं०० (सं० परिपाक) कए । परिणति, फल । 'बिनु समुझे निज अघ परिपाक।' मा० २.२६१.६ परिपाके : भूकृ००० । (सं० परिपक्व) । पके, निष्पन्न, परिणत हुए । 'कोने बड़भागी के सुकृत परिपाके हैं ।' गी० १.६४.१ परिपाटी : सं०स्त्री० (सं०) । रीति, पद्धति, व्यवस्था, प्रसिद्धि । 'प्रगटी धनु विघटन परिपाटी।' मा० १.२३६.६ परिपालय : आ०-प्रार्थना-मए । तू परिपालन कर । मा० ७.३४.७ परिपूरन : वि० (सं० परिपूर्ण) । सर्वथा पूर्ण, भरापूरा । 'प्रेम परिपूरन हियो।' मा० १.१०१ छं. परिपूरन-काम : वि० (सं० परिपूर्ण काम) । सम्पूर्ण मनोरथों वाला। इच्छापूर्ति हेतु किसी अन्य की अपेक्षा न करने वाला । "तुम्ह परिपूरन-काम ।' मा० परिपूरित : परिपूरन (सं.)। 'मिले प्रेम परिपूरित गाता ।' मा० १.३०८.८ परिपोषे : भूकृ००ब० । सर्वथा पुष्ट किये । पोषण =अनुग्रह से परिपर्ण किये । 'आदर दान प्रेम परिपोषे।' मा० १.३५२.४ परिबे : भक०० । पड़ना चाहिए । 'प्रभु परमिति परिबे हो।' कृ. ३६ परिमिति : सं०स्त्री० (सं.)। परिमाण, सीमा, पराकाष्ठा । 'प्रानो चलिहैं परिमिति पाई।' कृ० २५ परिय : परिअ । 'परिय न कबहुं जमधारि ।' विन० २०३.८ परिये : परिय । पड़ना हो । 'जा तें भवनिधि परिये ।' विन० १८६.५ । परिवा : सं०स्त्री० (सं० प्रतिपद्=प्रतिपदा>प्रा० पडिवआ)। पाख की पहली तिथि । विन० २०३.२ परिवार, रा : (१) सं०० (सं० परिवार) । कुटुम्ब । 'प्रिय परिवार पिता अरु माता ।' मा० १.७३.८ (२) समूह, वर्ग। 'प्रबल अविद्या कर परिवारा।' मा० ७.११८.३ परिवारु, रू : परिवार+कए । 'समन सकल भबरुज परिवारू ।' मा० १.१.२ परिहर : परिहरइ । 'जारेहुं सहज न परिहर सोई।' मा० १.८०.६ 'परिहर परिहरह: (सं० परिहरति>प्रा० परिहरइ) आ०प्रए० । छोड़ता है। 'जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहर पुरान ।' मा० ७.१०६ परिहर, ऊ : आ०ए० । छोड़ता-ती हूं; त्याग सकता-ती हूं । 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ।' मा० १.८०.७ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 582 तुलसी शब्द-कोश परिहरत : वकृ.पु । छोड़ता। 'तुलसी मन परिहरत नहिं, पुरबिनिआ की बानि ।' दो० १३ परिहरते : क्रियाति.पुब० । त्याग देते, छोड़ सकते। 'ती कि जानकिहि जानि जिय परिहरते रघुराउ।' दो० ४६३ परिहरहि, ही : आप्रब० (सं० परिहरन्ति>प्रा० परिहरहिं)। छोड़ते हैं, छोड़ ___ सकते हैं। पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।' मा० १.४.७ परिहरहु, हू : आ०मब० । छोड़ दो । 'प्रिया सोचु परिहरहु सबु ।' मा० १.७१ परिहरि : पू० । छोड़कर । 'हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं।' मा० १.७५.३ परिहरिअ : आ०कवा०प्रए । छोड़ा जाय । ‘सोच परिहरिअ तात ।' मा० २.४५ परिहरिय : परिहरिअ । जा०म० ७६ परिहरिये : परिहरिय । छोड़िये । विन० १८६.२ परिहरिहि : आ०भ०प्रए० (सं० परिहरिष्यति>प्रा० परिहरिहिइ)। छोड़ेगा-गी। 'सीय कि पिय संगु परिहरिहि ।' मा० २.४६ परिहरिहै : परिहरिहि । 'मन..... कलि कुचालि परिहरिहै ।' विन० २६८.३ परिहरी : भूकृ०स्त्री०ब० । छोड़ दीं। 'नर नारिन्ह परिहरी निमेषं।' मा० १.२४६.१ परिहरी : भूकृ०स्त्री० । छोड़ दी । 'झूठे अघ सिय परिहरी ।' दो० १६६ परिहरु : आ०- आज्ञा-मए० (अ०) । तू छोड़ दे। 'परिहरु दुसह कलेस सब।" मा० १.७४ परिहरें: छोडने से । 'रामहि परिहरें निपट हानि ।' दो० ६६ परिहरे : भूकृ००ब० । छोड़ दिये । 'पुनि परिहरे सुखानेउ परना।' मा० १.७४.७, परिहरेउ : आ०-भूक पु+उए० । मैंने छोड़ा। 'सिसुपन तें परिहरेउँ न सँगू।' मा० २.२६०.७ परिहरेउ, ऊ : भूकृ००कए० । छोड़ दिया। 'प्रिय तन तृन इव परिहरेउ ।' मा०. परिहरेहि : छोड़ने में ही । 'अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।' मा० ४.७.८ परिहर : परिहरइ । छोड़े। 'मनु परिहरै चरन जनि भोरें। मा० १.३४२.५ परिहर्यो : परिहरेउ । छोड़ दिया । “उदर सुख त परिहर्यो।' विन० १३६.२ परिहहिं : आ०भ० प्रब० (सं० पतिष्यन्ति>प्रा० पडिहिति>अ० पडिहिहिं)। पड़ेगे, गिरेंगे । 'परिहहिं धरनि राम सर लागें ।' मा० ६.२७.४ परिहास : सं०० (सं०) । विनोद, हँसी, मजाक (स्त्री० प्रयोग भी द्रष्टव्य है)। ____ 'जौं परिहास कीन्हि कछु होई ।' मा० २.५०.६ परिहासा : परिहास । 'सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ।' मा० ३.२२.१० For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 583 परिहि : आ०भ०प्रए० (सं० पतिष्यति>प्रा० पडिहिइ) । पड़ेगा। 'समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी।' मा० २.२२६.४ परिहैं : परिहहिं । 'हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर ।' दो० ३०१ परिहै : (१) परिहि । 'जब मन फिरि परिहै।' विन० २६८.१ (२) मए० (सं० पतिष्यसि>प्रा० पडिहिसि>अ० पडिहिहि)। तू पड़ेगा। 'नाहि त भव बेगारि मह परिहै ।' विन० १८६.१ परी : भूक ०स्त्री०ब० । पड़ी, जा पड़ीं। 'परी बधिक बस मनहुं मराली ।' मा० २.२४६.५ परी : भूक०स्त्री० । पड़ी, पड़ी हुई। 'मुरुछित अवनि परी।' मा० २.१६४.१ (२) आई, प्राप्त हुई । 'परी न राजहि नीद निसि ।' मा० २.३८ (३) घटित हुई । 'उपजि परी ममता मन मोरें।' मा० १.१६४.४ (४) घटित हुई (होनी)। 'तुलसी परी न चाहिऐ चतर चातकहि चूक ।' दो० २८२ (५) हो सकी, जा सकी। 'समुझि परी कछु म ति अनुसारा।' मा० १.३१.१ (६) आ पड़ी, टूट पड़ी । परी जासु फल बिपति घनेरी' मा० १.४५८ (७) बन पडी । 'परी हस्त असि रेख ।' मा० १.६७ (८) प्रणत हुई। 'अस कहि परी धरनि धरि सीसा।' मा० १.७१.७ परीगो : पड़ गया । 'परीगो काल फग में ।' कवि० ७.७६ परीछा : परिच्छा । मा० २.१५.६ परीछित : परिच्छित । राजा परीक्षित् । कवि० ७.१८१ परुष : वि० (सं.) । कठोर, कर्कश, निष्ठुर, क्रूर, उग्र। मा० ३.३८ ख परुषपन : (दे० पन) । परुषता, कठोर व्यवहार । 'प्रेम न परखिअ परुषपन ।' दो. २६८ परुषा : परुष+स्त्री० । कठोर, उग्र । 'परुषा बरषा..... सहि के।' कवि० ७.३३ परुषाच्छर : सं०० (सं० परुषाक्षर)। परुष वचन । 'इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।' मा० ७.१०२.४ परसन : भकृ० अव्यय (सं० परिवेषयितुम्>प्रा. परिवेसिउ>अ० परिवेसण) । परोसने, भोज्य-सामग्री देने (परिवेषण करने) । 'परुसन लगे सुआर सुजाना।' मा० १.३२६.३ परसहु : आ.मब० (सं० परिवेषयत>प्रा० परिवेसह >अ० परिवेसहु)। परोसो, भोजन सामग्री विभक्त करो। 'तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई।' मा० १.१६८.५ परुसि : प्रकृ० (सं० परिवेष्य>प्रा० परिवेसिअ>अ० परिवेसि)। परोसने का कार्य सम्पन्न कर । 'छिन महं सबके परुसि गे।' मा०१.३२८ 'पेखत परुसि धरो।' विन० २२६.३ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 584 तुलसी शब्द-कोश परें : पड़ने पर, पड़ने से । जिमि जवास परें पावस पानी।' मा० २.५४.२ परे : भूकृ००ब० । (१) लुण्ठित हुए। 'भूतल परे मुकुट अति सुंदर ।' मा० ६.३२.५ (२) गिर पड़े । 'परे भूमि कपि बीर ।' मा० ६.५० (३) प्राप्त हुए, गोचर हुए । 'राम लखन जब दृष्टि परे री।' गी० १.७६.१ (४) प्रणत हुए । 'परे दंड इव गहि पद पानी।' मा० १.१४८.७ (५) डाले (परोसे) गये । 'भांति अनेक परे पकवाने ।' मा० १.३२६.२ (६) टूट पड़े । 'गज परे रिपु कटक मझारी।' मा० ६.४४.७ (७) पड़ाव डालकर रहे । 'प्रभु आइ परे सुनि सायर कोठे ।' कवि० ६.२८ परेउ : आ०-भूकृ०पु+उए । मैं गिर पड़ा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा।' मा० ४.२८.४ परेउ, ऊ : भूकृ००कए । (१) गिर पड़ा। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।' मा० १.१७४.८ (२) लेट गया । 'परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।' मा० १.१७२.१ (३) हो सका । 'राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ ।' मा० १.१२०.२ (४) प्रणत हुआ । 'प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।' मा० ४.२.५ (५) फॅस गया । 'फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ।' मा० १.१५७.८ परेखो : सं०पू०कए०। (१) परख, परीक्षण, सोच-विचार । 'इतनो परेखो, सब भांति समरथ ।' हनु० २६ (२) प्रतीक्षा, आदरभाव; सम्मान देकर विचार । 'सोइ बावरि जो परेखो उर आने ।' कृ० ३८ परेश, स : वि० सं०० (सं०-पर+ईश) । सर्वोपरि स्वामी, परमेश्वर । मा० ७.१०८ छं. ६ परेस : परेश (प्रा.)। मा० १.११६.८ परेहु : आ०-भूक००+मब० (१) आ फंसे हो । 'परेहु कठिन रावन के पाले।' मा० ६.६०.८ (२) लोट रहे हो। आजु परेहु अनाथ की नाईं।' मा. ६.१०४.८ पर : परहिं । 'बड़े अलेखी लखि परें।' विन० १४७.५ परै : (१) परइ। पड़ जाय । 'सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें। मा० ४.३.१ (२) (जा) सके । 'सुभगता न पर कही।' मा० १.८६ छं० (३) हो सकता है। 'पर उपास कुबेर घर ।' दो० ७२ (४) घटित होता है । 'सब दिन रूरो पर पूरो।' हनु० १२ परंगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । (१) वह पड़ेगी। 'साँचिये परंगी सही।' विन० २५४.३ (२) मए । तू पड़ेगी। 'गुनी के पाले परैगी।' हनु० २५ परों: परहुं । परसों । 'आज कि कालि परों कि नरों।' कवि० ७.१७९ परो : पर्यो। (१) डाला हुआ। रहीं दरबार परो लटि लूलो।' हनु० ३६ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 585 (२) गिरा हुआ (पड़ा मिला)। 'कृपिन देइ पाइअ परो।' दो० १७१ (३) (जाना) जा सका । 'तुलसी समुशि परो।' विन० २२६.६ परोसो : (१) पड़ा हुआ सा । 'परावनो परोसो है।' कवि० ७.८४ (२) सं.पु. कए० (सं० परिवेषम्>प्रा० परिवेसं>अ० परिवेसउ)। परसा हुआ थाल या पत्तल । 'तुलसी परोसो त्यागि मागे कूर कोर रे ।' विन० ६६.५ (३) वि०पू० कए० (सं० परिवेषक:>प्रा० परिवेसओ>अ० परिवेसउ)। परोसने वाला, भोजन देने वाला। 'पाहुने कृसानु, पवमानु सो परोसो।' कवि० ५.२४ (४) भूक०कए० (सं० परिवेषितम् >प्रा० परिवेसिअं>अ० परिवेसिअउ) । परिवेषण किया। 'करम फल भरि भरि बेद परोसो।' विन० १७३.२ परौं : (१) परहुं । परसों। 'पथिक जे एहि पथ परौं सिधाए।' गी० २.३६.१ (२) परउँ । पडूं, पड़ता-ती हूं। 'महरि तिहारे पायँ परौं।' कृ० ७ (३) चाहे पडूं, जा गिरूँ । 'नरक परौं बरु सुरपुर जाऊ ।' मा० २.४५.१ पर्न : परन । मा० ७.१३ छं० ५ पर्नकुटी : परनकुटी। कवि० ३.१ पर्नसाल : परनसाल । गी० ३.१७.१ पर्वत : सं०० (सं० पर्वत)। पहाड़ । मा० ४.१.१ पर्वताकारा : वि०पू० (सं० पर्वताकार) । पहाड़ जैसे डीलडोल वाला। मा० ४.३०.६ पयंक : पलँग (सं.)। विन० १८.४ पर्यंत : क्रि०वि० (सं.)। तक । 'भुवन पर्यंत पद तीनि करणं ।' विन० ५२.५ पर्यो : परेउ । (१) गिर पड़ा। 'पर्यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो।' मा० ६.६५.७ (२) बन गया। 'कमठ कठिन पीठि घट्ठा पर्यो मंदर को।' कवि० पर्व : दे० परब । पूर्णिमा। विन० १६.१ पलंग : सं०० (सं० पल्यङक=पर्यङक>प्रा. पल्लंक) । शय्याविशेष । 'चरन पखारि पलँग बैठाए।' मा० ४.२०.५ पल : सं०० (सं० ) । (१) घड़ी के ६०वें भाम का समय । (२) पलक मारने का समय । 'देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ।' मा० २.२४८.६ (३) पलक, नेपुट । 'रहेउ ठठकि एकटक पल रोकी।' मा० ५.४५.३ (४) मांस । 'कलि मल पल पीन ।' कवि० ७.१४२ पलक : पल । (१) नेत्रपुट । 'पलक नयन इव सेवक त्रातहि ।' मा० ७.३०.३ (२) पल भर का समय । 'बासर जाहिं पलक सम बीती।' मा० २.२५२.१ ।। पलकनि, न्हि : पलक+संब० । पलकों (ने)। 'जब पलकनि हठि दगा दई।' कृ० २४ 'पलकन्हिहूं परिहरी निमेषे ।' मा० १.२३२.५ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 586 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश पलकें : पलक + ब० । कवि० २.२३ पलकt : एक पलक भी । 'पलको न लावतीं ।' कवि० २.१३ पलट : पूकृ० (सं० पर्यस्य > प्रा० पलट्टि > अ० पल्लट्टि) । (१) नीचे से ऊपर करके । 'उलट पलट लंका सब जारी । मा० ५.२६.८ (२) बदल कर (३) उँडेल कर । 'पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ।' मा० ७.४४.२ पलटे : भूकृ०पु० (सं० पर्यंत > प्रा० पल्लट्ट) । (१) विपरीत, प्रतीप । 'उलटेपलटे नाम महातम । विन० २२८.४ (२) बदले में । 'पूजा लेत देत पलटे सुख ।' दिन २३६.२ पलना : पालने में । 'करि सिंगार पलनां पोढ़ाए । मा० १.२०१·१ पलना : सं०पु० (सं० पालनक > प्रा० पालणअ ) । पालना, बच्चों का झूला | मा० १.१६८.८ पलिअहि : आ०कवा०प्रब० (सं० पाल्यन्ते > प्रा० पालीअंति > अ० पाली अहि) । पाले जाते हैं, पाले जायें । 'बायस पलिअहं अति अनुरागा ।' मा० १.५.२ पलु : पल + कए० । एक पल का समय । 'पवन के पूत को न कूदिबे को पलु गो ।' कवि० ४.१ पलुहइ : आ०ए० (सं० प्ररोहते > प्रा० पलहइ ) उगता-ती है; कल्ले फोड़ता-ती है । पुनि ममता जवास बहुताई । पलुहइ नारि सरद ऋतु पाई ।' मा० ३.४४.६ पलुहत: वकृ० | पनपती-ती है । 'पलुहत गरजत मेह ।' दो० ३१६ पलुहावहिंगे : आ०भ०पु० प्रब० । पनपाएंगे, हरा भरा करेंगे । 'बिरह अगिनि जरि रही लता ज्यों कृपादृष्टि जल पलुहावहिंगे ।' गी० ५.१०.३ पलोटत: वकृ०पु० | दबाता ते । 'पाय पलोटत भाइ ।' मा० २.८६ पलोटिहि : आ०भ०प्र० । दबाएगा-गी । 'पाय पलोटिहि सब निसि दासी ।' मा० २.६७.५ For Private and Personal Use Only पल्लव: सं०पु० (सं० ) । किसलय । मा० १.८७.५ पल्लवत: वकृ०पु० । पल्लवयुक्त होता ते । बढ़ता, विकास लेता । 'पल्लवत फूलत नवल नित ।' मा० ७.१३.५ पल्लवनि : पल्लव + संब० । पल्लवों (से) । ' कपट दल हरित पल्लवनि छावीं ।" विन० २०८.२ पल्लवित : वि० (सं० ) । पल्लव युक्त, परिवर्धित | मा० १.३४६ पवन : सं०पु० (सं० ) । वायु । मा० १.७.६ पवनकुमार, रा : वायु पुत्र हनुमान् । मा० १.१७; ५.२.३ पवनज : हनुमान् । गी० ५.२१.२ पवनतनय : हनुमान् । मा० ५.०.६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 587 पवननंदनु : अकेला हनुमान् । कवि० ६.४७ पवनपूत : हनुमान् । दो० ५५ पवनसुत : हनुमान् । मा० १.२६.६ पवनसुव : पवनसुत (सं० सुत>प्रा० सुअ) । हनु० १ पवनसुवन : हनुमान् । रा०प्र० ३.५.४ पवनि : पावनि । पवित्र । 'गावत तुलसिदास कीरति पवनि ।' गी० ३.५.५ पवनु, न : पवन+कए० । वायु । 'पंथ कथा खर आतप पवन ।' मा० १.४२.४ पवमान : सं०० (सं० ) । वायु । 'पाहुने कृसानु पवमान सो परोसो।' कवि० ५.२४ पवमानु : पवमान+कए। कवि० ७.४२ पवरि : पौरि । द्वार । 'पहिलिहि पवरि सुसामध भासुख दायक ।' पा०म० ११७ पवारें : (सं० प्लावितेन, प्रवालितन>प्रा० पव्वालिएण>अ० पव्वालिएँ) । फेंकने . से । 'रज होइ जाइ पषान पवारें ।' मा० १.३०१.३ पवारे : पबारे। पवित्र : पबित्र । मा० ७.५५.१ पश्यन्ति : आ०पब० (सं.)। देखते हैं। मा० १ श्लोक २ पषान : सं०० (सं० पाषाण) । पत्थर । मा० १.८०.६ पषाननि : पषान+संब० । पत्थरों (से) । 'सुनियत सेतु पयोधि पषाननि ।' विन० २२६.४ पषाना : पषान । मा० २.२२०.७ पसाउ, ऊ : सं०पु०कए० (सं० प्रसादः, प्रसादम्>प्रा० पसाओ, पसायं>अ० पसाउ) । (१) कृपा, अनुग्रह । 'सासति करि पुनि करहिं पसाऊ ।' मा० १.८६.३ (२) देव से प्राप्त वरदान रूप प्रसाद । 'पाइहै प्रेम पसाउ ।' विन० १००.१० पसारत : वकृ०० (सं० प्रसारयत्>प्रा० पसारंत)। फैलाते । 'किलकत पुनि-पुनि पानि पसारत ।' गी० १.२३.४ पसारहि : आ०प्रब० (सं० प्रसारयन्ति>प्रा० पसारंति>अ० पसारहिं)। फैलाते हैं । 'फरें पसारहिं हाथ ।' दो० ५२ पसारा : भूकृ०० (सं० प्रसारित>प्रा० पसारिअ) ! फैलाया। 'जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा ।' मा० ५.२.७ पसारि : पूकृ० । फैला कर । 'धावा बदनु पसारि ।' मा० ६.७० पसारी : (१) पसारि । 'चले उ गगन कपि पूछ पसारी।' मा० ६.६५.४ (२) भूकृ०स्त्री० । फैलायी। 'तिन्हहि धरन कहुं भुजा पसारी।' मा० ६.६८.७ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 588 तुलसी शब्द-कोश पसीज : आ०ए० (सं० प्रस्विद्यते>प्रा० पसिज्जइ) । पसीज उठता है, द्रवीभूत हो जाता है । पाहनी पसीज ।' कृ० ४५ पसु : सं० (सं० पशु>प्रा० पसु) । जानवर, चौपाया । मा० १.८५.४ (२) पाश___ बद्ध जीव । दे० पसुपति। पसुपति : सं०० (सं० पशुपति) । माया-जाल-बद्ध जीवों (पशुओं) के स्वामी= शिवजी । पा०म०छं० १२ पसुपाल : पशुओं का रखवाला । विन० १३३.३ पसेउ : सं००कए० (सं० प्रस्वेद:>प्रा० पसेओ>अ० पसेउ)। पसीना। 'तन पलेउ कदली जिमि कांपी।' मा० २.२०.२ पस्यंति : पश्यन्ति । मा० ३.३२ छं० ४ पस्यामि : आ०उए० (सं० पश्यामि) । देखता हूं। मा० ६.१०७ छं० पहँ : पहिं । पास से । 'रावन सिव पह लीन्हीं।' विन० १६२.३ पहर : सं०० (सं० प्रहर>प्रा० पहर)। लगभग चार घड़ी का समय । मा० २.२०३ पहरी : वि० सं०० (सं० प्रहरिन्) । पहरा देने वाला, सन्तरी, चौकसी करने वाला । 'पालिबे को कपि भालु बमू जम काल करालहु को पहरी है।' कवि० ६.६ पहरु, रू : पहरी । 'नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु ।' विन० २५०.३ पहरू : पहरु । कवि० ७.३१ पहले : पहिले । 'साधु गनती में पहलेहिं गनावौं ।' विन० २०८.३ पहार, रा : सं०पु । पहाड़, पर्वत । मा० २.३४.१; १८.७ पहरु, रू : पहार+कए० । एक पहाड़ । 'अवध सोध सत सरिस पहारू ।' मा० २.६६.३ पहिं : अव्यय । पास, समीप, प्रति । 'पारबती पहिं जाइ तुम्ह......।' मा० १.७७ पहिचान : (१) संस्त्री० (सं० प्रत्यभिज्ञान>प्रा० पच्चहिआण)। परिचय । 'होइ प्रीति पहिचान बिनु ।' रा०प्र० २.२.५ (२) पहिचानइ । पहचानता है, पहचान सकता है । 'पहिचान को केहि जान ।' मा० १.३२१ छं० 'पहिचान, पहिचानइ, ई : (सं० प्रत्यभिजानीते>प्रा० पच्चहिआणइ) आ०प्रए । पहचानता है । 'सो प्रभुहि पहिचानई ।' विन० १३५.२ पहिचानत : वकृ००। पहचानता-ने; जान जाते। 'बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।' मा० १.२८.५ पहिचानहु : आ०मब० । पहचानते हो। 'पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ।' मा० १.२६१.६ For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 589 पहिचाना : (१) भूकृ.पु । जाना । 'तातें मैं प्रभु नहिं पहिचाना ।' मा० ४.२.६ (२) पहिचानई । 'निज हित अनहित पसु पहिचाना।' मा० २.१६.१ पहिचानि : (१) पूकृ० । पहचान । 'प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।' मा० ४.२.५ (२) पहिचान कर । परिचय । "बिनु पहिचानि प्रान हुँते प्यारी।' मा० १.३२२.६ तासों न करी पहिचानि ।' विन० १६०.५ पहिचानिहो : आ०भ०मब० । पहचानोगे । 'प्रनत प्रेम पहिचानिहो।' विन० २२३.२ पहिचानी : (१) पहिचानि । पहचान कर । 'हरषे हृदय हेतु पहिचानी ।' मा० १.३०७.३ (२) पहिचानि । परिचय । “एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी ।' मा० ५.६.४ (३) भूकृ०स्त्री० । जानी। 'रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।" मा० ३.२६.७ (४) आ०कवा०प्रए । पहचाना जाय, जानिए । 'तुलसी ताहि संत पहिचानी।' वैरा० १४ पहिचानें : (१) पहचान में । करतल-गत न परहिं पहिचानें।' मा० १.२१.५ (२) पहिचान के । 'जिमि भुजंग बिन रजु पहिचानें।' मा० १.११२.१। पहिचाने : (१) भूकृ००ब० । जाने । 'कोउ कह ए भूपति पहिचाने ।' मा० १.२२२.३ (२) पहिचानें । 'संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।' मा० १.६.२ पहिचानेह : आ०-भ०+आज्ञा-मब । तुम पहचान जाना । 'पहिचानेहु तब __ मोहि ।' मा० १.१६६ पहिचान : पहिचानइ । 'पहिचान कोन काहि रे ।' कवि० ५.१६ पहिर, पहिरइ : (सं० परिदधाति>प्रा० परिहइ) आ०प्रए । पहनता है। 'जिमि नूतन पट पहिरइ ।' मा० ७.१०६ ग पहिरत : वकृ.पु । पहनता, पहनते। देत लेत पहिरत पहिरावत ।' गी० १.४.८ पहिरहिं : आ०प्रब० । पहनते हैं । 'पहिरहिं सज्जन बिमल उर।' मा० १.११ पहिराइ : पू० (सं० परिधाप्य>प्रा० परिहाविअ>अ० परिहावि) । पहना कर । 'बालि तनय पहिराइ । बिदा कीन्हि ।' मा० ७.१८ ख पहिराई : भूकृ०स्त्री०ब० । परिधान युक्त की । 'चैल चारु भूषन पहिराईं।' मा० १.३५३.४ पहिराई : भुकृ०स्त्री० । पहनायी। 'पीत झगुलिआ तन पहिरई।' मा० १.१६६.११ पहिराए : भूकृ००ब० । (१) पहनाये । 'सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।' मा० ३.१.४ (२) परिधान युक्त किये । 'पुर नर नारि सकल पहिराए।' मा० १.३५१.६ पहिरायउ, यो : भूकृ०पु०कए । पहिनाया। 'बरहि बसन पहिरायउ ।' पा०म० १२३ पहिरायो : पहिरायउ। गी० १.१७.३ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 550 तुलसी शब्द-कोश पहिरावत : वकृ.पु० (सं० परिधापयत् >प्रा० परिहावंत)। पहनाता। 'लसत ललित कर कमल माल पहिरावत ।' जा०म० १०६ पहिरावनि : सं०स्त्री (सं० परिधापना>प्रा० परिहावणा>अ० परिहावणी= परिहावणि) । परिधानोपहार; पहनावे की भेंट । 'रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्ही ।' मा० १.३५३.५ पहिरावहि : आ०मए० । तू पहना । रचि रचि हार..... राम नृपहि पहिरावहि ।' विन० २३७.४ पहिरावहु : आ०मब० । पहनावो । 'पहिरावहु जयमाल सुहाई।' मा० १.२६४.५ पहिरावौं : आउए । पहनाऊँ, पहनाती हूं। हार बेल पहिरावों चंपक होत ।' बर० १३ पहिरावौ : पहिरावहु । 'पहिरावो राघो जू को सखियाँ सिखावतीं।' कवि० १.१३ पहिरि : पूकृ० । पहन कर। 'अगरी पहिरि कंडि सिर धरहीं।' मा० २.१६१.५ पहिरिअ : आ०कवा०प्रए० । पहना जाता है। 'खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें।' मा० २.१६.४ पहिरें: क्रि०वि० । पहने हुए (पहन कर) । 'कहत चले पहिरें पट नाना ।' मा० १.२६६.१ पहिरे : भूकृ००ब० । पहन लिये । 'कुडल कंकन पहिरे ब्याला ।' मा० १.६२.२ पहिलिहिं : पहली ही । 'पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुखदायक।' पा०म० ११७ पहिलेहि : पहिले ही । मा० १.२२६ पहिलो : वि.पुं०कए० (सं० प्रथमः>प्रा० पहिल्लो) । पहला । 'ऐसिओ मूरति देखे रह्यो पहिलो बिचारु ।' गी० १.८२.३ पहुंच : सं०स्त्री० (सं० प्रभुत्व>प्रा० पहुत्त>अ० पहुच्च)। गति, अधिकार । ___'राजनीति पहुंच जहाँ लौं जाकी रही है।' गी० ५.२४.१ पहुंचति : वकृ०स्त्री० । पहुंचती, अटती। 'बाहु बिसाल जान लगि पहुंचति ।' गी० १.१७.७ पहुंचाइ : पूकृ० । भेज कर, प्रेषित कर। 'गए ते प्रभुहि पहुंचाइ फिरे ।' गी० २.६६.५ पहुंचाई : भूक स्त्री०ब० । भेजी। 'सम सनेह जननीं पहुंचाई।' मा० २.३२०.५ पहुंचाई : पहुंचाइ । 'आयसु पाइ फिरे पहुंचाई ।' मा० १.३६०.१० पहुंचाउ : आ०~-आज्ञा-मए । तू पहुंचा। तहां मोहि पहुंचाउ ।' मा० २.१४६ पहुंचाए : भूकृ०पू०ब० । 'अति आदर सब कपि पहुंचाए।' मा० ७.१६.६ पहुंचाएसि : आ०-भूकृ०पु+प्रए० । उसने पहुंचाया। 'पहुंचाएसि छन माझ निकेता।' मा० १.१७१.७ For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 591 'पहुंचाव पहुंचावड : आ.प्रए० (अ० पहुच्चावइ) । गन्तव्य प्राप्त कराता है । ___ 'जो पहुंचाव राम-पुर तनु अवसान ।' बर० ६७ ।। पहुंचावन : भकृ० अव्यय । पहुंचाने, भेजने । 'संग चले पहुंचावन राजा ।' मा० १.३३६.४ पहुंचावहिं : आ०प्रब० (अ० पहुच्चावहिं) । पहुंचाते-ती हैं । “पहुंचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी।' मा० १.३३७.७ पहुंचावा : भूकृ.पु । पहुंचाया, साथ ले जाकर भेज दिया। 'कपि पुनि बैद तहाँ ___ पहुंचावा ।' मा० ६.६२.४ पहुंचि : पूकृ० । पहुंचकर । कृ० ४५ पहुंचियाँ : पहुंची+ब० । हस्ता-भरण-विशेष । 'पंकज पानि पहुंचियाँ राजै ।' गी० पहुंची : (१) सं०स्त्री० । हस्ता-भरण-विशेष । 'पहुंची कर कंजनि ।' कवि० १.२ (२) भूकृ०स्त्री० ! गन्तव्य प्राप्त हुई। 'पहुंची जाइ जनेत ।' मा० १.३४३ पहुचे : भूकृ०पु०ब० । 'मुनि आश्रम पहुंचे सुरभूपा ।' मा० ३.१२.५ पहुचैहउँ' : आ०भ० उए० (अ० पहुच्चाविहिउँ) । पहुंचा दूंगा। 'पहुंचैहउँ सोवतहि निकेता।' मा० १.१६६.८ पहुचावहिं : पहुंचावहिं । पा०म० १४३ पहुनई, नाई : सं०स्त्री० (सं० प्रधुणता>प्रा० पहुणया) । आतिथ्य, अतिथि सत्कार । 'भूप पहुनई करन पठाई।' मा० १.३०६.८ पहुनाई : पहुनाई में, अतिथि रूप में । 'दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाईं।' कवि० २.२ पहुनाई : पहुनई । पहुनाई करि हरहु श्रम ।' मा० २.२१३ पांउ : पाउ । 'भयो रजायसु पांउ धारिए ।' गी० ५.३५.२ पांगुरे : संपु० (सं० पङ्गल) पंगु । 'पांगुरे को हाथ पाय आँधरे को आँखि है ।' विन०६६.३ पांच : पंच। मा० २.२४.१ पाँचद : पाँचै । पाँचवीं+पञ्चमी तिथि । विन० २०३.६ पांचसर : पंचबाण (सं० पञ्चशर) । कामदेव । गी० ७.१८.१ पांचहि : पंचों को, सभी जनवर्गों को। 'जौं पाँचहि मत लागइ नीका ।' मा० २.५.३ पांचा : पाँच । 'कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा।' मा० २.२०६.२ पांचें : सं०स्त्री० (सं० पञ्चमी) । पाख की पांचवीं तिथि । पा०म० ५ पाँचो : पञ्च भी, जनवर्ग भी । 'बहुरि पूंछिये पांचो।' विन० २७७.३ पॉछि : पू० (सं० प्रतक्ष्य>प्रा० पच्छिअ>अ० पच्छि) । त्वचा छील कर, खुरच कर । मरमु पाछि जनु माहुरु देई ।' मा० २.१६०.७ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 592 www.kobatirth.org पांडु: पाण्डवों के पिता का नाम । दो० ४१६ पांडुबधू : द्रौपदी | कवि० ७.८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांडर : सं०पु० (सं० पाण्डर) । चमेली (पुष्प) । गी० २.४३.३ पांडव : पाण्डुपुत्र = युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव । दो० ४२६ पांडव : ( पांडवन + इ) पाण्डवों को । 'प्रभु प्रसाद सौभाग्य बिजय जस पांडवन बरिआइ बरें ।' विन० १३७.४ तुलसी शब्द-कोश पांडुसुत: पांडव । विन० १०६.४ पांड्सुतन : पांडुसुत + संब० । पाण्डवों। 'पांडवन की करनी ।' विन० २३६.२ पाँति, ती : सं०स्त्री० (सं० पक्ति > प्रा० पंति ) । (१) श्रेणी । मा० १.६६.७ (२) जेवनार में उच्च-नीच के अनुसार बिठाई जाने वाली पंगत । 'छोटी जातिपाँति । कवि० ७ १८ पाय : (१) पाय । पैर पर । 'महरि तेरे पाँय पायनि: पायन्ह | पैरों में पाँव : पाउँ । पैर । 'क हैं 1 1 पाँगुरे को हाथ पाय ।' बिन० ६६.३ (२) पायँ । पैरों परौं ।' कृ० ७ 'पैंजनी पाँयनि बाजति ।' गी० १.३२.२ सब सचिव पुकारि पाँव रोपि हैं ।' कवि० ६.१ पाँवड़े : सं०पु० (सं० पादपट > प्रा० पावड = पावडय) ब० । पैरों के नीचे स्वागतार्थं बिछाये जाने वाले वस्त्र । 'पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना । मा० १.३१६.३ पाँवर : पावर । 'पाँवर पूर्जाह भूत ।' दो० ६५ पॉवरनि: पाँवर + संब० । नीच जनों । 'पाँवरनि पर प्रीति । विन० २१४.१ पाँवरि रो : पावरी । 'खड़ाऊँ । 'पाँवरि पुलकि लई है । गी० २.७८.२ रा०प्र० २.५.५ पाँसुरी : पसली से । 'मसक की पाँसुरीं पयोधि पाटियतु है ।' कवि ० ७.६६ पाँसुरी : सं० स्त्री० (सं० पशू > प्रा० पंसू = पंसुल्ली = पंसुली ) । पसली, वक्ष के पार्श्वभाग की हड्डी | पाँसे : पासे । 'भली भाँति भले पैंत भले पाँसे परिगे । गी० २.३२.४ पापाय (सं० पाद > प्रा० पाअ ) । चरण, पैर । 'मारतहूं पा परिअ तुम्हारें ।' For Private and Personal Use Only मा० १.२७३.७ पाइँ : पायें। पैरों में । 'पाईं पनह्यो न ।' गी० २.२७.३ पाइ : (१) पाय । पैर । पाइ तर आइ रह्यों ।' कवि० ७.१६६ (२) पूकृ० (सं० प्राप्य > प्रा० पाविअ > अ० पावि) । पाकर । 'खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू ।' मा० १.७.४ पाइअ य, ये : आ०कवा०प्र० (सं० प्राप्यते > प्रा० पावीअइ ) । पाया जाता है । 'सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा । मा० १.३५.७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 593 तुलसी शब्द-कोश पाइअहिं : आ०कवा०प्रए (सं० प्राप्यन्ते>प्रा० पावीअंति>अ० पावीअहिं)। पाये ___ जाते हैं, पाई जाती हैं । 'बेगि पाइअहिं पीर पराई।' मा० २.८५.२ पाइए, ऐ : पाइअ । 'बस्तु बिनु गथ पाइए।' मा० ७.२८ छं० पाइक : वि०+सं०० (सं० पायिक = पादातिक>प्रा० पाइक्क) । पैदल अनुचर ___ आदि । 'सरव करहिं पाइक फहराहीं।' मा० १.३०२.७ पाइन्हि : आ० भूकृ०+प्रब० । उन्होंने पाये । 'जन्म फल पाइन्हि ।' पा०म० ७५ पाइब : भक०० (सं० प्राप्तव्य>प्रा० पाविअव्व) । पाना (होगा, होता है)। 'बड़े भाग पाइब सतसंगा।' मा० ७.३३.८ पाइबी : पाइब+स्त्री० । पानी (होगी)। 'समय पाइबी थाह ।' दो० ४४६ पाइबे : पाइब का रूपान्तर । पाने । 'सुगम उपाय पाइबे केरे।' मा० ७.१२०.१२ पाइयो : पाइब+कए । पाना (होगा)। पाया जायगा । 'पाइबो न हेरो।' विन० १४६.४ पाइमाल : वि० (फा० पायमाल== बर्बाद) । नष्ट । 'देहि सिय, न तो पिय, पाइमाल जाहिगो।' कवि० ६.२३ पाइय : पाइअ । 'जेहि गाये सिधि होइ परम निधि पाइय हो।' रा०न० १ पाइये : पाइए । विन० ३५.२ पाइहह : आ०भ०मब० (सं० प्राप्स्यथ>प्रा० पाविहिह>अ० पाविहिह) । पावोगे। __ "पुनि मम धाम पाइहहु ।' मा० ६.११६ घ पाइहि : आ०भ० प्रए० (सं० प्राप्स्यति>प्रा० पाविहिइ)। पायेगा। 'राम धाम पथ पाइहि सोइ ।' मा० १.१२४.२ पाइहैं : (१) आ०भ०प्र० । पायेंगे। 'पार प्रयास बिनु नर पाइहैं।' मा० ६.१०६ छं० (२) उब० । हम पाएंगे । 'सुखु पाइहैं कान सुनें बतियां।' कवि. २.२३ पाइहै : (१) पाइहि । वह पायेगा । 'अंध कहें दुख पाइहै ।' दो० ४८१ (२) बरा बरी करेगा । 'को त्रिभुवनपति पाइहै ।' गी० ५.३४.२ (३) मए । तू पायेगा। 'सुरसरि तीर बिन नीर दुख पाइहै ।' विन० ६८.२ पाइहौं : आ०भ० उए० (सं० प्राप्स्यामि>प्रा० पाविहिमि>अ. पाविहिउँ)। पाऊँगा । 'सब सुख पाइहौं ।' मा० २.१५१ छं० पाइहो : पाइहहु । 'जहाँ तहाँ दुख पाइहो।' दो० ७१ पाई : भूकृ०स्त्री०ब० । प्राप्त की। 'मन भावती असीसें पाईं ।' मा० १.३०८.६ पाई : (१) भूक०स्त्री० । प्राप्त की । 'असुर देह तिन्ह पाई।' मा० १.१२२.५ (२) पाइ । पाकर । 'सठ सुधरहिं सत संगति पाई।' मा० १.४.६ पाउँ : पाउ । पैर । 'पाउँ देइ एहिं मारग सोई।' मा० ७.१२६.४ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 594 तुलसी शब्द-कोश पाउ : पाय+कए० । एक पैर । 'जीवन पाउ न पाछे धरहीं।' मा० १.१६२.२ (२) एक चौथाई पाव । 'राम रावरे बनाए बने पल पाउ में।' विन० २६१.१ पाउब : पाइब । 'तो तुम्ह दुख पाउब परिनामा ।' मा० २.६२.३ पाऊँ : पावौं । विन० ७५.३ पाऊ : पाउ । चरण । 'कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ।' मा० १.८८.७ पाएँ : (१) पाने से । 'श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ ।' मा० ३.२१.६ (२) पाकर, पाए हुए (स्थिति में) । 'कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ।' मा० १.३२१.७ (३) (सं० पादाभ्याम् >प्रा० पाएहिं) पैरों से। 'मारग चलहु पया देहिं पाएँ ।' मा० २.११२.५ पाए : (१) भूकृ००ब० । प्राप्त किये । 'अधम सरीर राम जिन्ह पाए ।' मा० १.१८ (२) पाएँ । पैरों से । 'गवने भरत पयादेहिं पाए ।' मा० २.२०३.४ (३) पाएँ । पाने पर । 'पाए पालिबे जोग मंज मग ।' गी० ३.३.२ पाएहु, हूं : पाने पर भी । 'पाएहुं ग्यान भगति नहिं तजहीं।' मा० ३.४३.१० पाक : सं०० (सं०)। (१) पक्वान्न । 'आपु गई जहँ पाक बनावा।' मा० १.२०१.३ (२) एक दैत्य का नाम-दे० पाकरिपु (३) पकाने का पात्र (४) शिशु । अंजनी कुमार सोध्यो राम पानि पाक हौं।' हनु० ४० (५) वि०० (सं० पक्व>प्रा० पक्क)। पका हुआ । 'जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू ।' मा० २.२७.४ पाकत : वकृ०पु० । पकता हुआ, पकते हुए । 'ईति भीति जस पाकत साली ।' मा० २.२५३.१ पाकरि : पाकरी । मा० ७.५७.५ पाकरिप : पाक नामक दैत्य के शत्रु =इन्द्र । मा० २.३०२.२ पाकरी : सं०स्त्री० (सं० पर्कटी>प्रा० पक्कडी) । पीपल के समान वृक्षबिशेष । मा० ७.५६६ पाकारि : पाकरिपु । इन्द्र । विन० २६५ पाकारिजित : इन्द्रजित् । मेधनाद । विन० ५८.४ पाकारिसुत : इन्द्र-पुत्र जयन्त । विन० ४३.५ पाकी : भूकृ०स्त्री० (सं० पक्वा>प्रा० पक्की) । प्रौढ़, पुष्ट । 'धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।' मा० ७.१२७.७ पाकें : पके हुए' में । 'पाकें छत जनु लाग अंगारू ।' मा० २.१६१.५ पाके भूकृ००ब० (सं० पक्व>प्रा० पक्क =पक्कय) । पके हुए। दो० ५१० For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 595 पाख : सं०० (सं० पक्ष>प्रा. पक्ख) । मास का अर्धभाग (शुक्ल-कृष्ण-पक्ष) । "सम प्रकास तम पाख दुहुँ ।' मा० १.७ ख (२) पन्द्रह दिन का समय । 'कहह पाख महं आव न जोई ।' मा० ४.१६.५ पाखंड : सं०० (सं०) । नास्तिक, देव पर आस्था न रखने वाला। रा०प्र० ७.२.३ 'पाखंडबाद : नास्तिक मत । जिमि पाखंडबाद तें लुप्त होहिं सद ग्रंथ ।' मा० ४.१४ पाखु : पाख+कए । पन्द्रह दिन भर। 'भयउ पाखु दिन सजत समाजू ।' मा० २.१६.३ 'पाग : संपु० (सं० पाक>प्रा० पाग)। जलाव में बनाया हुआ पक्वान्न । जलाव । कवि० ५.१४ पागि : पूक । पाग (जलाव) में सांध कर । 'नाना पकवान पागि पागि ढेरी कीन्ही।' कवि० ५.२४ यागिहै : (१) आ०भ०प्रए० । वह पाग में सौंद कर बनाएगा । 'लंक पघिलाइ पाग पागिहै।' कवि० ५.१४ (२) मए । तू पागेगा। ‘राम नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै ।' विन० ७०.४ 'पागी : (१) भूक स्त्री० । मिठाई के रस में डाल कर सम्पन्न की। 'बचन रचना बीर रस पागी ।' मा० १.२६३.६ 'शुद्ध मति जुवति पति प्रेम पागी।' विन० ३६.२ (२) पागि । 'बोली बचन नीति रस पागी।' मा० ५.३६.५ 'पागे : भूक००ब० । जलाव में बनाए हुए। 'बचन.. प्रेम रस पागे ।' मा० १.१४६.७ पाछ : अव्यय (सं० पश्चात्>प्रा० पच्छा) पीछे । 'चितयउँ पाछ उड़ात ।' मा० ७.७६ क पाछिल : वि.पु० (सं० पश्चाद्भव>प्रा० पच्छिल्ल) । पिघला (अतीत) । 'पाछिल मोह समुझि पछिताना ।' मा० ७.६३.३ पाछिलि : पाछिली । 'प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता । मा० ३.४३.७ पाछिली : पाछिल+स्त्री० (अ० पच्छिल्ली=पच्छिल्लि)। पिछली (अतीत)। 'परिहरु पाछिली गलानि ।' विन० १६३.६ पाछिले : 'पाछिल' का रूपान्तर+ब. (प्रा० पछिलय) । पिछले । हनु० ४ पाछे, छै : पाछे। (१) बाद में । जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ ।' मा० २.४.५ (२) पीछे, पश्चाद् देश में । 'फिर चितवा पाछे प्रभु देखा ।' मा० १.५४.५ (३) पीछे छिपने से, शरण लेने से । 'बाँचिहै न पाछै तिपुरारिहूं मरारिहूं के।' कवि० ६.१ पाछे : क्रि०वि० (सं० पश्चात् >प्रा० पच्छा>अ० पच्छइ)। पीछे की ओर । पाछे पाउ न दीन्ह ।' रा०प्र० ५.७.५ । For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 596 तुलसी शब्द-कोश पाट : (१) सं०० (सं० पट्ट) । रेशम । 'रोम पाट पट अगनित जाती।' मा २.६.३ (२) वि० । विशिष्ट, श्रेष्ठ-दे० पाटमहिषी। पाटंबर : संपु० (सं० पट्टाम्बर>प्रा० पढेंबर) । रेशमी परिधान । मा० ७.६५ ख पाटन : सं०० (सं.)। फाड़ना। मा० ३ श्लोक १ पाटमय : वि० (सं० पट्टमय) । रेशमी । 'लसत पाटमय डोरि ।' मा० १.२८८ पाटमहिषी : (सं० पट्टमहिषी=-पट्टराज्ञा)। पटरानी, बड़ी रानी। मा० १.३२४.१ पाटल : सं०० (सं.)। गुलाब से मिलता-जुलता पुष्प वृक्ष विशेष । मा० ६.६० छं० पाटि, टी : सं०स्त्री० (सं० पट्टी, पट्टिका)। तख्ता, झूले की बैठकी। 'पाटीर पाटि बिचित्र भंवरा ।' गी० ७.१८.२ पाटियतु : वकृ०कवा०पु०कए । पाटा जाता (समतल किया जाता) । 'मसक की पांसूरी पयोधि पाटियतु है ।' कवि० ७.६६ पाटीर : सं०० (सं.)। चन्दन । गी० ७.१८.२ पाटे : भूक००ब । पाट दिये, पूर दिये । 'ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे ।' मा० ६.६३.६ पाठ : सं०पु० (सं०) । शब्दवाचन । 'पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। मा० २.२६६.८ पाठक : वि० (सं.)। पढ़ाने वाला। 'गुन गति नट पाठक आधीना।' मा० २.२६६.८ पाठीन : सं०० (सं.)। मत्स्यविशेष, पढ़िन मछली । मा० २.१६३.३ पाठीनु : पाठीन-+कए । एकाकी पाठीन । 'जन पाठीन दीन बिन पानी ।' मा० २.३५.२ पाठु : पाठ+कए । रटन्त । 'दस आठ को पाठु कुकाठु ज्यों फारें ।' कवि० ७.१०४ पाणि : सं०० (सं०) । हाथ । मा० ३.११.४ पाणौ : (सं०-पद) हाथ में । मा० २ श्लोक ३ पात : सं० पु० (सं० पत्र>प्रा० पत्त)। पत्ता, पत्ते । 'पीपर पात सरिस मनु डोला ।' मा० २.४५.३ (२) घास-फूस । 'ईंधनु पात किरात मिताई ।' मा० २.२५१.२ (३) पत्तल । 'पात भरी सहरी।' कवि० २.८ पातक : सं०० (सं०) । पतन लाने वाला पतित करने वाला=पाप; अशुभ कर्म । मा० २.२८.५ पातक तीन भागों में विभक्त हैं-(क) महापातक= ब्रह्महत्या. सुरापान, स्तेय (चोरी), गुरुपत्नी समागम तथा इन पापों के कर्ता के साथ सम्पर्क । (ख) पातक == उक्त पांचों के तुल्य पापकर्म । (ग) उपपातक= जो उक्त दोनों से न्यून हों । मा० २.१६७ का पूरा प्रसङ्ग । For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 597 पातकई : वि०स्त्री० (सं० पातकमयी) । पापपूर्ण । मा० १.३२४ छं० २ 'पातकरूप : शरीर धारी पातक (जिनका आकार-प्रकार पापनिर्मित हो) । विन० २१४.६ पातकिनि : वि०स्त्री० (सं० पातकिनी)। पापिनी, पातक करने वाली। मा० २.२२ पातकी : वि०पू० (सं०) । पापकर्मा, पातकशील । मा० २.१६२ पातकोसु : (पातको + ईसु-सं० ईश:>प्रा० ईसो>अ० ईसु)। अद्वितीय श्रेष्ठ पातकी । 'पुनीत कियो पातकीसु ।' कवि ७.१८ पातकु : पातक+कए० । अद्वितीय एक पाप । 'दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।' मा० २.६५.८ पातरि : पातरी । 'चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों ।' विन० २२६.३ पातरी : सं०स्त्री० (सं० पत्रल>प्रा० पत्तल > अ० पत्तली=पत्तलि =पत्तडी= पत्तडि) । पत्तल, पत्रों का बना पात्र । 'ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाज की।' कवि० ६.३० पाता : (१) पात । पत्ता। मा० २.११६.७ (२) वि०० (सं०)। रक्षक । 'रुद्र अवतार संसार पाता।' विन० २५.३ पाताल : सं०० (सं.)। अधोलोक (तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल और पाताल)। मा० १.२६५.५ पाती : सं०स्त्री० (सं० पत्री>प्रा० पत्ती)। (१) दल, पत्ता। 'बेल पाती महि परइ सुखाई ।' मा० १.७४.६ (२) चिट्टी । 'तात कहाँ तें पाती आई।' मा० १.२६०.८ पातु : आ०-प्रार्थना-प्रए० (सं.) । रक्षा करे । मा० २ श्लोक १ पात्र : सं०पु० (सं०) । (१) बर्तन । मा० ७.११७.१२ (२) किसी विषय या वस्तु का योग्य अधिकारी । 'कृपा पात्र ।' मा० ७.७०.२ । पात्रु : पात्र-+-कए० । एकमात्र अधिकारी । 'पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।' मा० २.२०८.३ पाथ, था : सं०पु० (सं० पाथस्) । जल । मा० १.४२.७; १.१० छं० पाथनायु : सं०० (सं० पाथोनाथ) कए । समुद्र । 'पाथनाथु बाँधि आयो नाथ।' कवि० ६.२३ 'पाथप्रदनाथ : पाथप्रदों मेघों के स्वामी=इन्द्र । कवि० ५.१६ पाथ : पाथ+कए । अद्वितीय जल । 'आश्रम सागर सात रस पूरन पावन पाथु ।' मा० २.२७५ पाथोज : सं०पु० (सं०) । कमल । मा० १.१०१ छं० For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 598 तुलसी शब्द-कोश पाथोजनाम : पद्मनाभ, विष्णु (जिनकी नाभि से आविर्भूत कमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया)। विन० ५०.२ पायोजपानी : (सं० पाथोजपाणि) कमल तुल्य हाथों वाला+पद्मपाणि =विष्णु (जिनके हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं)। विन० ५६.६ पाथोद : सं०० (सं०) । मेघ । मा० ३.३२ छं० १ पायोधि : सं०पु० (सं०) । समुद्र । मा० ६.६.२ पाद : सं०० (सं०) । चरण । मा० १ श्लोक ६ पादप : सं०० (सं.)। वृक्ष । मा० ६.१ पादमूल : चरणतल । विन० १०.८ पादुकन्हि : पादुक+संब० । पादुकाओं (में) । 'जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।' मा० ५.४२ पादुका : सं०स्त्री० (सं०) । खड़ाऊँ मा० २.३२३ पादोदक : (पाद=चरण+उदक=जल) चरणोदक, पाद-प्रक्षालन का जल । मा०. ७.४८.२ पान : (१) सं०० (सं० पान) । पीना, पीने की क्रिया। 'गुनद करहिं सब पान ।' मा० १.१० ख (२) जल । 'ऊख अन्न अरु पान ।' वैरा० ३६ (३) मद्यपान । 'करइ पान सोवइ षट मासा ।' मा० १.१८०.४ (४) पेय पदार्थ । 'पान पकवान बिधि नाना को।' कवि० ५.२३ (५) (सं० पर्ण>प्रा०. पण्ण) पत्ता । 'कनक कील मनि पान सँवारे ।' मा० १.३२८.८ (६) ताम्बूल । 'देइ पान पूजे जनक ।' मा० १.३२६ पानहिन्ह : पानही+संब० । जूतियों। 'बिनु पानहिन्ह पयादेहिं पाएँ।' मा २.२६२.५ पानहीं : पानही +ब० । जूतियां । 'तेहि के पग की पानहीं मेरे तन को चाम ।' दो० ५६ पानही : पनही (सं० उपानह) । 'कहत पानही गहिहौं ।' विन० २३१.४ पानह्यो : पानही भी, जूती भी। 'पानह्यो न पायनि ।' गी २.२५.२ पाना : पान । (१) पीने की क्रिया। 'दरस परस मज्जन अरु पाना।' मा० १.३५.१ (२) पत्ते, ताम्बूल । 'औषध मूल फूल फल पाना ।' मा० २.६.२ पानि : (१) पाणि । हाथ । 'बहु बिधि क्रीडहिं पानि पतंगा।' मा० १.१२६.५ (२) पानी । जल । 'पानि कठवता भरि लेइ आवा ।' मा० २.१०१.६ ।। पानिग्रहन : सं०पू० (सं० पाणिग्रहण) । विवाह में वर द्वारा वधू का करपीडन । __ मा०१.१०१.३ पानिग्रहनु : पानि ग्रहन+कए। मा० १.३२४ छं० ३ पानी : पानी में, जल में । 'बिकल मीनगन जन लघु पानी।' मा० १.३३४.२ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश पानी : (१) सं०पु० (सं० पानीय > प्रा० सीतल पानी ।' मा० २ १२४.३ ( २ ) पानी ।' मा० १.३२८.६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाणिअ ) । जल । 'देखि निकट बटु पाणि । हाथ । 'धोए चरन जनक निज 599 पाप : सं०पु० (सं०) । (१) पातक | पाप पयोनिधि जन मन मीना ।' मा० १. २७.४ (२) गुप्त दोष । 'पिसुन पराय पाप कहि देहीं ।' मा० २.१६८.१ पापछालिका : (सं० पाप - क्षालिका) पापरूपी पड़क को धो बहाने बाली । विन० १७.१ पापप्रिय : वि० (सं० ) । पाप में रुचि रखने वाला । मा० ५.४५.८ पापमई : पापमय । 'देतो पे देखाइ बल, फल पापमई ।' गी० १. ८५.२ पापमय : वि० (सं० ) । पापपूर्ण । मा० ५.४३ पापमूल: पापों की जड़-जहाँ से पापों को पोषण मिले = अति पापी । विन० २१७.२ पापवंत : वि० (सं० पापवत् ) । पापी । मा० ५.४४.३ पापहर: वि०पुं० (सं०) । पापों को नष्ट करने वाला । मा० ७.१३० श्लोक २ पापहरनि : वि०स्त्री० । पाप नाशिनी । गी० २.४७.२ 1 पापहारी : वि०पु० (सं० पापहारिन्) । पाप नाशक । विन० ४३.३ पाहि पाप की । 'तिन्ह के पापहि कवनि मिति । मा० १.१८३ पापा : पाप । मा० ३.३३.७ पापिउ : पापी भी । 'पापिउ जाकर नाम जाकर नाम सुमिरहीं ।' मा० ४.२६.३ पापिन: पापी + संब० । पापियों । 'चलि हैं छूटि पुंज पापिन के ।' विन० ६५.२ पापिनि, नी : वि०स्त्री० (सं० पापिनी ) । पापकारिणी । मा० २.७३ पापिनिहि : पापिनी को । 'एहि पापिनि बूझि का परेऊ ।' मा० २.४७.२ पापिष्ट : वि० (सं० पापिष्ठ > प्रा० - मागधी - पापिस्ट) | अतिशय पापी । मा० ६. ११३ छं० पापिष्ठ: वि० (सं०) दे० पापिष्ट । विन० ५८.४ पापिहि : पापी को । 'एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ।' मा० ६.७६.१४ पापी : वि०पु० (सं० पापिन् ) । पातकी, पापकर्मा । मा० १.१३५ पापु : पाप + कए | अद्वितीय पाप । 'किएँ प्रेम बड़ पापु ।' मा० १.५६ For Private and Personal Use Only पापौघ : (पाप + ओघ ) पाप प्रवाह । पाप समूह | पापौघमय: वि० (सं० ) पाप समूह से व्याप्त | मा० ६.१०४ छं० पामर : दे० पावर (सं० ) । विन० ६६.६ पायें : (१) पाय । चरण । 'न पायें पिराने ।' विन० २३५.३ ( २ ) पैरों से । 'रामु पयादेहि पायें सिधाए ।' मा० २.२०३.६ (३) पैरों पर । 'बिनय करबि परि पायें । मा० २.६८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 600 तुलसी शब्द-कोश पाय : (१) सं०० (सं० पाद>प्रा० पाय) । चरण । 'पाय पलोटत भाइ।' मा० २.८९ (२) पाइ । पाकर । 'आयसु पाय कपि ।' रा०प्र० ५.३.७ पायउँ : आo-भूक००+उए । मैंने पाया । 'सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोष ।' मा० ३.२६.३ पायउ, ऊ : भूकृ.पु०कए । पाया, प्राप्त किया। 'पाय उ अचल अनूपम ठाऊँ ।' ___ मा० १.२६.५ पायक : (१) पाइक (२) (फा० पायक= प्यादः) पैदल सैनिक (३) (सं.) रक्षक । 'जिन्ह के हनूमान से पायक ।' मा० ६.६३.३ (४) पाय+क । पाने का। 'कछु सुभाउ जनु नर तनु पायक ।' गी० २.३.४ पायन, नि : पाय+ संब० । पैरों (में) । 'पानह्यो न पायनि ।' गी० २.२५.२ पायन्ह, न्हि : पायन । 'झलका झलकत पायन्ह कैसें ।' मा० २.२०४.१ पायस : सं०पू० (सं०) । खीर । 'पायस पाइ बिभाग करि रानिन्ह दीन्ह बुलाइ।' रा०प्र० ४.१.२ पायसि : आ० - भूकृ००-प्रए० । उसने पाया-ये । 'निदरेसि हरु पायसि फर तेउ।' पा०म० २६ पायह : आ- भूकृ००+मब० । तुमने पाया-पाये । 'बर पायहु कीन्हेहु सब काजा ।' मा० ६.२०.४ पाया : पावा । प्राप्त किया । 'बड़ अपराध कीन्ह फल पाया।' मा० १.१३६.३ पाये : पाए । विन०८०.४ पायों : पायउँ । मैंने पाया-पाये । 'मैं फिरत न पायों पार ।' विन० १८८.३ 'जो दुख मैं पायों सुजनी।' कृ० २५ पायो : पायउ । मा० ६.४८.८ पार : वि.+क्रि०वि० (सं.)। (१) पारंगत, परे, अतिक्रान्त । 'माया मोह पार परमीसा।' मा० ७.५८.७ (२) अन्त, समाप्ति । 'बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ।' मा० १.१२.५ (३) अन्त =मुक्ति+किनारा। 'संसार सिंधु अपार पार ।' मा० ६.१०६ छं० (४) किनारे । उस पार । 'बारिधि पार गयउ मति धीरा।' मा० ५.३.५ (५) इस किनारे । 'सिंधु पार सेना सब आई।' मा० ५.३७.७ (६) दे० /पार। /पार पारइ : (सं० पारयति>प्रा० पारइ) आ०प्रए० । सकता है। गर्न को पार निसाचर जाती :' मा० १.१८१.३ पारई : सं०स्त्री० (सं० पालि=पालिका>प्रा० पालिआ>अ० पालई-परि०)। __प्याली, परई, मिट्टी का सकोरा । 'मनि भाजन, मधु पारई ।' दो० ३५१ ।। पारखी : वि.पु । पारिख वाला, जानकार, विवेकी, कुशल । 'सोइ पंडित सोइ पारखी।' वैरा० ५८ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 601 पारथ : सं०पु० (सं० पार्थ पृथापुत्र) । कुन्तीपुत्र अर्जुन आदि। कृ०६१ पारथिव : सपु+वि० (सं० पार्थिव) । मिट्टी (पृथ्वी) की बनी शिवमूर्ति । 'पूजि पारथिव नायउ माथा ।' मा० २.१०३.१ पारद : सं०० (सं०) । पारा (रसेन्द्र) । दो० २६० । 'तुलसी छुवत पराइ ज्यों पारद पावक आंच ।' दो० ३३६ पारन : सं००+ स्त्री० (सं० पारणा)। उपवास के बाद भोजन । विन० २०३.१३ पारबति : पारबती । मा० १.११२ पारबतिहि : पार्वती को। 'पारबतिहि निरमयउ जेहिं ।' मा० १.७१ पारबती : पार्वती ने । 'पारबती तपु कीन्ह अपारा ।' मा० १.८६.४ पारबती : सं ०स्त्री० (सं० पार्वती)। पर्वतपुत्री उमा । मा० १.७७ पारस : सं०० (सं० परश-दे० परसमनि)। एक काल्पनिक पत्थर जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, ऐसी पौराणिक जनश्रुति है। 'पारस परस कुधातु सुहाई।' मा० १.३.६ पारसु : पारस+कए० : अद्वितीय परशमणि । 'परमरंक जिमि पारसु पावा ।' मा० २.१११.१ पारहिं : (१) आप्रब० (सं० पारयन्ति>प्रा० पारंति>अ० पारहिं) । सकते हैं। 'कछु कहन न पारहिं ।' मा० ७.१७.४ (२) (सं० पातयन्ति-तु>प्रा० पाडंतितु>अ० पाडहिं) । डालें (गिनती में डालें)। 'ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें ।' मा० १.३५७.८ पारहि : पार को । बिन श्रम पारहि जाहिं ।' मा० १.१३ पारा : (१) पार । 'कब जैहउँ दुख सागर पारा ।' मा० १.५६.१ (२) पारइ । सकता है । 'तुम्हहि अछत को बरनै पारा।' मा० १.२७४.५ (३) भूकृ०० (सं० पारित>प्रा० पारिअ) । सका, सकता था। 'बाली रिपु बल सहै न पारा।' मा० ४.६.३ (४) (सं० पातित>प्रा० पाडिअ)। डाला, गिराया। 'तुम्ह जेहि लागि बन पुर पारा ।' मा० २.४६.८ पारायण : परायन । तत्पर । विन० ६०.१ पारावत : सं०० (सं०) । कबूतर । मा० ७.२८.५ पारावार : सं०पू० (सं०) । समुद्र । गी० १.६४.३ पारिखि : वि० (सं० परीक्षिन् >प्रा० पारिक्खी। पारखी, परीक्षक । 'कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ।' मा० २.२८३.६ पारिखी : पारिखि । कवि० १.१५ पारिखो : वि.पु.कए० (सं० परीक्षक:>प्रा० पारिक्खओ>अ० पारिक्ख उ)। पारखी, परखने वाला । नारद सों परदा न नारद सो पारिखो।' कवि० १.१६ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 602 तुलसी शब्द-कोश पारी : भूकृ०स्त्री० (सं० पातिता>प्रा. पाडिआ)। गिरा दी। 'प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ।' मा०६.७०.१० पारु, रू : पार+कए । कोई ओर-छोर, किनारा । 'बेद न पावहिं पारु ।' मा० १.१०३ पारे : (१) पारइ । सकता है, सके। 'बिपुल जोग जल बोरि न पारे ।' कृ० ५७ __ 'नासा तिलक को बरनै पारे ।' मा० १.१६६.८ (२) भूक०० ब० (सं० पातित >प्रा० पाडिय)। गिरा दिये। भजन्हि समेत सीस महि पारे ।' मा० ६.६२.१० पारो : आ०मब० (सं० पारयथ-त>प्रा० पारह>अ० पारहु)। सको, सकते होओ। 'मधुकर कहहु कहन जो पारो।' कृ० ३४ पार्यो : भूकृ.पु०कए० (सं० पातितः>प्रा० पाडिओ) । गिराया। 'बुधि बल निसिचर परइ न पार्यो।' मा० ६.९५.८ पाल : वि.पु. (सं.)। (१) पालक, रक्षक, पोषक । 'सेवक सालि पाल जलधर से ।' मा० १.३२.१० (२) राजा, स्वामी । कोसलपाल आदि । (३) पालइ । 'प्रजा पाल अति बेद बिधि ।' मा० १.१५३ पाल पालइ : (सं० पालयति>प्रा. पालइ) आ.प्रए । पालता है, रक्षा करता है । 'पालइ पोषइ सकल अॅग ।' मा० २.३१५ पालउ : पालव+कए० । कोई एक पल्लव । “पेड़. काटि ते पालउ सींचा।' मा० २.१६१.८ पालक : वि०० (सं.)। रक्षक । 'जो कर्ता पालक संहर्ता।' मा० ६.७.४ पालकिन्ह : पालकी+संब० । पालकियों (में)। 'कुरि चढ़ाई पालकिन्ह ।' मा० १.३३८ पालकों : पालक+ब० । पालकियां । ‘मातु पालकी सकल चलाई ।' मा० २.२०३.१ पालको : सं०स्त्री० (सं० पालि=पालिका-वृत्त, घेरा)। कहारों से ढोई जाने वाली पर्दादार सवारो। मा० २.३१६ पालत : वकृ.पु० । पालन करता-ते । मा० ५.२१.५ पालति : वकृ०स्त्री० । पालन करती। 'जो सजति जगु पालति हरति ।' मा० २.१२६ छं० पालन : (१) सं० (सं०) । रक्षण। 'जग संभव पालन लय कारिनि ।' मा० १.९८.४ (२) वि०पू० । पालनकर्ता । 'भालु कटक पालन ।' कवि० ७.११४ पालनिहार : वि.पु० । पालनशील, रक्षक । गी० ५.२५.२ पालने : (दे० पलना) । पाल ने पर, झूले पर। 'कबहुं पालने घालि झुलावै ।' मा० १.२००.८ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश पालने : पालनें । 'पौढ़िये लालन पालने हों झुलावीं ।' गी० १.१८.१ पालनो : सं०पु०कए० । पालना, बच्चों का झूला । 'कनक रतनमय पालनो ।' गी० १.२२.१ 603 पालबी: पालिबी । गी० ७.२९.३ ( पाठान्तर ) । पालव : पल्लव | 'पालव बैठि पेड़ एहि काटा ।' मा० २.४७.५ पालाह, हीं : आ०प्रब० (सं० पालयन्ति > प्रा० पालंति > अ० पालहि ) । पालन करते हैं । 'जे पालहिं पितु बैन ।' मा० २.१७४ पालहि, ही : आ०मए० (सं० पालय > प्रा० पालहि ) । तू पालन कर, रक्षा कर । 'उपाय करि कुल पालही ।' मा० २.५० छं० पालहु : आ०म० (सं० पालयत > प्रा० पालह> अ० पालहु ) । रक्षा करो। 'पाल प्रजा सोकु परिहरहू ।' मा० २.१७५.१ पालहुगे : आ०भ०पु० मब० । पालन करोगे । 'पाल्यों है, पालत, पालहुगे ।' विन० २२३.२ पाला : भूकृ०पु० । पालन किया। 'प्रनतपाल पन आपन पाला ।' मा० २.२६७.५ पालागनि : सं० स्त्री० । पैलगवा, चरण-स्पर्श की क्रिया । नववधू द्वारा पतिगृह की वयस्काओं के पैर छूने की रीति । गी० १.११०.२ पालि : (१) पूकृ० (सं० पालयित्वा > प्रा० पालिअ > अ० पालि ) | पालन करके । 'प्रजा पालि परिजन दुख हरहू ।' मा० २.१७६.६ (२) आ० - आज्ञा-मए० (सं० पालय > प्रा० पालहि अ० पालि ) | तू पालन कर । 'रामरूप सिसु... तूं प्रेम पय पालि री ।' कवि० १.१२ पालिअत : वकृ०कवा०पु० पाला जाता । 'कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह ।' कवि० ७.११० पालिऐ : आ०कवा०प्र० । (सं० पाल्यते > प्रा० पालीअइ ) । पाला जाय, पालना चाहिए | 'राम कृपाल पालिऐ ।' दो० १७८ पालिका : वि०स्त्री० (सं० ) । पालन करने वाली । विन० १६.३ पालिके: पालिका + सम्बोधन (सं० ) । हे रक्षिके । 'तेरेहीं प्रसाद जग, अग जग पालिके । कवि० ७.१७३ पालित : भूकृ०वि० (सं०) । रक्षित । 'रावन पालित लंका ।' मा० ५.३३.५ पालिबी : भकृ० स्त्री०ब० । पालनीं, पालनी हैं; पालनी चाहिएँ । 'ए दारिका परि चारिका करि पालिबों ।' मा० १.३२६ छं० ३ For Private and Personal Use Only पालिबी : भकृ० स्त्री० । पालनी, पालनीय । गी० ७२६.३ पालिबे : भकु०पु० (सं० पालयितव्य > प्रा० पालिअव्व – पालिअग्वय ) । पालने, रक्षा करने । 'दीन पालिबे जोग ।' दो० १७८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 604 तुलसी शब्द-कोश पालिबो : भक००कए० (सं० पालयितव्यम् >प्रा० पालिअव्वं>अ० पालिव्वउ) । पालन करना । 'लाभ समय को पालिबो।' दो० ४४४ पालिये : पालिऐ । विन० ३५.४ पालिहिं : आ०भ०प्रब० (सं० पालयिष्यन्ति>प्रा० पालिहिति>अ० पालिहिहिं)। पालन करेंगे। 'पितु आयसु नालिहिं दुहु भाई।' मा० २.३१५.४ पालिहि : आ०भ० प्रए० (सं० पालयिष्यति>प्रा० पालिहिइ)। पालन करेगा । 'गुरु प्रभाउ पालिहि सबहि ।' मा० २.३०५ पालिहैं : पालिहिं । 'बालक ज्यों पालिहैं कृपालु ।' हनु० १३ पालिहै : पालिहि । 'को कृपाल बिनु पालिहै ।' मा० २.२६६ पाली : भूक०स्त्री० । पालन की, रखी। मैं सबकी रुचि पाली ।' विन० १४७.३ पालु : (१) आo=पालि (अ.) । तू पालन कर । 'पालु बिबुध कुल करि छल छाया ।' मा० २.२६५.२ (२) पाल+कए० । एकमात्र रक्षक । 'प्रनत पाल ।' विन० १५४.१ पालें : पालन करने से । 'स्वामि सिख पालें.. पग परहिं न खालें ।' मा० २.३१५.५ पाले : (१) भूकृ०० (सं० पालित>प्रा० पालिय) । रक्षित । 'मोसे ते कृपालु पाले पोसे ।' विन० २५०.१ (२) क्रि०वि० (सं० पल्ये, पल्ले) । फन्दे में, पकड़ में । 'परेहु कठिन रावन के पाले ।' मा० ६.६०.८ (सं० पल्ल =पल्य बड़े डहरे को कहते हैं जिसमें अनाज रखते हैं। उसके भीतर फंसे हुए प्राणी का श्वासरोध स्वाभाविक है। इसी आधार पर 'पाले पड़ना' या 'पल्ले पड़ना' मुहावरा चल पड़ा लगता है।) पलेहु : आ०-भ०+आज्ञा-मब० । तुम पालन करना । 'पालेहु पुहुमि प्रजा __ रजधानी।' मा० २.३१५.८ पालो : पाल्यो । पाला हुआ । 'पालो तेरे ट्रक को।' हनु० ३४ पाल्यो : भूक०कए० (सं० पालित:>प्रा० पालिओ) । पाला हुआ । 'पाल्यो हौं बाल ज्यों।' हनु० ३६ । पावर : वि.पु. (सं० पामर>अ० पावर)। नीच, गवार, मूर्ख । मा० २.१६४ पावरन्हि : पावर+संब० । पामरों । 'पावरन्हि की को कहै ।' मा० १.८५ छं० पावरी : पारी+ब० । खड़ाउएँ । 'प्रभु करि कृपा पाव॑री दीन्हीं।' मा० २.३१६.४ पावरी : सं०स्त्री० (सं० पादुका>प्रा० पाउल्ला>अ० पाअडी) । खड़ाऊँ ।' मा० २.३२५ पावर : पावर+कए । कोई मूर्ख । 'जो पावरु अपनी जड़ताई।' मा० २.१८४.६ पाव : (१) पाउ ।पैर । 'पंथ देत नहिं पाव ।' वैरा० १२ (२) पावइ । पाता है; पा सकता है । 'घृत कि पाव कोउ बारि बिलोएँ।' मा० ७.४६.५ For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश / पाव पावइ : (सं० प्राप्नोति > प्रा० पावइ) आ०प्र० । पाता है । 'सो परत्र दुख पावइ ।' मा० ७.४७ पावई : पावहिं । रा०न० २० 605 पावई : पावइ । 'नर भगति अनुपम पावई ।' मा० ३.६ छं० पावउँ : आ० उ० (सं० प्राप्नोमि > प्रा० पावमि> अ० पावउँ ) । पाऊँ, पाता हूं । 'जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ।' मा० १.१८.८ पावक: सं०पु० (सं० ) । अग्नि । मा० १.१७ पावकमय: वि०पु० (सं० ) । अग्निरूप, आग से पूर्ण । पावकमय ससि स्रवत न आगी ।' मा० ५.१२.६ पावक : पावक + कए० । अकेला ही पावक । 'काह न पावकु जारि सक ।' मा० २.४७ पावड़े : पांवड़े । जा०मं० छं० १६ पावत: वकृ०पु० (सं० प्राप्नुवत् > प्रा० पावंत ) । पाता - ते । 'भवननि पर सोभा अति पावत।' मा० ७.२८.५ पावति : वकृ० स्त्री० । पाती। 'पावति नाव न बोहितु बेरा ।' मा० २.२५७.३ पावती : वक्कु०स्त्री०ब० । पातीं । 'सोभा रानीं पावतीं ।' कवि० १.१३ पावन : वि० (सं०) । (१) पवित्र । 'जनमन अमित नाम किय पावन ।' मा० १. २४.७ (२) पवित्र करने वाला । 'मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन ।' मा० १.२११ छं० २ (३) भकृ० अव्यय (सं० प्राप्तुम् > प्रा० पाविउं > अ० पावण) । पाना, पाने को । 'जिमि पिपीलिका सागर थाहा । पावन चाहा ।' मा० ३.१.६ पावनकारी : वि०पु० (सं० ) । पवित्र करने वाला । मा० ५.४२.६ पावनताई : सं० स्त्री० (सं० पावनता) । पवित्रता । मा० ७.६६.१ पावनि : पावनी । ( १ ) पवित्र, स्वच्छ । हिमगिरि गुहा एक अति पावनि ।' मा० १. १२५.१ ( २ ) पवित्र करने वाली । 'बंदउँ अवधपुरी अति पावनि ।' मा० १.१६.१ पावनिहार : वि०पु० पाने वाला । मा० १.२५१ I पावनी : वि०स्त्री० (सं०) । (१) पवित्र । 'जासु कीरति पावनी ।' मा० ३.३२ छं० ४ (२) पवित्र करने वाली । 'भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावन पावनी ।' मा० १.१० छं० 'अविचल पावनो : पावन + कए० । ( १ ) पवित्र ( २ ) पवित्रकारी । ' सनेहु " पावनो ।' पा०मं० छं० ८ । पावस : सं०पु० + स्त्री० (सं० प्रावृष् > प्रा० पाउस) । वर्षा ऋतु । For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 606 तुलसी शब्द-कोश पार्वाह, हीं : आ० प्रब (सं० प्राप्नुवंति > प्रा० पावंति > अ० पावहि ) । पाते हैं । 'निगम नेति सिव पार न पावहिं । मा० ७.६१.४ पार्वाहंगे : आ०भ०पु०प्रब० । पाएंगे । 'राज बिभीषन कब पावहिंगे ।' गी० ५.१०.५ पावहि : आ०म० (सं० प्राप्नोषि > प्रा० पावसि > अ० पावहि ) । तू पाता है, प्राप्त कर । 'तू पुनीत जस पावहि ।' विन० २३७.५ पावहिगो : आ०भ०पु० म० । तू पाएगा । 'याको फलु पावहिगो आगें ।' मा० ६.३३.७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पावहु : आ०म० (सं० प्राप्नुथ त > प्रा० पावह > अ० पावहु ) । प्राप्त करो, पा सको । 'दिच्छा देहुं ग्यान जेहि पावहु ।' मा० ६.५७.८ पावहगे : आ०भ०पु० मब० । पावोगे । १.१३७.५ 'पावहुगे फल आपन कीन्हा ।' मा० पावा : (१) पावइ । पाता है ( मिलता है ) । 'सुनत नीक आर्गे दुख पावा ।' मा० ६.९.४ (२) भूकृ०पु० (सं० प्राप्त > प्रा० पाविअ ) । पाया, प्राप्त किया I 'सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा । मा० १.२६२.८ ( ३ ) पाया = पाना । 'चह पार जो पावा ।' मा० ७.५३.३ पावे : पावइ । पाता है, पाये । 'मुनि उदबेगु न पावै कोई ।' मा० २.१२६.२ पावौं : पावउँ । पाऊँ । 'पावों मैं तिन्ह के गति घोरा ।' मा० २.१६८.४ पावगी : आ०भ० स्त्री० उए० । पाऊँगी । गी० २.६.१ 1 पाश: सं० पुं० (सं० ) । बन्धन, जाल, बागुरा, फन्दा । विन० ६०.८ पाखंड: (१) सं०पु० (सं० ) | नास्तिक = पाखंड (२) वि० (सं० ) । दम्भी, अपवित्र (३) सं०पुं० । नास्तिकता | 'कपट दंभ पाखंड ।' मा० १.३२ क (४) वीरता, निष्ठा, सदाचार आदि का मिथ्या प्रदर्शन, ढोंग । 'पुनि उठत करि पाखंड ।' मा० ३ २०.१९ (५) माया, छलना । 'तेहिं कीन्ह प्रगट पाखंड ।' मा० ६.६५ पाखंडी : वि०पु० (सं० पाषण्डिन्, पाषण्डिक) । दम्भी मिथ्या प्रदर्शनकारी । 'पाडी हरि पद बिमुख ।' मा० १.११४ पाषाण : सं०पु० (सं० ) । पत्थर । विन० २६.५ पाषान, ना: पाषाण । ( १ ) पत्थर । 'सिंधु तरे पाषान ।' मा० ६.३ (२) पत्थर के समान कठोर । 'तिन्ह के हिय पाषान ।' मा० ७.४२ (३) ओला । 'गरजि तरजि पाषान बरषि।' विन० ६५.३ पास : (१) सं०पु० क्रि०वि० (सं० पार्श्व > प्रा० पास ) । समीप । 'गए हिमाचल पास ।' मा० १.६० (२) दिशा, ओर, तट । 'सोहत पुर चहुं पास ।' मा० १.२१२ (३) सं०पु० (सं० पाश > प्रा० पास ) । जाल, बन्धन । काल For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 607 पास' मा० ३.३०.१२ 'ब्याल-पास ।' मा० ६.७३.११ (४) क्रीडाविशेष की गोरी। पासंग : सं०० (सं० प्रासंग-बैल आदि के गले में डाली जाने वाली लकड़ी आदि >प्रा० प्रासंग)। तुला का सन्तुलन बनाने हेतु रखा या बांधा जाने वाला पदार्थ (प्रसंगा, प्रसंघा) । 'मेरे प्रासंगहु न पूजिहैं।' विन० २४१.४ पासा : पास । (१) समीप । 'हरषि चले कुंभज रिषि पासा।' मा० ३.१२.१ (२) ओर, दिशा। ‘अति उतंग जलनिधि चहुं पासा ।' मा० ५.३.११ (३) बन्धन । 'सुनत श्रवन छूटहिं भव-पासा ।' मा० ७.१२६.१ (४) क्रीडा विशेष की गोट। पासू : पास+कए० । सामीप्य+बन्धन । 'लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ।' मा० १.१७.४ पार्स : संपु०ब० (सं० पाशक>प्रा० पासय) । द्यूतक्रीडाविशेष की काष्ठ निर्मित गोटी । 'सुढर पासे ढरनि ।' गी० १.२८.४ ।। पाहन : पाषाण (प्रा० पाहाण) । (१) पत्थर (२) कठोर । 'कपट छुरी उर पाहन टेई ।' मा० २.२२.१ (३) ओला । 'जाचत जल पबि पाहन डारउ ।' मा० २.२०५.२ पाहनो : पत्थर भी । पाहनी पसीजै।' क० ४५ पाहरू : सं०० (सं० प्राहरिक>प्रा० पाहरिअ) । यामिक, पहरेदार । मा० ५.३० पाहरूई : पहरेदार ही । पाहरूई चोर हेरि हिय हहरान है।' कवि० ७.८० पाहि, ही : पहिं (सं० पादयोः>प्रा० पाहि) । चरणों में, पास । 'ब्याकुल गयउ देव रिषि पाहीं।' मा० ७.५६.३ पाहि : आ०-प्रार्थना-मए० (सं.)। तू रक्षा कर । 'अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ।' मा० ३.२.१३ पाही : (१) पाहि। 'अस कहि परेउ चरन प्रभु पाही।' मा० ७.१८.८ (२) सं०स्त्री० । गांव से दूर खेती जहाँ प्रायः बसना पड़ता है । 'पाही खेती बट लगन ।' दो० ४७८ पाहुन : वि०० (सं० प्राघुण>प्रा. पाहुण)। अतिथि, अभ्यागत । मा० / २.२१३.७ पाहुनि : पाहुन+स्त्री० । 'पाहुनि पावन प्रेम प्रान की।' मा० २.२८६.४ पाहुने : पाहुन+ब० । 'प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ।' मा० १.३३५.३ पाहू : (पा+हू) पैर (पर) भी । 'दीनता कही..... 'परि पाहू ।' विन० २७५.१ पिंग : वि० (सं०) । रक्त-पीत, ललौंछ पीला, भूरा । 'पिंग नयन ।' हनु० २ पिंगल : पिंग (सं.) । 'पिंगल जटा।' विन० ११.२ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 608 तुलसी शब्द-कोश पिंगला : एक गणिका का नाम जिसे भगवान् ने सद्गति दी थी। पिंगलै : पिंगला ने । पिंगलै कोन मति भगति भेई ।' विन० १०६.३ पिंजरन्हि : पिंजरा+संब० । पिंजड़ों में । 'कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए ।' मा० पिंजरा : पिंजड़े में । तेहिं निसि आश्रम पिंजरा राखे।' मा० २.२१५ पिंजरा : सं०० (सं० पञ्जर) । पक्षियों का डेल =पिंजड़ा । पिंजरी : सं०स्त्री० । छोटा पिंजड़ा । 'हा धुनि खगी लाज पिंजरी महँ ।' गी० ५.२०.२ पिंड : सं०० (सं.)। पितृश्राद्ध में दिया जाने वाला पिण्डविशेष (पिण्डदान) । __ 'गीध कहें पिंड देइ निज धाम दियो।' विन० १३८.३ पिअ, पिअइ : (सं० पिबति>प्रा. पिअइ) आ.प्रए । पीता है। 'स्वातिहुं पित्मइ न पानि ।' दो० २७६ पिअत : वकृ.पु । पीता, पीते । पीते ही । 'सुचि जल पिअत मुदित मन भयऊ ।' मा० २.८७.७ पिपर : वि.पु. (सं० पीत =पीतल>प्रा० पीअल) । पीला, पीतवर्ण । 'पिअर उपरना ।' मा० १.३२७.७ ।। पिअहिं : आ.प्रव० (सं० पिबन्ति>प्रा० पिअंति>अ० पिअहिं) । पीते हैं। 'जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।' मा० ७.२६.१ पिआइप्र : आ०कवा०प्रए । पिलाइए, पिलाया जाय । 'ताहि पिआइअ बारुनी ।' मा० २.१८० पिआउ आ० -आज्ञा-मए । तू पिला, पान करा । 'मोको मरन अमी पिआउ ।' गी० २.५७.४ पिनाएँ : पिलाने से, पर । 'भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ।' मा० ७.१० ६.६ पिनाए : भूकृ.पु०ब० । पिलाए । 'बचन पियूष पिआए।' गी० ६.२२.३ पिपारा : वि०पू० (सं० प्रियतर>प्रा. पिआर) । अतिशय प्रिय । 'रामहि केवल पेमु पिआरा ।' मा० २.१३७.१ पियारि, री : वि० स्त्री० (सं० प्रियतरा>प्रा० पिआरी) । अत्यन्त प्रिया । मा० ७.१३० ख 'होइहि संतत पिअहि पिआरी।' मा० १.६७.३ । पिआरे : पिआरा+ब० । 'ते तुम्ह राम अकाम पिआरे ।' मा० ३.६.६ पिपारो : पि आरा+कए। एकमात्र प्रियतर । 'प्रान तें पिआरो बागु ।' कवि० ५.२ पिआवहिं : आ.प्रब० । पिलाते हैं, पान कराते हैं। 'नर-कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं ।' पा०म० ६६ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 609 पिआवा : भूकृ००। पिलाया। 'सुर भी सनमुख सिसुहि पिआवा।' मा० १.३०३.५ पिप्रास : सं०स्त्री० (सं० पिपासा>प्रा० पिसा>अ. पिआस) । प्यास, तृष्णा । मा० १.४३.२ पिआसा : भूकृ०० (सं० पिपासित>प्रा० पिआसिअ)। तषित । दे. पियासा। पिआसी : पिआसा+स्त्री० । 'लखीं सीयं सब प्रेम पिआसी।' मा० २.११८.३ पिआसे : (१) भूकृ००ब० । तृषित । 'पेम पिआसे नैन ।' मा० २.२६० (२) प्यासों ने । 'मनहुं सरोवर तकेउ पिआसे ।' मा० १.३०७.८ पिऊषा : पियूषा । अमृत । 'मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा ।' मा० १.३३५.५ पिएँ : क्रि०वि० । पिए हुए, पीकर । 'अनंदित लोचन भृग पिएँ ।' कवि० १.२ पिऐ : पिअइ । 'पिऐ पपीहा स्वाति जल ।' दो० ३०७ पिक : सं०० (सं०) । कोकिल पक्षी । मा० १.३.१ पिक-बचनि : वि०स्त्री० । कोकिल के समान बोलने वाली। मा० २.२५ पिकबयनी : पिकबधनि (दे० बयन) । मा० २.११७.४ पिकनि, नी : पिकबयनी । जा०म० १३० पिकादि : कोकिल आदि मधुर ध्वनिकारी पक्षी । मा० ७.२६ छं० पिघले : भूकृ००ब० । द्रव रूप लेकर बह चले। पिघले हैं आँच माठ मानो घिय के ।' गी० ४.१.२ पिघिलि : पूकृ० । पिघल कर, द्रव रूप लेकर । 'हाट बाट हाटकु पिघिलि चलो घी से घनो।' कवि. ५.२४ पिचकनि : पिचक'+संब० । पिचकारियों (में), पिचक्कों (में) । 'भरत परसपर __ पिचकनि मनहुं मुदित नर नारि ।' गी० २.४७.१४ पिचकारि, री : सं०स्त्री० । रङ्ग आदि फेंकने को नलिका । 'झोलिन्ह अबीर पिचकारि हाथ ।' गी० ७.२२.२ पिछोरी : सं०स्त्री० । कन्धे पर डाली जाने वाली चादर । 'ग्रथित चूनरी पीत पिछोरी ।' गी० १.१०५.३ ।। पितर : सं०० (सं० पित)। (१) दिवंगत पूर्वज (२) देवजाति विशेष अग्निष्वात्त आदि जो पितृलोक में रहते हैं । 'देव पितर सब तुम्हहि गोसाई। 'राखहुं नयन पलक की नाई।' मा० २.५७.१ ।। पितरन : पितर+संब० । पितरों । 'भेंट पितरन को न मूड़ हू में बारु है ।' कवि० ७.६७ पितहि : पिता को, पिता के प्रति । 'मातु-पितहि पुनि यह मत भावा ।' मा० १.७३.२ For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 610 तुलसी शब्द-कोश पितहु : पिता (के) भी। पितह मरन कर मोहि न सोचू ।' मा० २.२११.५ पिता : पिता ने । 'पिता दीन्ह मोहि कानन राजू ।' मा० २.५३.६ पिता : सं०पु० (सं० पितृ-पिता) । मा० १.६१ पिताहूं : पिता भी, पिता को भी । 'भली भाँति पछिताब पिताहूं।' मा० १.६४.२ पितु : पिता । मा० १.८.६ पितुगृह : पिता का घर (नैहर)। मा० २.८२.५ पितुबस : पिता के अधीन । मा० १.२३४.८ पित : पिता ही । 'प्रभु गुरु मातु पित हो ।' विन० २७.३ पितो : पिता भी । 'भूरि-भाग सिय-मातु-पितो री।' गी० १.७७.३ पित्त : सं०० (सं.)। आयुर्वेद में शरीर-संरचना का तत्त्वविशेष वात-पित्त-कफ में अन्यतम । मा० ७.१२१.३० पिधान : सं०० (सं.)। पट, ढक्कन, पिहानी । 'सुख के निधान पाये हिय के पिधान लाये ।' गी० १.६४.२ (यहाँ डब्बे का अर्थ है)। पिनाक : सं०० (सं०) । त्रिपुर-बधकारी शिवधनुष । मा० १.२५३.६ पिनाकिहि : पिनाकी को । 'नाहिं पिनाकिहि ने निहोरो।' कवि० ७.१५३ पिनाकी : वि०+सं०० (सं० पिनाकिन्) । पिनकधारी शिव । कवि० ६.४४ पिनाकु : पिनाक+कए । 'हठि न पिनाकु काहं चपरि चढ़ायो है।' कवि० १.१० पिपासा : पिआस (सं.)। मा० १.२०६.८ पिपीलिकउ : पिपीलिका भी। 'चढ़ि पिपीलिकउ.. पारहि जाहिं ।' मा० १.१३ पिपीलिकनि : पिपीलिका+संब० । पिपीलिकाओं (के) । 'देखो काल कौतुक पिपीलिकनि पंख लागे ।' गी० ५.२४.३ पिपीलिका : सं०स्त्री० (सं.)। चींटी। मा० ३.१.६ पिबत : पिअत (सं० पिबत्) । विन० ४४.७ पिबन्ति : आ०प्रब० (सं०) । पीते हैं। मा० ४ श्लोक २ पिय : सं०पु० (सं० प्रिय) । पति । मा० २.४६ पियत : पिअत । विन० १३२.३ पियरे : पिअर=पियर+ब० । पीले । 'कसे पट पियरे ।' गी० १.४३.१ पियहि : प्रिय पति को । होइहि संतत पियहि पिआरी।' मा० १.६७.३ पियाइअ : पिआइअ । दो २७१ पियाउ : पिआउ । तू पिला । 'जाचौं जल जाहि, कहै अमिय पियाउ सो।' वित १८२.३ पियारे : पिआरे । कवि० ७.१६६ पियास : पिआस । विन० १६६.३ For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 611 611 पियासा : पिआसा । तुषाकुल । 'स्वाति.. सीकर पियासा ।' विन० ६५.२ पियासी : पिआसी । गी० १.८.५ पियूष : सं०० (सं० पीयूष) । अमृत । मा० २.३२६ छं० पियषा : पियूष । मा० ७.२.६ पिये : पिएँ । 'पुलकति प्रेम पियूष पिये ।' गी० १.७.२ पियो : भूकृ.पु.कए० । पान किया । 'कालकूट पियो है ।' कवि० ७.१७२ पियौं : आउए. पीऊँ, पान करूँ । पीता हूं। 'मुनिहि बुझि जल पियौं जाइ श्रम।' मा० ६.५७.२ पिराति : वकृस्त्री० । पीडा देती है । 'ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है।' हनु० ३० पिरातो : क्रियाति पु०ए० । (तो) पीडा अनुभव करता (सहानुभूति करता)। 'सेइ साधु सुनि समुझि के पर पीर पिरातो।' विन० १५१.६ पिराने : भूकृ००ब० । पीडायुक्त हुए। 'बैठिअ होइहिं पाय पिराने ।' मा० १.२७८.२ पिरीते : वि०पू०ब० (सं० प्रीत)। मित्र, प्रियजन । 'समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते ।' मा० २.१७.६ पिरोजा : सं०० (फा० पीरोजः=फीरोजः)। हरितमणि, रत्नविशेष । मा० ..१.२८८.४ पिशाच : सं०० (सं.)। मांसभक्षी देव जाति विशेष जो असुरवर्ग में परिगणित है। विन० १६.२ पिसाच, चा : पिशाच (प्रा० पिचास) । मा० १.८५.६; ६.६८.४ पिसाचिनि : पिसाची । मा० ५.१० पिसाची : पिसाच+स्त्री० (सं० पिशाची) । मा० ६.५२.२ पिसुन : सं+वि०पु० (सं० पिशुन) । सूचक; दूसरे के दोषों का प्रचार करने वाला; चुगल । मा० २.१६८.१ पिसुनता : संस्त्री० (सं० पिशुनता) । सूचक कर्म ; चुगली । मा० ७.११२.१० पिहानी : सं०स्त्री० (सं० पिधानी>प्रा० पिहाणी) । ढक्कन, आवरण । दो० ३२७ पीजरनि : पिंजरन्हि । गी० २.६६.४ पी : (१) पिय । 'सेवक स्वामि सखा सिय पी के ।' मा० १.१५.४ (२) पूकृ० । पीकर, पान कर । 'पानी पी के कहैं ।' कवि० ५.१८ पीअत : पिअत । कवि० २.१० पीछे : पाछे। पीछे की ओर । 'प्रेम सों पीछे तिरी, प्रियाहि चित ।' कवि० २.२६ पीछे : पाछे । मा० २.१४३.६ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 612 तुलसी शब्द-कोश पोटत वकृ०० (सं० पेटत् -पिट संघाते>प्रा० पिटुंत) । पीटते, आहत करते, चोट देते । 'अनल दाहि पीटत घनहिं ।' मा० ७.३७ पोटहिं : आ०प्रब० (सं० पेटन्ति>प्रा० पिटुंति>अ० पिट्टहिं) । आहत करते-ती __ हैं । 'नारि बद कर पीटहिं छाती ।' मा० ६.४४.४ पीठ : सं०० (सं.)। (१) पीढ़ा, चौकी। पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा ।' मा० २.५६.५ (२) पृष्ठ भाग । 'कमठ पीठ जामहिं बरु बारा ।' मा० ७.१२२.१५ (३) तीर्थ । दे० पीठु (४) ऊपरी भाग । 'चरन पीठ उन्नत ।' गी० ७.१७.४ पोठा : पीठ। मा० २.६८.१ पोठि, ठी : (१) पीठी। मा० २.५६.५ (२) सं०स्त्री० (सं० पृष्टि:-प्रकाश किरण>प्रा० पिट्टि)। चमक, कलई। 'तांबे सों पीठि मनहुं तन पायो।' विन० २००.१ पीठी : सं०स्त्री० (सं० पृष्ठ>प्रा० पिट्टी) । पीठ, पृष्ठ भाग । 'जिन्ह के लहहिं न रिपु रन पीठी ।' मा० १.२३१.७ पीठ : पीठ+कए । तीर्थ, पुण्यस्थल । 'जोग जप जाग को बिराग को पुनीत पीठु ।' कवि० ७.१४० पीड़हिं : आ.प्रब० (सं० पीडयन्ति>प्रा० पीडंति>अ० पीडहिं) । पीड़ा देते हैं। 'बहु ब्याधि-पीड़हिं संतत जीव कहुँ ।' मा० ७.१२१ क पोड़ा : सं० स्त्री० (सं.) । (१) व्यथा । (२) व्यथा देने की क्रिया । 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।' मा० ७.४१.१ पीड़ित : भूकृ०वि० (सं.) । व्यथिल, पीडाकुल । मा० ७.१०२.३ पीढ़न्ह : सं००+संब० (सं० पीठानम् >प्रा० पीढाण>अ० पीढहं) पीढ़ों (पर)। _ 'पोढन्ह बैठारे।' मा० १.३२८.३ पीत : वि० (सं.)। पीला । मा० १.१६६.११ पीतपट' मा० १.१४७ पीत वस्त्र ।' मा० ७ श्लोक १ पीतम : प्रीतम । गी० ५.७.२ पीन : वि० (सं.)। (१) स्थूल । 'मीन पीन पाठीन पुराने ।' मा० २.१६३.३ (२) प्रचुर, पुष्कल । 'प्रेम पीन पन छीज ।' कृ० ४५ पीनता : सं०स्त्री० (सं०) । स्थूलता, मोटापा । 'पाप ही की पीनता।' कवि.. ७६२ पीना : (१) पीन। 'नित नव राम प्रेम पनु पीना।' मा० २.३२५.२ (२) सं०० (सं० पिण्याक>प्रा० पिण्णाअ) । तिलचर्ण अथवा तिल की खली से बना खाद्य पदार्थ (गजक) । 'बाहु पोन पाँवरनि पीना खाइ पोषे हैं ।' गी.. १.६५.३ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 613 पीपर : सं०० (सं० पिप्पल) । अश्वत्थ वृक्ष । मा० २.४५.३ पोबो : भकृ.पु०कए । पीना, पान करना । 'अजहं न तजत पयोधर पीबो।' पीय : पिय । पति । 'सौंह सांची सिय-पीय की।' विन० २६३.२ पीयूषा : पियूषा । अमृत । मा० ६.२६.६ पीर : पीर । (१) व्य था। ‘ऐसिउ पीर बिहँसि तेहिं गोई ।' मा० २.२७.५ (२) दया, सहानुभूति । 'काहू तो न पीर रघुबीर दीन जन की।' विन० ७५.२ 'पीरमई : वि० (सं० पीडामय>प्रा० पीडम इअ) । पीडा से ओतप्रोत । 'सकल सरीर पीरमई है।' हनु० ३८ पीरा : (१) सं० स्त्री० (सं० पीडा) । व्यथा। 'तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।' मा० १.१४५.४ (२) सहानुभूति-दे० पीर । (३) उत्पीडन । 'जे नर पर पीरा-करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ।' मा० ७.४१.३ 'पोरे : पीले । पीरे पट ओढ़े।' गी० १.४२.२ पील : सं०० (सं०+फा०) । हाथी । कवि० ७.१८ 'पीले : वि००ब० (सं० पीतल>प्रा० पीअल =पीअलय) ।.पीत वर्ण । 'नीले पीले कमल ।' गी० २.३०.१ पीवत : पिअत । 'मज्जत पय पावन पीवत जल ।' विन० २४.५ पीवनि : सं०स्त्री० । पीने की क्रिया। ‘सुधा तजि पीवनि जहर की।' कवि० ७.१७० 'पीवर : वि०० (सं.)। स्थूल । 'तनु बिसाल पीवर अधिकाई ।' मा० १.१५६.७ पीवै : पिअहिं । पीते-ती हैं। 'चकोरी..'चंद की किरिन पीवै ।' कवि० १.१३ । पीसत : वकृ०पु० । पीसते (किटकिटाते)। 'पीसत दांत गये रिस रेते ।' विन० २४१.२ 'पोसि : पूकृ० । पीसकर (किटकिटा कर) । 'ता पर दांत पीसि कर मीजत।' विन १३६.७ पुगीफल : सं०० (सं० पूगी फल) । सुपाड़ी। कवि० ५.७ 'पुज : सं०० (सं.)। राशि, समवाय, समूह, ढेर । मा० १.०.५ पुजा : पुंज । मा० २.२८.५ पुंडरीक : सं०० (सं.)। कमल । गी० ७.३.६ 'पुकार : सं० (सं० पूत्कार>प्रा० पुकार) । चिल्लाहट । 'जहँ तहँ करहिं पुकार ।' मा० ६.४६ .. 'पुकार पुफारइ : पुकार+प्रए । पुकारता है । 'हाहाकार पुकार सब ।' रा०प्र० ५.५.२ For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 614 तुलसी शब्द-कोश पुकारत : वकृ.पु । चिल्लाता, चिल्लाते । 'गए पुकारत कछु अधमारे ।' मा० ५.१८.६ पुकारहीं : आ०प्रब० । चिल्लाते हैं। तेऽतिदीन पुकारहीं।' मा० ६.८५ छं० पुकारा : (१) पुकार । चीत्कार । 'परि मुह भर महि करत पुकारा।' मा० २.१६३.४ (२) भूकृ०० । चिल्लाया । 'अर्धरात्रि पुर द्वार पुकारा।' मा० पुकारि : पूकृ० । पुकार कर, चिल्लाकर, हाक देकर। 'कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।' मा० १.२७४.३ पुकारिअत : वकृ०-कवा०-पुं० । पुकारे जाते, कहे जाते । ‘देवी देव पुकारिअत नीच ___ नारि नर नाम।' दो० ३६० पुकारी : पुकारि । 'यह सपना मैं कहउँ पुकारी।' मा० ५.११.७ पुकारे : भूक००ब० । (१) चिल्लाये । 'कछु पुनि जाइ पुकारे।' मा० ५.१८ (२) पुकारने से । 'मढ़े स्रवन नहिं सुनति पुकारे ।' गी० ५.१८.२ पुकारेसि : आ०-पुकारे+प्रए । वह चिल्लाया। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि।' मा० ६.६१.७ पुकारो : पुकारयो । 'किधौं बेदन मषा पुकारो। विन० ६४.२ पुकार्यो : भूक.पु०कए । घोषित किया। 'प्रभु सों प्रगटि पुकार्यो।' विन० १४५.५ पछिहहिं : पूछिहहिं । 'पुछिहहिं दीन दुखित सब माता।' मा० २.१४६.१ पुजाइ : पूकृ० (सं० पूजयित्वा>प्रा० पुज्जाविअ>अ० पुज्जावि)। पूजा करवा __ कर । एहि भांति देव पुजा इ सीतहि सुभग सिंघासन दियो।' मा० १.३२३ छं० २ पुजाहबे : भकृ०० (सं० पूजयितव्य>प्रा० पुज्जाविअन्व) । पुजाने, पूजा कराने ; दूसरों को देवादि पूजन हेतु प्रेरित करने या अपनी ही पूजा कराने । 'बहुत प्रीति पुजाइबे पर पूजिबे पर थोरि ।' विन० १५८.२ पुजावन : भकृ० अव्यय । पूजा कराने । 'संभ सभोत पुजावन रावन सों नित आवै।' कवि० ७.२ पुजावहि, ही : आ०प्रब० (सं० पूजयन्ति>प्रा० पुज्जावंति>अ० पुज्जावहिं)। पूजा करवाते हैं । ‘गनपति मुदित विप्र पुजावहीं ।' मा० १.३२२ छ० १ पुट : सं०० (सं०)। (१) दोनी (आदि पात्र)। पिअत नयन पुट रूपु पियूषा।' मा० २.१११.६ (२) दो जुड़े हुए पात्र या तत्सदृश आवरण । 'पुट सूखि गये मधुराधर वै ।' कवि० २.११ (३) जुड़े हुए हाथों आदि की मुद्रा । 'कर पुट सिर राखे।' गी० १.६.२० पुटन्हि : पुट+संब० । पुटों (से) । 'श्रवन पुटन्हि मन पान करि ।' मा० ७.५२ ख For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 615 पुटपाक : सं०पु० (सं०) । रसायन (रसौषध) बनाने की विधि में दो पात्रों का मुह एक साथ जोड़कर भीतर औषध बंद करके ऊपर मिट्टी से लेस कर आग में डालते हैं । इस विधि से बनाये पात्र को 'पुटपाक' कहते हैं; यह सम्पूर्ण पाकविधि भी 'पुटपाक' कही जाती है; और औषधि को भी 'पुटपाक' कहते हैं । कवि० ५.२५ पुटी : पुटी+ब० । पुड़ियाँ (पुड़ियों में) । 'भरि भरि परन पुटी रचि रूरी।' मा० २.२५०.२ पुण्य : वि०+सं०० (सं०) । पवित्र । 'पुण्यं पापहरं ।' मा० ७.१३० श्लोक ४ पुतरि, री : सं०स्त्री० (सं० पुत्तली)। पुतली, आँखों की कनीनिका। मा० २.५६.२ पुतरिका : पुतरी (सं० पुत्तलिका)। गुड़िया, कठपुतली । विन० १२४.४ पृतोह : सं०स्त्री० (सं० पुत्रवधू>प्रा० पुत्तवहू)। पतोहू । मा० २.१५.७ पुत्र : सं०० (सं.)। पुत =नरक से त्राण करने वाला= आत्मज । मा० १.१७७ पुत्रकाम : वि० (सं०) । पुत्र की कामना वाला =पुत्रेष्टि (यज्ञ) । 'पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ।' मा० १.१८६.५ पुत्रवधू : पुतोहू । मा० २.५९.१ पुत्रवती : वि.स्त्री० (सं.)। पुत्र वाली । मा० २.७५.१ पत्रि : पुत्री+संबोधन । हे पुत्रि । 'सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा ।' मा० ३.२६६ पुत्री : सं०स्त्री० (सं०) । आत्मजा । मा० २.८२.४ पुमि : अव्यय (सं० पुनर्>प्रा. पुणो>अ० पुणु) । फिर, दुबारा । मा० १.४.६ पुनी : (१) वि०० (सं० पुण्यिक>प्रा० पुण्णिअ)। पुण्यात्मा, धर्माचारी । 'सब निर्दभ धर्मरत पुनी।' मा० ७.२१.७ (२) पुनि । फिर भी । 'राम को कहाइ दासु दगाबाज पुनी सो।' कवि० ७.७२ पुनीत, ता : वि० (सं० ?)। (१) पवित्र, पापमुक्त । 'तिन्हहि मिलें तै होब पुनीता।' मा० ४.२८.८ (२) पवित्र करने वाला । दे० पतित पुनीत । पुनीतता : पवित्रता । विन० २६२.१ ।। पुन्य : पुण्य । (१) धर्म, शुभकर्म (पाप का विलोम) । 'सुख दुख पाप पुन्य दिनराती।' मा० १.६.५ (२) शुभ का फल । 'पुन्य बड़ तिन्ह कर सही ।' मा० १.६५ छं० (३) उत्तम प्रारब्ध कर्म (सौभाग्य)। 'कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ ।' मा० १.२१७.१ (४) वि० । पवित्र, पावन । “पुन्य पुरुष कहुं महि सुख छाई ।' मा० १.२६४.१ पुन्यकोस : पुण्य रूपी धन का भंडार । कवि० ७.१७२ पुन्यथल : पवित्र भू-भाग, पुण्य कर्मों का स्थल तीर्थ । मा० २.३१०.३ पुन्यपुज: पुण्यसमूह, पूण्यराशि । मा० २.१०१.८ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 616 तुलसी शब्द-कोश पुन्यमय : वि० (सं० पुण्यमय) । (१) धर्म से परिपूर्ण । मा० २.११३.२ (२) पुण्य. रूप। विन० ४४.७ पुन्य सिलोक : वि० (सं० पुण्यश्लोक-श्लोक=कीर्ति>प्रा. पुण्णसिलोक्क)। पवित्र कीति वाला-वाले; पुण्यात्मा। 'पुन्यसिलोक नाथ तर तोरें।' मा० २.२६३.६ पुर: पुर में । 'करत अकंटक राजु पुर।' मा० २.२३५ पुर : संपु० (सं०) । (१) नगर । मा० २.४६ (२) लोक । होइहि तिहुं पुर राम बड़ाई।' मा० २.३६.४ (३) त्रिपुरासुर जिसे शिव ने मारा था उस असुर के तीन नगर-दे० त्रिपुर । 'मयन महनु पुर दहनु गहनु जानि ।' कवि० १.१० पुरंगिनी : सं०स्त्री० (सं० पुराङ्गना) । नागर स्त्री । गी० २.४३.३ पुरंदर : सं०० (सं०) । असुर नगरों का विदारणकर्ता=इन्द्र । मा० १.३०२.१ पुरंदर : पुरंदर+कए । कवि० १.६ पुरइ : (सं० पुरे>प्रा० पुरे>अ० पुरइ)। नगर में। 'पुरइ चहत जनु आवन ।' जा०म० ८६ पुरइनि : सं०स्त्री० (सं० पुटकिनी>प्रा० पुडइणी) । कमलवृक्ष, कमलपत्र । मा० १.३७.४ पुरइहि : आ०भ०ए० (सं० पूरायिष्यति>प्रा. पूरविहिइ)। पूर्ण करेगा। 'सो पुरइहि जगदीसु परज पन राखिहि ।' जा०म०६८ पुरई : भूकृ.स्त्री० । पूर्ण की । 'पुरई मंज़ मनोरथ मोरि ।' गी० ३.१७.७ पुरउब : भकृ.पुं० (सं० पूरयितव्य>प्रा० पूरविअव्व)। पूर्ण करना (है, होगा, चाहिए) । 'पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा ।' मा० १.१५२.५ पुरउबि : पुरउब+स्त्री० । पूर्ण करनी (है, चाहिए)। 'मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ।' मा० २.१०३.२ पुरजन : नागर जन, नगरवासी लोग । मा० १.३०८ पुरट : सं०पू० (सं.) । सुवर्ण । मा० १.२१३ पुरती : (१) नगर की स्त्रियाँ । (२) नगरी रूपी स्त्री (पुर+ती)। 'सवै सोच ... संकट मिटे तब तें पुर-ती के ।' गी० १.६.२६ पुरदहनु : (दे० पुर) । त्रिपुर-दाह । कवि० १.१० पुरपसु : नगरवासी पशु-कुत्ता आदि । मा० २.८३ पुरब : पुरउब । पूर्ण होगा। 'जौं बिधि पुरब मनोरथ काली।' मा० २.२३.३ पुरबासिन्ह : पुरबासी+संब० । नागर जनों (ने) । 'पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। मा० १.३४८.५ पुरबासी : वि०० (सं० पुरवासिन्) । नगर निवासी । मा० १.१९३.२ For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 617 पुरलोगन्ह : पुरलोग+संब० । पुरवासियों (ने) । 'समाचार पुरलोगन्ह पाए।' मा० १.१७५.१ 'पुरव पुरवइ : (सं० पूरयति>पूरवइ) आ०प्रए । पूर्ण करता है-कर सकता है करे। 'तुलसिदास लालसा दरस की सोइ पुरवं जेहिं आनि देखाए।' गी० २.३५.४ पुरवहुं : आ०-प्रार्थना-प्रब० । पूर्ण करें। 'पुरवहुं सकल मनोरथ मेरे ।' मा० १.१४.३ पुरवहु : आ०मब० । पूर्ण करो। 'पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ।' मा० १.१४६.७ पुरवै : पुरवइ। पुरवैगो : आ० भ०पु० ए ० । पूर्ण करेगा । 'निज बासरनि बरष पुरवंगो बिधि ।' __ गी० ६.१७.२ पुरषनि : पुरुषा=पुरषा+संब० । पुरखों ने, पूर्वजों ने । 'पुरषनि सागर सृजे खने अरु सोखे ।' गी० ५.१२.५ पुराइ : पूकृ० (सं० पूरयित्वा>प्रा० पूराविअ>अ० पूरावि) । पुरा कर (रचाकर)। 'बीथीं सींची चतुरसम चौकें चारु पुराइ ।' मा० १.२६६ पुराई : भूकृ०स्त्री०ब० । पूरी करायी (रचायौं) । 'चौके भांति अनेक पुराई ।' मा० १.२८८.८ पुराकृत : (सं०-~-पुरा= अतीत+कृत) पूर्व जन्म का किया हुआ। 'पुन्य पुराकृत भूरि ।' मा० १.२२२ पुराण : वि०+सं०० (सं.)। (१) प्राचीन । (२) ग्रन्थविशेष जिन प्राचीन कथाओं आदि का-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, वंशानुचरित और मन्वन्तरों के आख्यानों का-संकलन होता है । मा० १ श्लोक ७ पुरातन : वि० (सं.)। (१) प्राचीन । मा० १.१६३.४ (२) पुराना, जर्जर । 'अस्थि पुरातन, छुधित स्वान अति, ज्यों मुख भरि पकरै ।' विन० ६२.४ पुरान : पुराण । (१) पुराण ग्रन्थ । मा० १.७.११ (२) पुराना, प्राचीन । जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ।' मा० ७.१०६ ग (३) जीर्ण; जर्जर । 'बाँस पुरान साज सब अठकठ ।' विन० १८६.२ (४) चिरन्तन, शाश्वत । "पुरुष पुरान ।' गी० १.८८.४ पुराननि : पुरानन्ह । 'निगम पुराननि गाई ।' कृ० ५१ पुरानन्ह : पुरान+संब० । पुराणों (ने) । 'लव कुस बेद पुरानन्ह गाए।' मा० ७.२५.६ पुराना : पुरान । (१) पुराण ग्रन्थ । 'कहहिं बेद इतिहास पुराना ।' मा० १.६.४ (२) प्राचीन, सबसे पूर्व । शाश्वत । 'परमानंद परेस पुराना।' मा० १.११६.८ (३) जीर्ण । 'भूमि सयन पटु मोट पुराना।' मा० २.२५.६ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 618 तुलसी शब्द-कोश पुरानि : पुरानी । पुराण सम्बन्धी, प्राचीन, जीर्ण, नीरस । 'जाइ अनत सुनाइ मधुकर ज्ञानगिरा पुरानि ।' कृ० ५२ पुरानी : पुरानी + ब० । 'कथा पुरानीं ।' मा० २.२७८.४ पुरानी : पुरान + स्त्री० । पुराण सम्बन्धिनी, प्राचीन । 'कहि अनेक बिधि कथा पुरानी ।' मा० २ २६३.३ पुराने : 'पुराना' का रूपान्तर ( ब० ) । बहुवयस्क, प्रौढ । 'मीन पीन पाठीन पुराने ।' मा० २.१६३.३ 1 पुरारि, री: त्रिपुरारि । शिव । मा० १.३२.८ पुरारी : पुरारि । मा० १.१०.२ परिन : पुरी + संब० । नगरियों (में) । दो० ५५८ 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरिहि : नगरी में । दो० २४० पुरीं : पुरिहि । रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ ।' मा० ७.१०६.६ (सं० ) । नगरी । मा० १.३५.३ पुरी : सं० [स्त्री० पुरोष : सं०पु० (स० ) । विष्ठा, उदरमल । विन० १३६.३ 1 पुरु : पुर + कए । अद्वितीय नगर । 'सो पुरु बरनि कि जाइ ।' मा० १.९४ पुरुष : सं०पु० (सं०) । (१) नर ( नारी का विलोम ) । 'सिअ नाथ पुरुष बिन नारी ।' मा० २.६५.७ (२) जीवात्मा । 'जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ।' मा० २.१४२.२ (३) परमात्मा, ब्रह्म । 'पुरुष प्रसिद्ध प्रकासनिधि ।' मा० १.११६ (४) पुरखा, पूर्वज पुरुष । 'सो सठु कोटिक पुरुष समेता । बसिहि कलपसत नरक निकेता ।' मा० २.१८४.७ पुरुषमय : वि० (सं० ) । पुरुषों ( नरों) से व्याप्त । 'अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु ।' मा० १.८५ छं० पुरुषसंघ, ह : पुरुषों में सिंह के समान श्रेष्ठ । 'पुरुषसिंघ बन खेलन आए ।" मा० ३.२२.३ 'पुरुषसिंह दोउ बीर ।' मा० १.२०८ ख पुरुषा : पुरुष । पूर्वज पुरुष । 'पुरुषा ते सेवक भए ।' दो० १४३ पुरुषारथ: सं०पु० (सं० पुरुषार्थ) । (१) चार जीवन प्रयोजन = धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । (२) पौरुष । पुरुषारथ पूरब करम परमेस्वर परधान ।' दो० ४६८ पुरुषारथु : पुरुषारथ + कए० । एकमात्र पुरुषार्थ । (१) जीवन का साध्य । 'मोर तुम्हार परम पुरुषारथ । मा० २.३१४.३ ( २ ) पौरुष, पराक्रम । 'जन्म कर्म . प्रतापु पुरुषार महा । मा० १.१०३ छं० पुरुष : पुरुष + कए० । ब्रह्म । 'निरवधि गुन निरुपम पुरुषु ।' मा० २.२८८ पुरोडास : सं०पु० (सं० पुरोडाश) । देवापित नैवेद्य, यज्ञ पायस । 'पुरोडास चह रासभ खावा ।' मा० ३.२६.५ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश पुरोधा : सं०पु० (सं० पुरोधस् - पुरोधाः ) । पुरोहित । मा० २.२७८.२ पुलक : सं०पु० (सं० ) । हर्षातिरेक का रोमाञ्च । 'पुलक प्रफुल्लित गात ।' मा० १. १४५ पुलक पुलकइ : (सं० पुलकति ) आ० प्र० । हर्ष बिभोर होकर रोमाञ्चित होता है । 'तन पुलकइ नहीं ।' दो० ४१ पुलकत: वक्र०पु० । हर्षवश रोमाञ्चित होता-ते । 'पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ।' मा० १.५०.४ पुलकति : वकृ० स्त्री० । हर्ष से रोमाञ्चित होती । 'पुलकति प्रेम पियूष पिए ।' 619 गी० १.७.२ पुलकहि : आ०प्रब० । हर्ष से रोमाञ्चित होते हैं । 'तन पुलकहि अति हरषु हियं ।' मा० १.२२४ I पुलकालि: पुलकावलि (सं० – पुलक + आलि - रोमाञ्च पङिक्त ) । दो० ५६८ पुलकावलि, ली : सं० स्त्री० (सं० ) । हर्षकृत रोमाञ्च श्रेणी । मा० ५.१४.१; १.२५७ पुलकाहीं : पुलकहिं । मा० १.४१.६ पुलकि: पूकृ० 1 हर्षवश रोमाञ्चित होकर । 'प्रेम पुलकि तन मुदित मन ।' मा० २.२ पुलकित : वि० (सं० ) । पुलकयुक्त, हर्षवश रोमाञ्चित । मा० १.२०२.५ पुलकीं : भूकृ० स्त्री०ब० । हर्ष से रोमाञ्चित हुईं। 'पुलकीं तन ओ चले लोचन ध्वं ।' कवि ० २.१८ पुलके : भूकृ०पु०ब० । हर्षवश रोमाञ्चित हुए । 'कहि पुलके प्रभु गात ।' मा० २.४५ पुलकेउ : भूकृ०पु०कए० । हर्षवश रोमाञ्चित हुआ । 'तनु पुलकेउ । मा० २.२०५. पुलकें : पुलकहि । 'हर पुलकै नृप ।' कवि० १.२ पुलको पुलक्यो । कवि० २.१२ पुलक्यो : पुलकेउ । 'सिय बिलोकि पुलक्यो तनु ।' गी० ५.१.४ पुलस्ति : सं०पु० (सं० ) । रावण के पितामह ऋषिविशेष । मा० ५.२३.२ पुलस्त्य : पुलस्ति (सं०) । 'पुलस्त्यकुल ।' मा० १.१७६ पुष्ट : वि० (सं०) । (१) मांसल । रिष्ट पुष्ट कोउ अति तन खीना ।' मा० १.६३.८ (२) दृढ । 'सुगढ़ पुष्ट उन्नत कृकाटिक ।' गी० ७.१७.१० पुष्पक : सं०पु० (सं० ) । कुबेर का विमान जो बहुत समय रावण के पास रहा। मा० १.१७६.८ पुष्पकारूढ : पुष्पक पर विराजमान ( आरूढ ) । मा० ७ श्लोक १ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 620 तुलसी शब्द-कोश पुस्तक : सं०० (सं.)। ग्रन्थ, पोथी । मा० १.३०३.८ पहुमि, मी : सं०स्त्री० (सं० पृथ्वी>प्रा० पुहुवी, पुढ़मी)। पृथिवी। मा० २.३१५.८ पुहुमीपाल : पृथ्वीपाल =राजा । दो० ५१५ पूछ : (१) सं०स्त्री० (सं० पुच्छ) । 'पूछहीन बानर तहँ जाइहि ।' मा० ५.२५.१ (२) छइ । पूछता-ती है । 'पूछ रानि निज सपथ देवाई।' मा० २.१६.१ 'पूछ पूछइ : पूछइ। पूछता-ती है। 'सोक बिकल पुनि पूछ नरेसू ।' मा० २.१४६.५ पूछ : पूछउँ। पूछता हूं, पूछ् । 'जेहि पूछउँ सोइ मनि अस कहई ।' मा० ७.११०.१५ पूछत : पूछत । 'पूछत राउ नयन भरि बारी।' मा० २.१४६.२ पूछति : पूछति । 'सादर पुनि पुनि पूछति ओही।' मा० २.१७.१ पुछन : पूछन । 'नाथ भरत कछु पूछन चहहीं।' मा० ७.३६.६ पूछब : भकृ०० (सं० प्रष्टव्य>प्रा० पुच्छिअव्व)। पूछना (होगा-पूछेगे) । 'मुनि पूछब कछु यह बड़ सोचू ।' मा० २.२०६.७ पूछहिं : पूछहिं । 'अति आरति सब पूछहिं रानी।' मा० २.१४८.१ पूछहु : पूछहु । 'तुम्ह पूछहु मैं कहत डेराऊँ।' मा० २.१७.३ ।। पूछा : पूछा। (१) पूछइ । (२) प्रश्न किया । 'कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूछा।' मा० २.२४२.७ पूछि : पूछि । 'भरत कुसल पूछि न सकहिं ।' मा० २.१५८ पूछिउ : पूछी+आ.उए । मैंने पूछी। 'देखि गोसाइँहि पूछिउँ माता ।' मा० २.४५.८ पछिये : पूछिअ । 'बहुरि पूछिये पांचों।' विन० २७७.३ पूछिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० प्रक्ष्यन्ति>प्रा० पुच्छिहिति>अ० पुच्छिहिहिं) । पूछेगे-गी । 'धाइ पूछिहहिं मोहि जब ।' मा० २.१४५ पछिहि : पूछिहि । 'जोइ पूछिहि तेहि ऊतरु देबा ।' मा० २.१४६.५ पूछिहु : पूछी+आ०मब० । तुमने पूछी। 'पूछि रामकथा अति पावनि।' मा० ७.१२३.५ पूछी : (१) पूछि । 'सचिउ सभीत सकइ नहिं पूछी।' मा० २.३८.८ (२) पूछी। "पूछी कुसल ।' मा० ५.२६ पूछे : पूछे । 'मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूछे।' मा० २.३२.२ पूछे : पूछे । 'पूछे बचन कहत अनुरागे।' मा० २.२३६.४ पूछेउ : आभूकृ०पु+उए० । मैंने पूछा । “पूछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँचो ।' मा० २.२१.७ For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 621 पूछेउ : पूछेउ । पूछा । 'पूछेउ मग लोगन्ह मदु बानी ।' मा० २.११८.५ पूछेहु : पूछेहु । (१) भूक पु+मब० । तुमने पूछा। पूछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।' मा० १.११२.७ (२) भ+आज्ञा+मब० । तुम पूछना । 'सीता सुधि पूछेहु सब काहू।' मा० ४.२३.२ पूजी : सं०स्त्री० । मूलधन । 'पूजी बिनु बाढ़ी सई ।' मा० ५.३७.४ पूग : (१) सं०० (स.) । पुज, गुच्छा, समूह । 'नाम अखिल अघ पूग नसावन ।' मा० ७.६२.२ (२) सुपाड़ी (संभवत: गुच्छों में फल लगने से ।) पूगफल : सं०पु० (सं.)। गुच्छेदार फल वाला। (१) सुपाड़ी। (२) सुपाड़ी का वृक्ष । 'पान पूगफल मंगल मूला।' मा० १.३४६.४ 'सफल रसाल पूगफल केश रोपहु।' मा० २.६.६ पूछ : सं०स्त्री० (सं० पुच्छ) । पूछ । 'पूछ सों प्रेम बिरोध सींग सों।' कृ० ४६ /पूछ पूछइ : (सं० पृच्छति>प्रा० पुच्छइ) आ०प्रए० । पूछता है । 'संकट बात न पूछ कोऊ ।' विन० १३६.३ पूछउ : आ० उए० (सं० पृच्छामि>प्रा० पुच्छमि>अ० पुच्छउँ) । पूछता-ती हूं। 'रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही।' मा० १.४६.६ पूछत : वकृ.पु० (सं० पृच्छत् >प्रा० पुच्छंत) । पूछता-ते । 'मैं पूछत सकुचाउँ।' मा० २.१२७ पूछति : पूछत+स्त्री० । 'पूछति प्रेम मगन मृदु बानी ।' गी० ६.१६.३ पूछन : भकृ ० अव्यय (सं० प्रष्टुम् >प्रा० पुच्छिउं>अ० पुच्छण) । पूछने । 'जों ____बहोरि कोउ पूछन आवा।' मा० १.३६.४ पूछहि : आ०प्रब० (सं० पृच्छन्ति>प्रा० पुच्छंति>अ० पुच्छहिं) । पूछते हैं । 'पूछहिं सकल देखि मनु मारे ।' मा० २.३६.४ पूछहु : आ०मब० (सं० पृच्छथ-त>प्रा० पुच्छह>अ० पुच्छहु) । (१) पूछते हो। 'बार बार प्रभु पूछहु काहा ।' मा० ६.८.८ (२) पूछो। 'तात अनत पूछहु जमि काहू ।' मा० ७.६०.८ पूछा : भूक ०० (सं० पृष्ट>प्रा० पुच्चिअ)। मा० १.५७.८ पूछि : पूकृ० (सं० पृष्ट्वा>प्रा० पुच्छिअ>अ० पुच्छि)। पूछकर । मा० १.३१३.८ पछिअ : आ०कवा०प्रए० (सं० पच्छ्यते>प्रा० पुच्छीअइ)। पूछिए; पूछा जाय, पूछा जाता है । 'जानत हूं पूछिअ कस स्वामी।' मा० ३.६.७ पूछिहि : आ०म० ए० (सं० प्रक्ष्यति>प्रा. पुच्छिहिइ) । पूछेगा-पूछेगी। 'पूछिहि __ जबहिं लखन महतारी।' मा० २.१४६.२ पूछि है : पूछिहि । हमें पूछिहै कौन ।' दो० ५६४ पछी : पूछा+स्त्री० । 'कहि असीस पूछी कुसलाई ।' मा० १.३०८२ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 622 तुलसी शब्द-कोश पूछे : क्रि०वि० । पूछने से-पर, पूछते हुए । 'पूछे कोउ न ऊतरु देई।' मा० २.३८.५ पूछे : भूक००ब० (सं० पृष्ट>प्रा० पुच्छिय) । 'कहउँ कथा निज पूछे तोरें।' मा० १.१६४.४ पूछेउ : भूक.पु.कए० । पूछा । 'पूछेउ तब सिर्व कहा बखानी ।' मा० १.६१.५ पूछेसि : आ०-भूकृ००+प्रए । उसने पूछा। 'पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू ।' मा० २.१३.२ पूछेहु : (१) आ०-- भूकृ००+मब० । तुमने पूछा । 'पूछेहु नाथ मोहि का जानी।' मा० ३.१३.४ (२) भ०+आज्ञा-मब० । तुम पूछना । 'समाचार __ तब पूछेहु जाई।' मा० २.३६.१ पूछ : पूछइ। पूछौ : पूछहु । 'मधुकर कछु जनि पूछो।' कृ० ४३ /पूज, पूजइ : आ०प्रए० (१) (सं० पूजयति>प्रा० पुज्जइ) । पूजन करता-करती है। 'पूजइ सिवहि समय तिहुं ।' पा०म० ३६ (२) (सं० पूर्यते>प्रा० पुज्जइ) भरता है पुरता है। पूरा होता है या पूरा पड़ता है । 'करनिहूं न पूजे क्व ।' कवि० ७.१६३ पूजक : वि० (सं.) । पुजारी, पूजा करने वाला। दो० ३६३ पूजत : वकृ०पु० । पूजा करता.ते । 'जेहि पूजत अज।' मा० १.२११.७ छं. पूजति : वकृ०स्त्री० । पूजा करती । आदर करती। 'पूजति त्रिजटा नीके ।' गी० ५.१८.३ पूजन : (१) सं०० (सं.)। पूजा। 'पूजे पूजन जोग ।' रा०प्र० ४.६.६ (२) भकृ० अव्यय । पूजने, पूजा करने । 'गिरिजा पूजन जननि पठाई।' मा० १.२२८.२ पूजनीय : वि० (सं.)। पूजा योग्य, सम्मान्य । मा० २.७४.७ पूजहि : आ०प्रब० (१) (सं० पूजयन्ति>प्रा० पुज्जति>अ० पुज्जहिं) पूजा करते हैं । 'पूजहिं माधव पद जलजाता।' मा० १.४४.५ (२) (सं० पूर्यन्ते> प्रा० पुज्जेति>अ० पुज्जहि) पूर्ण होते हैं । 'पूजहिं सब मन काम ।' दो० १२१ पूजह : आ०मब० (सं० पूजयत>प्रा० पुज्जह>अ० पुज्जहु) । पूजा करो, पूजो । ___'पूजहु गनपति गुरुकुल देवा ।' मा० २.६.८ पूजा : सं०स्त्री० (सं.)। अर्चा, सम्मान । 'करेहु सदा संकर पद पूजा।' मा० १.१०२.३ (२) षोडशोपचार देवपूजन = अर्घ्य, पाद्य, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, फल, दक्षिणा और पुष्पाञ्जलि । दे० पूजि । (३) भूकृ०पु । पूजित किया। 'करि प्रनाम् पूजा कर जोरी।' मा० १.३३०.५ For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 623 पूजि : पू० (१) (सं० पूजयित्त्वा>प्रा० पुज्जिअ>अ० पुज्जि)। पूज कर । 'सोरह भांति पूजि सनमाने ।' मा० २.६.३ दे० पूजा । (२) पूर्ण होकर । 'ताकी पैज पूजि आई ।' विन० ३०.१ पूजिअ : आ०कवा०प्रए० (सं० पूज्यते>प्रा० पुज्जीअइ)। पूजिए, पूजा जाय, पूजना चाहिए । 'पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।' मा० ३.३४.२ पूजिअत : वकृ० कवा०पु० (सं० पूज्य मान>प्रा० पुज्जीअंत) । पूजे जाते । 'प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ।' मा० १.१६.४ पूजिअहि : आ०कवा०प्रब० (सं० पूज्यन्ते>प्रा० पुज्जिअंति>अ० पुज्जिअहिं) पूजे __ जाते हैं, सम्मान पाते हैं । 'बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ।' मा० १.७.५ पूजिऐ : पूजिअ । दो० ३९२ पूजित : वि० (सं.)। सम्मानित, आहत । गी० ३.१७.२ पूजिबे : भकृ०० (सं० पूजयितव्य>प्रा० पुज्जिअव्वय)। पूजने, पूजा करने । ___ 'बहुत प्रीति पुजाइबे पर पूजिबे पर थोरि ।' विन० १५८.२ पूजिबो, बो : भकृ००कए० (सं० पूजयितव्यम् >प्रा० पुज्जिअव्वं>अ० पुजिव्वउ) । पूजन करना । 'सेवा सुमिरन, पूजिबो पात आखत थोरे ।' विन० ८.२ पूजियत : पूजिअत । विन० २४७.२ पूजिये : पूजिऐ । 'देव पितर ग्रह पूजिये ।' गी० १.१२ २ पूजिहिं : आ०भ०प्रब० (प्रा० पुज्जिहिति>अ० पुज्जिहिहिं)। पूर्ण होंगे। 'पूजहिं सब मन काम ।' रा०प्र० ४.३.२ पूजिहि : आ० भ०ए० (सं० पूरयिष्यते>प्रा० पुज्जिहिइ)। पूर्ण होगा-होगी। _ 'तो हमार पूजिहि अभिलाषा।' मा० १.१४४.८ 'पूजिहि सब मन कामना ।' मा० २.१०३ पूजिहैं : पूजिहिं । पूरे पड़ेंगे । 'मेरे पासंगहु न पूजि हैं ।' विन० २४१.४ पूजिहै : पूजिहि । 'दास आस पूजिहै ।' विन० २७८.१ पूजिहौँ : आ०भ०उए ० । पूजूंगा-गी। ब्रह्मादि संकर गौरि पूजित पूजिहौं अब जाइ के।' गी० ३.१७.२ पूजी : भूकृ०स्त्री०ब० । (१) पूजित कीं। 'पूजी ग्राम देबि ।' मा० २.८.६ (२) पूरी हुईं । 'पूजी सकल बासना जी की ।' मा० १.३५१.१ पूजी : भूक स्त्री० । (१) पूजित की। तब सीतां पूजी सुरसरी ।' मा० ६.१२१.८ (२) पूरी हुई। 'एकहिं बार आस सब पूजी।' मा० २.१६.१ पूजें : पूजन करने से । 'द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ।' मा० १.२७.३ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 624 तुलसी शब्द-कोश पूजे : भूकृ.पुब० । पूजित किये । 'पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।' मा० १.४८.२ पूजेउँ : आ० - भूकृपु+उए । मैंने पूजा । 'पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ।' मा० ६.२५.३ पुजेउ : भूक००कए । पूजित किया। 'पूजे उ संभु भवानि ।' मा० ११०० पूजेहु : आ०-भूक०पु+मब० । तुमने पूजित किये । 'सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती।' मा० ६.२०.३ पूजै : पूजहिं । (१) पूजा करते हैं । कवि० ५.३० (२) पूरे पड़ते हैं, समानता में आते हैं । 'जद्यपि मीन पतंग हीन मति, मोहि न पूजें ओऊ ।' विन० ६२.१ पूजे : पूजइ । (१) पूजा करे । 'को करि कोटिक कामना पूजे बहुदेव ।' विन ० १०७.६ (२) पूरा पड़े। पूजो : पूज्यो (पूजित) । 'जो कर न पूजो।' कवि० ७.५ ( यदि पूजा किया करे)। पूजोपहार : (पूजा+उपहार) पूजन में समर्पित पुष्पादि-सामग्री।' विन० १७.२ पूज्य : वि० (स०) । पूजा योग्य, सम्मान्य । 'बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।' मा० ३.३४.१ पूज्यो : पूजेउ । पूर्ण हुआ। 'टूट्यो धनुष मनोरथ पूज्यो ।' गी० १.६८.१ पूत : (१) सं०० (सं० पुत्र>प्रा० पुत्त) । ‘होहिं राम सिय पूत पुतोहू ।' मा० २.१५.७ (२) वि० (सं.)। पवित्र । 'तटिनि बर बारि हरि चरन पूत । विन० १०.३ पूतऊ : पुत्र भी। 'मेरे पूत ऊ अनेरे सब ।' कवि० ५.११ पूतना : सं०स्त्री० (सं.)। (१) बालभक्षिणी डाकिनी। (२) एक विशेष डाइन जिसे कष्ण ने मारा था। दो० ४०८ पूतरि : पुतरि । 'करउँ तोहि चख पूतरि आली।' मा० २.२३.३ पूतरो : संपुं०कए० (सं० पुत्तल कम्>प्रा० पुत्तलअं>अ० पुत्तल उ) । तण आदि का पुतला, कृत्रिम मानवादि आकृति विशेष । अब तुलसी पूतरो बांधिहै ।' विन० २४१.५ (नट लोग जिससे पंसा आदि नहीं पाते उसका तृण-पुत्तल बनाकर घुमाते हैं।) पूतु : पूत+कए । इकलौता पुत्र । 'पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें ।' मा० २.१४.५ पूनु : सं०पु०कए० (सं० पुण्यम् >प्रा० पुण्णं>अ० पुण्णु)। पुण्य । गहहिं न _पाप पून गुन दोषू ।' मा० २.२१६.३ पूनों : सं०स्त्री० (सं० पूर्णिमा>प्रा० पुण्णिमा>अ० पुणि वै) । पौर्णमासी तिथि। विन० २०३.१६ पूप : सं०० (सं.)। अपूप, पुआ, एक प्रकार की मीठी पूड़ी। मा० ७.७७.१० For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 625 पूय : सं०पु० (सं०)। पीब फोड़े आदि से निकला रुधिर विकार । मा० ६.५२.३ पूर : (१) सं०० (सं.)। पूर्ति, सफलता। 'नाथ न पूर आव एहि भांती।' मा० ६.६.१ (२) विराम । 'अजहुँ पूर प्रिय देहु ।' मा० ६.३७ (३) प्रवाह । 'प्रेमाम्बु-पूरं शुभम् ।' मा० ७.१३० श्लोक २ (४) दे०/पूर । (५) वि.पु. (सं० पूर्ण) । सकल, सम्पूर्ण । 'देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।' मा० १.८.१४ 'पूर, पूरइ : (सं० पूरयति>प्रा० पूरइ>आ०प्रए० पूर्ण करता है, भर देता है। 'बिधु महि पूर मयूखन्हि ।' मा० ७.२३ पूरत : वकृ०० । पूर्ण करता-ते । 'सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम ।' विन० २५५.१ परति : वक०स्त्री० । पूर्ण करती । 'पुलक तन पूरति ।' पा०म०६८ पूरन : वि० (सं० पूर्ण) । समस्त, सफल । 'जनु चकोर पूरन ससि लोभा ।' मा० १.२०७.६ (२) तृप्त । 'पूरन किए दान सनमाना।' मा० १.३५१.८ (३) ओत-प्रोत । 'पूरन राम सुप्रेम पियूष ।' मा० २.२० ६.५ (४) लबालब भरा हुआ । 'आश्रम सागर सांतरस पूरन ।' मा० २.२७५ (५) व्याप्त, व्यापक । 'देसकाल पूरन सदा ।' विन० १०७.५ पूरनकाजा : वि० (सं० पूर्ण कार्य) । कृतकृत्य, कृतार्थ । मा० १.३३०.६ पूरनकाम, मा : वि० (सं० पूर्ण काम)। सफल-मनोरथ-जिसे कुछ अपेक्षा न हो। 'पूरनकाम रामु परितोष।' मा० १.३४२.६, मा० ३.३१.१० पूरनिहारु : वि०पु०कए० । पूर्ण करने वाला। 'जन मन काम पूरनिहारु ।' गी० ७.८.२ पूरब : पूरुब । (१) दिशा विशेष । 'पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई ।' मा० १.२२४.१ (२) क्रि०वि० । पहले, अतीत में । 'तिन्ह कहुं मैं पूरब बर दीन्हा ।' मा० १.१८७.३ (३) पूर्व जन्म, अतीत काल । 'पुरुषारथ पुरब करम ।' दो० ४६८ पूर्हि : आ०प्रब० (सं० पूरयन्ति>प्रा० पूरंति>अ० पूरहिं)। भर दें, पाट दें। 'पूरहिं न भरि कुधर बिसाला।' मा० ५.५५.६ पूरा : पूर । (१) प्रवाह । (२) पूर्ण । 'मम भुज सागर बल जल पूस ।' मा० ६.२८.३ (३) पूर्ति, सफलता। 'तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।' मा० ३.२५.८ (४) विराम । 'सुनु मतिमंद देहि अब पूरा।' मा० ६.२६६ पूरि : पू० । पूर कर, व्याप्त होकर । 'पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका।' मा० ७.३१.२ पूरित : भूक०वि० (सं०) । भरा हुआ, व्याप्त । 'पूरित पुलक सरीर ।' मा० १.३०० For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 626 तुलसी शब्द-कोश मा० पूरी : (१) पूरि । 'रहा कनक मनि मंडप पूरी ।' १.३२६.२ (२) भूकृ० स्त्री० । भरी, पूर्ण की। 'चोकें चारु सुमित्रा पूरी ।' मा० २.८.३ (३) सम्पन्न, सफल । 'बेर रघुबीर के न पूरी काहू की परी ।' कवि० ६.२७ पुरुष : सं० + वि० (सं० पूर्व > प्रा० पूरुव) । (१) दिशा विशेष । (२) अतीत काल । 'पुरुब कथा प्रसंग सुनावा।' मा० १.६८.१ (३) प्रथम । इससे पहला । 'पूरब जन्म कथा चित आई ।' मा० १.१०७.४ पूरें : पूरने पर ( बजाने हेतु फूंक कर वायुपूरित करने पर ) । 'रूरे सृगी पूरें काल कंटक हरत हैं ।' कवि० ७.१५६ पूरे : भूक०पु० * ० ब ० (सं० पूरित > प्रा० पूरिय) । (१) भरे हुए । 'सुचि सुगंध मंगल जल पूरे ।' मा० १.३२४.५ (२) पूर्ण काम, तृप्त । 'भरहि निरन्तर होहिं न पूरे ।' मा० २.१२८.५ (३) भर दिये । 'पूरे पट बिबिध बरन ।' विन० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१३.३ पूरो : पूरा + कए० । पूरा सफलता । 'सब दिन रूरो परं पूरो जहाँ तहाँ ताहि । हनु० १२ पूर्ण : वि० (सं० ) । मा० ३ श्लो० १ पूर्व : (सं०) पुराकाल (दे० पूरुब ) । मा० ७.१३० श्लो० १ पूषन: सं०पु० (सं० पूषण) । सूर्य । मा० १.२०.६ पूषनु : पूषन + कए० । 'पूषन सो भव भूषनु भो ।' कवि० ७.४२ पृथक : अव्यय (सं० पृथक् ) । अलग । मा० १.८८.६ पृथुराज : राजा पृथु जो बेन के पुत्र थे । उन्होंने दस हजार कान वरदान में पाये थे कि भगवान् का यश सुन सकें । मा० १.४.६ पृथुल : वि० (सं० ) । विस्तृत, दीर्घ, अतिमात्र । पंथि की कथा पृथुल ।' गी० २.३७.३ पृष्ट: सं०पु० (सं० पृष्ठ > प्रा० - मागधी -पस्ट > अ० पृस्ट ) पीठ । कमठ पृष्ट कठोर ।' मा० ५.३५ छं० २ पृष्ठोपरी : (सं० पृष्ठोपरि ) पीठ के ऊपर । विन० ५२.३ पेखक : वि० (सं० प्रेक्षक) । दर्शक, खेल आदि देखने वाला ले । गी० १.४५.३ पेखत: वकृ०पु० (सं० प्रेक्षमाण > प्रा० पेक्खंत ) । देखता ते । 'पारथ पेखत सेतु । दो० ४४० पेखन : (१) भकृ० अव्यय (सं० प्रेक्षितुम् > प्रा० पेक्खि उं > अ० पेक्खण) | देखने | 'स्वयंबर पेखन आए ।' गी० १.६८.४ ( २ ) सं०पु० (सं० प्रेक्षण = प्रेक्षणक> Ято पेक्खण) । कौतुक - दृश्य । खेल, अभिनय आदि । 'जगु पेखन तुम्ह देख निहारे ।' मा० २.१२७.१ For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 627 पेखनो : सं०पु०कए० (सं० प्रेक्षणकम् >प्रा० पेक्खणअं>अ० पेक्खणउ) । अद्भुत दृश्य, कौतुक आदि । 'पेखनो सो पेखन चले हैं पुर नर नारि ।' गी० १.७३.१ पेखहु : आ०मब० (सं० प्रेक्षध्वम् >प्रा० पेक्खह>अ० पेक्खहु)। देखो । पेखहु पनस रसाल ।' दो० ३५४ । पेखा : भूकृपु० (सं० प्रेक्षित>प्रा० पेक्खिअ) । देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेखा।' मा० ४.२४.५ पेखि : कृ० (सं० प्रेक्ष्य प्रा० पेक्खिअ>अ० पेक्खि) । देखकर । 'प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा।' ३.३३.७ पेखिअ : आ०कवा०ए० (सं० प्रेक्ष्यते-ताम् >प्रा० पेक्खीअइ-उ) (आश्चर्य) देखिए । 'पज्जन फलु पेखिअ ततकाला ।' मा० १.३.१ पेखिअत : वकृ.पुकवा० (सं० प्रेक्ष्यमाण>प्रा० पेक्खीअंत)। देखें जाते। 'जापक पूजक देखि अत सहत निरादर भार ।' दो० ३६३ पेखिऐ : पेखिअ । 'राम प्रेम पथ पेखिए।' दो० ८२ पेखी : पेखि । देखकर। 'चक्रवाक मन दुख निसि पेखी।' मा० ४.१७.४ पेख : आo-आज्ञा--मए० (सं० प्रेक्षस्व>प्रा० पेक्ख>अ० पेक्खु) तू (आश्चर्य तो) देख । 'सुदर केकिहि पेखु ।' मा० १.१६१ ख पेखें : देखने से । 'कह दुख समउ प्रानपति पेखें।' मा० २.६७.४ पेखे : भूक.पु. (सं० प्रेक्षित>प्रा० पेक्खिअ) । देखे। 'गुन पेखे पारस के पंकरुह पाय के ।' गी० १.६७.३ पेखेउ : भकृ०० कए० (सं० प्रेक्षितम् >प्रा० पेक्खि>अ० पेक्खिअउ) । देखा। __ 'जनम फल पेखेउ ।' पा०म० १३२ पेच : सं०स्त्री० (फा०) । साँप की लपेट, गांठ, फन्दा, उलझन, संकट । 'सोचत जनक पोच पेच परि गई है।' गी० १.८६.१ पेट : सं०पू० (सं० पेट=पेटारा>प्रा० पेट्ट)। उदर । मा० २.२५१.५ पेटक : सं०पु० (सं.)। पेटारा, पेटारे, खाँचे । 'सब भुवन पटु पेटक भरे ।' जा०म०छं० १३ पेटागि : (पेट+आगि) जठराग्नि, भूख की ज्वाला । 'पेटागि बस खाए टूक सबके।' कवि० ७.७२ पेटारी : सं०स्त्री० (सं० पेटिका>प्रा० पेट्टालिआ>अ० पेट्टाली)। बांस या बेत आदि की मञ्जूषा ।' मा० २.१२ पेटारे : पेटक (प्रा० पेट्टालय) । कवि० ५.२३ पेट : पेट+कए । उदर । 'प्रभु सों कह्यो बारक पेटु खलाई ।' कवि० ७.५७ पेटौ : पेट भी। फिरत पेटी खलाय।' कवि० ७.१२५ For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 628 तुलसी शब्द-कोश. पेड़ : सं०पु० (सं० पेट = वक्षस्थल>प्रा० पेड)। वृक्ष का स्थूल भाग=पेड़ी, तना। पेड़ काटि त पालउ सींचा।' मा० २.१६१.८ पेड़, : पेड़+कए । वृक्ष का मुख्य तना । 'पालव बैठि पेड़, एहिं काटा।' मा०. २.४७.५ 'पेन्हा पेन्हाइ : (सं० प्रस्नोति>प्रा० पाहवइ) आ०प्रए । पल्हाती है, स्तनों में दूध लाती है, प्रस्नत होती है । 'धरनि धेनु पेन्हाइ ।' दो० ५१२ पेन्हाइ : पूकृ० । प्रस्नुत होकर, पल्हाकर । 'धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों।' कवि.. ७.१२६ पेन्हाई : पेन्हाइ । पल्हाती है। ‘भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ।' मा० ७.११७.११ पेम : प्रेम । मा० २.२०८.३ पेमप्रिय : वि० । जिसे प्रेम ही प्रिय हो । मा० २.२१२ पेममय : प्रेममय । मा० २.२६४.८ पेमु : प्रेम । मा० २.२६३ पेरत : वक००। (कोल्हू में) पेरता-ते । 'पेरत कोल्हू मेलि तिल ।' दो० ४०३ पेरो : भूक००कए । पेरा गया, पीडित किया गया। तिल ज्यों बहु बारनि पेरो।' विन० १४३.२ पेलि : पूक ० । दबा कर, धकेल कर, निरस्त कर। 'राजमराल के बालक पेलि के पालत लालत खूसरो को।' कवि० ७.१०३ पेलिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० पेलयिष्यन्ति>प्रा० पेल्लिहिति>अ० पेल्लिहिहिं)। अवज्ञा करेंगे, अमान्य करेंगे । 'भोरेहुं भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ ।' मा० २.२८९ पेली : पेलि । अवज्ञा कर, उपेक्षित कर । 'आयहु तात बचन मम पेली ।' मा० ३.३०.२ पेव : पेम (अ० पे) । 'गिरिजहि पिआरी पेव की।' पा०म०छं० १५ पेषियत : पेखिअत । हनु० ४१ पेषु : पेख । गी० ७.६.४ पैजनि, नी : सं०स्त्री० । पादाभरणविशेष । 'कटि किंकिनि पग पैजनि बाजै ।' गी.. १.३१.३ 'पैंजनी पायनि बाजति ।' गी० १.३२.२ पैजनियाँ : पैंजनी+ब० । पादाङ्गद । 'रुन झुनु करति पायें पैजनियाँ ।' गी० १.३४.२ पैंत : सं० । दाँव (जुए आदि का अनुकूल प्राप्य)। 'मागें पैत पावत पचारि पातकी प्रचंड ।' कवि० ७.८१ प : अव्यय (सं० प्रति>प्रा० पइ) । (१) से, को। 'मो पै परति न बरनि ।' कृ० ३० । (२) पर, ऊपर । 'बारि धारै सिर पै पुरारि ।' कवि० २.६ For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'तुलसी शब्द-कोश 629 (३) भला कि । 'जों पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना।' मा० १.२७७.२ (४) परन्तु । 'दुराराध्य पं अहहिं महेसू ।' मा० १.७०.४ (५) केवल । 'यह सुभ चरित जान पैसोई ।' मा० १.१९६.६ (६) में । 'भलो भलाइहि पै लहइ ।' मा० १.५ पैअत : वकृ०कवा० (सं० प्राप्यमाण>प्रा० पावीअंत>अ० पाइअत) । पाया जाता, पायी जाती, पाये जाते । 'पंत न छत्री खोज खोजत खलक मैं ।' कवि० ६.२५ पंज : पइज । (१) प्रतिज्ञा । 'रोप्यो पाउ पैज के।' कवि० ७.१६ (२) प्रतिज्ञा पूति का संकट । पैज परें प्रहलादह को प्रगटे प्रभु पाहन तें न हिए तें।' कवि० ७.१२६ पैजनी : पैंजनी । गी० १.३३.१ पैजपूरो : (दे० पूरो) प्रतिज्ञापूर्ण, दृढ प्रतिज्ञ । ,बेद बंदी बदत पैजपूरो।' हन ० ३ पंठ : भूकृ०पू० (सं० प्रविष्ट>प्रा० पइट) । घुसा, प्रवेश किया। 'पैठ भवन रथ राखि दुआरें।' मा० २.१४७.५ पैठत : पंठ+वकृ०पु० । प्रवेश करता-करते । 'सर पैठत कपिपद गहा मकरी ।' मा० ६.५७ पैठहि : पैठ+ प्रब० । प्रविष्ट होते-ती हैं। 'गावत पठहिं भूप दुआरा।' मा० १.१६४.४ पैठा : पैठ । घुसा । 'पैठा नगर सुमिरि भगवाना।' मा० ५.५.४ पैठारा : सं०० (सं० प्रविष्ट-कार>प्रा. पइट्ठार) । प्रवेश किया। 'असगुन होहिं नगर पैठारा ।' मा० २.१५८.४ पैठि : पठ+पूक० । प्रविष्ट होकर । रा०प्र० ३.७.३ पैठिहउँ : पैठ+भ० उए । प्रवेश करूँगा। 'तब तुअ बदन पैठिहउँ आई ।' मा० ५.२.५ पैठी : पैठा+स्त्री०ब० । प्रविष्ट हुई, घुस गईं। 'भागि भवन पैठीं अति त्रासा।' मा० १.६६.५ पैठे : पंठा +ब० । प्रविष्ट हुए । 'पैठे बिबर बिलंब न कीन्हा ।' मा० ४.२४.८ पैठेउ, ठो : पैठा+कए । प्रविष्ट हुआ। 'चले उ नाइ सिरु पठेउ बागा।' मा० ५.१८.१ पंठो : पैठेउ । 'पैठो बाटिका बजाइ ।' कवि० ५.२ पंत : पंत । 'भले पंत पासे सुढर ढरे री।' गी० १.७६.३ पैन : वि०० (सं० प्रण>प्रा० पइण) । तीखा, तीखी धार वाला-ले । 'सनमुख सहे बिरह सर पैन ।' गी० ५.२१.३ पैना : पैन । 'सनमुख हत गिरा सर पैना।' वैरा० ४६ पनी : पैना+स्त्री० । तीखी। जनक जबति मति पैनी ।' गी० १.८१.३ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 630 तुलसी शब्द-कोश पैयत : पैअत । विन० १६२.२ परत : वक०० (सं० प्रतरत्>प्रा० पयरंत) । तैरते हुए । 'पैरत थके थाह जन पाई।' मा० १.२६३.४ परि : पू० (सं० प्रतीर्य>प्रा० पयरिअ>अ० पयरि)। तर कर। 'परि पार चाहहिं जड़ करनी।' मा० ७.११५.४ परिबो : भकृ००कए । तैरना । 'लरिकाई को पैरिबो।' दो० १४० पहउ : पाइहौं । मा० ७.४८ पहहिं : पाइहैं । 'पैहहिं सुख सुनि सजन सब ।' मा० १.८ पहहि : आ०भ० मए । (सं० प्राप्स्यति >प्रा० पाविहिसि>अ० पाविहिहि) । तू पाएगा । 'पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि ।' हनु० २६ पहहु : पाइहहु । 'पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।' मा० ४.२५.५ पहैं : पाइहैं । “पैहैं मांगने जो जेहि भैहै।' गी० ५.५०.६ पहै : (१) पाइहै। (वह) पायेगा। 'रावन कियो आपनो पैहै।' गी० ५.५०.२ (२) म०पू०ए० । तू पायेगा । ‘फल पैहै तू कुचालि को।' कवि० ६.११ पहौं : पाइहौं । विन० १०४.२ पही : पाइहो । 'जीवत परिजन हि न पैहो ।' गी० २.७६.४ पॉछि : पूक० । (सं० प्रोक्ष्य, प्रोञ्छ्य>प्रा० पोंछिअ>अ० पॉछि)। माजित कर, पोंछ कर । 'आँसु पोंछि मदु बचन उचारे ।' मा० २.१६५.४ पोऊ : आ०-आज्ञा-मए० (सं० प्रोतय>प्रा० पोअ>अ० पोउ) । तू पोह ले, ___ गूंथ ले । 'दिनकर फुलमनि' अनुराग ताग पोऊ ।' गी० २.१६.३ पोख : पोष । पोषक । 'प्रेम परिहास पोख बचन ।' गी० १.६७.४ पोखरिन : पोखरी+संब० । तलयों का । 'पिअत पोखरिन बारि।' दो० २६५ पोखरी : सं०स्त्री० (सं० पुष्करिणी>प्रा० पोक्खरिणी)। छोटा जलाशय, तलैया । हनु० २२ पोखि : पोषि । गी० २.८७.२ पोखे : पोषे । गी० १.६५.३ पोच : वि० (फा० पोच=बेहूदः, नालायक) (सं० प्रवाच्य>प्रा० पवच्च = निन्दनीय)। बुरा । 'भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।' मा० १.६.३ पोचा : पोच । मा० ६.७७.८ । पोची : पोच+स्त्री० दूषित । निज हित चहइ तासु मति पोची।' मा ० २.२६८.३ पोचु, चू : पोच+कए । 'भल परिनाम न पोचु ।' मा० २.२८२ 'जगु भल भलेहि पोच कहुं पोचू ।' मा० २.२१७.७ For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 631 पोत : सं०० (सं.)। (१) नाव, जहाज । मा० ७.१ क (२) बालक । 'रे कपि पोत बोल संभारी।' मा० ६.२१.१ पोतक : संपु० (सं.)। बालक । 'जो सब पातक-पोतक डाकिनि ।' मा० २.१३२.६ पोतो : पोत+कए । बच्चा । 'चित चातक सो पोतो।' विन० १६१.२ पोथिन : पोथी+संब० । पोथियो (में)। दो० ५५७ पोथिही : पोथी (में) ही । पयत पोथिही पुरान ।' विन० १९२.२ पोथी : सं०स्त्री. (सं० पुस्तिका>प्रा० पोत्थिआ>अ० पोत्थी)। ग्रन्थ । रा०प्र० ७.७.१ पोली : वि०स्त्री० । अन्तःसारशून्य, भीतर सार-रहित, खोखली। 'राम प्रीति प्रतीति पोली, कपट करतब ठोसु ।' विन० १५६.२ पोष : पोषइ । पोषण देता है। दो० ५२५ 'पोष पोषइ : (सं० पोषयति>प्रा० पोसइ) आ०प्रए । अनुग्रह करता है, पुष्टि देता है । 'पालइ पोषइ सकल अंग ।' भा० २.३१५ पोषक : वि० (सं०) । पुष्ट करने वाला-वाले । 'तनु पोषक नारि नरा सगरे।' मा० ७.१०२.१० पोषण : सं०० (सं.)। पुष्टि (सारसँभाल), अनुग्रह । विन० ५५.६ पोषत : वक०० (सं० पोषयत्>प्रा० पोसंत)। पुष्ट करता। 'राम सुप्रेमहि पोषत पानी ।' मा० १.४३.३ पोषन : पोषण । मा० १.१६७.७ पोषनिहारा : वि.पुं० । पुष्ट करने वाला । 'भानु कमल कुल पोषनिहारा ।' मा० २.१७.७ पोषि : पक० (सं० पोषयित्वा>प्रा० पोसिअ>अ० पोसि)। पोषण =अनुग्रह देकर, सन्तुष्ट अनुग्रहीत करके । 'प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे ।' मा० १.३४०.२ पोषिबे : भक०० (सं० पोषयितव्य>प्रा० पोसिअव्वय) । पुष्ट करने । 'सोषिबे को भानु पोषिबे को हिमभानु भो।' हनु० ११ पोषिये : आ०कवा०प्रए० (सं० पोष्यते>प्रा० पोसीअइ)। पुष्ट करिए, अनुग्रहीत ___ कीजिए । 'अब गरीब जन पोषिये।' विन० १४६.४ पोषिहैं : आ०म०प्रब० (सं० पोषयिष्यन्ति>प्रा० पोसिहिति>अ. पोसिहिहिं) । अनुग्रहीत होंगे, पुष्ट किये जायेंगे । 'बिबुध प्रेम पोषिहैं ।' कवि० ६.२ पोषीं : भूकृ०स्त्री०ब० । पुष्ट की, अनुग्रहीत की गईं। 'जनु कुमुदिनी कौमुदीं पोषों।' मा० २.११०.४ पोषे : भूकृ००ब० (सं० पोषित>प्रा० पोसिय) । अनुग्रहीत किये, पृष्ट किये । 'सुनि बर बचन प्रेम जन पोषे ।' मा० १.३४२.६ For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 632 तुलसी शब्द-कोश पोषेउ : भूक००कए । पुष्ट = सम्पन्न किया, बढ़ाया। 'जानकी तोषि पोषेउ प्रताप ।' गी० ५.१६.१० पोसात : पोषत । पोषक होता, पुष्टि देता। 'हुतो पोसात दान दिन दोबो।' कृ०६ पोसु : (समासान्त में) वि.पु.कए० (सं० पोष:>प्रा० पोसो>अ. पोसु)। पोषण= अनुग्रह देने वाला । 'नाथ अनाथ आरत-पोसु ।' विन० १५६.१ पोसें : क्रि०वि० (सं० पोषेण>प्रा० पोसेण>अ० पोसें) । अनुग्रह करने से, पोसने से । 'बनइ प्रभु पोसें।' मा० ४.३.४ पोसे : पोषे । 'मोसे दोस-कोस पोसे ।' विन० १७९.३ पोसों : आ० उए० (सं० पोषयामि>प्रा० पोसमि>अ० पोसउँ)। पुष्ट कर रहा हूं। पातकी पावर प्राननि पोसों।' कवि० ७.१३७ पोसो : पोसेउपोषेउ । अनग्रहीत किया। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।' मा० १.२८.४ पोहत : वकृ०० । गूंथते, गुम्फित करते। 'तुलसी प्रभु जोहत पोहत चित ।' गी० पोहनी : दे० सिल पोहनी। जा०म०/०८ पोहहीं : आ०प्रब० । गुहते हैं, गुम्फित करते हैं, छेद कर ग्रथित कर रहे हैं । 'जन कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुतुद पोहहीं।' मा० ६.६२ छं० पोहिअहि : आ०कवा०प्रब० । पोहे जाते हैं, पोहे जायँ. मालाबद्ध किये जायें। 'पोहिअहिं राम चरित बर ताग । मा० १.११ पोही : पूक० । पोह कर, गूंथ कर । छेद कर गुम्फित कर । 'चारु चितवनि चतुर लेति चित पोही।' गी० १.१८.३ पौरि : पौरि । गी० ७.१८.१ पौ : पउ । जैसे, अपनपौ । विन० १०१.३ पौढ़ाए : भूक पुब० । लिटाए, सुलाए । 'करि सिंगार पलना पौढ़ाए।' मा० १.२०१.१ पौंढ़ि : पू० । लेट (कर), शयन कर । 'नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई ।' क० १३ पौढ़िये : आ०भावा० । शयन कीजिए। 'पौढ़िये लालन पालने हौं झुलावौं ।' गी० १.१८.१ पौढ़े : भूक००ब० । शय्यासीन हुए, लेटे । 'पौढ़े धरि उर पद जलजाता।' मा० १.२२६.८ पौन : पवन । हनु० ८ पौरि : सं०स्त्री० (सं० प्रतोली>प्रा० पओली) । मार्ग, द्वार । 'परत पराई पौरि ।' दो०६६ For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 633 पौरुष : सं० (सं.)। (१) पुरुषत्व । 'धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता।' मा० ३.१८.२ (२) पुरुषकार, पराक्रम । 'देखि राम पौरुष बल भारी।' मा० ५.६०.७ प्याइ : पूकृ० । पिला कर । 'जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज बार-बार चुचकारे।' गी० २.८७.२ प्याइहौं : आ०भ० उए । पिलाऊँगा-गी । 'चंद्रसुधा छबि नयन चकोरनि प्याइहौं ।' गी० १.४८.२ प्यारी : प्यारी+ब० । 'बिनु पहिचानि प्रानहुँते प्यारी ।' मा० १.३२२.६ प्यारी : पिआरी। 'प्रक्षन तुम्हारि मोहि अति प्यारी ।' मा० ७.६५.२ प्यारे : पिआरे । 'कृपानिधान प्रान ते प्यारे ।' मा० ७.४७.२ प्यारो : पिआरो। विन० १७४.४ प्यास : पिआस । मा० ६.३३ ख प्यासे : पिआसे । कवि० ७.१४८ प्रकट : वि० (सं०) । स्पष्ट, व्यक्त । हनु० ८ प्रकार : सं०० (सं.)। (१) रोति, ढंग । 'एहि प्रकार बल मनहि देखाई ।' मा० १.१४.१ (२) शैली, वर्ग भेद । 'रचना बिबिध प्रकार ।' मा० १.१२६ (३) उपाय । 'जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ।' मा० १.१३१.७ प्रकारा : प्रकार । मा० १.६.१० प्रकाश : सं०० (सं.)। तेज, ज्योति । मा० ७.१०८.६ प्रकास : प्रकाश । (१) तेज+प्रभाव । 'पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका।' मा० ७.३१.२ (२) ब्यापक बोध । 'पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि ।' मा० १.११६ ।। प्रकासक : वि०पू० (सं० प्रकाशक) । (१) प्रकाशित करने वाला । (२) प्रपञ्च को प्रकट करने वाला (जिसके प्रकाश से सब प्रकाशित हैं) ! 'जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।' मा० १.११७.७ प्रकासति : वकृ०स्त्री० । प्रकाशित करती। 'मुकुट प्रभा सब भुवन प्रकासित ।' गी० ७.१७.१५ प्रकासनिधि : ज्ञान तथा प्रकाश का अधिष्ठान =सर्व प्रकाशक । 'पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि ।' मा० १.११६ प्रकासरूप : प्रकाशात्मा, ज्ञानस्वरूप, सूर्यवत् जगत् का प्रकाशक । मा० १.११६.६ प्रकासा : (१) प्रकास । 'हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा ।' मा० १.१६८.७ (२) भूकृ०० । प्रकट हुआ । 'अवधपुरी यह चरित प्रकासा।' मा० १.३४.५ (३) प्रकासइ । प्रकट होता है । मा० १.२०६.८ For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 634 तुलसी शब्द-कोश प्रकासी : भूकृ० स्त्री० । दीप्त हुई, प्रकट हुई । 'बचन नखत अवली न प्रकासी ।" मा० १.२५५.१ प्रकासु, सू : प्रकास + कए० । अद्वितीय प्रकाश । मा० १.२३१.२; २.२६५.७ प्रकासे : भूकृ०पु० । प्रकाशित होने पर । 'जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे ।' मा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.३२५.३ प्रकास्य : विogo (सं० प्रकाश्य ) । प्रकाशित किया जाने वाला, अन्य के प्रकाश से प्रकाश पाने वाला | 'जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।' मा० १.११७.७ प्रकृति : सं० स्त्री० (सं०) । (१) सांख्यदर्शन की मूल प्रकृति जो २३ तत्त्वों के परिणाम का आदिकारण है । विन० ५४.२ (२) ( ( वैष्णव दर्शन में ) माया; त्रिगुणाश्रय प्रधान तत्त्व । ' प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।' मा० ७.७२-७ (३) स्वभाव | 'समुझडु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ।' मा० ५.५७.३ प्रकृतिपर : माया से परे, त्रिगुणातीत । 'प्रकृतिपर निरबिकार श्रीराम ।' विन० २०३.६ प्रकृष्ट : वि० (सं० ) । उत्तम, उत्कृष्ट, सर्वोपरि । मा० ७.१०८.६ प्रगट : ( १ ) प्रकट | मा० २.५०.६ (२) प्रगटइ । 'कबहुंक प्रगट पतंग ।' मा० ४.१५ ख प्रगट, प्रगट : (सं० प्रकटति > प्रा० प्रगटइ) आ०प्र० । प्रकट होता है, प्रकाश में आता है । 'कबहुंक प्रगटइ कबहुं छपाई । मा० ३.२७ १२ (२) (सं० प्रकटयति > प्रा० पगटइ ) : प्रकट करता है । प्रगट : आ०उए । प्रकट करता हूं। 'अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू ।' मा० १.४६.१ प्रगटत: वकृ०पु० । प्रकट होता होते । 'सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ।' मा० १.२३.८ प्रगटसि : आ०म० । तू प्रकट होती है । 'प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ।' मा० ३. ३०.१५ प्रगहि : आ० प्रब० । प्रकट होते ती हैं । 'प्रगहि दुहि अटन्ह पर भामिनि ।' मा० १.३४७.४ प्रगटि : पूकृ० । ( १ ) प्रकट होकर । 'निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ।' मा० ४.३.५ (२) प्रकट करके । 'कछु निज महिमा प्रगति जनाई ।' मा० १.३०६.७ प्रगटी : भूकृ० स्त्री०ब० । प्रकाश में आईं। 'प्रगटींमनि आकर बहु भाँति ।' मा० १.६५ प्रगटी : भूकृ० स्त्री० । प्रकाश में आई । प्रगटी धनु विघटन परिपाटी ।' मा० १.२३९.६ For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्दकोश 635 प्रगट : प्रकट होने से । 'यह प्रगटें.. 'नास तुम्हार ।' मा० १.१६६.३ प्रगटे : भूकृ.पु० ब० । प्रकट हुए, आविर्भूत हुए । 'प्रगटे खल बिष बारुनी।' मा० १.१४ च प्रगटेउ : भूक ००कए । प्रकट हुआ, व्यक्त रूप में आया। 'राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ।' मा० १.१७.२ प्रगटेसि : आ०-भूकृ००+प्रए । उसने प्रकट किया=किए। 'प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा।' मा० १.८६.६ प्रगटेहु : आ०- भूकृ००+मब० । तुमने प्रकट किया । 'अननि, जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।' पा०म०४४ प्रगट : प्रगटहिं । प्रकाशित करते हैं, उजागर करते हैं। 'प्रगट उपासना, दुरावै दुरबासनाहि ।' कवि० ७.११६ प्रगट : प्रगटइ । (१) प्रकट हो जाय । 'बरु पावक पगट ससि माहीं ।' मा० १.७१.८ (२) प्रकट करे। 'गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।' मा० ४.७.४ प्रगट्यो : प्रगटेउ । 'प्रगट्यो बिसिख प्रतापु । गी० ६.१.२ प्रगल्भ : वि० (सं.) । अवृष्य ; दूसरे से प्रभावित न होकर प्रभावित करने वाला। मा० ७.१०८.६ प्रघोर : वि० (सं०) । अतिघोर, अत्यन्त प्रचण्ड । 'मुष्टि प्रहार प्रघोर ।' मा० प्रचंड : वि० (०) । (१) तीव्र, असह्य या दु:सह । 'उपजा हृदये प्रचंड बिषादा।' मा० ७.५८.५ (२) अनभिभूत, दुरन्त, अदम्य । प्रचंड प्रकृष्टं प्रगल्भं परोश ।' मा० ७.१०८.६ प्रचंडा : प्रचंड । मा० ६.४०.८ प्रचार : सं०० (सं.)। प्रसिद्धि, फैलाव, विस्तार, प्रसार । मा० १.३५ (२) संचार, प्रवेश । (३) गति, पहुँच । प्रचारा : प्रचार । (१) प्रसार । 'सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।' मा० १.२.८ (२) संचार, प्रवेश । 'होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा।' मा० १.५१.४ प्रचारि : पूक० । (१) पचारि । ललकार कर । 'तमके घननाद से बीर प्रचारि के।' कवि० ६.१५ (२) घोषित करके । 'सुमिरत कहत प्रचारि के बल्लभ गिरिजा को।' विन० १५२.११ प्रचार, रू : प्रचार+कए० । (१) फैलाव । 'दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ।' मा० २.१६३.५ (२) गति । 'इहाँ जथामति मोर प्रचारू ।' मा० २.२८८.४ प्रचारे : भूकृ००ब० । ललकारे । 'जामवंत हनुमंत. 'प्रचारे ।' गी० ६.७.४ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 636 तुलसी शब्द-कोश प्रचार्यो : भूकृपु०कए । ललकारा। 'फिरत न बारहिबार प्रचार्यो।' गी० ३.८.१ प्रचुर : वि० (सं०) । प्रभूत, पुष्कल, अधिक, अतिशय । विन० १२.५ प्रजंत : क्रि०वि० (सं० पर्यन्त>प्रा० पज्जत) । तक । 'जोजन एक प्रजंत ।' मा० प्रजंता : प्रजंत । मा० ७.६१.५ प्रजउ : प्रजा भी। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।' मा० २.२५०.८ प्रजहि : प्रजा को । 'पालेहु प्रजहि करम मन बानी ।' मा० २.१५२.४ प्रजा : संस्त्री० (सं.)। (१) सन्तति, भूत-सृष्टि । जैसे, प्रजापति । (२) जनता। 'प्रजा पालि परिजन दुख हरहू।' मा० २.१७६.६ (राजा के सन्दर्भ में रिआया का अर्थ है)। प्रजापति : सृष्टि का स्वामी। (१) ब्रह्मा । (२) कोई भी उस पदवी को धारण करने वाला । 'दच्छहि भीन्ह प्रजापति नायक ।' मा० १.६०.६ प्रजारि (री) है : आ०भ०ए० । जला डालेगा। 'काननु उजार्यो अब नगरु प्रजारिहै (प्रजारीहै)।' कवि० ५.५ प्रजारी : भक०स्त्री० । जला दी । 'नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी ।' मा० ५.२५.७ प्रजार्यो : भूक००कए । जला डाला । 'नगरु प्रजार्यो।' कवि० ६.२२ प्रजासन : वि० (सं० प्रजाशन) । प्रजा-भक्षक । 'द्विज श्रुति बेचक, भूप प्रजासन ।' मा० ७.६८.२ प्रजेस : प्रजापति (सं० प्रजेश) । मा० १.६०.५ प्रजेस कुमारी : प्रजापति दक्ष की पुत्री-सती । मा० १.६०.१ प्रणत : वि.० (सं०) । नत, प्रणाम युक्त, शरणागत, प्रपन्न । विन० १२.५ प्रणामी : वि० (सं० प्रणामिन्) । प्रणतिशील । विन० ४०.२ प्रतच्छ : वि०+क्रि०वि० (सं० प्रत्यक्ष) । दृष्टिगोचर, आँखों के समक्ष (इन्द्रिय वेद्य) । कवि० ६.५४ प्रताप : सं०पू० (सं.)। (१) ऊष्मा+तेज । 'प्रताप दिनेस से।' कवि० ७.४३ (२) ताप+ज्योति । 'जिन्ह के जस प्रताप के आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे।' मा० १.२६२.२ (३) प्रभाव, गरिमा। 'राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।' मा० १.१०.७ (४) महिमा, मान्यता । 'बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ।' मा० १.७.५ (५) उत्साह, शौर्य, साहस । 'भुज प्रताप ।' मा० १.८२.५ (६) शक्ति। 'देखहु काम प्रताप ।' मा० २.२५.३ (७) कृपा, शरण । 'राम प्रताप नाथ बल तोरें।' मा० २.२६२.७ For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 637 प्रतापदिनेसा : प्रतापभानु । मा० १.१६४.१ प्रतापमानु : (१) प्रतापरूपी सूर्य । (२) प्रताप में सूर्य-तुल्य । (३) एक राजा का ___ नाम जो जन्मान्तर में रावण हुआ । मा० १.१५३.५ प्रतापरबि : प्रतापभानु । मा० १.१५३ ।। प्रतापा : प्रताप । मा० ६.७६.१५ प्रतापी : वि०० (सं० प्रतापिन्) । (१) सन्तापदायक, तपनशील (२) प्रताप शाली (दे० प्रताप) । 'सोइ रावन जग बिदित प्रतापी ।' मा० ६.२५.८ प्रताप, पू : प्रताप+कए । अद्वितीय प्रताप । 'जान आदि कबि नाम प्रतापू ।' मा० १.१६.५ प्रति : अव्यय (सं.)। (१) के सम्मुख, को लक्ष्य करके । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ।' मा० १.३०.५ (२) व्याप्त करके । 'रोम रोम प्रति राजहि कोटि कोटि ब्रह्मड ।' मा० १.२०१ (३) प्रत्येक । 'प्रति संबत अस होइ अनंदा । मा० १.४५.२ (४) पृथक्, विभक्त करके । 'प्रति अवतार कथा प्रभु केरी।' मा० १.१२४.४ प्रति उत्तर : उत्तर के बदले में उत्तर । मा० ६.२३ ङ प्रतिकूल, ला : वि० (सं० प्रतिकूल) । (१) हिंसा या दुर्व्यवहार से पूर्ण । 'चरहिं बिस्व प्रतिकूल ।' मा० १.२७७ (२) शत्रु । 'सुवा सो लँगूल, बलमूल प्रतिकूल हबि ।' कवि० ५.७ (३) विरुद्ध । 'सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।' मा० १.१८३.५ (४) विपक्ष, शत्रुतापूर्ण । 'सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।' मा० २.३८.८ प्रतिकूले : प्रतिकूला । गी० ७.१२.५ प्रतिग्या : सं०स्त्री० (सं० प्रतिज्ञा)। पंज, व्रत (प्रतिष्ठा, निष्ठा, पण.) । 'प्रहलाद प्रतिग्या राखी।' विन. ६३.३ प्रतिछांह : प्रतिछाहीं । गी० ७.१८.१ प्रतिछाही : (दे० छाहीं)। प्रतिच्छाया, प्रतिबिम्ब । मा० १.३२५.३ ।। प्रतिपच्छिन्ह : प्रतिपच्छी (सं० प्रतिपक्षिन् ) संब० । प्रतिपक्षियों, विपक्षियों+ शत्रुओं (ने) । 'सपनेहुं नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।' मा० २.१०५ प्रतिपाद्य : वि० (सं०) । ग्रन्थ का प्रमुख वर्ण्य (विषय)। 'प्रभु प्रतिपाद्य राम __ भगवाना।' मा० ७.६१.६ प्रतिपाल, प्रतिपालइ : (सं० प्रतिपालयति>प्रा० पडिपूालइ) आप्रए । रक्षा तथा पोषण देता है-भरण पोषण करता है (पालतू बनाता है)। 'जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक ।' मा० ६.२३ च For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 638 तुलसी शब्द-कोश प्रतिपालउँ : आ०उए । भरणपोषण करता हूं । 'एहिं प्रतिपालउँ सब परिवारू । मा० २.१००.७ प्रतिपालक : वि०पू० (सं०) । सर्वथा-सर्वत्र-सर्वदा भरण पोषण करने वाला। 'भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि ।' मा० ७.३०.२ प्रतिपालन : सं०० (सं०) । भरण-पोषण । 'बहु बिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हो ।' विन० १३६.४ प्रतिपालहिं : आ०प्रब० । पालन करते हैं । मा० ७.१००.३ प्रतिपाला : भुकृ००। (१) पालन किया । 'प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ।' मा० १.१४२.८ (२) सुरक्षा दिया हुआ । 'मैं सिसु प्रभु सनेहं प्रतिपाला।' मा० २.७२.३ प्रतिपालि : पूकृ० । पालन करके । 'प्रतिपालि आयसु..... आइहौं ।' मा० २.१५१ छं० प्रतिपाली : भूकृ० स्त्री० । पालकर बढ़ायी, संवधित की । 'सींचि सनेह सलिल प्रति पाली ।' मा० २.५९.३ प्रतिपाल्यो : भूकृ.पु०कए । प्रतिपालन किया । 'दसरथ सौं न प्रेम प्रतिपाल्यो।' गी० ३.१२.२ प्रतिबिंब : सं०पू० (सं.)। (१) छाया । 'नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी।' मा० ७.७७.८ (२) प्रतिकृति, प्रतिमूर्ति । 'निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता।' मा० ३.२४.४ प्रतिबिंबनि : प्रतिबिंब+संब० । छायओं (को)। 'किलकत झुकि मांकत प्रति बिबनि ।' गी० १.३१.६ प्रतिबिंबु : प्रतिबिंब+कए० । छाया। 'निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई । मा० २.४७.८ प्रतिभट : तुल्य-बल-भट, समान विपक्षी योद्धा । मा० १.१८०.३ ।। प्रतिमा : सं०स्त्री० (सं.)। मूर्ति, कलानुकृति (प्रस्तरादिकृत)। 'सुर प्रतिमा खंभनि गढ़ि काढ़ीं। मा० १.२८८.६ प्रतिलाम : क्रि०वि० (सं०)। प्रत्येक लाभ में, लाभ के प्रत्येक अवसर पर (उत्तरोत्तर) । 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।' मा० १.१८०.२ प्रतिष्ठा : सं०स्त्री० (सं०) । (१) सुस्थिरता (२) दृढता (३) आधार (४) समर्थन महिमा (६) उच्च पदाधिकार (७) ख्याति, यश (८) सम्मान, समादर (8) स्थापना (१०) सीमा। पाप प्रतिष्ठा बढ़ि परी।' दो० ४६४ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 639 प्रतीति, ती : सं०स्त्री० (सं० प्रतीति) । (१) विश्वास । 'असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।' मा० १.३३.५ (२) प्रत्यय, प्रामाणिक बोध । 'सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी ।' मा० २.७.६ (३) भ्रम । 'निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती।' मा० ६.६६.५ प्रतोषी : भूक स्त्री०ब० । सर्वथा सन्तुष्ट की। (राम प्रतोषी मातु सब।' मा० १.३५७ प्रत्यूह : सं०पु० (सं.) । विघ्न । मा० ७.११८ ख प्रथम : वि०+क्रि०वि० (सं०) । (१) पहले । 'प्रथम बसीठ पठउ। मा० ६.६.१० (२) पहला । 'दादुर मोर पीन भए पावस प्रथम ।' मा० २.२५१ प्रथमहि : (१) प्रथम स्थान पर । 'प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती।' मा० ३.१६.६ (२) पहले ही, पूर्व ही। 'प्रथमहिं देवन्ह गिरिगुहा राखेउ रुचिर बनाइ ।' मा० ४.१२ प्रद : (समासान्त में) वि०पु० (सं०) । देने वाला । 'सकल काम प्रद तीरथराऊ।' मा० २.२०४.६ प्रदच्छिन : (१) परदखिना। मा० ४.२६ (२) क्रि०वि० । दक्षिणावर्त परिक्रमा करके । 'कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई ।' मा० २.१६६.१ प्रवच्छिना : परदखिना (सं० प्रदक्षिणा)। 'दै दै प्रदच्छिना करति प्रनाम ।' गी० ३.१७.८ प्रदा : प्रद+स्त्री० (सं०) । देने वाली । मा० २ श्लोक २ प्रदेश : सं०० (सं.)। (१) स्थल, भू-भाग, क्षेत्र। (२) शरीर भाग, अङ्ग । 'मणि मेखल कटि-प्रदेशं ।' विन० ६१६ प्रवेस : प्रदेश । मा० २.१०५.४ प्रदोष : सं०+वि.पु. (सं.)। (१) सायंकाल, निशामुख (रात्रि का प्रथम प्रहर)। (२) अतिशय-दोष-युक्त । 'जातुधान प्रदोष बल पाई ।' मा० ६.४६.४ प्रधान : (१) वि.पु. (सं०) । मुख्य प्रभावक । 'करम प्रधान सत्य कह लोग ।' मा० २.६१.८ (२) माया, प्रकृति-दे० परधान । प्रधाना : प्रधान । मा० २.१३३.६ प्रध्वंसन : वि०पू० (सं.) । पूर्णतया विनाशकारी । मा० ४ श्लोक २ प्रनत : प्रणत । 'सोइ रघुबीर प्रनव अनुरागी।' मा० ६.७.५ प्रनतनि : प्रनत+संब० । प्रणतजनों। 'सरनागत आरत प्रनतनि को दै दै अभयपद ओर निबाहैं ।' गी० ७.१३.६ प्रनतपाल : वि.पु. । प्रणत जनों का रक्षक । मा० ६.१०२.४ For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 640 तुलसी शब्द-कोश प्रतिपालु : प्रनतपाल + कए० । एकमात्र प्रणत रक्षक । 'प्रनतपालु पालिहि सब काहू ।' मा० २.३१४.४ प्रनतारति : ( प्रनत + आरति ) । प्रणत जनों के क्लेश । 'सब बिधि तुम्ह प्रनतारति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हारी । मा० ७.४७.३ प्रनति : सं० स्त्री० (सं० प्रणति ) । प्रणाम, प्रार्थना । गी० ३.१७.८ प्रनमामि : आ० उ० (सं० प्रणमामि ) । प्रणाम करता हूं । मा० ७.१४ छं० १० प्रनय : सं०पु० (सं० प्रणय ) | ( १ ) आत्मीयता, ममत्व ( २ ) परस्पर आसक्ति (३) प्रार्थना ( ४ ) विश्वासपूर्वक अनुराग ( ५ ) कृपाभाव । 'प्रीति प्रनय बिनु ... नासहि ।' मा० ३.२१.११ प्रनवउँ : प्रनमामि (अ० प्रणवउँ ) । 'पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना ।' मा० १.४.६ प्रनाम, मा: सं०पु० (सं० प्रणाम) नमस्कार । मा० १.२.४ प्रनामु, मू : प्रनाम + कए० । नमस्कारमात्र । 'कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ।' मा० १.५६.२ 1 प्रपंच: सं०पु० (सं०) । (१) विस्तार - छल प्रपंच | ' कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ।' मा० १.१२६.६ (२) उलझाने वाला आडम्बर या वाग्जाल । 'मोहिन बहुत प्रपंच सोहाहीं ।' मा० २.३३.६ (३) सृष्टि विस्तार । 'बिधि प्रपंच महं सुना न दीसा ।' मा० २.२३०.८ ( ४ ) माया, सम्पूर्ण प्राकृत तत्त्वमय विश्व । 'परमारथी प्रपंच बियोगी ।' मा० २.६३.३ (५) जगत् की सृष्टि के आधारभूत पंच महाभूतों की रचना पञ्चीकृत सूक्ष्मभूतों से होती है जिसमें प्रत्येक भूत का अपना आधा और शेष चार का आठवाँ आठवाँ भाग मिश्रित रहता है । इस प्रकार प्रपञ्च पञ्चभूतों का मिश्रण होने से जटिल है । इसी प्रकार की जटिल प्रक्रिया, छलना या आडम्बर को प्रपञ्च कहा गया है । उक्त दोनों अर्थ एक साथ द्रष्टव्य हैं— 'रचहु प्रपंचहि पंच मिलि ।' मा० २.२६४ अर्थात् जिस प्रकार पाँच तत्त्वों से प्रपञ्च की सृष्टि होती है उसी प्रकार पाँच मुखिया मिल कर छल प्रपञ्च की रचना करो । प्रपंचभय : विश्व सृष्टि का विस्तार + छलनापूर्ण । 'पारद प्रगट प्रपंचमय ।' दो० २६० प्रपंची : वि०पु० (सं० प्रपञ्चिन्) । जालिया, छलिया ( प्रपञ्च के कर्ता-धर्ता) । 'हरिहि कहहिं प्रपंची लोग ।' दो० ४१८ प्रपंचु : प्रपंच + कए० । (१) एकीभूत (पञ्चीकृत) सृष्टि प्रसार । 'बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना ।' मा० १.६.४ (२) छद्म- जाल + मायाजाल । '२चि प्रपंच भूपहि अपनाई ।' मा० २.१८.६ For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1 प्रपु ंज : (दे० पुंज) । झुण्ड के झुण्ड । 'चले प्रपुच चंचरीकीग० ।' १.३८.४ प्रफुलित : प्रफुल्लित । बर० २६ प्रफुल्ल : वि० भूकृ० (सं० ) । पूर्ण विकसित । 'प्रफुल्ल कंज लोचनं ।' मा० ३.४.४ प्रफुल्लित : प्रफुल्ल । 'पुलक प्रफुल्लित गात ।' मा० १.१४५ प्रबंध : सं०पु० (सं०) । (१) बन्धान, शैली, रीति । 'छंद प्रबंध अनेक बिधाना ।' मा० १.६.६ ( २ ) प्रबन्ध काव्य | 'जो प्रबंध बुध नहि आदरहीं ।' मा० १.१४.८ (३) जलाशय का बाँध + प्रकरण, काण्ड । 'सप्त प्रबंध सुभग सोपाना । मा० १.३७.१ 641 प्रबरन : सं०पु० (सं० प्रवर्षण ) । दण्डकवन में एक पर्वत । मा० ७.६६ ख प्रबल : वि० (सं० ) । अति बलशाली, दुर्दम, दुर्दान्त, दुरतिक्रम, समर्थ । मा० १.१४० प्रबलता : सं० स्त्री० (सं० ) । शक्तिमत्ता । मा० १.१३७ प्रवाहँ : प्रवाह में । 'भव प्रबाहँ संतत हम परे ।' मा० ६.११०.१२ प्रबाह : सं०पु० (सं० प्रवाह ) । धारा का बहाव । मा० १.३४०.६ प्रबाहू : प्रबाह+कए० । एकीभूत धारा । ' उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ।' मा० १.३६.१० प्रसिति: वकृ० स्त्री० (सं० प्रविशन्ती ) । प्रवेश करती । 'केहि मग प्रबिसति छाहँ ।' दो० २४४ प्रबिर्साहि : आ०प्र० (सं० प्रविशन्ति > प्रा० पविसंति > अ० प्रविसहि ) । प्रवेश करते हैं; भीतर जाते हैं, घुसते हैं । 'एक प्रसिहि एक निर्गमहि ।' मा० २.२३ प्रबिसि : पूकृ० । प्रवेश करके । 'प्रबिसि नगर कीजे सब काजा ।' मा० ५.५.१ प्रबिसे : भूकृ०पु०ब० । प्रविष्ट हुए, घुसे । पुनि रघुबीर निषंग महुं प्रबिसे सब नाराच ।' मा० ६.६८ प्रबिसेउ : भूकृ०पु०कए० । प्रविष्ट हुआ । 'राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग ।' मा० ६.१३ ख प्रबीन, मा: वि० (सं० प्रवीण ) । कुशल, दक्ष, विदग्ध, निपुण । 'जे असिकला प्रबीन ।' मा० १.२६८; १.५४.६ प्रबीनता : सं० स्त्री० (सं० प्रवीणता ) । दक्षता, कौशल । पा०मं०छं० ६ प्रबीनू : प्रबीन + कए० । जरा भी प्रवीण । 'कबि न होउँ नहि बचन प्रबीनू ।' मा० For Private and Personal Use Only १.६.८ प्रबेस : (१) सं०पु० (सं० प्रवेश ) । अन्त र्गमन, घुसना, भीतर जाना । 'करत प्रबेस मिटे दुख दावा ।' मा० २. २३ . ३ ( २ ) आरम्भ । निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । मा० १.२२६.१ (३) पहुंच, पैठ, अवगति । 'परमारथ न प्रबेस ।' दो० १७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 642 तुलसी शब्द-कोश प्रबेसा : प्रबेस । मा० ६.४५.७ प्रबेसु : प्रबेस+कए । 'निज पुर कीन्ह प्रबेसु ।' मा० १.१५४ प्रबोध : सं०० (सं०) । (१) जागरण (२) उद्भव (३) सजगता (४) ज्ञान, प्रतीति (५) मानसिक स्थिरता, धृति । 'मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ।' मा० १.३१.२ (६) आश्वासन । 'होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा।' मा० १.५१.४ (७) /प्रबोध । 'प्रबोध प्रबोधइ : आ०प्रए० (सं० प्रबोधपति)। प्रबोध =ज्ञान या जागरण देता है; समझाता है । 'गुर नित मोहि प्रबोध ।' मा० ७.१०५ ख प्रबोषक : वि० (सं.)। (१) जगाने वाला (२) ज्ञान देने वाला=समझाने वाला । 'उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।' मा० १.२१.८ प्रबोधन : भक० अव्यय । प्रबोध देने, समझाने । 'लगे प्रबोधन जानकिहि ।' मा० २.६० प्रबोधहि : प्रबोध को, आश्वासन को। ‘रहे प्रबोधहि पाइ।' मा० १.७३ प्रबोधा : (१) प्रबोध । 'बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा।' मा० १.६३.८ (२) भूकृ०० । प्रबोध दिया, आश्वस्त किया, समझाया। 'प्रभु तब मोहि बहु भांति प्रबोधा।' मा० १.१०६.६ प्रबोधि : पूक० । प्रबोध देकर, समझाकर । 'ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा ।' मा० ___७.१०.२ प्रबोधिसि : आo-भक स्त्री०+प्रए० । उसने आश्वस्त की। 'धीरजु धरह प्रबोधिसि रानी ।' मा० २.२०.३ प्रबोधी : भूक०स्त्री०ब० । समझायीं, आश्वस्त की । 'कहि गुन राम प्रबोधी रानी।' ___ मा० २.३०६.७ प्रबोधी : (१) प्रबोधि । सजग करके । 'रावनहि प्रबोधीनाघेउ।' मा० ७.६७.५ (२) भूकृ०स्त्री० । समझाई (हुई) । 'कुटिल प्रबोधी कूबरी।' मा० २.५० प्रबोधु, धू : प्रबोध+कए । (१) विवेक, सूझबूझ, सजगता । 'बैरु अंध, प्रेमहि न प्रबोधू ।' मा० २.२६३.८ (२) आश्वासन, शमन । 'करसि हमार प्रबोध ।' मा० १.२८० (३) प्रत्यय । 'कीन्हेसि कपट प्रबोधु ।' मा० २.१८ प्रबोधे : भूकृ००ब० । समझाए । 'सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे ।' मा० २.३२३.१ प्रभंजन : सं०० (सं.)। वायु । मा० ६.११५.२ प्रभंजनजाया : (दे० जाया) वायुपुत्र =हनुमान् । मा० ५.१६.६ प्रभंजनसुत : हनुमान् । मा० ६.५६.१ प्रमा : सं०स्त्री० (सं.) । कान्ति, दीप्ति, चमक । मा० २.६७.६ प्रभाउ, ऊ : प्रभाव+कए० । 'तब आपन प्रभाउ बिस्तारा।' मा० १.८४.५: १.२.१३ For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 643 प्रमाकर : सं०० (सं०) । सूर्य । गी० १.६७.१ प्रभात : सं०० (सं.)। सबेरा, सूर्योदय-काल । प्रमाता : प्रभात । मा० ६.६०.५ पमाय : प्रभाव । प्रताप । 'सील सोभा सागर प्रभाकर प्रभाय के ।' गी० १.६७.१ प्रभाव : प्रभाव से । 'तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ।' मा० ५.३३ प्रभाव : सं०० (सं.)। (१) प्रताप-दे० प्रभाय । (२) शक्ति, योग्यता । प्रतिष्ठा, महिमा । 'राम प्रभाव बिचारि बहोरी।' मा० ६.६०.८ (३) प्रभुता, ऐश्वर्य । 'देखेउँ सो प्रभाव कछ नाहीं।' मा० ७.५८.८ प्रमावा : प्रभाव । मा० १.४६.२ प्रभु : सं०+वि० (सं.)। (१) सर्वेश्वर, परमात्मा (राम)। 'सब जानत प्रभु प्रभुता सोई ।' मा० १.१३.१ (२) समर्थ, सर्वशक्तिमान् । 'मसकहि करइ बिरंचि प्रभु, अजहि मसकते हीन ।' मा० ७.१२२ ख (३) सम्मान्य, श्रेष्ठ । 'मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।' मा० ७.१२०.१६ (४) स्वामी, सेव्य (राजा, आराध्य आदि) । 'सेवक प्रभहि परै जनि भोरें।' मा० ४.३.१ प्रभुता : सं०म्त्री० (सं.)। प्रभाव, महिमा, ऐश्वर्य, शक्ति । मा० १.१३.१ प्रभुताई : प्रभुता । मा० ७.६०.६ । प्रभुनि, न्ह : प्रभु+संब० । प्रभुओं-बड़ों, शक्तिमानों। 'नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ।' मा० १.८६.३ प्रभुमय : वि० (सं०) । (१) प्रभु से व्याप्त (२) ईश्वर स्वरूप । 'निज प्रभुमय देखहिं जगत ।' मा० ७.११२ ख प्रभू : प्रभु । विन० ६५.२ प्रभो : प्रभु+संबोधन (सं०) । हे प्रभु । मा० ६.१०३ छं. १ प्रमथ : सं०पु० (सं.)। शिवगण-विशेष । मा० ६.८८.१ प्रमथनाथ : शिव । 'प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं ।' पा०म० ६८ प्रमथराज : शिव । विन० १३.५ प्रमथाधिप प्रमथाधिपति : शिव । विन० ११.१ प्रमदा : सं०स्त्री० (सं.) । यौवनमद से पूर्ण स्त्री=युवती। मा० ३.४४ प्रमादू : प्रमाद+कए । असावधानी। 'तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू । जसु जग जाइ होइ अपबादू ।' मा० २.७७.४ प्रमान, ना : सं०पु+वि० (सं० प्रमाण)। (१) प्रामाणिक सत्यापन । 'तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना।' मा० १.१२४.१ (२) परिमाण, नाप । 'सत जोजन प्रमान ले धावौं ।' मा० १.२५३.८ (३) यथार्थ, संगत, उचित । 'बोले गिरा प्रमान' मा० १.२५२ (४) सत्यापित, प्रमाणित । 'करि पितु बचन प्रमान ।' मा० २.५३ (५) मात्रानुसार, अनुपात के अनुसार । होइ सुफल..... प्रीति प्रतीति For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 644 तुलसी शब्द-कोश प्रमान ।' रा०प्र० ७.७.३ (६) बोध के साधनों को प्रमाण कहते हैं जिनकी सर्वमान्य संख्या तीन है- (क) प्रत्यक्ष प्रमाण= इन्द्रिय (ख) अनुमान (ग) शब्द प्रमाण =आगम । प्रमानिक : वि० (सं० प्रमाणिक) । अधिकारी जिसकी बात प्रमाण हो, आप्त । 'बूढो बड़ो प्रमानिक ब्राह्मण ।' गी० १.१७.२ प्रमुख : वि० (सं०) । (१) मुख्य, श्रेष्ठ । (२) (समासान्त में) इत्यादि । 'नारद प्रमुख ब्रह्मचारी।' विन० ११.६ प्रमुदित : वि० (सं०) । प्रसन्न । मा० १.३१२.४ प्रमोद : सं०० (सं०) । प्रसन्नता, विनोद, हर्ष । मा० १.३६.१० प्रमोद : प्रमोद+कए । 'प्रेम प्रमोदु न कछु कहि जाई ।' मा० १.३२१ प्रयच्छ : आ०-प्रार्थना-मए० (सं.)। तू प्रदान कर । मा० ५ श्लो० २ प्रयांति : आ०प्रब० (सं० प्रयान्ति)। प्राप्त करते हैं । मा० ३.४ छं० प्रयाग : सं०० (सं.)। उत्कृष्ट यज्ञों का तीर्थ =गङ्गा-यमुना संगमतीर्थ = तीर्थराज । मा० १.२ प्रयागा : प्रयाग । मा० १.४४.१ प्रयागु : प्रयाग+कए० । 'बिधि बस सुलभ प्रयागु।' मा० २.२२३ प्रयान : सं०० (सं० प्रयाण) । अभियान, आक्रमण हेतु यात्रा या चढ़ाई । मा० ५.३५ छं० २ प्रयास : सं०० (सं.)। श्रमयुक्त प्रयत्न । मा० ६.१०६ छं० प्रयासा : प्रयास । मा० ७.४.६ प्रयोजन : सं०० (सं०) । साध्य (फल), प्राप्य । 'हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं।' मा० १.१६२.१ प्रलंब : वि० (सं०) । अतिदीर्घ, विशाल । 'भज प्रलंब ।' मा० १.१०६.६ प्रलय : सं०० (सं०) । (१) संहार (२) सृष्टि की मूलकारण में विलय की अवस्था । मा० १.१६३.६ ।। प्रलाप : सं०० (सं.)। असंगत आलाप, निरर्थक वार्ता, भावावेश की बकवास । ___'एहि बिधि करत प्रलाप कलापा ।' मा० २.८६.७ प्रलापी : वि.पु. (सं० प्रलापिन्) । बकवादी, बकवास करने वाला। 'अलीक प्रलापी।' मा० ६.२५.८ प्रवर : वि० (सं०) । श्रेष्ठ, उत्तम । विन० १०.५ प्रवान, ना : प्रमान । (१) शब्दप्रमाण। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ।' मा० १.१५०.७ (२) सत्यापित, प्रमाणित (पालित)। 'करि प्रवान पितु बानी।' मा० २.६२.१ (३) सत्यापना (यथार्थ) । 'सुनि सपथ प्रवान ।' मा० २.२३० For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 645 (४) मात्रा, परिमाण, नाप । 'तिल प्रवान करि काटि निवारे ।' मा० ६.८३.४ (५) मान्य । कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना।' मा० २.२६२.३ प्रवृत्ति : सं०स्त्री० (सं.)। कर्म, विषयानुरक्ति (निवृत्ति का विलोम) । विन० ५८.२ प्रसंग : संपु० (सं.)। (१) साहचर्य, साथ, सहयोग । 'अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।' मा० १.१०.६ (२) सन्दर्भ, प्रकरण । 'अब सोइ कहउँ प्रसंग सब ।' मा० १.३५ (३) कथ्य विषय । 'यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी।' मा० १.१२४.८ (४) अवसर। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।' मा० १.१६६.२ (५) वार्तालाप । 'चलेहु प्रसंग दुराएहु ।' मा० १.१२७.८ प्रसंगा : प्रसंग । मा० १.७.६ प्रसंग, गू : प्रसंग+कए० । मा० १.८७; २.२११.७ प्रसंन : प्रसन्न । कवि० ५.२८ /प्रसंस, प्रसंसह : (सं० प्रशंसते>प्रा. पसंसइ>अ० प्रसंसइ) आ०प्रए । प्रशंसा करता है, गुणकीर्तन करता है । 'मुनि रघुबरहि प्रसंस।' मा० २.६ प्रसंसक : वि० (सं० प्रशंसक)। प्रशंसाकारी, प्रशस्तिपूर्ण । 'बंस प्रसंसक बिरद सुनावहिं ।' मा० १.३१६.६ प्रसंसत : वकृ००। प्रशंसा करता-ते । 'पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू :' मा० २.३०६.३ प्रसंसन : भकृ० अव्यय (सं० प्रशंसितुम् >प्रा० पसंसिउं>अ० प्रसंसण)। प्रशंसा करने । 'बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।' मा० २.२४१.८ प्रसंसहि, हीं : आ०प्रब० (सं० प्रशंसन्ते>प्रा० पसंसंति>अ. प्रसंसहिं) । प्रशस्ति करते हैं । 'संतत संत प्रसंसहि तेही ।' मा० १.८४.२ प्रसंसा : (१) सं०स्त्री० (सं० प्रशंसा>प्रा० पसंसा>अ० प्रसंसा)। प्रशस्ति, स्तुति (निन्दा का विलोम), गुण-कीर्तन । मा० १.८८.६ (२) व्याज निन्दा या व्याजस्तृति । 'जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ।' मा० ६.७६.२ (३) प्रसंसइ। स्तुति करता है । 'सगुन अगुन जोह निगम प्रसंसा।' मा० १.१४६.५ प्रसंसि : पूकृ० । प्रशंसा करके । 'मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।' मा० १.१२७.४ प्रसंसिहैं : आ०भ०प्रब० । स्तुति करेंगे। 'प्रसंसिहैं मुनिगन ।' गी० ५.५०.३ प्रसंसी : (१) प्रसंसि । 'कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी।' मा० १.२८४.४ (२) भूक०स्त्री० । प्रशस्य कही। 'भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी।' मा० २.३१४.८ प्रसंसेउ : भूकृ.पु०कए । प्रशंसित किया। 'नृप बहु भांति प्रसंसेउ ताही ।' मा० १.१६०.२ For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 646 तुलसी शब्द-कोश प्रसन्न : वि० (सं.)। (१) प्रसादयुक्त (निर्मल चित्त) । 'भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा।' मा० १.८८.६ (२) कृपापूर्ण । 'होहु प्रसन्न देहु बरदानू ।' मा० १.१४.७ प्रसन्नता : सं०स्त्री० (सं०) । प्रसाद, हर्ष । मा० २ श्लो० २ प्रसन्ने : (सं.) प्रसन्न होने पर । विन० ५७.२ प्रसव : सं०० (सं०) । सन्तानोत्पादन, प्रजनन । 'बांझ कि जान प्रसव के पीरा।' मा० १.६७.४ (२) कोमल दल, पल्लव । 'अरुन नील पाथोज प्रसव ।' विन० ६२.३ (३) दे० /प्रसव । /प्रसव, प्रसवइ : (सं० प्रसूते>प्रा० पसवइ>अ० प्रसवइ) आ०प्रए । जन्म देती है। 'मुकता प्रसव कि संबुक काली ।' मा० २.२६१.४ प्रसव-पवन : गर्भाशय का वायुविशेष जिससे बच्चा गर्भ से बाहर आता है। विन० १३६.५ प्रसाद : सं०पु० (सं.)। (१) अनुग्रह, कृपा । 'संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।' मा० १.३६.१ (२) प्रसन्नता, हर्ष । 'समुझि परा प्रसाद अब तोरें।' मा० ६.१६.५ (३) प्रभाव । 'नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ।' मा० १.२५.८ (४) देव से प्राप्त वस्तु, देवोच्छिष्ट । प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं। मा० २.१२६.२ प्रसादा : प्रसाद । 'दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ।' मा० ७.२०.१ प्रसाद, दू : प्रसाद+कए । अनन्य कपा (आदि)। 'नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू ।' मा० १.२६.४; २.१०२.८ प्रसिद्ध : वि० (सं.)। (१) स्वयंसिद्ध (प्रमाण-निरपेक्ष)। 'पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि ।' मा० १.११६ (२) प्रमाणित । 'आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।' मा० २.२६३.७ (३) विख्यात । 'कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं।' मा० १.६८.६ प्रसीद : आ०-प्रार्थना-मए० (सं.)। तू प्रसन्न हो, अनुग्रह कर । 'प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारे ।' मा० ७.१०८.१२ । प्रसूति : सं०स्त्री० (सं.)। प्रसवस्थान, जनक कारण, जननी । 'रघुबर प्रेम प्रसूति ।' दो० १५२ प्रसूती : प्रसूति । 'मंजुल मंगल मोद प्रसूती ।' मा० १.१.३ प्रसून : सं०० (सं०) पुष्प । मा० १.३३० प्रस्थिति : सं०स्त्री० (सं०)। प्रस्थान यात्रा । मा० ५.३५ छं० २ प्रस्न : सं० (सं० प्रश्न) । (प्राकृत-परम्परा से स्त्रीलिङ्ग) । 'कीन्हि प्रस्न जेहिं भांति. भवानी।' मा० १.२३.१ प्रहरषे : भूकृ००ब० । प्रसन्न हुए । मा० ७.१२.३ प्रहलाद, दा : प्रह्लाद । मा० १.२७ For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 647 प्रहलादू : प्रह्लाद+कए । 'भगत सिरोमनि भे प्रह्लादू।' मा० १.२६.४ प्रहस्त : रावण का सेनापति राक्षस । मा० ६.८ प्रहार : सं०० (सं.)। मार । मा० ४.८.३ प्रहारा : प्रहार । मा० ५.४१.६ प्रहलाद : सं०पु० (सं०) । विष्णुभक्त दैत्यराज=हिरण्यकशिपु का पुत्र । विन० ६६.२ प्रहलादपति : नृसिंह भगवान् । मा० ६.८१ छं. प्राकृत : सं०+वि. (सं०)। (१) सामान्य, पामर । 'प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।' मा० १.२४७.२ (२) प्रकृति से उत्पन्न ; मायाधीन । 'कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना ।' मा० १.११.७ (३) (आध्यात्मिक का विलोम) मायिक, भौतिक, प्रकृति में सीमित । 'प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।' मा० २.३१८.१ (४) प्रकृति (माया) को स्वेच्छा से ग्रहण कर अवतीर्ण । विन० ५३.३ (५) भाषाविशेष जिसका अध्ययन संस्कृत को प्रकृति (मल) मान कर किया जाता है । 'जे प्राकृत कबि परम सयाने ।' मा० १.१४.५ प्राची : सं०स्त्री० (सं०) । पूर्व दिशा । मा० १.१६.४ प्रात : अव्यय (सं० प्रातर्) । सबेरा, सबेरे, प्रभात । मा० १.४४.८ प्रातकाल : (सं० प्रातःकाल)। मा० १.२०५.७ प्रातकृत : (सं० प्रातःकृत्य) । शौच-स्नान-सन्ध्या आदि कर्म । मा० २.१०५.२ प्रातक्रिया : (सं० प्रातःक्रिया) =प्रातकृत । मा० १.३३०.४ प्राता : प्रात । 'अवसि दूतु में पठइब प्राता।' मा० २.३१.७ प्रातु : प्रात+कए० । प्रथम प्रभात । 'होत प्रातु मुनि बेष धरि जौं न राम बन जाहिं ।' मा० २.३३ प्रान : सं०पु० (सं० प्राण) । शरीर स्थित वायु विशेष जो जीवन धारण का कारण है। इसके पांच भेद हैं- (१) हृदय में प्राणवायु; (२) गुद में अपान; (३) नाभि में समान (पाचक वायु); (४) कण्ठ में उदान और (५) सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रक्तादि-संचारकारी व्यान वायु । अतएव इसका बहुवचन प्रयोग पाया जाता है । 'करहिं न प्रान पयान अभागे।' मा० २.७६.६ जीवनार्थक प्रयोग भी चलते हैं - "बिधि हरिहरमय बेद प्रान सो।' मा० १.१६.२ प्राननाथ : प्राणों का स्वामी-प्रिय पति । मा० २.६४ प्राननाथ : प्राननाथ+कए । प्राणों का अनन्य स्वामी। 'प्राननाथु रघुनाथ गोसाई।' मा० २.१६६.८ प्राननि : प्रान+संब० । प्राणों (को)। 'पातकी पांवर प्राननि पोसों।' कवि० ७.१३७ प्रानपति : प्राननाथ । मा० १.७४.१ For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 648 तुलसी शब्दकोश प्रानपिआरे : (दे० पिआरे)। प्राणों को प्रिय+प्राणों से अधिक प्रिय। मा० २.४८८ प्रानपियारी : प्राणों को (से) प्रिया । मा० १.७१.४ प्रानपियारे : प्रानपिआरे । गी० १.६८.१२ प्रानप्यारे : प्रानयिारे । गी० १.३७.१ प्रान-प्रिय : प्राणों को प्रिय+प्राणों से अधिक प्रिय । मा० १.२९० प्रानप्रिया : प्रानपियारी । मा० २.२५.८ प्रानप्रियाउ : प्राणप्रिया भी। गी० ७.२५.६ प्रानबल्लभ : प्रानप्रिय । गी० ५.५१.५ प्रानबल्लभा : प्रानप्रिया । गी० ३.१०.२ प्रानहेतु : प्राणधारण का कारण । कवि० ५.३० प्राना : प्रान । मा० २.५८.४ । प्रानी : सं०० (सं० प्राणिन्) । प्राणधारी जीव । मा० १.११३.५ प्रानौ : प्राण भी। 'प्रानो चलिहैं परमिति पाई ।' कृ० २५ प्रापति : सं०स्त्री० (सं० प्राप्ति) । लाभ । 'रतिन के लालचिन प्रापति मनक की।' कवि० ७.२० प्रापतिउ : प्राप्ति भी। दो० ३५३ प्राप्त्य : (सं० पद) प्राप्ति के लिए, पाने हेतु । मा० ७.१३० श्लोक १ प्राप्य : वि० (सं०) । प्राप्त होने योग्य, लभ्य । विन० ५७.२ प्राबिट : सं०स्त्री० (सं० प्रावृट्) । पावस । मा० ६.४६.६ प्रिय : वि० (सं.)। (१) प्रीतिकर, रुचिकर । 'प्रिय बानी ।' मा० ६.६.८ (२) अभीष्ट, जिस पर प्रीति हो। 'प्रिय तनु ।' मा० १.१६ (३) प्रेमपात्र, प्रेमालम्बन । 'अतिसय प्रिय करुनानिधान की ।' मा० १.१८.७ (४) पति । प्रियजन : प्रीतिकर लोग जो प्रिय हों और प्रेम करते हों । मा० २.१६४.५ प्रियतम : (१) वि.पु० (सं.)। सर्वाधिक प्रिय । 'अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।' मा० १.३२.८ (२) पति, स्त्री का प्रेमी । प्रिवबादिनि : वि०स्त्री० सम्बोधन (सं० प्रियवादिनि) । हे प्रीतिकर वचन बोलने वाली ! मा० २.१५.१ प्रियव्रत : (सं० प्रियव्रत) । स्वायंभुव मनु का ज्येष्ठ पुत्र । मा० १.१४२.४ प्रियसीला : वि० (सं० प्रियशील) । प्रीतिकर शील वाला, स्वभावतः प्रीतिकारी। मा० १.१६२ छं० प्रिया : प्रिय+स्त्री. प्रेमालम्बन स्त्री, पत्नी । मा० १.७१ प्रोतम । प्रियतम । मा० ३.२६ छं० For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 649 प्रोतमु : प्रीतम+कए । अनन्य प्रियतम । 'हृदउ न बिदरेउ न पंक जिमि बिछुरत पीतमु नीरु ।' मा० २.१४६ प्रीता : वि० (सं० प्रीत)। प्रिय । 'हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।' मा० ५.४०.७ प्रीति, ती : सं०स्त्री० (सं० प्रीति)। (१) तृप्ति, तुष्टि । 'कहउँ प्रतीति प्रीती _रुचि मन की।' मा० १.२३.३ (२) मंत्री। 'सीता देइ करहु पुनि प्रोति ।' मा० ६.६.१० (३) प्रेम । 'प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी ।' मा० १.६.५ (४) वर्णमैत्री जो अर्थ में विशेषता लाती है (वर्ण वक्रोक्ति) । 'बरनत बरन प्रीति बिलगाती।' मा० १.२०.४ (यहाँ प्रेम अर्थ भी है।) प्रीती : प्रीति से, प्रेमपूर्वक । मिले जनक दसरथ अति प्रीतीं।' मा० १.३२०.१ प्रीते : पिरीते । प्रसन्न, सन्तुष्ट, प्रेमयुक्त । 'गुर पद कमल पलोटत प्रीते।' मा० १.२२६.५ प्रेत : सं०० (सं०) । मरने और पुनर्जन्म के मध्य का जीव जो सूक्ष्म शरीर में रहता है । मा० १.८५.६ प्रेतपावक : शीतकाल की रातों में गीली मिट्टी वाले स्थानों पर गाँव से कुछ दूर एक प्रकार का प्रकाश चलता-फिरता दिखता है। ऐसा लगता है कि किसी ने अलाव जलाया है । जाड़े का पथिक उसे पाना चाहता है तो वह या तो लप्त हो जाता है, या दूर भागता है। उसे आधुनिक अवधी में 'अगिया बैताल' कहते हैं । लोग उसे भूत समझकर डर जाते हैं । वह मिले तो कहा जाता है, भूत पटक देता है । 'उभय प्रकार प्रेमपावक ज्यों धन दुखप्रद ।' विन० १६६.५ प्रेम, मा : सं०० (सं.)। (१) लगाव, आसक्ति । 'पूछ सों प्रेम बिरोध सींग सों।' कृ० ४६ (२) स्नेह, प्रीति । 'प्रेम पीन पन छीजै।' कृ० ४५ (३) प्रेम और प्रेमा में भक्ति दर्शन के अनुसार अन्तर है-प्रेम में अपने को आलम्बन से तृप्ति मिलती है जबकि प्रेमा वह दशा है जब प्रेमालम्बन को तृप्ति देकर स्वयं तृप्ति पायी जाती है। प्रेमा=प्रियता=प्रिय भावना-प्रेमा वह अनन्य भावना है जो प्रिय के साथ एकाकार कर देती है । दे० प्रेमा ।। प्रेमपथ : सं०० (सं०) । प्रेम के एकाङ्गी रूप के पालन का सिद्धान्त । 'मौंगी रहि, समुझि प्रेमपथ न्यारो।' गी० २.६६ ५ प्रेममय : वि० (सं०) । (१) प्रेमरूपी । 'परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही ।' मा० १.२३५.३ (२) प्रेमपूर्ण । 'पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई ।' मा० २.६७.७ प्रेमरस : (१) प्रेम की वह परिणति जो सदैव आनन्दलीन रखे। वही काव्यरस भी बनता है तो-दास्य, वात्सल्य, सख्य, माधुर्य तथा शम भागों में विभक्त होकर भक्ति रस कहलाता है । बल्लभाचार्य ने इसे स्नेह रस नाम दिया है। For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 650 तुलसी शब्द-कोश (२) वात्सल्य सूचक स्तन्यस्राव-जिसे भक्ति रस में सत्त्विक भाव माना गया है । 'स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।' मा० २.५२.४ प्रेमसुख : प्रेमरस । भक्तिरूप सुख । 'परमानंद प्रेमसुख फूले।' मा० १.१६६.५ प्रेमहि : प्रेम को । 'प्रेमहि न प्रबोधू ।' मा० २.२६३.८ प्रेमा : सं०० (सं०) दे० प्रेम । (१) प्रेमालम्बन की तृप्ति हेतु की हुई अनन्य भावना । स्वसुख-निरपेक्ष प्रेम । 'काय बचन मन पति पद प्रेमा।' मा० ३.५.१० (२) प्रेम । 'संत चरन पंकज अति प्रेमा ।' मा० ३.१६.६ (३) प्रेमा भक्ति जिसमें चित्तवृत्ति । आराध्य से एकाकार हो जाती है और प्रेम से पृथक् कोई प्रयोजन नहीं रहता-प्रेम ही एकमात्र साध्य बन जाता है । 'सब कर फल रघुपति पद प्रेमा ।' मा० ७.६५.६ प्रेमाकल : प्रेम में विभोर । मा० ५.३२ प्रेमातुर : प्रेमजनित संभ्रत (हड़बड़ी) से युक्त । मा० ७.६.४ प्रेमु : प्रेम+कए० । अद्वैत अनन्य प्रेम । 'प्रेम प्रमोदु न थोर ।' मा० १.३२१ /प्रेर प्रेरइ : (सं० प्रेरयति>प्रा. पेरइ>अ० प्रेरइ) आ०प्रए० । प्रवृत्त करता है, चलाता है, उकसाता है, प्रेरित करता है । रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई ।' मा० ७.११८.७ प्रेरक : वि० (सं०) । (१) कार्यों में प्रवृत्त करने वाला। 'माया प्रेरक सीव ।' मा० ३.१५ (२) सबके हृदय में रहकर प्रेरणा देने वाला=अन्तर्यामी । 'उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ।' मा० ७.११३.१ प्रेरकानंत : (प्रेरक+अनन्त) अन्तर्यामी तथा असीम । विन ० ५३.३ प्रेरत : वकृ.पु ! चलाते । 'रूप निहारत पलक न प्रेरत ।' गी० २.१४.२ प्रेरा : भूकृ०० । प्रेरित किया, उकसाया। 'जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा।' मा० ३.२१.५ प्रेरि : पूकृ० । प्रेरित कर । 'गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन ।' मा० १.७७ प्रेरित : प्रेरा (सं०) । 'प्रेरित मोह समीर ।' मा० ७.८१ ख प्रेरें : प्रेरित होने पर, प्रेरणा से । 'तस कहिहउँ उर हरि के प्रेरें।' मा० १.३१.३ प्रेरे : भूकृ०पू०ब० । प्रेरित किये (हुए) । 'आवत बालितनय के प्रेरे।' मा० ६.३२.१० प्रेरेउ : भूकृ०पु०कए । प्रवृत्त किया। 'राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मा० ___ ३.४३.२ प्रेरयो : प्रेरेउ । विन० १३६.५ प्रोक्त : भूक० (सं०) । कहा हुआ, प्रवचन किया हुआ । मा० ७.१०८ छं० ६ For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 651 प्रौढ : वि० (सं.)। (१) प्रगल्भ, परिपक्व, वयस्क । 'प्रौढ भएँ मोहि पिता पढ़ावा ।' मा० ७.११०.५ (२) पुष्ट, दृढ ; बद्धमूल । 'प्रौढ अभिमान चित. वृत्ति छीजै ।' विन० ४७.२ प्रोढि : सं०स्त्री० (सं०) । प्रौढोक्ति, अतिरञ्जना, अतिवाद, अर्थवाद, प्रशंसापरक ___ अत्युक्ति। 'प्रोढि सुजन जनि जानहिं जनकी ।' मा० १.२३.३ प्लव : सं०पु० (सं.)। नौका । 'यत्पदो प्लव एक एव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावताम् ।' मा० १ श्लोक ६ फेंग : संपु । फंदा, जाल, जकड़, बन्धन । 'मातु पितु भाग बस गए परि फैग हैं।' गी० २.२७.२ फंसावत : वकृ०० (सं० पाशयत्>प्रा० पासावंत) । पाश में जकड़ता, जाल में ___ डालता । 'काम फंद जन चंदहि बनज फँसावत।' जा०म० १०६ फंसोरि : सं०स्त्री० (सं० पाशावलि)। फंदा, बन्धन । गी० ७.१८.१ फंद, दा : सं०० (सं० स्पन्द>प्रा० फंद) । पाश, जाल, बन्धन । 'मनहुं मनोभव फंद संवारे ।' मा० १.२८६.१ बन्धन के अर्थ में 'स्पन्द' धातु का प्रयोग संस्कृत में भी द्रष्टव्य है- 'स्पन्दिताः पाश-जालश्च निर्यत्नाश्च शरैः कृताः।' हरिवंश पर्व ४५.१० फग : फंग। 'हाय हाय करत परीगो काल फग में ।' कवि० ७.७६ फगुप्रा : फागु । वसन्तोत्सव । 'लोचन आँजहिं फगुआ मनाइ।' गी० ७.२२.७ फजीहत : सं० (अरबी-फजीअत, फजअत – मुसीबत, दर्देसख्त)। उत्पीडन, विपत्ति । (२) (विशेषणात्मक प्रयोग में) क्लेशयुक्त, पीडित, संकटग्रस्त । ‘अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत ।' दो० ६५ /फट फटइ : (सं० स्फटति>प्रा० फट्टइ) आ०ए० । विशीर्ण होता है (स्कट विशरणे); विदीर्ण हो जाता है, फटता है। 'संकट सोच ..... फट मकरी के से जाले ।' हनु० १७ फटत : वकृ०० (सं० स्फटत् >प्रा० पटुंत) । विशीर्ण होता, फटता । 'दिनकर के उदय जैसे तिमिर तोम फटत ।' विन० १२६.२ For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 652 तुलसी शब्द-कोश फटिक : सं०० (सं० स्फटिक) । एक प्रकार का पारदर्शी श्वेत पत्थर । 'बैठे फटिक सिला पर सुंदर।' मा० ३.१.४ फट : फटइ । फट जाय । 'सेवक को परदा फट, तू समरथ सी ले ।' विन० ३२.४ फटयो : भूक०पु०कए० । फटा हुआ। ‘फट्यो गगन मगन सियत ।' विन० १३२.३ फणीन्द्र : सं०० (सं०) । सर्पराज शेषनाग । मा० ५ श्लोक १ फन : सं०० (सं० फण) । सांप का मुखभाग । गी० २.७१.३ फनि : सं०० (सं० फणिन्) । सर्प । मा० १.३.१० फनिक : फनि (सं० फणिक) । मा० २.४४.३ फनिकन्ह : फनिक+संब० । साँ (ने)। 'फनिकन्ह जनु सिर मनि उर गोई :' मा० १.३५८.४ फनिक : फनिक+कए० । कोई सर्प । 'मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।' मा० २.३३.१ फनिहि : फणी को, सर्प को। दो० ३१५ फनी : फनि । सर्प । गी० ७.५.३ फनीस : सं.पु. (सं० फणीश) सर्पराज शेषनाग । मा० ६.१०२ फब, फबइ : (१) सं० पर्बति-पर्बगतौ>प्रा० पब्बइ (२) (सं० पर्वति-पर्व पूरणे>प्रा० पव्वइ) आ०प्रए । चलता है+पूरा पड़ता है भरा-पुरा लगता है= अच्छा जान पड़ता है, सोहता है। 'कटि पीत दुकूल नबीन फबै ।' कवि० १.७ फबि : प्रकृ० । फब कर, शोभित होकर, शोभापूर्ण होकर । 'कहि न जाइ जो निधि फबि आई ।' कृ० २५ फबै : आप्रब० (सं० पर्वन्ति>प्रा० पव्वंति>अ० पहि) । पूरे पड़ते हैं, अच्छे ___ लगते हैं । 'तुलसी तीनिउ तब फबै जब चातक मत लेहु ।' दो० २८५ फबै : फबइ । फबता है, फब सकता है । 'तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम ।' दो० २८६ फर : (१) सं०० (सं० फर) । वाण आदि का अग्रभाग, फलक । 'बिनु फर बान राम तेहि मारा।' मा० १.२१०.४ (२) (सं० फल) वृक्षादि का फल । 'असनु अमिअ सम कंद मूल फर ।' मा० २.१४०.६ (३) परिणाम । 'निदरेसिहरु, पायसि फर तेउ ।' पा०म० २६ 'फर, फरइ : फलह । (१) फलयुक्त होता है-होती है; फलों से लदता-ती है। 'काटेहिं पै कदरी फरइ ।' मा० ५.५८ (२) सिद्ध होती है । 'फरइ सकल मन कामना ।' दो० ४५४ फरक : सं०स्त्री० (सं० स्फर) । स्फुरण, स्पन्दन, फड़कन । 'फरक अधर, डर निरखि लकुट कर।' कृ० १५ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 653 'फरक, फरकइ : (सं० स्फरति == स्फुरति>प्रा० फरक्कइ) आ०प्रए । फरकता ती है; स्पन्दित होता-ती है। 'दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।' मा० २.२०.५ फरकत : वकृ०० । फरकता-ते। 'फरकत अधर कोप मन माहीं।' मा० १.१३६.२ फरकन : भकृ० अध्यय । फरकने, स्पन्दन करने । 'बाम अंग फरकन लगे।' मा० फरहिं : आ०प्रब० । फरकते हैं, स्पन्दन करते हैं। ‘फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ।' मा० १.२३१.४ फरकि : पूकृ० । स्पन्दित हो (कर)। 'फरकि उठी दो भुजा बिसाला।' मा० ४.६.१४ फरके : भूकृ००ब० । स्पन्दित हुए, फरक उठे । 'फरके बाम बाहु लोचन बिसाल।" गी० ३.६.१ फरके उ : भूकृ.पु०कए । स्पन्दित हुआ। 'फरके उ बाम नयन अरु बाहू ।' मा० ६.१००.५ फरत : (१) फ्लत । 'सरस सुख फूलत फरत ।' विन० २५१.१ (२) फलतो। ___ 'अभिमत फरनि फरत को।' गी० ६.१२.३ फरन : भकृ० अव्यय । फलने, फल सम्पन्न होने । 'उकठे बिटप लागे फूलन फरन।' विन० २५७.२ फरनि : फलनि । फलों (को, से, में) । 'सोउ बिष फरनि फर ।' विन० १३७.५ फरसा : सं०० (सं० परश्वध =परशु>प्रा० परस्सह परसु) । कुल्हाड़ा। मा० २.१६१.५ फरहार : सं०० (सं० फलाहार) फल भोजन । मा० २.२७९ फरहि, ही : फलहिं । 'फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन ।' मा० ७.२३.१ फराक : वि०+क्रि०वि० (अरबी-फराक =जुदाई)। अलग । 'दूरि फराक __ रुचिर सो घाटा।' मा० ७.२६.१ फरि : फलि । 'बेलि ज्यों बौंडी' फैलि फूलि फरिक ।' गी० १.७२.३ फरित : फलित । विन० १६.१ फरी : फली । 'जनक मनोरथ कलप बेलि फरी है।' गी० १.६२.४ फर : फलु । (१) फल (२) साध्य । 'को न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें।' ___ कृ० १७ (३) भक्तिरूप परम पुरुषार्थ । 'नाम प्रेम चारि फलहू को फरु है।' विन० २५५.३ फरें : फलने पर । 'फरें पसारहिं हाथ ।' दो० ५२ फरे : फले । (१) फलों से लद गये । 'सब तरु फरे राम हित लागी ।' मा० ६.५.५ (२) सिद्ध हुए । 'फरे चरु फल चारि ।' रा०प्र० ४.२.२ फरै : फरइ । 'सोउ बिष फरनि फरै ।' विन० १३७.५ For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 654 तुलसी शब्द-कोश फरंगो : आ०भ०पु०प्रए । फलेगा, फल देगा। 'कुटिल कटक फर फरैगो।' दो० ४५२ फरो : फलो। 'साधन तरु है स्रम फलनि फरो सो।' विन० १७३.१ फर्यो : फरो। 'तरु फर्यो है अदभुत फरनि ।' गी० १.२७.३ फलंग : सं०पु० (सं० प्रलङ्घ>अ० पलंघ)। लाँघना, कूदना, उछाल, कूद । 'फलँग फलाँगहूं तें घाटि नभ तल भो।' हनु० ५ फल : सं०० (सं.)। (१) वृक्षादि का फल । 'गूलरि-फल ।' मा० ६.३४.३ 'गूलरि को सो फल ।' कृ० ४४ (२) परिणाम । 'मज्जन फल पेखिअ ततकाला।' मा० १.२.१३ (३) चतुर्वर्ग =धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । 'जो दायकु फल चारि ।' मा० २.०.१ (४) चार संख्या। दो० ४५६ 'फल, फलइ : (सं० फलति-फल निष्पत्तो>प्रा० फलइ) आ०प्रए । फलता है, निष्पन्न होता है, परिणत होता है, फलयुक्त होता है, फल देता है। 'जोग जुगुति तप मन्त्र प्रभाऊ । फलइ तबहिं जब करिम दुराऊ ।' मा० १.१६८.४ फलइ : फल ही, फल मात्र । 'एक फलइ केवल लागहीं।' मा० ६.६० छं० फलत : वकृ०० । फल सम्पन्न होता-होते । मा० १.२१२ 'फूलत फलत पल्लवत पलहत ।' गी० २.४६.३ फलतो : क्रियाति पु०ए० । तो सफल होता । 'बर तरु आजु फैलि फूलि फलतो।' गी० ५.१३.३ फलनि : फल+संब० । फलों । 'जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो।' मा० ६.६५.६ फलहिं : आ०प्रब० (अ०) । फलते हैं । 'फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना ।' मा० २.१३७.६ फलांग : सं०० (सं० प्रलङ्घ>प्रा० पलंघ) । लाँघने का एक क्रम । एक कुदान ___ का भू-भाग । 'फलँग फलाँगहूं तें घाटि नभतल भो ।' हनु० ५ फलि : पूकृ० (अ०) । फलयुक्त होकर । मा० २.३११.७ फलित : भूकृ०वि० (सं०) । फलसम्पन्न, सफल । मा० २.१.७ फली : भूकृ०स्त्री० । फलित हुई, फलसंपन्न हुई । 'सुषमा बेलि नवल जनु रूप फलनि फली ।' पा०म० १२५ फल : फल+कए । 'कालकूट फलु दीन्ह अमी को।' मा० १.१६.८ फले : भूकृ००ब ० । फल सम्पन्न हुए । 'द्रुम फले न फूले ।' गी० ३.१०.१ फलें : फलहिं । सफल होते हैं । 'फल फूल फैले खल ।' कवि० ७.१७१ फलो : भूकृ००कए० । फलित हुआ । 'प्रनाम कामतरु सघ बिभीषन को फलो।' गी० ५.४२.४ फहम : सं०० (अरबी-फहम =समझ, बोध) । स्मरण, ध्यान । 'पुलक सरीर सेना करत फहम ही।' कवि ६.८ (२) विवेक । 'मोहि कछु फहम न तरनि तमी को।' विन० २६५.२ For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 655 फहराही : आ०प्रब० । फरफराते हैं, आकाश में लहराते हैं। 'सख करहिं पाइक फहराहीं।' मा० १.३०२.७ फांस : पास । बन्धन, जाल । 'माधव मोह फांस क्यों टूटै ।' विन० ११५.१ फागु : सं०० (सं० फल्गु>प्रा० फग्गु) । वसन्तोत्सव । 'त्रिबिध सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु ।' विन० २०३.१७ फागुन : सं०० (सं० फाल्गुन>प्रा० फग्गुण) । एक मास का नाम जिसकी पूर्णिमा को ‘फल्गुनी' नक्षत्र होता है। पा०म० ५ फाटत : फटत । ‘समुझि नहिं फाटत हियो।' विन० १३६.७ फाटहुं : आ०-कामना, संभावना-प्रब० । चाहे फट जाये, अच्छा हो फट जायें। ___हिय फाटहुं फूटहुं नयन ।' दो० ४१ फाटी : पूकृ० (सं० स्फटित्वा>प्रा० फट्टिअ>अ० फट्टि) । विदीर्ण हो (कर) । __ जिमि रबि उएं जाहिं तम फाटी।' मा० ६.६७.१ फाडो : भूक०स्त्री० (दे०/फब)। (१) फबी, ठीक बैठ गई । 'रहसी चेरि घात __जनु फाबी।' मा० २.१७.२ (२) सुशोभित हुई, पुर गयी। कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी।' मा० २.२५.७ फारहिं : आ०प्रब० (सं० स्फाटयन्ति =पाटयन्ति>प्रा० फाडंति>अ० फाडहिं)। चीड़ डालते हैं । 'धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं ।' मा० ६.८१ छं० २ फारि : पूक० (अ० फाडि) । पीड़कर । 'फेरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात।' कवि० ६.४६ फार : फारहिं । 'दस आठ को पाठु कुकाठु ज्यों फारें।' कवि० ७.१०४ फारो : भूकृ.पु०कए । फाड़ डाला, छिन्न कर दिया। 'परमत पनवारो फारो।' विन० ६४.३ फिर : फिरि । पुनः । हनु० ६ फिर, फिरइ : (सं० स्फिरति>प्रा० फिरइ) आ०प्रए। फिरता-ती है। (१) विचरण करता-ती है। 'देखत फिरइ महीप सब ।' मा० १.१३४ (२) यात्रा करता घूमता है । 'रन मद मत्त फिरइ जग धावा।' मा० १.१८२.६ (३) पीछे को मुड़ता-ती है। 'देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि ।' मा० १.२३४ (४) लौट आता-ती है । 'फिरइ त होइ शान अवलंबा।' मा० २.८२.६ (५) भ्रान्त-घूमता रहता है। 'तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान ।' मा० ७.१०८ ग फिरउँ : आ० उए० (सं० स्फिरामि>प्रा. फिरामि>अ० फिरउँ)। फिरता हूं। (१) घूमता-भटकता हूं। 'तव माया बस फिरउँ भुलाना ।' मा० ४.२.६ (२) विचरण करता हूं। 'कौतुक देखत फिरउँ बेरागा।' मा० ७.५६.६ For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 656 तुलसी शब्द-कोश फिरत : वक० (सं० स्फिरत्>प्रा. फिरंत)। (१) घूमता-ते, विचरता-ते । ___ 'फिरत सनेहुँ मगन सुख अपनें ।' मा० १.२५.८ (२) पलटता-ती-ते । 'काल पाय फिरत दसा दयालु सबही की।' विन० २५९.४ फिरति : वक०स्त्री० । फिरती, घूमती, भ्रमण करती । 'गरजनि मिस मानो फिरति दोहाई ।' कृ० ३२ फिरती : फिरति (समयसूचक प्रयोगविशेष)। 'जिय संसय कछु फिरती बारा।' मा० ४.३०.१ फिरते : क्रियातिपु०० । यदि.तो' 'घूमते । 'तो कत द्वार द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए।' विन० १६४.३ फिरन : (१) भकृ० अव्यय । 'फिरिहैं किधौं फिरन कहिहैं प्रभु ।' गी० २.७०.२ (२) सं० । फिरना, लोटना । मिलि न फिरन की बात चलाई।' कृ० २५ फिरब : भकृ.पु । (१) लोटना । 'बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।' मा० २.२८०.२ (२) लौटना (होगा, लौटूंगा) । 'बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी।' मा० २.६२.१ फिरहि, हीं : आ० (१) स्फिरन्ति>प्रा० फिरंति>अ. फिरहिं । (२) सं० स्फिरामः>प्रा० फिरामो>अ. फिरहुं-हिन्दी में>फिरहिं)। (१) लोटते हैं, लौटें। 'जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई ।' मा० २.८२.१ (२) घूमते-भटकते रहते हैं । 'खोजत आकु फिरहिं पय लागी।' मा० ७.११५.२ (३) हम विचरण कर रहे हैं । 'तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं।' मा० ३.१६.६ फिरहु : आ०मब० (अ.)। (१) घूमते-ती-हो । 'बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ।' मा० १.५३.८ (२) लोटो, लोट चलते हो । 'फिरहु त सब कर मिट खभारू ।' मा० २.६७.३ फिरा : भूकृ.पुं० (सं० स्फिरित>प्रा० फिरिअ)। (१) उलट गया। 'फिरा करम् ।' मा० २.२०.४ (२) भटकता-घूमा। 'फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका।' मा० ३.२.४ (३) लोटा । 'सीतहि राखि गीध पुनि फिरा । मा० ३.२६.१६ फिराए : भूकृ००ब० (सं० स्फेरित>प्रा० फिराविय) । घुमाये । 'बाँधि कटक चहुं पास फिराए।' मा० ५.५२.४ फिरायो : भूक पु०कए० (सं० स्फेरितः>प्रा. फिराविओ)। घुमाया। 'पुनि रिसान गहि चरन फिरायो।' मा० ६.७४.८ /फिराव, फिरावइ : (सं० स्फेरयति>प्रा० फिरावइ) आ०प्रए० । घुमाता है। 'बालधी फिरावं, बार बार झहरावै ।' कवि० ५.१४ फिरावत : वकृ०० (सं० स्फेरयत्>प्रा० फिरावंत) । घुमाता-घुमाते । 'कंप कलाप बर बरहि फिरावत ।' गी० ३.१.२ For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 657 फिरावं : आ.प्रब० (सं० स्फेरयन्ति>प्रा० फिरावंति>अ० फिरावहिं)। घुमाते हैं। 'बालधी फिरावें। कवि० ५.२६ फिरि : पूकृ० (अ.) । (१) घूम कर, मुड़कर । 'फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा।' ____ मा० १.५४.५ (२) पुन: । 'फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली।' मा० १.२६.६ फिरिम : आ०भावा० (सं० स्फिर्यते>प्रा. फिरीअइ)। लौटिए, लौट जाइए। 'फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।' मा० १.३४०.५ (२) लोट चलिए । 'पुत्रि, फिरिअ, बन बहुत कलेसू ।' मा० २.८२.४ (३) लौट कर आना हो । 'जों एहि मारग फिरिअ बहोरी।' मा० २.११८.२ फिरिबो : भक००कए० (सं० स्फेरितव्यम्>प्रा० फिरिअव्वं>अ० फिरिव्वउ)। लोटना, लोट चलना । 'जो फिरिबो न बन प्रभु ।' गी० २.७३.३ फिरिहहिं : आ.भ.प्रब० (अ.) घूमेंगे, भटकेंगे। 'फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी।' मा० १.४३.८ फिरिहि : आ०म० ए० (प्रा० फिरिहिइ)। पलटेगा-गी। 'फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि नाहीं।' मा० २.६८.७ फिरिहैं : फिरिहहिं । लौट चलेंगे। 'फिरिहैं किधौं फिरन कहिहैं प्रभु ।' गी० २.७०.२ फिरी : फिरी+ब० । लौटीं । दिन के अंत फिरों द्वर अनी।' मा० ६.७२.१ फिरी : भूक०स्त्री० । (१) घूमी, (व्याप्त होकर) मंडलाई । 'नगर फिरी रघुबीर दोहाई।' मा० ५.११.६ (२) लोटी। 'फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता।' मा० २.३२०.१ (३) उलट गयी । तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी।' मा० २.१७.२ (४) भटकती रही । 'बिचारि फिरी उपमा न पब ।' कवि० १.७ फिरें : फिरने पर, पलट जाने से । 'समउ फिरें रिपु होहिं पिरीतें ।' मा० २.१७.६ फिरे : भूक००० (सं० स्फिरित>प्रा० फिरिय) । घूम पड़े, लौट चले । 'फिरे ___ सकल रामहि उर राखी ।' मा० १.३४०.३ फिरेउँ : आ०- भूक००+उए । (१) मैं लौटा । 'जिअत फिरत फिरेउँ लेइ राम संदेसू ।' मा० २.१५३.३ (२) मैं भटकता रहा । 'सकल भुअन मैं फिरेउँ बिहाला।' मा० ४.६.१२ फिरेउ : भूक००कए० (सं० स्फिरितः>प्रा० फिरिओ>अ० फिरियउ) । (१) भटका, घूमा। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई।' मा० १.१५७.८ (२) लौटा। 'फिरेउ राउ मन सोच अपारा ।' मा० १.१७४.७ (३) उलट गया। 'भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ ।' मा० १.२८.२ (४) चक्करदार चला, घूमा। 'चहुं दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।' मा० २.१३३.२ फिरेहु : आo-म०+आज्ञादि+मब० (सं० स्फिरेत>प्रा० फिरेह>अ० फिरेहु)। तुम लौट आना । 'फिरेहु गएँ दिन चारि ।' मा० २.८१ For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 658 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरें : फिराह । घूमते हैं । 'रहें फिरें सँग एक ।' दो० ५३८ फिर : (१) फिरइ । फिर सकता है। 'फिरे तिहारेहि फेरें ।' विन० १८७.२ (२) भकृ० अव्यय । फिरना । 'जनकु प्रेमबस फिरं न चहहीं ।' मा० १.३४०.४ / फिरो : फिर्यो । मुड़ा हुआ, विमुख । 'जो तोसों होतो फिरो ।' विन० ३३.५ फिरौं : फिरउँ । घूमता हूं। 'बहु बिधि डहकत लोग फिरौं ।' विन० १४१.३ फिर्यो : फिरेउ । भटकता रहा । 'फिर्यो ललात बिनु नाम उदर लगि ।' विन० तुलसी शब्द-कोश २२७.३ फीक, का : वि०पुं० (सं० फि=फिक > प्रा० फिक्क ) । सारहीन, तुच्छ । (१) स्वादहीन । 'सरस होउ अथवा अति फीका । मा० १.८.११ (२) रङ्गहीन । 'जो न पखारें फीक ।' दो० ४६६ फीकि, की फीका + स्त्री० । (१) नीरस । 'तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ।' मा० १.६.५ (२) उदास, अल्परंग की । परलोक फीकी मति, लोक रंग रई ।' विन० २५२.४ फी : (१) वि०पु०ब० । नीरस, निस्सार । 'जोरे नये नाते नेह फोकट फीके ।' विन० १७६.२ (२) क्रि०वि० । फीकी मनोदशा में । 'जानी है ग्वालि परी फिरि फीके ।' कृ १० फीको : फीका + कए० । व्यर्थ, तुच्छ, विवर्ण । परौं जनि फोको ।' विन० २६५.४ फुंकरत: वकृ०पु० (सं० फुंकुर्वत् > प्रा० फुंकरंत ) । फुंध्वनि करते, फुंकारते 'फु' करत जनु बहु ब्याल ।' मा० ३.२० छं० फुर : वि०पु० (सं० स्फुट, स्फुर > प्रा० फुड, फुर) । विकासशील, क्रियाशील = स्पष्ट तथा लोकप्रचारित = सत्य, यथार्थ । 'तो फुर होउ जो कहेउँ सब ।' मा० १.१५ फुर फुरइ : (१) सं० स्फुरति - स्फुर संचलने > प्रा० फुरइ (२) (सं० स्फुरति - स्फुर विकासे > प्रा० फुडइ) आ०प्र० । सत्य होता है, प्रकट होता है, चलता है । 'जा सों सब नातो फुरें ।' विन० १६०.५ फुरि फुर + स्त्री० । सच्ची । 'बात फुरि तोरी ।' मा० २.२०.५ । फुरे : (१) फुर + ब० । सच्चे, यथार्थ । 'कपिन्ह रिपु माने फुरे ।' मा० ६.६६ छं० (२) भूक०पु०ब० (सं० स्फुरित > प्रा० फुरिय ) । फड़के, स्पन्दित हुए । 'भुज अरु अधर फुरे ।' गी० १.८६.७ For Private and Personal Use Only फुर फुरइ । फुलवाई : फुलवाड़ी में । 'करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं ।' मा० १.२३१.२ फुलवाई : सं० स्त्री० फुल्लवाडी ) । पुष्पोद्यान । मा० (सं० पुष्पवाटी > प्रा० १.२१५.४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 659 तुलसी शब्द-कोश फुलाई : पूकृ० । फुला कर । 'बचन कहहिं सब गाल फुलाई ।' मा० ६.६.६ फुलाउब : भकृ०पुं० । फुलाना ( स्थूल करना ) । 'हँ सब ठठाइ फुलाउब गाला ।' मा० २.३५.५ फुलाए : भूक०पु०ब० 1 पुलक - पल्लवित किये। 'हरषित खगपति पंख फुलाए । मा० ७.६३.१ फुलावौं : आ०उए० । प्रफुल्लित करूँ, हर्षोल्लसित करूँ । 'तुलसी भनिति भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावों ।' गी० १.१८.३ 'फूँक : फुंकार या फूत्कार ध्वनि + उससे निकलने वाली साँस । 'मसक फूंक बरु मेरु उड़ाई ।' मा० २.२३२.३ फूंकि : पूकृ० । फूंक मार कर । 'चहत उड़ावन फूंकि पहारू ।' मा० १.२७३.२ कूट : भूक०पु० (सं० स्फुटित > प्रा० फुट्ट ) । विचलित हो गया, फूटा । 'फूट कपारू ।' मा० २.१६३.५ 'फूट, फूटइ : (सं० स्फुटति > प्रा० फुट्टइ) आ०प्र० । फूटता है, फूट जाय । 'अंजन कहा आँखि जेंहि फूट ।' विन० १७४.३ फूटहि : आ०प्र० (अ० फुट्टहि ) । फूटते हैं । 'जनु फूटहिं दधि कुंड ।' मा० ६.४४ फूटहुं : आ० - कामना - प्रब० । फूट जायँ । 'फूटहुं नयन ।' दो० ४१ फूटि : पूकृ० (अ० फुट्टि) । फूटकर । 'महाबृष्टि चलि फूटि किआरों ।' मा० ४.१५.७ फूटिहि : आ०भ० प्र० (सं० स्फुटिष्यति > प्रा० फुट्टिहिइ ) । फूटेगा-गी । 'राज समाज नाक अस फूटहि ।' जा०मं० ६१ कूटीं : भूकृ० स्त्री०ब० । छिन्न-भिन्न हो गयीं । 'रहे न सरीर हड़ावरि फूटीं ।' कवि० ६.५१ फूटी : भूकृ० स्त्री० (सं० स्फुटिता > प्रा० फुट्टी) । (१) विदीर्ण, शीर्ण | 'लहइ न फूटी कौड़िहू ।' दो० १०८ (२) फूटी आँख | 'लोक रीति फूटी सहहि आंजी सहद न कोइ ।' दो० ४२३ 1 For Private and Personal Use Only फूटे : भूक०पु०ब० । मा० ६.२५.६ फूटेहु : फूटे हुए भी । 'फूटेहु बिलोचन पीर होत ।' विन० २७१.४ फूट : फूटइ । फूरति : वकृ०स्त्री० । स्फुरित होती, स्पन्दित होती । 'पावन- हृदय जेहि उर फूरति । कृ० २८ फूल : सं०पु० (सं० फुल्ल - पुष्प – प्राकृत में 'फुल्ल' ही अति प्रचलित ) । मा० १.३७.१४ फूल, फूलइ : (सं० फुल्लति - फुल्ल विकासे > प्रा० फुल्लइ ) आ०प्र० । पुष्प सम्पन्न होता है । 'फूलइ फरइ न बेत ।' मा० ६.१६ ख Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 660 तुलसी शब्दकोश फूलत : वकृ००। (१) पुष्प सम्पन्न होता-होते । 'फलत फलत सु पल्लवत ।' मा० १.२१२ (२) फूलते समय । 'फूलत फलत भयउ बिधि बामा।' मा० २.५९.४ (३) सूजता, विकारवश स्थूल होता । 'पेट न फलत बिनु कहें।' दो० ४३७ फूलन : भकृ० अव्यय । पुष्प सम्पन्न होने । 'उकठे बिटप लागे फूलन फरन ।' विन २५७.२ फूलनि : फूल+संब० । फूलों । 'उर फूलनि के हार हैं ।' कवि० २.१४ फलाह : आ०प्रब० (सं० फुल्लन्ति>अ० फुल्लहिं) । पुष्प सम्पन्न होते हैं । 'फूलहि ___फलहिं बिटप बिधि नाना।' मा० २.१३७.६ फला : (१) फूल । 'सोइ फल सिधि सब साधन फूला।' मा० १.३.८ (२) भूक०० (सं० फुल्ल)। विकसित, पुष्पित । 'मोर मनोरथ सुरतरु फूला।' मा० २.२६.८ फूलि : पूक० (अ० फुल्लि) । पुष्प सम्पन्न होकर । मा० २.३११.७ फूली : फूली+ब० । खिल उठीं, उल्लसित हुई। 'निरखत मातु मुदित मन फूलीं।' ___गी० १.३१.५ फूली : (१) भूक०स्त्री० । पुष्प सम्पन्न हुई, विकसित हुई । 'ज्यों कलप-बेलि सकेलि सुकृत सुफूल फूली सुख कली।' गी० ३.१७.१ (२) फूलि । 'जेहिं दिसि बैठे नारद फूली।' मा० १.१३५.१ फूलें : फूले हुए' से । 'फूलें कास सकल महि छाई ।' मा० ४.१६.२ फूले : भूकृ००ब० । (१) पुष्प सम्पन्न हुए । 'बिबिध भाँति फूले तरु नाना।' मा० ३.३८.३ (२) हर्षोत्फुल्ल हुए । 'परमानंद प्रेम सुख फूले ।' मा० १.१६६.५ फूल : फूलहिं । विकास पाते हैं (उन्नत होते हैं) । ‘फल फूल फैले खल...।' कवि० ७.१७१ फल : फूलइ । खिले, खिल सकता है । 'हृदय कमल फूल नहीं बिन रबिकुल रबि राम ।' वैरा० २ फेट : सं०स्त्री० (सं० स्फेट= आवरण)। कमरबंद, फेंटा । 'धनी गही ज्यों फेंट ।' दो० २०७ ककरहिं : आ०प्रब० (सं० फेत्कुर्वन्ति>प्रा० फेक्करंति>अ० फेक्करहिं) । फेकरते हैं फे-फे ध्वनि करते हैं । 'फेकरहिं स्वान सियार ।' रा०प्र० ५.६.३ फेकरि : पूक० । फे-फे ध्वनि करके । 'फेकरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात ।' ___ कवि० ६.४६ फेन : सं०० (सं०)। मा० २.६१.१ For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुमसी पाब्द-कोश 661 फेनु, न : फेन+कए । मा० २.२८१.८ 'जलधि अगाध मौलि बह फेनू ।' मा० १.१६७.८ 'फेर : सं०पु० (सं० स्फेर) । घुमाव (ओर) । चक्कर । 'नगर रम्य चहुं फेर ।' मा० ७.२ फेर, फेरइ : (सं० स्फेरयति>प्रा० फेरइ) आ०प्रए । फेरता है, मोड़ देता है । ____ 'साँच सनेह सांच रुचि जो हठि फेरइ ।' पा०म० ५६ फेरत : वकृ०० (सं० स्फेरयत्>प्रा० फेरंत)। (१) घुमाता-ते । 'भुज जुगल _फेरत सर ।' मा० ६.७१ छं० (२) घोड़े को चलाते। 'कुसल .. हय फेरत ।' गी० १.४५.२-४ (३) लोटालते समय । 'फेरत राम दुहाई देहीं।' मा० २.२५०.४ फेरति : वक०स्त्री० । लौटालती, पीछे को मोड़ती । 'फेरति मनहुं मातु कृत खोरी!' मा० २.२३४.५ फेरन : भकृ० अव्यय । घमाने । 'चाप कर फेरन लगे।' मा० ६.८६ छं० फेरफार : सं०० (सं० स्फेर+स्फार=गति विस्तार)। चालबाजी, चालाकी, टालमटूल । 'अनुमानि सिसुकेलि कियो फेर-फार सो।' हनु० ४ 'फेरहि : आप्रब० (अ.)। (१) लोटालते हैं । 'कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि ।' मा० २.११२ (२) फेरी दिलाते हैं, चक्कर में चलाते हैं । 'फेरहिं चतुर तुरग गति नाना।' मा० १.२६६.२ (घोड़ा फेरना मुहावरा है)। फेरा : फेर । 'रोपह बीथिन्ह पुर चहुं फेरा।' मा० २.६.६ फेरि : पूकृ० (अ॰) । (१) फिराइ । मोड़ कर , लौटाल कर । 'फेरि सुभट लंकेस रिसाना ।' मा० ६.४२.६ (२) भ्रम में डाल कर, उलटकर । 'गई गिरा मति फेरि ।' मा० २.१२ (३) भ्रमण या विचरण करवा कर। 'नगर फेरि ।' पुनि पूछ प्रजारी ।' मा० ५.२५.७ (४) चक्राकार घुमा कर । 'कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ।' मा० ६.४१.८ (५) लौटाल कर (वापस) । तिन्ह तो मन फेरि न पाए।' कवि० २.२४ (६) उलट-पलट कर परख्यो न फेरि खर खोट।' विन० १६१.८ (७) नेवछावर करके । 'सोम काम सत कोटि वारि फेरि डारहीं।' गी० १.६८.१० (८) फिरि पुनः+लौटाल कर । 'बान संग प्रभु फेरि चलाई ।' मा० ६.६१.४ फेरिअ : आ०कवा०प्रए। लोटाल कर भेज दीजिए। फेरिअ प्रभु मिथिलेस किसोरी।' मा० १.८२.२ फेरिअत, फेरियत : व.पुकवा० । फेरा जाता-फेरे जाते । 'मन फेरियत कुतर्क कोटि करि ।' कृ. २७ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 662 तुलसी शब्द-कोश करिमहिं : आ०प्रब०कवा० (सं० स्फेर्यन्ताम् >प्रा. फेरीअंत>अ० फेरीअहिं) । ___ लोटाले जायँ । 'फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ।' मा० २.२५६.३ फेरिए, ये : फेरिअ । (१) घुमाइए । 'तुलसी की बांह पर लामी लूम फेरिये।' हनु ३४ (२) लोटा लिए । 'घर फेरिए लखन लरिका हैं।' गी० २.७३.३ फेरी : फेरी+ब० । धुमवायीं । 'प्रमुदित मुनिन्ह भावरी फेरौं ।' मा० १.३२५.७ फेरी: (१) भूकृ०स्त्री० । घुमायी, भ्रान्त कर दी । 'सारद प्रेरि तासु मति फेरी।' मा० १.१७७.८ (२) फेरि । लौटाल कर । 'लखनु रामु सिय आनेहु फेरी।' मा० २.६४.८ फेरु, रू : (१) फेर+कए । चक्कर, जाल, छल । 'सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू ।' मा० १.२६२.७ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू लौटाल । 'हठि फेरु रामहि ।' मा० २.५० छं० (३) तू भ्रान्त कर। 'मो सन कहहु, भरत मति फेरू ।' मा० २.२६५.४ (४) सं०० (सं.)। सियार । 'भजन हीन नर देह बृथा खर स्वान फेरु की नाईं ।' गी० २.७४.४ फेरें : फेरने से। (१) मोड़ने से। फिरै तिहारेहि फेरें ।' विन० १८७.२ (२) प्रतिकूल या विमुख करने से । 'रावरें बदन फेरें.. सकल निरपने ।' कवि०. ७.७८ फेरे : (१) भूक००ब० । लौटा ले। 'नप करि बिनय महाजन फेरे।' मा०. १.३४०.१ (२) प्रतिकूल किये । 'फेरे लोचन राम अब ।' रा०प्र० ७.५.२ (३) फेर+ब० । चक्कर, पेच, लपेट। 'एक गाँठि कइ फेरे ।' विन० २२७.४ फेरो : आ०-प्रार्थना--मब० (अ० फेरहु) । (१) घुमाओ (सहलाओ)। 'तुलसी के माथे पर हाथ फेरो।' हनु० ३३ (२) प्रतिकूल करो। 'लोचन जनि फेरो।" विन० २७२.१ (३) फेरा+कए । चक्कर, आना-जाना । 'जहें सतसंग कथा माधव की, सपनेहुं करत न फेरो।' विन० १४३.२ फेर्यो : भूक००कए । मोड़ लिया। ‘ फेर्यो बदन बिधाता।' गी० ६.७.२ फैलि : पूक० । विस्तार लेकर । 'फैलि चली बर बीर-बहूटीं। कवि० ६.५१ कलें : आ०प्रब ० । फैलते हैं, बढ़ते हैं। 'फैले खल ।' कवि० ७.१७१ फोकट : फोटक । 'सब फोकट साटक है तुलसी ।' कवि० ७.४१ फोटक : वि०+क्रि०वि० (सं० स्फोटक= सूजन) । व्यर्थ, कष्ट कर (उपक्रम)। __'करहिं ते फोटक पचि मरहिं ।' दो० २७४ / फोर कोरइ : (सं० स्फोटयति>प्रा० फोडइ) आ०प्रए० । फोड़ता है। 'जो पय फेनु फोर पबि टांकी ।' मा० २.२८१.८ कोरहि : आ०प्रब० (सं० स्फोटयन्ति>प्रा० फोडंति>अ० फोडहिं) | फोड़ते हैं । 'फोरहिं सिल लोढ़ा सदन ।' दो० ५६० For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 663 फोरा : भूक.पु(सं० स्फोटित>प्रा० फोडिअ)। फोड़ डाला। 'राखा जिअत ___ आखि गहि फोरा ।' मा० ६.३६.१२ फोरि, फोरी : पूकृ० । फोड़कर । 'पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ।' मा० ६.४१.५ ___ 'काचे घट जिमि डारों फोरी।' मा० १.२५३.५ फोरे : भूकृ.पु । फोड़ने पर। 'गूलरि को सो फल फोरे।' कृ० ४४ फोर : भकृ० अव्यय । फोड़ने । 'फोर जोगु कपार अभागा।' मा० २.१६.२ फोरों : आ०उए० (सं० स्फोटयामि, स्फोटयेयम्>प्रा. फोडमि, फोडमु>अ० फोडउँ) । फोड़ता हूं, फोड़ सकता हूं। 'चपेट की चोट चटाक दै फोरौं ।' कवि० ६.१४ फौज : सं०स्त्री० (अरबी-फौज लस्कर, जंगली सिपाही, गिरोह) । सेना, बनचर-सेना, समूह । 'कुंभ-करन कपि फौज विदारी।' मा० ६.६७.७ फौज : फौज+ब० । सेनाएँ । हनु० ३५ बंटाई : भूक०स्त्री० (सं० वण्टापिता>प्रा० बंटइआ)। विभक्त की (अपने पर ___ली) । 'जेहिं बन बिपति बटाई।' गी० ६.६.२ बंटावन : (१) भकृ० अव्यय । बंटाने । 'जिनके बिरह बँटावन खग मग जीव दुखारी।' गी० २.८५.२ (२) वि०पू० । बंटाने वाला। 'बिपति बँटावन बंध बाहु ।' गी० ६.७.१ बैटया : वि० । बंटाने वाला । बिपति बॅटेया।' कवि० ७.५१ बंधत : वकृ० । बंध जाता, जकड़ जाता । 'बँधत बिनहिं पास ।' विन० १६७.२ बंधब : भक०० (सं० बद्धव्य>प्रा० बंधिअव्व)। बांधना, बन्धन । 'कृपा कोपु बधु बँधब गोसाई।' मा० १.२७६.५ ।। बंधाइ : पूकृ० (सं० बन्धयित्त्वा>प्रा० बंधाविअ>अ० बंधावि) । (१) बँधवाकर (बांधने देकर)। 'हठि तेल बसन बालधि बँधाइ।' गी० ५.१६.४ (२) बांध (सेतु) से बद्ध करवा कर । 'बारिधि बंधाइ उतरे ।' गी० ५.२२.११ बंधाइअ : आ०कवा०प्रए । बंधाया जाय (सेतुबद्ध कराया जाय)। 'एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ ।' मा० ५.६०.४ For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 664 तुलसी शब्द-कोश बंधा : भूकृ० पु०ब० । बद्ध कराये ( बनवाये ) । 'सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ।' मा० १.३०४.५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बँधान : बँधान । स्वरयोजना के बन्धन । 'डगहिं न ताल बंधान ।' मा० १.३०२ बँधाय: भूक०पु० ए० । सेतुबद्ध कराया । 'जेहि बारीस बँधायउ हेला ।' मा० ६. ६.५ बँधाया : बँधायउ । जकड़न प्राप्त किया, फँसाया । 'लोभ पास जेहिं गर न बँधाया । ' मा० ४.२१.५ बँधायो : बँधायउ । (१) बद्ध कराया, पाशित कराया । 'रन सोभा लखि प्रभुहि बँधायो ।' मा० ६.७३.१३ ( २ ) सेतुबद्ध कराया । 'कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ।' मा० ६.६.२ War : बँधाया । 'प्रभु कारज लगि कपिहि बँधावा ।' मा० ५.२०.४ बँधे : भूकृ०पु०बहु० । बद्ध हुए, बन्धन में पड़े। 'जनु सनेह रजु बँधे बराती ।' मा० १.३३२.५ बंघेउ : भूकृ०पु०कए० । बँध गया । 'बँधेउ सनेह बिदेह ।' जा०मं० ४१ बँ हैं : आ०भ० प्र० । बँधाएँगे ( सेतुबद्ध करायेंगे । 'कौतुक ही पाथोधि बँधे हैं ।' गी० ५.५१.२ बंध्यो : बँधेउ । जकड़ गया । 'बँध्यो कीट मरकट की नाई ।' मा० ७.११७.३ बंक (बंका) : वि०पु० (सं० वक्र > प्रा० वंक) । (१) तिर्यक् + सुन्दर । 'रुचिर बंक भौंहैं ।' गी० ७.४.३ (२) चक्करदार, व्यूढ । 'केहि बिधि दहेउ दुर्गं अति बंका ।' मा० ५.३३.५ (३) बाँका, विषम । 'रन बांकुरा बालिसुत बंका ।' मा० ६.१८.२ बंगा : वि० (सं० व्यङ्ग, वङ्ग > प्रा० वंग) । लँगड़ा, अङ्गविकल, दोषयुक्त, खोटा । 'राम मनुज सुनुरे सठ बंगा ।' मा० ६.२६.५ बंचक : वि० (सं० वञ्चक) 1 धूर्त, ठग । मा० १.७५ बंचित : वि० (सं० वञ्चित ) । प्रतारित, छला हुआ, अभीष्ट वस्तु की उपलब्धि से रहित । मा० २.१६५ बंचे : आ० - भूकृ०पु० + मब० । तुमने ठगा, छला; अभीष्ट की प्राप्ति से -- afe किया | 'बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा ।' मा० १.१३७.६ बंजुल : सं०पु० (सं० वञ्जुल) । (१) बेत ( २ ) पुष्प वृक्ष विशेष । (३) अशोक वृक्ष | 'बंजुल मंजु बकुल कुल सुरतरु ।' गी० २.४७.४ 1 'बंद, बंदइ : (सं० वन्दते > प्रा० वंदइ) आ०ए० । प्रणाम करता है, नत होता है । 'टेढ़ जानि सब बंदइ काहू ।' मा० १.२८१.६ बंदउ : आ० उ० (सं० वन्दे > प्रा० वंदामि > अ० वंदउँ ) । प्रणाम करता हूं । 'बंदउँ गुरु पद ।' मा० १.१.१ For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 665 बंदत : व.पु.। प्रणाम करता-करते । 'जे बंदत अज ईस ।' मा० ४.२५ बंदन : (१) सं०० (सं० वन्दन) । प्रणाम । 'अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा ।' मा० ६.११२.२ (२) भक० अव्यय । प्रणाम करने । 'लगे जनक मुनि जन पद बंदन ।' मा० २.२७५.१ (३) वि० । वन्दनीय, प्रणम्य । “उठह रघुनन्दन जग बंदन ।' गी० १.८६.११ (४) सं०० । सेंदुर, रोली । 'बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि ध्र व देखेउ ।' पा०म० १३२ बंदनवार : सं०स्त्री० (सं० वन्दनमाला)। द्वार पर लगायी जाने वाली फूलों या पत्तों की लड़ी। मा० ७.६.२ (इसके पुलिङ्ग प्रयोग भी चलते हैं)। बंदनिवारे : बंदनवार+ब० । वन्दन मालाएँ । 'मंजुल मनिमय बंदनवारे ।' मा० १.३४७.३ बंदनीय : वि० (सं० वन्दनीय) । प्रणम्य । मा० १.२.६ बंदनु : बंदन+कए । प्रणाम । 'जाइ संभु पद बंदन कीन्हा ।' मा० १.६०.४ बंदर : बानर । मा० ५.५४.६ बंदि : (१) पू० (सं० वन्दित्वा>प्रा. वंदिx>अ० वंदि)। प्रणाम करके। 'बंदि कहउँ कर जोरि ।' मा० १.१४ छं० (२) सं०स्त्री० (सं० वन्दि)। बन्धन । 'दसरस्थ को नंदन बंदि कटैया ।' कवि० ७.५१ (३) (सं० वन्दिन्) बद्ध, बँधुआ, कैदी । 'सुत सुरपतिहि बंदि करि ल्यायो।' गी० ६.३.२ (४) कारागृह । 'रावन की बंदि लागे अमर मरन ।' विन० २४८.३ (५) चारण । दे० बंदिगना । बंदिअ : आ०कवा०प्रए० (सं० वन्द्यते>प्रा० वंदीअइ)। प्रणाम किया जाता है। 'बंदिअ मलय प्रसंग ।' मा० १.१० क बंदिगन : (सं० वन्दिगण) चारण लोग, स्तुति पाठक । 'मागध सूत बंदिगन गायक।' मा० १.१६४.६ बंदिगृह : कारागृह (दे० बंदि) । मा० १.१६ बंदिछोर : (दे० बंदि तथा छोर) बन्धन मुक्त करने वाला, पाश काटने वाला (छुर छेदे)। विन० ३५.६ बंदित : बंदित । मा० १.१४६.१ बंदिता : बंदित+स्त्री० (सं० वन्दिता)। प्रणाम की हुई । 'उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता।' मा० ७.२४.६ बंदिनी : वि०स्त्री० (सं० वन्दनीया)। प्रणम्या । 'बाम अंग बामा बर बिस्व बंदिनी ।' गी० २.४३.१ बंदिन्ह : बंदी+संब० । बंदियों चारणों (ने) । 'बंदिन्ह बांकुरे बिरद बए।' गी० १.३.४ बंदिय : बंदि। For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 666 तुलसी शब्द-कोश बंदी : (१) बंदि (कारावासी अर्थ में फारसी का भी शब्द है) । (२) (सं. वन्दिन) । चारण, स्तुति-पाठक । 'बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं।' मा० १.२६५.४ बंदीखाना : (दे० बंदि) (सं० वन्दिगह =फा० बन्दीखानः)। कारागृह । मा० ६.६०.४ बंदीछोर : बंदिछोर । हनु० ६, १३, १५ बंदीजन : बंदिगन । मा० १.३०६.५ बंदे : बंदित (प्रा. बंदिय) । प्रणाम किये । 'पुनि पुनि पारबती पद बंदे।' मा० १.९६.१ बंदौं : बंदउँ ! 'बंदौं राम लखन बैदेही ।' विन० ३६.५ बध : सं०० (सं.)। (१) बन्धन, पाश । 'सो कि बंध तर आवइ ।' मा० ६.७३ (२) मायापाश, संसारबन्धन या कर्मबन्धन । 'बंध मोच्छ प्रद ।' मा० ३.१५ (३) गूंथ । 'तेहि के रचि पचि बंध बनाए।' मा० १.२८८.३ बधन : बंध (सं.)। (१) ग्रंथ । प्रथन । 'सन इव खल पर बंधन करई।' मा० ७.१२१.१७ (२) संसार, कर्मभोग । 'कवन सकइ भव बंधन छोरी।' मा १.२००.३ (३) जाल, पाश । 'बंधन काटि गयउ उरगादा।' मा० ७ ५८.५-६ (४) बँधने की क्रिया । 'कपि बंधन सुनि निसिचर धाए ।' मा० ५.२०.५ (५) स्नायुमण्डल । 'हाँक सुनत दसकंध के भए बंधन ढीले ।' विन० ३२.३ बधान : बंधन । स्वरयोजना । 'उघटहिं छंद प्रबंध गीत पद राग तान बंधान ।' गी० १.२.१५ बघाना : बंधान । बांधने की क्रिया (सेतुबन्ध) । 'अवन सुनेउ बारिधि बंधाना।' मा० ६.५.१० बधु : सं०+वि० (सं०) । (१) भाई। मा० १.४० (२) अत्यन्त आत्मीय जन (दे० बंधो)। बंधुक : सं०० (सं०) । रक्तवर्ण पुष्पविशेष जो मध्याह्न में खिलने से 'दोपहरिया' कहा जाता है-दोने जैसा छोटा पौधा होता है । 'बंधुक सुमन अरुन पद पंकज ।' गी० १.२६.२ बधुजन : सगे सम्बन्धी, भाई चारे के लोग। विन० २४३.२ बंधो : बंधु+सम्बोधन (सं.) । हे अत्यन्त स्वजन । 'दीन-दयाकर आरत-बंधो।' मा० ७.१८.१ बध्या : वि०स्त्री० (सं.) । प्रसव-रहित स्त्री=बाँझ । मा० ७.१२२.१५ बब : बम-बम् ध्वनि । 'कूदत कबंध के कदंब बंब सी करत ।' कवि० ६.४८ वंस : सं०० (सं० वंश) । (१) कुल । 'बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ।' मा० १.३१६.६ (२) बाँस (वेणु)। 'उपजेहु बंस अनल कुल घालक ।' मा० ६.२१.५ For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 667 aa बंसाटबी : (बंस+मटबी-सं० वंशाटवी) बांस का वन । विन० ५२.७ बंसी : (१) बनसी। मछली फंसने का कांटा । 'जनु बंसी खेलहिं चित दये ।' मा० ६.८८.५ (२) (समासान्त में) वि.पु. । वंश में उत्पन्न, वंश वाला । रघुबंसी आदि । (३) सं०स्त्री० (सं० वंशी) । बाँसुरी (सुषिर वाद्यविशेष)। बई : (१) भूकृ०स्त्री० । बोयो । 'बई बनाइ बारि बृदाबन ।' कृ० २६ (२) बोयी हुई (फसल) । 'लुनियत बई।' विन० २५२.३ बएँ : क्रि०वि० । बोने से । 'ऊसर बीज बएँ फल जथा।' मा० ५.५८.४ बए : भूकृ०० (सं० उप्त>प्रा० बविय)। बोये, बोये हुए । 'बए न जामहिं धान ।' मा० ७.१००.७ (२) बिखराये, फैलाये, प्रचारित-प्रसारित किये। 'बंदिन्ह बांकुरे बिरद बए।' गी० १.३.४ ।। बक : सं०० (सं०) । बगुला पक्षी । मा० १.६.२ (२) कंस राजा का सहायक बकासुर । 'बकी बक भगिनी काहू ते कहा डरेगी।' हनु० २५ बकउ : बगुला भी, बगुले भी। 'काक होहिं पिक, बकउ मराला ।' मा० १.३.१ बकता : वि०० (सं० वक्ता)। कहने वाला, प्रवचनकर्ता। 'श्रोता बकता ग्यान निधि ।' भा० १.३० ख बकध्यान : मिथ्या ध्यान, दम्भ । 'इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ।' मा० ६.८५.७ बकराजि : (सं०) =बगाति । गी० ७.१६.२ बकसत : वक०० (फा० बख्शूदन =क्षमा करना (२) बख्शीदन् =देना)। (१) क्षमा करता-ते । (२) दान करता-ते। 'प्रभु बकसत गज बाजि बसन मनि।' गी० १.४५.५ बकसीस : सं०स्त्री० (फा० बख्शाइश) । दान, कृपा, पुरस्कार । कृपापूर्वक दान या पुरस्कार । 'भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ।' मा० १.३०६.३ बहिं : आ०प्रब० (सं० वल्कयन्ति–वल्क शब्दे>प्रा० वक्कंति>अ० वक्कहिं) । बकते हैं, बकवास करते हैं । 'भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ।' मा० १.२८१.४ बकती हैं, बकवास करती हैं । 'ठाली ग्वालि उरहने के मिस आइ बकहिं बेकाहिं ।' कृ. ५ बकहि : आ०मए० (सं० वल्कयस्व>प्रा० वक्कहि) । तू बकवास कर। 'तुलसिदास जनि बकहि मधुप सठ।' कृ० ५१ बकिहि : बकी=बगुली को । 'बकिहि सराहइ जानि मराली।' मा० २.२०.४ बको : (१) सं०स्त्री० (सं०)। बगुली। (२) असुर स्त्रीविशेष, बकासुर की बहन पूतना राक्षसी । हनु० २५ बकुचौहीं : वि०स्त्री० । बकुचे के समान वस्त्रादि की बड़ी गठरी जैसी। 'राखी सचि कुबरी पीठ पर ये बातें बकुचौहीं।' कृ० ४१ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 668 तुलसी शब्द-कोश बकुल : सं०० (सं.)। (१) मौलसिरी वृक्ष । मा० १.३४४.७ (२) पुष्पमञ्जरी =बोर। बक्यो : भूकृ००कए० (सं० वल्कितम >प्रा० वक्कि>अ० वक्किय उ)। बकवास करता रहा । 'बक्यो आउ बाउ मैं ।' विन० २६१.२ बक्र : (१) वि० (सं० वक्र) । टेढ़ा, टेढ़ी। 'बक चंद्रमहि असइ न राहू ।' मा० १.२८१.६ ‘चलइ जोंक जल बक्रगति ।' मा० २.४२ (२) कथन से विपरीत अर्थ का.की। 'बक्र उक्ति धनु बचन सर।' मा० ६.२३ ङ (३) प्रतिकूल आचरण वाला । 'श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि ।' मा० ७.७० ख बकउक्ति : सं०स्त्री० (सं० वक्रोक्ति)। एक कथन शैली (अलंकार) जिसमें उल्टा अर्थ निकलता है-ऐसी उक्ति जिसमें काकु या श्लेष हो और अन्य अथं किया जा सके । मा० ६.२३ ङ बखान : सं०० (सं० व्याख्यान >प्रा. वक्खाण) । गुणविवेचन, स्तुतिवर्णन । 'नर कर करसि बखान ।' मा० ६.२५ 'बखान बखाइ, ई : बखान+प्रए । बखान करता है, व्याख्यापूर्वक समझाता कहता है; गुण वर्णन करता है । 'कौन बेद बखानई ।' विन० १३५२ बखानउँ : बखान+उए । बखानता हूं, वर्णन करता हूं। 'अस तब रूप बखानउँ जानउँ ।' मा० ३.१३.३ बखानत : वकृ०० । वर्णन करता-करते । 'न बने बखानत ।' जा०म० १३ बखानहि, हीं : आ०प्रब० । बखानते हैं विवृत करते हैं, व्याख्यापूर्वक समझाते हैं । 'बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं ।' मा० ७.२६.२ बखानहु : आ०मब० । बखानो, व्याख्या कर समझाओ। 'तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ।' मा० ७.१२१.५ बखाना : (१) बखान । 'कतहुं राम गुन करहिं बखाना ।' मा० १.७६.१ (२) बखानइ। 'तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना।' मा० १.१११.५ (३) भूकृ.पुं० । वर्णन किया, व्याख्या करके समझाया । 'राम जासु जस आपु बखाना।' मा० १.१७.१० बखानि : (१) पूकृ० । वर्णन कर। 'दसा न जाइ बखानि ।' मा० २.११० (२) आ०-आज्ञा-मए । तू बखान कर । 'नवल नंदकुमार के ब्रज सगुन सुजस बखानि ।' कृ० ५२ बखानिय : (१) बखानि । 'गोरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय ।' पा०म० ८८ (२) आ०कवा०प्रए० । बखाना जाता है । 'देस सुहावन पावन बेद बखानिय ।' जा०म०४ बखानिये : बखानिय । बखाना जाता है । कवि० ७.१६८ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 669 बखानिहैं : आ०प्रब०भ० । बखानेंगे, वर्णन करेंगे। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ।' मा० ४.३० छं० बखानी : बखानी+ब। वणित की। 'अपर कथा सब भूप बखानीं।' मा० १.२६५.२ बखानी : (१) बखानि । 'स्याम गौर किमि कहीं बखानी।' मा० १.२२६.२ (२) भूक स्त्री० । वणित की। 'अति लोभी सन बिरति बखानी ।' मा० ५.५८.३ बखाने : बखान करने से । 'अघ कि रहहिं हरि चरित बखाने ।' मा० ७.११२.६ बखाने : भूक ००ब० । व्याख्यापूर्वक स्पष्ट किये। 'तेहि तें कछु गुन दोष बखाने ।' मा० १.६.२ बखाने : बखानइ । बखान सकता है । 'मक कि स्वाद बखान ।' आ०म० ८७ बखानो : बखानहु । 'ती सकोच परिहरि पा सागौं परमारह बखानो।' कृ० ३५ बखान्यो : भक००कए । वर्णन किया । 'बेद पुरान बखान्यो।' विन० ८८.३ बखार : सं०० (सं० उपस्कार >प्रा० वक्खार-संग्रह)। कोठा, जिसमें अन्न भरा जाता है । 'बिबिध बिधान धान बरत बखार हीं।' कवि० ५.२३ बग : बक । बगुला। मा० १.४१ बगध्यानी : वि०० (सं० वकध्यानिन्) । बगुले के समान छल-ध्यान करने वाला; (जिस प्रकार मछली पकड़ने हेतु बक-पक्षी ध्यान मुद्रा ग्रहण करता है, उसी प्रकार) पूजा, भक्ति, तप आदि का प्रदर्शन कर छलने वाला। तब बोला तापस बगध्यानी।' मा० १.१६२.६ बगपांति : बगुलों की श्रेणी । गी० ७.१८.३ बगमेल : वि०+ क्रि०वि० (सं० वर्ग मेल>प्रा० वग्ग मेल) । झुण्ड के झुण्ड मेला बनाये हुए। कछुक चले बगमेल ।' मा० १.३०५ बगरि : पूक० (सं० विकीर्य>प्रा० विगरिअ> अ० विगार)। फल कर, बिखर कर । 'जाको जस लोक बेद रह्यो है बगरि सो।' विन० २६४.४ बगरे : भूक००० (सं० विकीर्ण>प्रा० विगरिय)। बिखरे, फैले। 'परनिंदक जे जग मो बगरे।' मा० ७.१०२.५ बधनहा : संपु० (सं० व्याघ्रनख>प्रा० वग्धनह) । बाघ का नाखून या उस आकार का आभूषण जो बच्चों को पहनाया जाता है। ‘कठुला कंठ बघनहा नीके ।' गी० १.३१.३ बघाजुड़ानी : सं०स्त्री०। (१) व्याघ्र या चीते को शीतल उपचारों से वश में करने की क्रिया । (२) बघा=एरण्ड वक्ष के नीचे शीतल होने (विश्राम) की क्रिया । 'जरी सुंघाइ कुबरी कौतुक करि जोगी बघाजुडानी।' क० ४७ (अर्थात् कुबरी योगिनी ने ऐसी जड़ी सुघाई कि कृष्ण जैसे पुरुष व्याघ्र को वश में कर For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 670 तुलसी शब्द-कोश योगी बना लिया। इससे कृष्ण को कुब्जा-रति रूपी एरण्ड की छाया में विश्राम जैसा सुख मिला।) बघारिबे : भक०० (सं० व्याघारयितव्य>प्रा. वाघारिअव्वय)। (१) बघारना = छौंक लगाना ! (२) दीप्त करना । 'जुगुति धूम बघारिबे की समुझिहैं न गवारि ।' कृ० ५३ (धूम बघारना=बातों का बवंडर बनाकर युक्ति रूपी छौंक लगाते हुए जानकारी का प्रकाश देना ।) बघूरें : बघूरे में, बवंडर में । 'चढ़े बघूरे चंग ज्यों।' दो० ५१३ ('वात-घूर्ण' से 'बघूरा' की व्युत्पत्ति है जो वात्या चक्र या चक्रवात का अर्थ देता है।) बच : सं०पू० (सं० वचस्) । वचन, उक्ति । मा० ७.२२.८ . बचउँ : आ० उए० (सं० विचामि>प्रा० वच्चामि>अ० वच्चउँ)। बहाने से टालता हूं, उपेक्षा करता हूं। 'बिप्र बिचारि बचउँ नप द्रोही ।' मा० १.२७६.६ बचन : सं०० (सं० वचन)। उक्ति, कथन । मा० १.४.११ बचनन्हि : बचन+संब० । वचनों । गी० १.२२.६ बचनहि : वचन के । 'तजे रामु जेहिं बचनहि लागी।' मा० २.१७४.४ बचना : बचन । मा० १.७७.५ बचनामृत : वचन रूपी अमत, अमृत-तुल्य वचन, अमरत्व का संदेश देने वाली उक्ति । मा० ७.८८.२ बचनु : बचन+कए । 'प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ।' मा० १.४६.१ बचा : सं०० (फा० बच्च:-सं० अपत्य>प्रा. अवच्च) । बालक, पुत्र । 'जग में बलसालि है बालि-बचा।' कवि० ६.१५ बचाइ : पू० (सं० वाचयित्वा) । पढ़वा कर । 'यह पाती-नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।' मा० ५.५६.६ बचावन : भक० अव्यय (सं० वाचयितुम्)। पढ़वाने । 'सचिव बोलि सठ लाग बचावन ।' मा० ५.५६.१० बचावा : भूक०० (सं० व्याचित>प्रा० वच्चाविअ)। बचाया=रक्षित किया। 'करि छल सुअर सरीर बचावा।' मा० १.१५७.३ बचे : भक०० (ब) (सं० व्यचित) । शेष रहे, रक्षित रह सके, छोड़े गये। नप बचे न काल बली ते ।' विन० १९८.२ ।। बचें : आ०प्रब० (सं० विचन्ति>प्रा० वच्चंति>अ० वच्चहिं)। बच जाते हैं (रक्षित रह जाते हैं), अपने को बचा लेते हैं । 'भरदर बरसत कोस सत बचें जे बंद बराइ ।' दो० ४०२ बच्छ : सं०० (सं० वत्स>प्रा० वच्छ)। (१) गाय का बछड़ा । 'बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।' मा० १.३३७.८ (२) दुलारा बालक । 'बहुरि बच्छ कहि लालु कहि।' मा० २.६८ . For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 671 बच्छपद : बछड़े का खुर तथा उसका चिन्ह । भव सागर तरिम बच्छपद जैसे।' विन० ११८.२ बच्छल : वि० (सं० वत्सल>प्रा० वच्छल) । पुत्र पर पिता के समान स्नेह करने वाला । 'सरनागत बच्छल भगवाना ।' मा० ५.४३ ६ बच्छ : बच्छ+कए । अकेला बछड़ा । 'सुमिरि बच्छ जिमि धेन लवाई।' मा० २.१४६.३ बच्यो : भूकृ.पु०कए । शेष रहा, बचा। तुलसी अगारु न पगारु न बजारु बच्यो।' कवि० ५.२३ बछल : बच्छल । मा० ७.११.५ बछलता : सं०स्त्री० (सं० वत्सलता) । वात्सल्य, पुत्रस्नेह । “भगत-बछलता प्रभु के देखी।' मा० ७.८३.७ 'बज बजइ : (सं० वाद्यते>प्रा. वज्जइ) आ०प्रए । बजता है । 'तह सिर पदत्रान बजै ।' विन० ८६.३ बजनिया : सं० पु० (सं० वादनिक>प्रा० वज्जणिअ) । बाजा बजाने का व्यवसायी । मा० १.३५१.८ बजाइ : पूकृ० (सं० वादयित्वा>प्रा. वज्जावि>अ० वज्जावि) । (१) बजाकर । 'बरषहिं सुमन सुर दु'दुभी बजाइ ।' मा० १.३४७ (२) धौंसा देकर, विजयवाद्य बजवा कर । 'मनहुं करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ ।' मा० २.४६ (३) ताल ठोंककर, ललकार देकर । 'पैठो बाटिका बजाइ बल रघुबीर के।' कवि० ५.२ (४) आन-बान के साथ, प्रतिष्ठापूर्वक । 'बजाइ रही पति पांडु बधू की।' कवि०७.८६ बजाई : बजाई+ब० । 'तब देवन्ह दुंदुभी बजाईं।' मा० १.८६.६ बजाई : (१) बजाइ । 'देउँ भरत कहुं राजु बजाई।' मा० २.३१.८ (२) भूकृ. __ स्त्री० (सं० वादिता) । 'देखि सुरन्ह दुदुभी बजाई ।' मा० ६.१०३.८ बजाउ : आ०-आज्ञा-मए । तू बजा। 'कहेउ, बजाउ जुझाऊ ढोलू ।' मा० २.१६२.३ बजाए : भूकृ००ब० । वादित किये । 'बरषि सुमन सुर निसान बजाए।' गी० ६.२२.५ बजाज : सं०० (अरबी- बज्जाज) वस्त्र व्यवसायी । मा० ७.२८ छं० बजाय : बजाइ । ललकार कर; घोषित कर । 'नत कहत बजाय तोहि ।' हनु० २६ बजायउ : भूक ००कए० (सं० वादित:>प्रा. वज्जाविओ>अ० वज्जावियउ)। बजाया । 'देव.."निसान बजायउ।' पा०म० १४० बजायो : बजायउ । 'बधावनो बजायो।' कवि० ७.७३ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 672 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बजार : सं०पु० + स्त्री० ( अरबी - बाजार ) । हाट, आपण । बजारी : वि०पु० | बाजारू, दलाल, व्यवसायी, सौदागर ( जो भावताव में बकवास करता है ) । मिथ्यावादी, वाचाल स्वार्थी । जन बात बड़ो सो बड़ोई बजारी ।' कवि० ६.५ बजारु, रू : बजार + कए० । कवि० ५.२३ ' कहहु बनावन बेगि बजारू ।' मा० २.६.७ तुलसी शब्द-कोश बजावत: वकृ०पु० (सं० वादयत् प्रा० वज्जावंत ) । बजाता - बजाते । 'गाल बजावत तोहि न लाजा ।' मा० ६.३३.३ बजावति, ती : बजावत + स्त्री० । बजाती । 'चुकटी बजावती नचावती कौसल्या माता ।' गी० १.३३.४ | बजावन : भक० अव्यय (सं० वादयितुम् > प्रा० वज्जाविउं > अ० वज्जावण) t बजाने । 'जहँ तहँ गाल बजावन लागे ।' मा० १.२६६.२ बजावनो : सं०पु०कए० (सं० वादनम् > प्रा० वज्जावणं > अ० वज्जावणउ ) । बजाना । 'अजहूँ न छाँड़े बालु गाल को बजावनो ।' कवि० ५.९१८ बजावह : आप्रब० (सं० वादयन्ति > प्रा० वज्जावति > अ० वज्जावहि ) । बजाते हैं । 'मुखहि निसान बजार्वाहि भेरी ।' मा० ६.३६.१० बजाव : आ०म० (सं० वादयत > प्रा० वज्जावह > अ० वज्जावहु ) । बजावो । 'बजावहु जुद्ध निसाना । मा० ६.८६.२ बजावा : आ०ए० (सं० वादयति > प्रा० वज्जावइ ) । बजाता है - हो । 'पंडित सोइ जो गाल बजावा । मा० ७.६८.३ बजायें : बजावहिं । 'बालिस बजावैं गाल ।' गी० १.६५.२ बजेंगे : आ०भ०पु०प्रब० । 'बजैंगे ब्योम बाजने । कवि० ६.२ बजे : बजइ । बजे हैं : आ० भ० प्रब० । बजाएँगे । 'ब्योम बिमान निसान बजे हैं ।' गी० ५.५१.४ बज्जत : बाजत (प्रा० वज्जंत ) । कवि० ६.४७ बज्र : सं०पु० (सं० वज्र ) | ( १ ) इन्द्र का आयुध । 'मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ।' मा० ४.८.३ (२) बिजली ( जो गिर कर विनाशकारी हो ) । 'तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा ।' मा० २.४६.८ ( ३ ) हीरा । 'पदुमकोस महँ बसे बज्र मनो ।' गी० १.१०८.७ ( ४ ) वि० । कठोर (वज्र तुल्य ) । 'बचन बज्र जेहि सदा पिआरा ।' मा० १.४.११ ( ५ ) इस्पात, दृढ लोहा । (६) वज्रवत् या लोहावत् दृढ | 'लागहि सैल बज्र तन तासू ।' मा० ६.८२.३ I For Private and Personal Use Only बज्रतन : वज्रतुल्य शरीर वाला, वज्राङ्ग (बजरंगबली) हनुमान । हनु० २ बज्रन्हि : बज्र + संब० । वज्रों, हीरों (से) । प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे । मा० ७.२७ छं० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 673 बज्रपात : इन्द्र के आयुध या गाज का गिरना । मा० ६.८७.७ बज्राघात : (वज्र+आघात) । वज्र या बिजली का प्रहार, बिजली गिरने को ___ कड़क । 'गर्जा बज्राघात समाना ।' मा० ६.६४.१ बच : बज्र+कए । 'उतरु देव "हृदय बज्र बैठारि ।' मा० २.१४५ बझाऊ : वि.पु० । उलझाने वाला, फंसाव से युक्त, बाधक । 'काट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे ।' विन० १८६.४ बझावौं : आ० उए । बझाता हूं, फंसाता हूं। 'ब्याध ज्यों विषय बिहँगनि बझावौं ।' विन० २०८.२ बट : (१) सं०पु० (सं० बट) । बरगद वृक्ष । मा० १.५८.७ (२) (सं० वाट= वर्त्म>प्रा० वट्ट)। मार्ग। 'पाही खेती, बट लगन ।' दो० ४७८ बटत : वक०'० (सं० वटत् = वटयत्-वट वेष्टने>प्रा० वटुंत)। भांजता, लपेट कर बनाता (रस्सी बटता) । 'बाँधिबे को भव गयंद रेनु की रजु बटत ।' विन० १२६.३ बटपार, रा : सं०० । मार्ग का लुटेरा, पथिकों को लूटने वाला। दो० ५४६ _ 'मैं एक अमित बटपारा ।' विन० १२५.६ बट-बूट : बरगद का वृक्ष । कवि० ७.१४० बटाऊ : सं० । पान्थ, राहगीर, राह चलन्तू । मा० २.१२४.१ बटु : (१) बट+कए । बरगद । 'परसि अखय बटु हरहि गाता ।' मा० १ ४४.५ (२) सं०० (सं० वटु)। ब्रह्मचारी बालक । 'बिद किए बटु ।' मा० २.१०६ 'बटोर बटोरइ : आ०प्रए । समेटता है, समेटे । 'जेहि के भवन विमल चितामनि सो कत कांच बटोरे।' विन० ११६.४ वेदों में विटारिन्' शब्द दीर्घ एवं चौड़े के अर्थ में आता है। उसके 'बटुर' भाग से हिन्दी की 'बटुरना' क्रिया निष्पन्न है जिसका अर्थ आस-पास से एकत्र होना है। उसी का सकर्मक रूप 'बटोरना' जान पड़ता है। बटोरत : वकृ०पु । समेटता-समेटते । 'बीजु बटोरत ऊसर को।' कवि० ७.१०३ बटोरा : (१) भूकृ.पु । समेटा, सब ओर से इकट्ठा किया। 'राम भालु कपि सैन बटोरा।' मा० १.२५.३ (२) बटोरि । समेट कर=संभाल कर । चलहि न पाउँ बटोरा रे।' विन० १८६.३ बटोरि : प्रकृ० । इकट्ठा करके । 'आए दल बटोरि दोउ भाई ।' मा० २.२२८.६ बटोरी : बटोरि । मा० ५.४८.५ बटोर : बटोरइ। For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 674 तुलसी शब्द-कोश बटोर्यो : भूकृ००कए० । समेटा, इकट्ठा किया। 'नृप कटक बटोर्यो ।' गी० १.१०२.५ बटोही : बटोही ने । 'लिए चोरि चित राम बटोहीं।' मा० २.१२३.८ बटोही : बटाऊ (सं० वर्म-पथिक>प्रा० वट्ट-वहिन)। गी० २.१८.१ बड़ : वि०० (सं० बृहत्>प्रा० बड्डु)। बड़ा, विशाल, महत् । 'भागु छोट अभिलाष बड़ा।' मा० १.८ बड़प्पनु : सं०पु०कए० (सं० बृहत्त्वम् >प्रा. बड्डुत्तणं>अ० बड्डप्पणु)। बड़ाई, महत्त्व । केहिं न सुसंग बड़प्पन पावा।' मा० १.१०.८ बड़भाग : (१) सं० । उच्चभाग। (२) वि०० । उच्च भाग्यशाली । रा०न० १३ बड़भागिनि : वि०स्त्री० । अति भाग्यशालिनी । मा० २.२१४.१ बड़भागी : वि०स्त्री०ब० । बड़भागिनियां, भाग्यवतियां । 'चलीं गावत बड़भागीं।' गी० १.६.१२ बड़भागी : (१) बड़भाग+स्त्री० । अति भाग्यवती । 'अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी।' मा० १.२११ छं० (२) वि.पु । अति भाग्यवान् । 'सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।' मा० २.४१.७ बड़री : वि०स्त्री० (सं० बृहत्तरा>प्रा० बड्डअरी) । अधिक बड़ी । 'बिकटी भृकुटी बड़री अखियां ।' कवि० २.१३ बड़वागि : बड़वानल (सं० वडवाग्नि>प्रा० वडवग्गि)। कवि० ७.६६ बड़वानल : सं०पु० (सं० वडवानल । समुद्र की आग । मा० ५.३३ बड़ाइ : बड़ाई। मा० १.३२६ छं० १ बढ़ाई : बड़ाई से । 'जो बड़ होत सो राम बड़ाई।' मा० २.१९६.८ बड़ाई : सं-स्त्री०=बड़प्पन । (१) महत्ता। 'कहाँ कहाँ लगि नाम बड़ाई।' मा० १.२६.८ (२) यश । 'ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।' मा० १.२४०.१ (३) प्रशस्ति । 'करि पूजा मान्यता बड़ाई।' मा० १.३०६.४ बड़ि : बड़ी। एक लालसा बडि उर माहीं ।' मा० १.१४६.३ बड़िए : बड़ी ही । 'तेरी बड़िए बड़ाई है ।' गी० ५.२६.२ बड़ी : बड़+स्त्री० (प्रा० बड्डी) । महती। मा० १.१३१.१ बड़ें : (१) बड़े से । 'बड़ें भाग देखेउँ पद आई।' मा० १.१५६.६ (२) बड़े... __ में । 'नाम प्रताप बड़ें कुसमाज बजाइ रही पति पांडु बधू की।' कवि० ७.८६ बड़े : (१) बड़ें । बहुत सा । 'व्याह ह्वहै बड़े खाए।' गी० १.६५.१ (बहुत-सा खाने पर=अधिक बली होने पर)। (२) 'बड़' का रूपान्तर । 'बड़े भाग उर आवइ जासू।' मा० १.१.६ For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश बड़े रे : वि०पु० (सं० बृहत्तर > प्रा० बड्डयरय ) । अधिक बड़े, महत्तर | एक तें एक बड़ेरे । मा० २.२५५.५ बड़ेरो : वि०पु०कए० (सं० बृहत्तरः > प्रा० बड्डयरो ) | बहुत बड़ा । 'तहँ रिपु राहु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बड़ेरो ।' विन० ८७.२ बड़ी बड़ + ० | विशाल । 'लाभ राम सुमिरन बड़ो।' दो० २१ बोइ, ई : बड़ा ही । 'सो बड़ोई बजारी ।' कवि० ६.५ 'बढ़ बढ़इ : आ०प्र० (सं० वर्धते > प्रा० वड्ढइ ) । बढ़ता है, विकास पाता है । 'घ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई ।' मा० १.२३८.१ बढ़ई : सं०पु० (सं० वर्धक > प्रा० वड्ढई ) । तक्षा, तखा ( काष्ठ शिल्प व्यवसायी 675 जातिविशेष) । मा० २-२१२.३ बढ़ : आ० कामना, संभावना - प्रए० (सं० वर्धताम् > प्रा० वड्ढउ ) । बढ़े, बढ़ता रहे। 'चरन रति अनुदिन बढ़उ ।' मा० २. २०५.२ मा० २.७ (२) बढ़ते समय । 'अधिक बढ़त : (१) वकृ०पु० । बढ़ता-बढ़ते । विधु बढ़त 'बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा । मा० २.५.७ बढ़ति : वकृ० स्त्री० । बढ़ती । 'राम दूरि माया बढ़ति ।' दो० ६६ बढ़न : भकृ० अव्यय (सं० वधितुम् > प्रा० वड्ढि >> अ० वड्ढण) | बढ़ने । 'बालधी बढ़न लागी ।' कवि० ५.३ बढ़ह : आ०प्र० (सं० वर्धन्ते > प्रा० वंति > अ० वढहि ) । बढ़ते हैं । (१) उगते हैं । 'काटत बढ़हिं सीस । मा० ६.१०२.१ (२) उफनते हैं, उन्नति करते हैं । 'जग बहु नर सरि सर सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई । * मा० १.८.१३ बढ़हुं : आ० - शुभकामना - प्रब० । बढ़ें। 'बढ़हुं दिवस निसि बिधि सन कहहीं ।' मा० १.३०९.८ (२) अशुभ कामना । 'बेरिन बढ़हुं विषाद ।' गी० १.२.१० बढ़ा : पूकृ० (सं० वर्धयित्वा > प्रा० वड्ढाविअ > अ० वड्ढावि ) । बढ़ाकर | 'कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी ।' मा० २.२७.८ बढ़ाइअ : आकवा०प्र० । बढ़ाया जाय, बढ़ायी जाय। 'तौ न बढ़ाइअ रारि ।' मा० ६.६ बढ़ाइहौं : आ०भ० उ० । बढ़ाऊँगा । 'प्रभु सो निषादु हवे के बादु ना बढ़ाइहौं ।' कवि० २.८ बढ़ाई : भूकृ० स्त्री० + ब० बड़ी कर रखीं, पाल रखीं । 'तुलसी बढ़ाईं बादि साल तें बिसाल बाहैं ।' कवि० ५.१३ स्त्री० । विकसित की । 'सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ।' मा० ७.२३.२ 1 For Private and Personal Use Only बढ़ाई : (१) बढ़ाई | 'बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई ।' मा० ७.४६.४ (२) भूक O Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 676 तुलसी शब्द-कोश बढ़ाउ : आ०-आज्ञा-मए० (सं० वर्धयस्व>प्रा. वड्ढाव>अ० वड्ढा)। तू विकसित कर, बढ़ा । 'उर अनुराग बढ़ाउ ।' विन० १००.१० बढ़ाए : भूक००ब० । (१) परिवधित किये । 'बिधि बिषम बिषाद बढ़ाए।' गी० २.८८.३ (२) बढ़ाए हुए। 'प्रमुदित प्रजा प्रमोद बढ़ाए।' गी० ६.२२.६ बढ़ाय : बढ़ाउ (अ० वड्ढावि) । तू बढ़ा । 'सीय राम पद तुलसी प्रेम बढ़ाय।' बर० ४५ बढ़ायो : भूक पु०कए० । बढ़ाया, बड़ा किया। 'बलु आपनो बढ़ायो है ।' कवि० 'बढ़ाव, बढ़ावइ : आ०प्रए० (सं० वर्धयति>प्रा० वड्ढाव /बढ़+प्रेरणा) । बढ़ाता-ती है । 'एकहिं एक बढ़ावइ करषा।' मा० २.१६१.२ बढ़ावत : वकृ०० (सं० वर्धयत् >प्रा० वड्ढावंत)। बढ़ाता-ते । 'हरष बढ़ावत' चंद ।' दो० ३७४ बढावन : (१) वि.पु. । बढ़ाने वाला। 'बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ।' मा० १.४३.५ (२) सं० । बढ़ाना-ने । 'महि महि धरनि लखन कह बलहि बढ़ावन ।' जा०म० १८ बढ़ावनिहारी : वि० स्त्री० । बढ़ाने वाली । मा० १.१२६.३ बढ़ावनो : सं०पु०कए । बढ़ाना ! 'बिषम बली सों बादि बैर को बढ़ावनो।' कवि० ५.६ बढ़ावहिं : आ०प्रब० (सं० वर्धयन्ति >प्रा० वड्ढावंति>अ० वड्ढावहि)। बढ़ाते हैं । 'नाहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं ।' पा०म० ६३ बढ़ावहि : आ०मए० (सं० वर्धयसि>प्रा० वड्ढावसि>अ० वड्ढावहि) । तू बढ़ाता है । 'बथा कत रटि रटि राग बढ़ावहि ।' दिन० २३७.१ बढ़ावा : भूकृ०० । बढ़ाया। 'देखि मोहि जिय भेद बढ़ावा ।' मा० ४.६.१० बढ़ावै : बढ़ावइ । बढ़ाए, बढ़ा सकता है। 'को करि तर्क बढ़ावै साखा।' मा० १.५२.७ बढ़ावौं : आ० उए । बढ़ाऊँ, बढ़ाता हूं। 'सब सों बैर बढ़ावौं ।' विन० १४२८ बढ़ि : (१) पू० । बढ़ कर । 'कपि बढ़ि लाग अकास ।' मा० ५.२५ (२) बढ़ी। ____ 'साँची बिरुदावली न बढि कही गई है ।' विन० १८०.६ बढ़िआरि : सं०स्त्री० (सं० वृद्धि+कारि>प्रा० वढिआरि)। बाढ़, सैलाब । 'सुरसरिहू बढ़िआरि ।' दो० ४६८ बढ़ी : भूक०स्त्री० । विकसित हुई । 'बढ़ी परस्पर प्रीति ।' मा० १.३३७.७ .. बढ़ें : बढ़ने से, बढ़ने पर । 'सागर ज्यों बल बारि बढ़ें।' कवि० ६.६ For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गलसो शब्द-कोश 677 बढ़े : भूक ००ब० । 'काटे बहुत बढ़े पुनि ।' मा० ६.६७ बढ्या : वि० । बढ़ाने वाला। 'बार खाल को कढ़या सो बढ्या उर साल को।' कवि० ७.१३५ बढ़ो : बढ़ यो । 'श्री प्रभु के सँग सों बढ़ो।' दो० ५३२ बढ़ यो : भूकृ००कए । बढ़ा । 'जेंवत जो बढ़ यो अनंदु ।' मा० १.६६ छं० बतकही : सं०स्त्री० (१) (सं० वार्ता-कथा>प्रा० वत्तकहा>अ०वत्तकही)। वार्तालाप, बातचीत । 'रिपुसन करेहु बतकही सोई ।' मा० ६.१७.८ (२) (सं. वृत्तकथा>प्रा० वत्तकहा) । इतिवृत्त, आख्यान, चरित्रगाया। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।' मा० १.६.२ बतबढ़ाव : सं० । वार्ता विस्तार, तर्कवितर्क । 'अब जनि बतबढ़ाव खल करही।' मा० ६.३०.१ बताउ : आ० --आज्ञा-मए । तू बतला। 'तारा सिय कहँ लछिमन मोहि बताउ।' बर० ३१ बतायो : भूकृ००कए० । बतलाया । 'सो मगु तोहि न बतायो ।' विन० १६६.३ बतास, सा : सं०पू०। (१) वायु । 'कछ दिन भोजन बारि बतासा।' मा० १.७४.५ (२) झंझावात, वातचक्र । 'बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ।' मा० ७.११८.१४ बतियां : बतिया+ब० । बातें । 'चातक बतियाँ ना रुचीं।' दो० ३१० बतिया : (१) बात । उक्ति, कथन । रा०न०७ (२) संस्त्री० । नवजात कच्चा फल । 'इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं।' मा० १.२७३.३ बत्तिस : संख्या (सं० द्वात्रिंशत् >प्रा० वत्तीसा) । मा० ५.२.८ बत्सल : बच्छल । वात्सल्ययुक्त । विन० ११८.४ बद : (१) आ०ए० । कहता है । 'पावन सुजस पुरान बेद बद ।' मा० ७.३४.५ (२) आज्ञा-मए० (सं० वद) । तू बता। ‘मो सन भिरिहि कवन जोधा, बद।' मा० ६.२३.१ बदति : आ०प्रब० (सं० वदन्ति)। कहते हैं । 'इति बेद बदंति न दंतकथा।' मा० ६.१११ छं० बदत : वकृ०० (सं० वदत्) । कहता-ते । 'सुर बदत जय ।' मा० ६.१०१ छं० बदति : (१) वकृ० स्त्री० (सं० वदन्ती) । कहती। 'करि बिलापु रोदति बदति ।' मा० १.६६ (२) आप्रए० (सं० वदति)। कहता है। 'इति बदति तुलसीदास ।' विन० ४५.५ बदन : सं०० (सं० वदन) । मुख । मा० १.४.८ For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 678 तुलसी शब्द-कोश बदननि, न्हि बदन + संब० । मुखों (से) । 'बदननि बिधु निदरे हैं ।' गी २.२५.१ बदनी : ( समासान्त में) वि०स्त्री० । मुख वाली, सदृश मुख वाली । 'बिधु बदनी । मा० १.१०.४ बदनु : बदन + कए० । मुख । 'सुरसा बदनु बढ़ावा ।' मा० ५.२.६ बदर : सं०पु० (सं० वदर ) । बेर फल । मा० २.१२५.७ बदरी : सं० स्त्री० (सं० वदरी) । बेर वृक्ष । 'कदरी बदरी बिटप ।' दो० ३५४ बदरीबन : (१) बेर के वृक्षों का वन (२) हिमालय स्थित तीर्थविशेष जहाँ नर-नारायण की तपोभूमि है । मा० ४.२५ बदलि : पूकृ० ( अरबी - बदल - व्यावसायिक विनमय; बछाल = बनिया ) । बदल कर, विनिमय में ले दे कर । 'लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ।' विन० २६१.१ बदलें : (दे० बदलि ) बदले में, बिनिमय में । 'काँच किरिच बदलें ते लेहीं ।' मा० ७.१२१.१२ बह: आ०प्र० । कहते हैं, बखानते हैं । 'बिरुद बर्दाह मतिधीर ।' मा० १.२६२ बदहि : आ० - आज्ञा - मए० । तू बतला । 'सत्य बदहि तजि माख । मा० ६.२४ दि : पूकृ० । (१) कह कर (मान कर ) । 'जौं हम निदरहि बित्र बदि ।' मा० १.२८३ (२) बद कर, निश्चित कर । 'पठए बदि बदि अवधि दसहु दिसि ।' गी० ४.२.४ (३) शर्त लगाकर, होड़ करके । 'कूदत करि रघुनाथ सपथ उपरी - उपरा बदि बाद ।' गी० ५.२२.४ दौं : आ० उ० । कहता हूं, शर्त के साथ निश्चित बतलाता हूं। 'प्रेम बद प्रहलादहि को ।' कवि० ७.१२७ बद्ध : भूकृ०वि० (सं० ) । बँधा हुआ, प्रबन्ध में निबद्ध । मा० ७.१३० श्लोक १ बद्रिकाश्रम (दे० बदरीबन - सं० वदरिकाश्रम ) । नर-नारायण का आश्रम = = तीर्थ विशेष | विन० ६०.५ ब : (१) सं०पु० (सं० वध ) | कार डालना । मा० ३.२ (२) दे० / बध । 'बध, बधइ : आ० प्र० । मार डालता है। मार डाले । 'जौं मृगपति बध मेडुकन्हि ।' मा० ६.२३ ग बधउ : आ०प्र० । मार डालता हूं। 'अस बिचारि खल बधउँ न तोही ।' मा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६.३१.५ जोगू : (दे० जोगू) बध के योग्य । मा० १.२७५.३ o TE : भ० ० । (१) मारा जा सकेगा । 'बालि बधब इन्ह भइ परतीती ।' मा० ४.७.१३ (२) मारा जाऊँगा । 'उतरु देत मोहि बधब अभागें ।' मा० ३.२६.६ (३) मारना होगा । तेहि बधब हम निज पानि ।' मा० ३.२०.५ For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 679 बधाई : सं-स्त्री० (सं० वर्धापिका>प्रा. वडाइआ)। शुभ कामना, सभाजना, मङ्गलोत्सव की शुभाशंसा । 'रघुबर जनम अनंद बधाई ।' मा० २.४०.८ (२) मङ्गलोत्सव के वाद्य । 'बहुबिधि बाज बधाई ।' गी० १.१.५ बधाए : सं००ब० (सं० वर्धापक>प्रा० वद्धायय) । बधाइयाँ । मा० २.१.१ बधाय : बधाई । 'सुजन सदन बधाय ।' विन० २२०.१० बधाव : बधावा (सं० वर्धाप>प्रा० वद्धाव) । गृह गृह बाज बधाव सुभ।' मा० १.१६४ बधावन : बधावा (सं० वर्धापन>प्रा० वद्धावण) । 'गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन ।' जा०म० ११३ बधावने : बधावन+ब० । बधाइयाँ, समारोह, मङ्गलोत्सव । 'घर घर अवध __ बधावने।' रा०प्र० ४.२.१ बधावनो : बधावन+कए । 'आनंद बधावनो मुदित गोप गोपीगन ।' कृ० १७ बधावा : (१) सं०पू० (सं० वर्धापक>प्रा० वद्धावअ)। मङ्गलोत्सव, (२) मङ्गलोत्सव पर शुभकामना या उपहार आदि; (३) मङ्गल-वाद्य । 'बाज गहागह अवध बधावा ।' मा० २.७.३ बधि : पूक ० । मारकर । 'खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा ।' मा० ३.२८.१ बषिक : सं०पू० (सं० वधिक) । बहेलिया (चिड़ीमार, मग या जीवी)। मा० ४.३० ख (२) एक व्याध जिसने धोखे से कृष्ण को तीर मारा था। विन० २१८.३ बधिका : बधिक । मा० ३.४२.८ बधिर : सं००+वि० (सं.)। बहरा, श्रवणशक्ति-रहित । मा० ३.५.८ बघिहि : आ०म०प्रए । मारेगा । 'मोहि बधिहि सुखसागर हरी ।' मा० ३.२६ ई० बधी : भूक०स्त्री० । मार डाली। 'बधी ताड़का।' जा०म० ३६ बधुन : बधुन्ह । 'बधुन सहित सुत चारिउ मातु निहारहिं ।' जा०म० १८५ बधुन्ह : बधू+संब० । बधुओं। 'बधुन्ह समेत चले सुर सर्वा ।' मा० १.६१.१ बधू : सं०स्त्री० (सं० वधू)। (१) नवविवाहित स्त्री, दूल्हन । 'बधू लरिकिनी पर घर आई।' मा० १.३५५.८ (२) पुत्र की पत्नी। (३) पत्नी । 'विप्र-वधू सब भूप बोलाई ।' मा० १.३५४.४ (४) स्त्री । 'बिबुध बधू नाचहिं करि गाना ।' मा० १.३४७ बधूटिन्ह : बधूटी+संब० । बधुओं । मा० १.३२७ बधूटी : बधूटी+ब० । स्त्रियां । 'नाच हिं गावहिं बिबुध बधूटीं ।' मा० १.२६५.३ बधूटी : बधू (सं०) । 'सखि सरद बिमल बिधु बदनि बधूटी।' गी० २.२१.१ बधे : मारने से, मारने पर । 'बधे पापु अपकीरति हारें।' मा० १.२७३.७ For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 680 तुलसी शब्द-कोश बधे : (१) 'बध' का रूपान्तर । मारने, वध करने । 'पिता बधे पर मारत मोही ।' मा० ४.२६.५ (२) भूकृ०पु०ब० । मार डाले । 'बधे सकल अतुलित बलसाली । मा० ५.२१.६ε बधेउ : भूकृ०पु०कए० । मार डाला । 'खर दूषन त्रिसिरा बधेउ ।' मा० ३.२५ बधेहु : आ० – भूकृ०पु० + मब० । तुमने मार डाला । 'बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा । मा० ६.६०.५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बधेया : बधाई (सं०] वर्धापिका > प्रा० वद्धाइया) । गी० १.६.४ बध्यो : बधेउ । 'बालि बध्यो जेहि एक सर ।' मा० ६.३३ क बन : (१) सं०पु० (सं० वन ) । मा० २.४२.२ (२) झुरमुट । ( ३ ) जल । जैसे, बनज, बनबाहन आदि । ( ४ ) समूह । मा० १. १८५.१ / बन, बनइ, ई : आ०प्रए० (सं० वनति - अप्रचलित धातु > प्रा० वणइ ) । (१) बनता है, रचा जाता है । (२) अनुकूल होता है । 'राम देत नहि बनइ गोसाईं ।' मा० १.२०८. ५ ( ३ ) शक्य होता है । 'बनइ न बरनत नगर निकाई ।' मा० १.२१३.१ (४) प्रतीति में आता है । 'देखत बनइ बरनि नहि जाई ।' मा० ३.४०.३ (५) संगत होता है। 'बनइ प्रभु पोसों ।' मा० ४.३.४ बनचर : वि० (सं० वनचर) । (१) वन में विचरण करने वाला (२) वन्य जीववानर आदि । 'बनचर देह धरी छिति माहीं ।' मा० १.८८.३ बनचारी : बनचर । मा० २.३२१.२ बनज : सं०पु० (सं० वनज ) । वन = जल में उत्पन्न । कमल । 'जय रघुवंस बनज बन भानू ।' मा० १.१८५.१ बनजात, ता : बनज (सं० वनजात) । कमल । 'बरन बरन बिकसे बनजाता ।' मा० १.२१२.८ बनत: वकृ०पु० । बनता, योग्य हो पाता । ' करत विचारुन बनत बनावा ।' मा० १.४६.२ नदेव : सं०पु० (सं० वनदेव ) । वन के अधिष्ठाता देव । मा० २.५६.३ बनदेवनि : बनदेव + संब० । वन देवों (से) । 'बनदेवनि सिय कहति कहन यों ।' गी० ३.७.३ बनदेवा: बनदेव । मा० २.३१२-७ बनदेब : बनदेबी + ब० । वन की देवियाँ । 'बनदेवी बनदेव उदारा।' मा० २.६६.१ बनदेबी : बन की अधिष्ठी शक्ति । मा० ५.५६.३ बननिधि : जलनिधि । समुद्र | मा० ६.५ बनपट : वन्य वस्तुओं - वल्कल आदि के वस्त्र । गी० २.३०.३ For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 681 बनपाल : वन के रखवाले । कवि० ५.२ बनबास : (सं० वन-वास) वन में निवास । मा० २.२२४.८ बनबासी : वि.पु० (सं० वन वासिन्) । वन में रहने वाला । गी० १.५५.८ बनबासू : बनबास+कए । वन-प्रवास । 'सुतहि राजु रामहि बनबासू ।' मा० २.२२.६ बनबाहन : (दे० बन तथा बाहन) वन=-जल का वाहन नौका । 'जब पाहन भे बन-बाहन से।' कवि० ६.६ बनबाहनु : बनबाहन+कए । एकमात्र नौका। 'पाहन तें बन-बाहनु काठ को कोमल है।' कवि० २.७ बनमाल : बनमाला। बनमाला : सं०स्त्री० (सं० वनमाला) । (१) सभी ऋतुओं के पुष्पों से बनी--बीच बीच कदम्ब-पुष्पों से गुथी-घुटनों तक लम्बी माला। 'आजानु-लम्बिनी माला सर्वत्-कुसुमोज्ज्वला। मध्ये स्थूल-कदम्बाढ्या वनमालेति कीर्तिता।' 'उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला ।' मा० १.१४७.६ (२) वनपुष्पों की माला। 'जटा मुकुट सिर उर बनमाला ।' मा० ३.३४.७ बनरन्ह : बानर+संब० । वानरों । 'देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई ।' मा० ६.४०.२ बनरा : बानर । 'उतरे बनरा जय राम रहैं।' कवि० ६.६ बनरुह : सं०० (सं० वनरुह =जलरुह) । कमल । 'अरुन-बनरुह लोचनं ।' कृ. २३ बनवनि : सं०स्त्री० । बनाव, सजावट । 'सुमन लता सहित रची बनवनि ।' गी० बनसी : संस्त्री० (सं० वडिश>प्रा० वडिस>अ० वडिसी)। मछली फंसाने का काँटा । 'बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम तिय कहहिं प्रबीना ।' मा० ३.४४.८ बनहिं : (१) आप्रब० । बनती-ते हैं। (उपमा...) 'देत न बनहिं निपट लघु लागीं।' मा० १.३४६.८ (२) वन में। 'लछिमन गए बनहिं जब ।' मा० ३.२३ बनहि : वन को । 'भगुपति गए बनहि तप हेतू ।' मा० १.२८५.७ बनहीं : बनहिं । बन में । 'फिरहिं बन-बनहीं ।' मा० २.२११.८ बना : भूकृ० । (१) घटित हुआ, जुट गया। 'बना आइ असमंजस आजू ।' मा० १.१६७ ५ (२) सजा, सुसज्जित हुआ। 'बना बजारु न जाइ बखाना।' मा० १.३४४.६ बनाइ : पू० । बनाकर । (१) रच कर । 'तरु लेखनी बनाइ.. महिमा लिखी न जाइ।' वैरा० ३५ (२) संवार कर (भली प्रकार)। 'बई बनाइ बारि For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 682 तुलसी शब्द-कोश बदाबन ।' कृ० २६ (३) करके । 'लोक बिसोक बनाइ बसाए ।' मा० १.१६.३ (४) कृत्रिम रचना करके (बनावट करके)। 'प्रभु सों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो।' विन० १८२.६ बनाइस, ए, य, ये : आ०कवा०प्र० (सं० वान्यते>प्रा. वणावीअइ)। बनाया जाय । बेगि बिधान बनाइअ ।' पा०म० १२२ बनाइन्हि : बनाएन्हि । पा०म० ८७ बनाई : भूक०स्त्री०ब० । सजाई, रचाई। 'कुसुम-कली बिच-बीच बनाईं।' मा० १.२४३.७ बनाई : (१) बनाइ । सजाकर । 'लखन बान धनु धरे बनाई।' मा० २.१५१.४ (२) भूकृ०स्त्री० । रची, सजाई गयी। 'जहाँ स्वयंवर भूमि बनाई ।' मा० १.१३३.४ बनाउ, ऊ : सं०पु० (प्रा० वणाव)+कए० । रचना, सजावट । 'सात दिवस भए साजत सकल बनाउ ।' बर० २० मा० १.३०२.२ बनाएँ : क्रि०वि० (१) बनाए हुए (स्थिति में) । 'कपट विप्र बर बेष बनाएँ।' मा० १.३२१.७ (२) बनाने से । 'तुलसी बनी है राम रावरे बनाएँ। कवि० बनाए : भूकृ००ब० । सजाये, रचे । 'निज कर भूषन राम बनाए।' मा० ३.१.३ बनाएन्हि : आ०-भूकृ००+प्रब० । उन्होंने बनाया-ये । 'बास बनाएन्हि जाइ।' मा० २.१६६ बनाय : (१) बनाइ । गी० २.२८.५ (२) सं०पू० । बनाव, तैयारी, साधन । 'बने सकल बनाय ।' विन० २२०.६ बनाया : बनावा । रचा । 'सर मंदिर बर बाग बनाया।' मा० ६.५७.१ बनाये : बनाएँ । बनाने से । 'तेरे ही बनाये बलि बनेगी।' विन० १७६.५ बनाव : सं००। (१) रचना, साज-सज्जा । 'बरनि न जाइ बनाव ।' मा० १.६५.२ (२) शृगार, बेष रचना। 'निज निज आसन बैठे राजा । बहू बनाव करि सहित समाजा।' मा० १.१३३.५ (बनाव, बनावइ : आ.प्रए० (सं० वानयति>प्रा० वणावइ)। बनाता है, बनाए । 'चित्रकार स्वारथ बिनु चित्र बनावै ।' विन० ११६.४ बनावत : वकृ०० । बनाता-ते, करता-ते । 'मुनि जप तप जाग बनावत ।' विन० १८५.२ बनावन : भक० अव्यय । बनाने, सजाने । 'कहेउ बनावन पालकी ।' मा० २.१८६ बनावहिं : आप्रब० । बनाते-ती हैं । (१) गढ़ते-ती हैं । 'नाना जुगुति बनावहिं ।' क० ४ (२) सजाते हैं । 'घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं ।' जा०म० १८२ For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 683 बनावहि : आ०-आज्ञा-मए । तू बना। रचि रचि हार बनावहि ।' विन.. २३७.४ बनावा : भूक०० । बनाया । (१) किया। निश्चित किया । 'करत बिचारु न बनत बनावा ।' मा० १.४६.२ (२) सजाया, सँवारा । 'जटा मुकुट निज सीस बनावा।' मा० २.१५१.२ (३) निष्पन्न किया। 'आपु गई जहँ पाक बनावा।' मा० १.२०१.३ (४) रचा, निर्मित किया। 'हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।' मा० ५.५.८ (५) बनाव । साजबाज, शृंगार । ‘संग नारि बहु किएँ बनावा।' मा० ५.६.२ बनावै : (१) बनावइ । 'बिगरी बनाव कृपानिधि की कृपा नई।' विन० २५२.२ (२) भक० अव्यय =बनावन । बनाने । 'पटतर जोग बनावै लागा।' मा० २.१२०.५ बनि : (१) पूक० । बनकर, सज्जित होकर, घटित होकर । 'जद्यपि ताको सो मारग प्रिय जाहि जहाँ बनि आई ।' क० ५१ (२) सं०स्त्री० (सं० वणिजवणिज्या>प्रा० वणि)। व्यवसाय, वाणिज्य, पारिश्रमिक । 'बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्हि बिधि बनि भलि भूरी।' मा० २.१०२.६ (३) बनी। सजी हुई । 'चहुं पास बनि गजमनी ।' गी० ७.५.६ (४) मजदूरी। 'खेती बनि बिद्या बनिज ।' दो० १८४ बनिक : सं०प० (सं० वणिज - वणिक) । बनिया, व्यवसायी। मा० १.३.१२ बनिज : सं०स्त्री० (सं० वणिज्या>प्रा० वणिज्जा>अ० वणिज्ज)। व्यवसाय, दुकानदारी आदि । दो० १८४ बनितन, न्हि : बनिता+संब० । वनिताओं, स्त्रियों । 'तुलसिदास ब्रज बनितन को ब्रत समरथ को करि जतन निवारे ।' कृ० ५७ बनिता : सं०स्त्री० (सं० वनिता) । सुसज्जित स्त्री, पत्नी, प्रेयसी, सुन्दरी। मा०. २.७६ बनिहिं : बनिहैं । बनेंगे, योग्य होंगे। 'इंद्रिय-संभव दुख हरे बनिहिं प्रभु तोरे ।' विन० ११६.५ बनिहि : आ० म०प्रए० । बनेगा-गी। संगत होगा-गी। 'आन उपाय बनिहि नहिं बाता ।' मा० २.८५.८ बनिहैं : आ० भ० प्रब० । बनेंगे, उपयुक्त होंगे। 'अघ...अपनायेहि पर बनिहैं ।' विन० ६५.३ बनिहै : बनिहि । 'बनिहै बात उपाय न औरे ।' गी० २.११.२ बनी : भक स्त्रीब० । सची, रची। 'पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं।' कवि० १.६ For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 684 तुलसी शब्द-काश बनी : भूक०स्त्री०। (१) सजी, रचो। 'जस दूलहु तसि बनी बराता।' मा० १.६४.१ (२) सम्पन्न हुई, निभ गई । 'बनी तुलसी अनाथ की।' विन० २७६.३ बनु : बन+कए। मा० २.५५ बने : भूकृ००ब० । सजे, शृगार किये हुए । 'बने बराती बरनि न जाहीं ।' मा० १.३४८.४ बन : बनइ। (१) बनता है, बन सकता है । 'सेन बरनत नहिं बने ।' मा० ५.३ छं० १ (२) बन जाय । 'क्यों न बिभीषन की बने ।' गी० ५.४०.? बनेगी : आ०भ०स्त्री०प्रए० । ठीक रहेगी, बात उपयुक्त होगी । 'सहेहीं बनेगी सब ।' ___ कवि० ७.१३५ बनैहौं : आ०भ० उए ० । बनाऊँगा-गी (सजाऊँगी)। 'बाल बिभूषन बसन मनोहर अंगनि बिरचि बनहौं ।' गी० १.८.२ बन्यो : भूकृ००कए। रचा गया, सज्जित हुआ । फबा । 'पहुंची करनि, कंठ कठुला बन्यो।' गी० १.३२.२ बपत : वकृ.पु० (सं० वपत्) । बोता-ते, बोता हुआ, बोते हुए । 'बबुर बीज बपत ।' विन० १३०.२ बपु : सं०० (सं० वपुष) । शरीर । मा० १.८७ बपुरा : वि.पु. (सं० वत्र =धूलि>प्रा. वप्पुडा-संभवतः 'वप्रपुट' =धूल की पुड़िआ के अर्थ में मूलतः रहा होगा) । बेचारा, नगण्य , क्षुद्र । 'सिव बिरंचि कहुं मोहइ, को है बपुरा आन ।' मा० ७.६२ ख बपुरे : बपुर+ब० (प्रा० बप्पुडया) । बेचारे, तुच्छ । 'कहा कीट बपुरे नर नारी।' मा० २.२६.३ बपुष : बपु। मा०६६८.५ बबा : सं०० (फा० बाबा)। पिता। 'ज्यों बालक माय-बबा के।' विन २२५.४ बबुर : सं०पु० (सं० बबुर>प्रा० बब्बुर) । बबूल (वृक्षविशेष जो कांटेदार होता है)। कवि० ७.६६ बबूर : बबुर । मा० १.६६ छं० बबै : (दे० बबा) पिता ने । 'बबै ब्याह की बात चलाई ।' कृ० १३ बमत : वकृ०० । वमन करते हुए, उगलते हुए । 'रुधिर बमत धरनी ढनमनी ।' मा० ५.४.४ बमन : सं०पू० (सं० वमन)। उगाल, बान्त । 'तजत बमन जिमि जन बड़भागी।' मा० २.३२४.८ For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 685 बय : सं०स्त्री० (सं० वयस्>प्रा० वय नपु०) । जीवन की अवस्था (शैशव, यौवन ____ आदि) । मा० १.२२० बयउ, ऊ : भूकृ.पु०कए० (सं० उप्तम >प्रा० ववियं>अ० ववियउ) । बोया, बो दिया । 'तुम्ह कहुं बिपति बीजु बिधि बयऊ ।' मा० २.१६.६ बयदेही : बैदेही । मा० ३.५.६ बयन : (१) (सं० वचन>प्रा. वयण)। बचन । मा० १.३२६ छं० २ (२) (सं० वदन>प्रा० वयण) मुख । दे० बिधुबनी। बयबिरिष : वि० (सं० वयोवृद्ध) । वयस में बड़ा-बड़े । मा० २.११०.४ बयर : बैर । मा० १.१४ क । बयरु : बयर+कए । शत्रुता । 'बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।' मा० २.२३६.४ बयस : (१) बय । 'स्याम गौर मृदु बयस किसोरा ।' मा० १.२१५.५ (२) सं०० (सं० वैश्य>प्रा० वइस) । द्विजातिविशेष । बयस-सिरोमनि : (बयस+सिरोमनि) युवावस्था । 'बय किसोर सरि पार मनोहर, बयस-सिरोमनि होने ।' गी० २.२३.२ बयसु : बयस--कए । वैश्य (जाति) । ‘सोचिअ बयसु कृपिन धनवानू ।' मा० २.१७२.५ बयारि : सं०पू० (सं० वातालि>प्रा० वायालि)। वायु । मा० २.६७.६ बयारी : बयारि (सं० वाताली>प्रा० वायाली)। 'परम सुखद चलि त्रिविध ___ बयारी।' मा० ६.११६.७ बये : बए । बोए । 'बये बिटप बट बेलि ।' रा०प्र० २.३.३ अयो : बयउ । बोया हुआ । 'निज नयननि को बयो सब लुनिए।' कृ० ३७ बर : सं०पू० (सं० वर) । वरदान । 'देहु एक बर भरतहि टीका ।' मा० २.२६.१ (२) वि० । श्रेष्ठ । 'ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ।' मा० १.८.१२ (३) वरण किया हुआ =दूल्हा । 'बर दुलहिनि सकुचाहिं ।' मा० १.३५० ख (४) पति । 'सीता बर' । मा० ७.७८.४ (५) अपेक्षाकृत उत्तम, कुछ अच्छा। दे० बरु । (६) सं०० (सं० वट>प्रा० वड़) । बरगद । 'तुलसी भल बर तरु बढ़त ।' दो० ५२६ (७) बल । 'सपनेहूं नहीं अपने बर बाहै ।' कवि० ७.५६ बर, बरइ, ई : (सं० वृणोति>प्रा० वरइ) आ०प्रए । वरण करता या करती है (वर हेतु चुनती है)। 'बरइ सीलनिधि कन्या जाही।' मा० १.१३१.४ (२) पत्नी रूप में चुनता है । 'लछिमन कहा तोहि सो बरई ।' मा० ३.१७.१८ (३) (सं० ज्वलति>प्रा० वलइ) जलता या जलती है। "छबि गृहँ दीपसिखा जनु बरई ।' मा० २.२३०.७ बरउँ : आ० उए० (सं० वृणोमि>प्रा० वरमि>अ० वरउँ)। वरण करती हूं, पतिरूप में प्राप्त करती हैं। 'बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।' मा० १.८१.५ For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 686 तुलसी शब्द-कोश बरगद : सं०पू० । वट वृक्ष का फल । हन०३६ बरज, बरजइ : आ०प्रए० (सं० वर्जति) । रोकता है, रोके ; निषेध करता है करे । 'बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरज।' विन० ८६.४ बरजउँ : आ० उए । रोकता हूं, निषेध करता हूं। 'ता तें मैं तोहि बरजउँ राजा।' मा० १.१६६.१ बरजन : भक० अव्यय । रोकने, निषेध करने । 'रखवारे जब बरजन लागे ।' मा० ५.२८.८ बरजह : आ०मब० । रोको । 'तो मोहि बरजहु भय बिसराई ।' मा० ७.४३.६ बरजि : पूक । निषेध करके । 'जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे । मा० १.१२८.७ बरजिए, ये : आ०कवा०प्रए । रोकिए, डाँटिए। 'बेगि बोलि बलि बरजिये।' विन० ८.४ बरजित : भूक०वि० (सं० वजित)। रहित, त्यक्त । 'सकल दोष छल बरजित प्रीती।' मा० १.१५३.७ ।। बरजी : भूकृ०स्त्री०। रोकी गयी। 'स्यानी सखी हठि हौं बरजी।' कवि० ७.१३३ बरजे : भूक००ब० । रोके । 'प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।' मा० २.९६.४ बरज : बरजइ। बरजोर, रा : (१) वि० (सं० वर+जोड=श्रेष्ठ बन्धन अथवा बल+जोड़: बल का बन्धन) । बलिष्ठ, सुदृढ । 'को कृपाल बिन पालिहै बिरिदावलि बरजोर ।' मा० २.२६६ (२) क्रि०वि० । बलात्, जबर्दस्ती (छीनकर) । 'ले जातेउँ सीतहि बरजोरा।' मा० ६.३०.५ बरज्यो : भूक.पु कए । रोका । 'बिधि न बरज्यो काल के घर जात ।' विन २१६.२ बरत : (१) वकृ.पु । जलता-जलते । 'तहँ बरत देखहिं आगि ।' मा० ६.१०१.४ (२) बरण करता-करते। 'कुबरिहि बरत न नेकु लजाने ।' कृ० ३८ (३) सं०० (सं० व्रत) । 'कृपान धार मग चाल आचरत बरत को।' गी० ६.१२.१ बरति : (१) वक०स्त्री० । जलती, जलती हुई। कृ० ३० (२) पूकृ० (सं० वर्तयित्वा) । व्यवहार में लाकर । 'जनम पत्रिका बरति के देखहु मनहिं बिचारि ।' दो० २६८ बरतेउ : भूकृ००कए । बर्ताव किया। 'बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ ।' पा०म० २६ बरतोर : सं० । बालतोड़, बाल टूटने से बनने वाला एक प्रकार का फोड़ा। हनु० ४१ For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 687 बरतोरू : बरतोर+कए० । 'जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू ।' मा० २.२७.४ बरद : (१) वि० (सं० वरद)। वरदायक, अभीष्ट-दाता । (२) सं०० (सं. बलीवर्द>प्रा० वलिछ । बैल । 'बरद चढ़ा बर बाउर। पा०म० १०६ बरदा : (१) बरद+स्त्री० ! वर देने वाली, अभीष्टदात्री। (२) बरद। बैल । 'चढ़ यो बरदा घरन्यो बरदा है।' कवि०७.१५५ बरदान, ना : सं०० (सं० वरदान) । अभीष्ट वस्तु का दान ।' मा० २.२२.५ बरदानि : (बर+दानी) वर देने वाला । 'सीस बस बरदा बरदानि ।' कवि. ७.१५५ बरदानु, न : बरदान+कए । एकमात्र वर । होहु प्रसन्न देहु बरदान ।' मा० १.१४.७ बरदायक : (बर+दायक) । वर देने वाला=बरदानि ।' मा० १.२५७.७ बरदायनी : वि०स्त्री० (सं० वरदायिनी) । वर देने वाली । 'बरदायनी पुरारि पिभारी।' मा० १.२३५.१ . बरन : सं०० (सं० वर्ण) । (१) अक्षर । 'राम नाम बर बरन जुग।' मा० १.१६ (२) ब्राह्मण आति चार जातियां । 'बरन धर्म नहिं आश्रम चारी ।' मा० ७.६८.१ (३) वर्णमाला । 'बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ।' मा० १.२०.१ (४) रंग । 'पीत बरन ।' मा० ७.७३.३ 'बरन बरन बिकसे बनजाता।' मा० १.२१२.८ (५) प्रकार (तरह)। 'बरन बरन दिरदैत निकाया।' मा० ६.७९.४ (६) वर्णन । 'जाइ केहि बिधि बरन की।' पा०म०छं० ३ 'बरन बरनइ : आ०ए० (सं० वर्णयति)। वर्णन करता है, बखानता है। 'सहस बदन बरनइ पर दोषा ।' मा० १.४.८ बरनई : बरनइ । मा० १.३२४ छं. २ बरनउँ : आ० उए । वर्णन करता हूँ। 'बरनउँ राम चरित भवमोचन ।' मा० १.२.२ बरनत : वकृ०० । वर्णन करता-करते । 'बरनत बरन प्रीति बिलगाती।' मा० १.२०.४ बरनन : सं०० (सं० वर्णन) । बखान । मा० ७.६६ ख बरननि : बरन+संब० । वर्णों (अक्षरों) । 'सब बरननि पर जोउ। मा० १.२० बरननिहारु : वि०पु०कए० । वर्णन करने वाला । 'नहिं कोउ सुकबि बरननिहारु ।' गी० ७.८.५ बरनब : भकृ०० । वर्णन करना, बखान । मा० १.३७.२ बरनहि, हीं : आ०प्रब० । वर्णन करते हैं । 'बरनहिं तत्त्व विभाग ।' मा० १.४४ बरनहु : मा०मब० । वर्णन करो, बखानो। 'बरनहु रघुबर बिसद जसु ।' मा० १.१०६ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 688 तुलसी शब्द-कोश बरना : (१) बरनइ । वर्णन करता है। 'चातक बंदी गुन गन बरना।' मा० ३.३८.८ (२) भूक०० । वर्णन किया। निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना।' मा० १.६६.८ (३) वर्णन किया गया। 'दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।' मा० १.५.३ बरनाधम : वि० (सं० वर्णाधम) । जाति में नीच । मा० ७.१००.५ बरनाश्रम : सं०० (सं० वर्णाश्रम) । चार वर्ण = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र+आश्रमब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास । वर्ण धर्म तथा आश्रम धर्म । मा० ७.२० बरनि : (१) पूकृ० । वर्णन करके । 'लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं।' मा० १.६४.३ (२) बरने । वर्णन किये । 'बेदहूं बरनि ।' विन० १८४.४ बरनिअ, ए, य, ये : आ०कवा०प्रए । वर्णन किया जाय-की जाय । 'सिय बरनिम तेइ उपमा देई ।' मा० १.२४७.३ 'कलि करनी बरनिये कहां लौं।' विन. १३६.७ बरनिसि : आ०-भक०स्त्री०+प्रए । उसने बखानी। 'निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार ।' मा० ७.६७ ख बरनी : (१) भूकृस्त्री० । वर्णन की गई । 'करम कथा रबिनंदिनि बरनी।' मा० १.२.६ (२) बरनि । वर्णन कर (के)। 'चिता अमित जाइ नहिं बरनी।' मा० १.५८.१ बरनु : बरन+कए । वर्ण, रंग । 'घायल लखन बीर बानर-बरनु भो।' कवि० ६.५६ (वानर वर्ण=भूरा रंग।) बरने : भकृ.पु०ब० । बखाने, वर्णन किये । 'जिन्ह बरने रघुबर गुन ग्रामा।' मा० १.१४.४ बरनेउँ : आo-भूक००+उए । मैंने वर्णन किया। 'जस बरु मैं बरने तुम्ह पाहीं।' मा० १.६६.२ बरने : भक अव्यय । वर्णन करने । 'रामचंद्र गुन बरनै लागा।' मा० ५.१३.५ बरने : (१) बरनइ । वर्णन करे-कर सके । 'बरनै तुलसीदासु किमि ।' मा० १.१०३ (२) बरनै । वर्णन करने । 'श्रुति सारदा न बरनै पारा।' मा० ७.५२.२ ।। बरनौं : बरनउँ । वर्णन करू, वर्णन कर सकता हूं । 'बरनौं किमि तिन्ह की दसहि।' गी० २.१७.३ बरन्ह : बर+संब० । वरों (के), पतियों (के) । 'सुदरी सुदर बरन्ह सह ।' मा० १.३२५ छं०४ बरबर : बर्बर । पा०म० ६२ बरबरनी : सं०स्त्री० (सं० वरवर्णा=वरणिनी)। श्रेष्ठ रूपवती सुन्दर स्त्री। मा० २.११७.३ For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 689 बरबस : क्रि०वि० (सं० बलवश) । बलात, बलपूर्वक । 'बरबस राज सुतहि नृप दीन्हा ।' मा० १.१४३.१ बरबात : सं०स्त्री० (फा० बर-बस्त=कायदः) । रीति, चालढाल । 'निज घर की बरबात बिलोकहु, हो तुम परम सयानी।' विन० ५.२ बरम : सं०० (सं० वर्मन्) । कवच । गी० ७.३१.२ बररै : सं० (सं० वरटक>प्रा० वरडय) । बरं, भिड़ । 'बररै बालक एक सुभाऊ।' मा० १.२७६.३ बरष : (१) सं०० (सं० वर्ष>प्रा० वरिस) । बारह मास का समय । मा० १.७४.४ (२) बरषइ । बरसता है । 'सुमन सुर बरष ।' गी० १.५५.४ /बरष बरषइ, ई : आ०प्रए० (सं० वर्षति>प्रा० वरिसइ) । बरसता है । 'जौं बरषइ बर बारि बिचारू ।' मा० १.११.६; मा० ६.६७ छं० बरषत : वकृ०० । बरसता-ते; बरसाता-ते । 'सुर..'बरषत सुरतरु फूल ।' मा० २.३०८ बरषन : भक० अव्यय । बरसने, बरसाने । 'आराति "लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भांति ।' मा० ३.१६ क बरहि, हीं : आ०प्रब० । बरसते हैं, बरसाते हैं । 'बिपुल सुमन सुर बरहिं ।' ___ मा० ३.२७ बरषहु : आ०मब० । बरसो, बरसाओ। 'गगन जाइ बरषहु पट भूषन ।' मा० बरषां : वर्षा ऋतु ने । 'जनु बरषां कप प्रगट बुढ़ाई ।' मा० ४.१६.२ बरषा : सं०स्त्री० (सं० वर्षा) । सावन-भादों का ऋतुविशेष ।' मा० १.२६१.३ बरषासन : (सं० वर्षाशनवर्ष+अशन) एक वर्ष भर का भोजन । मा० २.८०.३ परषि : पूकृ० । बरस कर, बरसा कर । 'सब अमर हरष सुमन बरषि ।' मा० १.१०२ छं० बरषिहैं : आ० भ०प्रब० । (१) बरसेंगे । 'बरषिहैं कुसुम भानुकुल मनि पर।' गी० ५.५०.३ (२) बरसाएंगे। 'बरषिहैं सुमन सुर ।' गी० ५.५१.४ बरषी : बरषि । मा० ५.३४.८ बरणे : भूकृ००ब० । बरसे, बरसाये । 'फिर सुमन बहु प्रभु पर बरखे।' मा० ६.६७.२ बरषेउ : भूकृ००कए । बरसा, बरसाया । 'पुलक गात लोचल जल बरषेउ ।' ___ मा० ७.२.१ बरर्षे : बरहिं । 'बर मुसलधार बार बार घोरि के ।' कवि० ५.१६ बरषे : (१) बरषइ । बरसे । 'जौं धन बरष समय सिर ।' दो० २७८ (२) भक० भव्यय । बरसने, बरसाने । 'पुनि लाग बरष बालु ।' मा० ६.१०१.४ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 690 तुलसी शब्द-कोश बरषत : बरषत । कवि० ६.४७ बरस : बरिस, बरष । 'दस चारि बरस के दुख ।' गी० ६.२२.४ 'बरस बरसइ : बरषइ । 'ऊसर बरस मेह ।' दो० २६८ बरसत : बरसत (सं० वर्षत्>प्रा. वरिसंत) । दो० ४०२ बरसति : वकृ०स्त्री० । बरसती, वर्षा करती। 'सुरमंडली सुमन चय बरसति । गी० ७.१७.१२ बरसन : बरषन । मा० ३.१६ क (पाठान्तर)। बरहि : (१) बर+हि । वर के लिए। 'बोरे बरहि लागि तपु कीन्हा ।' मा० १.६७.२ (२) सं०० (सं० वहिन >प्रा० बरिहि) । मयूर । 'जन बर बरहि नचाव ।' मा० १.३१६ बरह्यो : भूकृ००कए । ('बरहा' उस नाली को कहते हैं जिसमें से पानी ले जाकर क्यारी तक पहुंचाया जाता है। उससे सींचने की क्रिया को 'बरहना' कहते हैं ।) बरहे से सींचा । 'सो थाक्यो बरह्यो एकहिं तक देखत इनकी सहज सिंचाई ।' कृ० ५६ बराइ, ई : पूकृ० (सं० वारयित्वा>प्रा० वराविअ>अ० वरावि) । (१) बचाकर, निरस्त करके । 'हम सब भाँति करब सेवकाई । करि केहरि अहि बाघ बराई।' मा० २.१३६.५ (२) छांट कर, चुनकर । 'फल खात बराइ बराइ।' रा०प्र० ५.३.७ (३) जलाकर । बराएँ : क्रि०वि० । बचाकर, बचाते हुए। 'सिय राम पद अंक बराएँ।' मा० १.१२३.६ बराक : वि.पु. (सं० वराक) । बेचारा, तुच्छ। 'को बराक मनुजाद ।' गी० ५.२२.५ बराकी : वि०स्त्री० (सं० वराकी)। तुच्छ, दीन, बेचारी। ‘महाबीर बांकुरे; बराकी बाँह पीर ।' हनु० २३ बराट : सं०पु० (सं० वराट) । कौड़ी। 'हौं लालची बराट को।' कवि० ७.६६ बरात : बराता । मा० १.६२.८ बरातहि : बरात को । 'लै अगवान बरातहि आए ।' मा० १.६६.१ बराता : सं०स्त्री० (सं० वरयात्रा>प्रा० वरयत्ता=वरत्ता) । मा० १.६२७ बरातिन्ह : बराती+संब० । बरातियों (ने) । 'रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे ।' मा० १.३३६.५ बराती : सं०+वि.पु. (सं० वरयात्रिन्>प्रा० वरयत्ती) । बरात के सदस्य गण। मा० १.४०.७ For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 691 बराबरि, री : (१) सं०स्त्री० । समानता । 'तो कि बराबरि करत अयाना ।' मा० १.२७७.२ (२) वि.स्त्री० । समान । 'सब पर मोरि बराबरि दात्या।' मा० ७.८७.७ (३) तुलनीय । 'नगरु कुबेर को सुमेरु की बराबरी ।' कवि० ५.३२ बराय : बराइ। (१) (सं० ज्वालयित्त्वा>प्रा० वलाविअ>अ० वलावि) । जलवाकर । 'मानिक दीप बराय बैठि तेहि आसन हो ।' रा०न० ७ (२) बरा कर, छाँट-चुनकर । 'निगम अगम मूरति महेसमति जुवति बराय बरी।' गी० १.५७.३ बरायन : सं०० (सं० वर= कुंकुम+अयन) । केसर आदि का पात्र, महावर का पात्र (?) । 'बिहँसत आउ लोहारिनि हाथ बरायन हो।' रा०न० ५। दरायो : भूकृ००कए । बराया हुआ, चुना हुआ। 'महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को।' हनु० १० बरासन : (बर+आसन) । श्रेष्ठ आसन । मा० ७.१००.६ बराह : बराह (भगवान्) ने । 'बराह.."अनायास उधरी।' मा० २.२९७.४ बराह, हा : (१) सं०पू० (सं० वराह) । सूअर। मा० १.१२२.७ (२) भगवान् का अवतार विशेष । बराहु, हू : बराह+कए । 'देखि बिसाल बराहु।' मा० १.१५६ बरि : पूक ० । वरण करके (चुन कर) । 'पूजी मन कामना भावतो बरु बरि के।' गी० १.७२.२ बरिप्राइ : बरिआई। बरिआई : बरिआई से, बलपूर्वक, जबर्दस्ती से । 'जीते सकल भूप बरिआईं।' मा० बरिपाई : सं०स्त्री० (सं० बलीयस्ता>प्रा० बलीआया>अ. बलीआई)। अति बलवत्ता (जबर्दस्ती) । 'चल न बिप्रकुल सन बरिआई ।' मा० १.१६५.५ बरिआता : बराता । बरात । मा० १.६५.७ ।। बरिमार, रा : वि०० (सं० बलीयस्तर>प्रा० बलीआर) । अत्यन्त बलशाली। 'तप बल बिप्र सदा बरिआरा ।' मा० १.१६५.३ बरिनिया : सं०स्त्री० । बारी जाति की स्त्री । रा०न० ८ बरिबंड, डा : वि०पु० (सं० बलिन्+बण्ड ==एकाकी)। अकेला = अद्वितीय बलवान् । बेजोड़ बली, अतुल्य शूर । 'मनुज कि अस बरिबंड।' मा० ३.२५; १.१७६.२ बरिबे : भक०० । वरण करने (ब्याहने) । 'बरिबे कों बोले बयदेही बरकाज के ।' कवि० १.८ बरिय : आ०कवा०प्रए । वरण कीजिए । 'न बरिय बर बोरेहि ।' पा०म० ५५ For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 692 www.kobatirth.org बरियाई : बरिआई । 'ए राखहि सोइ है बरियाई ।' कृ० ५६ बरियार : बरिआर । गी० २.२८.४ बरिसहि ।' मा० १.३२७ छं० १ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बरियो : वि०पु०कए० (सं० बलीयान् > प्रा० बलीयो ) । ' कोसल पति सब प्रकार बरियो ।' गी० ५.४६.४ बरिस: (१) बरष (सं० वर्ष > प्रा० वरिस ) । 'चौदह बरिस रामु बनबासी । ' मा० २.२६.३ (२) (समासान्त में) वि०पु० । वर्षा करने वाला । 'सुभाव सब सुख-बरिस ।' कवि० ७.११५ (३) दे० / बरिस | 'बरिस, बरिसइ : बरषइ । 'जन तहँ बरिस कमल सित नी ।' मा० १.२३२.२ बरसहि: बरह (सं० वर्षन्ति > प्रा० वरिसंति > अ० वरिसहि ) । 'सुर सुमन तुलसी शब्द- कं द-कोश बरिसा : (१) बरिसइ ( २ ) बरिसा । मा० ५.१५.३ बरिसि : बरषि (सं० वृष्ट्वा > प्रा० वरिसिअ > अ० वरिसि) । 'सुमन बरिसि सुर हनहि निसाना ।' मा० १.३०६.४ बरसो : भूकृ०पु० ए० । बरसा हुआ । 'राख को सो होम है, ऊसर को सो O बरिसो ।' विन० २६४.३ भूकृ०पुं० | बरसाया । 'बारिद तपत तेल जन बरिहि : आ०भ०प्र० (सं० वरिष्यति > प्रा० वरिहिइ ) । वरण करेगी । 'मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें ।' मा० १.१३३.६ बरी : भूकृ० स्त्री०ब० । वरण कीं, ब्याहीं । 'जीति बरीं निजबाहुबल बहु सुन्दर बर नारि ।' मा० १.१८२ ख बरी : (१) भूकृ० स्त्री० । वरण की, ब्याही । 'राम बरी सिय । मा० १.२६५.५ (२) सं० स्त्री० (सं० वटी > प्रा० वडी ) । बड़ा ( दही-बड़ा आदि ) । 'बरी बरी को लोन ।' दो० ५४६ ू For Private and Personal Use Only बरोसा : बरिस | 'पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ।' मा० ४.१२.७ बरु : वर+कए० । (१) वरदान । 'नृप सन अस बरु दूसर लेहू ।' मा० २.५०.४ (२) फिर भी अच्छा हो कि । 'राम दूत कर मरौं बरु । ' मा० ६.५६ ( ३ ) पति । 'जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मा० १.६९.२ (४) संभव है कि । 'भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू ।' मा० २.१६६.३ ( ५ ) बलु । 'दास तुलसी को बड़ो बरु है ।' विन० २५५.४ बरुकु : बरु । चाहे, भले ही संभव है कि । 'निज प्रतिबिंब बरुकु गहि जाई ।' मा० २.४७.८ बरुन : सं०पु० (सं० वरुण ) । जल के देवता । मा० १.१५२.१० बरुना : सं० स्त्री० (सं० वरुणा ) । काशी में गङ्गा की एक सहायक नदी । विन० २२.३ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 693 बिन बरुनालय : सं०पु० (सं० वरुणालय) । समुद्र । 'करुना बरुनालय साई हियो है।' कवि० ७.१५७ बरूथ : वरूथ । समूह । मा० ४.२१ बरूथन्हि : बरूथ+संब०। समूहों (को)। 'रथ बरू थन्हि को गर्न ।' मा० ५.३ छं० १ बरूथा : बरूथ । मा० १.१८१.५ बरे : भूकृ००ब० । (१) वरण किये (सं० वृत>प्रा. वरिय) । 'बरे तुरत.'' बिप्र ।' मा० १.१७२ (२) (सं० ज्वलित>प्रा० वलिय)। जले (जलने पर)। 'हरे चरहिं तापहिं बरे ।' दो० ५२ बरेखी : सं०स्त्री० (सं० वरेक्षा>प्रा० वरेक्खा)। वरान्वेषण; दूल्हे की खोज (या वर-वरण) । 'रहि न जाइ बिन किएं बरेखी।' मा० १.८१.३ बरेहु : (१) आo-भ०+आज्ञा+मब० । तुम (यज्ञ हेतु) वरण करना। 'नित नूत द्विज सहस सत बरेहु ।' मा० १.१६८ (२) आ०-भूकृ.पु +मब० । तुमने (पति रूप में) वरण किया। 'बरेहु कलेस करि बरु बावरो।' पा०म०ई०६ बर : बरइ । (१) वरण करे। 'जेहि प्रकार मोहि बरं कुमारी।' मा० १.१३१.७ (२) दग्ध होता है । 'जर बरै अरु खीझि खिझावं ।' वैरा० ५७ बरोरू : वि०स्त्री० (सं० वरोरू) । श्रेष्ठ ऊरुओं वाली । मा० २.२६.४ बर्ग : सं०० (सं० वर्ग) । समूह, जाति, सजातीय गण । मा० ७.११६.३ बजित : बरजित । रहित । बर० ३५ बर्न : बरन । वर्ण । 'बर्न बिभाग न आश्रम धर्म ।' कवि० ७.८५ बर्बर : वि० (सं०) । असभ्य, नीच, क्रूर । मा० ६.२५ बहि : बरहि । मयूर । विन० १४.७ बल : सं०० (सं०) । (१) शक्ति, पराक्रम । मा० ३.२.१२ (२) सेना । 'रिपु बल धरषि हरषि कपि ।' मा० ६.३५ क (३) कृष्ण के अग्रज राम । 'अति हित बचन को बल भैया।' कृ० १६ बल उ : बल तो। 'बिधि बस बल उ लजान, सुमति न लजावहु ।' जा०म०६० बलकल : सं०० (सं० वल्कल)। बक्कल =वृक्ष आदि की छाल । मा० २.६२ बलकहीं : आ.प्रब० (सं० वल्कयन्ति-वल्क शब्दे) । बकते हैं । 'बेद बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं।' कवि० ७.६८ बलकावा : भूकृ०० । बकवासी बनाया, ऊलजलूल कहलाया। 'जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा।' मा० ७.७१.२ बलदाऊ : (दे० बल तथा दाऊ) । कृष्ण के अग्रज बलराम । कृ० १२ For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 694 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश बलन : बल + संब० । बलों शक्तियों + सेनाओं (के) । 'जीते लोकनाथ नाथ बलनि भरम ।' विन० २४६.२ = Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलबीर, रा : बल में वीर, शारीरिक शक्ति में शूरवीर । ' सचिव सयान, बंधु बलबीरा ।' मा० १. १५४.२ बलमीक : सं०पुं (सं० वल्मीक ) । बामी = चींटी, दीमक आदि द्वारा बनाया हुआ मिट्टी का ऊँचा स्तूप जिसमें साँप का निवास माना जाता है । 'मरइ न उरग अनेक जतन बलमीक बिबिध बिधि मारे ।' विन० ११५.४ बलमूल: अत्यन्त शक्तिशाली । कवि० ५.७ बलय : सं०पु० (सं० वलय ) । चूड़ी, कंगन । 'मंजीर नूपुर बलय धुनि ।' गी० ७. १८.५ बलराम : कृष्ण के अग्रज के दो नाम हैं- बल तथा राम । हिन्दी में परशुराम और रामचन्द्र से अलग करने के लिए 'बलराम' कहा जाता है । बलवंत, ता: वि० ० (सं० बलवत् > प्रा० बलवंत ) । बलशाली । मा० ३.१६.१० बलवान, ना: बलवंत मा० । १.१२२; १.५६.६ बलवानु: बलवान + कए० । रा०प्र० ५.६.६ बलसालि, ली : वि०पु० (सं० बलशालिन) । बलवान् । मा० ५.२१.६ बलसींव, वा : (दे० सींवा ) । बल की सीमा, अत्यन्त बलशाली । 'कृपासिंधु बलसींव |' मा० ४.५ बलसोम : बलसीव । कवि० ६.४५ बलसील, ला : वि० (सं० बलशील) । बल ही जिसका शील हो = प्रकृत्या बल-शाली । मा० ६.२३.५ बलाइ : सं० स्त्री० (अरबी - बला) । संकट, विपत्ति | 'बानरु बड़ी बलाइ घने घर घालि है ।' कवि० ५.१० (२) अपने पर दूसरे की विपत्ति लेने के अर्थ में मुहावरा है । 'बलाइ लेउँ सील की ।' कवि० ६.५२ बलाक : सं० (सं० ) । एक प्रकार का बगुला । मा० १.३८.५ बलाहक : सं०पु० (सं० वलाहक) । मेघ । मा० ६.८७.४ 1 ' बलि : सं०पु० (सं०) । (१) दैत्यवंश का प्रसिद्ध राजा । 'सिबि दधीचि बलि ।' मा० २.३०.७ (२) देवोपहार, नैवेद्य, भेंट । 'बैनतेय बलि जिमि यह कागू मा० १.२६७.१ (३) यज्ञ में पशु बध । 'मैं एहि परसु काटि बलि दीन्हे ।' मा० १.२८३.४ (४) न्योछावर । 'भइ बड़ि बार जाइ बलि मेआ ।' मा० २५३.२ (५) अव्यय ( प्रा० वले) । भला बिचार तो करो कि । ' है निर्गुन सारी बारीक बलि ।' कृ० ४१ बलिछरन : वि०पुं० । दैत्यराज बलि को छलने वाले । विन० २१८.३ For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 695 बलित : भूकृ०वि० (सं० वलित) । वक्र, लहरदार । 'मंजु बलित बर बेलि बिताना।' मा० २.१३७.६ बलिदान : सं०० (सं०) । उपहार विशेष जिसे देवबलि, पितृबलि और भूतबलि (पशु-पक्षियों को देय अन्न आदि) भेदों में विभक्त किया है। गी० १.५.४ बलिपसु : यज्ञ में देवोपहार हेतु मारा जाने वाला पशु । मा० २.२२.२ बलिभागा : (सं० बलिभाग) प्रत्येक देवादि के उपयुक्त नैवेद्य का पृथक्-पृथक् अंश (दे० बलिदान) । मा० २.८.५ बलिहारी : (१) (दे० बलि) न्योछावर । 'रति सतकोटि तासु बलिहारी ।' मा० ३.२२.६ (२) मैं न्योछावर हो जाऊँ, धन्य हो (मुहावरा) । 'जैसे हो तैसे सुखदायक ब्रजनायक बलिहारी।' कृ०६ बली : बलवान (सं० बलिन्) । मा० ६.७८.८ बलीमुख : सं०पु० (सं० वलीमुख) । वानर (सिकुड़न युक्त मुख वाला) । मा० ६.४६.७ बलु : बल+कए । 'हरि माया बलु जानि जियें ।' मा० १.५१ बलया : सं०स्त्री० (अरबी-बलयत = बलैया) । ब्याधि, दुःख, दुश्चिन्ता (अपने ऊपर लेने का मुहावरा है)। 'राय दसरस्थ की बलैया लीजै आलि री।' कवि० २.१२ बल्लम : सं०+वि.पु. (सं० वल्लभ)। (१) प्रिय । 'समर भूमि भए बल्लभ प्राना ।' मा० ६.४२.८ (२) पति । 'बल्लभ गिरिजा को।' विन० १.२.११ (३) श्रेष्ठ, महान् । बल्लमहि : वल्लभा को, प्रिय पत्नी को। 'को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सका उपदेसि ।' मा० २.२८३ बल्लभा : बल्लभ+स्त्री० । प्रिया, पत्नी । गी० ३.१०.२ बल्लभी : बल्लभा । कृ० २२ बल्लव : सं०० (सं०) । अहीर । बल्लवी : बल्लव+स्त्री० । अहीरनी । बल्ली : सं०स्त्री० (सं० वल्ली) । लता । दे० भुजबल्ली । गी० २.४६.३ /बव बवइ : आ०प्रए० (सं० वपति>प्रा० ववइ)। बोता है। 'बवै सो लुन निदान ।' वैरा०५ बहिं : आ०प्रब० (सं० वपन्ति>प्रा. ववंति>अ० वहि) । बोते हैं । दो० ४८७ बवा : भक०० (सं० उप्त>प्रा० वविध)। बोया। 'बवा सो लनि ।' मा० २.१६.५ For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 696 तुलसी शब्द-कोश बर्व : बवइ। बस : (१) सं०पू० (सं० वश) । अधीनता । 'बिधि बस सुजन कुसंगति परहीं।' मा० १.३.१० (२) वि० (सं० वश्य)। अधीन । 'किए जेहिं जुग निज बस निज बूते।' मा० १.२३.२ (३) बसइ । रहता है। 'जहँ बस श्रीनिवास ।' मा० १.१२८.४ बसंत, ता : सं०० (सं० वसन्त) । चैत्र-वैशाख मासों का ऋतु । मा० १.३७.१२ बसंतु : बसंत+कए । 'और सो बसंतु, और रति और रतिपति ।' कवि० २.१७ 'बस बसइ : आ०प्रए० (सं० वसति>प्रा० वसइ)। रहता है, निवास करता है। 'तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा।' मा० १.१३०.२ बसई : बसइ । मा० २.१२३.३ बसउ : आ०-संभावना आदि-प्रए० (सं० वसतु>प्रा. वसउ)। चाहे रहे। 'बसउ भवन उजरउ नहिं डरऊँ ।' मा० १.८०.७ बसकरी : वि०स्त्री० (सं० वशकरी)। अधीन करने वाली । मा० ३.२६ छं. बसत : वक० । निवास करता-करते (रहते) । 'भवन बसत भा चौथ पन ।' मा० १.१४२ बसति : (१) बसत+स्त्री० । निवास करती। 'तव मूरति बिधु उर बसति ।' मा० ६.१२ क (२) सं०स्त्री० (सं० वसति)। आवास, शिविर, राजधानी आदि (बस्ती) । 'बिरची बिरंचि की बसति बिस्वनाथ की।' कवि० ७.१८२ बसतु : बसउ । निवास करे । 'बसतु मनसि मम काननचारी।' मा० ३.११.१८ बसन : सं०० (सं० वसन) । वस्त्र । मा० १.१०.४ बसब : भक०० (सं० वस्तव्य>प्रा० वसिअव्व) । (१) रहना, निवास करना। 'इहाँ बसब रजनी भल नाहीं।' मा० २.२८७.७ (२) रहना होगा (रहोगे)। 'जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि ।' मा० ७.११३ ख बसबर्ती : वि०पू० (सं० वशवर्तिन ) । अधीनस्थ । मा० १.१८२.१२ बससि : आ०मए० (सं० वससि) । तू रहता है । मा० ७.३४.७ बसहं : बैल पर । 'बरु बौराह बसहँ असवारा।' मा० १.६५.८ बसह : सं०० (सं० वृषभ>प्रा. वसह) । बैल । मा० १.३१५.३ बसहि, हीं : आ०प्रब० (सं० वसन्ति>अ० वसहि) । निवास करते हैं। 'बसहि राम सर चाप धर ।' मा० १.१७ बसहं : आ०-संभावना-प्रब० । रहें, निवास करें। 'गुर गह बसहं रामु तजि गेहू ।' मा० २.५०.४ बसहु : आ०मब० (सं० वसथ-त>प्रा. वसह>अ० वसहु) । निवास करो। 'बसहु जाइ सुरपति रजधानी।' मा० १.१५१.८ For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 697 /बसा बसाइ, ई : (१) आ.प्रए० (सं० वशायते>प्रा० वसाइ)। अपने वश में होता है । 'बिधि सन कछु न बसाइ ।' मा० २.१६१ (२) (सं० वासायते> प्रा० वासाइ) गन्ध बिखेरता है। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।' मा० १.१०.६ बसाइ : पूक० । बसाकर (सुस्थापित कर)। विधि को न बसाइ उजारो।' गी० २.६६.२ बसाइए : आ०कवा०प्रए० (सं० वास्यते>प्रा० वसावीआइ) । बसाया जाय । 'बैरख बांह बसाइए।' कवि० ७.६३ बसाइहौं : आ०भ० उए । बसाऊंगा-गी। 'आनंदनि भूपति भवन बसाइहौं ।' गी० १.२१.२ बसाई : (१) बसाइ । दे०/बसा । (२) बसाइ (पूक०)। बसाकर । 'नृप नगर बसाई-निज पुर गवने ।' मा० १.१७५.८ (२) भूक०स्त्री० । निवास योग्य बनाई । 'बिरचि बनाई बिधि केसव बसाई है।' कवि० ७.१८१ बसाए : भूकृ००ब० । निवास कराये, स्थापित किये। 'लोक बिलोक बनाइ बसाए।' मा० १.१६.३ बसानि : भूक० स्त्री० । वश में आई, निभी (चली) । 'बिधि सों न बसानि।' गी० ५.७.४ बसायो : भूकृपु०कए० । बसाया, स्थापित किया। 'कृपासिंधु सुग्रीव बसायो।' गी० ६.२१.२ बसावत : वकृ०० (सं० वासयत्>प्रा. वसावंत)। बसाता-ते । 'आप पाप को नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो।' विन० १४३.४ बसावन : वि.पु । बसाने वाला। 'उथपे थपन उजारि बसावन ।' विन० १३६.१२ बसावौं : आ०उए० (सं० वासयामि>प्रा. वसावेमि>अ० वसावउँ)। बसाता हूं। 'हौं निज उर' 'खल मंडली बसावौं ।' विन० १४२.५ बसि : पूक० । बसकर, निवास करके । 'बन बसि कीन्हे चरित अपारा ।' मा० १.११०.७ बसिम : आ०भावा० । निवास कीजिए। 'राम समीप बसिअ बन तबही ।' मा० २.२८०.५ बसिबे : भकृ०पु० । निवास करने । 'मुख्य रुचि होत बसिबे की पुर रावरे । विन० २१०.३ बसौं : आ०उए० (सं० वसामि>प्रा० वसमि>अ० वसउँ)। रहूं, रहता होऊँ । ___ 'क्यों बसौं जमनगर नेरे।' विन० २१०.३ बसिष्ट : बसिष्ठ । मा० १.१६७ बसिष्टु : बसिष्ठ । मा० १.३५८.३ For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 698 तुलसी शब्द-कोश बसिष्ठं : वसिष्ठ ने । 'जनक दूत' मुनि बसिष्ठ.. बोलाए ।' मा० २.२७०.४ बसिष्ठ : सं०पू० (सं० वसिष्ठ) । रघुकुल के पुरोहित मुनिविशेष । मा० १.१८६.३ बसिष्ठ : बसिष्ठ+कए । केवल वसिष्ठ । 'तब नरनाह बसिष्ठु बोलाए।' मा० २.६.१ बसिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० वत्स्यन्ति>प्रा० वसिहिति>अ० वसिहिहिं)। ___ रहेंगे । 'सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें।' मा० ७.८५.६ बसिहि : आ०भ०प्रए० (सं० वत्स्यति>प्रा० वसिहिइ)। रहेगा-गी, निवास ____ करेगा-गी। सिय बन बसिहि तात केहि भांती।' मा० २.६०.४ बसी : भू ..स्त्री० । बस गई (स्थिर हो गई)। 'कुमति बसी उर तोरें ।' मा० २.३६.१ बसीठ : संपु० (सं० विसृष्ट = भेजा हुआ>प्रा० वसिट्ठ) । दूत । 'प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती।' मा० ६.६.१० बसीठी : दूत कार्य में, दूत कर्म वश । 'दसमुख मैं न बसीठी आयउँ ।' मा० ६.३०.२ बसीठी : सं०स्त्री० (सं० विसष्टि>प्रा. वसिट्ठी) । दूतकर्म, दौत्य । ‘गयउ बसीठी बीर बर ।' मा० ६.६७ क बसु : सं०पु० (सं० वसु) । (१) धन । जैसे, वसुधा। (२) आठ देवविशेष = आप, ध्र व, सोम, घर, अनल, अनिल, प्रत्यूष और प्रभास । (३) (उक्त आधार पर) माठ संख्या। दो० ४६६ बसुधा : सं०स्त्री० (सं० वसुधा) । पृथ्वी। मा० १.२०.७ बसुधातल : पृथ्वी पर । 'सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि ।' मा० १.३१.८ बसुधाहूं : पृथ्वी में भी । कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूं।' मा० २.२०६.६ बसूला : सं०पू० (सं० वासि>प्रा. वासुल्ल)। बढ़ई का एक उपकरण जिससे __ लकड़ी काटने-छीलने का काम किया जाता है। मा० २.२१२.३ । बसे : भूकृ०पु०ब० (सं० उषित>प्रा० वसिय)। रहे, निवास किया । 'बसे सुखेन राम रजधानी ।' मा० २.३२२.८ बसेउँ : आ०-भूकृ००+उए । मैंने निवास किया, मैं रहा। 'बसेउँ अवध बिहगेस ।' मा० ७.१०४ ख बसेउ, ऊ : भूकृ०पु०कए० । बस गया, टिक गया। मा० १.८.८ 'मंदोदरी सोच उर बसेऊ ।' मा० ६.१४.६ बसेरा : सं० । आवस, निवासस्थल । मा० २.३८.४ बसेरें : बसेरे से, बसने से । 'उजरें हरष बिषाद बसेरें।' मा० १.४.२ बसेरे : बसेरा+ब० । 'नपट बसेरे अघ औगुन घनेरे नर ।' कवि० ७.१७४ बसें : बसहिं । निवास करें। 'बसै सुवास सुपास होहिं सब ।' कृ० ४८ For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 699 बस : बसइ । 'जनक नाम तेहि नगर बस नरनायक ।' जा०म०६ बसैया : वि० निवास करने वाला-वाले । गी० १.६.६ बसहैं : आ०म०प्रब० (सं० वासयिष्यन्ति>प्रा. वसाविहिति>अ० वसाविहिहिं)। बसाएंगे (स्थापित करेंगे) । 'अभय बाँह दै अमर बसैहैं।' गी० ५.५१.४ । बसंहौं : बसाइहौं । 'मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसहौं ।' विन० १०५.३ बस्तु : सं०स्त्री० (सं० वस्तु-नपु०)। मा० १.१०.१० बस्य : वि० (सं० वश्य) । वशीभूत, अधीन । 'काल बस्य उपजा अभिमाना।' ___ मा० ६.८.६ बस्यो : बसेउ । 'तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह ।' दो० २९४ 'बह बहइ, ई : आ०प्रए० (सं० वहति>प्रा. वहइ)। (१) प्रवाहित होता-ती है । 'बह समीप सुरसरी सुहावनि ।' मा० १.१२५.१ 'जलु लोचन बहई ।' मा० २.६०.६ (२) तरङ्गों में गति लेता है-लेती है; चलता-ती है। 'त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी ।' मा० २.१३७.८ (३) कारगर होता है, कार्य में समर्थ गति लेता है । 'बहइ न हाथु दहइ रिपु छाती।' भा० १.२८०.१ (४) धारा में बहा कर ले चलता है । जलधि अगाध मौलि बह फेनू ।' मा० १.१६७.८ (५) धारण करता है। (६) भार ढोता है। बहत : वकृ.पु । बहता-बहते । (१) चलता। 'बहत समीर विबिध ।' मा० २.३११.६ (२) धारण करता । 'सेवक सुखद बांको बिरद बहत हौं ।' विन० ७६.३ बहति : वकृ०स्त्री० । बह रही । मा० ६.८७ छं० हतु : बहत+कए । अकेला वहन (धारण) करता। 'बांको बिरुद बहतु हौं।' कवि० १.१८ बहते : क्रियाति००० । यदि धारण करते, वहन करते । 'जो अति बांकुर बिरद न बहते । तो "तुलसी से 'सुगति न लहते ।' विन० ६७.५ बहनु : बहत= बाहन+कए । सवारी । 'बषभ बहन है ।' कवि० ७.१६० बहराइच : उत्तर प्रदेश में नेपाल सीमा का एक नगर जहाँ ग्राजी मियाँ (मुहम्मद गौरी के सेनानायक सैयद सालार) की कब्र है जिसे दरगाह कहते हैं । वहाँ मेला लगता है और माना जाता है कि दरगाह के पानी में नहाने से कोढ़ अच्छा होता है। यह भी कहा जाता है कि पहले यहाँ 'बालार्क कुण्ड' था जिसमें स्नान कर लोग रोगमुक्त होते थे, उसी पर मकबरा बनाया गया और अब उसी की मान्यता हो चली है। 'कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ।' दो० ४६६ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 700 तुलसी शब्द-कोश बहरी : सं० । बाज जाति का बड़ा शिकारी पक्षी (जो चील के आकार का होता है) । 'तीतर तोम तमीचर सेन समीर को सूनु बड़ो बहरी है।' कवि० बहसि : वहसि । तू बहता-ती है । 'बिपुल बिमल बहसि बारि।' विन० १७.२ बहहि, हीं : आ० प्रब० (सं० प्रा० वहन्ति>अ० वहहिं)। बहते-ती हैं । (१) धारा में विवश गति लेते हैं । 'बह भट बहहिं चढ़े खग जाहीं।' मा० ६.८८.६ (२) ढोते हैं । 'भार बहहिं खर बद।' मा० ६.२६ (३) धारा में ले चलते ती हैं । 'सरिता सब पुनीत जलु बहहीं।' मा० १.६६.१ बहहू : आ० मब० (सं० वहथ>प्रा. वहह>अ० वहहु) । ढोते हो, धारण करते हो । 'मुधा मान ममता मद बहहू ।' मा० ६.३७.५ बहाइ, ई : (१) प्रकृ० । बहाकर, प्रवाहित कर । 'बानरु बहाइ मारो महावारि बोरि के ।' कवि० ५.१६ (२) नष्ट करके । 'कुल समेत रिपु मूल बहाई । चौथे दिवस मिलब मैं आई।' मा० १.१७१.५ ।। बहाओ : आ०मब० (सं० वाहयत>प्रा० वहावह>अ० वहावहु) । प्रवाहित करो, दूर फेंको, हटावो। 'तुलसिदास सो भजन बहाओ जाहि दूसरो भाव ।' कृ०३३ बहायो : भूकृपु०कए । धो फेंका, नष्ट कर डाला । 'रावन सकुल समूह बहायो।' गी० ६.२१.३ बहाव : बहावइ । आ०ए० (सं० वायति>प्रा. वहावइ) । दूर करता है। 'मोह अंध रबि बचन बहावं ।' वैरा० २२ बहावौं : आ० उए० (सं० वाहयामि>प्रा. वहावमि>अ. वहावउँ)। धो डालं, प्रवाहित कर सकता हूं, मिटा डालता हूं। 'सबहि को पापु बहावौं ।' गी० बहि : पूर्व ० । बह कर, धारामग्न होकर । 'कपट प्रीति बहि जाउ।' गी० ५.४५.४ बहिनि, नी : संस्त्री०। (सं० भगिनी>प्रा० भइणी= बहिणी)। बहन । मा० ३.१७.३ बहिबे : भकृ०० । धारा वाहिक गति लेने, निर्वाह करने। 'गाड़े भली उखारे __ अनुचित बनि आए बहिबे ही।' कृ० ४० बहिबो : भकृ००कए। बहना। 'देखिबो बारि बिलोचन बहिबो।' गी० ५.१४.३ बही : भूकृ०स्त्री०। (१) बह चली। 'जुगल नयन जलधार बही।' मा० १.२११ ई० (२) बह गयी, धुल गयी। 'प्रभु पद प्रीति सरित सो बहो।' मा० ५.४६.६ (३) चली । 'बड़ी बयारि बही है।' गी० ५.२४.२ For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 701 नहु : (१) वि० (सं०) । बहुत, अधिक, प्रचुर । मा० १.२.१३ (२) बधू । दे० - सुत बहु । बहुत : वि० (सं० प्रभूत>प्रा० बहुत्त । अधिक, प्रचुर । मा० १.८.१२ बहुतक : (बहुत+एक) बहुत सा, बहुत से । 'बहुतक बीर होहिं सत खंडा।' मा० ६.६८.५ बहुतन, न्ह : बहुत+संब० । बहुतों (के) । 'बहु तेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।' मा० ७.३१.२ बहुताई : सं०स्त्री० (सं० प्रभूतता>प्रा० बहुत्तया)। अधिकता, प्रचुरता, विशालता ।' चितव कृपाल सिंधु बहुताई ।' मा० ६.४.३ बहुते : बहुत (रूपान्तर) । 'बहुते दिनन्ह की न्हि मुनि दाया।' मा० १.१२८.६ बहुतेन्ह : बहुतन । मा० ७.३१.२ बहुतेरे : वि०पू०ब० (सं० प्रभूततर>प्रा० बहुत्तयर=बहुत्तयरय)। अति प्रचुर, अत्यधिक । 'पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।' मा० ६.७८.२ बहुतेरो : वि०पु०कए । बहुत-सा, अत्यधिक । 'कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।' कवि० ७.३५ बहुधा : अव्यय (सं.)। बहुत प्रकार, बहुत करके, अधिकतर । 'धनहीन दुखी ममता बहुधा ।' मा० ७.१०२.१ बहुनामिनी : वि०स्त्री० । बहुत नामों वाली । विन० १८.२ बहुबाहू : बहुत भुजाओं वाला =रावण । मा० ३.२६.१६ बहुमाना : (सं० बहुमान) । अतिशय सम्मान । मा० १.१०३.२ बहुमोल : वि० (सं० बहुमूल्य>प्रा० बहुमोल्ल) । महँगा । विन० १७६.४ बहुरंग, गा : विविध रंगो वाला-वाले । मा० १.४०; १.१२६.२ बहुरहि : आ०प्रब० । लौटते हैं, लौट सकते हैं । 'मातु कहें बहुरहिं रघुराऊ ।' मा०. २.२५३.४ बहुरि : पूकृ० । (१) लोट आकर । 'चलिहउँ बनहि बहरि पग लागी।' मा० २.४६.४ (२) फिर, पुनः । 'बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ ।' मा० १.४.१ बहुरिअ, य : आ० भावा० । लौट चलिए। बहुरिअ सीय सहित रघुराई ।' मा० २.२६६.१ बहुरूप : वि० (सं.)। विविध रूपों तथा आकारों वाला-वाले । 'बहुरूप निसिचर जूथ ।' मा० ५.३ छं० १ बहुरे : भूकृपुब० । लौट चले । 'बहुरे लोग रजायसु भयऊ ।' मा० १.३६१.३ बहुरो : फिर भी । 'बहुरो भरत कह्यो कछु चाहैं ।' गी० २.७३१ बहुल : वि० (सं०) । प्रचुर, अधिक, अतिमात्र । विन० ५४.६ For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 702 तुलसी शब्द-कोश बहुटिन्ह • बधूटिन्ह । 'सहित बधूटिन्ह कुअर निहारे ।' मा० १.३५४.२ बहूता : बहुत । 'तै निसिचर पति गर्ब बहूता।' मा० ६.३०.७ बहे : भूकृ०० । (१) धारा में पड़े हुए । 'बहे जात कइ भइसि अधारा ।' मा० २.२३.२ (२) प्रवाहित हुए। 'पुलक गात जल नयन बहे री।' गी० २.४२.३ बहेरे : (बहेरा का रूपान्तर) सं०० (सं० बिभीतक>प्रा. बहेडय) । फल वृक्ष विशेष (बहेड़ा त्रिफला में गिना जाता है)। 'बबुर बहेरे को बनाइ बागु लाइयत ।' कवि०७ ६६ बहै : बहइ । बह जाता है । 'सुरसरी बहै गज भारी।' विन० १६७.२ बहोर : वि.पु । बहोरने वाला, लोटा लाने वाला । 'गई बहोर ।' मा० १.१३.७ बहोरि : (१) बहुरि । 'जौं बहोरि कोउ पूछन आवा।' मा० १.३६.४ (२) बहोरने ___ की क्रिया अथवा बहोरने वाला=बहोर । 'गई बहोरि बिरद सदई है।' विन० १३६.१२ बहोरी : बहोरि, बहुरि । फिर । 'प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी ।' मा० १.१६.२ बह्यो : भूक००कए । बहा (बिगड़ा) । 'ह्या कहा जात बह्यो ।' गी० २.८४.१ बांक : बंक । टेढ़ा । 'होइहि बारु न बाँक ।' रा०प्र० ६.३.४ बांकी : वि०स्त्री० (सं० वक्रा>प्रा० वंकी)। (१) टेढ़ी+सुन्दर । 'चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी।' मा० १.२१६.८ (२) भङ्गिमायुक्त । 'पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी ।' मा० २.११७.६ (३) तिरछी (चुभी हुई सी)। रघुबर बिरह पीर उर बांकी।' मा० २.१४३.४ (४) कुटिल, प्रतिकूल । 'सोय मातु कह बिधि बुधि बाँकी।' मा० २.२८१.८ बांकुर : वि०पु० (सं० वक्र>प्रा० बंक =बंकुड) । कुटिल, उत्साही, निपुण । 'अति ___ बाँकुर बिरद न बहते।' विन० ९७.५ बाँकरा : बाँकुर । 'रन बांकुरा बालि सुत बंका ।' मा० ६.१८.२ बाँकुरे : (१) 'बाँ कुरा'+ब० । 'रन बांकुरे बीर अति बाँके ।' मा. ६.३७.४ (२) सम्बोधन । हनु० २३ बांकरो : बाँकुरा+कए । हनु० ३ बाँके : बाँक+ब०। (१) विषम, दुर्गम । 'नाघत सरित सैल बन बाँके ।' मा० २.१५८.१ (२) दुर्लङ घ्य । 'लंका बाँके चारि दुआरा ।' मा० ६.३६.२ (३) क्रूर, कठोर । 'रन बाँकुरे बीर अति बाँके ।' मा० ६.३७.४ बांको : बाँक+कए । विषम, वक्र, क्रूर । 'छोनिप छपन बांको बिरुद बहुत हौं ।' कवि० १.१८ बांचत : व.पु(सं० वाचयत्) । पढ़ता-पढ़ते । 'बारि बिलोचन बाँचत पाती।' मा० १.२६०.४ For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 703 बांचा : भूकृ००। (१) बचा, शेष रहा । 'सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा।' मा० १.१७५.७ (२) बचाया (उपेक्षित किया)। 'बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।' मा० १.२७५.४ बांचि : पूकृ० । बच (कर), रक्षित हो (कर) । 'बड़े ही की ओट बलि बांचि आए छोटे हैं।' विन० १७८.४ (२) पढ़कर। बोचिअ : आ० भावा० । बचा जाय, बचे रहा जा सके। 'देखब कोटि बिआह जियत जो बांचिअ ।' पा०म० १०७ । बांचिहै : आo-भ०-प्र०+मए । बचेगा, रक्षा पायेगा। 'बांचिहै न पाछे त्रिपुरारिहू मुरारिहू के ।' कवि० ६.१ बांची : (१) बांचि । पढ़कर। 'नर के कर आपन बध बांची हसेउँ ।' मा० ६.२६.२ (२) भूक०स्त्री०। पढ़ी। 'पुनि धरि धीर पत्रिका बांची।' मा० १.२६०.६ (३) बची, शेष रही। 'बांची रुचिरता रंची नहीं।' जा०म०/०४ (४) बचा गई, छोड़ गयी। 'सो माया रघबीरहि बांची।' मा० ६.८६.७ बांचे : भूकृ.पुब ० । बचे रहे। 'जे नारि बिलोकनि बान ते बाँचे ।' कवि० ७.११८ बांचो : (१) बाँच्यो । बच गया। 'बड़ी ओट राम नाम की जेहि लई सो बांचो।' विन० १४६.६ (२) आ०-प्रार्थना-मब । पढ़ो। 'बिनय पत्रिका दीन की वापु आपु ही बांचो।' विन० २७०.३ बांच्यो : भूकृ००कए । बच गया। 'तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो।' मा० ६.६४.७ बांझ, झा : वि.स्त्री० (सं० वन्ध्या>प्रा. वंझा>अ० वंझ)। प्रसवहीन स्त्री। मा० १.६७.४; २.१६४.४ बांट : सं०पु० (सं० वट) । भाग (बँटवारे में प्राप्य अंश)। 'बिप्रद्रोह जनु बाट पर्यो ।' विन० १४२.८ बाटि : पूकृ० (सं० वण्टयित्वा>प्रा० वंटिअ>अ० वंटि)। बाँट कर, विभक्त ____ करके । 'जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे ।' मा० १.१७६.७ बांटी : भूक०स्त्री० । विभक्त कर ली। 'बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई ।' मा० २.३०६.६ 'बाँध बाँधइ : आ०प्रए० (सं० बध्नाति>प्रा० बंधइ)। बांधता है। 'मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।' मा० ५.४८.५ बांधत : वकृ.पु । बांधता-बांधते । 'जटजूट बांधत।' मा० ३.१८ छं० ।। बाँधहु : आ०मब० (सं० बध्नीत>प्रा० बंधह>अ० बंधहु)। बांध लो (बन्दी बनाओ) । 'धरि बाँधहु नप बालक दोऊ ।' मा० १.२६६.३ For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 704 तुलसी शब्द-कोश बांधा : (१) भूक०० । कसा । 'मग बिलोकि कटि परिकर बांधा। मा० ३.२७.७. (२) (बांध) बनाया। 'बाँधा सेतु ।' मा० ६.३.७ (३) सेतु द्वारा प्रवाह पर मार्ग बनाया। 'बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई ।' मा० ६.२८.१ बांधि : प्रकृ० । बाँध कर । (१) लपेट कर, कस कर । ‘तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।' मा० ५.२४ (२) बन्दी बनाकर । 'बानरु बेचारो बाधि आन्यो हठि हार सों। कवि० ५.११ (३) सेतुबद्ध करके। 'बाँधि बारिधि...." दोउ बीर मिल हिंगे।' गी० ५.६.४ बाँधिए, ये : आ०कवा०प्रए । बांधा जाय । 'बेगि बाँधिए ब्याधि ।' दो० २४२ बांधिबे : भकृ०० । बाँधने । 'बाँधिबे को भव गयंद रेनु की रजु बटत ।' विन० १२६.३ बांधियगी : आ०भ०स्त्री०कवा०प्रए । बांधी जायगी। 'अब बाँधियगी कछु मोट कला की।' कवि० ७.१३४ बाँधिहै : आ०भ०प्रए । बाँधेगा, बांधकर बनायेगा । 'अब तुलसी पूत रो बाँधिहै।' विन० २४१.५ (दे० पूतरो)। बांधी : (१) बाँधि । बन्दी बनाकर। 'तिन्हहि जीति रन आनेसु बांधी।' मा० १.१८२.३ (२) भूक०स्त्री० । बन्धन में पड़ी, रुद्ध की हुई । 'कामधेनु कृपा... मरजाद बाँधी रही है ।' गी० १.८७.४ (३) मर्यादाबद्ध की (प्रतिष्ठित की)। 'बेद बाँधी नीति ।' गी० ७.३५.२ बाँधे : (१) बाँधे हुए (स्थिति में) 'कटि तूनीर पीत बट बाँधे ।' मा० १.२४४.१ (२) दृढता से संभाले हुए । 'बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े।' मा० १.२६६.१ । बाँधे : भूक०० ब० । (१) मर्यादित किये। 'बाँधे घाट मनोहर ।' मा० ७.२८ (२) बन्दी बनाये गये । 'के व भाजे आइहै के बांधे परिनाम ।' दो० ४२२ (३) बांधे जाने । 'मोहि न कछु बांधे कइ लाजा।' मा० २.२२.६ बांधेउँ : आ०-भूकृ.पु+उए । मैं बांधा गया-बन्दी बनाया गया। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ।' मा० ५.२२.५ बाँधेउ : भूक.पु.कए । बाँध लिया। 'खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम।' मा० ७.५८ बांधेसि : आ०-भूक ००+प्रए० । उसने बाँधा । 'नागपास बाँधेसि ले गयऊ।' मा० ५.२०.२ बांधेसु : आ०-भ० + आज्ञा+मए । तू बाँधना, बन्दी बना लेना । 'मारसि जनि सुत, बाँधेसु ताही ।' मा० ५.१६.२ बाँध : (१) बाँधइ । (२) मए । तू बाँध। 'तात बाँध जिनि बेरै ।' गी० ५.२७.३ For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बो : बाँध्यो । 'छूटिबे के जतम बिसेष बाँधो जायगो ।' विन० ६८.४ यो बाँधे उ । सेतुबद्ध किया । 'बाँध्यो बननिधि | मा० ६.५ मन: सं०पु० (सं० ब्राह्मण > प्रा० २. १४७.३ 705 बम्हण > अ० बंभण ) । विप्र । मा० वो: सं०पु० ए० (सं० वामम् > प्रा० वामं > अ० वावँउ ) । बाँया । 'जो दसकंठ दियो बाँवो ।' गी० १.८९.२ ( बायाँ देना == उपेक्षा करना, टालमटूल करना) । बाँस : सं०पु० (सं० वंश > प्रा० वंस) । (१) वेणु वृक्ष । रा०न० ३ (२) लाठी ( बाँस की ) । ' फरसा बाँस सेल सम करहीं ।' मा० २.१६१.५ (३) लग्गी । 'बाँस पुरान साज सब अठकठ ।' विन० १८६.२ बहि: बाहु (सं० बाहु = बाहा) । (१) भुज । मा० ३.२२.१ ( २ ) आश्रय, शरण ( मुहावरा ) । 'लाज बाँह बोले की ।' कवि० ६.५३ बांहपगार : (दे० पगार) चारदीवारी के समान रक्षक बाहुबल वाला = शरणदाता | हनु० ३६ बाँह पगारु : बाँहपगार + कए० । एकमात्र शरणदाता । 'बाँहपगारु बोल को रच्छक ।' गी० ५.३५.४ बाँहबोल : शरण देने का वचन । विन० २७६.६ बाँहु : बाहु | बाइ : पूकृ० ! (सं० व्यादाय) | फैलाकर, फाड़कर । 'मुख बाइ धावहि खान ।' मा० ६.१०१ छं० ३ बाउ, ऊ : बाय +कए० । वायु । मा० १.२८०.४ बाउर : वि०पु० (सं० वातुल > प्रा० वाउल्ल प्रलापी) । (१) पागल या विक्षिप्त । 'तेहि जड़ बरु बाउर कस कीन्हा । मा० १.६६.८ ( २ ) प्रलापी = कुछ का कुछ बक जाने वाला | 'मोन मलिन मैं बोलब बाउर ।' मा० २.२६३.५ बाउरि : बाउर + स्त्री० । विक्षिप्ता । 'बौरेहि के अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि । पा०मं० ६३ बाऊ : बाउ | 'सीतल मंद सुरभि बह बाऊ ।' मा० १.१६१.३ बाएँ : (१) क्रि०वि० (सं० वामे ) । प्रतिकूल । 'जे बिनु काज दाहिनेहुं बाएँ ।' मा० १.४.१ (२) बांयी ओर । 'छींक भइ बाएँ ।' मा० २.१६२.४ (३) उलट कर । 'आयउँ लाइ रजायसु बाएँ । मा० २.३००.१ For Private and Personal Use Only वाक्यग्यान : (सं० वाक्य-ज्ञान) जीवनचर्या में बिना उतारे हुए कोरा शास्त्रीय अर्थज्ञान ( आचार्य रामानुज ने ज्ञान की दो कोटियों की हैं - वाक्य ज्ञान और उपासना) । उपासनाहीन ज्ञान । 'बाक्यग्यान अत्यंत निपुन भय पार न पार्व कोई ।' विन० १२३.२ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 706 तुलसी शब्द-कोश बाग : (१) सं०पु० ( फा० बाग) | मेवा आदि का उद्यान । मा० १.३७ (२) सं०स्त्री० (सं० वाच् - बाग्) वाणी । 'मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन ।' मा० २.४१.६ (३) सं०स्त्री० (सं० वल्गा > प्रा० वग्गा > अ० वग्ग ) । घोड़े की लगाम । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बागत: वकृ०पु० (सं० वल्गत् - वल्ग गती > प्रा० वग्गंत ) । चलता-चलते । 'जागत बागत बैठे बागत बिनोद मोद।' हनु० १२ बागन्ह : बाग + संब० । उद्यानों (में) । ' बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं ।' मा० २.८३.८ बागवान : सं०पु० (सं० बागबान ) । बाग का रक्षक = माली । कवि० ५.३१ बाह, हीं : आ०प्र० (सं० वल्गन्ते > प्रा० वग्र्गति > अ० वग्र्गर्हि) | बकवास करते हैं; (अपनी प्रशंसा में ) उछलते हैं । 'एक करहि कहत न बागहीं ।' मा० ६.६० छं० बागा : बाग । उपवन । मा० १.४०.६ बाग है : आ० ए० ए० (सं० वल्गिष्यति, वल्गिष्यसि > प्रा० affes, afग्गहिसि > अ० वग्गहि, वग्गहिहि ) । भटकेगा, दौड़ता - भागता घूमेगा। 'पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै ।' विन० ७०.४ 1 बागीसा : (१) सं० स्त्री० (सं० वागीशा) । सरस्वती, वाणी । 'जानेहु तब प्रमान बागीसा ।' मा० १.७५.४ (२) सं० + वि०पु० (सं० वागीश) । वाणी का अधिष्ठाता देव = बृहस्पति अथवा शब्दरूप ब्रह्म = शब्द ब्रह्म = ओंकार रूप परमात्मा | वाक्प्रेरक । 'ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा ।' मा० ७.५८.७ नागु : बाग + कए० । उद्यान । 'देखन बागु कुअर दुइ आए । मा० १.२२६.१ बागुर : सं० स्त्री० + पुं० (सं० वागुरा ) । पशु-पक्षियों को फँसाने का जाल । 'बार बिषम तोराइ मनहुं भाग मृगु भाग बस ।' मा० २.७५ बागुरौ : बागुर + ए० । जाल । 'तुलसिदास यह बिपति बागुरी तुम्हहि सों बने निबेरें ।' विन० १८७.५ बागे : भूकृ०पु०ब० । भटके, घूमते फिरे । 'चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार द्वार जग बागे ।' विन० १७०.६ बाघ : सं०पु० (सं० व्याघ्र > प्रा० वग्घ ) । चीता आदि । मा० १.३८.७ बाघ : बाघ भी । 'बाघउ सनमुख गएँ न खाई ।' मा० ६.७.१ बाघिन : बाघ + स्त्री० (सं० व्याघ्री) । मा० २.५१.१ बाचत: वकृ०पु० (सं० वाचयत्) । पढ़ता-पढ़ते । 'बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ।' मा० १.६१.६ वाचा : (सं० वाचा) । (१) वाणी से । 'मनसा वाचा कर्मना ।' वैरा० २६ (२) सरस्वती द्वारा । 'सिव बिरंचि बाचा छले ।' गी० ५.४१.२ For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 707 बाचाल, ला : वि.पु. (सं० वाचाल)। (१) अधिक बोलने वाला, वक्ता । 'मूक होहिं बाचाल ।' मा० १.०.२ (२) व्यर्थ बकने वाला। 'धन मद मत्त परम बाचाला।' मा० ७.६७.३ बाचि : बांचि । 'लगन बाचि अज सबहि सुनाई ।' मा० १.६१.७ बाची : बाँची। पढ़ी। 'पत्रिका...बाँची बहुरि नरेस ।' मा० १.२६० बाचु : आ०-आज्ञा-मए । तू पढ़ । 'लछिमन बचन बाचु कुलघाती ।' मा० ५.५२.५ बाच्यो : बांच्यो। मा० ६.६४.७ (पाठान्तर) । बाज : (१) सं०० (फा बाज-एक शिकारी परिन्दः) । एक पक्षी जो दूसरे पक्षियों को मारकर आहार करता है । 'बाज झपट जन लवा लुकाने ।' मा० १.२६८.३ (२) बाजइ । बज रहा है। 'घर घर उत्सव बाज बधावा ।' मा० १.१७२.५ बाज बाजइ : (सं०. वाद्यते>प्रा० वज्जइ) आ०प्रए । बजता है, बजती है। रा०न०११ बाजत : (१) वकृ०पु० । बजता, बजते । 'बाजत बिपुल निसाना ।' मा० १.२६७.५ (२) बजाते । 'बाजत बिबध बधाई ।' गी० १.५५.६ बाजति : वकृ०स्त्री० । बजती । 'पैजनी पायनि बाजति ।' गी० १.३२.२ बाजन : (१) बाजा । वाद्य । 'सुमन बुष्टि नभ बाजन बाजे।' मा० १.६१.८ (२) भकृ० अव्यय । बजने । 'बिपुल बाजने बाजन लागे।' मा० १.३४८.३ बाजने : बाजे । वाद्य । मा० १.३४८.३ बामनेऊ : बाजे भी । 'बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ ।' कवि० १.८ बाजपेयी : वि०० (सं० वाजपेयिन्) । वाजपेय यज्ञ करने वाला पवित्र व्यक्ति । 'कोन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कोन गजराज धौं बाजपेयी।' विन० १०६.३ (यहाँ ब्राह्मण जातिविशेष से तात्पर्य नहीं; सोमयाजी के साथ उक्त अर्थ ही संगत है जो मुहावरों में आज भी चलता है)। बाहि, हीं : आ.प्रब० (सं० वाद्यन्ते>प्रा० वज्जति>अ० वजहिं) । बज रहे हैं। मा० १.६२.५; १.३१७ छं० बाजा : (१) सं०० (सं० वाद्य>प्रा० वज्ज)। 'चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा।' मा० १.६२.५ (२) बाजइ । बजता है (आघात से रव करता है)। 'हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा।' मा० ६.७६.८ (३) भूक ०० (सं० वाज= युद्ध)। लड़ने लगा । 'तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा ।' मा० ५.१६.७ बाजार : बजार । मा० ७.२८ छं० बाजि : सं०पू० (सं० वाजिन्) । अश्व । मा० १.१५६.३ बाजिमेष : अश्वमेध यज्ञविशेष । मा० ७.२४.१ For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 708 तुलसी शब्द-कोश बाजिहैं : आ०भ० प्रब० । बजेंगे । 'सुरपुर बाजिहैं निसान ।' गी० १.२२१३ बाजी : (१) बाजि । अश्व | 'आवत देखि अधिक-ख बाजी ।' मा० १.१५७.१ (२) भूकृ० स्त्री० । बज उठी । 'गहगहि गगन दुंदुभी बाजी । मा० १.१६१.७ (३) सं० स्त्री० ( फा० बाजी ) । खेल, खेल का दाँव (प्रतिष्ठा) । 'तुलसी की बाजी राखी राम ही के नाम ।' कवि० ७.६७ बाजीगर : सं०पु० ( फा० बाजीगर ) । कौतुक या जादू का खेल दिखाने वाला । विन० १५१.२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाजु, जू : (१) बाज + कए० । बाज पक्षी । मा० २.२८ (२) भूकृ०पु०कए० । बज उठा । 'बाजु बधावनो ।' पा०मं० छं० ९ (३) अव्यय (सं० वर्जम् > प्राο वज्जं > अ० वज्जु) । विना, छोड़कर । 'दीनता दारिद दर्ल को कृपा बारिधि बाजु ।' विन० २१६.४ बाजू : बाजु । बाज पक्षी । 'लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ।' मा० २.२३०.६ बाजे : (१) भूकृ०पु०ब० । बज उठे, बजने लगे, बजे । 'नभ बाजन बाजे ।' मा० १. ९१.८ (२) वि०ब० ( फा० बाज = अलग ) । कोई, किसी, किन्हीं । 'बाजे बाजे राजन के बेटा बेटी ओल हैं ।' कवि० ५.२१ बा : बाजहि । कवि० १.१४ बाजे : बाजइ । 'सुसमय दिन द्वै निसान सब के द्वार बाजै ।' विन० ८०.३ बाट, टा: सं०पु० (सं० वाट ) । मार्ग । मा० ५.३०; ३.७.४ बाटिकfo : बाटिका - संब० । वाटिकाओं (में) । 'खेलत चोहट घाट बीथी बाटिकनि ।' गी० १.४२.३ बाटिका : वाटिका में । 'बिष बाटिकां कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि ।' मा० २.५६ बाटिका : सं० स्त्री० (सं० वाटिका ) । उद्यान, बाड़ी । मा० १.३७ बाढ़ : बाढ़इ । (१) बढ़ता है, बढ़े। 'जेहि बाढ़ बिरोधु ।' मा० २.१८ (२) उन्नति करता-ती है । 'प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा । मा० ४.१५.११ 'बाढ़ बाढ़इ : बढ़इ । (१) ज्वार में आता है, उत्तरङ्गित होता है । 'देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ।' मा० १.८.१४ ( २ ) विस्तार पाता ती है । 'बाढ़इ कथा पार नहि लहऊँ ।' मा० १. १२.५ (३) उत्कर्ष लेता-ती है । 'बाढ़इ प्रीति न थोरि ।' मा० १.२३४ बाढ़त : बढ़त । 'नित नूतन सब बाढ़त जाई ।' मा० १.१८०.२ o बाढ़ति : कृ० स्त्री० । बढ़ती ( हुई) । 'प्रेम तृषा बाढ़ति भली । दो० २७६ बाढ़न : भकृ० अव्यय । बढ़ने । 'जमुना ज्यों ज्यों लागी बाढ़न ।' विन० २१.१ बाढ़ : बढ़हिं । 'बाढ़हि असुर अधम अभिमानी ।' मा० १.१२१.६ बाढ़ा : भूकृ०पु ं० । बढ़ गया । 'ब्याज बहु बाढ़ा ।' मा० १.२७६.३ For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 709 बाढ़ि : सं०स्त्री० (सं० वृद्धि>प्रा० वड्ढि, वड्ढी) । बढ़ना। सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी।' मा० ६.६८.१ बाढ़ी : (१) बाढ़ि । 'दसमुख देखि सिरन्ह के बाढ़ी।' मा० ६.६३.१ (२) भूकृ० ___स्त्री० । बढ़ी। 'बहु लालसा कथा पर बाढ़ी।' मा० १.१०४.२ बाढ़ें : बढ़ने पर । 'प्रबल अनल बाढ़ें जहाँ काढ़े तहां ठाढ़े।' मा ० ५.२३ बाढ़े : बढ़े । 'बाढ़े खल बहु चोर जुआरा।' मा० १.१८४.१ बाढ़ेउ : बढ़ यो । 'बलि बांधत प्रभु बाढ़ेउ ।' मा० ४.२६ बाढ़े : बाढ़इ । 'संसार बाढ़े नित नयो।' विन० १३६.७ बाण : सं०० (सं०) । तीर । मा० ३ श्लोक २ बात : (१) सं०० (सं० वात) वायु । 'आतप बरषा बात।' मा० २.२११ (२) त्रिदोष में अन्यतम=वात व्याधि । 'ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस ।' दो० २७१ (३) सं०स्त्री० (सं० वार्ता>प्रा० वत्ता>अ० वत्त)। उक्ति, कथन । 'सत्य कहहु सब बात ।' मा० १.५५ (४) खबर, हवाला । 'नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी।' मा० २.४६.६ (५) व्यति कर, कार्य गति । 'बड़ें भाग बिधि बात बनाई।' मा० १.३१०.८ (६) विषय । 'चिन्ता कवनिहुं बात के ।' मा० २.६५ बातजात : वायु पुत्र हनुमान् ! कवि० ६.६ बातनि, न्ह : बात+संब० ! बातों, उक्तियों (से) । 'बातन्ह मनहि रिझाइ सठ।' मा० ५.५६ क बाता : बात। (१) वायु । 'सहत दुसह बन आतप बाता।' मा० ४.१.६ (२) उक्ति, कथन आदि । 'जौं बालक कह तोतरि बाता।' मा० १.८.६ बाति, ती : सं०स्त्री० (सं० वति>प्रा० वत्ति, वत्तो) । दीप की बत्ती । दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।' मा० २.५६.६, ७.१२०.३ बातु : बात+कए । वायु । 'समय पुराने पात परत डरत बातु ।' कवि० ५.१ बातुल : वि० (सं० वातुल)। वातग्रस्त, पागल । 'बातुल भूत बिबस मतवारे ।' मा० १.११५.७ बातें, 6 : बात+ब० । वार्ताएं, उक्तियाँ । 'कहि बातें मृदु मधुर सुहाई।' मा० १.२२५.८ बातो : बात भी । 'जो पं कहुं कोउ पूछत बातो।' विन० १७७.५ बाद : सं०० (सं० वाद)। (१) तर्क-वितर्क पूर्ण मत, विवादग्रस्त अप-सिद्धान्त । 'पाखंडबाद ।' मा० ४.१४ (२) प्रमाणित सिद्धान्त । परमार्थवाद, हेतुवाद आदि (दे० परमारथबादी; हेतुबाद) । (३) शर्त, दाँव । 'उपरी-उपरा बदि बाद ।' गी० ५.२२.४ For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 710 तुलसी शब्द-कोश बावबिबाद : सं०० (सं० वाद-विवाद) । तर्क-वितर्क, पक्ष-विपक्ष की युक्तियों से युक्त वार्ताक्रम । दो० ४७० बादर : सं०पु० (सं० वार्दल>प्रा० बद्दल)। मेघ (आकाश)। 'उमगि चलेउ आनंद भुवन भुइँ बादर ।' जा०म० १८७ बादले : बादल (बादर) ब० (प्रा० वद्दलय)। मा० ६.४६ छं० बाहिं : आ०प्रब० (सं० वादयन्ति)। वितण्डावाद फैलाते हैं, विवाद करते हैं, वितर्कपूर्ण मतवाद प्रस्तुत करते हैं; शर्त लगाते हैं । 'बादहि सूद्र द्विजन्ह सन ।' मा० ७.६६ ख बादि : अव्यय (सं० वादि-बोलने वाला ?) कहने में =अर्थहीन शब्दमात्र में= ___ व्यर्थ । 'बादि गलानि करहु मन माहीं।' मा० २.३०५.८ बादी : (१) बादि । वृथा। 'देबि मोहबस सोचिअ बादी।' मा० २.२८२.६ (२) वि.पुं० (सं० वादिन्) । सिद्धान्तविशेष मानने वाला—'परमारथ बादी।' मा० ३.६.५ बाबु : बाद+कए । तर्क, मतभेद । 'को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।' पा०म० ६५ बाधक : वि.पु. (सं.)। बाधा पहुंचाने वाला, व्याघात देने वाला । मा० ४.७.१७ बाधको : बाधक भी । 'जाकी छाँह छएँ सहमत ब्याध बाधको।' कवि० ७.६८ बाषा : सं०स्त्री० (सं.)। (१) प्रतिबन्ध, विघ्न । 'जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।' मा० ४.१७.१ (२) रुकावट, रोकथाम । 'निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ।' मा० ५.३१.६ (३) शङका, भय, आतङ्क । 'कहु, सठ, तोहि न प्रान कइ बाधा ।' मा० ५.२१.३ (४) दु:ख =आध्यात्मिक, भौतिक तथा दैविक क्लेश । 'आधिभौतिक बाधा भई ।' विन० ८.३ (५) बाधइ। बाधा पहुंचाता है । 'करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा ।' मा० १.१३७.४ बाधी : भूकृ०स्त्री० (सं० बाधिता)। बाधित हुई, रुद्ध हुई, रुक गई । 'सुमिरत हरिहि साप गति बाधी ।' मा० १.१२५.४ बान : (१) बाण । तीर । मा० ६.६३.३ (२) बाणासुर । ‘रावन बान छुआ नहिं चापा ।' मा० १.२५६.३ (३) सं०० (सं० वर्ण>प्रा० वण्ण) । रङ्ग, चमक, शोभा, दीप्ति । 'कनकहि बान चढ़इ जिमि दाहें ।' मा० २.२०५.५ बानइत : वि.पु. (सं० बाणवत् =बाणवित्त>प्रा० बाण इत्त)। तीरन्दाज, धनुर्धर । कवि० ६.३० बानक : सं०० (सं० वर्णक) । (१) समञ्जस सम्बन्ध, उचित योग । 'मैं पतित तुम पतित पावन दोउ बानक बने ।' विन० १६०.१ (२) सजावट । पा०म० १०६ For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 711 बानति : वक०स्त्री० । बनती। 'मुख सुषमा कछु कहत न बानति ।' गी० ७.१७.१ बानन्ह : बान+संब० । बाणों, तीरों (से, के) । 'पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा।' मा० ६.८३.५ वानर : सं०० (सं० वानर)। बंदर । मा० १.१८७ मानराकार : बानर की आकृति वाला। विन० २७.१ बानरु : बानर+कए। यह एक बानर । 'बानरु बड़ी बलाइ घने घर घालिहै।' कवि० ५.१० बानवान : बानइत (सं० बाणवान्) । हनु० ३६ बाना : बान । (१) तीर । 'देखि कुठारु सरासन बाना ।' मा० १.२७३.४ (२) (सं० वर्णक>प्रा० वण्णअ) । वेषरचना, स्वरूप । 'जनु बानत बने बहु बाना ।' मा० ३.३८.३ (३) स्वभाव, शील । 'मषा न कहउँ मोर यह बाना।' मा० ७.१६.७ बानि : (१) बानी (सं० वाणी) । 'भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।' मा० २.२०५.६ (२) सरस्वती । 'बानि बिनायकु अंब रबि ।' रा०प्र० १.१.१ (३) सं०स्त्री० (सं० वान =जीवन, गति, बुनावट)। शील, स्वभाव । 'एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जा के गति न आन की।' मा० ३.१०.८ (४) व्यसन (लत)। 'मैया इनहि बानि पर घर की नाना जगुति बनावहिं ।' क० ४ बानिक : सं०स्त्री० (सं० वणिका)। सजावट, बेषरचना । 'आपनी आपनी बर बानिक बनाइ के ।' गी० १.८४.१ बानी : वाणी से, में । 'अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी।' मा० १.२११ छं० बानी : सं०स्त्री० (सं० वाणी)। (१) सरस्वती देवी । 'कवि उर अजिर नचावहिं बानी ।' मा० १.१०५.६ (२) अर्थ बोधक शब्द । 'सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।' मा० १.१०.५ (३) कथन । 'करउँ प्रनाम करम मन बानी ।' मा० १.१६.७ (४) ध्वनि। 'मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी।' मा० १.२६५.३ (५) वागिन्द्रिय । 'बिनु बानी बकता।' मा० १.११८.६ (६) बानि । स्वभाव, व्यसन । 'सुन खगेस प्रभु के यह बानी ।' मा० ६.११४.३ ।। बानु : बान+कए०। (१) बाणासुर । 'रावनु बानु महा भट भारे ।' मा० १.२५०.२ (२) तीर । 'बानु बानु जिमि गयउ ।' जा०म० ६२ बानत : बानइत । 'जनु बानेत बने बहु बाना ।' मा० ३.३८.३ बाप : सं०० (सं० वप्र, वप्त>प्रा० वप्प) । पिता। पा०म०छं०६ बापिका : बापी (सं० वापिका) । बावड़ी । मा० १.८६.७ बापी : सं०स्त्री० (सं० वाणी)। बावड़ी एक प्रकार का चौड़ा कुआ जिसमें उतरने हेतु सीढ़ियाँ बनी रहती हैं । मा० १.१५५.७ बापु : बाप+कए । पिता । विन० २७०.३ For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 712 तुलसी शब्द-कोश बापुरें : बेचारे ने । 'बापुरे बिभीषन पुकारि बार-बार कह्यो।' कवि० ५.१० बापुरे : बपुरे । मा० ७.१२२.४ बापुरो : बापुरा (बपुरा) कए० । अत्यन्त तुच्छ । 'चंद बापुरो रंक ।' मा० १.२३७ बापू : बापु। मा० २.२६३.२ बाबू : (फा० बाबा=बाप, पितामह, नाना, सरदार, मुखिया) (हिन्दी में) सम्मान्य पुरुष । कवि० ७.१४० बाम : (१) वि० (सं० वाम)। कुटिल । 'तुहूं बंधु सम बाम ।' मा० १.२८२ (२) प्रतिकूल । 'बिधि बाम की करनी कठिन ।' मा० २.३०१ (३) पंथ विशेष (वाममार्ग) जिसमें पञ्च मकारी साधना की जाती है (मत्स्य, मांस, मदिरा, मुद्रा और मैथुन) । 'तजि श्रुति पंथु बाम पथ चलहीं।' मा० २.१६८.७ (४) बायाँ (दक्षिण का विलोम)। 'बाम भाग आसनु हर दीन्हा ।' मा० १.१०७.३ (५) सं०स्त्री० (सं० वामा)। सुन्दरी=स्त्री। 'आनि पर बाम बिधि बाम तेहि ।' कवि० ६.४ बामता : सं०स्त्री० (सं० वामता)। प्रतिकूलता । कवि० ५.२० बामदेउ : बामदेव+कए। (१) ऋषिविशेष । मा० १.३३० (२) शिव । पा०म० २६ बामदेव : सं०० (सं० वामदेव) । (१) ऋषि विशेष । मा० १.३२० (२) शिव। हनु०६ बामन : सं०० (सं० वामन) । विष्णु का अवतार विशेष। मा० ६.११०.७ बामपथ : (दे० बाम) । बाम मार्ग (तान्त्रिक शाक्त साधना, पञ्चमकार साधना __ मार्ग)। मा० २.१६८.७ बामा : बाम । (१) प्रतिकूल । 'फूलत फलत भयउ बिधि बामा।' मा० २.५९.४ (२) सुन्दरी स्त्री । 'नारि बेष जे सुर बर बामा ।' मा० १.३२२.५ बाम, मू : बाम+कए। प्रतिकूल । 'भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू ।' मा० २.३६.२ बाम : बाम ही, प्रतिकल ही। 'लागे दाहिने उ बाम ।' गी० ५.२५.४ बामो : वाम भी, कुटिल जन भी, प्रतिकूल भी। 'भए बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदास से बामो।' विन० २२८.५ बायें : बाम । प्रतिकूल । 'सृज्यो हौं बिधि बायें ।' गी० ७.३१.५ बाय : सं०० (सं० वात>प्रा० वाय) । (१) वायु । 'सपूत पूत बाय को।' हनु० ३१ (२) वातव्याधि । हनु० ३७ (३) आयुर्वेद में त्रिदोष (वात-पित्तकफ) मे अन्यतम । 'भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ।' विन० ८३.२ For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 713 बायन : सं०० (सं० उपायन>प्रा० वायन)। व्यावहारिक उपहार जो परस्पर भेजते हैं । 'बायन देना' मुहावरा व्यक्त करता है कि जैसा किया है, वैसा फल बदले में मिलेगा (जिस प्रकार वायन बदले में देने की प्रथा है)। 'भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ।' मा० १.१३७.५ बायनो : बायन+कए । 'है बायनो दियो घर नीके ।' क. 8 बायस : सं०० (सं० वायस) । (१) पक्षी (२) कोआ। 'बायस पलिअहिं अति __ अनुरागा।' मा० १.५.२ बायों : बाय+कए । बायाँ (उपेक्षित)। 'बायों दियो बिभव कुरुपति को।' विन० २४०.३ (बायां देना मुहावरा उपेक्षा करने के अर्थ में है)। बायो : भूक पु०कए० । बाया फैलाया। 'परी न छार मुह बायो।' विन. २७६.२ बार : (१) सं०० (सं० वार) । दिन । (२) रविवार आदि दिन । 'नोमी भीम बार ।' मा० १.३४.५ (३) अवसर, समय । 'एक बार भरि मकर नहाए।' मा० १.४५.३ (४) क्रम (बारी) (सं० वारा) । 'बूढ भए बलि मेरिहि बार।' हनु० १७ (५) आवृत्ति । 'करत सुरति सय बार ।' मा० १.२६.५ 'बारहिं बार ।' मा० १.७२.७ (६) विलम्ब, देर । 'तनहि तजत नहिं बार लगाई।' कृ० २५ (७) सं०० (सं० वाल)। केश, रोम । 'छूटे बार बसन उघारे।' कवि० ५.१५ (८) सं०पू० (सं० बाल)। बालक । (६) (सं० वार) बाजार । दे० बारबधू । बारंबार : क्रि०वि० (सं० वारं वारम्) । पुनः पुनः । मा० ३.३४ बारक : (बार---एक)। एक बार । 'बारक नाम कहत जग जेऊ।' मा० २.२१७.४ बारन : सं०पू० (सं० वारण) । हाथी । मा० ६.१११.२ बारनि, न्हि : बार-+संब० । वारों=आवृत्तियों (में)। 'तिल ज्यों बहु बारनि पेरो।' विन० १४३.२ बारबधू : सं०स्त्री० (सं० वारवधू) । बाजारू स्त्री=वैश्या । 'तारन बारन बार बधू को।' कवि० ७.६० बारबार : बारंबार । गी० २.७४.१ बारय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० वारय)। निवारण कर, तू रोक दे । मा० ६.११५.३ बारह : संख्या (सं० द्वादश>प्रा० वारह) । दो० ३०७ बारहबाट, टा : (बारह+बाट) । बारह मार्गों में, अनेकधा बिच्छिन्न, नष्टभ्रष्ट । 'रावन सहित समाज अब जाइहि बारहबाट ।' रा०प्र० ५.६.२ 'घालेसि सब जगु बारहबाटा।' मा० २.२१२.५ बारहें : (सं० द्वादशे>प्रा० बारहये>अ० बारहवें । दो० ४६६ For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 714 तुलसी शब्द-कोश बारहौं : सं०कए. (सं० द्वादशः>प्रा० बारहमो>अ० बारहवों बारहउँ)। पुत्र जन्म से बारहवां दिन जब नामकरण संस्कार होता है । 'छठी बारहों लोक बेद बिधि ।' गी० १.४.१२ बारा : बार। (१) समय । 'मरती बारा।' मा० ६.५८.५ (२) आवृत्ति । 'तदपि कही गुर बारहिं बारा ।' मा० १.३१.१ (३) अवसर । 'नारद श्राप दीन्ह एक बारा ।' मा० १.१२४.५ (४) विलम्ब । 'कहहु सो करत न लावउँ बारा।' मा० १.२०७.८ बारानसी : वाराणसी में । 'बीसीं बिस्वनाथ की बिसाद बड़ो बारानसीं ।' कवि० ७.१७० बारानसी : सं०स्त्री० (सं० वाराणसी) । काशी नगर । हनु० ४२ बारि : (१) सं०पु० (सं० वारि)। जल । मा० १.६ (२) सं०स्त्री० (सं० वाटी=वाटिका>प्रा० वाडी)। उपवन या छोटा खेत। 'बई बनाइ बारि बदाबन ।' कृ० २६ (३) खेत की रक्षा हेतु घेरा-दे० बारी। (४) (सं० बाला) तरुणी स्त्री। (५) पूकृ० (सं० ज्वालयिस्वा>प्रा. वालिअ>अ० वालि) । जला कर । 'जारि बारि कै बिधूम बारिधि बुताइ लूम ।' कवि० बारिवाहि : वारिअहिं । मा० १.२२० (पाठान्तर)। पारिक : वि० (फा० बारीक) । सूक्ष्म, महीन । 'है निर्गुन सारी बारिक बलि ।' कृ०४१ बारिचर : सं०+वि०० (सं० वारिचर)। (१) जलचर, जलजन्तु । 'होइ. ___ बारिचर बारि बियोगी।' मा० २.१६६.२ (२) मछली । कृ० २१ । बारिचरकेतू : जलचरकेतु-मकरध्वज कामदेव । मा० १८४.६ बारिज : सं०० (सं० वारिज)। कमल । मा० २.३१७.६ बारिद : सं०० (सं० वारिद) । मेघ । मा० १.१६६.१ बारिदनाद : मेघनाद । मा० १.१८०.७ बारिद : बारिद+कए । मेघ । 'बीरु बारिदु जिमि गज्जत ।' कवि० ६.४७ बारिधर : सं०० (सं० वारिधर) । मेघ । मा० ६.७०.४ बारिधि : सं०० (सं० वारिधि) । समुद्र । मा० १.१४ ङ बारिनिधि : बारिधि । मा० २.८६.३ बारिपुर : किसी गांव या नगर का नाम । कवि० ७.१३८ बारिये : वारिए । कवि० १.१२ बारी : (१) बारि। जल । 'बरषहिं राम सुजस बर बारी।' मा० १.३६.४ (२) बाड़ी, घेरा (सं० वाटी>प्रा० वाड़ी) । रूघहु करि उपाउ बर बारी।' मा० २.१७.८ (३) (सं० बाला) तरुणी, स्त्री। (४) छोटा खेत या उपवन For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 715 (वाटिका)। 'सिय सनेह बर बेलि बलित बर प्रेम बंधु बर बारी।' गी० ७.१४.१ (५) सं०पु० । 'एक मानव जाति जो पत्तल बनाने आदि का काम करती है । 'नाऊ बारी भाट नट ।' मा० १.३१६ (६) भूकृ० स्त्री० । जला डाली। 'बारी बारानसी।' कवि० ७.१७२ बारीस, सा : सं०पू० (सं० वारीश) । समुद्र । मा० ६.५; २८.२ बार : बार+कए० । एक भी बाल । 'होइहि बारु न बाँक ।' रा०प्र० ६.३.४ बारुनि, नी : सं०स्त्री० (सं० वारुणी) । मदिरा । मा० १.७०.१; १.१४ ख बारू : (१) बालू । (२) बारु । दिन । 'ग्रह तिथि जोग नखत बर बारू ।' मा० १.३१२.६ बारें : क्रि०वि० । बरा कर, छोड़कर । 'बानर मनुज जाति दुइ बारें।' मा० १.१७७.४ बारे : (१) सं०पू०ब० (सं० बालक>प्रा० बालय)। बच्चे, पुत्र । 'भआ कहहु कुसल दोउ बारे ।' मा० १.२६१.४ (२) छोटे, बचकाने । 'बारे बारे बार बिलसत सीस पर ।' गी० १.१०.१ (३) (सं० बाल्य) बचपने, बाल्यावस्था । 'मानो बारे तें पुरारि ही पढ़ायो है ।' बारेहि, ही : बचपने से ही । 'बारेहि तें निहित पति जानी।' मा० १.१६८.३ बारो : सं००कए० (सं० बालः>प्रा० बालो)। छोटा बालक । कृ० १६ (२) पुत्र । 'केहरि-बारो।' हनु० १६ बाल : (१) सं०पू० (सं०) । १५ वर्ष के आसपास का बालक । 'बालके लि।' मा० १.१६८.२ (२) बालक । 'बाल बुझाए बिबिध बिधि ।' मा० १.६५ (३) अज्ञानी, मूर्ख । 'सो श्रम बादि बाल कबि करहीं।' मा० १.१४.८ 'कुलहि लजावें बाल ।' गी० १.६५.२ (४) अपरिपक्व, अल्पबुद्धि । 'बाल विनय सुनि।' मा० १.१४ ग (५) सुकुमार । 'बाल मराल कि मंदर लेहीं।' मा० १.२५६.४ (६) सं०स्त्री० (सं० बाला)। तरुणी, किशोरी स्त्री। 'पठयो है. खवासु खासो कूबरी सी बाल को।' कवि० ७.१३५ बालक : सं०० (सं०)। (१) १५ वर्ष के आसपास वयस् वाला=बाल । (२) बच्चा, शिशु । 'जौं बालक कह तोतरि बाता।' मा० १.८.६ (३) पुत्र । 'रे नृप बालक ।' मा० १.२७१ बालक नि, न्ह, न्हि : बालक+संब० । बालकों। खेलउँ तहां बालकन्ह मीला।' मा० ७.११०.४; ७.२८.४ बालकु : बालक+कए । मा० १.२७२.५ बालचंद्र : शुक्ल द्वितीया का चन्द्रमा । कवि० ७.१५६ बालचरित : बाललीला । मा० १.४० बालदसा : बचपन (१५ वर्ष के आसपास वयस्) । विन० २६१.२ For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 716 तुलसी शब्द-कोश बालधि, घी : सं० स्त्री० (सं० वालधि ) । पूंछ । 'बालधि बँधाइ ।' गी० ५.१६.४ कवि० ५.३, ४, ५ बालपतंग : उदयकाल का सूर्य । मा० १.२५४ बालपन : सं०पु० (सं० बालत्व > प्रा० बालत्तण > अ० बालप्पण ) | बचपन | मा० १.३० क बालपने : बाल दशा में । 'बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो ।' हनु० ४० बालविधु: बालचंद्र | मा० १.१०६ बालब्रह्मचारी : (दे० ब्रह्मचारी) - 'बालश्चासौ ब्रह्मचारी बाल ब्रह्मचारी ।' वह पुरुष जो बालदशा में ही ब्रह्मविद्या और वेदों का ज्ञाता रहा हो । ( बाल्यावस्था में वीर्य स्खलन की संगति न होने से यहाँ ब्रह्मचर्य का वीर्यं रक्षा अर्थ नहीं है ) 'बालब्रह्मचारी अति कोही ।' मा० १.२७२.६ बालमीक, कि : सं०पु० (सं० वाल्मीक, वाल्मीकि) । रामायण के रचयिता आदि " कवि । मा० १.३.३; १.३३० बाला : सं ० स्त्री० (सं० ) । षोडषी कन्या, तरुणी । 'हे बिधि मिलइ कवनि बिधि बाला ।' मा० १.३१.८ बालार्क : (सं० - बाल + अर्क) उदय लेता हुआ सूर्य । विन० २८.२ बालि : (१) सं०पु० (सं० वालि ) । सुग्रीव का अग्रज वानर राज । मा० ४.१.५ (२) सं० स्त्री० (सं० वल्ली ) । बाली = धान आदि की मञ्जरी जिसमें दाने पैदा होते हैं । 'फरइ कि कोदव बालि सुसाली । मा० २.२६१.४५ बालिका : सं० स्त्री० (सं० ) । बाला । लड़की, पुत्री । 'हिम-संल-बालिका ।' विन० १६.३ बालिके : बालिका + संबोधन (सं० ) । ' मातु भूमिधर- बालिके ।' कवि० ७.१७३ बालिस : वि० (सं० बालिश ) । मूर्ख । 'बालिस बजावें गाल ।' गी० १.६५.२ बालिसो : बालिस + सम्बोधन बहु० ( अ० हे बालिस हो) । ऐ मूर्खो । 'यही बल, बालिसो ! बिरोधु रघुनाथ सों ।' कवि० ५.१३ बालों : बाली ने । 'तब बालीं मोहि कहा बुझाई ।' मा० ४.६.५ बाली : बालि । वानर राज । मा० ४.६.३ बालु : (१) सं० स्त्री० (सं० वालु) । बालू रेत । 'पुनि लाग बरषँ बालु ।' मा० ६.१०१.४ (२) बाल + कए० । बालक । ( ३) मूर्ख | 'अजहूं न छाड़े बालु गाल को बजावनो ।' कवि० ५.१८ बालू : बालु । रेत । मा० ६.८१.७ बालेंदु : बालचंद्र (सं० ) । मा० ७.१०८.६ बावन : बामन (अवतार) । दो० ३६४, ६५, ६६ 1 Trant : बावन भी, वामन भगवान् को भी । 'बड़ाई जित्यो बावनो ।' कवि० ५.६ For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 717 बावरि, री : बाउरि । 'सोइ बावरि जो परेखो उर आने ।' कृ० ३८ मा० २.२०१ छं० बावरें : बावरे ने, पागल ने (दे० बाउर) 'बावरें सुरारि बैरु कीन्हो राम राय सों।' कवि० ५.२४ बावरे : (१) सं०० (सं० वातुल चक्रवात>प्रा० वाउल =वाउलय)। बवंडर । 'पाप के प्रभाव को सुभाय बाय बावरे ।' हनु० ३७ (२) विक्षिप्त, पागल । 'मालवान रावरे के बावरे से बोल हैं ।' कवि० ५.२१ बावरो : (बाउर) बावर+कए । पागल । 'बरेहु कलेस करि बरु बावरो।' पा०म० छं०६ बावौं : बाँवो (उपेक्षा)। लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौं ।' विन० २०८.४ (२) प्रतिकूल । 'मो को आज विधाता बावौं ।' गी० ३.६३.१ बास : सं०० (सं० वास) । (१) निवास (वस निवासे)। 'उचित बास हिम भूधर दीन्हे ।' मा० १.६५.८ (२) गन्ध (वस स्नेहे) । 'ग्रहइ धान बिनु बास असेषा।' मा० १.११८.७ (३) वासना (वास उपसेवायाम्)। (४) वस्त्र (वस आच्छादने)। बासन : (१) सं०० (सं० वासन)। पात्र, बर्तन । 'लेहिं न बासन बसन चोराई ।' मा० २.२५१.३ (२) वासना । 'निरखि बहु बासनहि ।' विन० २०९.२ बासना : सं०स्त्री० (सं० वासना)। (१) संस्कार, भावना । 'काम क्रोध बासना नसानी।' वैरा ६० (२) कामना । 'पूजी सकल बासना जी की।' मा० १.३५१.१ (३) विषय की भावना, भोगेच्छा । 'मन ते सकल बासना भागी।' मा० ७.११०.६ (४) विषयाकार मनोवृत्ति । 'उर कछु प्रथम बासना रही।' मा० ५.४६.६ (५) आराध्य से एकाकार चित्त-दशा, अखण्डाकार रति भावना। 'अचर चर रूप हरि सरबगत सरबदा बसत, इति बासना धूप दोर्ज।' विन० ४७.२ बासर : सं०० (सं० वासर)। (१) दिन (रात का विलोम)। 'निसि बासर ध्यावहिं ।' मा० १.१८६ छं० २ (२) दिन (सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक)। जनकु रहे पुर बासर चारी।' मा० २.३२२.६ (३) दिन (रवि आदि) । 'सनि बासर विश्राम।' रा०प्र० ७.२.२ बासरनि, न्हि : बासर+संब० । दिनों (से)। 'निज बासरनि दिवस पुरवंगो बिधि ।' गी० ५.१७.२ बासरु : बासर+कए । एक दिन । 'सो बासरु बिनु भोजन गयऊ ।' मा० २.३२२.३ बासव : सं०पु० (सं० वासव) । देवराज इन्द्र । मा० २.१४१ For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 718 तुलसी शब्द-कोश बासा : बास । (१) निवास । 'भगत होहिं मुद मंगल बासा।' मा० १.२४.२ (२) निवास+गन्ध । 'इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।' मा० ५.६.१ बासि : पू० । सुवासित करके, सुगन्ध से ओत-प्रोत करके । 'दै द सुमन तिल बासि ___ के अरु खरि परिहरि रस लेत ।' विन० १६०.३ बासिन्ह : बासी+संब० । निवासियों । 'अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।' मा० ७.२६ बासी : (समासान्त में) वि०पु० (सं० वासिन्) । निवासी। 'जाति जीव जल थल नभ बासी।' मा० १.८.१ बासु, सू : बास+कए. । (१) निवास । 'दूतन्ह बासु देवाइ ।' मा० १.२६४ (२) गन्ध । 'लहसुनहू को बासु ।' दो० ३५५ बासुदेव : सं०० (सं० वासुदेव) । विष्णु, नारायण (वैष्णव मत की चतुव्यूह स्थापना में संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध अंशों के ऊपर व्यापक परमात्मा बासुदेव है) । 'बासुदेव पद पंकरह दंपति मन अति लाग ।' मा० १.१४३ बासू : बासु । निवास । मा० १.३५२.७ 'बाह, बाहइ : (सं० वाहयति>प्रा० वाहइ) आ०प्रए । निर्वाह करता है। चलता-चलाता है । 'सपनेहं नहीं अपने बर बाहै।' कवि० ७.५६ ।। बाहन : सं०० (सं० वाहन) । अश्व आदि सवारी का साधन । मा० १.६१ बाहनी : बाहिनी । मा० ६.५५.४ बाहर : बाहिर । कवि० ७.४४ बाहरी : वि० । बाहर की (ऊपरी) । 'रागिन में सीठ डीठि बाहरी निहारि हैं।' कवि० १.२४० बाहा : बांह । 'बैठारे रघुपति गहि बाहाँ ।' मा० २.७७.५ बाहिज : वि० (सं० वाह्य) । बाहरी, ऊपरी । 'बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी।' मा० ३.३०.१ बाहिनी : सं०स्त्री० (सं० वाहिनी)। (१) सेना (२) नदी । 'बिबिध बाहिनी बिलसति सहित अनंत । जलधि सरिस को कहै राम भगवंत ।' बर० ४२ बाहिर : बाहेर । दो० ४६ बाहिरो : (१) बाहिर । गी० ६.८.२ (२) वाह्य, वहिभूत । 'भगति बिहीन बेद ___ बाहिरो।' विन० २७२.३ बाही : बाँह । 'लीजै गहि बाहीं ।' विन० १४७.५ बाहु : सं००+ स्त्री० (सं.) । भुज । मा० १.१४७.७ बाहुक : सं० । बाहुपोडा (के अर्थ में) । हनु० ३६ बाहुदंड : दण्डसदृश सुदृढ भुज। कवि० ६.१ बाहू : बाहु । मा० १.६३.७ For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 719 बाहेर : क्रि०वि० (सं० वहिः>प्रा० वाहिर) । बाहर (भीतर का विलोम) । मा० १.१११ बाहेरहुं : बाहर भी । 'तुलसी भीतर बाहेरहं जौं चाहसि उजिआर ।' मा० १.२१ थाहैं : बाह+ब० । भुजाएँ । 'तुलसी बढ़ाई बादि साल तें बिसाल बाहैं ।' कवि० बाहै : बाहइ। बिग्य : वि० (सं० व्यङ ग्य) । व्यञ्जना शब्द शक्ति से आने वाला (अर्थ)। गूढ ___ आशय । विनोद पूर्ण । 'हरि के बिग्य बचन नहिं जाहीं।' मा० १.६३.३ बिंजन : सं०० (सं० व्यञ्जन) । सालन, मुख्य भोजन में सहायक लवण युक्त खाद्य सामग्री । मा० १.१७३.२ ।। बिंदक : वि०० । प्राप्त करने वाला। 'परम साधु परमारथ बिंदक।' मा० ७.१०५.४ बिंदु : सं०पू० (सं०) । (१) बूंद । 'रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।' मा० २.१२८.७ (२) कण । 'कनक बिंदु दुइ चारिक देखे ।' मा० २.१९६.३ (३) बिंदी । 'भ्रू पर मसि बिंदु बिराजत ।' गी० १.२२.६ बिदमाधव : काशी में प्राचीन विष्णुमूर्ति (जिसके मन्दिर के स्थान पर अब मस्जिद है जिसे 'माधव का धौरहरा' कहते हैं)। विन० ६१.१; ६२.१ विधि : विध्य । मा० २.१३८.८ बिध्य : सं०पू० (सं० विन्ध्य) । भारत के मध्य का पर्वत विशेष । गी० २.४१.१ बिध्याचल : बिंध्य । मा० १.१५६.४ बिध्याति : बिंध्याचल । विन० ४३.४ बिब : सं०० (सं.) । कुंदरू (फल विशेष) । विन० ५१.४ बिबोपमा : वि० (सं० बिम्बोपम) । कुंदरू के समान । 'अधर बिबोपमा ।' विन० ५१.४ बिप्राधि : सं०स्त्री० (सं० व्याधि) । रोग। मा० १.१७१.४ बिआनी : भूक०स्त्री० (सं० विजाता>प्रा. विआणी) । प्रसव किया, जन्म दिया। 'नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।' मा० २.७५.२ (यह क्रिया पशुओं के लिए ही प्रायः प्रयुक्त है। बिआह : विवाह में, से । 'एहि बिआह बड़ लाभु सुनचनीं।' मा० १.३१०.७ बिआह : सं०० (सं० विवाह>प्रा० विआह) । ब्याह, पाणिग्रहण संस्कार । मा० १.२४५.६ बिआहबि : भकृ०स्त्री० (सं० विवाहयितव्या>प्रा० विआहिअव्वी)। ब्याहनी (होगी), व्याही जायगी। 'सीय बिआहबि राम ।' मा० १.२४५ For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 720 तुलसी शब्द-कोश 'करनबेध उपबीत बिआहा : ( १ ) बिआह । बिआहा ।' मा० २.१०.६. (२) बिआह । व्याहता है, ब्याह सकता है । 'बिनु तोरें को कुअरि बिआहा ।" मा० १.२४५.६ बिआहि: पूकृ० । ब्याह करके । 'भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुल चंदु ।' मा० १.३५० क बिही : भूकृ०स्त्री० । ब्याही गई । 'भंजि धनुष जानकी बिआही ।' मा० ६.३६.११ बहु, हू: बिआह + कए० । मा० १.३१४; २६६.३ बिआहेसि : आ० - भूकृ० पु० प्र० । उसने विवाहित किये। 'पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ।' मा० १.१७८.४ fave : विकट । (१) विकृत, कुरूप । ' बिकट बेष १.२२०.७ (२) भयानक । 'काटे बिकट पिसाच । विशाल । 'देखि त्रिकट भट । मा० १.१७६.४ (४) बिकट मनोहर नासा । मा० १.२४३.५ (५) गूढ, रहस्य । 'नट कृत विकट कपट खगराया ।' मा० ७.१०४.८ मुख पंच पुरारी ।' मा० मा० ६.६८ (३) दुर्जय, कुटिल + सघन । 'भृकुटी farera : वि० (सं० विकटानन ) । विकृत भयानक मुख वाला वाले । 'बिकटानन बिसाल भयकारी ।' मा० ५.५४.६ चिकटासि : (१) सं० + वि०पु० (सं० विकटास्य - आस्य = मुख | भयानक मुख वाला (२) एक वानर यूथप । मा० ५.५४ बिकटी : बिकट + स्त्री० । 'बिकटी भृकुटी बड़ी अँखियाँ ।' कवि० २.१३ बिकरार, रा : वि० (सं० विकराल ) । भयानक । 'नाक कान बिनु भइ बिकरारा ।' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा० १.१८.१ बिकराल : वि० (सं० बिकराल ) । विषम, दुर्दान्त, क्रूर, भयानक, आतङ्ककारी । 'प्रभु सनमुख भएँ नीच नर होत निपट बिकराल ।' दो० ३७५ बिकल : वि० (सं० विकल) । (१) कलाहीन, खण्डित, अंशत: अल्प ( सकल का विलोम) । (२) व्याकुल, विक्लव, आर्त, व्यथित । बिरह बिकल नर इव रघुराई ।' मा० १.४६.७ बिकलई : बिकलता । 'प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ।' मा० ६.९४.३ बिकलतर : अधिक विकल । मा० ६.८४ छं ० बिकलता : विकलता । मा० ६.६.१ बिकलाई : बिकलइ । मा० ६.६१.५ बिकसत: वकृ०पु० । विकसित होते, खिलते । 'सबै सुमन बिकसत ।' गी० १.१.१० faran : आ०प्र० (सं० प्रा० विकसन्ति > अ० विकसहि) । खिलते हैं । 'मनहुं कुमुद बिधु उदय मुदित मन बिकसहि ।' जा०मं० १९२ For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बिसि : पूकृ० । विकसित हो (कर) । फैलकर । 'बिकसि चहूं दिसि रही लोनाई ।' गी० १.१०८.४ बिकसित भूकु०वि० (सं० विकसित ) | खिले हुए । 'बिकसित कंज कुमुद 721 बिलखाने ।' गी० १.३६.३ fame : बिकसित ( प्रा० विकसिय ) । खिले । 'ए पंकज बिकसे बिधि नाना ।' मा० ७.३१.७ बिकसो : भूकु०पु०कए० । खिला । विकसित हुआ । 'बारिज बन बिकसो री । गी० १.१०४.२ 'fast faers : आ०प्र० (सं० विक्रीयते > प्रा० विक्काइ ) । बिकता है, बेचा जाता है । पय पय सरिस बिकाइ ।' मा० १.५७ ख बिकाउँ : आ०उए । बिकूं, बिक जाऊँ । 'कृपासिंधु बिन मोल बिकाउँ ।' विन० १५३.७ बिकाउ गो : आ०भ०पु० उ० । बिकूंगा । 'बिनु मोलही बिकाउँगो ।' गी० ५.३०.४ farai : क्रियातिoy'० ए० । यदि सो बिकता । 'जो पै कहूं कोउ बूझत बातो ।' तो तुलसी बिन मोल बिकातो ।' विन० १७७.५ बिकानी : भूक०स्त्री० । बिक गई । 'तुम्ह प्रिय हाथ बिकानी ।' कृ० ४७ बिकाने : भूकृ०पु० ०ब० । बिक गये । 'हाथ हरिनाथ के बिकाने रघुनाथु ।' कवि० For Private and Personal Use Only ६.५५ बिकानी : भूकु०पु०कए० । बिक गया । 'हौं तो बिन मोल को बिकानो ।' हनु० ३८ बिकार : सं०पु० (सं० विकार) । (१) वस्तु में तात्त्विक परिवर्तन बिना हुए जो परिणाम होता है उसे 'विवर्त' कहते हैं; जैसे, रज्जु में सर्प । तात्त्विक परिवर्तन I दही । वैष्णव मत के साथ होने वाले परिणाम को विकार कहते हैं । जैसे, दूध विवर्ता और विकार दोनों ही को ब्रह्म में मान्य न करके जगत् का उसी से परिणाम स्वीकार करता है - इस मान्यता को 'अविकृत परिणामवाद' कहते हैं -- जैसे, पानी से हिम । 'चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी । मा० २.१२७.५ शङ्करमत में इसे भी 'विवर्त' ही कहा जाता है । (२) (क) अविद्या ( तम, अज्ञान ) ( ख ) अस्मिता ( मोह) (ग) राग ( महामोह) (घ) द्वेष (तामिस्र) (ङ) अभिनिवेश ( अन्धतामिस्र) इन पाँच से जनित मन के दोष । 'दारुन अविद्या पञ्च जनित बिकार श्री रघुबर हरे ।' मा० ७.१३० छं० (३) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर - षड्वर्ग से उत्पन्न मानसिक परिवर्तन । 'षट बिकार जित अनघ अकामा ।' मा० ३.४५.७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 722 तुलसी शब्द-कोश (४) दोष । 'रहित समस्त बिकार ।' मा० १.१०४ (५) मलिनता। परिहरि बारि बिकार ।' मा० १.६ 'सकल प्रकार बिकार बिहाई।' मा० २.७५.६ (६) फल, परिणाम । ईस बामता बिकार हैं ।' कवि० ५.२० (७) बिगड़ने की क्रिया= भौतिक परिवर्तन । 'सकल बिकार रहित गतभेदा ।' मा० २.६३.८ बिकारी : वि० (विकारिन्) । विकारयुक्त, दोषयुक्त । 'वानर रीछ बिकारी।' विन० १६६.६ बिकार : बिकार+कए । दोष । 'बचन बिकार करतबउ खुआरु ।' कवि० ७.६४ बिकास : सं०० (सं० विकास) । आविर्भाव । 'तो ही में बिकास बिस्व, तो ही में बिलास।' कवि० ७.१७३ बिकास बिकासइ : (सं० विकासयति>प्रा० विकासइ) आ०प्रए । विकसित करता है, विकास लाता है। बिकासक : वि०० (सं० विकासक) । विकसित करने वाला। 'बनज बिकासक पूषन ।' जा०म० १२४ बिकासा : (१) बिकास । 'कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा ।' मा० ५.६.७ (२) बिकासइ । 'बचन किरन मुनि कमल बिकासा ।' मा० २.२७७.१ बिकासी : (१) भूकृस्त्री० । विकासयक्त हुई, खिली। 'स्वामि सुरति सुर बीथि बिकासी।' मा० २.३२५.५ (२) वि०पू० (सं० विकासिन्) । विकसित करने वाला । आविर्भाव लाने वाला। 'राम नाम जुग आखर विस्व बिकासी।' विन० २२.७ बिकासे : भूकृ००ब० । विकासयुक्त हुए। 'बनज बिकासे।' मा० २.३२५.३ बिकहैं : आ०भ०म० । बिक जायेंगे । 'सोभा देखवैया बिनु मोल ही बिकै हैं।' गी० २.३७.२ बिक्रम : विक्रम । (१) पदविक्षेप, डग । दे० त्रिविक्रम। (२) पराक्रम, शक्ति । 'भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला ।' मा० ६.२५.४ बिखंडन : वि.पु । खण्डित करने वाला, उच्छेदक, नाशक । 'प्रभु त्रास बिखंडन ।' मा० ६.११५.५ बिख्यात, ता : विख्यात । प्रसिद्ध । मा० २.१९४; १.१२२.७ विख्याति : संस्त्री० (सं० विख्याति) । प्रसिद्धि । 'लहत भुवन बिख्याति ।' दो०१६ बिगत : विगत । मा० १.७५ बिगतक्रम' =क्रमहीन । मा० ६.४६.२ "बिगत बर' =बैररहित । मा० २.१३८.१ 'बिगतभय' =निर्भय । मा० २.३०८.५ 'बिगतमोह' =मोह रहित । मा० १.१३६ बिगता : बिगत+स्त्री० । जाती रही, समाप्त हो गई। 'समता बिगता।' मा० ७.१०२ छं० For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'तुलसी शब्द-कोश 723 बिगर बिगरइ : (१) आ०प्रए० (सं० विकुरुते>प्रा० विगरइ)। विकारयुक्त होता है, बिगड़ता है। (२) (सं० विकिरति>प्रा० विगरइ) । बिखर जाता है । 'बचन बेष तें जो बन इ सो बिगरइ परिनाम।' दो० १५४ 'बिगरत : वकृ०पु । बिगड़ता+बिखरता। "बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत __ आम घरो सो।' विन० १७३.४ बिगरहिं : आ०प्रब० । दूषित होते-होती हैं। 'जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी।' मा० ४.१५.७ बिगरायल : वि.पुं० । विगाड़ा हुआ, दूषित, विकारयुक्त किया हुआ । 'हों बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये ।' विन० २७१.२ बिगरि : (१) बिगरी । गी० २.४१.४ (२) पूक० । बिगड़ (कर) । 'जन तें बिगरि गई है।' गी० २.७८.३ बिगरिए, ये : आ. कवा०प्रए । बिगाड़िये । 'बिगरो न बिगरिये ।' विन० २७१.२ बिगरिऔ : बिगड़ी (बात) भी । मेरी बिगरिऔ बनि जाइ।' विन० ४१.३ बिगरिहि : मा०भ०प्रए । बिगड़ेगा (नष्ट होगा)। 'नाहिन डरु बिगारोह परलोकू ।' मा० २.२११.५ बिगरिहै : (१) बिगरिहि । 'बिग रिहै सुरकाज।' गी० ५.६.३ (२) बिकृत होगा+ बिखरेगा। 'दिनहू दिन बिगरिहै.. बिलंब किये।' विन० २७२.५ बिगरी : (१) भूक स्त्री० । बिगड़ी। दो० २२ (२) बिगड़ी बात । 'बिगरी सुधरी कबि-कोकिलहू की। कवि० ७.८६ बिगरोऔ : बिगरिऔ । 'बडि ओ तरति, बिगरीऔ सुधरति बात ।' कवि० ७.७५ बिगरे : (१) भूक०० । बिगड़े, विकृत, दोषयुक्त । ‘बिगरे ते आपु ही सुधारि लीजै भाय जू ।' कवि० ७.१३६ (२) दूषित +बिखरे । 'साजक. बिगरे साज के ।' गी० ५.२६.२ बिगरंगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । बिगड़ेगी+बिखरेगी। 'रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी ।' विन० २५६.१ बिगरो : बिगर्यो । बिगड़ा हुआ । 'बिगरो न बिगरिये ।' विन० २७१.२ बिगर्यो : भूक००कए । बिगड़ा (दोष बन पड़ा)। 'सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर्यो।' विन० २३६.५ बिगसत : विकसत (प्रा० विगसंत) । 'अस्त भएँ बिगसत भईं ।' मा० ७.६ क /विकसा बिगसाइ : आ०प्रए० (सं० विकसति>प्रा० विगसइ)। खिलता है, विकास लेता है । 'निसि दिन यह बिगसाइ।' बर० ११ बिगसित : भूकृ० (सं० विकसित)। विकासयुक्त । 'सर बिगसित बहु कंज।' मा०४.२४ For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 724 तुलसी शब्द-कोश बिगसी : भूक०स्त्री०५० । खिली, विकसित हुईं। 'जन बिगसी रबि उदय कनक पंकज कलीं।' जा०म० १३२ बिगार : बिकार (प्रा० विगार) । (१) बिगड़ना, दूषित होना। 'बुधि न विचार, न बिगार न सुधार सुधि ।' गी० २.३२.३ (२) बिगाड़ना । 'काहू की जाति बिगार न सोऊ ।' कवि० ७.१०६ गिगारा : भूक०० । बिगाड़ा, नष्ट किया । 'कौसल्या अब काह बिगारा ।' मा०. २.४६.८ बिगारि : पूकृ० । बिगाड़ कर । 'रूठाहिं काज बिगारि ।' दो० ४७६ बिगारी : भूक०स्त्री० । बिगाड़ी, नष्ट कर दी । 'बिधि अब संवरी बिगारी ।' मा०. १.२७०.७ बिगारेउ : भूकृ.पुं०कए । बिगाड़ा, नष्ट कर दिया। 'कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ ।' मा० २.१६०.२ बिगारो : बिगार्यो । हनु० १६ बिगार्यो : बिगार्यो। 'कहा बिगार्यो बालि ।' दो० १५९ बिगोइए : आ०कवा०प्रए । बिगाड़िए (मूल अर्थ-व्याकुल कीजिए)। खोया जाय, ___ नष्ट किया जाय । 'जागिए न सोइए, बिगोइए जनमु जायें ।' कवि० ७.८३ बिगोई : भूकृ०स्त्री० । वञ्चित की हुई (मूल प्राकृत अर्थ-विकल की हुई)। ठगी हुई, बिगाड़ी हुई । 'राजु करत निज कुमति बिगोई ।' मा० २.२३.७ बिगोए : भूकृ००ब० । बिकल किये हुए, ठगे गये । 'ते कायर कलिकाल बिगोए।' मा० १.४३.७ बिगोयो : भूक००कए । ब्याकुल किया, ठग लिया, बिगाड़ दिया। 'कलि कुटिल बिगोयो बीच ।' विन० १९२.१ /बिगोव बिगोवइ : (सं० विजुगुप्सते>प्रा० विग्गोवइ) आ०प्रए । व्याकुल होता ती है; व्याकुल करता-ती है । 'तुलसी मदोवै रोइ रोइ के बिगोवै आपु ।' कवि० ५.११ बिगोवति : वकृ०स्त्री० । खोती (व्याकुल करती हुई) बिताती । 'तुम्हरे बिरह निज. जन बिगोवति ।' गी० ५.१७.३ बिगोवहु, हू : आ०मब० । व्याकुल करते हो, धोखे में डालते हो, नष्ट कर रहे हो।। 'बिनु काज राज समाज महुं तजि लाज आपु बिगोवहू ।' जा०म०/०८ बिगोवा : भूकृ.पु । व्याकुल किया, नष्ट किया, ठगा । 'प्रथम मोह मोहि बहुत बिगोवा ।' मा० ७.६६.६ बिगोवै : बिगोवइ। बिग्यान : विज्ञान । (१) बोध । (२) विज्ञानमय कोश =ज्ञानेन्द्रिय+बुद्धि । (३) जागतिक ज्ञान । (४) शिल्प तथा शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान । (५) विवेक,. For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -तुलसी शब्द-कोश 725 प्रकृति-पुरुष-भेद ज्ञान । 'बिनु बिग्यान कि समता आवइ ।' मा० ७.६०.३ (६) व्यापक ब्रह्म का बोध । 'कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।' मा० १.३७.६ (७) मायायुक्त ब्रह्मलीनता की संवेदना । 'जे बिग्यान मगन मुनि ग्यानी।' मा० १.१११.१ (गोस्वामी जी ने इसे भी भक्ति का साधन ही माना है)। बिग्यानघन : बिज्ञानमय, विज्ञान का ही सघनरूप, बोधस्वरूप । मा० ३.३३ छं. बिग्यानमय : बिग्यानधन । मा० ७.११७ घ बिग्यानरूप : बिग्यानमय । मा० ७.१२३.४ बिग्यानरूपिनी : वि०स्त्री० (सं० विज्ञानरूपिणी) । विज्ञानमयी; विवेकस्वरूपा । 'बिग्यानरूपिनी बुद्धि ।' मा० ७.११७ ख बिग्याना : बिग्यान । मा० १.८४.७ 'विग्यानी : वि०० (सं० विज्ञानिन्) । विज्ञानयुक्त, ब्रह्मबोध-सम्पन्न । मा० १.६०.१ 'बिग्यानु : बिग्यान+कए । 'जानौं न बिग्यानु ग्यानु ।' कवि० ७.६२ विग्रह : विग्रह । (१) शरीर । (२) कलह, द्वेष । 'बैर न बिग्रह आस न त्रासा ।' मा० ७.४६.५ 'बिप्रहु : बिग्रह+कए । लड़ाई । 'सगुन कहइ अस बिग्रह नाहीं।' मा० २.१६२.६ बिघटन : विघटन । खण्डन । 'प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।' मा० १.२३६.६ बिघटित : भूकृ०वि० (सं० विघटित) । खण्डित, विच्छिन्न । 'बड़ि अवलंब बाम बिधि बिघटित ।' गी० २.८८.३ 'बिघट : आ०प्रए० (सं० विघटयति, विघट्ट यति>प्रा० विघट्टइ)। छिन्न-भिन्न कर देता है । 'रजनीचर मत्त गयंद घटा बिघटै मृगराज के साज लर।' कवि० ६.३ बिघन : बिघ्न । मा० २.११.६ बिघ्न : सं०० (सं० विघ्न) । बाधा, प्रतिरोध । मा० ७.३६.५ बिच : बीच । 'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी ।' मा० १.२१.८ बिचच्छन : वि० (सं० विचक्षण)। व्याख्यापूर्वक तथ्य-निरूपण-कर्ता, विद्वान्, निपुण, प्रवीण । 'कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ।' मा० ७.३७.४ 'बिचर बिचरइ : आ०ए० (सं० विचरति>प्रा० वि०-चरइ)। विचरण करता है (पैरों से चलता है)। 'दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ।' मा० १.२०३.५ 'बिचरंति : आ०प्रब० (सं० विचरन्ति) । विचरण करते हैं। सब संत सुखी बिचरंति मही।' मा० ७.१४.१६ विचरत : वकृ.पुं० । विचरण करता-ते । 'दंडक बन बिवरत अबिनासी।' मा. १.४८.८ For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 726 तुलसी शब्द- कं बिचरनि: सं० स्त्री० (सं० विचरण) । विचरने की क्रिया, विचरणरीति । 'ज पानि बिचरनि मोहि भाई । मा० १ १६६.११ बिचराह : आ०प्र० । विचरण करते हैं । (सिव ) । 'बिचरहि महि धरि ह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरि । मा० १.७५ बिचरहि : आ०म० । तू विचरण कर । 'बिचरहि अवनि अवनीस चरन सर मन मधुकर किये ।' विन० १३५.५ बिचरहु : आ०म० । विचरण करो । 'अस उर धरि बिचरहु महि जाई ।' म १.१३८.८ बिचरं : बिचरइ । विचरण करता है, करे । 'बिचरं धरनी तिन सों तिन तोरें कवि० ७.४६ बिचल : सं० स्त्री० । विचलित होने की क्रिया, उखाड़, भगदड़ । 'निज दल बिच सुनी जब काना । मा० ६.४२.६ बिचलत: वकृ०पु० । विचलित होता होते; भागते । 'निज दल बिचलत देखे सि मा० ६.८१ बिचलाइ : पू० (सं० विचालयित्वा > प्रा० विचलाविअ > अ० विचलावि ) विचलित करके । 'गर्जहि भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ।' मा० ६. बिचलाए, ये : भूकृ०पु०ब० । खदेड़ दिये । 'भूरि भट रन बिचलाये हैं ।' गं 1 १.७४.३ बिचलि: पूकृ० । विचलित होकर भागकर । 'चले बिचलि मर्कट ।' म ६.६६ छं० बिचार : सं०पु० (सं० विचार) । (१) चिन्तन-मनन । 'सरसइ ब्रह्म बिच प्रचारा ।' मा० १.२.८ (२) निश्चयात्मक बोध, समझ । 'निज बिच अनुसार । मा० १.२३ बिचारत: वकृ०पु० । विचार करता ते । 'हृदयँ बिचारत जात सिव' मा १.४८ क बिचारति : वकृ० स्त्री० । विचार करती । मा० ७.७.७ I बिचारब: भकृ०पु० | विचारना ( चाहिए ) । 'सगुन बिचारब समय सुभ ।' रा०ड ७.१.५ बिचारहि, हीं : आ०प्रब० । विचार करते हैं । मा० ४.२६.१; १.२६१ छं० बिचारहु : आ०म० । विचार करो, मनन करो । 'हृदयँ बिचारहु धीर धरि I मा० १.३१४ विचारा: (१) बिचार । 'को गुन दूषन करें बिचारा । मा० १.८१. (२) भूक०पू० । सोचा, निश्चित किया । 'हम तुम्ह कहं बरु नीक बिचारा For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 727 मा० १.८०.१ (३) वि.पुं० (फा० बेचार:=लाचार)। निरुपाय । 'भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ।' मा० ५.५३.७ बिचारि : (१) पूक० बिचार करके, निश्चित करके । 'अस बिचारि उर छाड़ह कोहू ।' मा० २.५०.१ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू विचार कर । 'गति आपनी बिचारि ।' दो० ५६ बिचारिए, ये : आ०कवा०प्रए० । विचार किया जाय, माना जाय। 'दास रावरो बिचारिये ।' हनु० २१ बिचारी : (१) बिचारि । समझकर । 'धीरजु धरहु बिबेकु बिचारी।' मा० २.१५०.८ (२) भूक०स्त्री० । विचारपूर्वक निश्चित की। 'सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।' मा० ५.४३.८ (३) वि.स्त्री० (फा० बेचारः)। बेचारी (अकिंचन) । 'भइ मंथरा सहाय बिचारी।' मा० २.१६०.१ बिचारु, रू : (१) बिचार+कए । एक विचार । 'यह बिचारु उर आनि नप।' मा० २.२ (२) आ० -आज्ञा-मए । तू विचार कर । 'महरि मनहिं बिचारु ।' कृ० १४ बिचारू : बिचारु । मा० १.११.६ बिचारे : (१) बिचारइ । विचार करे। गी० २.२.३ (२) भूक०पुब० । सोचे हुए, सुनिश्चित विचारयुक्त । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।' मा० १.११५.७ (३) वि.पु.ब ० (फा० बेचारः) । निरुपाय, अकिंचन । 'कामी काक बलाक बिचारे।' मा० १.३८.५ विचारेहु : (१) आ०भ०+आज्ञा+मब० । तुम विचार करना । 'मन क्रम बचन सो जतन बिचारहु ।' मा० ४.२३.३ (२) भूक००+मब० । तुमने विचार किया । काजु बिचारेहु सो करहु ।' रा०प्र० १.१.७ । बिचार : बिचारहि । 'बूझि न बेद को भेदु बिचारें।' कवि० ७.१०४ बिचारो : (१) बिचार्यो । सोचा। 'हित आपन मैं न बिचारो।' विन० ११७.३ (२) बिचारहु । सोचो । 'तात, बिचारो धौं हौं क्यों आवौं ।' गी० २.७२.१ बिचारौं : आ० उए । विचारूँ, विचार करता हूं। 'जो करनी आपनी बिचारौं ।' विन० १४२.१० बिचारयो : भूकृ.पु.कए । सोचा, निश्चित किया। भलो काज बिचार्यो।' गी० २.१.३ बिचित्र : वि० (सं० विचित्र)। (१) विलक्षण, चमत्कारी (विविध गुणों तथा अलंकारों से युक्त) । भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ ।' मा० १.१०.३ (२) कौतूहल जनक, विस्मयकारी। 'कथा-प्रबन्ध बिचित्र बनाई ।' मा० १.३३.२ (३) रहस्यमय । 'अति बिचित्र रघुपति चरित ।' मा० १.४६ For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 728 तुलसी शब्द-कोश (४) विविधतायुक्त । 'ते बिचित्र जल बिहग समाना ।' मा० १.३७.११ (५) चित्रवर्ण, रंगबिरंगा । 'अति बिचित्र कछु बरनि न जाई । कनक देह मनि रचित बनाई।' मा० ३.२७.२ (सभी अर्थ गुम्फित-से मिलते हैं)। बिचित्रा : बिचित्र+स्त्री० । मा० २.२८२.१ बिछाइ : पूकृ० (सं० विच्छाद्य>प्रा० विच्छइअ>अ० विच्छाइ)। बिछा कर । __ 'आछे आछे बीछे बीछे बिछौना बिछाइ के ।' गी० १.८४.३ बिछुरत : वकृ०० (सं० विच्छुरत्>प्रा० विच्छुडंत)। वियुक्त होता होते । बिछुड़ते ही । 'बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं ।' मा० १.५.४ बिछुरनि : सं०स्त्री० । बिछड़ने की क्रिया, वियोग । 'तब तें बिरह रबि उदित एक रस सखि बिछुरनि रबि पाई।' कृ० २६ बिछुरें : बिछुड़ने पर, से । 'बिछुरें कैसे प्रीतम लागु जियो है ।' कवि० २.२० बिछरे : भूक००ब० । वियुक्त हुए । 'बिछुरे कृपानिधान ।' गी० २.५६.१ बिछुर्यो : भूक.पु०कए । बिछुड़ गया, छूट गया। 'संग सकल बिछुर्यो।' विन० ९१.४ 'बिछोह, बिछोहइ : (सं० विक्षोभयति>प्रा. विच्छोहइ) आ०प्रए। अलग करता है-करती है; दूर करता-ती है । 'सुमिरत सकृत मोहमल सकल बिछोहइ।' जा०म० ६६ बिछोहनि : वि०स्त्री० । अलग करने वाली, हटाने वाली । 'सब मल बिछोहनि जानि ___ मूरति ।' जा०म०ई० १२ बिछोही : भूक०स्त्री०ब० । वियुक्त की हुईं। 'के ये नई सिखी सिखई हरि निज __ अनुराग बिछोहीं।' कृ० ४१ बिछोही : भूकृ०स्त्री० । वियुक्त की । जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही ।' मा० बिछोह : बिछोह+कए । वियोग । 'जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू ।' मा० ६.६१.६ बिछोहे : भूकृ.पुब । वियुक्त किये, रहित किये । 'राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ।' मा० २.३०२.४ । बिछोहै : विछोहइ । '(नाम) अघ अवगुननि बिछोहै ।' विन० २३०.३ बिछौना : सं०० (सं० विच्छादन>प्रा. विच्छावण) । बिछावन, शयास्तरण । __गी० १.८४.३ बिजई : वि.पु. (सं० विजयी)। विजेता, जयशील,उत्कृष्ट । मा० १.१२२ बिजय : (१) विजय । मा० ६.८४ (२) विष्णु के एक द्वारपाल का नाम । मा० १.१२२.४ बिजयी : विजई । कवि० १.२२ For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 729 बिट : बिष्टा । 'कृमि भस्म बिट परिनाम तनु ।' विन० १३६.७ बिटप : सं०० (सं० विटप) । (१) शाखा (२) वृक्ष । मा० १.८७.१ ।। बिटपन, नि, न्ह, न्हि : बिटप-+संब०। वक्षों। बैठत.. बिटपनि तर।' गी० १.५४.४ बिटपायुध : वृक्ष रूपी आयुध । मा० ६.५३.३ बिटपु : बिटप+कए । अद्वितीय वृक्ष । 'रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।' मा० २.२२६.५ बिड़ : सं०० (सं० विट>प्रा० विड)। धूर्त, विषयी, जार (ब्यभिचारी), __ लम्पट । 'तेरी कहा चली बिड़ तो से गनै घालि को।' कवि० ६.११ बिडंब : सं०पु० (सं० विडम्ब)। विडम्बना । 'मूढ पंडित बिडंबरत ।' विन० ८१.३ बिडंब, विडंबह : आ०प्रए० (सं० विडम्बयति>प्रा० विडंबइ)। छलता है, पीडित करता है । 'करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।' मा० ७.१०१.६ बिडंबना : सं०स्त्री० (सं० विडम्बना)। छलना (मूर्ख बनाना); पीडन । केहि ___ के लोभ बिडंबना कोन्हि न एहि संसार ।' मा० ७.७० क बिडंबित : वि० भूकृ० (सं० विडम्बित) । प्रतारित, छला हुआ, पीडित । 'तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु ।' दो० ३६७।। विडंवितकरी : वि०स्त्री० । छलने या पीडित करने वाली । विन० ४३.५ बिडरि : पूकृ० (सं० विदीर्य>प्रा० विडरिअ>अ० विडरि)। बिखर कर, खदेड़े ___ जाकर । 'बिडरि चले बाहन सब भागे।' मा० १.६५.४ बिडारि : पूकृ० (सं० विदार्य>प्रा० विडारिअ>अ० विडारि)। खदेड़ कर । 'बक हित हंस बिडारि ।' दो० ४६८ बिडारी : भूक०स्त्री० । खदेड़ी, बिखरा दी, छिन्न-भिन्न कर दी । 'कुंभकरन कपि फौज बिडारी ।' मा० ६.६७.७ बिढ़इ : पूकृ० (प्रा० विढविअ>अ० विढवि) । उपाजित करके । 'बिढ़इ सुकृत जिन्ह कीन्हेउ भोगू ।' मा० २.१६१.२ बिढ़तो : भूक००कए० (प्रा० विढत्तो) । उपाजित । 'दै पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज, सादर सिर धरि लीज ।' कृ० ४६ बित : (१) सं०० (सं० वित्त) । धन, द्रव्य । मा० ६.६१.७ (२) बिद । ज्ञाता। 'गढार्थ-बित ।' विन० ५४.५ वितए : भूकृ०पु०ब० । बिताये, व्यतीत किये । 'लागत पलक कलप बितए री।' गी० १.७८.१ बितरनि : वि०स्त्री० । वितरण करने वाली, देने वाली । 'मोच्छ बितरनि बिदरनि जग जाल की ।' कवि० ७.१८२ For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 730 तुलसी शब्द-कोश बितहीन : बित्तहीन । विन० २१०.४ बितान, ना : सं०० (सं० वितान) । मण्डप । मा० ३.३८.१; २.६.५ बितानु : बितान+कए । एक (श्रेष्ठ) विज्ञान । 'सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।' मा० १.२८६.५ बितिक्रम : सं०० (सं० व्यतिक्रम) । उलटफेर, क्रमपरिवर्तन । दो० ३५२ बितु : बित+कए । एकमात्र धन । 'राम नाम प्रेम पन अबिचल बितु है ।' विन० २५४.१ बितही : आ०भ०मब० । बिताओगे, अन्त करोगे । 'रघुबीर ''अवगुन अमित बितही।' विन० २७०.१ बित्त : (१) बित । धन । मा० १.२६५.६ (२) मूल्य । ‘सोभा देखवैया बिनु बित्त ही बिकै हैं । गी० २.३७.२ बित्तहीन : धनहीन । कवि० २.८ बिथकनि : सं०स्त्री० । बिथकने की क्रिया, रुकना, ठहरना । 'धावनि नवनि बि लोकनि बिथकनि ।' गी० ३.३.४ विथकहि : आ०प्रब० (सं० विष्टकन्ते>प्रा० वित्थक्कंति>अ. वित्थक्कहिं)। ठक रह जाते हैं, चकित होते हैं। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ।' मा० १.२१३.७ बिथकि : पूक० । ठगा-सा होकर, स्तब्ध-चकित होकर । 'सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ ।' मा० २.२८४.७ बिथकित : थकित । स्तब्ध चकित, विस्मयविमूढ । 'तुलसी भइ मति बिथकित करि अनुमान ।' वर० २३ बिथकी : भूकृस्त्री०ब० । स्तब्ध रह गयीं, विस्मय-मुग्ध हुई ! 'तुलसी सुनि ग्राम बधू बिथकी।' कवि० २.१८ बिथकी : भूकृ०स्त्री० । विस्मय-विमुग्ध हो गयी। 'बिथकी है ग्वालि मैन मन मोए।' कृ० ११ बिथके : थके । निश्चल रह गये । 'बिथके हैं बिबुध बिमान ।' गी० १.२.१५ बिथा : व्यथा। मा० ६.१००.२ बिथारे : भूकृ००० (सं० विस्तारित>प्रा० विस्थारिय)। फैलाये, बिखेरे । 'अति ललित मनिगन बिथारे ।' गी० १.३७.२ बिथुरे : भूकृ.पु०ब० (सं० विस्थुडित>प्रा० वित्थुडिय)। बिखरे । 'बिथुरे नभ मुकुताहल तारा ।' मा० ६.१२.३ बिद : विद । ज्ञाता । 'वेद-बिद ।' मा० २.१४४ बिदरत : वकृ० । फटता-ते-ती । 'अजहुँ अवनि बिदरत दरार मिस ।' गी० २.१२.२ For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बिदर्शन : (१) सं० [स्त्री० । फाड़ना, छिन्न-भिन्न करना । ' रथनि सो रथ बिदरनि बलवान की ।' कवि० ६.४० (२) वि०स्त्री० । विदारण करने वाली । 'कासी ...मोच्छ बितरनि बिदरनि जगजाल की ।' कवि० ७.१८२ 731 बिदरेउ : भूकृ०पु ं०कए० । विदीर्ण हुआ, दरारों में बिखर गया । 'हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि ।' मा० २.१४६ बिद : बिदरेउ । हृदय दाडिन ज्यों न बिदर्यो ।' गी० २.५७.२ विदलित : भूकृ०वि० (सं० विदलित ) । विशीर्ण, खण्डित | 'बान बिदलित उर सोवहिगो ।' गी० ६.४.४ बिदले: विदलित + ब ० ( प्रा० विदलिय ) । नष्ट किये । 'बिदले अरि कुंजर । हनु० १८ बिदा : सं०स्त्री० (अरबी - वदाभ - रुखसत करना) । (१) जाने की अनुमति । 'बिदा मातु सन आवउँ मागी ।' मा० २.४६. ४ ( २ ) प्रास्थित ( रुख्सत ) । 'बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ।' मा० १.६२ (३) लौट जाने की अनुमति | 'बिदा कीन्ह बृषकेतु ।' मा० १.१०२ बिदारत: वकृ०पु० (सं० विदारयत् > प्रा० विदारंत) । फाड़ता - फाड़ते । मा० ६. ६८.६ बिदरन : वि०पु० । विदीर्ण करने वाला, विनाशक । 'खल दल बिदारन।' मा० ६.१०३ छं० १ विदाहि : आ० प्रब० । फाड़ते हैं । 'उदर बिदारहि भुजा उपारहिं ।' मा० ६.८१.६ बिदारि : पूकृ० । फाड़कर । मा० ६.१०० छं० बिदारी : 'एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी । भागि चलहि ।' मा० ६.६८.५ बिदारे : भूकृ०पु०ब० । फाड़ डाले । 'मारे पछारे उर बिदारे । मा० ३.२० छं० २ बिधारेसि : आ - भूकु०पु० प्र० । उसने फाड़ डाला । 'चोचन्ह मारि बिदारेसि देही ।' मा० ३.२६.२० बिदित: भूकृ०वि० (सं० विदित) । जाना हुआ, प्रसिद्ध । मा० १.७.८ बिदिस, सि: सं० स्त्री० (सं० विदिश्) । चारों दिशाओं की अन्तराल दिशाएँ-आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ऐशान । मा० ६.६३.६; ३.१०.११ बिदुर : सं०पु० (सं० विदुर ) । कौरवों की सभा में एक सज्जन का नाम जो दासीपुत्र थे और भक्त तथा ज्ञानी थे । दो० ४१८ For Private and Personal Use Only बिदुष: दि०० (सं० विद्वस् ) । ज्ञानी, विद्वान् । मा० १.३०६.५ बिदुषरह, नि: बिदुष + संब० । ज्ञानियों (ने) । 'बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । ' मा० । १.२४२.१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 732 तुलसी शब्द-कोश 'बिदूषक : (१) सं.पुं० (सं० विदूषक) । स्वांग भर कर हास-परिहास प्रस्तुत करने वाला । भांड़ । हास्याभिनय करने वाला । 'करहिं बिदूषक कौतुक नाना।' मा० १.३०२.८ (२) वि० । दोष निकालने वाला, निन्दक, दूषित करने वाला । 'बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ।' मा० २.१६८.२ 'बिदूषहिं : आ०प्रब० । दोष लगाते हैं । ‘इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।' मा० १.२७६.३ बिदूषहि : आ० मए । तू दोष लगा, तू दोषारोपण कर । 'जनि तेहि लागि बिदूषहि केही।' विन० १२६.४ बिदूषित : वि० (सं० विदूषित) । विशेष दोषयुक्त । पा०म० ४ बिदेस : सं०पु० (सं० विदेश)। स्वदेश से बाहर देश, परदेश । मा० २.१४.५ विदेहँ : विदेह ने, जनक (सीरध्वज) ने । 'दीन्ह बिदेहँ बहोरि ।' मा० १.३३३ बिदेह : (१) सं०० (सं० विदेह) । जनक वंश के पूर्वज 'निमि' को शापवश देह त्याग करना पड़ा था अतः उनके वंशजों को 'विदेह' कहा गया । (२) मिथिला जनपद (जो जनक राजाओं का देश था)। 'कहहु बिदेह-भूप कुसलाता।' मा० २.२७०.६ (३) विदेहराज=सीता जी के पिता=सीरध्वज । मा० १.२६६ (४) स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीरों के अध्यास से मुक्त = जीवन्मुक्त । 'भयो बिदेह बिभीषन ।' गी० ५.३६.२ बिदेहता : (दे० बिदेह) देहाध्यास मुक्त दशा, आत्मलीन यति की जीवन्मुक्त ___ अवस्था । 'कब ब्रज तज्यो, ज्ञान कब उपज्यो, कब बिदेहता लही है।' कृ० ४२ बिदेहपुर : विदेहवंश की राजधानी जनकपुर । मा० १.३३७ बिदेहु, हू : बिदेह+कए । (१) जनकराज (२) देहाध्यासरहित मुक्त पुरुष । __ 'भयउ बिदेहु बिदेहु बिदेषी।' मा० १.२१५.८ । बिद्दरत : बिदारत । 'बिकट कटकु बिद्दरत बीरु ।' कवि० ६.४७ बिहरनि : बिदरनि । विदारण करने वाली । 'सृग बिद्दरनि जनु बज्र टाँकी ।' कवि० ६.४४ बिद्दरित : भूक० (सं० विदारित) । फाड़ा (हुआ) । विन ० ५२.४ बिद्यमान : (१) वि० (सं० विद्यमान) । उपस्थित, सामने वर्तमान । 'बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कहिं प्रतापु ।' मा० १.२७४ (२) वर्तमान काल । 'बात कहीं मैं विद्यमान की ।' गी० ५.११.४ । बिद्यइ : विद्या (ने) भी । 'बिद्यहु लही बड़ाई ।' गी० १.५५.६ ।। बिद्या : विद्या । (१) शिक्षा, शास्त्रादि-ज्ञान । 'बिद्यानिधि कहुं विद्या दीन्ही ।' मा० १.२०६.७ (२) परमार्थ-ज्ञान । 'प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।' मा० ७.७६.२ For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 733 बिद्यानिधि : परमार्थ ज्ञान के सागर=सर्वज्ञ । मा० १.२०६.७ विद्युत : सं०स्त्री० (सं० विद्युत्) । बिजली । कवि० २.१६ । विद्रुम : सं०० (सं० विद्रुम । मूगा (रत्नविशेष) । मा० ७.२७ छं० बिधंस : सं०० (सं० विध्वंस>प्रा. विद्धंस) । विनाश । 'जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा।' मा० १.६५.२ बिधंसा : बिधंस । मा० ६.७६.२ विघसि : पू० । नष्ट करके । 'जग्य बिसि कुसल कपि आए।' मा० ६.८५ बिधवन्ह : बिधवा+संब० । विधवाओं। 'बिधवन्ह के सिंगार नबीना।' मा० ७.६६.५ बिधवपन : सं०० (सं० विधवात्व>प्रा० विहवत्तण>अ० विहवप्पण) । पतिहीन दशा । मा० २.१८०.४ विधवा : सं०+वि०स्त्री० (सं० विधवा =धवरहिता, पतिहीना)। जिस स्त्री का पति मर चुका हो। मा० ३.५.१६ विधातहि : विधाता को, देव को। ‘बाम बिधातहि दूषन देहीं ।' मा० २.२०२.४ बिधाता : विधाता ने । 'सो फलु मोहि बिधाता दीन्हा ।' मा० १.५९.३ बिधाता : विधाता । (१) ब्रह्मा । मा० १.७.१ (२) देव, नियति । 'होइ बिधाता बाम ।' मा० १.१७५ (३) वि०पू० । विधायक, कर्ता, करने वाला। बिद्या बारिधि बुद्धि बिधाता ।' विन० १.३ बिधातो : विधाता भी, देव भी। 'हो तो'"अनुकूल बिधातो।' विन० १५१.८ विधात्री : सं०स्त्री० (सं० विधात्री)। ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती। मा० १.५४ विधान, ना : सं०० (सं० विधान)। (१) नियम, रीति । 'बेदी बेद बिधान सँवारी।' मा० १.१००.२ (२) प्रकार । 'बिबिध बिधान बाजने बाजे ।' मा० १.३४६.३ (३) कर्मकाण्डीय कार्य । 'लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइअ ।' पा० मं० १२२ बिधानी : वि०० । विधान के ज्ञाता, शास्त्रविधि में निपुण । गी० १.४.१२ बिधानु : विधान+कए । कार्य । 'करि लोक बेद बिधानु ।' मा० १.३२४ छं० ३. विधि : सं. (सं० विधि) । (१) विधाता, ब्रह्मा । मा० २.२३१ (२) देव, नियति, भाग्य । 'बिधि बाम की करनी कठिन ।' मा० २.३०१ छं० (३) रीति, रचना शैली, प्रकार । 'हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के।' मा० १.१५.४ (४) विधान, नियम, कर्तव्य कर्म । बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।' मा० १.२.६ (५) उपाय, उपक्रम । 'हे बिधि मिलइ कवनि बिधि बाला ।' मा० १.१३१.८ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 734 तुलसी शब्द-कोश विधिता : विधातृत्व, ब्रह्मा का पद । 'हरिहि हरिता, बिधिहि बिधिता, सिवहि सिवता जो दई।' विन० १३५.३ विधिवत : क्रि०वि० (सं० विधिवत्) । यथा विधि, नियमानुसार । । मा० १.६५.२ विधिसुत : ब्रह्मा के पुत्र=विश्वाकर्मा । गी० ७.१७.३ बिधु : विधु । चन्द्रमा। मा० १.८.१४ विधुतुद : सं०० (सं० विधुतुद) । चन्द्रमा को व्यथित करने वाला =राहु । मा० ६.६२ छं० बिधुकर : चन्द्रकिरण । 'बिधु-कर-निकर बिनिंदक हासा ।' मा० १.१४७.२ बिधुबदन : (१) चन्द्रमा के समान मुख । (२) चन्द्रमा के समान मुख वाला। मा० १.३५७.७ बिधुबदनि : बिधुबदनी । गी० २.२१.१ बिधुबदनीं : बिधुबदनी+ब० । चन्द्रमखियाँ, सुन्दरियाँ । मा० १.२६७.२ बिधुवदनी : चन्द्रमुखी चन्द्रमा के समान आह्लादक मुख वाली। मा० १.१०४ बिधुबैनी : बिधुबदनी (सं० वदन>प्रा० वयण)। 'संग लिए बिधुबनी बधू ।' कवि० २.१६ बिघूम : वि० (सं० विधूम)। निर्ध म, धुएं से रहित । 'जारि बारि कै बिधूम ___ बारिधि बुताइ लूम ।' कवि० ५.२६ बिन : बिना । 'को बारिद बिन देइ ।' दो० २६० बिनइ : पूक० । विनय करके, वन्दना करके । पा०म० १ बिनई : वि०पू० (सं० विनयिन्) । विनयशील, शिष्ट । सभ्य । मा० ७.२५.७ बिनतहि : विनता को । 'क, बिनतहि दीन्ह दुखु ।' मा० २.१६ बिनता : सं० स्त्री० (सं० विनता) । गरुड़ (तथा पक्षियों) की माता=कश्यप की पत्नी। बिनती : सं० स्त्री० (सं० विज्ञप्ति>प्रा० विण्णत्ती)। निवेदन, अनुरोध, प्रार्थना । मा० १.४ बिनय : सं०स्त्री० (सं० विनय-पु०) । (१) शिष्टाचार, शिष्ट व्यवहार= समृदाचार । (२) प्रार्थना । 'ता तें बिनय करउँ सब पाहीं ।' मा० १.८.४ बिनयपत्रिका : (सं० विनयपत्रिका) निवेदनपत्र, प्रार्थनापत्र (तदनुसार ग्रन्थ का नाम) । विन० २७७.३ बिनयो : बिनई । कवि० १.२२ बिनवउ : आउए० (सं० विज्ञापयामि>प्रा० विण्णवमि>अ० विन्नवउँ)। अनुरोध (प्रार्थना) करता हूं। 'महाबीर बिनवउँ हनुमाना ।' मा० १.१७.१० बिनवत : वक०० (सं० विज्ञापयत्>प्रा० विन्नवंत)। अनुरोध करता-ते । 'केवट जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।' मा० २.२४२.८ For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 735 बिनवति : वकृ०स्त्री० । निवेदन करती । सभय हृदय बिनवति जेहि तेही ।' मा० १.२५७.४ बिनहिं : आ०प्रब० (सं० विज्ञापयन्ति>प्रा० विन्नवंति>. विन्नवहिं)। अनुरोध करते हैं। (नर-नारी) बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी।' मा० २.२७३.५ बिनवौं : बिनवउँ । कवि० ७.१४७ बिनस, बिनसइ : आ०ए० (सं० विनश्यति >प्रा० विणसइ) । नष्ट होता है, ___ अदृश्य या विकृत होता है । 'उपजइ बिनस इ ग्यान जिमि ।' मा० ४.१५ ख बिनसाइ : बिनसइ । विकृत होता है । 'छीरसिंधु बिनसाइ ।' मा० २.२३१ बिनहि : विना ही। मा० १.५९ बिना : अव्यय (सं० विना) । मा० १.१०.४ बिनाए : भूकृ००ब० (सं० विचायित>प्रा० विइणाविय) । चुनाये, चुगाए । 'बिकल बिनाए नाक चना हैं ।' गी० ७.१३.७ बिनायक : सं०+वि०पु० (सं० विनायक)। स्वामी या नेता, गणों के मखिया = गणेश जी। विन ० १ बिनायक : बिनायक+कए । गणेश । रा०प्र० १.१.१ बिनास : सं०० (सं० विनाश) । ध्वंस, संहार । रा०प्र० १.७.४ बिनासन : वि०पु० । विनाशकारी। मा० ७.१४.३ बिनासि : पूकृ० (सं० विनाश्य>प्रा० विणासिय>अ० विणासि) । नष्ट करके । 'पर संपदा बिनासि नसाहीं।' मा० ७.१२१.१६ बिनास्यो : भूकृ००कए ० । नष्ट कर दिया। 'कुबासना बिनास्यो ग्यानु ।' कवि० ७.८४ बिनिदक : वि० (सं० विनिन्दक)। निन्दा या तिरस्कार करने वाला। 'बिधु कर निकर बिनिंदक हासा।' मा० १.१४७.२ बिनिदनिहारु : वि००कए । विनिन्दक, तिरस्कार करने वाला। 'दुकूल दामिनि दुति बिनिदनिहारु।' गी० ७.८.४ बिनीत, ता : वि० (सं० विनीत) । विनयशील, शिष्ट । मा० १.१८८; ३.५.१ बिनु : बिना (अ० विण) । 'नृपु कि जिइहि बिनु राम ।' मा० २.४६ बिनोद : सं०पु० (सं० विनोद)। (१) इच्छा, वासना । 'निर्गुन बिगत बिनोद ।' मा० १.१६८ (२) आमोद, हास-विलास । 'कौतुक बिनोद प्रमोद प्रेम ।' मा० १.३२७ छं० ३ (३) मनोरञ्जन । 'एहि बिधि करत विनोद बहु ।' मा० ६.१६ क (४) क्रीड़ा, कौतुक । 'कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ।' मा० ६.११७ क For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 736 तुलसी शब्द-कोश बिनोदु : बिनोद+कए० । मा० १.३५५.४ बिपच्छ : वि० (सं० विपक्ष) । विरुद्ध पक्ष वाला, विरोधी। (१) प्रतिकूल । 'जो बिपच्छ रघुबीर ।' दो० ७२ (२) शत्रु । हनु० १६ बिपति, ती : बिपत्ति । मा० १.१८.१० बिपतिहर : वि० (सं० विपत्तिहर) । विपत्ति दूर करने वाला । गी० ६.१६.४ बिपत्ति: सं०स्त्री० (सं० विपत्ति) । आकस्मिक संकट । मा० १.५६ बिपदा : सं०स्त्री० (सं० विपदा) । विपत्ति । मा० ७.१४ छं०७ बिपरीत, ता : वि० (सं० विपरीत)। प्रतिकूल, उलटा। मा० १.६३, १.१८४.६ बिपाक : सं०० (सं० विपाक) कए०। (१) परिपाक (२) परिणाम (३) प्रारब्ध कर्मों का फल । 'कुसमय जाय उपाय सब केवल करम बिपाकु ।" रा०प्र० ७.६.५ बिपिन : विपिन । वन । मा० १.४६.७ बिपुल : वि० (सं० विपुल)। विशाल, दीर्घ, विस्तृत, अधिक, प्रचुर, अतिमात्र । मा० १.४० बिपुलाई : सं०स्त्री० (सं० विपुलता) । प्रचुरता, अतिविस्तार । 'राम तेज बल बुधि ___ बिपुलाई ।' मा० ५.५६.१ 'सिंधु बिपुलाई ।' मा० ६.४.६ विप्र : वित्र । मा० १.१७३ विप्रन, न्ह : विप्र+संब० । ब्राह्मणों। 'ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं ।' मा० ७.१००.७ विप्रहु : बिप्र+सम्बोधन। हे ब्राह्मणो। 'बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा ।' मा० १.१७४.५ विप्रेण : (सं० विप्रेण) विप्र द्वारा । मा० ७.१०८ श्लो०६ बिफल : वि० (सं० विफल) । निष्फल, सिद्धिहीन । मा० ६.६२.४ बिबर • सं०० (सं० विवर)। छेद, कोटर, गुहा । मा० ४.२४.५ बिबरत : वकृ०० (सं० विवृण्वत् >प्रा. विबरंत) । ब्योरते, सुलझाते । 'चिकुर बिलुलित मदुल करनि बिबरत ।' गी० ७.५.२ बिबरन : (१) सं०पुं० (सं० विवरण) । विवेचन, अलगाव, अलगाने की क्रिया । 'छीर नीर बिबरन गति हंसी।' मा० २.३१४.८ (२) वि० (सं० विवर्ण)। बदले रंग वाला, जिस (के मुख) का रंग उड़ गया हो, फक । 'बिबरन भयउ निपट नरपालू ।' मा० २.२६.६ बिबराए : भूकृ००ब० (सं० विवारित>प्रा० विवराविय)। विविक्त कराये अलग-अलग कराये, सुलझवाए। 'पुनि निज जटा राम बिबराए।' मा० ७.११.७ For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 737 बिबरिहि : आ० भ० प्रए० (सं० विवरिष्यति>प्रा० विवरिहिइ) । विवृत होगा, निबटेगा, सुलझेगा । 'नीक सगुन बिबरिहि झगर ।' रा०प्र० ६.६.३ बिबर्ध, बिबई : आ०प्रए० (सं० विवर्धते) । बढ़ता है । 'सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ।' मा० ६.६२ दिवस : वि०+क्रि०वि० (सं० विवश)। (१) वशीभूत, पराधीन। 'प्रेम बिबस मख आव न वानी।' मा० १.१०४.३ (२) आपा भूले हुए । 'बेद बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं।' कवि० ७.६८ बिबाकी : सं०स्त्री० (फा० बेबाक)। जिसमें कुछ बाकी न हो, समाप्ति, अन्त । सहित सेन सुत कोन्हि बिबाकी।' मा० १.२४.४ विबाके : भूक ००ब० (फा० बेबाक)। निःशेष किये हुए, पूर्णतः समाप्त किये हुए । 'भे सनेह बिबक्ष, बिदेहता बिबाके हैं ।' गी० १.६४.२ बिबाद : सं०० (सं० विवाद) । तकरार, कलह, तर्क-वितर्क । पा०म० ४ बिबादन : बिबाद+संब० । विवादों (में)। 'उलटि बिबादन आइ अगाऊ।' कृ० १२ बिदाद : बिबाद+कए। तकरार । 'को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।' पा०म० ६५ बिबाह : विवाह में, से। 'एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना।' मा० १.७०.३ बिबाह : सं०० (सं० विवाह) । ब्याह । मा० १.६६ बिबाहह : आ०मब० (सं० विवाहयत>प्रा० विवाहह>अ० विवाहहु) । ब्याहो, विवाहित करो। 'जाइ बिबाहहु सैलजहि ।' मा० १.७६ बिबाहि : पूक० (सं० विवाह्य>प्रा० विवाहिअ>अ० विवहि) । ब्याह करके। रा०प्र० १.५.७ बिबाही : भूक स्त्री०ब० । विवाहित हुई, ब्याही गई। 'तहहुँ सती संकरहि बिबाहीं।' मा० १.६८.६ बिबाही : भूकृ०स्त्री० । ब्याही गई, ब्याह ली। पंच कहें सिव सती बिबाही। मा० १.७६.८ विबाहु, हू : बिबाह+कए । एक (अनोखा) ब्याह । मा० २.३६१; १.७१.६ बिबि : बिय । दो (संख्या)। बिबि रसना तनु स्याम है ।' दो० ३१३ बिबिध : वि० (सं० विविध) अनेक विधाओं से युक्त, बहुत प्रकारों का । 'प्रगटीं __ गिरिन्ह बिबिध मनि खानी ।' मा० ७.२३.७ बिबिधि : वि० (सं० विविधि) । विशेष रचनायुक्त, अनेक रीति सम्पन्न (प्रायः = विविध) । 'बिबिधि भांति बाहन ।' मा० ६.७६.२ बिबुध : सं०० (सं० विबुध)। (१) विशिष्ट विद्वान् । (२) देवता । 'हमरे बैरी बिबुध बरूथा।' मा० १.१८१.५ For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 738 तुलसी शब्द-कोश विबुधतरु : देवतरु । कल्पवृक्ष । मा० १.१४६.५ विबुध-धेनु : सुरधेनु । कामधेनु । कवि० ७.७६ बिबुधनदी : देवनदी । गङ्गाजी। मा० ३.२.७ बिबुधबेलि : (दे० बैलि) देवों की लता=कल्पलता (कलपबेलि)। गी० १.५७.२ बिबुध-बैद : (दे० बैद) =देव वैद्य, अश्विनी कुमार। मा० १.३२.३ बिबुधारि : सुरारि । असुर । विन० ५०.८ बिबुधेस : (सं० विबुधेश) देवराज इन्द्र। कवि० १.२१ बिबेक, का : सं०पू० (सं० विवेक)। (१) विवेचन, अन्तर समझने की बुद्धि । 'कबित बिबेक एक नहिं मोरें।' मा० १.६.११ (२) वास्तव ज्ञान । 'बिनु सतसंग बिबेक न होई ।' मा० १.३.७ (३) परमार्थ-ज्ञान (जिससे प्रकृति-पुरुष अथवा माया-ब्रह्म का अन्तर स्पष्ट हो)। 'श्रुति संमत हरिभक्त पथ संजुत बिरति बिबेक ।' मा० ७.१०० ख विबेकमय : वि० (सं० विवेकमय) । विवेकपूर्ण, सत्-असत् के अन्तर की समझ से पूर्ण । मा० २.६० बिबेकी : वि०पू० (सं० विवेकिन्) । विवेक-सम्पन्न, सदसत् का अन्तर करने वाला। मा० २.१४४ बिबेकु, कू : बिबेक+कए० । एक विवेक, जरा-सा भी विवेक। मा० १.४६ जिन्ह के करम न धरम बिबेकू ।' मा० १.२७.७ विभंग : सं०० (सं० विभङ्ग) । खण्डन, मर्दन, विनाश । गी० ७.४.१ विभंजन : विभंजन । विनाशक । 'नयन अमिअ दग दोष बिभंजन ।' मा० १.२.१ विभंजनि : बिभंजन+स्त्री०। नष्ट करने वाली। 'रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ।' मा० १.३१.५ विभंजय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० विभञ्जय) । तू नष्ट कर । मा० ७.३४.८ विभंजि : पू० (सं० विभञ्जय) । नष्ट करके । मा० ६.६२.२ विभव : सं०० (सं० विभव) । (१) ऐश्वर्य, सम्पत्ति । 'सत सुरेस सम बिभव बिलासा।' मा० १.१३०.३ (२) शक्ति, राजशक्ति । 'भाग्य बिभव अवधेस कर।' मा० १.३१३ (३) पूर्णता, प्रतिष्ठा, पूर्ण स्थिति । 'भव भव बिभव पराभव कारिनि ।' मा० १.२३५.८ (४) उपलब्धि । 'कहि निज भाग्य विभव बहुताई ।' मा० १.३२१.२ (५) अष्टसिद्धि, योगविभूति । मा० २.२१४ बिभाग, गा : सं०० (सं० विभाग)। (१) खण्ड, अंश, भाग। मा० १.४४ (२) अङ्ग, एक देश । 'कानन भूमि बिभाग । रा०प्र० ६.१.६ (३) विभाजन, वर्ग, वर्गीकरण । 'वन विभाग न आश्रम धर्म ।' कवि० ७.८५ (४) वर्गीकृत रचना । 'सुमननि भूषन बिभाग।' गी० २.४४.४ (५) भू-भाग । 'लिये बेंत छरी सोधे बिभाग।' गी० ७.२२.४ For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश farart: वकoस्त्री० (सं० विभाती) । शोभित होती । 'भनिति मोरि सिव कृप भाती । मा० १-१५.६ fafमचारी : rिog' ० (सं० व्यभिचारिन् ) । अनाचारी (विशेषत: कामुक वृत्ति वाला), मर्यादाहीन । मा० ३.१७.१५ 739 बिभीषन : विभीषण । रावण का अनुज । मा० ५.२६.६ बिमोषनु : विभीषन + कए० । अकेला विभीषण ( ही ) । ' तेही समय बिभीषन जागा । मा० ५.६.२ बिभीषनं : विभीषण को । 'नेवाजिहैं बजाइ के बिभीषने ।' कवि० ६.२ बिभु: विभु । (१) सर्वेक्षर । 'जों अनीह ब्यापक बिभु कोऊ ।' मा० १.१०६.१ (२) विभु द्रव्य = आकाश, दिशा, काल और आत्मा । I 'विभुन: बिभु + संब० । चार विभु द्रव्यों । 'जनु जीव अरु चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं ।' मा० १.३२५ छं० ४ बिभूति, ती : सं० स्त्री० (सं० विभूति) । (१) ऐश्वयं सम्पत्ति । 'कहि न जाइ कछु नगर बिभूती ।' मा० २.१.५ (२) शक्ति, बल । 'चातक हंस सराहिअत टैंक बिबेक बिभूति ।' मा० २.३२४ (३) महत्ता, उच्च पद । 'बिजय बिभूति कहाँ जग ताकेँ ।' मा० ५.५६.७ ( ४ ) भस्म । 'तन बिभूति पट केहरि छाला ।' मा० १.६२.२ (५) अष्टसिद्धि (दे० सिद्धि ) । बिभूषन: सं० + वि०पु० (सं० विभूषण) । (१) अलंकार, गहना । 'बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ।' मा० १.१४७.७ (२) विभूषित करने वाला । 'बिस्व बिभूषन दोउ ।' मा० १.२६१ (३) काव्यालंकार = शब्दालंकार + अर्थालंकार । 'मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन । मा० २.४१.६ बिभेद, दा: सं०पु० (सं० विभेद) । (१) द्वैत बुद्धि, मायाकृत अनेकत्व । 'समदासी मुनि बिगत बिभेदा ।' मा० ७.३२.५ (२) राजनीति की भेदनीति ( जो साम, दान, भेद और दण्ड में तृतीय मानी गयी है ) । मा० ६.३८.६ 'बिभेदकरी : वि०स्त्री० (सं० विभेदकरी ) । मायाकृत द्वैत लाने वाली । मा० ६.१११.१६ बिभो : विभो । हे प्रभु । मा० ६.१०३ छं० बिमत : वि० (सं० विमत ) । विपरीत मत वाला वाले । 'छमत बिमत न पुरान मत एकमत ।' विन० २५१.४ बिमत्त: वि० (सं० विमत्त ) । अत्यन्त मतवाला - ले । ' जे ग्यान मान बिमत्त ' For Private and Personal Use Only मा० ७.१३.३ विमद : वि० (सं० विमद) । मदरहित, अभिमान आदि दोषहीन । 'सम अभूत-रिपु बिमद बिरागी ।' मा० ७.३८.२ मिर्वन : वि० । विनाशकारी । 'अच्छ बिमर्दन ।' हनु० १६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 740 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बिमल : विमल । मा० १.१.३ बिमलता : सं० स्त्री० (सं० विमलता ) । निर्मलता, कल्मषहीनता, कायिक, वाचिक तथा मानस आदि दोषों और कर्म-वासना आदि मलों से निवृत्ति। मा० १.३२४ छं० १ बिमलमति : (१) निर्मल बुद्धि । ( २ ) निर्मल बुद्धि वाला । मा० १.३५.२ बिमात्र : वि०पु० (सं० वैमात्र, वैमात्रेय ) । सौतेली माता का पुत्र, सौतेला भाई । मा० १.१७६.४ बिमान, ना: सं०पु० (सं० विमान) । (१) शिविका । (२) यान, वाहन । (३) देवयान ( वायुयान ) । मा० १.६१ ( ४ ) मानहित । (५) अटाला, सतमँजला भवन । 'अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना । जेहि बिलोकि बिलबाहि बिमाना । मा० २.२१४.४ बिमाननि, न्हि: विमान + संब० । विमानों (पर) । 'चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ।" मा० १.३१४.२ बिमानु : बिमान + कए० । (१) शिविका ( शवयान ) । 'परम बिचित्र बिमानु बनावा ।' मा० २.१७०.१ ( २ ) देवयान ( पुष्पक) । ' रुचिर बिमान चलेउ अति आतुर ।' मा० ६.११६.६ 6 विमुक्त: वि० (सं० विमुक्त ) | पूर्णतः बन्धनमुक्त; संसार मुक्त | मा० ७.१५.५: बिमुख : विमुख । (१) वञ्चित, रहित । 'संकर बिमुख जिआवसि मोही ।' मा०१. ५.४ (२) प्रतिकूल, विपरीत । 'धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता ।' मा० २.१४३.२ ( ३ ) पराङ्मुख । 'लोक बेद ते बिमुख भा ।' मा० २.२२८. ( ४ ) विफल, निराश । 'सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ।' मा० २३०७.३ विमूढ ढा : वि० (सं० विमूढ) । (१) अतिमूढ़, महामोह प्रस्त । 'कलि मल ग्रसित मूढ ।' मा० १ ३० ख (२) अविवेकी - कर्तव्याकर्तव्य निर्णय-शून्य । 'सहसा करि पछिताहि विमूढा । ' मा० २.१९२.७ बिमोच : ( समासान्त में) वि०पुं० (सं० विमोच) बिमोचन । 'सीतानाथ सब संकट - बिमोच है ।' कवि० ७.८१ For Private and Personal Use Only बिमोचन : वि०पु० । छोड़ने या छुड़ाने वाला = मुक्तकारी । 'बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन ।' मा० ६.६१.१७ बिमोचन : बिमोचन + स्त्री० । मुक्त करने वाली । मा० १.२९७ २ बिमोचहीं : आ०प्र० । छोड़ते हैं । 'नयन बारि बिमोचहीं ।' मा० १.६७ छं० बिमोच : बिमोच + कए । एकमात्र मुक्तकर्ता । ' महाराज हूं कह्यो है, प्रनत- बिमोचु हौं ।' कवि० ७.१२१ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 741 'बिमोह : (१) सं०० (सं० विमोह)। महामोह, व्यामोह, मतिभ्रम ।' मा० १.४६ (२) बिमोहइ । मोहित हो जाय । 'अरि बिमोह जितु रुप निहारी।' मा० १.१३०.४ 'बिमोह, बिमोहइ, ई : आ०प्रए० (सं० विमोहयति>प्रा० विमोहइ) । मोहित करता-ती है । 'मनसिजु सकल भुवन बिमोहई ।' मा० १.३१६ छं० 'बिमोहन : (१) सं०पु० (सं० विमोहन)। मोहने की क्रिया । (२) वि० । ___ मोहित करने वाला । मा० १.२९७.४ "त्रैलोक्य बिमोहन रूप।' कृ० २१ बिमोहनसीला : वि० (सं० विमोहनशील) । मोहने के शील वाला=मोहक । मा० १.११३.८ बिमोहनि : वि०स्त्री० (सं० विमोहनी)। मोहने वाली = व्यामोहिका (माया) । मा० १.२३५.८ बिमोहा : विमोह । कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा ।' मा० ७.८३.५ बिमोहे : भूक००० (सं० विमोहित>प्रा० विमोहिअ । मोह में पड़े, मोहग्रस्त हुए । 'सुरमायाँ सब लोग बिमोहे ।' मा० २.३०२.४ बिय : (१) वि० (सं० द्वितीय>प्रा० विईय)। दूसरा । दो० १६६ (२) संख्या (सं० द्वि>प्रा० वि) । दो। (३) सं०० (सं० बीज>प्रा० बीय) । 'बचन बिबेक बीर रस बिय के ।' गी० ४.१.३ बियत : सं० (सं० वियत्) । आकाश । 'महि पताल बियत । विन० १३२.२ बिया : बिय । दूसरा । 'तो सो ग्यान निधान को सरबग्य बिया रे ।' विन० ३३.६ बियाह : बिआह । बिये : 'बिया' का रूपान्तर । दूसरे । 'कहिबे की न बावरि बात बिये तें।' कवि० ७.१२६ बियो : बिया+कए० (सं० द्वितीय:>प्रा० विईयो) । दूसरा, अन्य । 'न भयो न __ भाबी नहिं विद्यमान बियो है ।' कृ० १६ बियोग : सं०पू० (सं० वियोग) । विरह (संयोग का विलोम) । मा० २.६७ बियोगन्हि : बियोग+संब० । वियोगों (से, ने) । 'बहु रोग बियोगन्हि लोग हए।' मा० ७.१४.६ बियोगभव : (वियोग+ भव) । वियोगजनित । मा० ७.६ छं० बियोगा : बियोग । मा० ७.५.१ बियोगि, गी : (१) वि०पु० (सं० वियोगिन्)। विरही। मा० २.१४३.६; १.२२.१ (२) रहित । 'द्वैत-बियोगी।' विन० १६७.४ 'बियोगु, गू : बियोग+कए० । विरह । मा० २.६८.१; ३१८.२ बिरंचि : सं०पु० (सं० विरञ्चि) । ब्रह्मा । मा० १.२२.१ For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 742 तुलसी शब्द-कोश बिरक्त : वि० (सं० विरक्त)। रागरहित (अनुरक्त का विलोम), विरागी, विषय वासना रहित । मा० १.८५.८ बिरचत : वकृ०० (सं० विरचयत् >प्रा० विरच्चंत)। रचना करता-करते । मा० १.१७५.२ बिरचति : बिरचत+स्त्री० । रचना करती। मा० ५.२१.४ विरचि : (१) पूक० (सं० विरच्य) । रचकर, बनाकर। जिन्हहि बिरचि बड़ भय उ विधाता ।' मा० १.१६८ (२) बिरची। बनायो, रची हुई । 'बिरचि बिरंचि की बसति बिस्वनाथ की ।' कवि० ७.१८२ बिरची : भूकृ०स्त्री० । बनायी। 'विरची बिघि सँकेलि सुषमा सो।' मा० २.२३७.५ बिरचे : भूकृ.पु०ब० । रचे, बनाये । 'संबाद बर बिरचे ।' मा० १.३६ बिरचेउँ : आ० - भूकृ.पु+उए । मैंने रचा । पा०म० ५ बिरचेउ : भूकृ००कए । रचा, बनाया। 'बिरचे उ संभु सुहावन पावन ।' मा० १.३५.६ बिर चें : आ०प्रब० । बनाते हैं, रचना करते हैं। 'बिधि बिर, बरूथ बिधुत छटनि के ।' कवि० २.१६ बिरचो, बिरच्यो : बिरचेउ । 'जो बिरंचि बिरचो है ।' विन० २३०.२ पा०म०/० २. बिरज : विरज । रजोगुण-रहित, निर्मल । 'ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज ।' मा० १.५० बिरत : (१) बिरक्त (प्रा० विरत्त) । 'सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई ।' मा०. ७.१५.५ (२) वि० (सं० विरत) । विराम पाया हुआ। अनासक्त (रत का विलोम) । 'रत-बिरत बिलोकि.. प्रेम मोद मगन ।' गी० १.८४.५ विरति, ती : (१) विरति । विराम, अनासक्ति (रति का विलोम)। (२) सं०स्त्री० (सं० विरक्ति>प्रा० विरत्ति=विरत्ती)। वैराग्य, रागहीनता (अनुरक्ति का विलोम) । मा० १.२२.१ बिरथ : वि०पु० (सं० विरथ) । रथहीन (पैदल) । मा० ६.८०.१ बिरद : बिरुद । मा० १.२६६.१ विरदावलि, ली : बिरुदावली । हनु० ३१ कृ० ६० बिरदु : बिरद-+कए० । अपनी सुकीर्ति । 'असरन सरन बिरदु संभारी ।' मा०. ७.१८.३ विरदैत : बिरुदैत । 'बरन बरन बिरदत निकाया ।' मा० ६.७९.४ बिरले : वि०पू०ब० (सं० विरला:>प्रा० विरलया)। कोई, अल्प । 'बिरले-बिरले पाइए माया-त्यागी संत ।' वैरा० ३२ बिरलेन्ह : बिरले+संब० । बिरलों (ने); थोड़े लोगों (ने) । मा० ७.१२२.२ For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 743 बिरवं : बिरवा में, वृक्ष में । 'अभिमत बिरवं परेउ जन पानी ।' मा० २.५.४ बिरव : विविध रव =नाना ध्वनियां । मा० १.३४४.२ बिरवनि : बिरवा+संब० । वक्षों (में)। 'बिरवनि रूप करह जनु लाग।' गी० १.२६.२ बिरवा : सं०० (सं० विटप>प्रा० विडव) । वृक्ष । पा०म०छं० २ बिरहें : विरह में, से । 'जासु बिरह सोचहु दिनराती।' मा० ७.२.३ बिरह : सं०पु० (सं० विरह) । (१) अभाव (२) वियोग ।' मा० १.४६.७ बिरहवंत : वि०० (सं० विरहवत्>प्रा० विरहवंत)। विरही, बियोगी। मा० बिरहा : बिरह । वियोगदशा । 'ब्योंत करै बिरहा दरजी।' कवि० ७.१३३ बिरहाकुल : विरह से विकल । मा० ५.१२.१२ बिरहागि, गी : सं० (सं० विरहाग्नि>प्रा० विहग्गिः=विरहग्गी)। वियोग. सन्ताप । मा० २.८४.४ बिरहित : रहित, बिगत । 'बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।' मा० २.१२४.८ बिरहिन : बिरही+संब० । वियोगियों। 'बिरहिन पर नित नइ परै मारि ।' गी० २.४६.६ बिहिनि, नी : वि.स्त्री० (सं० विरहिणी) । प्रिय-वियोगिनी । मा० १.२३८.१ बिरही : वि.पु. (सं० विरहिन्) । प्रेमवियोगी; मा० ३.३०.१६ बिरहु : बिरह+कए । एकमात्र वियोग। 'पेम अमिअ मंदर बिरहु ।' मा० २.२३८ बिराग : सं०० (सं० विराग) । वैराग्य (राग का विलोम) । मा० १.३२.३ बिरागरूप : जिसका वैराग्य ही रूप हो=मूर्त विराम । 'सहज बिरागरूप मनु मोरा ।' मा० १.२१६.३ बिरागहि : बिराग+मए । तू विरक्त होता है । 'रोम बियोग बिलोकतह न बिरागहि रे ।' कवि० ७.२१ बिरागा : बिराग । मा० १.६.६ बिरागिहि : विरागी को-के लिए । 'बिषय-बिरागिहि मीठ ।' रा०प्र० २.६.१ बिरागी : वि०पु० (सं० विरागिन्) । रागरहित =वैराग्ययुक्त । विषय-विरक्त । मा० १.१८५.७ बिरागु, गू : बिराग+कए। मा० ७.२७.१; २.१०७.५ बिरागे : भक००ब० । विरागयुक्त हुए। 'लखि गति ग्यानु बिराग बिरागे।' मा० २.२६२.१ For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 744 तुलसी शब्द-कोश बिरागड : भूकृ०पु० ए० । विरागयुक्त हुआ । 'बँधेउ सनेह विदेह बिराग बिरागेउ ।' जा०मं० ४१ / बिराज बिराजइ : आ०प्र० (सं० विराजति ) । सुशोभित है । 'जहँ नृप राम बिराज ।' मा० ७.२६ 'सीय सुभाय बिराजइ ।' जा०मं० १४१ बिराजत: वक०पु० । शोभित होता होते । 'बरन बिराजत दोउ । मा० १.२० बिराजति : वकृ० स्त्री० । शोभित होती । मा० १.२.१० बिराजते : बिराजत + ब० । शोभित होते । मा० ७.१२ छं० १ बिराजमान : वकृ०पु० (सं० विराजमान ) । शोभमान ( विद्यमान ) । कवि० १.१५ बिराजहिं, हीं आ०प्र० । शोभित होते ती हैं । 'घायल बीर बिराजहि ।' मा० ६.५४.१; मा० १.३२४ छं० १ बिराजहि : आ०म० । तू विराजता है ( उपस्थित होता है ) । 'संत सभाँ न बिराजहि रे ।' कवि० ७.३० 1 बिराजा : (१) बिराजइ । शोभित है । 'कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ।' मा० १.८६.६ (२) भूकृ०पु० । शोभित हुआ । 'राज सभां रघुराजु बिराजा ।' मा० २.२.१ बिराजिहैं : आ०भ० प्रब० । शोभित होंगे । 'राजसमाज बिराजिहैं राम पिनाक चढ़ाई के ।' गी० १.७०.७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिराजी : भूकृ० स्त्री० । सुशोभित हुई, विद्यमान थी । 'अति बिचित्र बाहिनी बिराजी ।' मा० ६.७६.५ बिराजे : भूकु०पु०ब० । शोभित हुए । 'बर बिरिद बिराजे । मा० १.२५.२ बिराजे : बिराजहिं । 'बाम ओर जानकी कृपानिधान के बिराजै ।' कवि० ६.५८ बिराज : बिराजइ । कवि० १.१८ बिराज्य : भूकृ०पु०कए० । विराजमान हुआ, उपस्थित हुआ । कवि० ५.४ बिराट : सं० + वि०पु० (सं० विराज, विराट्) । (१) अतिप्रमाण, अप्रमेय । (२) ब्रह्माण्डों में व्याप्त ब्रह्म का सगुण-साकार स्वरूप = विश्वरूप | रावन सो राजरोग बाढ़त बिराट उर ।' कवि० ५.२५ बिराटमय : (दे० बिराट) विश्वरूपाकार, ब्रह्मस्वरूप । मा० १.२४२.१ बिराध : विराध | राक्षसविशेष । मा० ३.७.६ बिराधु : बिराध + कए० । कवि० ६.११ बिराने : वि०पु०ब० । पराये । 'प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ।' विन० २३५.१ बिरावत : वकृ०पु० (सं० विलापयत् > प्रा० विलावंत ) । मुंह बना कर चिढ़ाते । 'बाल बोलि डहकि बिरावत ।' कृ० २ For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द.कोश 745 'बिरिद : बिरुद । मा० १.२५.२ बिरिदावलि, ली : बिरुदावलि । मा० २.२६६ बिरिद : बिरदु । मा० ५.२७.४ निरुचि : क्रि०वि० (सं० विरुचि)। रुचि के बिना, उपेक्षा करके । 'बिरुचि परखिए सुजन जन । दो० ३७४ बिरुज : वि० (सं० विरुज) । नीरोग, स्वस्थ । मा० ७.२१.५ बिरुझे : बिरुद्ध (सं० विरुद्ध प्रा० विरुज्झिय) । क्रुद्ध होकर टूट पड़े। 'बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे।' कवि० ६.३४ बिरुझो : भूक००कए० (सं० विरुद्धः>प्रा. बिरुज्झिओ)। क्रुद्ध हुआ (बिरझाया) । 'बिरुझो रन मारुत को बिरुदैत।' कवि० ६.३६ बिरुद : विरुद । प्रशस्ति-गाथा । मा० १.२६२ बिरुदावलो : (बिरुद+आवली) प्रशस्तियों की श्रेणी, कीर्तिसमूह । हनु० ३ बिरुदत : वि.पु. (सं० विरुदवित्त>प्रा० विरुदइत्त)। कीर्तिशाली, प्रशस्तियुक्त, लोबविख्यात । हनु० ३ बिरुद्ध, द्धा : भूकृ०० (सं० विरुद्ध)। प्रतिकूल, विरोधयुक्त । मा० ६.४३.१; ६.६७.१ विरुद्ध : बिरुद्ध+ब० । विरुद्ध हुए, रुष्ट हुए । 'बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे ।' मा० ६.८१.८ बिरुधाई : सं०स्त्री० (सं० वृद्धता) । बुढ़ापा । विन० १३६.८ बिरूप : वि० (सं० विरूप) । विकृत-बेष, विकृताङ्ग। 'जय निसिचरी बिरूप-करन।' ___ कवि० ७.११३ विरोध, धा : सं०पु० (सं० विरोध)। प्रतिकूलता, प्रतिरोध, शत्रुता, रोकटोक । मा० १.६२.६; ५.५७.४ बिरोधि : पूकृ० । विरोध करके । तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ।' मा० ३.२५ ८ बिरोधी : वि०पु० (सं० विरोधिन) । विरोधयुक्त, विपक्ष । मा० २.१६२ बिरोधु, धू : बिरोध + कए० । मा० २.१८; २.५५.४ बिरोधे : विरोध करने से । 'नवहिं बिरोधे नहिं कल्याना।' मा० ३.२६.३ बिलॅबत : वकृ०० (सं० विलम्बमान >प्रा० विलंबंत)। बिलमते, थोड़ी देर रुकते । बिलबत सरित सरोवर तीर ।' गी० १.५४.३ बिलंबे : भूक पु० ब० । बिल मे थोड़ा रुके । 'प्रभु तरु तर बिलंबे ।' गी० २.२४.४ बिल : सं०पु० (सं०) । भाठ, माँद, भूविवर । दो० ४० बिलंद : वि० (फा० बलन्द) । उच्च । विन० १८६.३ बिलंब, बा : संपु० (सं० विलम्ब) । रुकावट, देर । मा० ७.१०.८; १.८१.७ For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 746 तुलसी शब्द-कोश बिलंबिय : आभावा० । कुछ देर रुकिए । 'करौं बयारि बिलंबिय बट तर ।' गी० २.१३.२ बिलंबु : बिलंब+कए० । जरा भी देर या रुकावट । 'बिलंब न करिअ नृप ।' __ मा० २.४ बिलख : वि० (सं० विलक्ष>प्रा० विलक्ख)। चकित, विभ्रान्त, कर्तव्यमूढ, __ लज्जित । 'ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए।' मा० २.७०.१ बिलखा, बिलाखाइ, ई : आ०प्रए० (सं० विलक्षायते>प्रा० विलक्खाइ)। बिलखता है, अनमना या लज्जित होता है, संकोच पाता है, मुरझा जाता है । 'सबै सुमन बिकसत रबि निकसत कुमुदु बिपिन बिलखाई ।' गी० १.१.१० बिलखाइ : पूकृ० । विलक्ष होकर । (१) घबड़ा कर । 'सीता मातु सनेह बस बचन __ कहइ बिलखाइ।' मा० १.२५५ (२) लजा कर । 'साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।' मा० ६.३५ ख बिलखात : वक०० (सं० विलक्षायमाण>प्रा० विलक्खंत)। उदास या ब्याकुल होते । “ए किसोर, धनु घोर बहुत, बिलखात बिलोक निहारे ।' गी० १.६८.८ बिलखान : भूकृ००। विभ्रान्त हो उठा, ठक रह गया, घबड़ाया। 'कुंभकरन बिलखान ।' मा० ६.६२ बिलखानी : भूकृस्त्री० । लक्ष्यहीन हुई, घबड़ाई। 'भरत मातु पहि गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।' मा० २.१३.५ बिलखाने : बिलखान+ब० । (१) हैरान रह गये+म्लान हो उठे। 'सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुं सांझ सरसिज सकुचाने ।' मा० १.३३३.२ (२) म्लान हुए । 'विकसित कंज कुमुद बिलखाने ।' गी० १.३६.३ बिलखावति : वकृ स्त्री० (सं० विलक्षयन्ती>प्रा. विलक्खावंती)। विलक्ष करती, लज्जित करती । 'उरु करि कर करभहि बिलखावति ।' गी० ७.१७.५ बिलखाहि, हीं : आ०प्रब० (सं० विलक्ष्यन्ते>प्रा० विलक्खंति>अ० विलक्खाहिं)। बिलखते हैं । (१) हैरान होते हैं, लक्ष्यहीन से रह जाते हैं । 'राम कुभांति सचिव सँग जाहीं । देखि लोग जहँ तह बिलखाहीं।' मा० २.३६.८ (२) बिकल होते हैं, घबड़ाते हैं । 'सुख हरषाहिं जड़, दुख बिलखाहीं।' मा० २.१५०.७ (३) लजाते हैं । 'अस कहि रचे उ रुचिर गृह नाना । जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ।' मा० २.२१४.४ बिलखि : पूकृ० । बिलख कर, उदास होकर। 'बिलखि कहेउ मुनिनाथ ।' मा० २.१७१ बिलखित : भूकृ०वि० (सं० विलक्षित) । उदास । 'फिरे बिलखित मन ।' पा०म० १४५ For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 747 बिलखेउ : भूकृ००कए । हैरान हो गया, उदास हुआ। 'सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू ।' मा० १.३३६.७ बिलग : वि० (सं० विलग्न>प्रा. विलग्ग) । अलग, भिन्न । बिलग बिलग होइ चलहु सब ।' मा० १.६२ 'जल हिम उपल बिलग नहिं जैसे।' मा० १.११६.३ (२) फटा हुआ (विकृत)। 'पय बिलग होइ रसु जाइ ।' मा० १.५७ ख (३) सं०पु । अलगाव, अन्यथा भाव । 'बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ।' जा०म० १७३ 'बिलगा, बिलगाइ, ई : आ०ए० (सं० विलग्नायते>प्रा. विलग्गाइ)। अलग होता या हो सकता है । 'रामभगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ।' मा० ७.१११.६ बिलगाइ, ई : पू० । (१) हटा कर । 'निकसे जन जग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।' मा० १.२३२ (२) विवेचित करके । 'संत असंत भेद बिलगाई... कहहु ।' मा० ७.३७.५ (३) अलग अलग (करके) । 'पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई।' मा० १.३३७.८ बिलगाउ : आ-आज्ञा-प्रए० (सं० विलग्नायताम् >प्रा० विलग्गाउ)। अलग हो जाय । 'सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।' मा० १.२७१.५ बिलगाए : भूकृ०००। अलग किये । 'गनि गुन दोष बेद बिलगाए।' मा० बिलगाती : वकृस्त्री० । अलग होती, भेदभाव ग्रस्त होती। 'बरनत बरन प्रीति बिलगाती। मा० १.२०.४ बिलगान, ना : भूक००। (१) अलग हुआ, फट गया। 'जौं न हृदउ बिलगान।' ___ मा० १.६७ (२) अलग । 'दसा एक समुहब बिलगाना।' मा० १.६८.२ बिलगाने : भूकृ००ब ० । अलग हो गये । 'निज निज सेन सहित बिलगाने ।' मा० १.९३.२ बिलगान्यो : भूकृपु०कए० । अलग हुआ। 'जिब जब तें हरि तें बिलगान्यो।' विन० १३६.१ बिलगायो : भूकृ००कए० । अलग किया गया । 'जनु जल तें मीन बिलगायो।' गी० २.५६.४ बिलगाव, बिलगावइ : आ.प्रए० (सं० विलगयति>प्रा. विलग्गावइ)। अलग करता है-कर सकता है। 'ज्यों सर्करा मिले सिकता महँ बल ते न कोउ बिलगावै ।' विन० १६७.३ बिलगाही : आ.प्रब० । अलग हो जाते हैं, पृथक् प्रकट होते हैं । 'जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।' मा० १.५.५ For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 748 तुलसी शब्द-कोश बिलगु : बिलग + कए० । अलगाव, अन्यथाभाव, भेदभाव । 'बिलगु न मानब तात । ' मा० २.६७ बिलच्छन : वि० (सं० विलक्षण ) । विचित्र, लक्षणों (चिह्नों) से अज्ञेय, विविक्त या अलग | ‘अनुराग सो निज रूप जो जग तें बिलच्छन देखिए ।' विन० १३६.११ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिपत: वकृ०पु० । विलाप करते, रोते-चिल्लाते, झोंखते । 'बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा ।' मा० २.३७.५ बिलपति : वकृ० स्त्री० । रोती-चिल्लाती । 'बिलपति अति कुररी की नाई ।' मा० ३.३१.३ बिल : आ०प्र० । रोते-चिल्लाते हैं । 'एहि बिधि बिलर्पाहि पुर नर नारीं ।' मा० २.५१.४ बिलपाता : बिलंपत । विलाप करते हुए । 'खर दूषन पहि गइ बिलपाता ।' मा० ३.१८.२ बिलपि: पूकृ० । विलाप करके = रो-चिल्ला कर । 'बहु बिधि बिलपि चरन लपटानी ।' मा० २५७.६ बिलमु : आ० - आज्ञा - मए० (सं० विलम्बस्व > प्रा० बिलंब > अ० बिलंबु ) । तू रुक, विराम कर । 'बिलम् न छिन छिन छाहैं ।' विन० ६५.५ बिलात : वकृ०पु० । ब्याकुल होता होते । 'नाम ले चिलात बिललात अकुलात अति ।' कवि० ५.१५ ( लल विलासे धातु से - बिलास-हीनता अनुभव करतेमूल अर्थ है ) । 'बिलस, बिलसई : आ० प्र० (सं० विलसति > प्रा० विलसइ) । विलास करता है, भोगता है । 'सुख बिलसइ नित नरनाहु ।' दो० ५२१ बिलसत: वकृ०पु० । लहराते, उल्लास लेते । 'बिलसत बेतस ।' मा० २.३२५.३ बिलसति : वक्र०स्त्री० । हुलसती + लहराती । 'बिबिध बाहिनी बिलसति ।' For Private and Personal Use Only - बर० ४२ बिलर्स : बिलसइ | 'अजहूं बिलसे बर बंधु बंधू जो ।' कवि ७ ५ बिर्लाहि : बिल में । 'ब्याल न बिर्लाहि समाइ ।' दो० ३३४ बिलाई : सं०स्त्री० (सं० विडाली ) । मार्जारी, बिल्ली । मा० ३.२३.७ बिलाप : सं०पु० (सं० विलाम्) । रोना-चिल्लाना, झींखना । मा० २.५७.७ बिला : बिलाप + ए० । करुण प्रलाप । 'करि बिलापु रोदति ।' मा० १.६६ बिलास, सा: सं०पु० (सं० विलास ) । (१) क्रीडा, लास्य, नर्तन । 'उनमा बीचि बिलास मनोरम ।' मा० १.३७.३ ( २ ) सुखानुभव | 'करहिं बिबिध बिधि भोगबिलासा ।' मा० १.१०३.५ (३) प्रकाश, चमक । 'सत सुरेस सम बिभव बिलासा । मा० १.१३०.३ (४) भङ्गिमा । ' भृकुटि बिलास जासु जग होई ।' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 749 मा० १.१४८.४ (५) शोभा। 'अपर मंच मंडली बिलासा ।' मा० १.२२४.४ (६) विनोद । 'हास बिलास लेत मनु मोला।' मा० १.२३३.५ बिलासिनि : वि०+सं०स्त्री० (सं. विलासिनी)। विलासवती स्त्री, कामिनी। 'मदन बिलासिनि ।' मा० १.३४५५ (काम पत्नी= रति)। 'बिबुध बिलासिनि ।' गी० १.५.५ (देवाङ्गना = अप्सरा)। बिलासु. सू : बिलास+कए० । क्रीडा, कौतुक । मा० २.७ (२) लहर, भावतरङ्ग । बिरंचि बुद्धि को बिलासु लंक निरमान भो।' कवि० ५.३२ (३) सुखभोग, आनन्दमयी विभूति । 'बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ।' मा० १.२१३.७ बिलाहि, हीं : आ०प्रब० (सं० विलीयन्ते>अ. विलाहिं) । (१) विलीन होते हैं, ___ लुप्त हो जाते हैं। 'जहँ तह मेघ बिलाहिं ।' मा० ४.१५ क (२) पिघल कर नष्ट हो जाते हैं । 'जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।' मा० ७.१२१.१६ बिलीन, ना : भूकृ.वि० (सं० विलीन)। (१) लुप्त (२) द्रवीभूत (३) मर्दित । 'जथा अवध नर नारि बिलीना।' मा० २.१६६.५ बिलुलित : भूकृ०वि० (सं० विलुलित) । लोल, चञ्चल, कम्पित । 'सघन चिक्कन __कुटिल चिकुर बिलुलित मुख ।' गी० ७.५.२ । बिलोएं : बिलोने से, मथने से । 'घुत कि पाव कोउ बारि बिलोएँ।' मा० ७.४६.५ 'बिलोक, बिलोकइ : आ०प्रए० (सं० विलोकते>प्रा० विलोक्कइ)। देखता है। 'राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा ।' मा० ३.१०.२४ ‘इन्हहि कुदष्टि बिलोकइ. जोई।' मा० ४.६.८ बिलोकउँ : आ० उए । देखता हूं, देखू । 'ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई।' मा० ३.४१.७ विलोकत : वकृ० । देखता-ते; देखते ही । 'राम बिलोक प्रगटेउ सोई।' मा० १.१७.२ बिलोफति : वकृस्त्री० । देखती। मा० १.२२६ बिलोकन : भक० अव्यय । देखने । 'लागि बिलोकन सखिन्ह तन ।' मा० १.२४६ बिलोकनि : सं०स्त्री० । देखने की क्रिया। मा० ७.१६.४ बिलोकनिहारे : वि०पुब० । देखने वाले । गी० १.६०.५ बिलोकय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० विलोकय) । तू देख। मा० ७.१४.२० बिलोकहिं : आ०प्रब० । देखते हैं। 'सब रघुपति मुखकमल बिलोकहिं ।' मा० ७.७.३ बिलोकहु : आ०मब० । देखो। 'अब नाथ करि करुना बिलोकहु ।' मा० ४.१० छं०१ बिलोका : भूकृ०० । देखा । मा० १.८७.५ For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 750 तुलसी शब्द-कोश बिलोकि : (१) पू० । देख कर। 'सतिहि बिलोकि जरे सब गाता।' मा० १.६३.३ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू देख । 'नेकु बिलोकि धौं रघुबरनि ।' गी० १.२८.१ बिलोकिन, ए, य, ये : आ०-कवा०प्रए । देखिए, देखा जाय । 'कौतुक करों बिलोकिम सोऊ ।' मा० १.२५३.७ (२) दीखता है, देखा जाता है, दिखाई पड़ता है। 'पवरि पगार प्रति बानरु बिलोकिए ।' कवि० ५.१७ बिलोकिअत, यत : वकृ०-कवा०-० । देखा जाता-देखे जाते । “न बिलोकियत तोसे समरथ ।' हनु० २४ बिलोकिबे : भकृ.पु । देखने (होंगे) । 'बारक बहुरि बिलोकिबे काऊ ।' गी० २.३६.१ बिलोकिबो : भकृ००कए० । देखना। 'लोकपाल अनुकूल बिलोकिबो चहत ।' विन० ३१.५ बिलोकिहउँ : आ० भ० उए । देखूगा। फिर फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ ।' मा० ३.२६ बिलोकिहैं : आ०भ०प्रब० । देखेंगे । गी० २.७.२ बिलोकिहै : आ०भ०प्रएमए । वह देखेगा । तू देखेगा । 'जब लौं तू न बिलोकिहै ।' विन० १४६.३ बिलोकी : (१) बिलोकि । 'भए मगन छबि तासु बिलोकी ।' मा० १.५०.८ (२) भकृ-स्त्री० । देखी, ताकी । 'सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली।' मा० १.१३५.१ बिलोक : आ०-आज्ञा-मए । तू देख । 'सठ बिलोकु मम बाहु ।' मा० ६.२२ ख बिलोके : देखने से (देख कर) । 'बेषु बिलोकें कहेसि कछु । मा० १.२८१ विलोके : भूक००कए । देखे । 'सभय बिलोके लोग सब ।' मा० १.२७० बिलोकेउँ : आ०-भूक.पु+उए । मैंने देखा-देखे । 'जरत बिलोकेउँ जबहिं ___ कपाला ।' मा० ६.२६.१ बिलोकेउ : भक.पु०कए० । देखा । 'बहुरि बिलोके उ नयन उधारी।' मा० १.५५.७ बिलोक : बिलोकइ । देख सके । 'अब को बिलोक सोहैं।' गी० १.६५.३ बिलोक्यो : बिलोकेउ । कवि० ५.१ बिलोचन : सं०० (सं० विलोचन) । नेत्र । मा० १.१.७ बिलोचन न्हि : बिलोचन+संब० । नेत्रों (से)। मा० २.२६७ ।। बिलोयो : भूक००कए । विलोडित किया, मथा। बृथहि मंदमसि बारि बिलोयो।' विन० २४५.२ बिलोल : (दे० लोल-सं० विलोल) अति चञ्चल । गी० १.२४.४ For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बिलोवत: वकृ०पु० (सं० विलोडयत् > प्रा० विलोलंत ) । मथते हुए । 'सोइ आदरी आस जाके जिय बारि बिलोवत घी की ।' कृ० ४३ 751 बिवहार : व्यवहार । जा०मं० १३६ बिशाल : वि० (सं० विशाल ) । बृहत्, महत् । दीर्घ । मा० ३.११.८ विश्राम : ( १ ) विश्राम । शान्ति, श्रममुक्त दशा । मा० १.३१.५ (२) क्लेश रहित अवस्था । 'कबहूं मन बिश्राम न मान्यो ।' विन० ८८.१ विश्रामगृहं : विश्रामशाला में । मा० १.३५५ विश्रामधाम : समस्त जागतिक क्लेशों से निवृत्ति का पद = ब्रह्म, राम । गी० ५.१७.१ विश्रामा: विश्राम । मा० १.३५.७ विश्राम : विश्राम + कए० । पायो परम बिश्राम तुलसीं ।' मा० ७.१३० छं० ३ विष: सं०पु० (सं० विष ) । जहर । मा० १.१४६ fause : ( समासान्त में) वि०पु० (सं० विषयक ) । विषय का सम्बन्ध का ( बारे में ) । 'हरि - बिषइक अस मोहा । ' मा० ७.७३.७ इन्ह : बिषई + संब० । विषयी ( विलासी) लोगों । 'बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा । मन अभिरामा ।' मा० ७.५३.४ बिई : वि०पु० (सं० विषयिन् - विषयी ) । सांसारिक विषयों ( भोगादि) में रत रहने वाला । मा० ७.१५.५ बिषतूल : (दे० तूल ) । विष के समान । 'सुधा होइ बिषतूल ।' मा० २०४८ विषम : विषम । ( १ ) गहन, ऊबड़-खाबड़ । 'बन बहु बिषम मोह मद माना ।' मा० १.३८.६ ( २ ) तीव्र, दुःसह । 'जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । मा० १.३६.२ ( ३ ) संख्या में विषम + तीक्ष्ण । 'छाड़े बिषम बान उर लागे ।' मा० १.८७.३ ( काम ने पाँच = विषम बाण छोड़े ) (४) कुटिल, प्रतिकूल । 'बिषम भाँति निहारई ।' मा० २.२५ छं० (५) दुर्दान्त, घोर, कठिन । 'बागुर बिषम तोराइ ।' मा० २.७५ विषमजर : (दे० जर ) सं०पु० (सं० विषमज्वर) । (१) रोगविशेष ( २ ) दु:सह सन्ताप | 'जहि बिषमजर लेहि उसासा ।' मा० २.५१.५ For Private and Personal Use Only विषमता : विषमता | भेदभाव ( समता का विलोम ), द्वैत, दुबिधा । ' राम प्रताप बिषमता खोई ।' मा० ७.२०.८ विषमबान : विषम संख्यक बाणों वाला = पञ्चबाण - कामदेव ( तीखे बाणों वाला) । मा० १.८३.८ विषमु : विषम + कए । कुछ भी दुर्गम । 'धरु न सुगम बन बिषम् न लागा ।' o मा० २.७८.५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 752 तुलसी शब्द-कोश बिष-मूरि : विष को जड़ी। कवि० ७.१३० विषय : (१) विषय ने (भोगों ने) । बिषयं मोर हरि लीन्हेउ ग्याना।' मा० ४.१६.३ (२) विषय में (भागों में) । 'बिषयं मन देहीं ।' मा० ७४४.२ विषय : सं०० (सं० विषय) । (१) ज्ञेय वस्तु । (२) वर्ण्य वस्तु । (३) गोचर, इन्द्रिय का लक्ष्य । 'नयन-बिषय मो कहं भयउ ।' मा० १.३४१ (४) शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा अन्य भोग्य पदार्थ । 'धरम धुरीन बिषय रस रूखे।' मा० २.५०.३ विषयनि : बिषय+संब० । विषयों (भोगों में)। 'न मन बिषयनि हरे।' गी० ७.१६.१ विषयबासना : (दे० बासना) (१) जागतिक भोगों की इच्छा । (२) भोग्य विषयों से बनी चित्तदशा । (३) विषयाकार चित्तवृत्ति । (४) विषय जनित मानसिक संस्कार । कवि० ७.११६ विषयविकार : विषयजनित मानसिक दोष बिषयबासना । विन० ८५.२ विषया : बिषय । मा० ७.१४.८ विषहु : विष के (सं० विषस्य>अविसहो) । 'उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।' मा० २.२८२.५ बिषाद, दा : विषाद । मा० १.४.२; ४.७.१६ विषाद, दू : बिषाद+कए। अद्वितीय विषाद । 'कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू।' मा० २.५४.३; १.२७० विषान : सं०पु० (सं० विषाण) । सींग । 'पसु बिनु पूछ बिषान ।' मा० ७.७८ क विषु : विष+कए० । मा० २.४२.३ विष : बिषय । 'महीप बिष सुख साने ।' कवि० ७.४३ विर्षनी : (समासान्त में) वि.स्त्री० (सं० विषयिणी) । विषय की, (बारे की) (बिषइक) । 'बुधि करि सहज सनेह-बिनी।' गी० १.८१.३ बिष्टा : सं०स्त्री० (सं० विष्ठा>प्रा. मागधी-विस्टा) । पुरीष । मा० ६.५२.३ बिष्नु : विष्णु (मागधी प्रा० विस्न) । मा० १.५१.१ बिसद : विशद । मा० १.२.५ बिसमउ : बिसमय+कए । विषाद । 'हरष समय बिसमउ करसि।' मा० २.१५ बिसमय : सं०पु० (सं० विस्मय) । (१) आश्चर्य । 'परसुराम मन बिसमय भयऊ ।' मा० १.२८४.८ (२) अनिश्चय, संशय । 'तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ।' मा० १.१७७.६ (३) विषाद (हर्ष का विलोम) । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ।' मा० १.१३७.२ (४) अद्भुत रस का स्थायी भाव । (५) अहंकार। बिसमित : भकृ०वि० (सं० विस्मित) । विस्मययुक्त, चकित । मा० १.७३.६ For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 753 'बिसर, बिसरइ : आ०प्रए० (सं० विस्मरति>प्रा. वीसरइ) । भूलता है। एक सूल मोहि बिसर न काऊ।' मा० ७.११०.२ ।। बिसरति : वकृ०स्त्री० । भूलती । 'नहिं बिसरति वह लगनि कान की।' गी० ५.११.३ बिसरा : भूकृ०० (सं० विस्मृत>प्रा० वीसरिअ) । भूल गया । 'बिसरा सखिन्ह अपान ।' मा० १.२३३ विसराइ : पूक० । भुला कर । मा० १.१४ क बिसराइयो : भूकृ००कए० (सं० विस्मारित:>प्रा० वीसराविओ>अ० वीसरावियउ)। भुला दिया। 'सो प्रभु मोह बस बिसराइयो।' मा० ६.१२१ छं० २ बिसराई : भूकृ०स्त्री०ब० । भुला दो गईं। 'हमरें बयर तुम्हउ बिसराई।' मा० १.६२.२ बिसराई : (१) बिसराइ । 'तो मोहि बरजहु भय बिसराई ।' मा० ७.४३.६ (२) भूकृ०स्त्री० । भुला दी, भुला दी गई, भुलाई हुई। 'मन बुधि चित अहमिति बिसराई ।' मा० २.२४१.२ बिसराए : भूक००ब० । भुलाये हुए। 'भए बिदेह बिदेह नेह बस देहदसा बिसराए।' गी० १.६५.४ विसराते : सं०'०ब० (सं० वेशर) । खच्चर । मा० ३.३८.५ बिसरायउ : बिसराइयो । भुला दिया । 'जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ।' मा० ७.१.२ बिसराये : (१) बिसराए । गी० १.३२.७ (२) भुलाने से । 'सब प्रकार मल भार लाग निज नाथ चरन बिसराये ।' विन० ८२.३ बिसरायो : बिसरायउ । गी० २.५६.४ विसरावहिं : आ०प्रब० । भला देते हैं। 'देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ।' मा० ७.२७.२ (२) भुला दें। मा० २.७५ छं० बिसरावहिंगे : आ०भ००प्रब० । भुलवाएंगे; विस्मृत कराएंगे। 'भेद बुद्धि कब बिसरावहिंगे ।' गी० ५.१०.५ बिसरि : पूक ० । भूल (कर) । 'सुरति बिसरि जनि जाइ।' मा० २.५६ बिसरिए, ये : आ०कवा०प्रए । भूलिए, भूला जाय । 'तुलसी न बिसरिये ।' विन २७१.४ बिसरी : भूकृ०स्त्री० । भूल गई, विस्मृत हो गयी । 'बिसरी देह तपहिं मनु लागा।' मा० १.७४.३ बिसरे : भूकृ००ब० । भूल गए, विस्मृत हो गये । 'बिसरे सबहि अपान ।' मा० २.२४० For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 754 तुलसी शब्द-कोश बिसरेउ : भूक०पु०कए । विस्मत हो गया, भूल गया। 'भरतहि बिसरेउ पितु ___ मरन।' मा० २.१६० बिसर्यो : बिसरेउ । विन० ८६.५ बिसहते : क्रियाति००ब० । यदि..तो.."खरीद लेते=अपने पर लेते । 'जो पै... औगुन गहते । 'तो. 'कत बैर बिसहते।' विन० १७.१ बिसार : बिषाद । कवि० ७.१७० बिसारउ : आ०-संभावना-प्रए० (सं० विस्मारयत>प्रा० वीसारउ)। भुला दे। 'जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ ।' मा० २.२०५.३ । बिसारद : वि. (सं० विशारद)। (१) निपुण, दक्ष। मा० २.२८८.६ (२) विद्वान्, ज्ञानी। 'जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ।' मा० १.१८.५ (३) किसी विषय में विख्यात । (४) किसी विषय में पूर्ण अधिकार रखने वाला। बिसारन : वि०पु । भुलाने वाला । 'अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन ।' विन० २०६.२ बिसारनसील : बिसारन (सं० विस्मारण-शील>प्रा. वीसारणसील)। विन. ४२.३ बिसारहिं : बिसरावहिं (अ० वीसरावहि =वीसारहिं)। भुला दें, भुलाते हैं। 'बिरति बिसारहिं ग्यानी।' मा० २.२१५.२ बिसारहि : आ०-आज्ञा--मए० (सं० विस्मारय>प्रा० वीसारहि) । तू भुला दे। 'जनि "हरि पद कमल बिसारहि ।' विन० ८५.३ बिसारा : भूक.पु (सं० विस्मारित>प्रा. वीसारिअ) । भुला दिया। ‘रामकाजु सुग्रीवं बिसारा ।' मा० ४.१६.१ बिसारि : प्रकृ० । भुला कर । 'राखिहैं तव अपराध बिसारि ।' मा० ५.२२ बिसारिए, ये : आ०कवा०प्रए० । भुलाइए । 'बलि बोल न बिसारिये ।' हनु० २० बिसारिबो : भक००कए । भुलाना (चाहिए)। 'बिसारिबो न अंत मोहि ।' कवि०७.१८ बिसारिहैं : आ०भ० प्रब० । भुलाएंगे । 'आपनो बिसारिहैं न मेरे हू भरोसो है।' हनु० २६ बिसारी : भूकृ.स्त्री०ब० । भुला दीं। 'प्रेम बिबस तन दसा बिसारी।' मा० १.३४५.८ बिसारी : (१) बिसारि । 'भए कामबस समय बिसारी।' मा० १.८५.४ (२) भूकृ०स्त्री० । भुला दी। 'अहह नाथ हौं निपट बिसारी।' मा० ५.१४.७ बिसारें : भुलाने से। बड़ी बिसारें हानि ।' दो० २१ For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 755 बिसारे : भूकृ००० । भुलाये (हुए) । 'जनक समान अपान बिसारे।' मा० १.३२५.६ बिसारेउ : भूक००कए । भुलाया । 'पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ ।' मा० ४.२ बिसारेहु : आ० - भूकृपु+मब० । तुमने भुला दिया । 'केहि अपराध बिसारेहु दाया।' मा० ३.२६.१ विसारै : बिसारहिं । कवि० ५.१० 'बिसारो : बिसार्यो। गी० २.६७.३ बिसार्यो : बिसारेउ । विन० २०२.५ बिसाल, ला : विशाल । मा० १.१०६; १.३८.८ बिसिख : विशिख । बाण । मा० ६.६१ बिसिखन, नि, न्हि : बिसिख+संब० । बाणों (से) । 'महिमा मृगी कौन सुकृती को खल बच बिसिखनि बाँची।' गी० २.६२.२ ।। बिसिखासन : (बिसिख+असन) शरासन । धनुष । गी० १.७३.३ बिसुद्ध : विशद्ध । मा० ७.८४ क बिसुद्धतर : (दे० तर) अतिशय शुद्ध । कवि० ७.११५ बिसूरति : वकृ०स्त्री० (सं० खिद्यन्ती प्रा० विसूरती) । खेद करती, विषादग्रस्त होती, निराश होती। 'देखि कठिन सिवचाप बिसूरति ।' मा० १.२३५.१ 'बिसूरन : भकृ० अव्यय । खेद करने, बिसूरने । 'समुझि कठिन पन आपन लाग बिसूरन ।' जा०म० ४८ बिसूरना : सं०० (प्रा० विसूरण) । खेद, सन्ताप । 'बदन मलीन मन मिट न बिसूरना।' कवि० ७.१४८ 'बिसरि : पू० । खेद करके, खिन्न होकर !. 'बूमति सिय पिय पतिहि बिसूरि ।' गी० २.१३.१ बिसेक : बिसेष । विशेषता (अन्तर) । 'तीनों माहि बिसेक ।' दो० ५३८ बिसेखे : बिसे । विशेष रूप से । 'भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ।' विन० १२१.२ बिसेष : वि०+सं०० (सं० विशेष) । (१) विशिष्ट (सामान्य का विलोम), असाधारण । मा० २.२७० (२) विशेषता, भेदक गुण । 'रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं ।' जा०म० ८३ (३) और अधिक । 'छटिबे के जतन बिसेष बांधो जायगो।' विन० ६८.४ बिसेहि : आ०प्रब० । दूसरों से भिन्न करके वर्णन करते हैं । 'रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं ।' जा०म० ८३ 'बिसेषा : बिसेष । मा० १.५०.१ बिसेषि, षी : पुक० (सं० विशिष्य) । विशेष कर, विशेषतया। 'कारनु कवन बिसेषि ।' मा० २.३७, १.५०.५ For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 756 तुलसी शब्द-कोश बिसेषु : (१) बिसेष+कए० । कोई विशेषता। 'बचन बिचारि बिसेषु ।' दो० ५१६ (२) आ०-आज्ञा-मए० । तू विशेष रूप से (अन्यों से पृथक्) समझ ले । 'करतन सगुन बिसेषु ।' रा०प्र० ४.६.५ बिसेषे : विशेष रूप से । 'आवत हृदय सनेह बिसेषे ।' मा० १.२१.६ बिसोक, का : वि.पु. (सं० विशोक) । शोक रहित । मा० १.१६.३; २७.१ बिसोको : बिसोक । मा० १.११६.१ बिस्तर : सं०पु ० (सं० विस्तर) । विस्तार । 'बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ।' __ मा० १.७६.८ बिस्तरहुगे : आ० भ००मब० फैलावोगे । बिमल जस नाथ केहि भांति बिस्तरहुगे।' विन० २११.४ बिस्तरिहहि : आ०भ०प्रब० । फैलाएंगे । 'जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं ।' मा० बिस्तार : विस्तार । प्रसार, फैलाव । मा० १.३३ बिस्तारक : वि० (सं० विस्तारक) । प्रसार-कर्ता, फैलाने वाला । मा० ७.३५.५ बिस्तारय : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० विस्तारय) । तू विस्तृत कर, प्रसृत कर। मा० ७.३५.४ बिस्तारहिं : आप्रब० । फैलाते हैं, प्रसृत या प्रचारित करते हैं । 'जग बिस्तारहिं बिमल जस ।' मा० १.१२१ । बिस्तारा : (१) बिस्तार । 'कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ।' मा० ५.२.७ (२) भूक.पु । फैलाया। 'तब आपन प्रभाउ बिस्तारा।' मा० १.८४.५ ।। बिस्तारी : (१) भूक०स्त्री० । फैलायी, प्रसृत की । 'तब रावन माया बिस्तारी।' मा० ६.८६.६ (२) पूक० । बिस्तारि । फैला कर। 'कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ।' मा० १.४७.१ बिस्तार्यो : भूक००कए । फैलाया । 'पावन जस त्रिभुवन बिस्तार्यो।' मा०. बिस्नु : बिष्नु । विन० १७.१ बिस्मय : बिसमय । आश्चर्य । विस्मयवंत : वि०पू० (सं० विस्मयवत्) । आश्चर्ययुक्त । मा० १.२०२.६ बिस्राम : बिश्राम । विन० २०६.४ विस्व : विश्व। मा० १.६ बिस्वंभर : (सं० विश्वंभर) । विश्व का भरण-पोषण करने वाला विष्णु । विन ६८.४ बिस्वति : (१) विश्व व्यापक (२) समस्त जगत की गति (जहाँ सब पहुंचते हैं) (३) सब का शरणदाता । कवि० ७.१५१ For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 757 "बिस्वनाथ : सं०पू० (सं० विश्वनाथ)। (१) शिव । 'बिस्वनाथ पहुंचे कैलासा ।' मा० १.५८.६ (२) सर्वेश्वर, जगदीश्वर=परमात्मा। बिस्वनाथपुर : काशी । कवि० ७.१६६ बिस्व-बास : वि० (सं० विश्ववास) । जगत् को अपने आकार में समाहित करने वाला=ब्रह्म (जगन्निवास) । मा० १.१४६.८ बिस्वबिलोचन : (१) विश्व का द्रष्टा =सर्वज्ञ (२) विश्व को दर्शनशक्ति देने वाला=ज्ञानप्रेरक= अन्तर्यामी । विन० १४६.४ बिस्वमोहनी : (सं० विश्वमोहनी)। (१) ब्रह्म की आदि शक्ति महामाया जो व्यामोहिका माया के रूप से जीवों को भ्रान्त कर संसारी बनाती है-उसकी आवरण और विक्षेप दो शक्तियां हैं। (२) नारद मोह के प्रसंग में शीलनिधि की कन्या जो माया का ही अवतार थी। मा० १.१३०.५ 'बिस्वरूप : (सं० विश्वरूप)। जगत् के रूप में प्रकट परमेश्वर-जड़चेतन प्रपञ्च जिसका शरीर है =विराट्, ब्रह्माण्ड का उपादान भूत ब्रह्म । मा० १.१३.४ 'बिस्वामित्र : सं०० (सं० विश्वामित्र) । मुनिविशेष । मा० १.२०६.२ बिस्वामित्रु : बिस्वामित्र+कए । अकेले विश्वामित्र मुनि । 'बिस्वामित्र मिले पुनि ____ आई ।' मा० १.२६६.६ 'विस्वास, सा : सं०० (सं० विश्वास) । आश्वस्त मनोदशा, निष्ठा, आस्था । मा० १.२.११ (२) दृढ निश्चय । बिस्वासो : वि०पू० (सं० विश्वासिन्) । आस्थावान् । विन० २२.३ बिस्वासु, सू : बिस्वास+कए । अनन्य विश्वास । मा० ६.१४ 'सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ।' मा० १.१७३.७ बिस्वेस : सं०० (सं० विश्वेश) विस्वनाथ । (१) सर्वेश्वर, परमात्मा । (२) शिव । मा० ७.१२६ बिस्वेसु : बिस्वेस+कए । विश्व का एकमात्र स्वामी । कवि० ७.१५१ बिहँगनि : बिहंग+संब० । पक्षियों (को) । 'ब्याध ज्यो बिषय बिहँगनि बझावौं ।' विन० २०८.२ बिहँसत : बिहसत । मा० ७.८०.२ बिहँसहि : बिहसहिं । बिहंसा : बिहसा । मा० ६.१६.१ बिहंसि : बिहसि । मा० ४.७.२२ बिहंसी : बिहसी। बिहँसे : बिहसे । मा० ६.३८ ख बिहंग : सं०० (सं० विहंग) । आकाशगामी=पक्षी । मा० १.२१२ बिहंगपति : गरुड़ पक्षी । मा० ७.५५ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 758 www.kobatirth.org बिहंगबर : श्रेष्ठ पक्षी । मा० ७.६२.४ बिहंगम : बिहंग (सं० विहंगम ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश' बिहंगा : बिहंग | मा० १.३७.१५ बिहंगिनि : बिहंग + स्त्री० (सं० विहंगी ) । पक्षिणी । कवि० ७.१८० बिहंडत : वकृ०पु० (सं० विखण्डयत् > प्रा० विहंडंत ) । छिन्न-भिन्न करता ते 'नख दंतन सों भुजदंड बिहंडत ।' कवि० ६.३५ बिहंडन : बिखंडन ( प्रा० विहंडण ) । विच्छिन्नकारी । 'संभु कोदंड बिहंडन । कवि० ७.११२ बिहग : विहग | पक्षी । मा० १.१२० ख बहस : विहगेश | गरुड़ । मा० ७.९६ क बिहबल : वि० (सं० विह्वल ) । विचलित, विभ्रान्त, घबराया हुआ, स्खलित । 'बिहबल बचन पेम बस बोलहिं ।' मा० २.२२५.४ / बिहर, बिहरइ : (१) आ०प्र० (सं० विहरति > प्रा० विहरइ ) । विहार करता है, विचरण या विलास करता है । (२) (सं० विघटते > प्रा० विहडइ) 1 फटता है, विघटित या विदीर्ण होता है । 'एतेहुं पर उर बिहर न तोरा ।' मा० ६.२२.२ बिहरत : (१) वकृ०पु० (सं० बिहरत् > प्रा० विहरंत ) । विहार करता ते, विचरण करता-ते । 'बैर बिगत बिहरत बिपिन, मृग बिहंग बहुरंग ।' मा० २.२४ε (२) (सं० विघटमान > प्रा० विहडंत ) । फटता, विदीर्ण होता । 'बिहरतहृदउ न इहरि हर ।' मा० २.१६६ बिहरति : बिहरत + स्त्री० | फटती । 'बल बिलोकि बिहरति नहि छाती ।' मा० ६.३३.४ बिहरनसीला : वि० (सं० विहरणशील ) । विनोद - विहार तथा विचरण करने वाला । मा० २.६३.७ बिहहि : आ० प्रब० । विहार + विचरण करते हैं । 'जिन्ह बीथिन्ह बिहार हि दोउ भाई । मा० १.२०४.८ बिहरहु : आ० मब ० । विनोद + विचरण करो, खेलो। 'निज भवन बिहरहु तात । गी० १.४०.५ बिहरावा : भूकृ०पु० । टाल दिया, बहाने से बरका दिया । 'सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा । मा० ५.२२.२ बिहार : पूकृ० । विहार करके । गी० २.५०.४ For Private and Personal Use Only बिहरें: बिहरहि । कवि० १.३-४ बिहरो : भूकृ०पु०कए० (सं० विघटितः > प्रा० विहडिओ) | फट गया । 'कठिनहियो बिहरो न आजु ।' गी० २.७.३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बिहसत: वकृ०पु० (सं० विहसत्) । हँसता-ते । मा० ७.८०.२ बिहसहि : आ०प्रब० (सं० विहसन्ति > अ० विहसहि ) । हँसते हैं । 'सुरमुनि बिहसहि ।' पा०मं० १२६ बिहसा : भूकृ०पु० । हँसा । मा० ६.१६.१ बिहसि : पूकृ० (सं० विहस्य ) । हँस कर । 'बोले बिहसि महेसु ।' मा० १.५१ बिहसी : भूकृ० स्त्री० । हँसी हँस पड़ी । मा० १.२३४.६ 759 बिहसे : भूकृ०पु०ब० । हँसे । मा० १.७८ बिहार : (१) पू० (सं० विहाय ) । छोड़ कर । 'सो बिलगाउ बिहाइ समाजा ।' मा०१.२७१.५ (२) आ०प्र० (सं० विजहाति > प्रा० विहाइ ) । छोड़ता है । 'कुटिल न सहज बिहाइ ।' दो० ३३४ बिहाई : बिहाइ । 'जनकु लहेउ सुख सोचु बिहाई ।' मा० १.२६३.४ दिहाउ : आ० - आज्ञा - मए० । तू छोड़ । 'रिपु सों बेर बिहाउ ।' दो० ६३ बिहात: वकृ०पु० । छूटता, बीतता जाता । ' निमिष बिहात कलप सम तेही ।' मा० १.२६१.१ बिहान, ना: (१) सं०पु० (सं० विहान ) । अभाव ( विहीनता ) । ' जब लगि बिपति बिहान ।' मा० १.६६ नहि तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ।' मा० १.११६.६ (२) (सं० विभात > प्रा० विहाण ) । प्रभात । ' जाएहु होत बिहान ' मा० १. १५६ बिहानी : भूकृ०स्त्री० । बीती । 'एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी ।' मा० २.१५६.८ बहाने : प्रभात काल में ( प्रा०विहाणे ) । 'सई तीर बसि चले बिहाने ।' मा० २.१८६.१ बिहाय : बिहाइ । विन० ६७.२ बिहार, रा : सं०पु० (सं० विहार) । (१) गति, विचरण, विनोद | 'तदपि कहि सम वासम बिहारा ।' मा० २.२१६.५ (२) शृङ्गारिक भोगविलास । 'हर गिरिज बिहार नित नयऊ ।' मा० १.१०३.६ (३) विचरण स्थल, क्रीडास्थान । 'फटिकसिला मंदाकिनीं सिय रघुबीर बिहार ।' रा०प्र० २.६.२ बिहारिनि : वि。स्त्री० (सं० विहारिणी) । विहार - विनोद करने वाली । मा० १.२३५.८ बिहारी : विहारी । क्रीडाविहार + विचरण करने वाला । 'रूप रासि नृप अजिर बिहारी । मा० ७.७७.८ For Private and Personal Use Only बिहार, रू : ( १ ) बिहार + कए० । विनोद । 'सिय रघुबीर बिहारू ।' मा० १.३१ (२) विचरण । 'करि केहरि मृग बिहग बिहारु ।' मा० २०१३२.४ (३) क्रीडास्थली । 'पालत लालत रतिमार को बिहारु सो ।' कवि० ५.१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 760 तुलसी शब्द-कोश बिहाल, ला : बिहबल (सं० विह्वल>प्रा० विहल्ल) । मा० ५.२६.२' बिहाल, लू : (१) बिहाल+कए । व्यथित, विभ्रान्त । विन० ७४.४ (२) बिखरा हुआ। 'राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ।' मा० २.३२२.१ बिहित : विहित । मा० १.३१६.२ बिहीन, ना : वि० (सं० विहीन)। रहित, वियुक्त । 'कमल दीन बिहीन तमारि ।' मा० २.८६; १.२१.४ बिहून, ना : बिहीन (प्रा० विहूण) । 'मलयाचल हैं संत जन तुलसी दोष विहून ।' वैरा० १८ बिहूने : बिहूना+ब० । रहित । 'बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथ के ।' कवि० २४ बोके : बिके । भूक००० (सं० विक्रीत>प्रा० विक्किय) । बिक गये । 'मन मोल बिन बीके हैं।' गी० २.३०.४ ।। बीच, चा : सं०+क्रि०वि०० (अ. विच्च =सं० वर्म)। मार्ग । (१) मार्गान्तराल । 'बीच बास करि जमुनहिं आए।' मा० २.२२०.८ (२) मध्य, अन्तराल । 'मची सकल बीथिन्ह बिच-बीचा।' मा० १.१६४.८ (३) समयान्तराल । 'कछुक बात बिधि बीच बिगारेउ ।' मा० २.१६०.२ (४) अन्तर । 'दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।' मा० १.५.३ (५) अवसर, समयविशेष (मौका)। बीचि, ची : वीचि । तरंग । मा० १.१८ बोचु : बीच+कए। (१) अवसर । 'बीचु पाइ निज बात सँवारी ।' मा० २.१८.१ (२) अन्तराल (दरार) । 'महि न बीचु बिधि मीच न देई ।' मा० २.२५२.६ (३) अन्तर, भेदभाव, फूट, व्याघात । 'नीच बीच जननी मिस पारा।' मा० २.२६१.१ बीछो : वृश्चिक (प्रा० विच्छिअ) । मा० २.१८० बीछे : भूक००वि०ब० (सं० विच्छित-विच्छ दीप्तौ>प्रा० विच्छिय) । चमकीले, भड़कीले, रंग-बिरंगे, विचित्र । 'आछे-आछे बीछे-बीछे बिछौना बिछाइ के।' गी० १.८४.३ बीज : सं०० (सं.)। (१) कारण । 'बीज सकल ब्रत धरम नेम के।' मा० १.३२.४ (२) दाना (जो अङ कुरित होता है) । 'ऊसर बीज बएँ फल जथा।' मा० ५.५८.४ बीजमंत्र : सं०० (सं०) । एकाक्षर मन्त्र जिनमें रहस्य रहता है, जैसे-र+अ+ म=राम। तीनों अक्षर क्रमशः अग्नि तत्त्व, सूर्य तत्त्व और सोम तत्त्व के बोधक बीजमन्त्र है । इस प्रकार 'राम' वह बीजमन्त्र-समूह है जिसके जप में आवरण तथा मल के दाह, अज्ञानान्धकार-नाश और विषय-विक्षेप के सन्तापों के शमन For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 761 का भाव निहित है। ओंकार भी बीजमन्त्र है। बीजमन्त्र को महामन्त्र भी कहते हैं । 'बीजमंत्र जपिए सोई जेहि जपत महेस ।' विन० १०८.२ बीजमय : वि० (सं.)। बीजों (अङ कुरण-योग्य दानों) से व्याप्त । 'जया भूमि सब बीजमय ।' दो० २६ बीजु : बीज+कए । एकमात्र बीज । 'तुम्ह कहं बिपति बीज बिधि बयऊ ।' मा० २.१६.६ बीता : भूक०० (सं० वीत) । विगत । (१) व्यतीत हुआ । 'अरध निमेष कलप सम बीता।' मा० १.२७०.८ (२) समाप्त हो गया। 'सब कर आजु सुकृत ___फल बीता।' मा० २.५७.५ बीति : पूकृ० (सं० वीत्य)। बीत (कर) । 'गए बीति कछु दिन एहि भाँती ।' मा० १.३१२.४ बीती : (१) बीता+स्त्री० । व्यतीत हुई, समाप्त हुई । 'दारुन असंभावना बीती।' ___ मा० १.११६.८ (२) बीति । 'एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती।' मा० १.७६.३ बीते : व्यतीत होने पर । 'बीतें अवधि रहहिं जो प्राना।' मा० ७.१.८ ।। बीते : (१) भूकृपु.ब० । व्यतीत हुए । 'एहि बिधि बीते बरष ।' मा० १.१४४ (२) बीतें। 'जो तन रहै बरष बीते ।' गी० २.४.४ बीतेउ : भूकृ०पु०कए० । व्यतीत हुआ। 'सो बासरु बीतेउ बिनु बारी।' मा० २.२७७.७ बीत्यो : बीतेउ । चुका । 'करि बीत्यो।' विन० १६०.४ बीथिका : बीथी। छोटी गली । कवि० ५.१७ गोपिन, न्ह : बीथी+संब० । वीथियों (में) । 'रोपहु बीथिन्ह पुर चहुं फेरा ।' मा० २.६.६ बीथीं : बीथी+ब० । गलियां । बीथों सींची चतुरसम ।' मा० १.२६६ बीथी : सं०स्त्री० (सं० वीथि, वीथी)। गली, सड़क । मा० ५.३ छं० १ बीन : बीना । मा० ७.५० होनती : बिनती। मा० ६.१२१ छं० बीना : संस्त्री० [सं० वीणा) । तन्त्रीवाद्य विशेष । मा० २.३७.५ बीनिबे : भकृ०० (सं० विचेतव्य>प्रा० विइणिअन्व) । बीनने, चुनने । 'भोर फूल बीनिबे को गये फुलवाई हैं।' गी० १.७१.१ बीर : वीर । (१) उत्साह-सम्पन्न, शूर । मा० ६.७६.६ (२) भाई । 'पुरुषसिंह दोउ बीर ।' मा० १.२०८ ख 'रघुबीर सखा अरु बीर सबै ।' कवि० १.७ बोरघातिनी : वि.स्त्री० । वीरों का संहार करने वाली। मा० ६.५४.७ बीरता : सं०स्त्री० (सं० वीरता) । वीरकर्म, युद्धादि का उत्साह । भा० १.२५१.४ बोरवर : वीरों में श्रेष्ठ । मा० ७.६७ क For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 762 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश बीरबहूटी : बीरबहूटी + ब० । बीरबहूटियाँ । 'फैलि चलीं बर बीरबहूटीं ।' कवि० ६.५१ बीरबहूटी : सं० स्त्री० । एक मखमली लाल रंग का सुन्दर कीड़ा जो वर्षा में प्रचुरता से पैदा होता है । गी० ७.१६.२ arrant : वीरता का व्रत रखने वाला, दृढप्रतिज्ञ वीर । मा० १.२७४.८ बीरभद्र : बीरभद्र (सं० वीरभद्र ) कए० । शिव-गण- विशेष । मा० १.६५.१ बीररस : काव्य का वह रस जिसका स्थायी भाव 'उत्साह' होता है । उसके चार भेद हैं- युद्धोत्साह से युद्धवीर, दयोत्साह से दयावीर, दानोत्साह से दानवीर और धर्मोत्साह से धर्मवीर । 'गगनोपरि हरि गुन गन गाए । रुचिर बीर रस प्रभु मन भाए ।' मा० ६.७१.११ बोरा : (१) बीर | शूर । मा० ४.१.७ (२) सं०पु० (सं० वीटक > प्रा० लगे हुए पान का जोड़ा । 'रूपसलोनि तँबोलिनि बीरा हाथहि हो ।' बोरासन: सं०पु० (सं० वीरासन ) । एक घुटने को भूमि पर टिका कर मुद्रा । 'जागन लगे बैठि बीरासन ।' मा० २९०.२ बीरु, रू : बीर + कए । अद्वितीय वीर । मा० १.२८२.१ सिखइ धनुष बिधा बर वीउअ ) । रा०न० ६ बैठने की बीरू ।' मा० २.४१.३ बोस, सा : (१) संख्या (सं० विशति > प्रा० वीसा ) । मा० ६.२१; ५.११.४ (२) बीस बिस्वा, पूर्णतया । 'मोको बीसहू के ईस अनुकूल आजु भो ।' गी० २.३३.१ बीसबाहु : रावण । कवि० ५.१३ बीसौं : बीसी में । 'बीसीं बिस्वनाथ की बिसाद बड़ो बारानसीं ।' कवि० ७.१७० बीसी : सं० [स्त्री० (सं० विशतिका, विशा ) । ६० संवतों में से २०-२० वर्ष क्रमशः ब्रह्मविशति, विष्णुर्विशति और रुद्रविशति के ज्योतिष शास्त्र में माने गये हैं । रुद्रबीस का समय कवितावली है । बीहा : बीस | 'सचिहूँ मैं लबार भुज-बीहा ।' मा० ६.३४.७ बंद : सं०पु० (सं० बिन्दु) । मा० ६.८७.६ बुदा : बुद | टिकली, बिन्दी (जो मस्तक पर लगायी जाती है ) । मुनि मन हरत मंजु मसि बुदा ।' गी० १.३१.४ बुदिया : सं० स्त्री० (सं० बिन्दुका) । एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो बेसन आदि का बुन्द के आकार में बनता है । 'बुंदिया सी लंक पधिलाइ पाग पागिहै । " कवि ० ० ५.१४ For Private and Personal Use Only 'बुझ, बुझइ : आ०प्र० (सं० व्युदिध्यते > प्रा० बुज्झइ बुतना, आग का शान्त होना) बुझता है, शान्त होता ती है । बुत सकता-ती है। 'बुझे कि काम अगिनि तुलसी कहुं बिषय भोग बहु घी ते ।' विन० १६६.४ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 763 'बुझा, बुझाइ, ई : बुझइ । बुझ जाता है । 'तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ।' मा ७.११८.१३ बुझाइ : पूकृ० । (१) समझा कर। 'पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई ।' मा० २.४३.५ (२) बुता कर, आग शान्त करके । 'पूंछ बुझाइ खोइ श्रम ।' मा० बुझाई : (१) दे० /बुझा । (२) बुझाइ । समझा कर । 'तब मुनि सादर कहा बुझाई ।' मा० १.२१०.६ (३) भूकृ०स्त्री० । समझाई । 'कहि कथा सुहाई मातु बुझाई ।' मा० १.१६२ छं० बुझाउ : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० बोधय>प्रा० बुज्झाव>अ० बुज्झा) । तू समझा दे । 'तेरे ही बुझाए बूझै अबुझ बुझाउ सो।' विन० १८२.५ बुझाए, ये : भूक००० (सं० बोधित>प्रा० बुज्झाविय) । (१) समझाये । 'बाल बुझाए बिबिध बिधि ।' मा० १.६५ (२) समझाने पर । 'तेरे ही बुझाये बूझै ।' विन० १८२.५ बुझानी : भूकृ॰ स्त्री० । बुझ गयी, बुत गयी, शान्त हो गयी। 'राग द्वेष की अगिनि बुझानी।' वैरा०६० बुझायो : भूक ००कए ० । (१) (सं० बोधित:>प्रा० बुज्झाविओ)। समझाया। 'सुनु खल मैं तोहि बहुत बुझायो।' मा० ६.४.१ (२) (सं० व्युदिन्धितः>प्रा० वुज्झाविओ) । बुताया, शान्त किया। 'पावक काम, भोग घृत तें सठ, कैसे परत बुझायो।' विन० १६६.४ 'बुझाय, बुझावइ : (१) आ०प्रए० (सं० व्युदिन्धयति>प्रा० वुझावइ) । बुताता है, शान्त करता है । 'तेहि बुझाव घन पदवी पाई ।' मा० ७.१०८.१० (२) (सं० बोधयति>प्रा० बुज्झावइ) । समझाता है। बुझावत : वकृ०० । बुताता-ते, शान्त करता-करते। 'कोबिद दारुन श्यताप बुझावत ।' विन० १८५.४ बुझावहिं : आ०प्रब० (सं० व्युदिन्धयन्ति>प्रा० वुज्झावंति>अ. वज्झावहिं) । बताते हैं । (१) ज्योति-शमन करते हैं। 'अंचल बात बुझावहिं दीपा ।' मा० ७.११८.८ (२) अग्नि या ताप शान्त करते हैं । 'बरषि नीर ए तबहिं बुझावहिं ।' कृ० ५६ बुझावा : (१) भूकृ०० । समझाया। 'मय-तनयां कहि नीति बुझावा।' मा० ५.१०.७ (२) शान्त किया। (३) बुझावइ । समझाता है । 'सर निंदा करि ताहि बुझावा ।' मा० १.३६.४ (४) बुझावइ । शान्त करता है, बुता सकता है । 'लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ।' मा० ७.१२०.४ बुझाव : बझाव इ। बुता सकता है, ज्वाला शमन कर सकता है । 'न बुझावै सिंधु सावनो।' कवि० ५.१८ For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 764 तुलसी शब्द-कोश बुझाव : आ०उए० । (१) समझाऊँ । (२) शान्त करूँ । 'आली हौं इन्हहि बुझावों कैसे ।' गी० २.८६.१ बुझिहैं : बूझिहैं | पूछेंगे । 'सादर समाचार नृप बुझिहैं ।' गी० १.४८. ३ बुभैये : आ०कवा०प्र० (सं० बोध्येत > प्रा० बुज्झावीअइ ) । समझाइए | बताया जाय । 'हा हा सो बुझये मोहि ।' हनु० ४४ बुट : सं०पु० (सं० व्युष्टि सम्पत्ति ) । बूटी, जड़ी आदि जो औषध में काम आती है । 'जातु धान बुट पुटपाक लंक ।' कवि० ५.२५ बुडिबे : भकृ०पु० (सं० व्रडितव्य > प्रा० वुडिअव्वय) । डूबने, बूड़ने । गोपद बुड़बे जोग करम करों ।' विन० २३२.३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुढ़ाई: सं० स्त्री० (सं० वृद्धता > प्रा० बुड्ढाया) । बुढ़ापा । मा० ४.१६.२ / बुता, बुताइ, ई : आ०ए० (सं० व्युत्त = आर्द्र – व्यत्तायते > प्रा० वृत्ताइ ) । बुझता है, शान्त होता-ती है । 'मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ।' मा० १.२४६.१ बुताइ : पूकृ० (सं० व्युक्त्ताय्य ) । बुझा कर आर्द्र कर, शान्त कर । 'पूँछ बुताइ प्रबोधि सिय।' रा०प्र० ५.५.३ बुताश्री : आ० -- आशा - मब० । बुझाओ, गीला (व्युत्त ) करो, अग्निशमन करो । 'लंक बरत बताओ बेगि ।' कवि० ५.१६ बुत है : आ०भ०प्र० । बुझेगा-गी; शान्त होगा-गी । 'उर तपनि बुते है ।' गी० ५.५०.५ बुद्ध : सं०पु० (सं०) । भगवान् का नवम अवतार = गौतम बुद्ध । दो० ४६४ बुद्धि : (१) सं० [स्त्री० (सं० ) । प्रत्यय, निश्चयात्मक बोध | 'कवि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ।' मा० २.२८८.६ ( २ ) ज्ञान - शक्ति । 'भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ।' मा० १.३६.६ (३) विवेक । 'बिरचे बुद्धि बिचारि ।' मा० १.३६ (४) विचार, आस्थापूर्ण सन्मति । 'सपनेहुं धरम बुद्धि कसि काऊ ।' मा० २. २५१.६ (५) सोद्देश्य निर्णय । 'जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ।' मा० १.१८०.१ (६) अन्तःकरण की निर्णय-वृत्ति | 'बुद्धि मन चित अहँकार ।' विन० २०३.५ (७) तर्कशक्ति | 'राम अतर्य बुद्धि मन बानी ।' मा० १. १२१.३ ( ८ ) सबका कारण महत्तत्त्व जो मूल प्रकृति का प्रथम परिणाम है । 'अहंकार सिव बुद्धि अज ।' मा० ६.१५ क बुद्धि पर : वि० (सं० ) । बुद्धि से परे, अतर्क्स, अनिर्वचनीय । मा० २.१२६ बुध: (१) वि०पुं० (सं० ) । विद्वान्, विवेकी । 'सादर कहहिं सुनहि बुध ताही ।' मा० १.१०.६ (२) सं०पु० (सं० ) । चन्द्रमा का पुत्र = ग्रहविशेष । 'जनु बिधु बुध बिच रोहिनि सोही ।' मा० २.१२३.४ (३) सप्ताह के एक दिन का नाम = बुधवार । रा०प्र० १.१.४ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 765 बुधि : बुद्धि । (१) समझ, चेतना आदि । 'जस कछु बुधि बिबेक बल मोरें।' मा० १.३१.३ (२) अन्तःकरण की निश्चय वृत्ति =अन्त:करण चतुष्टय में अन्यतम =सूक्ष्म शरीर का भाग विशेष । 'मन बुधि चित अहमिति बिसराई।' मा० २.२४१.२ बुबुक : सं०स्त्री० । आग आदि की लपट जिससे 'बु-ब' ध्वनि निकलती है==भभक या धन्धर । 'जहां तहाँ बुबुक बिलोकि बबुकारी देत ।' कवि० ५.६ बुबुकारी : सं०स्त्री० । बु-बु ध्वनि, अस्पष्ट चीत्कार आदि । कवि० ५.६ बुरो : वि.पु.कए० (सं० विरूप:>प्रा. कुरुओ)। (१) अभव्य, अनुचित, अमङ्गल । 'राम के बिरोधे बुरो बिधि हरि हरहू को।' कवि० ६.८ (२) दुष्ट । 'भलो बुरो जन आपनो।' विन० २७०.१ बुलाइ : बोलाइ। पा०म० ८६ बुलाई : (१) बुलाइ, बोलाइ । बुलाकर । ‘राम कहा सेवकन्ह बुलाई ।' मा० ____७.११.२ (२) बोलाई । आहूत की । 'नदी बारिधि न बुलाई ।' विन० ३५.२ बुलाउब : भकृ.पु । बुलाना होगा (बुलाएंगे)। 'जनक बुलाउब सीय ।' मा० बुलाए, ये : बोलाए । गी० १.७४.३ बुलायउ, बुलायो : बोलायो । पा०म० २५, गी० १.१७.२ बुलावा : बोलावा । बुलाया । तब रघुपति कपिपतिहि बुलावा।' मा० ५.३४.६ बुलावौं : आ० उए । बुलाऊँ (गी)। 'मति मृगनयनि बुलावौं।' गी० १.१८.२ बुलही : आ०भ०मब० । बुलओगे। 'कहि मां मोहि बुलहो।' गी० १.८.३ बूंद : बुद । जलकण । मा० ४.१४.४ बूझ : (१) बुझि । बुद्धि । 'आपनी न बूझ ।' विन० ७१.१ (२) तू पूछ । 'बुझ धौं पथिक कहाँ ते आए।' गी० ६.१७.१ (३) बूझइ । समझता है । 'अजहुं न बूझ अबूझ ।' मा० १.२७५ (४) पूछता है । 'लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर।' मा० 'बूझ, बूझइ : आ०प्रए० (सं० बुध्यते>प्रा० बुज्झइ)। (१) जानता-ती है; समझता-ती है। 'बिनु कामन कलेस, कलेस न बूझइ ।' पा०म० ४५ (२) पूछता है, जानना चाहता है । (३) जाना जाता है, जान पड़ता है । 'तेज प्रताप रूप जहँ, तहँ बल बूझइ ।' जा०म० ५६ बुझउँ : आ० उए । पूछता हूं। 'बुझउँ स्वामी तोहि ।' मा० ७.६३ ख बूझत : (१) वकृ.पु.। समझता-समझते । 'अजहूं नहिं बूझत ।' कृ० ५० (२) पूछता-ते। 'बझत कहहु काह हनुमाना।' मा० ७.३६.४ (३) क्रियाति०पू०ए० । यदि पूछता । जो 4 कोउ बझत बातो। तो तुलसी बिन मोल बिकातो।' विन० १७७.५ For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 766 तुलसो शब्द-कोश बूझति : वक०स्त्री० । (१) पछती । 'बझति सिय पिय पतिहि बिसूरी।' गी० २.१३.१ (२) समझती। 'बूझति और भांति भामिनि कत ।' गी० २.६.१ बूझब : भक०० (सं० बोद्धव्य>प्रा. बुझिअन्व)। (१) समझना, समझने योग्य । 'एहिं समाज खल बूझब राउर ।' मा० २.२६३.५ (२) पूछना । 'बूझब राउर सादर साई।' मा० २.२७०.८ बूझहिं : आ०प्रए० (सं० बक्ष्यन्ते>प्रा० बझंति>अ. बुज्झहिं)। समझते हैं। पूछते हैं । 'एक एकन्ह कहं बूझहिं धाई।' मा० ७.३.८ बुझा : भूक००। (१) जाना, समझा। 'बूझा मरमु तुम्हार ।' मा० १.१०४ (२) पूछा । 'कहहु कहाँ नप तेहि तेहि बूझा ।' मा० २.१४८.२ बुझि : (१) पूकृ० । जान कर । 'बूझि मित्र अरि मध्य गति ।' मा० २.१९२ (२) पूछ कर । 'बूझि बिप्र कुल-बृद्ध गुर ।' मा० १.२८६ (३) आ० - आज्ञा या प्रार्थना-मए० (सं० बुध्यस्व>प्रा० बुज्झ>अ० बुज्झि) । तू पूछ ले। 'मेरी टेव झि हलधर कों।' कृ. ४ (४) तू समझ ले । 'तू तो बूझि मन माहिं रे।' विन० ७३.३ (५) सं०स्त्री० (सं० बुद्धि)। समझदारी। 'रीझि बूझि बुध काहु ।' दो० २६२ बूझिअ, ऐ, य, ये : आ०कवा०प्रए० (प्रा० बुज्झीअइ)। (१) समझिए, समझा जाय । 'कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा ।' मा० ५.४३.५ (२) पूछिए, पूछा जाय। 'बुझिअ मोहि उपाउ अब ।' मा० २.२५५ (३) समझना चाहिए । 'तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये एक प्रतीति प्रीति एक बलु ।' विन० २४.६ बूझिअत, यत : वकृ०कवा.पु । जाना जाता । 'अनुमान ही तें बूझियत गति ।' विन० २६१.४ बूझिबो : भक००कए० । समझना (समझदारी) । 'जूझे ते भल बूझिबो।' दो० बुझिहैं : आ०भ०प्रब० । पूछेगे, जानना चाहेंगे। विन० ४१.३ बुझिहै : (१) आ०भ० प्रए० । वह जानेगा। (२) मए । तू जानेगा। 'फिरि बूझिहै को गज कौन गजारी।' कवि० ६.५ बूझी : (१) भूक०स्त्री० । समझ ली। 'बूझी बात कान्ह कुबरी की।' कृ. ४३ (२) पूछी । 'दूतन्ह मुनिबर बूझो बाता।' मा० २.२७०.६ बुझे: पूछने से जानने से ; पूछे जाते हुए । 'भरत सुभाउ सील बिनु बूझें ।' मा० २.१६२.८ बुझे : भूकृ०पु ०ब० । पूछे । 'नप बूझे बुध सचिव समाजू ।' मा० २.२७१.५ बूझेसि : आ०-भूक००+प्रए । उसने पछा। 'बूझेसि सचिव उचित मत कहहू ।' मा० ३.३७.८ For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश बहु : आ० - भ० + आज्ञा + मब० । तुम पूछना, तुम समझ लेना । 'बूझेहु कुसल सखा उर लाई ।' मा० ६.२१.८ बू : बूर्झाह । (१) पूछते हैं । 'एक बूझें बार-बार सीय समाचार ।' कवि० ५.३० (२) समझते हैं । 'अतिही अयाने उपखानो नहि बूझैं लोग ।' कवि० ७.१०७ : बूझइ । समझता है, समझ सकता है । 'कौन हिए की बूझे ।' गी० २.६२.३ बूझ्यो : भूकृ०पु०कए० । (१) समझ लिया । 'बुझ्यो रागु बाजी ताँति ।' विन० २३३.३ ( २ ) पूछा । 'बूझ्यो ज्यों ही, कहो, मैं हूं चेरो ।' विन० ७६.३ बूर्भ : बूट: सं०पु० (सं० ब्युष्ट = परिणाम, फल >> प्रा० बुटु ? ) । सफल वृक्ष । 'सिद्ध साधु साधक सबै बिबेक बूट सो ।' कवि० ७.१४१ बड़ : भूकु०पु० ( प्रा० बुड्डु) । डूब गया। 'बूड़ सो सकल समाजु ।' मा० १.२६१ 'बड़, बड़ह : आ०ए० (सं० व्रडति - ड संवरने > प्रा० बुड्डुइ ) । डूबता - ती है । 'टाप न बूढ़ बेग अधिकाई ।' मा० १.२६६.७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बूढ़त : वकृ०पु० । डूबता, डूबते, डूबते हुए, डूबते समय । 'सोकसिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ।' मा० २.१८४ 767 बूड़न : भकृ० अव्यय । डूबने । 'नागर मनु बूड़न लग्यो ।' गी० ५.२१.२ बड़हि : आप्रब० (अ० बुहुहिं) । (१) डूब जाते हैं । 'बूड़हि आनहि बोरहि जेई ।' मा० ६.३.८ (२) चाहे डूब जायें । 'गोपद जल बूड़हि घटजोनी ।' मा० २.२३२.२ बूड़ि : पूकृ० । डूबकर । 'बूड़ि न मरहु धर्म व्रत धारी ।' मा० ६.२२.६ बूडिहि : आ०भ० प्र० ( प्रा० बुडिहिइ ) । डूब जायगा । 'नाहि त बूड़िहि सब परिवारू ।' मा० २.१५४.७ ६.३१.२ बूढ़: बुढ़ + कए० | कोई वृद्धजन । २.१६२.५ बूड़िओ : डूबी हुई भी । ' बूड़िओ तरति बिगरीओ सुधरति ।' कवि० ७.७५ बड़े : भूकृ०पु०ब० । डूब गये । 'बूड़े नृप अगनित बहु बारा ।' मा० ६.२६.३ बूड्यो : भूकृ० पु०कए० । डूब गया। 'बुड्यो मृगबारि ।' विन० ७३.२ बूढ़, ढ़ा वि०पु० (सं० वृद्ध > प्रा० बुड्ढ ) । अतिवयस्क । मा० ४.२८ ; 'बूढ़ एक कह सगुन बिचारी ।' मा० For Private and Personal Use Only बूढ़े : बूढ़ा + ब० । 'कहैं बारे बूढ़े बारि बारि बार बार ही ।' कवि० ५.१५ बूढ़ो : बूढ़ा + कए० | 'बूढ़ो बड़ो प्रमानिक ब्राह्मन ।' गी० १.१७.२ बूतें : बूते पर बल पर । 'किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ।' मा० १.२३.२ ( फा० बूतः) । वृंद, दा: वृंद | समूह | मा० १.३४; ३.६.४ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 768 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश बृदन्हि: बृंद + संब० वृन्दों (में) । 'कालिका बूंद बुदन्हि बहु मिलीं ।' मा० ६.९३ छं० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बृदाबन : सं०पु० (सं० वृन्दावन) । (१) तुलसीवन । (२) बजमण्डल का स्थान विशेष | बृदारका : वृंदारक । देव । मा० १.३२६ छं० ४ बुक : (१) वृक । भेड़िया । मा० २.६२.८ (२) बृकासुर । बृकासुर : कंस राजा का साथी एक असुर जो भेड़िये के रूप में रहता और व्रजमण्डल में आतङ्क करता था । दो० ४७२ बुक : बुक + कए० । कोई भेड़िया । 'बकु बिलोक जिमि मेष बरूथा । मा० ६.७०.१ बृजवासिन: व्रजवासियों । 'कंस करी बृजदासिन पे करतूति कुर्भाति ।' कवि ० ७. १३१ बृत्तांत : सं०पु० (सं० वृत्तान्त) | समाचार । मा० ४.२५.१ बृत्ति : वृत्ति । चित्त व्यापार, अन्तःकरण की दशा ( जिसमें चित्त विषयाकार हो जाता है ) । 'सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा ।' मा० ७.११८. १ बृह : वृथा हो । 'बड़ बय बृथहि अतीति ।' विन० २३४.२ बुथा : अव्यय (सं० वृथा ) । व्यर्थ । मा० ६.८.२ बृद्ध : बूढ़ा । मा० १.२०४ बृष : सं०पु० (सं० वृष) (३) उक्त राशि पर बृषकेतु, तू : सं०पु० (सं० १.५३.८ १.२४३ बृषभ : वृषभ । बेल । मा० बृषली : सं० स्त्री० (सं० वृषली) । ( १ ) शूद्रा (२) वन्ध्या (३) रजस्वला (४) नव- प्रसूता (५) कुआर कन्या जो पिता के घर रह रही हो । 'अनाचार खल बृषली स्वामी ।' मा० ७.१००.८ ( वृषली स्वामी - शूद्रा पति से मुख्यार्थ है परन्तु अनाचार की दृष्टि से सभी अर्थ व्यङ्ग्य हैं ) । बृषासुर : (सं० वृषासुर) । (१) बैल के रूप में रहने वाला कंस का मित्र । (२) एक दैत्य (भस्मासुर ) जिसे शिव ने वर दिया था कि जिस पर हाथ रख दे वह भस्म हो जाय । वह शिव को ही भस्म कर पार्वती को चाहता था तो विष्णु ने उसे मोहित कर उसी के सिर पर उसका हाथ रखवा दिया, फलतः वही भस्म हो गया । कवि० ७.१७० । (१) बैल | मा० २.२३६.३ (२) एक नक्षत्र राशि । ( बैशाख - ज्येष्ठ में ) सूर्य के आने का समय । कृ० २ε वृषकेतु) । वृषभ वाहन = शिव । मा० १.३५; बृष्टि : सं० स्त्री० (सं० वृष्टि) । वर्षा । मा० ४.१६.१० बृहद्, द: वि० (सं० बृहद्) । विशाल । विन० २६.३ For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 769 बृहद्बाहु : वि० (सं०) । विशाल भुजाओं वाला । विन० २८.१ बेंचि : बेचि । 'नाम तव बेंचि नरकप्रद उदर भरौं ।' विन० १४१.३ बेंचे : बेचने पर (से) । 'बेंचे खोटो दाम न मिल ।' विन० ७१.७ बेच्यो : भूक०० कए । बेच दिया । 'बेच्यो बिषयनि हाथ हियो है।' विन० १७१.४ बेत : बेत । (१) एक प्रकार का झाड़ । लिए बेंत छरी सोधै बिभाग।' गी० ७.२२.५ (२) छड़ी (विशेषतः द्वारपाल की)। 'उग्रसेन के द्वार बेंत कर धारी।' विन० १८.७ बेकाम : वि०+क्रि०वि० । बेकार, व्यर्थ । 'आइ बकहिं बेकामहिं ।' कृ० ५ बेग : वेग । गति की तीव्रता, शीघ्रता। मा० २.८२ बेगरन : भक० अव्यय । बिगड़ना, बिगड़ने । 'बनी बात बेगरन चहति ।' मा० २.२१७ बेगहु : बेग+मब० । शीघ्रता करो। 'बेगहु भाइहु सजहु संजोऊ ।' मा० २.१६१.१ बेगारि : सं०स्त्री० (फा० बेगार)। (१) ऐसा काम जो सामन्त लोग अपनी प्रजा से बिना पारिश्रमिक दिये लिया करते थे। (२) बेदिली से किया जाने वाला काम । 'नाहिं त भव बेगारि मह परिहै छूटत अति कठिनाई रे।' विन० १८६.१ बेगारी : भूकृ०स्त्री० । बिगाड़ दी, बेकार कर दी। 'मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी।' मा० २.४७.१ बेगि, गो : पूकृ० । वेग करके, शीघ्रता करके (तत्काल, शीघ्र ही) । 'उठहु बेगि सोइ करहु उपाई :' मा० २.५०.८, ६.१०६.२ बेगिअ : आ० भावा० । शीघ्रता कीजिए । 'बैगिअ नाथ न लाइअ बारा।' मा० २.५.६ बेगु : बेग+कए । अनोखा वेग । तीव्रतर गति । 'खगराज को बेगु लजायो।' ___ कवि० ६.५४ बेचक : वि०पू० । बेचने वाला, विक्रेता । 'द्विज श्रुति बेचक ।' मा० ७.६८.२ बेचत : वक० (सं० व्यचत्>प्रा. वेच्चंत) । बेचता-बेचते । 'बेचत बेटा बेटकी ।' कवि० ७.६६ बेचनिहारे : वि.पु०ब० । बेचने वाले। 'और बेसाहि के बेचनिहारे ।' कवि० ७.१२ बेचहि : आ०प्रब० (अ० वेचहि) । बेचते हैं । 'बेचहि बेद धरम दुहि लेहीं।' मा० २.१६८.१ For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 770 तुलसी शब्द-कोश बेचारो : वि.पु. (फा० बेचारः) कए । निरुपाय, दीन । 'बानरु बेचारो बाधि ___ आन्यो ।' कवि० ५.११ बेचि : पूकृ० । बेच कर । कवि० ७.६४ बेचिए : आ०कवा०प्रए । बेचा जाता है, बेची जाती है। 'बेचिए बिबध-धेनु रासभी बेसाहिए।' कवि० ७.७६ बेटकी : बेटी (सं० वेठिका) । कवि० ७.६६ बेटा : सं०० (सं० वेटक)। पुत्र । मा० ६.१८.३ बेटी : सं०स्त्री० (सं० वेटिका) । पुत्री। 'बाजे बाजे राजनि के बेटा बेटी ओल हैं।' कवि० ५.२१ बेत : (१) सं०० (सं० वेत्त>प्रा. वेत्त)। एक प्रकार का झाड़ जो जलाशय आदि में होता है जिसकी शाखा से छड़ी बनाते हैं । 'फूलइ फरइ न बेत ।' मा० ६.१६ ख (२) बेत की छड़ी। बेतपानि : सं०+वि० (सं० वेत्रपाणि) । द्वारपाल (जो हाथ में बेत का डंडा लिये रहता है) । मा० ६.१०८.६ बेतस : बेत (सं० वेतस्) । मा० २.३२५.३ बेताल, ला : वेताल । नीच देवविशेष । मा० १.८५.६ बेद : वेद । संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् तथा वेदमत के प्रतिपादक __ वेदाङ्ग आदि अन्य शास्त्रीय ग्रन्थ । मा० १.३.६ बेदतत्त्व : वेदों का सार, वेद-तात्पर्य । 'करगत बेदतत्त्व सब तोरें।' मा० १.४५.७ बेद-धुनि : वेदपाठ की ध्वनि । मा० १.१६५.७ बेदन : (१) सं०स्त्री० ((सं० वेदना)। पीडा, व्यथा की अनुभूति । हनु० ३०, ३६ (२) बेदन्ह । बेदों (ने) । 'किधौं बेदन मृषा पुकारो।' विन० ९४.२ बेदन्ह : बेद+संब० । वेदों (ने) । 'बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार ।' मा० ७.१३ क बेदबिद : (दे० बिद) वेदों का ज्ञाता । मा० २.१४४ । बेदबिधि : वैदिक रीति, वेदों में विहित कर्म पद्धति । मा० १.१५३ बेदबुध : बेदबिद । 'बेदबुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं।' कवि० ७.६८ बेदमंत्र : वैदिक ऋचा। मा० १.१०१.४ . बेदमत : वैदिक सिद्धान्त । 'करम उपासन ग्यान बेदमत ।' विन० २२६.२ बेदमरजाद : (दे० मरजाद) । वैदिक कर्तव्यों की विहित सीमा । 'बेदमरजाद मानी हेतुबाद हुई है।' गी० १.८६.३ बेदसिरा : सं०पु० (सं० वेदशिरस्) । मुनिविशेष । मा० १.७३ बेदा : बेद । मा० ७.३२.५ बेदिका : बेदी (सं० वेदिका) । मा० १.२२४.२ For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 771 सुलसी शब्द-कोश बेदी : सं० स्त्री० (सं० वेदि, वेदी) । होम के लिए बनायी जाने वाली विशेष रचना या कुण्ड । मा० १.१००.२ : द + ए० । कोई बेद । 'अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना । मा० १.२३५.७ बेधत: वकृ०पु० (सं० विध्यत् ) । छेदता, बींधता । 'फूल बान तें मनसिज बेधत आनि ।' बर० ४० बेधि : पृकृ० । छेद कर । जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं ।' मा० १.११ बेधिअ : आ०कवा०प्र० । छेदा जाता है, छेदा जा सकता है । 'सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा । मा० १.२५८.५ बेधे : भूकृ०पु० ब ०ब० । छेद दिए, बींध दिए । 'सरन्हि सिर बेधे भले ।' मा० ६.९३ छं० बेध्यो : भूकृ०पु० ए० । छेद दिया, छेदा हुआ । 'बान सत बेध्यो हियो ।' मा० ६.८४ छं० -चेन : सं०पु ं० (सं० वेन, वेण) । महाराज पृथु का पिता जो अधर्मी होने से ऋषियों की हुंकार से मारा गया । मा० २.२२८ -बेनि, नी : सं० [स्त्री० (सं० वेणि, वेणी) । (१) केश की चोटी । 'कृस तनु सीस जटा एक बेनी । मा० ५.८.८ ( २ ) नदी की धारा । (३) (प्रयाग में ) संगम की धारा । 'बेनि बचन अनुकूल ।' मा० २. २०५; १.२.१० बेनु : सं०पु० (सं० वेणु) । (१) बाँस । 'बेनु मूल सुत भयउ घमोई ।' मा० ६. १०.३ ( २ ) वंशी मुरलीवाद्य (सुषिर वाद्य ) । ' बीना बेनु संख धुनि द्वारा ।' मा० २.३७.५ (३) बेन ( राजा विशेष ) । दो० ४७२ बेनुबन : 'भइ रघुवंश बेनुबन आगी ।' मा० २.४७.४ बेर : (१) सं० स्त्री० (सं० वेला) | I 1 समय । 'मरती बेर नाथ मोहि बाली ।' मा० ७. १८.२ (२) सं०पु० (सं० वदर > प्रा० वयर ) । फलविशेष । 'लिए बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ।' विन० २६१.१ -बेरा : बेल | समय । 'लगन बेरा भइ ।' पा०मं० ११५ (२) सं०पु० (सं० वेडा - स्त्री० ) । लट्ठ या तख्ते जोड़कर बनाई हुई नौका | 'पावति नाव न बोहितु बेरा । मा० २.२५७.३ बेरागा : वि०पु० (सं० विराग ) । रागरहित, विरक्त, अनासक्त । 'कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ।' मा० ७.५६.६ बेर : वेला में । 'पुनि आउब एहि बेरिआं काली ।' मा० १.२३४.६ बेरिआ, या : बेरा, बेला । समय । 'सुख सोइए नींद बेरिया भइ ।' गी० १.२०.१ बेरें : बेड़े के ( विना) । 'तारि सकहु बिनु बेरें ।' विन० १८७.४ बेरे : बेरा + ब० । बेड़े । भए समर सागर कहुं बेरे । मा० ७.८.७ -बेरे : (दे० बेरा ) बेड़े को । 'बाँध जिनि बेरें ।' गी० ५.२७.३ For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 772 तुलसी शब्द-कोश बेरो : बेरा+कए० । बेड़ा । 'नर तनु भव बारिधि कहुं बेरो।' मा० ७.४४.७ बेल : (१) सं०० (सं० विचकिल>प्रा० वेइल्ल)। बेला (पुष्पविशेष)। 'हार बेल पहिरावौं चंपक होत ।' बर. १३ (२) (सं० विल्व>प्रा० वेल्ल)। श्रीफल । 'बेल पाती महि परइ सुखाई।' मा० १.७४.६ बेलन : सं०० (सं० वेल्लन) । (१) चरखी। (२) लुढ़कने-घूमने वाली वस्तु विशेष । (३) चके आदि के बीच का काष्ठ आदि । 'पाटीर पाटि बिचित्र भँवरा । बलित बेलन लाल ।' गी० ७.१८.२ बेला : सं०स्त्री० (सं० वेला)। समय । मा० १.३१२ बेलि, ली : सं०स्त्री० (सं० वल्ली>प्रा. वेल्ली) । लता, बौंड़ी। मा० २.१३८ २.१.७ बेवान : विमान । 'देवगन देखत बेवान चढ़े।' कवि० ६.४८ बेष, षा : वेष । मा० १.७.५, ३.१५ बेष, पू : वेष+कए । मा० १.२८१ बेषे : बेष को। 'तापस बेष बनाइ।' कवि० २.१७ बेसर : सं०पू० (सं० वेशर)। खच्चर । मा० १.२००.६ बेसरि : सं०स्त्री० । नाक की बालीनथ । रान० ११ बेसा : बेषा । 'तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा।' मा० १.१८७.१ Vबेसाह, बेसाहह : आ०प्रए० (सं० विसाधयति>प्रा. विसाहइ)। मोल लेताः है, मोल ले, मोल ले सकता है। दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै।' कृ. ३ बेसाहत : वकृ.पु । खरीदता-ते । 'तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि ।' कवि० ७.१२ बेसाहि : पू० । खरीद कर, देन-लेन में विनिमय करके । 'लायह मोल बेसाहि कि मोही।' मा० २.३०.२ ।। बेसाहिए : आ०कवा०प्रए० (सं० विसाध्यते>प्रा० विसाहीअइ) । खरीदा जाता है, खरीदी जाती है । 'रासभी बेसाहिए।' कवि० ७.७६ बेसाहे : खरीद लेने पर, सहेजने से । 'तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि ।' कवि० ७.१२ बेसाहै : बेसाहइ । बेसाह्यो : भूकृ००कए । सौदा किया, सहेज लिया। तब तें बेसाह्यो दाम लोह कोह काम को।' कवि० ७.७० बेह : संपु० (सं० वेध>प्रा० वेह) । छेद।। बेहड़ : वि०० । गहन, भयानक, घोर, दुर्गम । 'बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा।' __ मा० २१३६.६ बेहाल : बिहाल । कवि० ५.१६ बेहालू : बेहाल+कए । विह्वल, व्याकुल । 'जिमि दिन पंख बिहंग बेहाल । मा०. २.३७.१ For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 773 तुलसी शब्द-कोश बेहू : बेह+कए० । एक भी छेद । 'कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू । मा० २.२६२.६ कुंठ, ठा : वैकुंठ । विष्णु लोक । मा० १.८०.३; ६.२६.८ खास : सं०पु० (सं० वैखानस - विखानस = कुटी में रहने वाला) । वानप्रस्थी मुनि, तपोवनवासी । मा० २.१७३.. १ बैठ : भूकृ०पु० (सं० उपविष्ट > प्रा० वट्ठ ) । बैठा, आसीन । 'तब लगि बैठ अहउँ बट छाहीं ।' मा० १.५२.२ बैठक : सं० स्त्री० (सं० उपविष्टिका) । आसन । 'सनमुख सुखद मागि बैठक लई ।' गी० ५.३८.२ बैठत: वकृ०पु० । बैठता - ते । बैठते ही । 'बैठत पठए रिषयँ बोलाई ।' मा० २.२५३.८ No : भ० अव्यय । बैठने । 'प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ।' मा० ७.३२ बेहि : आ०प्र० । बैठते हैं । मा० ७.२६.१ बैठहि : आ० - आज्ञा - मए० | तू बैठ | 'आँखि ओट उठि बैठहि जाई ।' मा० २.१६२.८ ors : ० | बिठा कर । ' लीन्हेसि रथ बैठाइ । मा० ३.२८ बैठाई : (१) बैठाइ । 'पूंछी कुसल निकट बैठाई ।' मा० २.८८.४ (२) भूकृ० स्त्री० । बिठलायी । 'आसिष देइ निकट बैठाई ।' मा० ३.५.२ बैठाए : भूकृ०पु०ब० । बिठलाये । मा० २.२४२.४ बैठा : भूकृ०पु० । बिठलाया । 'बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ।' मा० १.२१५.३ बैठारि : पूकृ० । बिठला कर । मा० २.१४५ बैठारीं : भूकृ० स्त्री०ब० । बिठलायीं । 'बधू सप्रेम गोद बैठारीं ।' मा० १.३५४.४ बैठारी : (१) बैठारि । 'गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी । मा० २.३४.६ (२) भूकृ० स्त्री० । बिठलायी । मा० १.६६.७ बैठारे : भूकृ०पु०ब० । बिठलाये । 'तिन्ह बैठारे नर नारि । मा० १.२४० बैठारेउ : भूकृ०पु०कए । बिठलाया । 'रथ बैठारेउ बरबस आनी ।' मा० २.१४३.३ बैठारेन्हि : आ० - भूक०पु० + प्रब० । उन्होंने बिठलाया - ये । 'निज आसन बैठारे न्हि आनी ।" मा० १ २०७.२ बैठारो : बैठारेउ । विन० ६४.३ बैठावा : भूकृ०पु० । बिठलाया । मा० ५.३३.४ बैठि : (१) पूकृ० । बैठ कर । 'राज बैठि कीन्हीं बहु लीला ।' मा० १.११०.८ (२) बैठी । 'बैठि मनहुं तनु धरि निठुराई ।' मा० २.४१.४ (३) बैठे | ' (राम) बैठि तेहि आसन हो ।' रा०न० ४ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 774 तुलसी शब्द-कोश बैठिप, ए : आ०भावा० । बैठा जाय (बैठना चाहिए)। 'बैठिन होइहि पाय पिराने ।' मा० १.२७८.२ 'मेरी ओर हेरि के न बैठिए रिसाइ के ।' कवि० बैठी : बैठी+ब० । मा० १.५५.६ बैठी : भूक स्त्री० । मा० १.६८.६ बैठु : आ० --आज्ञा-मए । तू बैठ। 'लोचन ओट बैठु मुहु गोई।' मा० २.३६.६ ब : बैठे-बैठे (स्थिति में) । जहें बैठे देखहिं सब नारी।' मा० १.२२४.७ बैठे : भूक००० । मा० १.१००.४ बैठेउ : भूक.पु०कए । बैठा। 'आपु लखन पहिं बैठेउ जाई ।' मा० २.६०.४ बैठेहि : बैठे-बैठे ही । 'बैठेहिं बीति जात निसि जामा ।' मा० ५.८.७ बैठो : बैठ्यो। 'राम हू को बैठो धूति हौं।' कवि० ७.६६ बैठ्यो : बैठेउ। कवि० ७.१४२ बैतरनी : सं०स्त्री० (सं० वैतरणी) । यमलोक की नदी । मा० ३.२.७ बैताल : बेताल । कवि० ६.५० वैद : सं०० (सं० वैद्य) । चिकित्सक । मा० १.३२.३ बंदई : सं०स्त्री० (सं० वैद्यता) । वैधकर्म =चिकित्सा । दो० २४२ बैदराज : श्रेष्ठ वैद्य । गी० ६.६.६ बैदिक : वि० (सं० वैदिक) । (१) वेदपाठी, वेदमार्गानुसारी। मा० ७.१०५.३ (२) बेदविहित । ‘लोकिक बैदिक काज ।' रा०प्र० ४.२.५ बैदेहि, ही : वैदेही । सीताजी। मा० १.२५२.४; ४६.५ बैदेही : सीताजी ने । 'प्रभु पयान जाना बैदेहीं।' मा० ५.३५.६ बैन : बयन । (१) वाणी । मा० २.१०० (२) मुख (सं० वदन>प्रा. वयण)। दे० बिधुबनी। बनतेय : वैनतेय ! गरुड़ । मा० १.२६७.१ बैना : बैन । वचन । मा० १.७१.२ बैभव : वैभव । ऐश्वर्य । मा० २.६८.१ बर : संपु० (सं० वैर) । द्वेष, शत्रुता । मा० ७.४६.५ बरख : सं०० (फा० बैरक)। छोटा झण्डा, झण्डे का वस्त्र । 'धम धावनि बगा पांति पटो सिर, बैरख तड़ित सोहाई ।' कृ० ३२ बैराग्य : वैराग्य । मा० १.१०७ बैरिउ : वैरी भी । 'बैरिउ राम बड़ाई करहीं।' मा० २.२००.७ बरिन, न्ह : बैरी+संब० । वैरियों । 'बिराजत बैरिन के उर साले ।' हनु० १७ For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 775 बैरिनि : वि०स्त्री० (वैरिणी)। स्त्री शत्रु । मा० २.१६ बैरी (रि) : वैरी । द्वेषी, शत्रु । मा० ४.६.६ (२) जन्मकुण्डली का छठा स्थान = शत्रु का घर । 'दास्न बैरी मीच के बीच बिराजति नारि ।' दो० २६८ बैरु : बैर+कए । अद्वितीय वैर । 'तो मैं जाइ बैरु हठि करिहउँ । मा० ३.२३.४ बैसा : बैठा (प्रा० वइसिस) । 'मुनि मग माफ अचल होइ बैसा।' मा० ३.१०.१५ बसें : बैठे । 'अंगद दीख दसानन बैसें।' मा० ६.१६.४ बैसे : बैठे। 'मेरु के शृगनि जन धन बैसे ।' मा० ६.४१.१ बोड़िए : (सं० बोडी>प्रा. वोड्डी कौड़ी) कोड़ी ही, कौड़ी मात्र । 'देहैं तो प्रसन्न ह्व बड़ी बड़ाई बोड़िए ।' कवि० ७.२५ बोष : सं०० (सं.)। ज्ञान, प्रत्यय । मा० ३.४६.५ बोधमय : ग्यानमय । मा० १ श्लो० ३ बोधा : बोध । मा० १.१३६.६ . बोधायतन : (सं०) बोध+आयतन । ज्ञानागार । विन० ५३.२ बोधित : भूकृ०वि० (सं.)। समझाया हुआ। निज धरम बेद बोधित ।' विन० २३६.३ बोधु : बोध+कए । समझ । 'तदपि मलिन मन बोधु न आवा।' मा० १.१०६.४ बोषक : एकमात्र ज्ञानरूप । विन० ५३.५ बोधकघन : एकमात्र ज्ञान का सघन रूप; ज्ञान की वर्षा करने वाला (ब्रह्म)। विन० ५२.८ बोधकरासी : (सं० बोधेकराशि) ज्ञान के एकमात्र पुञ्ज =ब्रह्म । विन० ५८.६ बोरत : वक०० (सं० ब्रोडयत्>प्रा० वोडंत) । डुबाता । 'बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।' विन० ७२.४ बोरति : वक०स्त्री० । डुबाती। 'बोरति ग्यान बिराग करारे।' मा० २.२७६.१ बोरहिं : आ०प्रब० । डुबाते हैं । मा० ६.३.८ बोरहु : आ०मब० । डुबा दो । मा० २.१८९ बोरा : भूक०० । डुबाया, सौंदा । 'केसरि परम लगाइ सुगंधन बोरा हो।' रा०न० ६ (२) डुबा दिया, नष्ट कर दिया । 'तासु दूत होइ हम कुल बोरा।' मा० ६.२२.२ बोरि : पूक० । (१) धारा मग्न कर । 'बानरु बहाइ मारी महा बारि बोरि के।' कवि० ५.१६ (२) सौंद कर, डुबो कर । 'तेल बोरि पावक देहु लगाइ।' मा० ५.२४ बोरिहौं : आ०भ०उए । डुबा दूंगा। 'ढील किये नाम महिमा की नाव बोरिहौं ।' विन० २५८.४ For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 776 तुलसी शब्द-कोश बोरी : (१) बोरि। डुबो कर, सौंद कर । 'रचित तड़ित रंग बोरी।' गी० ७.७.४ (२) भूक स्त्री० । डुबायी हुई । 'बोले गिरा अमिों जनु बोरी।' मा० १.३३०.५ बोरे : भूकृपु । डुबोए, मग्न किये हुए । 'आपु कंज मकरंद सुधा ह्रद हृदय रहत नित बोरे ।' कृ० ४४ बोरौं : आ०उए । डुबा दू, डुबा सकता हूं। 'लंका गहि समुद्र महँ बोरौं ।' मा० ६.३४.२ बोर्यो : भूकृ.पु०कए । डुबाया गया। सरिता महँ बोर्यो हौं बारहि बार । विन० १८८.३ बोल : (१) सं०० (प्रा० वोल्ल=वचन+तरङ्ग)। उक्ति, कथन । 'मालवान रावरे के बावरे से बोल हैं।' कवि० ५.२१ (२) प्रतिज्ञा वाक्य । 'बलि बोल न विसारिए ।' हनु० २० (३) बोलइ । 'तबहुं न बोल चेरि बड़ि पापिनि ।' मा० २.१३.८ (४) बोलइ। बुलाता है। भोजन करत बोल जब राजा।' मा० १.२०३.६ (५) तरङ्ग+कथन । 'महिमा अपार काहू बोल को न वार पार ।' कवि० ७.१२६ 'बोल, बोलइ : आ०प्रए० (प्रा० वोल्लइ =सं० कथयति)। कहता-ती है । 'बटु करि कोटि कुतरक जथारुचि बोलइ।' पा०म० ५८ (२) बुलाता है। पुकारता है। बोलत : वकृ०पु । (१) बात करता-करते । 'बोलत तोहि न संभार ।' मा० १.२७१ (२) बुलाता-बुलाते । 'भयो रजायसु पाउ धारिए बोलत कृपानिधान हैं।' गी० ५.३५.२ बोलन : (१) बोल+संब० । बोलों, शब्दों। 'बलि जाउँ लला इन बोलन की।' कवि० १.५ (२) भक० अव्यय । बोलने, शब्द करने । 'अरुनचूड़ बर बोलन लागे।' मा० १.३५८.५ (३) बुलाने, पुकारने । 'कौसल्या जब बोलन जाई।' मा० १.२०३.७ बोलनि : सं०स्त्री० । बोलने की क्रिया । 'राम बिलोकनि बोलनि चलनी।' मा० ७.१६.४ बोलनिहारे : वि०पु । बोलने वाले । 'बोलनिहारे सों करै बलि बिनय की झाई।' विन० १४६.५ नोलब : भक०० । बोलना (बोलने में) । 'मैं बोलब बाउर ।' मा० २.२६३.५ बोलसि : आ०मए । तू बोलता है। 'बोलसि निदरि बिप्र के भोरें। मा० १.२८३.५ For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 777 बोलहि : आ.प्रब० । बोलते हैं, कहते हैं। 'बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ।' मा० १.६३ (२) शब्द करते हैं । 'भांति भांति बोलहिं बिहग ।' मा० २.१३७ बोलहु : आ०प्रब० । बोलो, बोलते हो। 'काहे न बोलहु बचन सँभार।' मा० २.३०.३ बोला : (१) बोल । वचन, शब्द । 'अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।' मा० १.१९६६ (२) भूकृ०० । कहा । 'तब बोला तापस बगध्यानी ।' मा० १.१६२.६ यह कर्मवाच्य प्रयोग में भी आता है-मरम बचन सीता जब बोला । मा० ३.२८.५ बोलाइ : पूकृ० । बुला (कर) । 'पठए देव बोलाइ।' मा० १.६६ बोलाई : भूकृ०स्त्री०ब० । बुलाई, आहूत की। मा० १.१६०.१ बोलाई : (१) बोलाइ। 'सादर मुनिबर लिए बोलाई।' मा० १.६१.३ (२) भूक०स्त्री० । बुलाई, आहूत की । 'बिहंसि निसाचर सेन बोलाई । मा० ६.४०.२ बोलाउब : भूकृ०० (प्रा० वोल्लाविअन्व) । बुलाना (होगा)। 'जनक बोलाउब सीय ।' मा० १.३१० बोलाएँ : बुलाने (से, पर) । 'जाहु जो बिनहिं बोलाएं।' मा० १.६२.८ बोलाए : भकृ००ब० । बुलाए, आहूत किये । 'भोजन कहूं सब विप्र बोलाए।' मा० १.१७३.४ बोलायो : भूकृ००कए० । बुलाया, आहूत किया । 'कृपासिंधु तब अनुज बोलायो।' मा० ६.१०६.१ बोलावन : भकृ० अव्यय । बुलाने । 'आवै पिता बोलावन जबहीं।' मा० १.७५.३ बोलावहिं : आ०प्रब० । बुलाते हैं। 'मातु-पिता बालकन्हि बोलावहिं ।' मा० ७.६६.८ बोलावा : भूकृपु० । बुलाया, आहूत (आमन्त्रित किया) । 'संगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।' मा० १.१८६.५ बोलि : पूकृ० । (१) कह कर, वचन देकर । 'बाँह बोलि दै थापिये।' विन० ३५.४ (२) बुला कर, आमन्त्रित कर । 'दच्छ लिए मुनि मोलि सब।' मा० १.६० बोलिअ, ए, य, ये : आ०कवा०प्रए । (१) बोलना चाहिए, कहा जाय । 'बोलिअ बचन बिचारि ।' दो० ४३५ (२) बुलाइए । सिसु समेत बेगि बोलिए कौसल्या रानी ।' गी० १.६.११ बोलिब : भक०० । बुलाने, आमन्त्रित करने । 'इन्हैं बोलिबे कारन' 'ठयो ठाट इतो री।' गी० १.७७.३ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 778 तुलसी शब्द-कोश बोलिबो : भक०पु०कए। बोलना, कहना । 'मधुर बचन, कटु बोलिबो।' दो. बोलिहैं : आ०भ०प्रब० । बोलेंगे। 'अब तो दादुर बोलिहैं ।' दो० ५६४ बोलिहौं : मा०म० उए । बुलाऊँगा-गी। 'बोलिहीं सुख नीदरी सुहाई।' गी १.१६.४ बोली : भूक०स्त्री०ब० । 'बोली बचन सक्रोध ।' मा० १.६३ बोली : भूक०स्त्री० । 'बोली सती मनोहर बानी ।' मा० १.६१.८ यह कर्मवाच्य प्रयोग होता है-धरि धीरजु बोली मृदु बानी। मा० १.१४६.१ यहां वक्ता मनु हैं। बोल : आ०-आज्ञा-मए० । तू बोल । 'रे कपि-पोत बोलु सँभारी। मा० ६.२१.१ . बोलें : बोलाएँ । 'जौं बिन बोलें जाह भवानी।' मा० १.६२.४ बोले : भूक पु०ब० । (१) कहने लगे। बोले बचन बिगत सब दूषन ।' मा० २.४१.६ (२) बुलाये, आहूत किये । 'कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले ।' कवि० ५.१६ (३) 'बोल' का रूपान्तर-कहने । 'लाज बांह बोले की।' कवि० ६.५२ बोलेउ' : आ०-भूक००+5ए । मैं बोला । 'अस बिचारि बोलेउ खगराजा।' मा० ७.८४.६ बोलेउ : भूक-पु०कए। बोला, कह चला। 'पुनि तापस बोलेउ।' मा. १.१५६.२ बोलेसि : आ०–भूकृ००+प्रए० । वह बोला । 'बल बोलेसि बहु भाँति ।' मा० ३.२२ बोलेहुं : बुलाए भी । 'जाइअ बिन बोलेहुं न संदेहा ।' मा० १.६२.५ बोलेहु : आ०-भूक००+मब० । तुम बोले, तुमने कहा-कहे । 'बोलेहु बचन दुष्ट की नाई। मा० ३.२८.१२ बोले : बोलहिं । गी० १.६५.१ बोल्यो, ल्यो : बोलेउ । (१) बोला, कहा। 'बचय मनोहर बोल्यो।' गी० २.१३.३ (२) बुलाया । 'तिलक को बोल्यो, दिये बन ।' गी० २.५७.२ बोल्लाह : बोलहिं । मा० ६.८८.१० बोहित : सं०० (सं० वोहित्थ) । जलयान, जहाज । मा० १.१४ ङ बोहितु : बोहित+कए । एक ही जहाज । 'संभु चाप बड़ बोहितु पाई।' मा० १.२६०.७ बोहे : आ०प्रब० । डुबाते हैं । 'रूप जलधि 'मन गयंद बोहैं।' गी० ७.४.५ For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 779 बौड़ : सं०स्त्री०। (१) लता (२) लता की शाखा । 'बढ़त बौंड जनु लही सुसाखा।' मा० २.५.७ बोडि : पूक० । बौंड़ कर, शाखाएं फेंक-फला कर, फैल कर। 'नभ बिटप बौंड़ि मानों छपा छिटकि छाई ।' गी० १.१६.३ बोडी : भूक स्त्री० । (१) टहनियां फैलाकर छा गयी। राम कामतरु पाइ बेलि ज्यों बौंड़ी बनाइ।' गी० १.७२.३ (२) छाई हुई । 'बौंड़ी देखियत कलप बेलि फरी है।' गी० १.६२.४ बौद्ध : बुद्ध (सं०) । बुद्धावतार । विन० ५२.८ बौर : सं०० (सं० बकुल>प्रा० बहल) । सुगन्धित पुष्प, आम्रमञ्जरी। मा० १.२८८ बौरा : (१) बाउर । मूक । 'भे सब लोक सोक बस बोरा ।' मा० २.२७१.१ (२) पागल। 'बोरा, बोराइ : आ०प्रए० (सं० वातुलायते>प्रा० वाउलाइ) । वातव्याधि ग्रस्त होता है, पागल हो जाता है, मतवाला बन जाता है । 'जगु बोरइ राजपदु पाएँ ।' मा० २.२२८.८ बोराई : (१) बोराइ । पागल हो जाय । 'मैन के दसन, कुलिस के मोदक, कहत सुनत बोराई ।' कृ० ५१ (२) सं०स्त्री० (सं० वातुलता>प्रा० वाउलाया)। पागलपन । 'करत फिरत बौराई।' विन० ८१.१ पौराएँ : बोराने से, विक्षिप्त कर देने से । 'भल भूलिहु ठग के बौराएँ ।' मा० १.७९.७ गोरानी : भूकृ०स्त्री० । पगलायी, विक्षिप्त हुई । 'सती सरीर रहिहु बोरानी।' मा० १.१४१.४ बोरायहु : आo-भूक००+मब० । तुमने पागल बना दिया । 'मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु ।' मा० १.१३६.८ बौराह, हा : वि.पुं० (सं० वातुलाभ>प्रा. वाउलाह-वातुलसदृश)। पागल जैसा । 'बरु बौराह बसह असवारा।' मा० १.६५.८; ७.७०.८ चौरे : बौरा (रूपान्तर) । पागल । 'बोरे बरहि लागि तपु कीन्हा ।' मा० १.६७.२ व्यंग : बिग्य । व्यञ्जना (वक्रता) से आने वाला अर्थ (काव्यार्थ)। 'प्रेम प्रसंसा बिनय ब्यंग जुत सुनि बिधि की बर बानी।' विन० ५.५ व्यग्र : व्यग्र । आतुर, व्याकुल । मा० ३.२४ व्यजन : सं०० (सं० व्यजन) । पंखा । मा० १.३५०.४ व्यतिरेक : सं०० (सं० व्यतिरेक)। अभाव, विरह, अतिरिक्त होना (छोड़ कर) । 'व्यतिरेक तोहि को सहि सके ।' विन० १३६.६ (तुझे छोड़कर= तेरे सिवा)। For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 780 तुलसी शब्द-कोश व्यथा : सं०स्त्री० (सं० व्यथा) । पीडा । मा० २.८१.७ व्यरथ : ब्यर्थ । मा० २.१७२.१ व्यर्थ : वि०+क्रि०वि० (सं० व्यर्थ)। अर्थहीन, निरर्थक, वृथा, निष्प्रयोजन । मा० १.६७.८ व्यलोक : वि०+सं०पू० (सं० व्यलीक)। (१) कामुक तथा धार्मिक मर्यादाओं को लेकर स्वैराचारी। 'कारुनीक व्यलीक मद खंडन ।' मा० ७.५१.८ (२) कलुष, मिथ्या, माया । 'गत-व्यलीक भगतनि उर चंदन ।' गी० १.३६.१ (३) कपट । 'तजि ब्यलीक भजु कारुनीक प्रभु ।' गी० ६.२.३ 'ब्यवहर, व्यवहरइ : आ०ए० (सं० व्यवहरति>प्रा० ववहरइ)। व्यवहार करता है, जागतिक या सामाजिक आचरण करता है । 'जो बिचारि ब्यवहरइ जग ।' दो० ४७१ ग्यवहरहिं : आप्रब० । व्यवहार करते हैं । 'बुध ब्यवहरहिं बिचारि ।' दो० ५०४ व्यवहरिया : सं०पू० (सं० व्यवहारिक) । लेन-देन करने वाला=ऋणदाता आदि। ___ 'अब आनि अ ब्यवहरिया बोली।' मा० १.२७६.४ व्यवहार, रा : सं०० (सं० व्यवहार)। आचार, प्रचलन, रीति, प्रथा । 'सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ।' मा० १.६६.४ व्यवहारी : वि० (सं० व्यवहारिन्) । व्यवहार करने वाला, आचरण में लाने वाला । 'बिबेक ते ब्यवहारी सुखकारी।' विन० १२१.४ व्यवहारु, रू : ब्यवहार+कए । (१) आचरण । 'सदा कपट ब्यवहारु ।' मा० १.१३६ (२) रीति । जथा वंस ब्यवहारु ।' मा० १.२८६ (३) प्रचलन, प्रथानुसारी आचरण । 'तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ।' मा० २.८७.८ (४) कार्यकलाप । 'सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।' मा० २.६२.७ व्यसन : सं०पू० (सं० व्यसन) । (१) किसी विषय को लेकर बना हआ अनिवार्य स्वभाव (लत)। 'आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं।' मा० ७.३२.६ (२) विपत्ति, संकट । 'ब्यसन भंजन जन रंजन ।' कवि० ७.१५० ब्यसनी : वि०० (सं० व्यसनिन्) । बुरी लत वाला । मा० ३.१७.१५ ब्याकुल : वि० (सं० व्याकुल)। विशेष आकुल, अतिविकल । मा० १.१५४.१ व्याकुलता : संस्त्री० (सं० व्याकुलता) व्याकुल होने का भाव । मा० १.२५६.३ ब्याज : सं०० (सं० व्याज)। (१) बहाना, गोपनपूर्वक प्रकट करने की रीति । 'सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी ।' मा० १.२३८.४ (२) ऋण में मूलधन पर लगने वाला लाभ-धन । 'दिन चलि गए ब्याज बहु बाढ़ा ।' मा० १.२७६.३ ज्याजु : ब्याज+कए० । एक बहाना मात्र । 'ईस बामता बिलोकु बानर को ब्याज है।' कवि० ५.२२ For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 781 व्याष : (१) सं०० (सं० व्याध) । बधिक, बहेलिया । मा० १.२६.६ (२) एक वह वधिक जिसने मृग के धोखे से कृष्ण के पैर में तीर मारा था ! 'ब्याध चित दै चरन मार्यो मूढमति मृग जानि ।' विन० २१४.५ व्याधि, धी : व्याधि । रोग । मा० २.३४ ब्याधिन्ह : ब्याधि+संब० । व्याधियों । मा० ७.१२१.२६ ब्याधू : ब्याध+कए. । मा० १.५.८ । ब्याप, ब्यापइ : आ०प्रए० (सं० व्याप्नोति, व्यापयति)। (१) ओत-प्रोत करताती है । 'हरि सेवहि न ब्याप अबिद्या । हरि प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।' मा० ७.७६.२ (२) अधीन करता-ती है । 'नट सेवकहि न ब्यापइ माया।' मा० ७.१०४.८ पापक : व्यापक । (१) अन्य की अपेक्षा अधिक क्षेत्र विस्तार वाला । 'ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।' मा० १.१३.४ (२) प्रचुर, अपेक्षाकृत अधिक । 'अघ ब्यापकहि दुरावौं ।' विन० १७१.३ ब्यापक : ब्यापक+कए० । एकमात्र (निरपेक्ष रूप से) सर्वव्यापी । 'ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।' मा० १.२३.६ ब्यापत : वक०पु० । व्याप्त (ओत-प्रोत) करता, घेरता, अपनी व्याप्ति में लेता। 'तुम्हहि न ब्यापत काल ।' मा० ७.६४ क ब्यापहि : आ०प्रब० । व्याप्त करते हैं (१) ओत-प्रोत (प्रभावित करते हैं । 'काल धर्म ब्यापहिं नहिं ताही ।' मा० ७.१०४.७ (२) घेरते हैं। 'सकल बिध्न ब्यापहिं नहिं ताही ।' मा० १.३६.५ व्यापा : भूक ० । फैल गया, छा गया, ओत-प्रोत हुआ। 'महि पाताल नाक जसु ब्यापा।' मा० १.२६५.५ व्यापि : पूकृ० । फैल (कर), छा (कर) । 'नगर ब्यापि गई बात सुतीछी। मा० २.४६.६ ज्यापित : भूकृ०वि० (सं० व्याप्त, ब्यापित) । ओत-प्रोत किया हुआ-की हुई। _ 'मोह कलित ब्यापित मति मोरी।' मा० ७.८२.७ व्यापिहहिं : आ०म०प्रब० । ब्याप्त करेंगे, प्रभाव में लेंगे । 'माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि ।' मा० ७.८५ क च्यापिहि : आ०म०प्रब० । व्याप्त करेगा, ओत-प्रोत कर लेगा । 'बिनु बपु ब्यापिहि सबहि ।' मा० १.८७ व्यापी : भूकृस्त्री० । व्याप्त हुई (सर्वाङ्ग-प्रभावी हुई) । 'काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी ।' मा० १.१२६.७ च्यापेउ : भूकृ००कए । व्याप्त हुआ, फैल गया, छा गया। 'ब्यापेउ'"पुर" संबादु।' मा० १.६८ For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "782 तुलसी शब्द-कोश ज्यापै : ब्यापइ । व्याप्त (प्रभावित) करे । मा० १.२०२ ब्याप्य : वि० (सं० व्याप्य) । अन्य की अपेक्षा में अल्प क्षेत्र व्यापी (ब्यापक का विलोम) । 'ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता ।' मा० ७.७२.४ ज्याल, ला : सं०पू० (सं० व्याल) । सर्प । मा० ७.१०६ ख (वन-प्रसंगों में हिंसक ____ जन्तुओं का अर्थ भी रहता है-हाथी, चीता, तेंदुआ, राक्षस) । ज्यालपाल : सर्पराज =शेष, वासुकी । कवि० ५.२२ ज्यालपालक : ब्यालपाल । कवि० ७.२३ ब्याल-फेन : अहिफेन । अफीम । 'ब्यालहु तें बिकराल अति ब्यालफेन जिय जानु ।' दो० ५०२ ज्यालारि : व्यालारि । गरुड़ । मा० ६.१०२ क ज्यालावलि : सर्पश्रेणी, सांपों का समूह । गी० ६.८.२ ज्यालो : वि.पु० (सं० व्यालिन्) । सर्पधारी । 'अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।' मा० १.७६.६ ध्यालु, लू : ब्याल+कए० । मा० २.१५४.१ व्यास : सं०० (सं० व्यास)। (१) महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन मुनि । 'ब्यास आदि कवि पुगव नाना।' मा० १.१४.२ (२) विस्तार । 'ब्यास समास स्वमति अनुरूपा ।' मा० ७.१२३.१ ब्याह : बिआह । मा० १.३६० छं० ब्याहब : भक०० (सं० विवाहयितव्य>प्रा० विआहिअव्व)। ब्याहना । 'काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब ।' कवि० ७.१०६ ब्याहि : पूकृ० । ब्याह करके । 'जब तें रामु ब्याहि घर आए ।' मा० २.१.१ व्याहिअ : आ०-कवा०-कामना-प्रब० । ब्याहे जायें। 'ब्याहिअहं चारिउ भाइ एहिं पुर ।' मा० १.३११ छं० . ब्याही : बिआही । कवि० १.२१ ।। ब्याहु, हू : ब्याह+कए । अनोखा विवाह । मा० १.३०४.३; १.४२.२ ब्याहे : भूक००ब० । विवाहित हुए । 'सकल कुअर ब्याहे तेहिं करनी।' मा० १.३२६.१ व्योम : व्योम । मा० १.६१.३ ब्योमचर : आकाश में विचरण करने वाला । कृ० ३१ ब्योमबीथिका : आकाशमार्ग, छायापथ (जिसमें घने-घने अनन्त नक्षत्रों की सड़क सी बनी दिखती है), आकाशगङ्गा । 'कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भरि धूमकेतु ।' कवि० ५.५ ब्यौत : सं०० (सं० व्योत =वि+ओत=वि+आ+उत) । अन्तर्बन्धन, सिलाई बुनाई (दरजी द्वारा काट-छाँट तथा नाप जोख एवं सिलने की क्रिया) ओत-प्रो For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 783 करने की क्रिया। 'अब देह भई पट नेह के घाले सों, ब्योंत कर बिरहा दरजी।' कवि० ७.१३३ ब्रज : सं०० (सं० व्रज)। (१) समूह, गोसमूह (२) गोष्ठ, गायों के रहने का घेरा । दे० ब्रजवधू । (३) गोचरभूमि, ग्वालों की बस्ती। (४) मथुरा के आस-पास का प्रदेश । कवि० ७.१३४ ब्रजबषू : गायों के गोष्ठों में रहने वाली स्त्री= अहीरन । गी० १.५४.५ ब्रजबासिन्ह : व्रजवासियों (ने) । क० ५० ब्रजराजकुमार : श्रीकृष्ण । कवि० ७.१३३ ब्रत : सं०पु० (सं० व्रत)। (१) प्रतिज्ञा, संकल्प, दृढ निश्चय (२) निष्ठा (३) उपवास, उपासना, धार्मिक अनुष्ठान (४) विधान, विहित कर्म । 'जासु नेम ब्रत जाइ न बरना।' मा० १.१७.३ व्रतधारी : वि०पू० (सं० व्रतधारिन्) । दृढ निष्ठा वाला। मा० १.१०४.७ ।। अतबंध : सं०० (सं० व्रतबन्ध)। यज्ञोपवीत संस्कार=उपनयन+वेदारम्भ+ समावर्तन । रा०प्र० ४.३.४ ब्रतु : ब्रत+कए । अनन्य व्रत । 'मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ।' मा० १.५६.८ ब्रन : सं०पू० (सं० वण) । मत, घाव, फोड़ा आदि । मा० ७.७४.८ ब्रह्म : सं०० (सं० ब्रह्मन्)। (१) परतत्त्व, परमात्मा। 'व्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।' मा० १.२३.६ (२) त्रिदेव में अन्यतम =सृष्टिकर्ता विरञ्चि । 'ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।' मा० १.८८.४ (३) ब्राह्मणों के पूर्वज जिनकी सन्तति होने से 'ब्राह्मण' कहा जाता है। 'चल न ब्रह्म-कुल सन बरिआई।' मा० १.१६५.५ (४) वेद (५) ज्ञान (६) शक्ति (७) धार्मिक अनुष्ठान । ब्रह्म, डा : ब्रह्माण्ड । मा० १.२०१; ६.१०३.१० ब्रह्मकर्म : वैदिक कर्मकाण्ड (ब्रह्म-वेद) । विन० ५३.५ ब्रह्मकल : ब्राह्मण वंश । मा० ३.३३.८ ब्रह्मगिरा : ब्रह्मशक्ति से उत्पन्न वाणी (शब्द ब्रह्म); आकाशवाणी । 'ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा।' मा० १.७४.८ ब्रह्मग्यान : परमतत्त्व का साक्षात्कार । मा० ७.१११.२ ब्रह्मचरज : ब्रह्मचर्ज । आत्मसंयम, वीर्यरक्षा का नियम । मा० १.१२६.२ ब्रह्मचर्ज : (१) सं०० (सं० ब्रह्मचर्य)। आश्रमचतुष्टय का प्रथम आश्रम । (२) वीर्य रक्षा का नियम । मा० १.८४.७ ।। ब्रह्मचारी : वि०० (सं० ब्रह्मचारिन्)। (१) ब्रह्मचर्याश्रमी (२) वेदों का स्वाध्यायी, ज्ञानी (३) परमतत्त्व का साक्षात्कर्ता । 'नारद प्रमुख ब्रह्मचारी।' विन० ११.६ (४) संयमी। For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 784 तुलसी शब्द-कोश ब्रह्मज्ञानी : वेद तथा परमात्मा का ज्ञाता । विन० ५७.४ ब्रह्मण्य : वि० (सं०)। (१) ब्राह्मण-रक्षक । (२) ब्रह्मज्ञानी । 'ब्रह्मण्यजन प्रिय मुरारी।' विन० ५३.५ ब्रह्मधाम : ब्रह्मलोक+विधाता का घर । मा० ३.२.४ ब्रह्मन्य : ब्रह्मण्य । 'प्रभु ब्रह्मन्य देव मैं जाना ।' मा० १.२०६.४ ब्रह्मपर : वि० (सं०) । (१) ब्रह्मपरायण, ब्रह्मलीन । 'जीवनमुक्त ब्रह्मपर ।' मा० ७.४२ ब्रह्मपुर : ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी का नगर । मा० ४.४६ छं. ब्रह्मबान : ब्रह्ममन्त्र से अभिमन्त्रित बाण =ब्रह्मास्त्र । मा० ५.२०.१ ब्रह्मबानी : ब्रह्मगिरा । 'गगन ब्रह्मबानी सुनि काना।' मा० १.१८७.८ ब्रह्मबिचारू : (दे० बिचारु) परमतत्त्व विषयक चिन्तन, उपनिषदों का मनन, स्वाध्याय । मा० १.१७८.४ ब्रह्मविद : (दे० बिद) ब्रह्मज्ञानी । विन० ५६.३ ब्रह्मभवन : ब्रह्मधाम । मा० १.७१.१ ब्रह्ममंडली : ब्राह्मणसमूह । गी० ७.३.२ ब्रह्ममय : वि० (सं.)। (१) ब्रह्मतत्त्व की भावना से सम्पन्न, ब्रह्मरूप । 'मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।' मा० १.१६७.५ (२) ब्रह्मरूप उपादान से रचित+ ब्रह्म से अभिन्न । 'देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।' मा० १.८५ छं० ब्रह्मलोक : आठ स्वर्गों (ब्राह्म, प्राजापत्य, सौम्य, ऐन्द्र, गान्धर्व, याक्ष, राक्षस और पैशाच) में सर्वोपरि लोक जहां त्रिदेव श्रेष्ठ ब्रह्मा का निवास कहा गया है। मा० १.४२.५ ब्रह्मवादी : वि०० (सं० ब्रह्मवादिन्) । ब्रह्म को ही सत्य तत्त्व मानने के सिद्धान्त वाला। विन० २६.८ ब्रह्मसमा : ब्रह्मा जी की सभा में। 'ब्रह्मसभां हम सन दुख माना।' मा० १.६२.३ ब्रह्मसर : (सं० ब्रह्मशर) ब्रह्मबान । मा० ५.१६ ब्रह्मसुख : ब्रह्मलीन दशा का आनन्द; समाधिस्थ योगी का साक्षात्कार-सुख । मा० १.२६.२ ब्रह्मसुखु : ब्रह्मसुख+कए । एकमात्र ब्रह्मानन्द । 'अगम जिमि ब्रह्मसुख अह मम मलिन जनेषु ।' मा० २.२२५ ब्रह्मसृष्टि : (सं०) ब्रह्मा की रचना=जगत्प्रपञ्च । मा० १.१८२.१२ ब्रह्मा : ब्रह्मा जी से । 'मैं ब्रह्मां मिलि तोहि बर दीन्हा ।' मा० १.१७७.५ For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 785 ब्रह्मांड : सं०० (सं०) । अण्डाकार विश्व (पुराणों के अनुसार पहले स्वर्ण अण्ड ___ उत्पन्न हुआ जिसके कटाहाकार दो जो 'अण्डकटाह' कहे गये हैं-इस कटाह युगल को 'ब्रह्माण्ड' कहा जाता है) । विराट् जगत् । मा० ७.८० ख ब्रह्मांड : ब्रह्मांड+कए० । एकीभूत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड । 'बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ।' मा० १.२५६ ब्रह्मा : सं०० (सं०) । माया के रजोगुण से युक्त परब्रह्म का सृष्टिकर्ता रूप = विधाता । मा० ७.११ ग ब्रह्मानंद : ब्रह्मसुख । मा० ७.१५ ब्रह्मानंद : ब्रह्मानंद+कए । एकमात्र ब्रह्मलीनता का परमानन्द । 'ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं।' मा० १.३०६.८ ब्रह्मानी : सं०स्त्री० (सं० ब्रह्माणी)। ब्रह्मा की पत्नी = सरस्वती। मा० १.१४८.३ ब्रह्म : ब्रह्म+कए० । अद्वितीय परमतत्त्व । मा० १.३४१.६ ब्रह्मद्र : ब्रह्मा और इन्द्र । विन० १०.६ बात, ता : व्रात । समूह । मा० ७.१०१ छं० 'जनरंजन भंजन खल ब्राता।' मा० ५.३६.४ ब्राह्मन : सं०० (सं० ब्राह्मण) । वर्गों में प्रथम विप्र । कवि० ७.१०२ जीड़ा : सं०स्त्री० (सं० व्रीडा) । लज्जा । मा० ७.५८.३ भंडार : सं०० (सं० भाण्डागार>प्रा० भंडार)। सामग्री रखने का घर । कवि० भंडारू : भंडार+कए। संग्रहालय । 'चारि पदारथ भरा भंडारू ।' मा० २.१०५.४ भंड आ : सं०पु० (सं० भण्ड, भाण्डिक) (१) एक संकरवर्ण जाति (२) वेश्याओं का दलाल =भिरसिकार । (३) नाई। 'प्रभु प्रिय भंड आ भण्ड ।' दो० ५४६ भंभेरि : (१) सं०स्त्री० (सं० मेढ़, भेड़)। भेड़ियाधसान, अविवेक (?)। (२) (भम्भर=टिड्डी) । टिड्डीदल के समान समूह-गति । 'गुन ग्यान गुमान भैभरि बड़ी, कलपद्रुम काटत मूसर को।' कवि० ७.१०३ For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 786 तुलसी शब्द-कोश भवनि : सं०स्त्री० (सं० भ्रमण>प्रा. भमण>अ० भव॑ण) । विचरण, भ्रमण किया, घूमघाम, भटकना । 'थकित बिसारि जहां तहां की भवनि ।' गी. ३.५.४ भंवर, रा : (१) सं०० (सं० भ्रमर>प्रा० भमर>अ० भवेर)। भौंरा, चञ्चरीक । बर० ३२ (२) आर्वत, चक्करदार प्रवाह । 'भंवर बर बिभंगतर तरंगमालिका ।' विन० १७.२ (३) चरखी, चकरी । 'मरकत भँवर, डांड़ी कनक ।' गी० ७.१६.३ (४) (सं० घ्रामर)। घुमाव, घुमावदार गति (युद्ध आदि में बाँए से दौए को बाण आदि चलाने की चाल) । 'धारै बान, कूल धन; भूषन जलचर, भवर सुभग सब घाहैं ।' गी० ७.१३.३ (दक्षिणावर्त गतिरूपी आवर्त)। भंवरा : भवर । चकरी। गी० ७.१८.२ भंग : सं०पु० (सं०) । (१) टूटना, उच्छेद । 'चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा ।' मा० ६.४०.१० (२) बिघ्न, बाधा। दे० रसभंग। (३) (समासान्त में) भंजन । तोड़ने वाला । 'सुग्रीव दुखरासि-भंग।' विन० ५०.६ भंगकर : वि.पु. (सं०) । तोड़ने वाला, विनाशकारी । विन० ४६.६ भंगकृत : भंगकर (सं० भङ्गकृत्) । विन० ६०.४ भंगा : भंग । टूटना । मा० १.२६८.२ भंगू : भंग+कए । (१) त्रुटि, टूटन । 'कबहुं न कीन्ह मोर मन भंग ।' मा० २.२६०.७ (२) बाधा । 'जेहि बिधि राम राज रस भंगू।' मा० २.२२२.७ भंजन : (१) सं०० (सं०) । खण्डन । 'नाहिं त करि मुख भंजन तोरा।' मा० ६.३०.५ (२) वि०पु । खण्डनकारी। 'भगत बिपति भंजन सुखदायक ।' मा० १.१८.१० भंजनि : वि०स्त्री० । भङ्ग करने वाली । 'भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ।' मा० १.३१.८ भंजनिहारा : वि.पु । तोड़ने वाला । मा० १.२७१.१ भंजनिहारु : वि०पु०कए । तोड़ने वाला, विनाशक । 'मनसिज मान भंजनिहारु।' गी० ७.८.१ भंजब : भकृ.पु । तोड़ना (होगा), (तोड़ेगा)। 'भंजब धनुषु राम सुन रानी।' मा० १.२५७.२ भंजहु : आ.मब० । तोड़ो। 'उठहु राम भंजहु भव चापा।' मा० १.२५४.६ भंजा : भूकृ०० । तोड़ा। हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।' मा० ५.२१.८ भंजि : पूक० । तोड़ कर । 'भंजि धनुष जानकी बिआही।' मा० ६.३६.११ भंजिहि : आ०भ०प्रए । तोड़ेगा। नष्ट करेगा। 'प्रभु मंजिहि दारुन बिपति ।' मा०१.१८४ भंजिहैं : आ० भ०प्रब० । तोड़ेंगे : 'प्रभु भंजिहैं संभु धनु ।' गी० १.७७.३ For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 787 भंजी : भूकृ०स्त्री० । नष्ट की। भंजी सकल मुनिन्ह के त्रासा ।' मा० ७.६६.२ भंजेउ : भूकृ००कए । तोड़ा । 'भंजेउ रामु आपु भवचापू ।' मा० १.२४.६ भंजेहु : तोड़े ही । 'बिनु भंजेहुं भव धनुषु बिसाला।' १.२४५.३ भंजौं : आ० उए । तोड़ डालू, तोड़ सकता हूं।' ले धावौं भंजौं मृनाल ज्यों।' गी० १.८६.६ भंज्यो : भंजेउ । नष्ट किया । 'भंज्यो दारिद काल ।' दो० १६० भंड : भांड़। दो० ५४६ भई : भई । हुईं। 'कुटिल भइँ भौंहैं।' मा० १.२५२.८ भइ : भई । हुई । 'भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।' मा० १.३६ भहउँ : भइ+उए । मैं हुई । 'आरतिबस सनमुख भइउँ ।' मा० २.६७ मइन्ह : भइ+उब० । हम हुईं। 'भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ।' मा० २.२२३.३ 'मइया : भैया । गी० १.४५.४ मइसि : (१) भइ+प्रए । वह हुई । 'कैकेई.. भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।' मा० २.२०१.४ (२) भइ+मए० । तू हुई। 'बहे जात के भइसि अधारा।' मा० २.२३.२ भइह : भइ+मब० । तुम हो गयीं। 'भामिनि भइहु दूध कइ माखी।' मा० २.१६७ भई : भूकृ०स्त्री०ब० । हुईं । मा० १.५५.५ मई : भूकृ०स्त्री० । हुई । मा० १.६६.४ भएँ : होने पर, से । 'क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।' मा० १.२८०.५ भए : भूकृ०० ब०। (१) हुए। ‘भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ।' मा० १.२६.७ (२) भएँ । ‘ब्रज सुधि भए लौकिक डर डरिबे हो।' कृ० ३६ (३) परसर्ग । से (होकर, स्थित होकर)। 'बैंचहिं गीध आंत तट भए।' मा० ६.८८.५ भएसि : आ०-भूकृ००+मए । तू हुआ। ‘भएसि काल बस निसिचर-नाहा।' मा० ३.२८.१५ भक्त : सं०+वि०पू० (सं०) । (१) निष्ठायुक्त (२) उपासक, आराध्य के प्रति आनन्दमय एकान्त-भावना से सम्पन्न आराधक । (मूल अर्थ सेवक है कि अत: गोस्वामी जी दासभावना को ही भक्ति मानते और आराध्य के प्रति दास्यनिष्ठा वाले को भक्त कहते हैं ।) मा० ६.६४.२-३ । (३) भक्त चार प्रकार के हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी । दे० भगत । भक्तानुकूल : भक्त के हितकारी । विन० ५३.६ भक्तानुवर्ती : भक्तानुकूल । विन० २७.३ भक्ति : सं०स्त्री० (सं.)। उपासना, आराधना, आनन्दपूर्ण अनन्य निष्ठा, आराध्य के प्रति ज्ञान-निष्ठा । गोस्वामी जी दासभावना से ब्रह्म-राम के प्रति आनन्दपूर्ण For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 788 तुलसा शब्द-कोश निष्ठा को-सेव्य-सेवक भाव को-वास्तव भक्ति मानते हैं। नवधा भक्ति (मा० ३.१६) साधन भक्ति है। इस भक्ति-मार्ग को वे वेद-सम्मत मानते हैं और विषय-वैराग्य तथा विवेक (ज्ञान) को उसका अङ्ग मान्य करते हैं। 'श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।' मा० ७.१०० ख भक्तिप्रिय : वि० । भक्ति ही जिसे प्रिय हो। विन० ४६.८ भक्तिभाव : उपास्य के प्रति अनन्य-निष्ठा की आनन्दपूर्ण अखण्ड वासना जिसमें भक्त का चित्त आराध्य मय हो जाता है । भक्ति की अखण्ड चित्तवृत्ति । विन० ३६.३ मक्तिरत : भक्ति के आनन्द में लीन । विन० ५७.१ भक्या : (सं० पद) भक्ति से, भक्तिपूर्वक । मा० ७.१०८ श्लोक ९ मक्षक : वि० (सं.)। खाने वाला, संहार कर्ता। विन० ५३.६ भखा : भूकृ०० (सं० भक्षित>प्रा० भविखम)। खाया । जेहिं जिउ न भखा को।' विन० १५२.७ भगत : भक्त । (१) सेवक । 'मन क्रम बचन भगत मैं तोरा ।' मा० १.१६०.३ (२) दास्यभक्त । मा० ७.८७.१-८ भगतन, नि : भगत +संब० भक्तों (के) । 'सो केवल भगतन हित लागी।' मा० भगति : (१) भक्ति । मा० १.६.७ (२) निष्ठा, श्रद्धा (पितृभक्ति) आदि। . 'दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काजु ।' दो० २२७ भगतिजोग : (सं० भक्तियोग) भक्ति की तन्मयता, अनन्य भक्ति साधना, आराध्य में ही चित्तवृत्ति की एकतानता; निरुद्ध चित्त की भक्ति में एकाकारता । विन २२४.४ भगतिमय : (सं० भक्तिमय) भक्ति से ओतप्रोत, भक्तियोग से सर्वाङ्ग व्याप्त । __ 'राम भगतिमय भरतु निहारे ।' मा० २.२६४.७ भगतिवंत : वि० (सं० भक्तिमत्>प्रा० भत्तिभंत)। भक्ति युक्त । माल ७.८६.१० भगतु : भगत+कए० । अनन्य भक्त, अद्वितीय भक्त । 'रघुपति भगतु जासु सुतु होई ।' मा० २.७५.१ भगवंत, ता : सं०+वि०० (सं० भगवत् >प्रा० भयवंत) । सर्वेश्वर, सम्पूर्ण विश्व के ऐश्वर्य का स्वामी, प्रभु, विश्व की प्रभुता वाला । मा० १.४४ भगवंतु : भगवंत+कए । एकमात्र परमेश्वर । 'कंत भगवंत ते तउ न चीन्हे ।' कवि० ६.१६ भगवान, ना : भगवंत । परमेश्वर । मा० १.८१ For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 789 भगवानु, न : भगवान+कए० । अद्वैत जगदीश्वर । 'तौ भगवानु सकल उर बासी।' मा० १.२५६.५; २.२५४.२ भगात : भागत । 'भभरि भगात जलथल मीचुमई है । कवि० ७.१७६ भगान : भागन । पलायन करना । 'चाहत भभरि भगान ।' मा० २.२३० भगायो : भूकृ०पू०ए०। खदेड़ दिया। 'गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु ।' कवि० ७.८४ भगिनि : भगिनी। मा० ३.२२.१० भगिनी : भगिनी+ब० । बहनें । 'भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ।' मा० १.६३.२ भगिनी : संस्त्री० (सं.)। बहन । मा० ४.६.७ भगो : भूकृस्त्री० । पलायित हुई । 'भय भभरि भगी न आउ ।' गी. २.५७.३ भगीरथ : सं०० (सं.)। राम के पूर्वज जो पृथ्वी पर गङ्गा को लाने के लिए प्रसिद्ध हैं। मा० २.२०६.७ भगीरथ नंदिनि : गङ्गाजी । विन० १७.१ मगे : भुकृ.पु०ब० (सं० भग्न>प्रा० भग्न) । (१) भाग गए। (२) फट गए। ____ऐसेहु भाग भगे दासभाल तें।' कवि० ७.२ भगै : आ.प्रब ० । भागते हैं । 'न डग न भनें ।' कवि० २.२७ मग्न : भूकृ०वि० (सं.)। खण्डित । 'जद्यपि भग्न मनोरथ बिधिबस ।' विन० ११६.४ मच्छक : भक्षक । (१) खाने वाला-ले । 'ते फल भच्छक कठिन कराला ।' मा० ३.१३.८ (२) नाशक, संहारकर्ता । 'काल करम सुभाउ गुन भच्छक । मा० ७.३५.८ मच्छन : सं०पु० (सं० भक्षण) । ग्रास (कर जाना), कवलित (करना)। 'आज सबहिं कहें भच्छन करऊँ।' मा० ४.२७.३ मच्छहि, ही : आ०प्रब । खा डालते हैं । मा० ५.३ छं०३ भच्छामच्छ : सं०० (सं० भक्ष्याभक्ष्य) । खाद्य तथा अखाद्य (भक्ष्य =जो खाने ___ को विहित हो; अभक्ष्य =जिसका खाना निषिद्ध हो) । मा० ७.६८ क भज : (१) भजइ । भक्ति (भजन) करे या करता है। 'सर्वभाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ।' मा० ७.८७ क (२) भज । भक्ति कर । 'तो तज बिषय बिकार, सीर भज ।' विन० २०५.१ भजति : भजन्ति । मा० ३.४ छं० भज, भजइ, ई : आ०ए० (सं० भजति-भज सेवायाम्) । (१) भक्ति करता है । 'जो न भजइ रघुबीर पद ।' मा० २.१६५ (२) ग्रहण करता है। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।' मा० १.२२२.४ (३) पलायन करता है। For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 790 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश भजत: वकृ०पु० | आराधन करता-करते । 'भजत कृपा करिहहिं रघुराई ।' मा० O Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १.२००.६ भजतहि : (१) भजन करते ही ( २ ) भजन करते हुए को । 'भजतहि भजं । " त्रिन० १३५.३ भजते : क्रियाति०पु०ब० । (१) यदि भक्ति करते । 'जो श्रीपति भजते ।' विन० १६८.३ (२) तो भक्ति करते । 'तो. भजते तजि गारो ।' विन० ९४.४ भजन : सं०पु० (सं० ) । भक्ति । ( १ ) साध्य भक्ति 'भजन प्रभाउ देखावत सोई । मा० १.२२५.७ (२) साधन भक्ति । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।' मा० ३.३६.१ भजनहीन : भक्तिरहित । गी० २.७४.४ भजन : सं० स्त्री० । भागने की क्रिया । गी० १.३०.३ I भजनीय : वि० (सं० ) । आराध्य, उपासनीय, भक्ति का आलम्बन । कृ० २३ भजन : भजन + कए । अनन्य भक्ति । 'भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ।' मा० ५.४४.३ भजन्ति : आ०प्र० (सं० ) । भक्ति करते हैं । मा० ७.१२३ श्लोक १ भज : आ०म० (सं० ) । तू भजन करता है । 'भजसि न कृपासिंधु रघुराई । मा० ६.२७.१ भर्जी, हीं : आ०प्र० । (१) भक्ति करते हैं । 'रामहि भजहिं ते चतुर नर ।' मा० ३.६ ख (२) पूजते हैं । 'भजहिं भूतगन घोर ।' मा० २.१६७ जहि : आ०म० ( १ ) तू भक्ति करता है । 'भजहि न अजहु · · · तेहि ।' विन० २००.४ (२) तू भक्ति कर । 'भजहि राम ।' मा० ३.४६ ख ( ३ ) तू भाग जा, पलायन कर । 'भजहि जहाँ मद मार ।' विन० १८८.६ मजहु : आ०म० । आराधन करो । 'भजहु कोसलाधीस ।' मा० ५.३६ क भजामहे : आ० उ० (सं० ) । हम आराधन करते हैं । मा० ७.१३ छं० ४ मजामि : आ० उ० (सं० ) । भक्ति करता हूं, पूजता हूं । मा० ३.४.२ भ : ० । (१) आराधन करके । 'भजि रघुपति करुहित आपना ।' मा० ६.५६.५ (२) भाग कर । "चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे ।' मा० २ २०६.६ अ, ये : आ०कवा०प्र० । भजा जाय, सेचा जाय । 'भजिअ राम सब काम बिहाई ।' मा० ४.२३.६ मजिबे : भक्र०पु० | भजने, उपासने, आराधने । 'भजिबे लायक सुखदायक रघुनायक ।' विन० २०७.१ भजिये : भजिअ । विन० २१६.१ भजि हैं : आ०भ० प्रब० । भक्ति करेंगे । 'जे भजिहैं मन लाई ।' गी० १.१६.४ For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 791 भजिहौं : आ० भ० उए० । भक्ति करूंगा । 'तुलसिदास भजिहीं रघुबीरहि ।' गी० ५.२८.८ मजी : भूक०स्त्री०ब० । (१) दौड़ पड़ी, भाग चली (२) भक्तियुक्त हुई, समर्पित हुई। 'तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी भजी तात पति तनय बिसारी ।' कृ० २२ भजी : भूकृ०स्त्री० । भक्तियुक्त हुई, समर्पित हुई । 'श्री. भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ।' मा० ३.६.७ भजु : आo-आज्ञा-मए । तू भक्ति कर । 'अस बिचारि भजु मोहि ।' मा० ७.८७ ख मजें : भजने से, आराधने से । 'रामु भजे हित नाथ तुम्हारा ।' मा० ५.४१.८ भजे : (१) आ०उए० (सं.)। भजता हूं, आराधित करता हूं। 'भजे सक्ति सानुजं ।' मा० ३.४.१२ (२) भूकृ००ब० । आराधित किये । 'भजे न राम बचन मन काया ।' विन ८३.१ (३) भाग चले, पलायन कर चले । 'जहँ तह भजे भालु अरु कोसा।' मा० ६.६६.३ (४) भ । 'भजे बिनु रघुपति बिपति सके को टारी।' विन० १२०.४ भजेसु : आ०--भ०+आज्ञा+मए । तू भक्ति करना । 'सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।' मा० ७.८८.१ मजेहु : (१) आ०-भ+आज्ञा+मब० । तुम भक्ति करना । 'अब गृह जाहु सखा सब, भजेहु मोहि दृढ़ नेम ।' मा० ७.१६ (२) आ० - भूकृ००+मब० । तुमने आराधित किया। 'पिय भजेहु नहिं करुनामयं ।' मा० ६.१०४ छं० भज : भजइ । 'भज मोहि मन बच अरु काया ।' मा० ७.८७.८ भजौं : आ० उए । (१) उपासित करूँ। 'जो तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु ।' विन० ११२.४ (२) अङ्गीकार करता हूं। 'आयो सरन भजौं, न तजौं तेहि ।' गी० ५.४५.२ भज्यो : भूकृ.पु.कए । भजन किया। 'भज्यो बिभीषन बंधु भय ।' दो० १६० भट : (१) सं०० (सं.)। वीर, योद्धा । मा० १.४.३ (२) कमण्डलु के काम आने वाली कड़वी लौकी (जिसका श्लेष द्रष्टव्य है) 'मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भट जो अंकुरे ।' मा० ६.६६ छं. मटकि : पूकृ० । भटक कर, भ्रान्त होकर । 'भटकि कुतरु कोटर गहौं ।' विन० २२२.२ भटके : आ०ए० (सं० भट भती+अक गतो)। (१) जीविका की खोज में चलता है । (२) दिग्भ्रान्त होकर घूमता है, भटकता है, मार्ग भूल कर घूमता है। 'कोटि जनम भ्रमि प्रमि भटक ।' विन० ६३.६ For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 792 तुलसी शब्द-कोश भटन, नि, न्ह, न्हि : भट+संब० । भटों (के), योद्धाओं (के) । मा० ६.८७ छं. ___'सुनि धुनि होई भटन्हि मन चाऊ ।' मा० ६.४१.२ । भटभेरे : सं००ब० (भटभेरा=युद्ध में भटनें का संघर्ष)। धक्के, बाधाएँ, संघर्षण । 'नर हत भाग्य देहिं भटभेरे।' मा० ७.१२०.१२ भटभेरो : सं०पू० कए । भट-संघर्ष, धक्का, बाधा । 'कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो।' विन० १४३.६ भटमानी : वि०० (सं० आत्मानं भटं मन्यते इति भटमानी)। अपने को वीर पुरुष समझने वाला-वाले । 'भटमानी अतिसय मन माखे।' मा० १.२५०.५ भटा : भट । योद्धा । कवि० ७.४१ भटू : वि.पु.कए । भोजन भट्ट, खाऊ, पेटू । क० २ भट्टा : भट । योद्धा। मा० ६.८७.२ मड़िहाई : क्रि०वि० । भयभीत गति में (जैसे, कुत्ता हांड़ी लेकर ताकता चलता है कि कोई छीन कर प्रहार न कर दे), भयाक्रान्तवत् । 'सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाई।' मा० ३.२८.६ भदेस, सा : वि० । अभव्य, अशिष्ट, असंस्कत, अयोग्य । मा० १.१०.१० 'राम सुकीरति भनिति भदेसा।' मा० १.१४.१० मदेसू : भदेस+कए । अनुचित। 'मोर कहब सब भांति भदेसू ।' मा० २.२६६.७ भद्र : (१) सं०० (सं.)। कल्याण । कवि० ७.१५२ (२) (समास के अन्त में) आदर तथा स्नेह का सूचक जो नाम के साथ लगता है-'रामभद्र' । गी० २.५८.१ भद्रदायक : कल्याण प्रद । विन० ६०.५ भद्रसिधु : कल्याण रूपी जल से पूर्ण समुद्र के समान । विन० ७४.१ भनेता : वकृ००ब० (सं० भणन्तः)। कहते । 'बेद पुरान भनंता ।' मा० १.१६२ छं० 'मन, भनइ, ई : आ०प्रए० (सं० भणति>प्रा० भणइ)। कहता है। 'सुकबि लखन मन के गति भनई।' मा० २.२४०.५ भनित : भूकृ०वि० (सं० भणित) । कहा हुआ । 'सहसनाम मुनि भनित सुनि ।' दो०१८८ भनिति : सं०स्त्री० (सं० भणिति) । उक्ति, भाषा । मा० १.१४.१० भनियत : वक०कवा० । कहा जाता । 'सोऊ साधु सभा भली भांति भनियत है।' विन० १८३.२ भनिहैं : आ०प्रब० । कहेंगे, बखानेंगे । 'भूरि भलाई भनिहैं ।' विन० ६५.२ मनी : (१) भूकृ०स्त्री० । कही। 'कसम खाइ तुलसी भनी ।' गी० ५.३६.६ (२) कृ० । कह कर । 'चले.. जय जय भनी ।' मा० १.३२७ छं० ४ For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 793 मनु : आ०-आज्ञादि-मए । तू कह । अवधी में यह अव्यय होकर चलता है जिसका अर्थ 'भला बताओ तो कि' जैसा होता है (आज कल 'भुन' रूप प्रचलित है) । 'सो भनु मनुज खाब हम भाई ।' मा० ६.६.६ भने : (१) भने । कहता है। 'निगमागम भने ।' मा० ७.१३ छं० ५ (२) भूक पुब ० । कहे । 'साखि निगमनि भने ।' विन० १६०.२ मन : भनइ । कहे, कह सकता है । 'को ताकी महिमा भने ।' गी० ५.४०.२ भन्यो : भूक.पु०कए। कहा । 'देवन्ह जुगल कहुं जय जय भन्यो।' मा० ६.६५ छं० भब्य : सं०+वि० (सं० भव्य) । कल्याण, शुभ, उत्तम। कवि० ७.१५२ भभरि : पू० । हड़बड़ा कर, आतङिकत होकर (भम्भर =टिड्डी के समान भीड में विचलित होकर) । 'चाहत भभरि भगान ।' मा० २.२३० . भमरे : भूकृ.पु०ब० । घबराये, (भीड़ में) हड़बड़ा गये । 'भभरे, बनइ न रहत, न बनइ परातहि ।' पा०म० १०३ मयं : भय से । 'निज भय डरेउ मनोभव पापी।' मा० १.१२६.७ भय : सं०पू० (सं.)। डर, त्रास, आशङका अनिष्ट की शङका। मा० १.३१.८ भयंकर : वि० (सं०) । भयानक । मा० १.३८.६ भयंकरा : भयंकर । मा० १.६५ छं. भयंकर : भयंकर+कए । अद्वितीय भयानक । 'बचनु भयंकरु बाजु ।' मा० २.२८ भयउं, ऊँ : आ०-भूक००+उए । मैं हुआ । 'जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा ।' मा० ४.२६.७; ७.८०.१ भयउ, ऊ : भूकृ००कए । हुमा। 'दंड समान भयउ जस जाका।' मा० १.१७.६, १.७१.१ भयकर : भयंकर । मा० ३.२० छं० भयकारी : भयकर (सं.)। मा० ३.१८.७ भयवा : वि०स्त्री० (सं.)। भय देने वाली=भयानक । 'मलरुचि खलगन भयदा सी।' विन० २२.४ भयदायक : भय देने वाला, भयंकर । मा० ३.२४.८ भय-भवन : भय के आगार=भयानक । कवि० ७.१५२ भय-भीत, ता : भयाक्रान्त, अतिशय डरा हुआ। मा० १.२०१.५ भयहारी : वि० (सं०) । भय दूर करने वाला । मा० ५.४६.३ भयहु : आ०-भकृ००+मब० । तुम हुए । 'भूरि भाग भाजन भयहु ।' मा० २.७४ For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 794 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश भयाकुल : (सं० ) । भय के कारण विकल । मा० ७.१४ छं० १ भयातुर : (सं० ) । भय के कारण हड़बड़ी में पड़ा हुआ, भयविकल । मा० १.१८६ छं० भयातुरे : भयातुर + ब० । डरे हुए । 'कृपाल पाहि भयातुरे ।' मा० ६.६६ भयानक : वि० (सं० ) । भयंकर | मा० १.२४१.६ भयावन : वि०पु० । भयदायक, भयानक । मा० २.३८.३ भयावनि, नी : विoस्त्री० । भय देने वाली । मा० २.८३.५; ६.८७ छं० भयावनु : भयावन + कए । एकमात्र भयानक, अनोखा भयप्रद्र । 'नगरु बिसेखि भयावनु लागा ।' मा० २.१५८.६ भयावने : भयावन + ब० । 'बोलहिं बचन परम भयावने ।' मा० ६.७८ छं० भयावनो : भयावनु । 'नाथ न चलेंगो बलू, अनलु भयावनो ।' कवि० ५.८ भयावहा : वि० (सं० भयावह ) । भयानक ( भयबहनकारी ) । मा० ३.१६ छं० भये : भए । रा०प्र० १.७.५ भयो : भएउ । 'जो सुमिरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदासु ।' मा० १.२६ भर : (१) भरइ । धारण करता ती है । 'बिस्व भार भर अचल छमा सी ।' मा० १.३१.१० (२) सं०पु० (सं०) । भार । 'उर आनंदु पुलक-भर गाता ।' मा० १.३०५.७ (३) वि० । पूर्ण । 'बालकेलि गावती मल्हावती सुप्रेम-भर ।' गी० १.३३.४ ( ४ ) अतिशय, अधिक, प्रचुर । 'भूमि भर भार हर ।' विन० ५२.७ (५) पार्श्व, सहारे । 'सिर भर जाउँ ।' मा० २.२०३.७ (६) सं०पु० (सं० भरट = दास) (७) (सं० भड़) एक संकरवर्ण जाति । 'प्रभु तिय लूटत नीच भर ।' दो ४४० /भर, भरइ, ई : (१) आ०प्र० (सं० भरति, बिभर्ति > प्रा० भरइ) | भरण-पोषण करता है; धारण करता है। 'मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई ।' मा० ७. १०६.१२ (२) पूरता है। 'पुलक बपुष लोचन जल भरई ।' मा० ७.५०.७ भरण : वि०पुं० । धारण कर्ता । 'विश्व पोषण भरण विश्व कारण कारण । विन० । ५५.६ भरत : (१) सं०पुं० (सं० ) । कैकेयी पुत्र ( जिन्हें रामभक्ति की चतुर्व्यूह - कल्पना में ईश्वर का धारक अंश बताया गया है ।) मा० १.१६७.७ (२) वकृ०पु० (सं० भरत् > प्रा० भरत) । भर देता, पूर्ण करता । ' देत जो भू भाजन भरत ।' दो० २८७ For Private and Personal Use Only भरतकूप : चित्रकूट में एक कुआ जिसमें भरत ने वह तीर्थ जल डाला था जो राम के अभिषेक हेतु ले गये थे । मा० २.३१०.७ भरतखंड : सं०पु० (सं० ) । भारतवर्ष का वह भू-भाग जो हिमालय से कुमारी तक है । विन० १३५.१ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 795 भरतहि : भरत को । 'भरतहि अवसि देहु जुबराजू ।' मा० २.५०.२ भरतागवन : भरत का आगमन । मा० ७.६५.५ भरतानुज : भरत के अनुज, (विशेषतः) शत्रुघ्न । मा० ७.६.१ भरतार, रा : वि०+सं०० (सं० भत्>प्रा० भत्तार) । (१) पति । 'चाहिस सदासिवहि भरतारा ।' मा० १.७८.७ (२) भरण-पोषण करने वाला । 'करतार भरतार हरतार ।' हनु० ३० भरतु : भरत+कए । एकमात्र भरत । 'रामभगतिमय भरतु निहारे ।' मा० २.२६४.७ भरदर : वि०+क्रि०वि० । भरपूर धार के साथ, मूसलाधार, सघन । 'भरदर बरसत कोस सत।' दो० ४०२ भरद्वाज : सं०० (सं.) । ऋषिविशेष । मा० १.३०.१ भरन : (१) सं०० (सं० भरण) । धारण, स्थापन, पूर्ति । 'बिस्व भरन पोषन कर जोई ।' मा० १.१६७.७ (२) वि.पु.। भरने वाला-वाले, व्याप्त करने वाला-वाले । 'सब खल भूप भये भूतल भरन । विन० २४८.२ (३) भकृ० । भरने, पूरने । 'जल नयन लागे भरन ।' गी० ५.४२.४ । भरनि : (१) वि०स्त्री० । भरने वाली, पूरने वाली। (गङ्गा) जलनिधि जल भरनि ।' विन० २०.२ (२) सं०स्त्री० । भरने-पूरने की क्रिया । 'सुगति साधन भई उदर भरनि ।' विन० १८४.२ (३) धारण करने की क्रिया । 'तनु अनुहरति भूषन भरनि ।' गी० १.२७.३ भरनी : सं०स्त्री० (सं० बहिणी)। मयूरी, मोरनी। 'रामकथा कलि पन्नग भरनी।' मा० १.३१.६ भरम : भ्रम । विन० १३१.३ भरमाये : भूक०० ब० । भ्रान्त किये गये, भ्रम में डाले गये । 'हाय हाय राय बाम बिधि भरमाये।' गी० २.३६.४ भरहि, हीं : आ.प्रब० (सं० भरन्ति>प्रा० भरंति>अ० भरहिं) । (१) भरते हैं, पूरते हैं । देहिं असीस हरष उर भरहीं।' मा० ७.६.५ (२) भरे जाते रहते हैं । 'भरहिं निरंतर होहिं न पूरे।' मा० २.१२८.५ (३) झोंकते हैं । 'अबीरनि भरहिं चतुर बर नारि ।' गी० ७.२१.२२ भरहुगे : आ० भ०पु०मब० । भरोगे । विन० २११.३ भरा : भूक००। (१) पूर्ण । 'विषरस भरा कनक घटु जैसें ।' मा० १.२७८.८ (२) ओत-प्रोत, अन्तर्वहियाप्त । 'धावा रिस भरा।' मा० ६.७०.८ (३) छा गया =व्याप्त हुआ । 'भुवन चारि दस भरा उछाहू ।' मा० १.२६६.३ For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 796 तुलसी शब्द-कोश भरायो : भूकृ.पु.कए । (१) उदर भरण कराया, पाला-पोसा (२) आभूषण आदि के रिक्त भाग को पूर्ण कराया । 'रावरो राम भरायो गढ़ायो।' कवि० ७.६० (३) लदाया। 'मनि गन बसन बिमान भरायो।' मा० ६.११७.३ भरावा : भूक०० । भरने का काम कराया। 'दिगपालन्ह मैं नीर भरावा ।' मा० ६.२८.५ भरि : प्रकृ० (अ०) । (१) व्याप्त करके । 'रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी।' कृ० ६१ (२) व्याप्त होकर । 'दुइ दंड भरि ।' मा० १.८५ छ० (३) पूर कर, तप्ति पर्यन्त । 'यह उत्सव देखि भरि लोचन ।' मा० १.८६.१ (४) पूरा-पूरा, साधन्त । 'एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं।' मा० १.४५.१ (५) मात्रा में नाप कर । 'तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ।' मा० १.२५२.२ (६) लाद कर । 'अन्न कनक भाजन भरि जाना ।' मा० १.१०१.८ भरित : भूक० (सं० भृत) । पूरित (भरा हुआ) । विन० १६.२ भरिता : भूक०स्त्री० । भरी हुई । 'राम बिमल जस जल भरिता सो।' मा० १.२६.११ भरिपूरि : पूर्णतः व्याप्त होकर । 'पुलक तनु भरि-पूरि।' गी० ७.१८.६ भरिपेट : जी भर कर, जितना हो सका उतना, पराकाष्ठा तक । 'पाइ सुसाहिब राम सो, भरिपेट बिगारी।' विन० १४८.४ भरिबे : भकृ.पु । भरना, धारणीय । 'जरि जीवन भरिबे हो।' कृ. ३६ भरिया : भरित (प्रा० भरिय)। भर गया। 'मन तो न भरो घरुप भरिया।' कवि० ७.४६ भरिहैं : आ०भ०प्रब० । भरण-पोषण करेंगे। 'प्रभुहि कनोड़ो भरिहैं ।' विन० भरिहै : (१) आ०भ०प्रए । भरेगा, पूरेगा। 'को भरिहै हरि के रितएं ।' कवि० ७.४७ (२) मए । तू भरेगा, पूरा करेगा (बिताएगा) । 'तू जनम कौनि बिधि भरिहै।' गी० २.६०.४ भरी : भूकृ०स्त्री०ब० । व्याप्त हुई , भर गईं। 'भरी प्रमोद मातु सब सोहीं।' मा. १.३५०.५ भरी : भकृ०स्त्री०। (१) ओत-प्रोत । 'गै पतिलोक अनंद भरी।' मा० १.२११/० (२) पूरित+व्याप्त । 'भरी क्रोध जल ।' मा० २.३४.२ (३) सम्पन्न । रहिअहु भरी सोहाग ।' मा० २.२४६ (४) पुष्ट । 'भारी भुजा भरी, भारी सरीर ।' कवि० ६.३३ भरुहाइ : पूकृ० । फूल (कर); आवेशपूर्ण हो (कर)। 'नीच यहि बीच पति पाइ भरुहाइ गे।' हनु० ४१ For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 797 भरुहाए : भूकृ०० ब० । आवेश से फुलाए हुए (क्रोध में लाए हुए) । 'भरुहाए नट __भाँट के चपरि चढ़े संग्राम ।' दो० ४२२ भरें : भरे हुए (स्थिति में)। 'सब सघ सोनित तन भरें।' मा० १.६३ छ० भरे : भूकृ००ब० । पूर्ण हुए। 'पुल क सरीर भरे जल नैना ।' मा० १.६८.३ (२) व्याप्त । 'हैं घर घर भरे सुसाहिब ।' विन० १५३.२ भरेइ : भरे ही, ज्यों के त्यों पूर्ण । 'तुलसिदास पुनि भरेइ देखियत ।' गी० १.३.६ भरेउ, ऊ : भूक००कए । पुर गया । 'भरेउ सुमानस सुथल ।' मा० १.३६.६; ६.७१.२ भरै : भरहिं । 'सुर मनुज मुनि आनंद भरै ।' मा० १.३२४ छं० ३ । भरै : (१) भरइ । भरता है। 'जो कोइ कोप भरै मुख बैना।' वैरा० ४६ (२) भर जाय, पूर्ण हो जाय । 'उदर भरै सोइ जतन सिखावहिं ।' मा० ७.६६.८ भरो : भर्यो । 'मन तो न भरो।' कवि० ७.४६ (सन्तुष्ट हुआ)। भरोस, सा : सं००। (१) आश्रय, सहारा, शरण । 'राम भरोस हृदय नहिं दूजा।' मा० २.१२६.४ (२) विश्वास, आश्वासन । 'निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं ।' मा० १.८.४ (३) आस्था, एक निष्ठा । 'भायप भगति भरोस भलाई ।' मा० २.२८३.३ (४) आशा, अनुकूल संभावना । 'नाथ देव कर कौन भरोसा ।' मा० ५.५१.३ भरोसें : भरोसे पर, सहारा लेकर । 'सेवक सुत पति मातु भरोसें ।' 'रहइ असोच ।' मा० ४.३.४ भरोसे : भरोसें । कृ० २७ भरोसो : भरोसा+कए । एकमात्र अवलम्ब । 'अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो।' मा० २.३१४.५ भरौं : आ० उए । भरता है, पूरता है। 'नाम तव बेंचि नरकप्रद उदर भरौं।' विन० १४१.३ भर्ता : भरतार । (१) पति । अमित दानि भर्ता बैदेही ।' मा० ३.५.६ (२) पालक । 'जय भुवन भर्ता ।' विन० २५.२ भर्यो : भरेउ । मा० ६.६४ छं० भल : वि०+सं०पु० (सं० भद्र>प्रा० भल्ल) । (१) कल्याण । 'जानत हौं कछु भल होनिहारा ।' मा० १.१५६.७ (२) उत्तम, अच्छा । 'ताहि कबहुं भल कहइ न कोई।' मा० ७.४४.३ (३) उत्तम कार्य, विवेकयुक्त कर्म । 'भल न कीन्ह तै निसिचर नाहा।' मा० ६.६३.१ (४) अनकल, उचित । 'पारबती भल अवसरु जानी।' मा० १.१०७.२ (५) शुभ, कल्याणकारी । 'खल सन कलह न For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 798 तुलसी शब्द-कोश भल नहिं प्रीती।' मा० १.१०६.१४ (६) क्रि०वि० । क्या खूब, यह भी अच्छी रही कि । 'भल भूलिहु खल के बौराएँ ।' मा० १.७६.७ ।। भलाइहि : भलाई ही, अच्छाई ही । 'भलो भलाइहि 4 लहइ ।' मा० १.५ भलाई : भलाई में, से । 'भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई।' मा० १.७.२ भलाई : सं०स्त्री० । (१) अच्छाई । उत्तमता, श्रेष्ठता। 'मति कीरति गति भूति भलाई ।' मा० १.३.५ (२) कल्याण, सत्परिणाम । 'बिधि बिपरीत भलाई नाहीं।' मा० १.५२.६ (३) औचित्य । 'सब बिधि भामिनि भवन भलाई।' मा० २.६१.४ (४) स्वास्थ्य आदि । “पूछी निज कुल कुसल भलाई ।' मा० २.१५६.७ भलि, लो : भल+स्त्री० । उत्तम, मङ्गलमय । अच्छी । मा० १.१०.१०; ६४.२ भलिक : भली प्रकार, पूर्णतया । 'भलो मान्यो भलिक ।' कवि० ६.५५ ।। भले : क्रि०वि० । (१) नितान्त, खूब, पूर्णतया । 'भले भूप कहत भले भदेख भूपनि सों।' कवि० १.१५ (२) भले..... में । 'भलें कुल जन्म ।' कवि० ७.३३ भले : भल+ब० । निसान नभ बाजे भले ।' मा० १.१०२ छ । भलेउ : भले भी, अच्छे भी । 'भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।' मा० १.६.३ भलेरो : वि००कए० (सं० भद्रतरम् >प्रा० भल्लयरं>अ. भल्लयरउ) अत्यन्त ... शुभ । 'ह्व है...'तुलसी को भलेरो।' विन० २७२.५ मलेहि : (१) भले ही, चाहे (संभवतः), अन्य की अपेक्षा में । 'सादर भलेहि मिली एक माता।' मा० १.६४.२ (२) अच्छा, जो आज्ञा, तथास्तु । 'भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा ।' मा० १.१६०.१ भलेहि : (१) भले को । 'भलेहि मंद मंदेहि भल करहू ।' मा० १.१३७.२ (२) भले के लिए । 'जगु भल भलेहि ।' मा० २.२१७७ भल : भले ही । 'एक बात भले भली।' विन० २५१.४ भलो : भल+कए । उत्तम (व्यक्ति)। 'भलो भलाइहि पं लहइ ।' मा० १.५ (२) शुभ । 'भलो भयो।' कृ० ३६ भलोइ, ई : भला ही, अच्छा ही। भलोई कियो।' कवि० ७.१५६ भवर : (१) सं०० (सं० भ्रमर>प्रा० भमर>अ० भवर)। भौंरा । किहेसि __ भवर कर हरवा ।' बर० ३२ (२) (सं० भ्रामर) आवर्त, प्रवाहचक्र । 'भवर तरंग मनोहरताई ।' मा० १.४०.८ भवरु : भवर+कए० । भौंरा । 'देखि राम मनु भव॑रु न भूला।' मा० २.५३.४ भव : सं०० (सं.)। (१) सृष्टि, संसार । 'समन सकल भवरुज परिवारू ।' मा० १.१.२ (२) उत्पत्ति । 'भव भव बिभव पराभव कारिनि ।' मा० १.२३५.८ (३) शिव, महादेव । भव अंग भूति मसान की।' मा० १.१० छं. For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 799 (४) (समासान्त में) वि० । उत्पन्न, जनित । 'ईस-अंस-भव परम कृपाला।' मा० १.२८.८ भवंत : सर्वनाम पु० (सं० भवत् >प्रा० भवंत)। आप, श्रीमान् । मा० ७.१४ छं० भवकूपा : संसाररूपी कुआ। मा० १.१६२ छं० भवचापा : भव =शिव का चाप धनुष । मा० १.२५४.६ भवचापू : भवचाप+कए । एक शिव धनुष । 'भंजेउ राम आपु भवचापू ।' मा० १.२४.६ भवजाल : संसाररूपी जाल । विन० ७४.४ भवत : (सं० भवत:) आप को। 'भूतभव भवत पिसाच भूत प्रेत प्रिय ।' कवि० ७.१६८ भवतव्यता : सं०स्त्री० (सं० भवितव्यता) । भावी, होनहार, दैवी विधान । मा० १.१५६ ख भवतरु : संसाररूपी वृक्ष । 'भवतरु टर न टार्यो ।' विन० २०२.२ भवतारक : संसार से पार ले जाने वाला । विन० १४५.६ भवतु : आ०-कामना-प्रए० (सं.)। हो, होवे । 'भवतु में राम विश्राममेकं ।' विन० ५७.८ भवत्रास : भवमय ! विन० ६३.६ भवदंग : (सं०-भवत+अङ्ग) आपका अङ्ग-ईश्वर देह । 'भुवन भवदंग, कामारिवंदित ।' विन० ५४.३ (रामानुज, रामनन्द दर्शनों के अनुसार चित् = आत्मतत्त्व तथा अचित् = अनात्म जड़ तत्त्व दोनों परमेश्वर का अंश एवं शरीर भवदंघ्रि : (भवत् +अंघ्रि) आपके चरण । मा० ७.१४ छं० ५ भवदंशसंभव : आपके अंश से उत्पन्न (दे० भवदंग)। बिस्व भवदंशसंभव पुरारी।' _ विन० १०.६ भव-धनु : शिवजी का धनुष । विन० १००.५ भवन : सं०० (सं०) । घर, आगार, आवास । मा० १.१०.२ भवननि : भवन+संब० । भवनों। 'भवननि पर सोभा अति पावत ।' मा० ७२८.५ भवनिधि : भवसागर, संसाररूपी समुद्र । मा० ६.६६.३ भवनिसा : संसाररूपी रात्रि । विन० १०५.१ भवनी : घरनी। पत्नी । 'पुलकि तनु कहति मुदित मुनिभवनी।' गी० १.५८.२ भवनु : भवन+कए । वह एक घर । 'भवन ढहावा ।' मा० ६.४४.३ भवपास : (सं० भव-पाश) संसार जाल, जन्म-मरण-बन्धन । विन० ४६.६ For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 800 तुलसी शब्द-कोश भवपीर : संसार के क्लेश। विन० ६३.५. भव-बंधन : भवपास । विन० १६६.३ भव-बासना : संसार की वासना; जन्म-मरण देने वाली कर्मफलों की भावना, सांसारिक विषयों का आकार लेने वाली चित्तवृत्ति । विन० ४७.३ भवबेगारि : (दे० बेगारि) । बेगार के समान निष्फल संसार। 'नाहिं त भव-बेगारि मह परिहै ।' विन० १८६.१ भवभंग : संसार का खण्डन । ‘सैलसृग भवभंग हेतु ।' विन० २४.२ भवमक्त : शिवजी के भक्त । विन० ५६.२ भवभय : संसार का भय, जन्म-मरण आदि क्लेशों का त्रास । मा० १.२४.६ भवभाजन : संसार का पात्र, आवागमन का अधिकारी । 'तातें भवभाजन भयो।" विन० १६०.१ भवमाननी : संसार (आवागमन) को मिटाने वाली । गी० ७.५.४ भवभामा : शिव-पत्नी पार्वती । मा० १.१००.७ भवमामिनी : भवभामा । विन० १८.५ भवभार : संसार रूपी भार+संसार का भार । विन० १७.२ भवभावते : शिवजी के इष्टदेव । 'सुनियत भवभावते राम हैं।' गी० १.८०.३ भवभीर : भवभय । कवि० ७.४६ भवभूषनु : वि.पु.कए । विश्व का एकमात्र अलंकरण, प्रसिद्ध । 'पूषन सो भव भूषनु भो।' कवि० ७.४२ भवभेद : सांसारिक भेदभाव, मायाजनित द्वैत (जो एक तत्त्व से निर्मित पदार्थों का अलगाव तथा ब्रह्म से उसकी पथकता भासित कराता है)। उपादान तत्त्व से कार्य (संसार) तत्त्व को पृथक् भासित कराने वाला द्वैत । विन० ६४.१ भवमग : संसार का मार्ग, आवागमन रूपी कर्मफलों का मार्ग । 'भवमग अनन्त है।' विन० १५१.७ भवमोचन : संसार से मुक्त करने वाला। मा० १.२११ छं० १५ भवरोग : संसार रूपी रोग, जन्म-मरण चक्र की व्याधि । विन० ८१.५ भवबंध : (सं०) शिवजी के पूज्य (प्रणम्य, आराध्य) । विन० ५६.२ भवसरिता : संसार रूपी नदी । विन० १८५.५ भवसागर : संसार रूपी समुद्र; अपरिमेय आवागमन चक्र । मा० ४.२६.३ भवसिंधु : भवसागर । मा० १.२५ ४ भवसंभव : संसार से उत्पन्न । 'मिटहिं सकल भवसंभव खेदा ।' मा० ४.२३.५ भवसूल : (दे० सूल)। सांसारिक क्लेश । विन० १३६.१ For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 801 भवहि : भव=शिव को । 'भवहि समरपी जानि भवानी ।' मा० १.१०१.२ भवाई : पूकृ० (सं० भ्रामयित्वा>प्रा. भमाविअ>अ० भावि) । भवा कर, धुमा कर । 'गहि पद पटके उ धरनि भवाई ।' मा० ६.१८.५ भवान् : सर्वनाम (सं०) भवंत । आप। मा० ५ श्लोक २ भवानि : भवानी । मा० १.१०० भवानिये : भवानी ही। कवि० ७.१६८ भवानी : सं०स्त्री० (सं० भवस्य की पत्नी भवानी)। शिव-पत्नी शिव की आदि शक्ति । 'भवहि समरणीं जानि भवानी।' मा० १.१०१.२ भवानीनाथ, पति : पार्वती के पति = शङ कर। कवि० ७.१६६ ; मा० ७.१०८ छं०१० भवांबुनाथ : (भव =संसार)+ (अंबुनाथ =सागर) = भवसागर । मा० ३.४.३ भवार्णव : (भव ==संसार)+(अर्णव =सागर)=भवसागर । मा० ३.४ छं० भवेस : (सं० भवेश-भव =संसार) । जगदीश्वर, विश्वेश । कवि० ७.१५२ भसम : भस्म । रा०प्र० ३.१.६ भस्म : सं०० (सं० भस्मन्) । राख । विन० १०.२ महराने : भूकृपुं०ब० । ध्वस्त हो गए, बिखर गये । 'भहराने भट पर्यो प्रबल परावनो ।' कवि० ५.८ भांग : सं०स्त्री० (सं० भङ्गा)। एक नसीली पत्तो, उसका झाड़ । जो सुमिरत ___भयो भांग तें तुलसी तुलसीदासु । मा० १.२६ भांट : भाट । दो० ४२२ भांड़ : सं०० (सं० भण्ड) । स्वांग भरने वाला, विविध रूप भरकर नकल उतारने वाला पुरुष । 'भांड़ भयो तजि गेह ।' दो० ६३ भांडि : पूर्व० । ढहा (कर), ध्वस्त कर । 'सहित समाज गढ़, राँड़ कैसो भांडि गो।' कवि. ६.२४ मांड : भांड़+कए । 'राम बिमुख कलिकाल को भयो न भाँड़ ।' बर० ६६ मांडे : सं०पुब० (सं० भाण्ड) । पात्र, बर्तन (आधार) । 'कपट कलेवर कलिमल __भांड़े ।' मा० १.१२.२ भांति : सं०स्त्री० । रीति, प्रकार, शैली, विधि । 'सो कुल भली भांति हम पावा।' ___मा० १.१०६.४ भांतिन, न्ह : भांति+संब० । भांतियों, प्रकारों (की) । 'पठई भेट बिदेह बहुत बहु भांतिन्ह ।' जा०म० १२६ भाँतिहिं : भांतियों में, से । 'संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।' मा० १.१०१ छं० भांती : भौति । मा० १.२८.३ भावरि : भारि । पा०म० १३१ For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 802 तुलसी शब्द-कोश मांवरी : भावरी । जा०म०छं० १८ मांवरी : भावरी। गी० १.१०५.३ मा : (१) भूकृ.पुं० (सं० भूत>प्रा० भविअ) । हुआ। 'मन भा संदेहू ।' मा० १.६८.५ (२) सं०स्त्री० (सं.)। प्रभा, आभा, क्रान्ति । 'दसानन आनन भा न निहारो।' हनु० १६ भाइ : भाई । मा० १.२१८ माइन, न्ह : भाइ+संब० । भाइयों। 'भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।' मा० ७.१६.६ भाइहि : (१) भाई में, प्रति । 'भाइहि भाइहि परम समीती ।' मा० १.१५३.७ (२) भाई को । 'भाइहि सौंपि मातु सेवकाई ।' मा० २.१९८.४ ।। भाइहु : भाई+संबोधन (अ० भाईहो) । हे भाइयो । 'भाइहु लावहु धोख जनि।' मा० २.१६१ भाइहै : आ०भ०प्रए० (सं० भास्यति>प्रा० भाइहिइ)। रुचेगा, भाएगा। 'दूत बचन मन भाइहै।' गी० ५.३४.३ भाई : (१) भाई+ब० । भाइयों ने । 'मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुं भाई ।' मा० १.२८६.६ (२) भूकृ०स्त्री० (सं० भ्रामिता>प्रा० भामिआ) । घुमा कर बनाई, सान पर चढ़ाई, खरादी हुई । 'गढ़ि गुढ़ि छोलि छालि कुंद की सी भाई बातें ।' कवि० ७.६३ भाई : (१) सं०० (सं० भ्रातृक>प्रा० भाइअ) । सहोदर, बन्धु । मा० १.४६.७ (२) मित्र । 'जग बहु नर सर सरि सम भाई ।' मा० १.८.१३ (३) भूक०स्त्री० (सं० भाता>प्रा० भाया=भाई) अच्छी लगी, रुची । 'प्रस्न उमा के. सिव मन भाई ।' मा० १.१११.६ । भाउ, ऊ : भाव+कए० (अ०)। 'जानि ईस सम भाउ न दूजा।' मा० १.३२१.१ ____ 'एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ ।' मा० १.२४२.८ भाएँ : भाव से, समझ से । 'नहिं भलि बात हमारे भाएँ ।' मा० १.६२.८ भाए : (१) भूक०० ब० (सं० भात>प्रा० भाइय) । अच्छे लगे, रुचिकर हुए । संभुबचन मुनिमन नहिं भाए।' मा० १.१२८.२ (२) अभीष्ट । 'मन के भए भाए ।' गी० १.६.५ भाखे : आ०ए० (सं० भक्षयति>प्रा० भक्खइ) । खाती है । 'सो माया प्रभु सन भय भाखे ।' मा० १.२००.४ (भय भाखे =डर खाती है डरती है)। माखे : भाषे (सं० भाषते>प्रा० भासइ) । कहता है । 'आगेहू भी बेद भाख ।' विन० ७६.१ भाग : (१) सं०० (सं.)। अंश, प्राप्य । 'जे पावत मख भाग ।' मा० १.६० (२) अङ्ग, पार्श्व, ओर । 'बाम भाग आसनु हर दीन्हा ।' मा० १.१०७.३ For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 803 (३) (सं० भाग्य>प्रा. भग्ग) देव, नियति, अदृष्ट, प्रारब्ध कर्मफल । 'भाग छोट अभिलाष बड़ ।' मा० १.८ (४) भूक०वि०पु० (सं० भग्न>प्रा० भग्ग)। पलायित हुआ, भाग खड़ा हुआ । 'सूख हाड़ लै भाग सठ।' मा० १.१२५ (५) दे०/भाग। /भाग, मागइ : आ.प्रए० (सं० भग्नो भवति>प्रा० भग्गइ)। भागता है, दूर जाता है । 'तेहि बिन मोह न भाग ।' दो० १३२ 'सेवत साधु द्वैत भय भाग ।' विन० १३६.११ मागत : वकृ००। पलायन करता-करते । 'भागत भट पटकहिं धरि धरनी।' मा० ६.४७७ भागन : भक० अव्यय । भागने, पलायित होने । 'भय आतुर कपि भागन लागे।' मा० ६.४३.१ मागभाजन : (दे० भाग) भाग्यपात्र, सौभाग्यशाली । 'भूरि भागभाजन भयहु ।' मा० २.७४ माहि, हीं : आ०प्रब० । पलायन करते हैं । दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं।' मा० ६.८२ छं० मागा : (१) भाग । अंश । 'कतहुं न दीख संभ कर भागा।' मा० १.६३.४ (२) भाग । पलायित । 'प्रगटत दुरत जात मृग भागा ।' मा० १.१५७.४ भागि : (१) पूक० । भाग कर, पलायन करके । 'भागि पैठ गिरि गुहाँ गभीरा।' मा० १.१५७.६ (२) आo-आज्ञा-मए । तू भाग । 'अभागे भोंड़े भागि रे।' कवि० ५.६ भागिनि, नी : वि०स्त्री० । भाग्यवती, भाग्यशालिनी । गी० २.२२.२ भागिहैं : आ०भ०प्रब० । पलायन कर जायेंगे। भभरि भागिहैं भाग ।' दो० ७० भागिहै : आ०म०प्रए । भाग खड़ा होगा । 'सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै।' विन० ७०.२ भागी : (१) भागि । पलायन करके । 'चले लोग सब ब्याकुल भागी।' मा० २.८४.४ (२) वि.पु. (सं० भागिन) । प्राप्यांश का अधिकारी पात्र । 'कलिमल रहित सुमंगल भागी।' मा० १.१५.११ (३) भाग्यशाली। 'कोने बड़े भागी के सुकृत परिपाके हैं ।' गी० १.६४.१ (४) (समासान्त में) वि०स्त्री० । भाग्य वाली । 'मानहुं मोहि जानि हत भागी (सं० हत भाग्या)।' मा० ५.१२.६ (५) भूकृ०स्त्री० । पलायन कर गई । 'धीरता भागी।' मा० १.३३८.५ भागीरथी : सं०स्त्री० (सं.)। राजा भगीरथ की पुत्रीगङ्गा जी। कवि० ७.१४७ For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 804 तुलसी शब्द-कोश भागु, गू : भाग+कए। (१) अंश, प्राप्य । 'जिमि ससु चहै भाग अरि भाग ।" मा० १.२६७.१ (२) भाग्य । 'खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु ।' मा० २.२२३ (३) प्राप्यांश+भाग्य । देइ अभागहि भागु को।' विन० १६१.७ (४) जन्मपत्र में भाग्य का स्वामी ग्रह (नवमेश) । 'भागु भाग तजि भाल थल ।' रा०प्र० ७.५.५ भागें : भागने से । 'भागें भल, ओड़ेहं भलो।' दो० ४२४! भागे : भूकृ००ब० । पलायित हुए । 'बाहन सब भागे।' मा० १.६५.४ भागेउ : भू.पु.कए० । पलायित हुआ । 'भागेउ बिबेकु ।' मा० १.८४ छं० भाग : भागइ । भाग सकता है । 'हे हरि कवन जतन भ्रम भाग ।' विन० ११९.१ भागो : भाग्यो । 'भागु भागो लोभ लोल को।' कवि० ७.१५ ।। भागौं : आ० उए । पलायन करूं। 'भागो तुरत तजौं यह सैला।' मा० ४.१.५ भाग्य : सं०० (सं.)। प्रारब्ध कर्म, नियति देव । मा० १.३१३ भाग्यवंत : वि.पु. (सं० भाग्यवत>प्रा० भग्गवंत)। भाग्यशाली । मा० ३.१२.१२ भाग्यो : भागेउ । 'मानो राम रतन लै भाग्यो।' गी० २.१२.३ 'भाज, भाजइ : आ०प्रए० (सं० भाजयति>प्रा० भज्जइ)। भागइ । 'उपमा कहत लजाइ भारती भाजइ।' जा०म० १४१ भाजत : वकृ.पुं० । भागता-ते । 'भाजत रुदन कराहिं ।' मा० ७.७७ क भाजन : (१) सं०० (सं.)। पात्र, बर्तन । मा० २.३१०.१; १.३०५.१ (२) पेटारा आदि । 'मुनि पट भूषन भाजन आनी।' मा० २.७६.२ (३) अधिकारी (व्यक्ति) दे० भाग भाजन । 'भए अजस अध भाजन प्राना।' मा० २.१४४.५ (४) आश्रय, आधार। भाजनु : भाजन+कए । एकमात्र भाजन । 'जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु ।' मा० २.४८.३ माहि, हीं : आ०प्रब० । भागते हैं । मा० ६.६८.७; १.३२४ छं० १ माजि : पू० । भाग कर । 'रन तें निलज भाजि गृह आवा।' मा० ६.८५.७ भाजी : (१) भाजि । 'चलेउ बराह मरुत गति भाजी।' मा० १.१५७.१ (२) भूकृ०स्त्री० । भगी, पलायित हुई। 'सबरी के दिए बिनु भूख न भाजी।' कवि०७.६५ भाजे : भूकृ.ब ० । भागे । 'हांक सुनत रजनीचर भाजे ।' मा० ६.४७.६ भाट, टा : सं०० (सं० भट्ट)। एक स्तुतिपाठक संकर जाति । मा० १.३१६ २१४.१ भात : सं०० (सं० भक्त>प्रा० भत्त) । पका चावल । 'लंक नहिं खात कोरः भात रांध्यो।' कवि० ६.४ For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 805 भाति : आ०प्रए० (सं.)। प्रतीत होता है । मा० १ श्लोक ६ भाथ, था : सं०स्त्री० (सं० भस्त्रा>प्रा० भत्था)। (१) तूणीर, तरकस । मा० १.२५३ (२) तूणीर के साथ का कमरबन्द । 'कटि पट पीत कसे बर भाया ।' मा०१.२०८.१ माथों : भाथी+ब० । तरकसें । 'भाथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं ।' मा० २.१६१.४ भाथी : भाथ । मा० २.६०.४ भादव, भादो, दो : सं०पु० (सं० भाद्रपद>प्रा० भद्दवअ) । वर्षा ऋतु का दूसरा महीना। मा० १.१६; कृ० २६ भान : भान । गी० २.४४.२ मानन : भंजन । 'खल दल बल भानन ।' हनु० २ माननी : भंजनि । गी० ७.५.४ मानस : सं०० (सं० महानस, माहानस) । सूपकार, रसोइया । मा० ३.२६.४ मानि : भंजि । तोड़कर । 'रोक्यो परलोक लोग भारी भ्रम भानि के ।' कवि० भानिह : आ०भ०प्रब० । तोड़ेगे । 'राम' संभु सरासन भानिहैं ।' गी० १.८०.६ मानिही : आ०भ०मब० । भङ्ग करोगे। 'सरनागत भय भानिहो ।' विन० २२३.४ मानी : भूकृ०स्त्री० । तोड़ी, नष्ट कर दी। 'सभ के सकति संभु धनु भानी।' मा० १.२६२.६ 'भानु : सं०पू० (सं.)। (१) सूर्य । मा० १.१६.१ (२) किरण । जैसे, हिमभानु । 'भानुकुल भानु को प्रताप भानु-भानु सो।' कवि० ५.२८ (३) सूर्यवत् प्रतापशाली । 'भानुकुल भानु ।' भानुकर : सूर्य-किरण । मा० १.११७ भानुकुल : सूर्यवंश जिसमें राम का जन्म हुआ। मा० २.४१.५ भानुकूलकेतु : सूर्यवंश में पताका के समान सर्वोपरि । कवि० ६.३ भानुजान : सूर्य का रथ (दे० जान) । मा० १.२६६.४ भानुप्रताप, पा : एक राजा का नाम । मा० १.१७१.७; १.१६६.३ मानुबंस : भानुकुल । मा० २.२५५.५ भानुमंडल : सूर्य-बिम्ब । गी० ७.१७.३ भानुमंत : सं०+वि०पु० (सं० भानुमत् >प्रा० भाणुमंत)। (१) सूर्य । 'भूरि भूषन भानुमंत ।' विन० ५६.२ (२) किरणों (भानु) से सम्पन्न, प्रकाशपूर्ण । कवि० ७.१५२ भानू : भानु । मा० २.४१.५ For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 806 तुलसी शब्द-कोश मान्यो : भूकृ०पु०कए० । तोड़ डाला । 'बिधातां बड़ो पछु आजुहि भान्यो ।' गी० ३.१३.२ माबी: सं०+ वि० (सं० भाविन्) । (१) होनहार, देव, फिरी अहइ जसि भाबी ।' मा० २.१७.२ (२) आगामी न भावी ।' कृ० १६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " अदृष्ट । ' तसि मति भविष्यत् । 'न भयो भाभी : सं० स्त्री० (सं० भ्रतृ देवी ) । भ्रातृपत्नी, अग्रज की पत्नी । कवि० ५.६ मामा : (१) सं० स्त्री० (सं० ) । भामिनी, स्त्री ( कोपना स्त्री) । ( २ ) पत्नी 'भवभामा' – शिवपत्नी । मा० १.१००.७ भामिनि, नी : सं० स्त्री० (सं० भामिनी) । (१) कोपशीला स्त्री । 'समुझि धौं जिय भामिनी ।' मा० २.५० छं० (२) पत्नी । 'प्रात बरात चलिहि सुनि भूपतिभामिनि ।' जा०मं० १६२ ( ३ ) स्त्री । 'सब बिधि भामिनि भवन भलाई । " मा० २.६१.४ मामिनीं : भामिनी + ब० । स्त्रियाँ | 'चलि ल्याइ सीतहि भामिनीं ।' मा० १.३२२ छं० भामो : भामा भी स्त्री भी । 'भइ सुकृतसील भील भामो ।' विन० २२८. ३ ( भील भामो = भील स्त्री भी = शबरी भी ) । मायें : भाव से । 'रामहि चितव भायें जेहि सीया ।' मा० १.२४२.६ माय : (१) भाव । रुचि आदि । ' पागि पागि ढेरी कीन्ही भली भाँति भाय सों । कवि ० ० ५.२४ (२) भाइ । भाई । (३) भाया, अच्छा लगा (सं० भात > प्राo भाय) | दे० भायउँ । माउँ : आ० - भूकृ०पु० + उए० । मैं अच्छा लगा, रुचा । 'देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ।' मा० ६.६४.६ For Private and Personal Use Only भाउ, ऊ : भूकु०पु०कए० । भाया, रुचा (सं० भातम् > प्रा० भायं > अ० भाउ) । ' श्री रघुपतिहि यह मत भायऊ ।' मा० ५.६० छं० मायप : सं० (सं० भ्रातृत्व > अ० भायप्पण ) । भ्रातृभाव (भाई चारा ) । 'भा भलि चहुं बंधु की ।' मा० १.४२ भाप - भगति : भ्रातृत्वभक्ति (जिसे गोस्वामी जी ने सख्यभक्ति से पृथक् महत्त्व दिया है - भरत आदि आश्रय में रामविषयक भ्रातृत्वरति स्थायी भाव है जिसकी भक्तिरस में निष्पत्ति होती है) । 'भायप - भगति भरत आचरनू ।' मा० २.२२३.१ भाये : भाए । अभीष्ट ( यथारुचि ) । ' किये मूढ मन भाये ।' विन० २० १.३ भायो : भायउ | (१) अच्छा लगा, रुचा । रघुपति भक्त जानि मन भायो ।' मा०६. ६४.४ (२) भाया हुआ, मनचाहा । 'भूरि भाग भयो भायो ।' गी० ५.१.४ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 807 भार : सं०० (सं.)। (१) गुरुता, भारीपन । 'बिस्वभार भर अचल छमासी।' मा० १.३१.१० (२) संकट, क्लेशसमूह । 'हरि भंजन भुबिभार ।' मा० १.१३६ (३) अति मात्रा, प्रचुरता । 'भूस सरीर दुख भार ।' मा० २.१६३ (४) बंधा हुआ बोझ । 'चंदन अगर भार बहु आए ।' मा० २.१७०.६ (५) ढोया जाने वाला बोझ (लदान) । 'कांवरि भार।' मा० २.२७८ भारत : सं०० (सं०) । (१) भारतवर्ष, भरतखण्ड । 'भलि भारत भूमि ।' कवि० ७.३३ (२) महाभारत-ग्रन्थ । 'रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति ।' दो० ५४६ (३) महाभारत संग्राम । 'भारत में पारथ के रथकेतु हनुमान ।' हनु० ५ भारति : भारती। कवि० १.७ भारती : सं०स्त्री० (सं०) । सरस्वती । मा० १.३४५.६ भारन : भार+सब० । भारों, लदावों (से) । 'फल भारन नमि बिटप सब ।' मा० ३.४० भारा : (१) भार । तेहि अवसर भंजन महि भारा।' मा० १.४८.७ (२) वि.पु. (सं० भारित>प्रा० भारिअ) । भारयुक्त, बोझिल । नितनव सोचु सती उर भारा।' मा० १.५९.१ भारि : (१) भारी। भारयुक्त, अधिक । 'बझत छेम-भरोसो भारि के ।' गी० ५.३६.३ (२) पू० । भार डाल कर । 'मन फेरियत कुतर्क कोटि करि कुबल भरोसे भारि ।' क० २७ भारिये : (१) भारी ही, बड़ा ही । 'भरोसो तेरो भारिये ।' हनु० २३ (२) बहुत ही । 'देव दुखी देखिअत भारिये।' हनु० २४ भारी : वि.पुं० (सं० भारिन्) । बोझिल, अतिशय, अधिक । 'हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।' मा० १.१०८.४ । भारु, रू : भार+कए । (१) बोझ (क्लेशदायक) । 'भोग रोग सम भूषन भारू ।' मा० २.६५.५ (२) भारी, अतिशय । 'गुहहि भयउ दुखु भारु।' मा० २.८८ भारे : वि०पू०ब० (सं० भारित>प्रा० भारिय)। भारी, बड़े, विशाल। 'मारग ___ अगम भूमिधर भारे ।' मा० २.६२.६ भारो : भारा+कए० । भारी, अधिक । 'सबै सहमे सुनि साहसु भारो।' कवि० भार्गव : सं०० (सं.)। भृगुवंशी परशुराम । विन० ५०.४ भाल : सं०० (सं०) । (१) मस्तक । मा० १.१०६ (२) भाग्य (मस्तक रेखा)। 'बिधिहू न लिखी कछु भाल भलाई।' कवि० ७.५७ (३) जन्मपत्र में भाग्य का (नवम) स्थान । 'भाग भागु तजि भालथल ।' रा०प्र० ७.५.५ भालहीं : मस्तक पर । 'चंद्रिका जन चंद्रभूषन भालहीं ।' पा०म०/०१ For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 808 तुलसी शब्द-कोश भाला : भाल । मस्तक, भाग्य । मा० ६.२६.१ भालु : सं०० (सं०) रीछ । मा० १.२५.३ भालनाथ : ऋक्षराज जाम्बवान् । गी० ५.१.२ भालुपति : भालुनाथ । मा० ६.६७ भालू : भालु (सं० भल्लूक>प्रा० भल्लू अ)। रीछ। मा० ६.८१.७ भाले : (सं०) मस्तक पर । मा० २ श्लो० १ भावती : (१) वकृ०स्त्री० (सं० भावयन्ती>प्रा० भावंती)। भावमग्न करती हुई। (२) (सं० भ्रामयन्ती>प्रा० भामंती>अ. भावंती)। घुमा देने वाली। (३) (सं० भामती-भा=किरण>प्रा० भामंती>अ० भावंती)। कान्तियुक्त, रुचिपूर्ण । 'चितवनि ललित भावती जीकी ।' मा० १.१४७.३ भारि, री : सं०स्त्री० (सं० भ्रामरी>प्रा० भामरी>अ. भावेरि, भावरी)। प्रदक्षिणा (विशेषतः विवाह में वर-वधू की प्रदक्षिणा)। 'कुवर कुर्वरि कल भावरि देहीं।' मा० १.३२४.१ भावरी : भावरी+ब०। भावरें, परिक्रमाएँ। 'होन लागी भारी।' मा० १.३२४ छं०४ भाव : सं०० (सं०)। (१) मनोवृत्ति, चित्त व्यापार, चित्तस्तर (जाग्रत्, स्वप्न, सुषप्ति दशाएं)। 'सर्व भाव भज कपट तजि ।' मा० ७.८७ क (२) प्रेम भक्ति । 'भजामि भाव-बल्लभं । मा० ३.४.१६ (३) समर्पण, अनन्य निष्ठा, दढ संकल्प । 'भाव सहित खोजइ जो प्रानी ।' मा० ७.१२०.१५ (४) तन्मयता, तदाकारता । 'भाव भगति आनंद अघाने।' मा० २.१०८.१ (५) सम्बन्ध, सम्बन्धनिष्ठा, सम्बन्धात्मक भक्तिभावना । 'सेवक-सेव्य भाव बिन भव न तरिअ उरगारि ।' मा० ७.११६ क (६) भावना, धारणा । 'बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ।' मा० ६.४५.४ (७) अनुकृत पदार्थ, नाट्य-काव्यानुकृति । 'जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ। सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ।' मा० ७.७२ ख (८) भावइ । रुचता है । 'भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।' मा० ५.४४.३ (8) काव्यरस के स्थायी, संचारी तथा सात्त्विक भाव । 'भाव भेद रस भेद अपारा ।' मा० १.६.१० । 'भाव, भावइ, ई : (१) आ०प्रए० (सं० भाति>प्रा० भाअइ)। रुचता-ती है। 'दंभिहि नीति कि भावई ।' मा० ७.१०५ ख (२) (सं० भावयति>प्रा० भावइ)। भावमग्न करता-करती है। 'नृपति मन भावइ हो।' रा०न० ५ (३) भावना में आता है । 'भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।' मा० १.१३७.१ भावगम्य : अनन्य निष्ठा (भक्ति) से प्राप्य, स्वानुभूति मात्र से साध्य । 'भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ।' मा० ७.१०८.१० For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 809 मावत : वकृ.पु० (सं० भावयत्>प्रा० भावंत)। (१) भावविभोर करता-करते। 'एतेहुं पर भावत तुलसी प्रभु ।' कृ० २६ (२) रुचिकर, अभीष्ट । 'मन भावत बर मागउँ स्वामी ।' मा० ७.८४.८ भावति, ती : वक०स्त्री० । (१) रुचती, तन्मय करती । 'भावति हृदय जाति नहिं बरनी।' मा० १.२४३.३ (२) रुचिकर। अभीष्ट । 'मन भावती असीसें पाईं।' मा० १.३०८.६ (३) इष्ट (देवी)। 'सिय भावती भवानि हैं।' गी० १.८०.३ मावते : भावत+ब०। (१) तन्मय करते । 'नख सिख सुभग भावते जी के ।' मा० २.११५.६ (२) भावानुकल, प्रिय । 'भैया भरत भावते के संग।' गी० २.६६.४ भावतो : भावत+कए० । चाहा हुआ, भावानुकूल । 'सब को भावतो ह्र है।' कवि० १.१२ भावन : वि.पु. (सं०) । भावमग्नकारी, भावित करने वाला। 'रामचरितमानस मुनि भावन।' मा० १.३५.६ भावना : सं०स्त्री० (सं०) भाव । मनोदशा, चित्तवृत्ति, धारणा, निष्ठा । 'जिन्ह के रही भावना जैसी।' मा० १.२४१.४ भावनातीत : वि० (सं.)। भावनाओं से परे, चित्तवृत्तियों द्वारा अगम्य, अतीन्द्रिय (चित्तवृत्ति निरोध से ही साध्य) । विन० ५६.२ भावनी : वि.स्त्री० । भावमग्न करने वाली । 'मुनि मन भावनी।' गी० ७.१६१ भावनो : भावन+कए । कीन्ह बिधि मन भावनो।' पा०म०/०६ मावप्रिय : वि० (सं.)। जिसे भाव (अनन्य प्रेम) प्रिय हो। 'जान सिरोमनि भावप्रिय ।' मा० १.३३६ भावबल्लभ : भावप्रिय । कवि० ७.१५२ भावसिद्ध : वि० (सं.)। स्वभावसिद्ध, स्वाभाविक । कवि० ७.१४० मावहिं : आ०प्रब० (सं० भावयन्ति>प्रा० भावंति>अ० भावहिं)। भावमग्न __ करते हैं, रुचते हैं । 'मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं ।' मा० १.३११.८ भावहि : आ०मए० (सं० भावयसि>प्रा० भावसि>अ० भावहि)। भावना करता है, रुचि लेता है । 'काम कथा सुनत श्रवन दै भावहि ।' विन० २३७.३ भावा : (१) भावइ । रुचता है, रुचे । 'करहु जाइ जाकहुं जोइ भावा ।' मा० १.२४६.६ (२) रुचती है । 'चोरहि चंदिनि राति न भावा ।' मा० २.११.७ (३) भूकृ०० । रुचा । 'मातु पितहि पुनि यह मत भावा ।' मा० १.७३.२ भाविउ : भावी भी, होनहार भी। 'भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी।' मा० १.७०.५ भावी : भाबी । मा० १.५६.६ भाव : (१) भावइ । भाता है, रुचता है, तृप्त करता है ! 'दीन दयाल दिबोई भाव ।' विन० ४.१ (२) रुचे, भावमग्न करे । 'तुलसिदास सो भजन बहाओ जाहि दूसरो भावै ।' कृ० ३३ For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 810 तुलसी शब्द-कोश भावौं : आउए। रुच सकू', भावमग्न करूं, प्रभावित करूं। 'केहि भांति नाथ ____ मन भावौं ।' विन० १४२.१ ।। भाषत : वकृ.पु । कहता। वैरा० ११ भाषउँ : आ० उए० (सं० भाषे>प्रा० भासामि>अ० भासउँ)। कहता हूं। 'संत ___ मत भाषउँ।' मा० ७.११६.१ भाषा : भाषा में (बोली में), लोकवाणी में । भाषां जिन्ह हरि चरित बखाने ।' मा० १.१४.५ भाषा : सं०स्त्री० (सं.)। (१) उक्ति, कथन, बात । 'होइ न मृषा देवरिषि भाषा।' मा० १.६८.४ (२) लोकभाषा, बोली, ग्राम जनवाणी। 'भाषा भनिति भोरि मति मोरी।' मा० १.६.४ (३) भूकृ०० । कहा । 'भजन प्रभाउ भांति बहु भाषा।' मा० १.१३.२ भाषानिबन्ध : लोकवाणी में रचित प्रबन्धकाव्य । मा० १ श्लो०७ भाषा-बद्ध : वि० (सं.) । लोकवाणी में विरचित (प्रबन्धीकृत)। 'भाषाबद्ध करबि __ मैं सोई ।' मा० १.३१.२ ।। भाषि : पूकृ० । कह कर । 'चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ।' मा० ६.११८ क भाषिहै : आ०भ०प्रए । कहेगा । 'जनु भाषिहै दूसरे दीनन पाहीं।' कवि० ७.६४ भाषी: (१) भाषि । कह कर, वर्णन कर। 'बिरिदावलि भाषी-फिरे सकल ।' मा० १.३४०.३ (२) शर्त लगा कर, पण करके । 'चला प्रभंजन सुत बल भाषी।' मा० ६.५६.१ (३) भूक०स्त्री० । कही। 'बिनय बहु भाषी।' मा० २.२१६.२ (४) (समासान्त में) । वि००। कहने वाला । 'कोशला कुशल कल्याण भाषी।' विन० २७.४ मा : कहने से । 'सब कर हित फुट भाष।' मा० २.२५८.३ भाषे : भूकृ००ब० । कहे, वणित किये। 'कामचरित नारद सब भाषे ।' मा० १.१२८.७ भाषेउँ : आ०-भक००+ उए। मैंने कहा। 'नाथ जथामति भाषेउँ। मा० ७.१२३ ख भाषेउ : भूक००कए । कहा । 'सत्य सब भाषेउ।' पा०म० ६४ भाषौं : भाषउँ । कहूं, कहता होऊँ । 'जौं अनीति कछु भाषौं भाई ।' मा० ७.४३.६ भाष्यौ : भाषेउ । बताया, कहा । 'भजन प्रभाउ बिभीषन भाष्यो।' गी० ५.४६.४ 'भास, भासइ : आ०प्रए० (सं० भासते>प्रा० भासइ)। आभासित होता है, अयथार्थ प्रतीत होता है । 'रजत सीप महुं भास जिमि ।' मा० १.११७ मासा : भूकृ०० (सं० भासित>प्रा० भासिअ)। प्रतीत हुआ। 'जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा।' मा० १.२४२.४ । मासै : भासइ । 'जद्यपि मृषा सत्य भास ।' विन० १२०.१ For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 811 भास्कर : सं०० (सं.)। सूर्य । मा० ३ श्लो० १ मिडिपाल : सं०० (सं० भिन्दिपाल)। एक प्रकार का छोटा भाला जो फेंक कर मारा जाता है । मा० ६.४०.७ भिखारि, री : वि.पु.० (सं० भिक्षाकारिन् >प्रा. भिक्खारि, री)। भिक्षुक, भिक्षाटन करने वाला । मा० १.१६०; ३.१७.१५ मिजई : भूक०स्त्री० । भिगोयी, सींच दी । 'करुना बारि भूमि भिजई है।' विन० १३६.१० मितहौं : आ०-भ० उए । भीत होऊंगा, डरूंगा। "प मैं न भितहौं ।' कवि० ७.१०२ भितही : आ० भ०मब० । भीत होओगे, डरोगे। 'जो लघुतहि न भितहो।' विन० २७०.२ भिनुसार, रा : सं०० (सं० भिन्नोषःकाल>प्रा० भिन्नुसाल ?)। प्रभात की ___ लाली फूटने का समय, सबेरा । मा० २.२१५; २.३७.५ भिन्न : भूकृ०वि० (सं.)। (१) अलग, पृथक्, विविक्त । 'कहिअत भिन्न न भिन्न ।' मा० १.१८ (२) काटकर अलग । 'धर तें भिन्न तासु सिर कीन्हा ।' मा० ६.७१.४ (३) विविध । 'भिन्न भिन्न अस्तुति ।' मा० ७.१२ ख (४) अन्य, अन्य प्रकार का। 'लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता ।' मा० ७.८१.१ भिन्नमभिन्न : (सं० भिन्नम् +अभिन्न) । पृथक् तथा अपृथक् । पृथक् भासित होकर भी एकरूप । 'रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।' मा० ६.११.१६ भिन्नसेतु : वि० (सं०) । मर्यादा रहित (सेतु =मर्यादा, सीमा); आचारसंहिता की सीमा तोड़े हुए; नियमहीन । 'भिन्नसेतु सब लोग ।' मा० ७.१०० क मिया : भैया (अरे मेरे भाई)। 'मो पर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे।' विन० ३३.१ मियो : भूकृ० ०कए० (सं० भीत:>प्रा० भीओ) । डरा हुआ। 'सकुचि सहमि सिसु भारी भय भियो है।' कृ. १६ भिरउँ : आ० उए । भिड़ता हूं, संघर्षरत होता हूं। 'जब जब भिरउँ जाइ बरिआई ।' मा० ६.२५.५ मिरत : वकृ० । भिड़ता-ते, संघर्ष करता-करते । सो अब भिरत काल ज्यों।' मा० ६.६४ मिरहिं : आ०प्रब० । भिड़ते हैं, संघर्ष करते हैं । 'एक एक सन भिरहिं पचारहिं ।' मा० ६.८१.४ मिरिहि : आ०भ०ए० । भिड़ेगा, संघर्ष में ठहरेगा। 'मो सन भिरिहि कौन जोधा बद।' मा० ६.२३.१ For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 812 तुलसी शब्द-कोश मिरे : भूकृ००ब० । भिड़े, गुथ गए। 'भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।' मा० ६.५३.४ भिरेउ : भूकृ०पु०कए० । भिड़ा, गुथ गया। 'पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।' मा० ६.६५.५ भिल्ल : सं०पू० (सं.)। भील, वनवासी जातिविशेष । मा० २.२५०.१ भिल्लनि : भिल्ल+संब० । भिल्लों। 'सुनि कोल-भिल्लनि की गिरा।' मा० . २.२५१ छं० भिल्लिनि, नी : भिल्ल+स्त्री० (सं० भिल्ली)। भील स्त्री। 'भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकर बाजु ।' मा० २.२८ भीजति : भीजति । भी : संस्त्री० (सं.)। भय । 'जो सुमिरत भय भी के।' गी० १.१२.३ भीख : सं०स्त्री० (सं० भिक्षा>प्रा० भिक्खा>अ० भिक्ख) । 'भीख मागि भव खाहिं ।' मा० १.७६ 'भोज, भीजइ : आ.प्रए० (सं० भियते>प्रा० भिज्जइ)। भीगता-ती है। जल आदि से ओत-प्रोत होता-होती है। 'तुलसी त्यों-त्यों होइगी गरुई ज्यों ज्यों कामरि भीजै।' कृ० ४६ भीजति : वकृ०स्त्री० । फूटती, फूट रही (उग रही) । 'उठति बयस मसि भीजति ।' गी० २.३७.२ भीजै : भीजइ । 'तन राम नयन जल भीज।' गी० ३.१५.३ भीत : (१) भूकृ०वि० (सं०) । डरा हुआ (दे० भयभीत) । (२) भीति । दीवाल । गी० ७.२०.२ भीतर : सं०+ क्रि०वि० (सं० अभ्यन्तर>प्रा० अभितर>अ० भित्तर) । अन्दर। मा० १.२१ भीता : भूकृ.स्त्री० (सं०) । डरी हुई । मा० १.१८४.६ भीति : (१) सं०स्त्री० (सं.)। भय । ईति भीति जनु प्रजा दुखारी।' मा० २.२३५.३ (२) (सं० भित्ति) दीवाल । 'चहत बारि पर भीति उठावा।' मा० १.७८.५ भीती : भीत पर, दीवाल पर । 'चारु चित्त भीती लिखि लीन्हीं।' मा० १.२३५.३ भीम : वि.+सं०० (सं.)। (१) भयानक, भीषण । मा० १.३२.३ (२) पाण्डवविशेष । 'पाँचहि मारि न सो सके, सयो सँघारे भीम ।' दो० ४२८ (३) शिवजी । कवि० ७.१५१ भीमता : सं०स्त्री० (सं०) । भयानकता, भीषण कर्म। भीमता निरखि कर नयन ढांके ।' कवि० ६.४५ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश भीमरूप : भयानक आकार-प्रकार वाले । मा० १.१८३.३ भीमा : वि० + सं ० स्त्री० (सं०) । (१) भयदायिनी । (२) दुर्गा जी । 'भीमासि रामासि वामासि ।' विन० १५.३ भीर, रा : (१) सं० स्त्री० ( प्रा० अब्भिड > अ० भिड़ ) । भीड़, अव्यवस्थित समूह, संमदं । 'भूप भीर नट मागध भाटा । मा० १.२१४.१ ( २ ) संकट, भय । 'कौन भीर जो नीरदहि जेहि लागि रटत बिहंग ।' कृ० ५४ (३) वि० (सं० भीर > प्रा० भीइर) । भयशील, डरपोक । 'सील सनेह न छाड़िहि भीरा ।' 1 मा० २.७६.३ भीरु : वि० (सं० ) । भयशील, त्रस्त, भयभीत | जानि जानकी भीरु । मा० १.२७० भील : भिल्ल । कवि० ७.१८ भीलनी : भिल्लिनी । विन० १८३.२ भील भामो : भील जाति की भामा शबरी भी । 'भइ सुकृत-सील भीलभामो ।' विन० २२८.३ भीषणाकार : वि० (सं० ) । भयानक आकृति ( डील - डोल) वाला । विन० ११.१ भीषम : वि० सं०पु० (सं० भीष्म) । (१) भयानक । ( २ ) महाभारत में शान्तनु के पुत्र देवव्रत । कृ० ६० भीष्म : सं०पु० (सं० ) । देवव्रत । विन० २८.३ भुवंग : (१) भुजंग ( प्रा० ) । मा० २.२५ छं० (२) जार, उपपति | भुश्रं गिनि, नी : भुअंग + स्त्री० । सर्पिणी । मा० १.३१.८ भुगू : भुअंग + कए० । सर्प । 'मनहुं दीन मनिहीन भुअंगू ।' मा० २.४०.१ भुअन : भुवन । मा० ७.२२.२ भुआल, ला : सं०पु० (सं० भूपाल > प्रा० भूवाल = भूअल) । १.१६; २.३५.५ 813 भुप्रालु, लू: भुआल + कए० । मा० २.३.१; ३७.१ भुइँ : सं ० स्त्री० (सं० भूमि) । पृथ्वी । मा० २.२३.५ भुक्ति : सं० स्त्री० (सं०) । विषयभोग, लौकिक सुख । विन० १६.१ भुजगेंद्र : भुजगराज (सं० ) । शेषनाग । विन० १३.२ भुजदंड, डा: बाहुदण्ड, पुष्ट बाहु । मा० ६.३२.३; १०३.१० For Private and Personal Use Only भुज : सं०पु० (सं० ) । बाहु | मा० १.८२.५ भुजंग, गा : सं०पु० (सं० भुजंग ) । सर्प | मा० १.११२.१; १.६२.३ भुजग : भुजंग (सं० ) । मा० १.१०६.८ भुजगराज : (१) सर्पराज, शेषनाग । मा० १.१०६.८ (२) शेषावतार लक्ष्मण जी । विन० ३८.१ राजा । मा० Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 814 तुलसी शब्द-कोश भुजनि, न्हि : भुज+संब० । भुजाओं। 'भुजन्हि समेत सीस महि पारे ।' मा० ६.६२.१० भुजबल : बाहुबल (युद्धशक्ति) । मा० १.१३६.६ भुजबलु : भुजबल+कए । एकीभूत बाहुबल । 'नृप भुजबलु बिधु सिवधनु राहू ।' मा० १.२५०.१ भुजबल्ली : (सं भुजवल्ली) । लता के समान (कम्पशील) सुकुमार बाहु । 'चालति __न भुजबल्ली।' मा० १.३२७ छं०३ भुजमूले : (सं० पद) बाहुमूल में । गी० ७.१२.५ भुगाँ : भुजाओं में । 'बीस भुजां दस चाप ।' मा० ६.८१ भुजा : भुज । मा० ६.६८.६ भुबि : भूमि । 'हरि भंजन भुबि भार।' मा० १.१३६ भुलाई : पूर्व० । भूलकर, भटकर । 'फिरत अहेरें परेउँ भुलाई।' मा० १.१५६.६ भुलान, ना : भूक०पु । भ्रान्त, भटका हुआ। 'तव माया बस फिरउँ भुलाना ।' मा० ४.२.६ भुलानि, नी : भूकृ०स्त्री० । भटकी, भ्रान्त हुई। 'भूप बिकल मति मोहँ भुलानी ।' मा० १.१७३.८ भुलाने : भूकृ००ब० । भूले, भ्रान्त हुए, मोह में पड़े। 'लच्छन तासु बिलोकि ___ भुलाने ।' मा० १.१३१.२ भुलाब : भकृ.पु । भूलना, भटकना । 'मिलब हमार भुलाब निज ।' मा० भुलावा : भूकृपु । भटकाया, भ्रान्त किया। 'जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ।' मा० १.१७०.३ भुलाहु : आ०मब० । भूलो, भ्रम में पड़ो । 'जनि आचरज भुलाहु ।' मा० १.३१४ भुव : सं०स्त्री० (सं० ध्रुवी)। भौंहैं । 'नि.संक बंक भुव ।' हनु० १ भुवन : सं०० (सं.)। लोक । (१) स्वर्ग-मर्त्य-पाताल को मिलाकर त्रिभुवन कहे जाते हैं। कृ० ६१ (२) सात ऊर्ध्व-भूः, भुवः, स्वः, महः, जन:, तपः, सत्यम् (अथवा-पंशाच, राक्षस, याक्ष, गान्धर्व, ऐन्द्र, सौम्य, प्राजापत्य, ब्राह्म) तथा सात अधोलोक-तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल रसातल, पाताल मिलाकर चौदह भुवन । 'भुवन चारिदस भूधर भारी।' मा० २.१.२ भुवनकोस : (सं० भुवनकोश) । ब्रह्माण्ड, चौदहों भुवनों का समग्र रूप । विन० २५८.२ भवनाभिराम : (१) सम्पूर्ण लोकों में सर्वाधिक सौन्दर्य सम्पन्न । (२) जिसमें सभी लोक सर्वात्मना रमण करते हैं =सर्वाधार, परमेश्वर । विन० ४६.२ भवनेश : (सं०) सभी लोकों का स्वामी । विन० ३८.१ For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश भुवनेस्वर : (सं० भुवनेश्वर ) । भुवनेश । मा० ५.३६.१ भुवनैकप्रभु : सभी लोकों का एकमात्र स्वामी । विन० ४६.२ भुवन कमर्ता : सभी लोकों का एकमात्र धारण-पोषण कर्ता । विन० २६.१ भुवनैकभूषण: सभी लोकों को एकमात्र अलंकृत करने वाला = भुवनाभिराम बिन० २६.६ 815 भुवालु : भुआलु । गी० १.४२.४ भुसुंड, डा भुसुंडि । मा० ७.६८.७; ६३.१ भुसुंड : सं०पु० (सं० भुशुण्डि ) । काक भुशुण्डि जिसने गरुड़ को रामकथा सुनायी थी । मा० १.१२० ख भूख : भूख भूखा भूखा । मा० ५.२२.३ भूजब : भकृ०पु० (सं० भोक्तव्य > प्रा० भुजिअव्य ) । भोगना ( संभव होगा ) । 'राजु कि जब भरत पुर ।' मा० २.४६ ཉ : (१) सं० [स्त्री० (सं० ) । पृथ्वी । मा० ६.९१ छं० (२) (सं० भ्रू) । भौंह | 'बिलोकति पंथ भू पर पानि के ।' गी० ३.१७.३ भूख : सं ० स्त्री० (सं० बुभुक्षा > प्रा० भुक्खा ) । क्षुधा । 'मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ।' मा० १.२४६.१ भूखा : (१) भूख । 'सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । मा० ५.१७.७ (२) भूकृ०पु० (सं० बुभुक्षित > प्रा० भुक्खिअ ) । क्षुधित, भोग- लालस | 'सुरतरु लहै जनम कर भूखा ।' मा० १.३३५.५ भूखी : भूकृ० स्त्री० । क्षुधिता । मा० २.५०.३ भूखें: भूखे होने पर । प्यासेहूं न पावे बारि, भूखें न चनक चारि ।' कवि० ७.१४८ भूखे : भूक०पु० (सं० बुभुक्षित > प्रा० भुक्खिय ) । क्षुधित, भोगेच्छु | नाहिन रामु राज के भूखे । मा० २.५०.३ 'माय बाप भूखे को ।' विन० ६६.४ भूखो : भूखा + कए । इच्छुक, लालस । 'भोरो भलो भले भाय को भूखो ।' कवि० ७.१५६ भूचर : सं० + वि०पु० (सं० ) । पृथ्वी पर चलने वाले जन्तु ( खेचर तथा जलचर का विलोम ) । विन० ११.६ For Private and Personal Use Only भूत : सं०पु ं० (सं०) । (१) पिशाच- सदृश नीच देवविशेष । 'प्रेत पिसाच भूत बेताला ।' मा० १.८५.६ (२) प्राणी, जीव । 'भूत द्रोह रत मोह बस ।' मा० ६.७८ (३) जड़-चेतन । विश्व, चराचर । 'प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ।' मा० ७.१०८.१४ (४) पञ्च महाभूत - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 816 तुलसी शब्द-कोश (५) (समासान्त में) वि० । अभिन्न, तत्स्वरूप, एकरूप । 'पद-द्वंद्व मंदाकिनी मूलभूतं ।' विन० ४६.५ भूतगन : प्रेत-पिशाच सदृश शक्तियों का समूह । 'भजहिं भतगन घोर ।' मा० २.१६७ भूतजनित : भूत-प्रेत आदि से उत्पन्न । 'व्याधि भूतजनित ।' हनु० ४३ भूत-द्रोह : प्राणियों के प्रति वैरभाव । भूत-द्रोह तिष्टइ नहिं सोई।' मा० ५.३८.७ भूतनाथ : (१) सं०० (सं०)। सभी जीवों (चराचर) के स्वामी शिव जी । कवि० ७.१५२ (२) शिवावतार हनुमान् । हनु० ४३ ।। भूतनि : भूत+संब० । भूतों=प्राणियों (चराचर द्रव्यों) । "भूतनि की आपनी पराये की।' हनु० ३७ भूतभव : वि०पु० (सं०) पञ्च भूतों तथा जीवों की उत्पत्ति के कारण। कवि० ७.१६८ भूतमय : वि०० (सं.)। सभी जीवों तथा चराचर में व्याप्त =अन्तर्यामी। 'ईस्वर सर्ब-भूतमय अहई ।' मा० ७.११०.१५ भूतल : सं०० (सं.)। पृथ्वी मण्डल। मा० १.१ भूता : भूत । पिशाचादिसदश । 'परिजन जनु भूता ।' मा० २.८३.७ भूति : सं०स्त्री० (सं.)। (१) विभूति, ऐश्वर्य, वैभव । (२) अष्ट सिद्धियां अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व । 'मति कीरति गति भूति भलाई।' मा० १.३.५ (३) भस्म, राख । 'भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी।' मा० १.१०६.८ भूतिभूषन : भस्मरूप अलंकार वाले शिव । कवि० ७.१५२ भूतिमय : वि० (सं०) ऐश्वर्य सम्पन्न+पिद्धियों से युक्त । 'कीरति सुगति भूतिमय बेनी ।' मा० २.३०६.४ भूधर : (१) सं०० (सं.)। पर्वत (पृथ्वी को धारण करने, संभालने वाला)। मा० ६.५३.३ (२) शेषनाग+शेषावतार लक्ष्मण । विन० ३८.१ (३) पृथ्वी पालक । मा० ७.३४.४ भूधरण : भूधर (गोवर्धन पर्वत)। 'भूमि उद्धरण, भूधरणधारी।' विन० ५६.२ भूधरसुता : पार्वती । मा० २ श्लोक १ भूधराकार : पर्वताकार, पहाड़ जैसी आकृति वाला (विशाल)। कनक-भूधराकार सरीरा।' मा० ५.१६.८ भूधराधिप : पर्वतराज =हिमालय (कैलास) । विन० ११.४ भूनंदिनी : भूमिपुत्री=सोता । विन० २५.५ For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 817 भूनाथ : पृथ्वी के स्वामी=सर्वेश्वर । विन० ५५.६ भूपं : राजा ने । 'भूपं प्रतीति तोरि किमि कीन्ही ।' मा० २.१६२.३ भूप : सं०पू० (सं०) । राजा। मा० १.१३०.८ भूपतहि : भूपता (राजत्व) को, राजा होने को। 'चहत न भरत भूपतहि भोरें।' मा० २.३६.१ भूपति : भूप । पृथ्वी का स्वामी =राजा । मा० १.१३० भूपतिमनि : राजाओं में शिरोमणि । श्रेष्ठ राजा । मा० १.३३०.२ भूपनि : भूप+संब० । राजाओं। 'भले भूप कहत भले भदेस भूपनि सों।' कवि० १.१५ भूपबर : राजाओं में श्रेष्ठ; श्रेष्ठ राजा । मा० ७.५१.६' भूपमनि : भूपतिमनि । मा० १.३५३.६ भूपरूप : राजारूपी । 'ढाहत भूपरूप तरु मूला।' मा० २.३४.४ भूपसुत : राजकुमार । मा० ३.२३.६ भूपा : भूप । मा० १.१४१.२ भूपाल, ला : सं०० (सं०) । राजा। मा० २.५८; ५.३६.१ भूपावली : राजसमुदाय । विन० १८.५ भूपु : भूप+कए । अद्वितीय राजा । 'पछिले पहर भूपु नित जागा। मा० २.३८.१ भूमार : पृथ्वी का भार (क्लेश) । विन० ३८.१ भूभुरि : सं०स्त्री० (सं० भुर्भुरी=बालूसाही>प्रा० भुन्भुरी>अ० भुन्भुरि)। (अवधी में) धूप से तचती बालू । 'अरु पाय पखारिहौं भूभरि डाढ़े ।' कवि० २.१२ भूमि : सं०स्त्री० (सं०) । पृथ्वी। मा० १.१७.७ भूमिजा : पृथ्वीपुत्री-सीताजी। विन० २६.४ भूमिजारमण : सीतापति = राम । विन० ३६.१ भूमितल : भूतल । मा० २.१४८.५ भूमिधर : (१) भूधर । पर्वत । 'मारग अगम भूमिधर भारे ।' मा० २.६२.६ (२) पृथ्वी के धारणकर्ता, रक्षक । कवि० ७.१५२ भूमिधरनि : भूमिधर+संब० । पर्वतों । 'भूमि के हरैया, उखरैया भूमिधरनि के ।' गी० १.८५.३ भूमिनागु : भूमिनाग (सं.) कए० । भूनाग-एक प्रकार का विषहीन सर्प; मटिहा सांप; केंचुए जैसा सर्पविशेष । 'भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।' मा० १.३५५.६ भूमिपति : भूपति । मा० २.७६.८ For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 818 तुलसी शब्द-कोश भूमिपाल : भूपाल । कवि० १.१० भूमिभार : भूभार । विन० ६४.५ भूमि-सुर : भूसुर । ब्राह्मण । मा० २.१७० भूरि : वि० (सं०) । (१) अधिक, प्रचुर । 'भूतल भूरि निधान ।' मा० १.१ (२) अतिशय, अत्यन्त । 'भूरि भागभाजन ।' मा० २.७४ भरिभाग : अधिक भाग्यशाली। 'भूरिभाग दसरथ सम नाहीं।' मा० २.२.४ भूरिभागिनी : अत्यन्त भाग्यशालिनी (स्त्री)। गी० २.२२.२ भूरिभागी : अत्यन्त भाग्यशाली । 'आपु हैं अभागी, भरिभागी डाटियतु है ।' कवि० ७.६६ भूरिभोग : अत्यधिक आयाम वाला (भोग==आभोग=विस्तार); व्यापक= शिव । कवि० ७.१५२ भूरी : भूरि । मा० १.४२.१ भूरुह : सं०० (सं०) । पृथ्वी में उगने वाला=वृक्ष । विन० १५२.१३ भूर्ज : सं०० (सं०) । भोजपत्र का वृक्ष जिसकी छाल का कागज के लिए उपयोग होता था । मा० ७.१२१.१६ भल, भूलइ : आ०प्र० (सं० भोल=मुग्ध+मा०धा०>प्रा० भुल्ल)। भ्रान्त होता है, विस्मृत होता है, सुध बुध खोता है, मोहित हो जाता है । 'मनु बिरंचि कर भूल ।' मा० १.२८७ भूलत : वकृ००० । भूलता-ते । हनु० २८ भूलहि : आप्रब० (अ० भुल्लहिं) । भटक जाते हैं, भ्रम में पड़ते हैं, चूक जाते हैं । ___ 'भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।' मा० १.१६१ ख भूलहि : आ०मए० (प्रा० भुल्लहि) । तू मोह में पड़ । 'भूलहि जनि भरम ।' विन० १३१.३ भूला : भूकृ००। (१) भ्रान्त हुआ। 'निरखि राम मन भव॑रु न भूला।' मा० २.५३.४ (२) विस्मृत हुआ । 'नाउँ गाउँ कर भूला रे ।' विन० १८६.५ भूलि : (१) पूकृ० । भूल कर । 'भूलि न देहिं कुमारग पाऊ।' मा० ३.५६.६ (२) भुल्लहि (अ० भुल्लि) । 'धुओं कसो धौरहर देखि तू न भूलि रे।' विन० भूलिहु : आ० – भूकृ०स्त्री०+मब० । तुम भ्रम में पड़ गयी हो । 'भल भूलिहु खल के बौराएं ।' मा० १.७६.७ भूलिहुं, हु, हूँ, हू : भूल कर भी । 'भयो न भूलिहू भलो।' विन० २६१.२ भूली : (१) भूलि । भूल कर । 'सो दिसि तेहिं न विलोकी भूली।' मा० १.१३५.१ (२) भूक० स्त्री० । विस्मृत हुई। 'अति अभिमान त्रास सब भूली।' मा० For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 819 'भूलें : भूलने से, भटकने पर। 'रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें।' मा० २.२६७.३ 'भूले : भूक००ब० । भ्रान्त हुए, सुध बुध खोये हुए । 'गुजत मंजु मधुप रस भूले ।' मा० २.१२४.७ भूलेहुं : भूल से भी । 'भूलेहुं संगति करिअ न काऊ ।' मा० ७.३६.१ भूल्यो : भूकृ०पु०कए० । भूला, विस्मृत हो गया । विन० १४३.२ 'भूष, भूषइ : आ०प्रए० (सं० भूषयति>प्रा० भसइ) । अलंकृत करता है, सजाता है । 'ससिहि भूष अहि लोभ अमी के ।' मा० १.३२५.६ भूषन : सं०+वि.पु. (सं० भूषण) । (१) अलंकार, आभरण । मा० १.१४७.६ (२) अलंकृत करने वाला, श्रेष्ठ । 'तिय-भूषन ।' मा० १.१६.७ (३) (समासान्त में) भूषण वाला । 'भुजग-भूति-भूषन ।' मा० १.१०६.८ (४) विभूषित करने वाला अङ्ग । 'किय भूषन तिय भूषन ती को।' मा० १.१६.७ (५) काव्य में शब्दालंकार तथा अर्थालंकार-दे० बिभूषन । भूषनधारी : वि० । आभूषण धारण करने वाला-वाले । मा० १.८.१० भूषन-बिभाग : अङ्गानुरूप अलंकारों की विभक्त रचना । गी० २.४४.४ भूषन-भूषन : आभूषणों को भी अलंकृत करने वाला-वाले । 'ब्याह बिभूषन भूषित भूषन-भूषन ।' जा०म० १२४ भूषिअत : वकृ००कवा० । अलंकृत किये जाते । 'सुतिय सुभूपति भूषिअत ।' दो० ५०६ भूषित : भूकृ०वि० (सं०) । अलंकृत, सुसज्जित । मा० १.६.७ भूसुर : सं०० (सं.)। पृथ्वी का देव =ब्राह्मण । मा० १.२१४ भुंग : सं०० (सं.)। (१) भ्रमर । 'गुजत भृग ।' मा० २.२४६ (२) एक प्रकार का पतिंगा जो कीड़े को अपनी ध्वनि से अपने ही आकार का करने वाला बताया गया है । 'भइ मम कीट भग की नाई ।' मा० ३.२५.७ भृगनि : भृग+संब० । भ्रमरों (से)। 'सेबित सुर मुनि भृगनि ।' गी० २.५७.३ भुंगा : भृग । मा० १.१२६.२ भगिहि : भृङ्गी (शिवगण विशेष) को। मा० १.६३.४ भूकटि, टी : सं०स्त्री० (सं.)। भौं, भों की वक्रता। मा० १.१४७.४; २४२.५ भृकुटी : भृकुटी+ब० । भौंहैं । 'चले भृकुटी।' कवि० २.२६ भृगु : सं०० (सं०) । ब्रह्मा के पुत्र ऋषि विशेष । मा० १.६४ भृगुकुल : भगु ऋषि का वंश जिसमें परशुराम हुए थे। मा० १.२६८.२ भृगकुल केतू : भृगु वंश में पताकावत् सर्वोत्तम । परशुराम । मा० १.२७१.८ For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 820 तुलसी शब्द-कोशः भृगुचरन : भृगु ऋषि का चरणचिह्न । विन० ६२.६ कहा जाता है विष्णु की परीक्षा हेतु क्रोध करके भृगु ने वक्ष पर चरण प्रहार किया था जिसका चिह्न भगवान् अपने उरस्थल पर सदा रखते हैं। भगतिलक : भृगुवंश में श्रेष्ठ । परशराम । कवि० १.१६ भृगुनाथ : परशुराम । मा० १.२८३ भृगुनायक : परशुराम । मा० १.२६३.१ भृगुपति : परशुराम । मा० १.२८२ भृगुपद : भगुचरन । गी० ७.१६.४ भृगुवंश मनि : भृगुकुल में श्रेष्ठ परशुराम । मा० १.२७३ भृगुबर : परशुराम । मा० १.२७६ भृगुमुख्य : भृगुवंश के मुख्य पुरुष परशुराम । हनु० ३ भृगुसुत : भृगुवंश की संतति =परशुराम । मा० १.२७३.५ भत्य : सं०पू० (सं०) । दास, परिचारक । गी० १.३८.४ भेंट : सं०स्त्री० । (१) मिलन । 'मोहि तोहि भेंट भूप दिन तीजें ।' मा० १.१६६.७. (२) उपहार । 'हरषि भेंट हित भूप पठाई।' मा० १.३०५.३ (३) उपहारसामग्री । 'भेंट संजोवन लागे ।' मा० २.१९३.२ (४) आ.प्रए० = भेंटइ। मिलता है, भेटता है, लिपटता है । 'कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ।' मा० ३.१०.२३ भेटत : वकृ.पुं० । मिलता-ते; आलिङ्गन करता-ते । 'ते भरतहि भेटत सनमाने।' मा० १.२६.८ भेंटति : वकृ.स्त्री० । लिपटती । 'भेंटति अति अनुराग ।' मा० २.२४६ भेंटलगाऊ : भेंट लगाने वाला=साथियों से मिलाने वाला; राह बताने वाला। विन० १८६.४ भेंटहिं : आ०प्रब० । मिलते हैं, लिपटते-ती हैं । मा० १.३३७.६ भेटहु : आ०मब० । मिलो। 'सबहि जिअत जेहिं भेटहु आई।' मा० २.५७.३ भेटा : भूकृ०० । लिपटाया । 'रामसखा रिषि बरबस भेंटा।' मा० २.२४३.६ भेटि : पूर्व० । लिपट कर । 'बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा की न्हि सनमानि ।' मा० २.२८७ भेंटी : भूक०स्त्री०ब० । लिपट गयीं, लिपट कर मिलीं। 'करि प्रनाम भेंटी सब सासू ।' मा० २.३२०.२ भेंटी : भूक स्त्री० । मिलने द्वारा सम्मानित की । 'प्रथम राम भेंटी कैकेयी।' मा० २.२४४.७ भेटु : आ०-आज्ञा-मए। तू लिपट कर मिल । 'अब भरि अंक भेंटु मोहि. भाई।' मा० ६.६३.७ For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 821 भेंटे : भूकृ००ब० । लिपटा लिये । 'भेटे हृदय लगाइ।' मा० ७.५ भेटेउ : भूकृपु०कए । लिपटा लिया। 'केवट भेटेउ राम ।' मा० २.२४१ भेंट्यो : भेंटेउ । 'भेंट्यो केवट उठि ।' विन० १३५.४ भे : भकृ.पु० ब० (सं० भूत>प्रा० भविअ)। हुए । 'भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ।' मा० १.२६.४ भेई : भूकृ०स्त्री० (सं० भेदिता>प्रा. भेइआ)। सराबोर, ओत-प्रोत । सरल सुभायें भगति मति भेई ।' मा० २.२४४.७ भेउ, ऊ : भेदु (अ.) । मर्म, रहस्य । मा० १.१३३ 'जौं जननी जानौं यह भेऊ ।' __मा० २.१६८.८ भेक : सं०० (सं०) । मेंढक । मा० १.३१.८ भेका : भेक । मा० ३.४४.३ भेट : भेंट। मिलन । मा० १.५७.२ भेटहिं : भेंटहिं । 'बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी ।' मा० १.३३४.८ भेटा : भेट । मुठभेड़ । 'कतहुँ होइ निसिचर मैं भेटा।' मा० ४.२४.१ भेटि : भेंटि । मा० १.१०२.८ भेटी : भेंटीं। 'प्रभ सब मातु भेटीं।' मा० ७.६ छं. भेटे : भेटे । मा० ५.२६ भेटेउ : भेंटेउ । 'हरषि राम भेटेउ हनुमाना।' मा० ६.६२.१ भेट्यो : भेटेउ। विन० १४५.२ भेडी : सं०स्त्री० (सं०) । पशुविशेष=भेड़ । 'तुलसी भेड़ी को धंसनि जड़ जनता सनमान ।' दो० ४६५ भेद : सं०० (सं.)। (१) प्रकार, वर्ग। 'भाव भेद रस भेद अपारा ।' मा० १.६.१० (२) रहस्य, मर्म । 'बिभव भेद कछु कोउ नहिं जाना ।' मा० १.३०७.२ (३) अन्तर । 'ईस्वर जीव भेद ।' मा० ३.१४ (४) द्वेष । 'देखि मोहि जिय भेद बढ़ावा ।' मा० ४.६.१० (५) भेद नीति, कूट नीति में अन्यतम उपाय । 'साम दान भय भेद देखावा ।' मा० ५.६.३ (६) छिद्र, गुप्त दोष या दुर्बलता । 'भेद हमार लेन सठ आवा।' मा० ५.४३.७ (७) परिवर्तन, मोड़, अङ्ग विक्षेप प्रकार (८) फूट, भेदनीति । 'भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।' मा० ७.२२ (8) भेदन, फोड़ना, भङ्ग । 'सप्राबरन भेद करि ।' मा० ७.७६ ख (१०) द्वैत, जीव और ईश्वर में नितान्त पार्थक्य की भावना; एक ही तत्त्व से निर्मित पदार्थों को पृथक् समझने की प्रवृत्ति । 'मुधा भेद जद्यपि कृत माया ।' मा० ७.७८.८ For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 822 तुलसी शब्द-कोश भेदबुद्धि : जीव ब्रह्म का अंश है, ब्रह्म ही जगत का उपादान है अत: जड़-चेतन विश्व ब्रह्मरूप (राममय) है-यह 'अभेद बुद्धि' है; इससे भिन्न 'भेदबुद्धि' है जो जीव और जगत् को ब्रह्म से पृथक् भासित कराती है तथा एक ही उपादान तत्त्व से बनी सृष्टि में विविधता लाती है। जागतिक भ्रम, प्रान्त बुद्धि, विपर्यय, अज्ञान । 'तुलसिदास प्रभु मोहजनित भ्रम भेद-बुद्धि कब बिस रावहिंगे।' गी० ५.१०.५ भेदभगति : ऐसी भक्ति जिसमें अपने को आराध्य-लीन करने का संकल्प नहीं होता, प्रत्युत ब्रह्म के अंशरूप में पृथक सत्ता रख कर भक्त लीलादर्शन करता है । दास्य, वात्सल्य, माधुर्य तथा भ्रातृत्व भक्तियाँ इसी कोटि की हैं । यहाँ भक्ति चरम साध्य (परम पुरुषार्थ) मान्य है जब अभेद भक्ति में ब्रह्मलीनता ही चरम लक्ष्य रहता है- भक्ति उसका साधन है (शाङकर मत में अभेद भक्ति मान्य है) । 'तातें मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद-भगति बर लयऊ ।' मा० ३.६.२ भेदमति : भेदबुद्धि । 'तुलसिदास प्रभु हरहु भेदमति ।' विन ० ७.५ भेदमाया : भेदबुद्धि लाने वाली व्यामोहिका माया जो जीव के साथ अज्ञान या अविद्या नाम से जानी जाती है (यह परमेश्वर की आदि शक्ति महामाया की अंश-सृष्टि है) । भक्ति अनवरत गत-भेदमाया ।' विन० १०.६ भेदा : भेद । मा० ७.११५.१३ भेदि : पूकृ० । भेदन कर, चीर कर । 'भेदि भुवन करि भानु बाहिरो तुरत राहु दे तावौं ।' गी० ६.८.२ भेदु : भेद+कए । (१) एकमात्र अन्तर । सुनि गुन-भेदु समुझिहहिं साधू ।' मा० १.२१.३ (२) गुप्त रहस्य । 'बूझि न बेद को भेदु बिचारै ।' कवि० ७.१०४ भेदै : आ०प्रए । भेदन करे, फाड़ कर प्रवेश कर जाए । 'ऐसी बानी संत की जो उर भेदै आइ।' वैरा० २० भेरि, री : सं०स्त्री० (सं०) । वाद्य विशेष, बड़ा ढोल या नक्कारा । मा० १.२६३.१; ६.३६.१० भेहि : आ.प्रब० । भिगोते-ती हैं, ओत-प्रोत करते-ती हैं । 'देहिं गारि बर नारि मोद ___ मन भेवहिं ।' पा०म० १३८ भेवहि : आ०-आज्ञा-मए । तू भिगो, ओत-प्रोत कर । 'भगति मनु भेवहि ।' पा०म० २४ भेषज : सं०० (सं०) । दवा । मा० १.७ क भैंसा : सं० पु. (सं० महिष>प्रा० महिस) । मा० ६.७६.१ भै : भइ । हुई । 'चलत गगन भै गिरा सुहाई। मा० १.५७.४ For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्दकोश 823 भैआ, या : सं०पु० (सं० भ्रातक>प्रा० भाइअ) । (१) भ्राता, सहोदर, बन्धु । 'पगनि कब चलिही चारो भैया। गी० १.६.१ (२) मित्र । अतिहित बचन कहेउ बल भया ।' कृ० १६ (३) (स्नेह में) पुत्रादि । 'पितु समीप तब जाएह भआ।' मा० २.५३.२ (४) (सम्मान में) सम्बोध्य व्यक्ति । 'भैया कहहु कुसल दोउ बारे ।' मा० १.२६१.४ भख : सं०+वि०पू० (सं.)। (१) भयानक । (२) संहारकर्ता=शङकर । कवि० ७.१५२ (३) शिव के रूप दण्ड भैरव (काशी में) । विन० ११.१ भैषज : भेषज । विन० ५७.६ भैषज्य : सं०५० (सं.)। भेषज विद्या में निपुण, चिकित्सक । विन० ५७.६ भैहै : भाइहै । रुचेगा । 'पैहैं मांगने जो जेहि भै है ।' गी० ५.५०.६ भोंड़े : वि०० (सं० भुण्ड --शूकर) सम्बोधन । सुअर, अभद्र । 'अभागे भोंड़े भागि रे ।' कवि० ५.६ भोंडो : वि.पु.कए । सुअर के समान भद्दा, अभव्य। 'नाम तुलसी 4 भोंड़ों भांग तें।' कवि० ७.१३ भो : भयो । हुआ । 'दूध दधि माखन भो।' कृ० १६ भोग, गा : सं०० (सं० भोग) । (१) सांसारिक सुख । 'जोग भोग महँ राखेउ गोई।' मा० १.१७.२ (२) कर्मफल-प्राप्ति । 'सकल सुकृत फल भूरि भोग से ।' मा० १.३२.१३ (३) कामक्रीडा । 'करहिं बिबिध बिधि भोग-बिलासा।' मा० १.१०३.५ (४) आस्वाद । 'विषय-भोग ।' मा० २.८४.८ (५) सुख सामग्री । 'कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ।' मा० २.११६.५ 'स्रक चन्दन बनितादिक भोगा।' मा० २.२१५.८ (६) विस्तार, व्याप्ति, वृत्त । दे० भूरिभोग। (७) सर्प का शरीर । 'भुजग भोग भुजदण्ड ।' विन० ६२.८ भोगावति : सं-स्त्री. (सं० भोगावती)। पाताल में शेषनाग की नगरी । मा० १.१७८.७ मोगी : वि.पु. (सं० भोगिन्) । (१) खाने वाला । 'द्विजामिष-भोगी।' मा० ६.४५.३ (२) भोगने वाला, आस्वादकर्ता । 'सकल रस भोगी।' मा० १.११८.६ (३) विलासी, विषयी : समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। मा० १.८७.८ भोगु, गू : भोग+कए० । 'और पाव फल भोगु ।' मा० २.७७; ७४.२ मोगौघ : (भोग+ ओघ) भोग समूह । विन० ५९.६ भोजन : सं०० (सं.)। (१) खाने की क्रिया । मा० १.१६८.६ (२) खाद्य सामग्री। 'भूप गयउ जहँ भोजन खानी ।' मा० १.१७४.६ (३) भोज्य के चार प्रकार-चळ, चूष्य, लेह्य और पेय। 'चारि भांति भोजन बिधि गाई।' मा० १.३२६.४ For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 824 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश भोजनु : भोजन + कए० । 'करि भोजनु बिश्राम ।' मा० १.२१७.४ भोर : सं०पु० । (१) प्रभात । 'बड़े भोर भूपति मनि जागे ।' मा० १.३३०.३ (२) भूल-भटक, भ्रम । 'कीदहुं रानि कौसिलहि परिगा भोर हो ।' रा० न० १२ (३) वि०पु० (सं० भोल) । मुग्ध, भोला । 'बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ । मा० २.२८.२ भोरा : भोर । भूल चूक । 'तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा । मा० १.५.१ भोरानाथ : भोलानाथ । ( १ ) शिव । कवि० ७.१५६ (२) शिवावतार = हनुमान् । हनु० ३४ भोरि, री : वि०स्त्री । भोली, मुग्ध, भ्रान्त । 'नारि बिरहँ मति भोरि ।' मा० १.१०८ ; ६.६.१ भोरु, रू : भोर + कए० । सबेरा । मा० २.३७.२; ८६.१ मोरें: भूल में, अनजान में । 'चहत न भरतु भूपतहि भोरें ।' मा० २.३६.१ भोरे : (१) वि०पु०ब० । मुग्ध, बेसुध । 'लोग भए भोरे ।' मा० २.२५५.४ (२) भ्रान्त । 'सब भए मगन मदन के भोरे ।' गी० ३.२.५ (३) क्रि०वि० । भोरें । भूल कर । 'ता की सिख ब्रज न सुनंगो कोउ भोरे ।' कृ० ४४ ( ४ ) भोलेपन में । 'भोरानाथ भोरे ही सरोष होत ।' हनु० ३४ 1 भोरे, हु : भूल में भी । 'भोरेहुं भरत न पेलिहहि मनसहुं राम रजाइ ।' मा० २.२८६ भोरो : भोरा + कए० । भोला । 'दानि है बावरो भोरो ।' कवि० ७.१५३ भोलानाथ : (१) (सं० भोलनाथ ) मुग्ध ( निरपेक्ष + अनजान ) लोगों में श्रेष्ठ = शिव । ( २ ) शिवावतार हनुमान् । हनु० ४३ भौं : सं० स्त्री० (सं० भ्रू = प्रा० भमुहा ) । भौंह । रा०न०८ भौंतुवा : सं०पु० । जल प्रवाह में तैरने वाला एक काला कीड़ा । विन० २२६.३ भर भर | ( १ ) आवर्त, प्रवाह चक्र । 'कलिकालहि कियो भौंतुवा भौंर को हौं ।' : विन० २२६. ३ (२) चकरी, चरखी । 'झरकत मरकत भौंर ।' गी० ७.१६.३ भौंरा : भौंर । एक प्रकार का खिलौना ( लट्टू) जो नचाने पर ध्वनि करता है । 'खेलत अवधखोरि, गोली भौंरा चकडोरि ।' गी० ४३.३ भौंह : भौं । मा० २.११७.६ भौं : भौंह + ब० । भवें, भ्रुकुटियाँ । 'कुटिल भइँ भौंहें ।' मा० १.२५२.८ For Private and Personal Use Only भौ : भो । हुआ । 'भौ न मन बावौं ।' विन० ७२.३ भौतिक : वि० (सं० ) । त्रिविध क्लेशों में अन्यतम (दे० दैविक, अधिभूत) । 'दैहिक दैविक भौतिक तापा ।' मा० ७.२१.१ भौन : भवन + भुवन । 'पति पठए सुर-भोन ।' गी० २.८३.१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 825 भौम : सं०० (सं०) । भूमिपुत्र=मङ्गल ग्रह । 'कंज दलनि पर म नहुं भौन दस बैठे।' गी० १.१०८.२ भोमबार : मङ्गलवार (सप्ताह का एक दिन)। मा० १.३४.५ भ्रम : (१) संपु० (सं.)। विपर्यय ज्ञान, मिथ्याबोध । मा० १.३१.८ (२) संसार तथा देहादि को सत्य मानना । 'अनुभव सुख उतपति करत भव भ्रम धरै उठाइ।' वैरा० २० (३) अनिश्चय। 'चकित भए भ्रम हृदयें बिसेषा ।' मा० १.५३.१ (४) आ०ए० । (सं० भ्रमति) । भटकता है, भ्रमण करता रहता है । 'लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यों जहँ तहँ ।' वि० ८६.३ (५) गोस्वामी जी ने जगत् के विषय में (रामानुचार्य के अनुसार) तीन भ्रम माने हैं(क) सांख्य में प्रकृति को तथा चार्वाकमत में महाभूतों को सत्य माना जाता है । (ख) बौद्ध तथा शाङकर मत जगत्प्रपञ्च को असत् (मिथ्या) मानते हैं । (ग) न्यायदर्शन परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन को नित्य मानता तथा स्थूल पृथ्वी, जल, तेज और वायु को अनित्य कहता है। तीनों से पृथक मत है कि सम्पूर्ण प्रपञ्च नित्य परमेश्वर का अंश होने से नित्य है तथा देहादि संसार अनित्य है। 'कोउ कह झूठ सत्य कह कोऊ उभय प्रबल कोउ मान । तुलसिदास परिहर तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। विन० १११.४ भ्रमत : वकृ.पु. । घूमते, भटकते, भ्रान्त होते । 'भव पंथ भ्रमत ।' मा० ७.१३.२ भ्रमति : वकृ०स्त्री० । चकराती । 'भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।' मा० १.१०८ भ्रमबात : सं०० (सं० भ्रमवात) । चक्रवात, बवंडर । कवि० ६.३७ भ्रमबारि : मृग बारि । मृग मरीचिका । विन० १३६.२ भ्रमर : सं०+वि.पु. (सं.)। भ्रमणशील+भौंरा । गी० ७.६.३ भ्रमहि, हीं : आप्रब० । घूमते हैं, चकराते हैं । 'बालक ध्रुमहिं न भ्रमहिं गहादी।' मा० ७.७३.६ (२) उब० । हम घूमते हैं, गतागत करते हैं । 'करमबस भ्रमहीं।' मा० २.२४.५ भ्रमाही : भ्रमहीं । 'हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं।' मा० १.११५.६ भ्रमि : पूकृ० । भटक कर, चक्कर खाकर । 'मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं...... जनमेउँ ।' मा० ७.६६.८ भ्रमित : वि० । भ्रम युक्त । 'भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ।' मा० ७.८२.८ भ्रमु : भ्रम+कए० । अनिश्चय । मा० २.६६.२ । भ्रष्ट : विभूकृ० (सं.)। पतित, नष्ट । मा० १.१८३ छं. 'भ्राज, भ्राजइ : आ०प्रए० (सं० भ्राज दीप्ती)। शोभित होता है, प्रकाशमान है। 'भ्राज विबुधापगा आप पावन परम ।' विन० ११.३ 'तरुण रबि कोटि तनु तेज भ्राज ।' विन० १०.२ For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 826 तुलसी शब्द-कोश भ्राजत : वकृ.पु० । विराजता, शोभा बिखेरता। प्राजत भाल तिलक गोरोचन ।' मा० ७.७७.५ भ्राजति : वकृ०स्त्री० । शोभा बिखेरती। 'कुंकुम रेख भाल भलि भ्राजति ।' गी० ७.१७.१५ भ्राजमान : वकृ०वि० (सं.)। विराजमान, प्रकाशमान । विन० ५१.५ भ्राहि, ही : आ०प्रब० । प्रकाशमान हैं, शोभा बिखेरते हैं। मा० ७.२७.८ भ्राजा : (१) भ्राजइ। 'कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा।' मा० १.१४७.५ (२) भूक००। शोभित हुआ। 'दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।' मा० १.३०१.८ भ्राजी : भूकृ.स्त्री० । शोभित हुई । 'रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी।' कृ० ६१ भ्राजे : भ्राजइ । 'तिलक भाल भ्राज ।' विन० ६३.७ भ्रात, ता : भाई । मा० १.२२४; ७.२.१२ भ्रातन, न्ह : भ्रात+संब० । भाइयों। 'राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती।' मा० ७.२५.३ भृकुटि, टी : भृकुटी (सं.)। भौंह, भौंहों की वक्रता । जा०म० ५१ भ्रकटिन्ह : भ्रुकुटि+संब० । भौंहों। तैसिये लसति भ्रुकुटिन्ह की नवनि ।' गी० ३.५.३ भृकुटिया : भृकुटि (सं० भृकुटिका)। गी० १.३२.५ भ्रू : सं०स्त्री० (सं०) । भौं । मा० ७.१०८.७ भ्रूबिलास : भ्रूभङ्ग, भृकुटिनर्तन । मा० ७.७२.२ मगि : मागि । 'बिधि मनाइ मगि लीज ।' गी० ३.१५.२ मॅझारि : मझारी । में, मध्य । 'राजसभा मझारि ।' विन० २१४.४ मदोवै : मंदोदरि (अ० मंदोअरि)। कवि० ५.१० मंगन : वि०० (सं० मार्गण>प्रा. मग्गण) । याचक । मा० १.२३१.८ मंगल : (१) सं०पु० (सं०)। कल्याण । मंजुल मंगल मोद प्रसूती।' मा० १.१.३ (२) माङ्गलिक वस्तु । दे० मंगलन्हि । (३) विवाहादि शुभ कार्य । For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश दे० मंगलु । ( ४ ) भौमग्रह | 'मंगल मंगलमूल ।' रा०प्र० १.१.३ (५) वि० । कल्याणमय, शुभ । 'जग मंगल भल काजु बिचारा । मा० २.५.७ मंगलकारी : वि०पु० (सं०) । कल्याण कर, शुभ । मा० १.३६.४ मंगलगान, ना : माङ्गलिक अवसर ( विवाहादि) के उत्सव गीत । मा० १.३५५.१; ६६.३ मंगलचार : सं०पु० (सं० ) । माङ्गलिक कार्यकलाप | मा० १.२६३ मंगलदाइ, ई : वि०पु० (सं० मंगलदायिन् ) । शुभप्रद । विन० ७.३३.१ मंगलदाता : मंगलदाई । मा० २.२१७.५ 827 मंगलदायक : मंगलदाता । मा० २.१३७.५ मंगलनिधि : कल्याणकर, मङ्गल से परिपूर्ण । मा० १.३५०.३ मंगलन्हि : मंगल + संब० । मंगल द्रव्यों (से) । 'कनक थार भरि मंगलन्हि ।' मा० १.३४६ मंगलमइ, ई : मंगलमय + स्त्री० (सं० मङ्गलमयी ) । कल्याणपूर्ण । पा०मं०छं० २ मंगलमय : वि०पु० (सं० ) । कल्याणपूर्ण । मा० १.२.७ मंगलमूरति : मङ्गल की मूर्ति, साकार मङ्गल । मा० २.२४६.४ मंगलमूल, ला : मङ्गल का जनक । मा० २.२.५; २५६.३ मंगलरूप : साकार मङ्गल । मा० ४.१३.५ मंगला : सं० स्त्री० (सं० ) । दुर्गा, पार्वती । पा०मं० छं० २ मंगलागार : मंगलनिधि । विन० २७.१ 1 मंगलाचरे : (मंगल + आचरे ) मङ्गलाचार किये, मङ्गल प्रदान किये । 'भंज्यो भवजाल परम मंगलाचरे ।' विन० ७४.४ मंगलायतन : मंगलागार । मा० १.३६१ मंगलालय : मंगलागार । विन० २६.१ मंगल : मंगल + कए । अद्वितीय शुभकर्म । 'एकु यहु मंगलु महा ।' मा० १.३२५ छं० १ मंच : सं०पु० (सं० ) । उच्चासन, बैठने का उत्तम आसन । मा० १.२५४ मंचन्ह : मंच + संब० । मंचों । 'सब मंचन्ह तें मंच एक सुंदर सुखद बिसाल ।' मा० १.२४४ For Private and Personal Use Only मंच : मंच + कए० | अनोखा मंच | मा० १.२४४ मंजर, री : सं० स्त्री० (सं० ) । छोटे फूलों का लम्बा गुच्छा ।' मा० १.३४६.५ 'तुलसी मंजरी ।' रा०प्र० ३.४.७ मंजरिय: मंजरी (सं० मञ्जरिका > प्रा० मंजरिया > अ० मंजरिय) । कवि० ७.११५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 828 तुलसी शब्द-कोश मंजीर : सं०० (सं.)। (१) नूपुरवर्ग का पादाभरणविशेष। 'मंजीर नपुर कलित कंकन ।' मा० १.३२२ छं० (२) कटिभूषणविशेष । 'कटितट रट मंजीर ।' गी० ७.२१.११ मंजु : वि० (सं०) । सुन्दर, स्वच्छ, पावन, उत्तम । मा० १.७.११ मंजुतर : वि० (सं.)। अति सुन्दर । 'गुज मंजतर मधुकर श्रेनी।' मा० २.१३७.८ मंजुल : मंजु (सं०) । मा० १.१.३ मंजुलताई : सं०स्त्री० (सं० मञ्जुलता) । सुन्दरता। 'कंज की मंजुलताई हरैं।' कवि० १.३ मंडन : सं०० (सं.)। (१) अलंकरण । 'सिरनि सिखंड सुमन दल मंडन ।' गी. १.५६.५ (२) वि.पु। अलंकृत करने वाला। 'सब बिधि कुसल कोसला मंडन ।' मा० ७.५१.८ मंडप : सं०० (सं०) । वितान । मा० १.१०० छं० मंडपहिं : मण्डप में । 'एहि बिधि राम मंडपहिं आए ।' मा० १.३१६.८ मंडप : मंडप+कए । मा० १.३२६.२ । मंडल : सं०० (सं.)। (१) विस्तृत गोलाकर क्षेत्र । 'नभ मंडल ।' मा० ३.१८.१० (२) घेरा, वृत्त । 'रबि मंडल ।' मा० १.२५६.८ (३) विशाल क्षेत्र । 'अवनिमंडल ।' मा० १.१५४.८ (४) गोलाकार, वृत्ताकार । 'पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ।' मा० १.२६१.६ (५) समूह (६) प्रान्त, भाग, स्थल । 'गंडमंडल ।' गी० ७.४.३ मंडलिहि : मंडली (समूह) को। 'मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा ।' मा. १.३४१.१ मंडली : मण्डली (समूह) में । 'खल मंडली बसहु दिन राती।' मा० ५.४६.५ मंडली : सं०स्त्री० (सं०) । चक्र, वर्ग, समूह । 'अपर मंच मंडली बिलासा ।' मा० १.२२४.४ मंडलीक : सं०पु० (सं०) । सामन्त, राजा । 'मंडलीक मनि रावन ।' मा० १.१८२क मंडल : मंडल+कए० । 'परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु ।' पा०म० १०२ मंडि : प्रकृ० । मण्डित करके, व्याप्त करके । 'मंडि मेदिनी को मंडलीक लीक लोपिहैं।' कवि० ६.१ मंडित : भूकृ०वि० (सं०) । सुसज्जित, अलंकृत (प्रसिद्ध)। 'सोइ महि मंडित पंडित दाता।' मा० ७.१२७.१ For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 829 मंतु : सं०० (सं० मन्तु)। मन्तव्य, सम्मति । 'मैं जो कहीं कंत, सुनु मंतु ।' ___ कवि० ६.१८ मंत्र : सं०पु० (सं.)। (१) जप योग्य शब्द । 'जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ ।' मा० १.१६८.४ (२) गुप्त विचारणा । 'तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा।' मा० १.१७०.७ मंत्रराजु : मंत्रराज+कए । एक मात्र श्रेष्ठ मन्त्र=राम नाम । मा० २.१२६.६ मंत्रिन्ह : मंत्री+संब० । मन्त्रियों। 'मंत्रिन्ह सहित ।' मा० ४.५.३ मंत्रिहि : मन्त्री को । 'मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा।' मा० २.६५.२ मंत्री : सं०पुं० (सं० मन्त्रिन्) । राजा को उचित सम्मति देने वाला पदाधिकारी। सचिव । मा० २.५.४ मंत्र : मंत्र+कए । एक मात्र मन्त्र (विचार) ! 'चले साथ अस मंत्र दृढाई ।' मा० २.८४.७ मंथरा : सं०स्त्री० (सं०) । कैकेयी की एक दासी । मा० २.१२ मंद : (१) वि.पु. (सं०)। नीच, अधम । मा० १.१३७.२ (२) दुष्ट । 'मंद यहु बालकु ।' मा० १.२७४.१ (३) निकृष्ट, विकृत । 'रूप धरहिं बहु मंद।' मा० ५.१० (४) अनिष्ट, प्रतिकूल । 'मंद करत जो करइ भलाई।' मा० ५.४१.७ (५) धीमा, शनैः गति करने वाला । 'सीतल मंद सुरभि बह बाऊ ।' मा० १.१६१.३ (६) सुस्त, दीर्घसूत्री, विलम्ब से चेतने वाला। 'अहह मंद मन अवसरु चूका।' मा० २.१४४.६ मंदतर : अधिक मन्द । मा० ७.१२१.११ मंदमति : वि० (सं.)। क्षुद्र बुद्धि । मा० १.६४.६ मंदर : सं०० (सं०) । (१) पर्वत विशेष जिसे मथान बनाकर समद्र मंथन किया गया था। मा० ६.७३.७ (२) पर्वत । 'गहि मंदर बंदर भालु चले।' कवि० मंदरु : मंदर+कए । 'मंदरु मेरु कि लेहिं मराला ।' मा० २.७२.३ मंदा : मंद । मा० २.६२.५ मंदाकिनि, नी : सं० स्त्री० (सं० मन्दमकति गच्छतीति मन्दाकिनी)। (१) चित्रकूट में नदी विशेष । मा० २.१३२.६ (२) गङ्गाजी। विन० ४६.५ मंदात्म : वि० (सं० मन्दात्मन्) । मलिनचित्त, दुष्ट । विन० ५५८ मंदि : मंद+स्त्री० । नीच, दुष्टा । 'मातु मंदि मैं साधु सुचाली।' मा० २.२६१.३ मंदिर : सं०० (सं.)। (१) भवन, प्रासाद । ‘मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।" ___ मा० ५.५.५ (२) देवालय । मंदिर माझ भई नभ बानी ।' मा० ७.१०७.१ मंदिरनि, न्ह : मंदिर+संब० । मन्दिरों (पर)। 'कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह ।' मा०. ६.४१ छं० For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 830 तुलसो शब्द-कोश मंदिरानिर : भवन का भीतरी आंगन । गी० ७.१६.१ मंदिराम : वि० (सं.)। मन्दिर के समान । 'रचित इंद्र मंदिराभ ।' गी० १.२५.२ मंदिरायत : (मन्दिर+आयत) गृह रचना के अनुसार लम्बाई में अधिक । 'सुन्दर __ मनोहर मंदिरायत अजिर।' मा० ७.२७ छं० मंदेहि : मन्द को। 'मंदेहि भल करहू ।' मा० १.१३७.२ मंदोदरि, री : सं०स्त्री० (सं० मन्दोदरी)। रावण की पटरानी । मा० १.१७८.२; ५.६.४ मंदोदरी : मन्दोदरी ने । 'मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समझाइ ।' मा० ६.३५ ख मइके : सं०० अधिकरण (सं० मातृ के>प्रा० माइक्के) । मैके में, नहर में। मा० २.६६ महत्री : सं०स्त्री० (सं० मैत्री>प्रा० मइत्ती)। मित्रता । 'गीध मइत्री पुनि तेहि गाई।' मा० ७.६६.१ मई : (१) मय (प्रत्यय) स्त्री० । एक रूप, अभिन्न ! 'मम मूरति महिदेव मई है।' विन० १३६.२ (२) पूर्ण, व्याप्त । 'रीति कृपा-सीलमई है ।' गी० २.३४.१ मकर : सं०० (सं.)। (१) एक नक्षत्र राशि जिस पर उत्तरायण होकर सूर्य माघ में आता है । 'माघ मकरगत रबि जब होई ।' मा० १.४४ ३ (२) मगर, घड़ियाल-जल जन्तु विशेष । 'संकुल मकर उरग झष जाती।' मा० ५.५०.६ (३) एक प्रकार का मत्स्य (जिसके आकार के कुण्डल बनते हैं)। 'कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा।' मा० १.१४०.५ मकरंद, दा : सं०० (सं० मकरन्द) ! पुष्परस=मधु । मा० ७.५१.२ १.२३१ मकरंद : मकरंद+कए० । 'मकरंदु जिन्ह को संभु सिर ।' मा० १.३२४ छं० २ मकरी : मकरी (स्त्री मगर) ने । ‘पद गहा मकरी ।' मा० ६.५७ मकु : अव्यय (सं० माकिम्, मकिम्)। (१) न कि ; क्यों न । 'दुइ के चारि मागि मकु लेहू ।' मा० २.२८.३ (२) चाहे कि ; संभवतः, हो सकता है कि । गगून मगन मकु मेघहि मिलई ।' मा० २.२३२.१ मख : सं०० (सं०) । यज्ञ । मा० १.६० मखपाल : यज्ञ का रक्षक । विन० ४३.३ मखबिधि : यज्ञ-विधान, यज्ञ क्रिया। मा० १.२७.३ मखभूमि : यज्ञभूमि, यज्ञ का पण्डाल । गी० १.८१.२ मखसाला : (सं० मखशाला) यज्ञ गृह, यज्ञ मण्डप । मा० १.२२५.५ मख : मख+कए । यज्ञ । 'मख राखिबे के काज ।' कवि० १.२१ मग : सं०० (सं० मार्ग)। (१) पथ । 'सती दीख कोतुकु मग जाता।' मा० १.५४.४ (२) रीति, पद्धति, आचार । 'चलहिं कुपंथ वेद मग छोड़े।' मा० १.१२.२ (३) रन्ध्र द्वार । 'सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ।' मा० १.३६.८ For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 831 (४) (सं० मगध) मगध देश । 'कासी मग सुरसरि क्रमनासा ।' मा० १.६.८ (५) बीच, अन्तराल, मध्य । मगजोगु : वि.पु.कए० (सं० मार्ग योग्यम>प्रा० मग्गजोग्गं>अ० मग्गजोग्गु) । मार्ग चलने योग्य । “मगजोगु न कोमल क्यों चलि हैं।' कवि० २.१८ मगता : वि.पु० (सं० मार्गयित)। भिखारी, याचक । 'सब जाति कुजाति भए मगता।' मा० ७.१०२.८ मगन : वि० (सं० मग्न) । डूबा हुआ। (१) डुबकी लगाए हुए। 'तह मगन मज्जसि ।' विन० १३६.२ (२) तल्लीन । 'फिरत सनेहं मगन सुख अपनें ।' मा० १.२५.८ (३) प्रसन्न । 'बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ।' मा० २.१९६.५ (४) अन्तर्भूत, अन्त:प्रविष्ट । 'गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ।' मा० २.२३२.१ मगनु : मगन+कए० । मग्न, प्रसन्न । 'भा मनु मगनु ।' मा० २.१६७.४ मगबास : मार्ग में रुकना, मार्ग का विश्राम या विश्रामस्थल । 'औध तजी मगबास के रूख ज्यों।' कवि० २.१ मगबासी : मार्ग के पास रहने वाले । मा० २.२२१ मगहें : मगध देश में । 'मगहें गयादिक तीरथ जैसें।' मा० २.४३.७ मगह : सं०० (सं० मगध>प्रा० मगह)। महाजनपद-विशेष । 'तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास ।' दो० ३६२ मगाइ : पू० । मंगा कर । 'मंगलद्रव्य मगाइ"सिरु नायउ आइ।' मा० ७.१० ख मगाई : भूकृस्त्री०ब० । आनीत करायीं । 'धेनु मगाई।' मा० १.३३१.२ ।। मगाई : भूक स्त्री० । आनीत करायी। 'नाव मगाई।' मा० २.१५१.३ ।। मगाए : भूक००ब० । आनीत कराये। 'कंद मूल फल मधुर मगाए।' मा० २.१२५.३ मगावत : वकृ०० । मंगाता, मँगाते। 'गज रथ तुरग मगावत भयऊ ।' मा० ७.५०.३ मगावा : भूकृ.पु । मंगाया। 'बट छीर मगावा।' मा० २.६४.३ मगु : मग+कए । मार्ग । 'सकल कहहिं मगु दीख हमारा।' मा० २.१०६.४ मगे : वि.पु. (सं० मग्न>प्रा० मग्न = मग्गय) । डूबे हुए । 'महेस आनंद रंग मगे।' पा०म०/० ११ मघवा : सं०० (सं० मघवन्) । इन्द्र । मा० २.३०१ मघवान : मघवा । 'सदस स्वान मघवान जुबानू ।' मा० २.३०२.८ मघा : सं०स्त्री० (सं.)। नक्षत्रविशेष (जिस पर सूर्य वर्षा में होता है)। मा० ६.७३.३ For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 832 तुलसी शब्द-कोशः मचत : वकृ० (सं० मचमान-मच कल्कने-कल्कनं दम्भः शाठ्यं च>प्रा० मच्चंत) । मचता=सघनता के साथ आडम्बरपूर्वक हो रहा । गी० ७.१६.४ मचला : भूकृ०० । मचल गया, हठ कर बैठा (बच्चों के समान लोट गया)। 'हौं मचला ले छोड़िहौं, जेहि लागि अर्यो हौं।' विन० २६७.३ मचलाई : सं० स्त्री० । मचल, बचकाना हठ । 'सागर सन ठानी मचलाई ।' मा० मचा : भूकृ०० (सं० मचित>प्रा० मच्चिअ) । मच गया, व्याप्त हुआ । 'सब __लंक ससंकित सोरु मचा।' कवि० ६.१५ मची : भूकृस्त्री० । मच गयी, लगातार हो चली । मा० १.१६४.८ मच्छर : मत्सर (प्रा०) । 'लोभ मोह मच्छर मद माना।' मा० ५.४७.१ मजा : सं०पु० (सं० मज्जन - मज्जा-हड्डी के भीतर का सार)। वृक्षादि के भीतर के सार से बना हुआ वर्षा का फेन जो मछली के लिए विषाक्त होता है । 'दीन मलीन छीन तनु डोलत, मीन मजा सों लागे।' कृ. ३५ मजूरी : सं०स्त्री० (फा० मज्दूरी) । दैनिक पारिश्रमिक पर सेवावत्ति । मा० २.१०२.६ मज्जत : वकृ.पु. (सं० मज्जत्>प्रा० मज्जंत) । डुबकी लगाता-ते । 'मज्जत पय पावन पीवत जलु ।' विन० २४.५ मज्जन : सं०० (सं.)। डुबकी, स्नान । मा० १.३.१ मज्जनु : मज्जन+कए । 'सोइ सादर सर मज्जन करई ।' मा० १.३६.६ मज्जसि : आ०मए० (सं० प्रा०) । डुबकी लेता है, तू नहाता है। 'तहँ मगन मज्जसि पान करि ।' विन० १३६.२ महिं : प्रा०प्रब० (अ०) । डुबकी लेते हैं, नहाते हैं । 'मज्जहिं सज्जन बृद बहु पावन सरजूनीर ।' मा० १.३४ मज्जा : सं०स्त्री० (सं.) । अस्थि-सार; हड्डी के भीतर का पीला सत्त्व ।' मा०. ६.८७ मज्जि : पूकृ० (अ०) । बुड़की लेकर, नहाकर । 'मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृदा।' मा० १.४५.२ मज्जित : भूकृ०वि० (सं०) । डुबाया हुआ । 'बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित ____ कर गहि उधर्यो।' विन० २३६.३ मझारी : क्रि०वि० (सं० मध्ये>प्रा. मज्झआरे>अ० मज्झआरि) । में, मध्य में, बीच में । 'कदि परा कपि सिंधु मझारी।' मा० ५.२६.८ मटुको : सं०स्त्री० (सं० मटची, मातिकी)। मृत्पात्र, मिट्टी का घड़ा या विशेष प्रकार की गगरी । कृ० ४० मठी : सं०स्त्री० (सं०) । मठ, आगार, आवास । गी० १.५.३ For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 833 मड़रानी : भूकृ० स्त्री० । मण्डलाकार उड़ी। 'छेमकरी-मंडल के मड़ रानी ।' गी० ६.२०.३ मढ़ : सं०० (सं० मठ>प्रा० मढ) । मकान । कवि० ६.१० मढ़ि : पूक० (सं० मठित्वा>प्रा० मढिअ>अ० मढि)। मढ़कर, आवृत कर । ___ 'कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं।' पा०म० ६६ मढ़ी : (१) मठी (प्रा.)। (२) भूक स्त्री० । आवृत । 'मंगल मोद मढ़ी मुरति ।' गी० १.५.३ मढ़े : भूक००ब० (सं० मठित>प्रा० मढिय)। आच्छादित । 'मढ़े स्रवन नहिं सुनत पुकार ।' गी० ५.१८.२ ।। महौं : आ०भ०उए । मढ़ाऊँगा-गी; आवृत कराऊँगा-गी । ‘सोने चोंच महौं ।' __गी० ६.१९.२ मणि : मनि (सं०) । 'भूमिपाल मणि ।' विन० ३६.१ मणे : मणि+सम्बोधन (सं.)। विन० २६.१ मत : सं०० (सं०) । (१) विचार । 'मोरें मत बड़ नाम दुहूंतें।' मा० १.२३.२ (२) सिद्धान्त । 'बेद पुरान संत मत एहू ।' मा० १.२७.२ (३) प्रस्ताव । 'मातु पितहि पुनि यह मत भावा ।' मा० १.७३.२ (४) मन्त्रणा । 'राम मातु मत जानब रउरें।' मा० २.१८.२ (५) दर्शन, पन्थ । दार्शनिक मान्यता । 'निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई ।' मा० ७.११०.१६ (६) गुप्त-अभिमत । 'मार खोज ले, सौंह करि, करि मत लाज न त्रास ।' दो० ४०६ (७) निश्चित अभिप्राय । राखति प्रान बिचारि दहन मत ।' गी० ५.६.३ मतंठा : सं०० (सं०) । हाथी । कवि० ७.४४ मतवारे : वि०पू०ब० (सं० मत्त>प्रा० मत्त=मत्तवाल)। मदिरा पीकर मतवाले, नशे में धुत्त । 'जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ।' मा० १.८६.३ मति : सं०स्त्री० (सं.)। मनन शक्ति । (१) बुद्धि, अन्तःकरण की निश्चयात्मक प्रज्ञा । 'लघु मति मोरि चरित अवगाहा।' मा० १.८.५ (२) अन्त:करण, चित्त । 'चाहत उठन करत मति धीरा।' मा० १.१६३.४ (३) विचार, समझ, सूझ-बूझ । 'मति हमारि असि देहि सुहाई।' मा० १.२४६.३ (४) कल्पनाशक्ति । 'दंभिन्ह निज मति कल्पि करि ।' मा० ७.६७ क (५) अव्यय (सं० मा+इति>प्रा० मत्ति) । मत, नहीं। 'अस बिचारि म ति सोचहि माता।' मा० १.६७.६ मतिगति : बुद्धि की चाल, प्रज्ञा की पहुंच । 'जब अंगदादिन की मति-गति मंद भई।' कवि० ४.१ मतिषीर, रा : स्थिर बद्धि वाला, स्थित निश्चयी, स्थिर प्रज्ञ। मा० १.१८५; ५३.२ For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 834 www.kobatirth.org तुलसी शब्द कोश मतिबिलास : बौद्धिक कल्पना, तर्क विस्तार । 'अपनिहि मतिबिलास अकास महँ चाहत सियान चलाई ।' कृ० ५१ मतिभ्रम : बुद्धि की चकराहट, अन्यथा प्रतीति, उलटा बोध, अयथार्थ प्रत्यय | 'हरहु नाथ मम मतिभ्रम भारी ।' मा० १.१०८.४ मतिमंद : बुद्धि में मन्द, क्षुद्रबुद्धि, विवेक में शिथिल बुद्धि वाला । मा० १.४६ मतु : मत + कए० । अद्वितीय सिद्धान्त 'तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ।' मा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. ६५.२ मतें : मत में, मन्त्रणा से । 'रहइ न नीच मतें चतुराई ।' मा० २.२४.८ मते : (सं० पद) । (१) मत में, मन्त्रणा में (सम्मिलित ) । ' मातु मते महुं मानि मोहि ।' मा० २.२३३ (२) (गुप्त मन्त्रणा के योग्य) एकान्त में । 'नृपहि मते सबु कहि समुझावा ।' मा० १.१७२.८ ( ३ ) मत + ब० । मान्यताएँ । बुध किसान, सर बेद, निज मते खेत, सब सींच ।' दो० ४६५ " तेई : सं ० स्त्री० (सं०] मातृका = धात्री) । (१) धाय । (२) विमाता ( उपमाता ) | 'काय मन बानीहूं न जानी के मतेई है ।' कवि० २.३ तो : तु । (१) अभिमत, सम्मति । 'सुनहि रावन मतो ।' कवि० ६.२० (२) मान्यता सिद्धान्त । 'एतो मतो हमारो ।' विन० १७४.४ मत्त: वि० (सं०) नशे में धुत्त, मतवाला + सुधबुध भूला हुआ । 'रन मदमत्त फिरइ जग धावा ।' मा० १.१८२.६ (२) लीन + मदयुक्त | 'गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा ।' मा० १.२१२.७ (३) मदयुक्त, मदजल बहाने वाला + मतवाला । 'मत्त मंजु बर कुंजर गामी ।' मा० १.२५५.५ मत्त-करि : मद बहाता हुआ मतवाला हाथी; मदकल । विन० ५६.७ मत्तभ: (मत्त + इभ) मत्तकारी । मा० ६ श्लोक १ मत्वा : पूकृ० (सं० ) । मानकर, विचार करके । मा० ७१३० श्लोक १ मत्सर : सं०पु ं० (सं०) । दूसरे की उन्नति से अकारण द्वेष = ईर्ष्या (परसंताप ) । मा० ३.४४.३ मथ मथइ : आ०प्र० (सं० मथति - मथ विलोडने ) । मथता है, मथे । 'मर्थ पानि पंकज निज मारू ।' मा० १.२४७.८ O मथत: वकृ०पु ं० । (१) मथता-ते । 'मानहुं मथत पयोनिधि बिपुल अपसराजूथ ।' गी० ७.२१.२० (२) मथते समय । 'मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु ।' मा० १.१३६.८ मथन : वि०पु० । मथने वाला । (१) मानमर्दनकारी । 'हर गिरि मथन निरखु मम बाहू ।' मा० ६.२८.८ (२) विनाशक । 'कलिमल मथन नाम ।' मा० ७.५१.६ मह : आ० प्र० । मथते हैं । 'मह सिंधु दुइ मंदर जैसें ।' मा० ६.४५.८ For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 835 मथा : भूकृ०० । मथ डाला (मसल-कुचल कर रख दिया)। 'सभा माझ जेहि तव बल मथा।' मा० ६.३७.३ मथानी : सं०स्त्री० (सं० मन्थानी) । मथने का उपकरणविशेष । मा० ७.११७.१५ मपि : पू० । मथ कर (बिलोकर)। 'सब मथि काढ़ि लेइ नवनीता।' मा० ___७.११७.१६ मथुरा : सं०स्त्री० । नगरीविशेष । मथें : मथने से । 'बारि मथें बरु होइ घृत ।' मा० ७.१२२ क मथे : मथें । 'बृथाः 'घृत हित मथे पाथ।' विन० ८४.२ मर्थ : मथइ । 'मुदितां मथै बिचार मथानी ।' मा० ७.११७.१५ मथ्यो : भूकृ००कए० । मथ डाला । 'जलनिधि खन्यो मध्यो बंध्यो।' गी० मद : सं०० (सं.)। (१) मद्य, सुरा । 'जिन्ह कृत महामोह मद पाना।' मा० १.११५.८ (२) मद्य का नशा । 'जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ।' मा० १.८६.३ (३) अहंकार । 'लोभ मोह मच्छर मद माना।' मा० ५.४७.१ (४) अहंकार+नशा । 'धन मद मत्त परम बाचाला ।' मा० ७.६७.३ (५) युवा हाथी के कान आदि के पास बहने वाला सुगन्धित द्रव । 'झूमत द्वार अनेक मतंग जंजीर जरे मद अंबु चुचाते ।' कवि० ७.४४ मदन : सं०० (सं०) । (१) कामदेव । मा० १.८५.५ (२) मोम । दे० मैन । मदनमोहन : कामदेव को मोहने वाला । गी० २.१६.१ मदनारी : (सं० मदनारि) कामशत्रु =शिवजी। मा० ७.५५.२ मदनार्क : (मदन+अर्क) कामदेव तथा सूर्य । विन०६०.२ मदनु : मदन+कए । अकेला कामदेव । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ।' मा० १.८७.१ मदपान : मद्य-पान । मा० २.१४४ मदमोचन : अहंकार रूपी नशा दूर करने वाला । गी० २.३६.३ मवहीन, ना : गर्व रूपी नशे से रहित। 'सावधान मानद मदहीना।' मा० ३.४५.६ मदा : मद । मा० ७.१४.१३ मदातीत : अभिमानरहित, निरहंकार । विन० ५६.६ मदादि, दिक : मद इत्यादि षड्वर्ग । मा० ३.४ छं०; ७.११७ घ मदिरा : सं०स्त्री० (सं.)। सुरा । मा० ६.६४.१ मदु : मद+कए । 'तजि इरिषा मदु कोहु ।' मा० १.२६६ मदोदरी : मंदोदरी । हनु० २७ For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 836 तुलसी शब्द-कोश मधु : सं०पु० (सं०) । (१) पुष्परस, मकरन्द । 'गुंजत मधुपनिकर मधु लोभा । *M मा० ४.१३.१ ( २ ) शहद । 'देति मनहुं मधु माहुर घोरी ।' मा० २.२२.३ (३) मिठास । 'जनक बचन मृदु मंजु मधु भरे । गी० १.६५.५ (४) मधुर । 'मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधासी । मा० २.२५०. १ 'अंगद संमत मधु फल खाए ।' मा० ५.२८.७ (५) मद्य, मदिरा । 'मनि भाजन मधु ।' दो० ३५१ 'प्रेम मधु छाके हैं ।' गी० १.६४. २ ( ६ ) वसन्त ऋतु । 'जनु मधु मदन मध्य रति लसई । मा० २.१२३. ३ ( ७ ) चैत्रमास । 'नोमी भोमबार मधुमासा मा० १.३४.५ (८) सृष्टि के आदिकाल में ( कैटभ का अग्रज) असुर विशेष । 'अतिबल मधु कैटभ जेहि मारे ।' मा० ६.६.७ (९) त्रेतायुग में एक राक्षस जो मधुवन में रहता था और शत्रुघ्न द्वारा मारा गया । "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मधुकर : सं०पु० (सं०) । (१) भ्रमर । मा० २.१३७.८ (२) मधुमक्षिका तद्यथा मक्षिका मधुकर राजानमुत्क्रामन्तं सर्वा एवोत्क्रामन्ते, तस्मिश्च प्रतिष्ठमाने सर्वा एव प्रातिष्ठन्त । ( प्रश्नोपनिषद् २.४) । मधुकर सरिस संत गुन ग्राही ।' मधुकरी : सं० स्त्री० (सं० ) । उपलों की आग पर सेंकी जाने वाली आटे की गोल | 'मागि मधुकरी खात जे ।' दो० ४६४ मधुकरु : मधुकर + कए० । एकाकी भ्रमर । 'पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ।" मा० १.१०० छं० मधुप : सं०पु० (सं०) । (१) मधु ( पुष्परस ) पीने वाला = भ्रमर । मा० १.१७.४ (२) मदिरा पीने वाला + भ्रमर । 'संभु सुक मुनि मधुप प्यास पदकंज मकरंद मधुपान की ।' विन० २०६.४ मधुपर्क: सं०० (सं० ) । दधि, घृत, शर्करा, मधु और जन्न का विशेष मिश्रण ( जो विवाह के पूर्व वर के स्वागत में अर्पित किया जाता है) । मा० १.३२३. छं० १ मधुपान : मधु ( पुष्प रस + मदिरा) का पीना । दे० मधुप । मधुपुरी : सं० स्त्री० (सं० ) । मथुरा नगरी जिसमें पहले मधु राक्षस रहता था जो रामानुज शत्रुघ्न द्वारा मारा गया ( इसका प्राचीन नाम 'मधुरा' था ) । कृ० ४७ मधुबन : सं० ० । (१) सुग्रीव (बाली) का रक्षित वन । मा० ५.२६.१ (२) त्रेता में मधु नामक राक्षस का वन, जिसकी नगरी मधुरा (मथुरा) थी । (३) मथुरा: नगरी । 'अब नंदलाल गवन सुनि मधुबन ।' कृ० २५ मधुर : वि० (सं०) । (१) मीठा । 'सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी ।' मा०२.८६.८ ( २ ) सुस्वादु । 'जो मन भाव मधुर कछु खाइ' मा० २.५३.१ (३) सरस, प्रिय, रुचिकर । 'तिन्ह कहुं मधुर कथा रघुबीर की ।' मा० १.६.६. (४) स्वर योजना में हृदय ग्राही । 'गारी मधुर स्वर देहि ।' मा० १.६६ छं For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 837 (५) द्रुति लाने वाला-ली; हृदय द्रावक । 'प्रभ हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ।' मा० १.२०१.८ (६) माधुर्य (काव्य गुण) से युक्त । 'कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।' मा० १.२२५.३ मधुरतर : अतिशय मधुर । विन० ५१.५ मधुरता : सं०स्त्री० (सं.)। माधर्य-मिठास, सरसता, स्वादिष्ठता आदि । मा० १.३६.६ मधुराधर : (मधुर-+अधर) सुन्दर सरस ओष्ठ । 'पुट सूखि गए मधुराधर वै।' कवि० २.११ मध्य : सं०+वि०पु० (सं.)। (१) देश-सीमा का केन्द्र । 'मध्य मंडप ।' मा० १.१०० छं० (२) काल सीमा का बीच । 'संबत मध्य ।' मा० १.१७४.३ (३) आदि और अन्त का बीच । 'नहिं तब आदि मध्य अवसाना ।' मा० १.२३५.७ (४) मझला-छोटे-बड़े के बीच का। 'नारि पुरुष लघु-मध्यबड़ेरे ।' मा० २.३१६.८ (५) उदासीन-जो न शत्रु हो न मित्र । 'बुझि मित्र अरि मध्य गति ।' मा० २.१६२ (६) भीतर । 'बसहु मध्य तुम्ह जीव असंका।' मा० ६.३४.३ (७) में । 'छबि ललना गन मध्य ।' मा० १.३२२ मध्य दिवस : (१) मध्याह्न (२) सम दिवस । 'मध्य दिवस अति सीत न घामा।' मा० १.१६१.२ मध्यम : वि० (सं.)। (१) बीच का, अन्तरालवर्ती । 'उत्तम मध्यम नीच लघु ।' मा० १.२४० (२) उदासीन-जो शत्रु या मित्र न हो । 'हित अनहित मध्यम।' मा० २.६२.५ मन : सं०पु० (सं० मनस्)। (१) अन्त:करण, चित्त । 'जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।' मा० १.१.४ (२) चित्त की संकल्प-विकल्प वृत्ति । 'मन मति रंक मनोरथ राऊ।' मा० १.८.६ (३) मनोभाव, भावना । 'राम भगत तुम्ह मन क्रम बानी।' मा० १.४७.३ (४) अन्तःकरण चतुष्टय में अन्यतम । दे० बुद्धि । (५) विराट तत्त्व के सन्दर्भ में समष्टि मनस् । मा० ६.१५ क मनक : सं०० (सं० मण =मणक) । चालीस सेर की तौल तथा उस तौल की वस्तु । ‘रतिन के लालाचन प्रापति मनक की। कवि० ७.२० मनकाम : सं०० (सं० मन:काम) । मनोरथ, इच्छा । मा० २.१०५ मनकामना : संस्त्री० (सं० मन:कामना) मनकाम । मा० २.१०३ मनजात : सं०पु. (सं० मनोजात) मनोज । कामदेव । मा० ३.३७ मनतेउ' : क्रियाति०पू०ए० । तो मैं मानता । 'पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ।' मा० ६.६१.६ मननशीला : वि०पू०ब० (सं० मननशीलाः)। मनीषी, चिन्तन परायण । 'शंभु सनकादि मुनि मननशीला ।' विन० ५२.१ For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 838 तुलसी शब्द-कोश मनपर : मन से परे, मन से अज्ञेय, अतीन्द्रिय । मा० ७.१३ छं०६ मनभंग : सं०० (सं० मनोभङ्ग)। (१) मन की टूटन, साहस का टूट जाना। (२) वदरिकाश्रम के मार्ग का एक पर्वत (जो पथिक के मनोबल को तोड़ देता है) । 'मान मन भंग, चितभंग मद, क्रोध लोभादि पर्वत दुर्ग ।' विन० ६०.६ मनभाई : मनचाही, मनोवाञ्छित । गी० ५.२६.३ मनभाए : मनचाहे । 'भए सकल मनभाए ।' गी० ६.२२.४ मनभायो : (दे० भायो) । मनचाहा । 'कीजै नाथ उचित मनभायो ।' विन. २४४.५ मनभावत : वि०पु । मन को भावित करने वाला, मनचाहा। तुम सों मनभावत पायो न के।' कवि० ७.३८ मनभावति, ती : मनभावत+ स्त्री० । मनचाही । 'बिहसि मागु मनभावति बाता।' मा० २.२६.७; १.३०८.६ मनभावतो : मनभावत+कए० । मनचाहा। 'मनभावतो धेन पय स्रवहीं । मा० ७.२३.५ मनभावा : भूकृ.पु । मनोनुकूल, मनचाहा । मा० २.२७.२ मनमथ : मन्मथ । कामदेव । विन० २६.३ मनमय : (दे० मय) मनरूपी+मनोमय कोश (पाँच ज्ञानेन्द्रिय+मन) अन्त: करण । 'तुलसिदास मनमय मारग में राजत ।' गी० २.३६.३ मनमानी : वि.स्त्री० । मनचाही । कृ० ४६ मनमोदक : मनोराज । मा० १.२४६.१ मनमोहनी : वि०स्त्री० । मनों को मुग्ध करने वाली । गी० १.३४.५ मनरंजन : वि.पु.। मन को रंगने (अनुरक्त करने) वाला । 'मनरंजन रंजित __ अंजन नैन ।' कवि० १.१ मनसहि : मनसा (इच्छा) में, भावना में । 'प्रभु मनसहिं लय लीन मनु ।' मा० १.३१६ मनसहुं, हु : मनसा से भी, भावना में भी। 'भोरेहुं भरत न पेलिहहुं मनसहुं राम रजाइ।' मा० २.२८६ मनसा : (१) सं०स्त्री (सं० मनस्या)। इच्छा, भावना । जिमि परद्रोह निरत मनसा के ।' मा० ६.६२.४ (२) (सं०) मन से । 'मनमा बिस्व बिजय कहें चीन्ही ।' मा० १.२३०.२ मनसि : (सं०) मन में । 'बसत मनसि मम कानन चारी ।' मा० ३.११.१८ मनसिज : सं०० (सं०) । मन में जन्म लेने वाला कामदेव । मा० १.८५ मनसिजु : मनसिज+कए । मा० १.३१६ छं० For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 839 मनस्वी : वि०० (सं० मनस्विन) । उदात्त मन वाला, दढ़ व्रत, स्थितप्रज्ञ, ज्ञानी, सतर्क, निपुण । विन० ५५.४ मनहरनी : वि०स्त्री० । मन को हरने वाली । गी० १ २८.३ मनहारी : वि०पू० (सं० मनोहारिन्) मनोहर । गी० २.५४.२ मनहि, हीं : मन में । 'तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा । मा० १.१४५.४ 'मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं।' मा० १.६३.३ मनहि : मन को । 'एहि प्रकार बलु मनहि देखाई।' मा० १.१४.१ मनहुं : (१) मन भी, मन से भी, मन में भी। 'तुलसी प्रभु गयो चाहत मनहुं तें।' कृ० ४३ । (२) उत्प्रेक्षार्थक अव्यय । मानों। 'ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।' मा० १.१५.६ मनहु : मनहुँ । मानों। मा० ६.२३ ङ मनहूं : मनहुं। मन में भी। 'जो मनहं न समाइ।' मा० ७.८० क मना : मन । 'सुनहि संतत सठ मना ।' मा० ५.६० छं० मनाइ : पूक ० (सं० मानयित्त्वा>प्रा० मणाविअ>अ० मणावि)। मना कर । (१) अभ्यर्थना करके । 'कहहिं मनाइ महेसु । मा० २.१ (२) उत्सव आदि मान कर, अनुभव कर । 'लोचन आजहिं फगुआ मनाइ ।' गी० ७.२२.७ मनाइऐ : आ०कवा०प्रए । मनाया जाय । 'जो परि पार्य मनाइए।' दो० ४३० मनाइबे : भकृ०० । मनाने, मनुहार करने । 'भरत मनाइबे को आवत हैं।' गी० २.४१.२ मनाइबो : भकृ००कए । मनाना, प्रार्थनापूर्वक अनुकूल करना। 'इनको भलो मनाइबो।' दो० ४६० मनाई : मनाइ । प्राथित कर । 'मागहिं हृदयं महेस मनाई।' मा० २.१५७.८ मनाए : भूक पुब० । प्रार्थित किए। 'नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ।' मा० १.२६०.३ मनाक : अव्यय (सं० मनाक्) । जरा सा, थोड़ा सा भी। औत पावै न मनाक सो।' कवि० ५.२५ मनाक : मनाक+कए । (विशेषणात्मक प्रयोग)। तुच्छ । जेहि हरगिरि कियो है मनाकु ।' गी० १.८६.२ मनाग : मनाक (सं० मनाग्) । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।' मा० १.१४५.४ मनाय : मनाइ । रा०प्र० ४.३.६ मनाये : मनाए । प्रार्थना करने से । 'देवता मनाये अधिकाति है।' हनु० ३० मनाव, मनावह : (१) आ० प्रए० (सं० मानयति>प्रा० माणावइ)। (२) (प्रा० मण्णावइ)। मनौती करता-ती है, अनुरोध करता-ती है+समझाता For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 840 तुलसी शब्द-कोश ती है । 'मनहीं मन मनाव अकुलानी ।' मा० १.२५७.५ 'सुर मनाव धरि धीर । मा० १.२५७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनाव : आ० उ० (सं० मानयामि - मान पूजायाम् > प्रा० माणावामि> अ० माणावउँ ) । पूजता हूं, प्रार्थित करता हूं । 'ता के जुग पद कमल मनावउँ ।' मा० १.१८.८ मनावत: वकृ०पु० । प्रार्थित करता-करते । 'अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं ।' मा० ७.२५.२ मनावति : वकृ० स्त्री० । मनाती, कामना करती । 'बैठी सगुन मनावति माता ।' गी० ० ६.१६.१ मनावन : भकृ० अव्यय । मनाने, अनुरोध करने । 'रामहि भरतु मनावन जाहीं ।' मा० २.१६२.६ मनावह हों : आ。प्रब० । (१) चाहते हैं । 'भरत आगमनु सकल मनावहि ।' मा० २.११.२ (२) सोचते या कल्पित करते हैं । 'बिघन मनावहि देव कुचाली । ' मा० २.११.६ (३) प्रार्थना करते हैं । 'सकल सिवहि मनावहीं।' जा०मं० छं० ७ मनि: सं० स्त्री० (सं० मणि) । (१) रत्न | मा० १.१.८ (२) सर्प मणि । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।' मा० १.३.१० (३) गजमुक्ता । सिधुर मनिमय सहज सुहाई ।' मा० १.२८८.७ (४) कौस्तुभ नामक रत्न । 'आपु रमा मनि चारु ।' मा० १.१३६ ( ५ ) मणि के समान = श्रेष्ठ (शिरोमणि ) । 'मंडलीक मनि रावन ।' मा० १.१८२ क मनिअत: मानित | माना जाता, संमान पाता । 'तुलसी-सो जग मनिअत महामुनि सो ।' कवि० ७.७२ मनिश्रारा : (१) वि०पु० (सं० मणिकार > प्रा० मणिआर) । मणियों को गढ़नेबनाने वाला । (२) (सं० मणि + आकर > प्रा० मणिआर) । मणियों खानों से युक्त | 'गिरिगन मनिआरा । मा० १.१९१.४ मनिकर्णिका : सं० स्त्री० (सं० मणिकर्णिका ) । काशी में गङ्गाजी का श्मशान घाट विशेष + तीर्थविशेष । विन० २२.५ मनिगन : विविध मणि-समूह । मा० २.१.४ मनिजटित : मणियों से गुम्फित । गी० ७.१६.३ मनिजाला : (१) मणिसमूह (२) मणियों की जाली । पदिक हार भूषन मनिजाला ।' मा० १.१४७.६ मनदीप : मणि का दीपक ( जो कभी न बुझे और न तले अँधेरा ही हो) । मा० १.२१ For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 841 मनिमंदिर : मणिजटित अथवा मणिरचित भवन (जिसमें सब ओर प्रतिबिम्बन हो) । मा० १.३५६.३ मनिमय : वि० (सं० मणिमय) । (१) मणि जटित । 'मनिमय रचित चारु चौबारे ।' मा० १.६०.८ (२) मणि निर्मित । ‘बेन हरित मनिमय सब कीन्हे ।' मा० १.२८८.१ (३) मणिरूप । 'दीप मनोहर मनिमय नाना।' मा० १.२८६.३ मनिहार : मणियों का हार, रत्नहार । मा० १.१६६.६ मनिमाल : मणियों की माला । 'मंजु बनी मनिमाल हिएँ ।' कवि० १.२ मनियत : मनिअत । विन० १८३.१ मनियां : मनि+ब । मणियाँ । 'कठुला कंठ मंजु गजमनियां ।' गी० १.३४.३ मनिहैं : मानिहैं>मानिहहिं । मानेंगे । 'भगत सिरोमनि मनिहैं।' विन० ६५.३ मनी : (१) मनि । 'चहुं पास बनि गजमनी ।' गी० ७.५.६ (२) सं०स्त्री० (सं० मणी =अजागलस्तन)। बकरी के गले में लटकते स्तनाकार मांसखण्ड के समान निरर्थक विषयाभिमान । 'होय भलो अजहं गये रामसरन परिहरि मनी ।' गी० ५३६.६ मनु : (१) सं०० (सं.)। मानव जाति के आदि पुरुष । मा० १.१४८.६ (२) मन+कए । 'भा मनु मगनु मिले जनु राम् ।' मा० २.१६७.४ (३) मनहुँ । मानों। 'नासिक कीरबचन पिक सुनि करि संगति मनु गुनि रहति बिचारी।' कृ० २२ मनुज : सं०० (सं०) । मनु-सन्तति =मानव, मनुष्य । मा० १.४६.१ मनुजमनुसृत्य : मनुष्यचरित का अनुसरण करके । विन० ५०.५ मनुजा : मनुज। मा० ७.१०२ छं० मनुजात : मनुज । (सं०)। मनुजाद, दा : वि०+सं०० (सं० मनुज+आद) । मनुष्य भक्षी, राक्षस । मा० ७.३६: ६.३३.६ . मनुजैर् : (सं०) मनुष्यों द्वारा। विन० ५५.८ मनुष्य : मनुज (सं.)। मा० ५ श्लो० १ मनुसाई : सं०स्त्री० (सं० मनुष्यता)। पौरुष, वीरता। 'मुएहिं बधे नहिं कछु __ मनुसाई ।' मा० ६.३१.१ मनुहारि, री : संस्त्री० (सं० मन्यहारिका-?>प्रा० मण्णहरिआ>अ. मण्णुहारी=मण्णुहारि) । दूसरे के रोषादि को दूर करने की क्रिया; अनुनयविनय । “पठवत नपन को मनुहारि ।' गो० ७.२६.२ 'क्यों सौंप्यो सारंग हारि हिय करी है बहुत मनुहारी।' गी० १.१०६.४ For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 842 तुलसी शब्द-कोश मने : वि० (अरबी-मन) । वजित । रोका गया । 'जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने।' विन० १६०.३ मनो : मनहुँ। मानों। 'स्याम सारस जुग मनो ससि स्रवत सुधा सिंगारु ।' कृ० १४ मनोगति : (१) संस्त्री० (सं.)। मनोदशा । 'दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी।' __ मा० २.३०२.६ (२) वि० । मन के समान तीव्र गति से युक्त --- अतिवेगशील । __ 'तीर्ख तुरंग मनोगति चंचल ।' कवि० ७.४४ मनोज : मनसिज (सं०) । मा० १.५०.३ मनोजनि : मनोज+संब० । कामदेवों (को) । 'लाल कमल जन लालत बाल मनोजनि ।' जा०म०६४ मनोभव : कामदेव ने । 'मनहुं मनोभवं फंद संवारे।' मा० १.२८६.१ मनोभव : मनोज (सं०) । कामदेव । मा० १.८६ छं० मनोभूति : मनोभव (सं.)। मा० ७.१०८.५ मनोमल : सं०पू० (सं.)। मन के मल (१) मायिक मल =अज्ञान । (२) कार्म मल = शुभाशुभ कर्म-वासना । 'आस पिआस मनोमल हारी।' मा० १.४३.२ मनोरथ : सं०० (सं.)। मनरूपी रथ =अभिलाष । मा० १.१.६ मनोरथ : मनोरथ+कए । एक मात्र इच्छा । 'मोर मनोरथु जानहु नीकें ।' मा० १.२३६.३ मनोरम : वि० (सं.)। मन को रमाने वाला=मनोहर । मा० १.३७.३ मनोराजु : (दे० राजु) मनोराज्य, दिवास्वप्न, असंभव कल्पनाओं से मन को मिथ्या सुख देने की क्रिया (मन ही मन राजा बनने की प्रवृत्ति)। 'मनोराजु करत अकाजु भयो आजु लगि ।' कवि० ७.६६ मनोहर : वि० (सं०) । मन को हरने वाला, मोहक, सुन्दर । मा० १.१५.१ मनोहरता : सुन्दरता से, में । 'मनोहरतां जिति मैनु लियो है। कवि० २.१६ मनोहरता : सं०स्त्री० (सं०) ! सुन्दरता, मनोमोहकता। मा० १.२४१.१ मनोहरताई : मनोहरता । मा० १.४०.८ मनोहरताउ : मनोहरता भी। 'निपट असमंजसहु बिल सति मुख मनोहरताउ।' ___ गी० ७.२५.४ मनोहरतया : मनोहरता । गी० १.६.३ । मनोहरायत : (१) मनोहर तथा चौड़ा (विशाल)। 'मनोहरायत उर ।' मा० ६.८६ छं० (२) आयताकार=लम्बाई के अनुपात में चौड़ाई वाला तथा सुन्दर । 'बापी तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।' मा० ७.२६ छं० For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 843 मनौ : मनहुँ । मानों । 'रावन कहें मनो चुनौती दीन्ह ।' मा० ३.१७ मन्मथ : सं०पु० (सं०) । कामदेव । मन्मथारी : (सं० मन्मथारि)। कामशत्रु =शिव । मा० ७.१०८.१२ मन्यु : सं०० (सं.)। रोष, अमर्ष । विन० ५७.५। मम : सर्वनाम (सं०) । (१) मेरा-मेरी-मेरे । 'सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा ।' मा० १.५१.८ (२) ममता (अपने पराये का भाव), नश्वर जागतिक विषयों के प्रति अपनेपन की बुद्धि । 'अहमम मलिन जनेषु ।' मा० २.२२५ ममता : सं०स्त्री० (सं०) । (१) आत्मीयता, मेरेपन की भावना जो स्नेह, कृपा आदि से होती है-सात्त्विक निजत्व । 'जेहि जन पर ममता अति छोहू ।' मा० १.१३.६ (२) राग, विषयों के प्रति राजस-तामस स्वत्व भावना । 'ममता केहि कर जस न नसावा ।' मा० ७.७१.२ ममताहन : (दे० हन)। आसक्ति मूलक ममत्व बुद्धि का नाशक । मा० ७.५१.६ मम्ले, मम्लो : आ० भूतकाल-प्रए० (सं०)। मुरझाया, कुम्हलाया। मा० २ श्लो० २ मयं : मयदानव ने । 'सोइ मयं दोन्हि रावनहि आनी ।' मा० १.१७८.३ मय : (क) सं०० (सं.) । एक दानव =मन्दोदरी का पिता। मा० १.१७७.६ (ख) प्रत्यय । (१) विरचित । 'अमिअ मूरिमय ।' मा० १.१.२ (२) पूर्ण, ओत-प्रोत । 'मोहिमय जग देखा।' मा० ३.१६.३ (३) एकरूप, तद्रूप, अभिन्न.। 'बिधि हरि हरमय बेदप्रान सो।' मा० १.१६.२ मयंक, का : सं०० (सं० मृगाड क>प्रा० मयंक) । चन्द्रमा । मा० १.२२१.५; ५.२३.२ मयंद : सं०० (सं० मृगेन्द्र>प्रा० मइंद) । (१) सिंह । (२) एक वानरयूथप । मा० ५.५४ मयंद : मयंद+कए । 'अंगदु मयंदु नल नील बलसील महा।' कवि० ५.२६ मयतनयां : मन्दोदरी ने । 'मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ।' मा० ५.१०.७ मयतनया : मयदानव की पुत्री = मन्दोदरी। मयत्री : मइत्री। (१) मित्र भाव, सखित्व । 'तेहि सन नाथ मयत्री कीजे ।' मा० ४.४.३ (२) योग में चित्त की निर्मलता का साधन विशेष जिसमें सुखी जनों के प्रति ईर्ष्याहीन सम्बन्ध बनाने का उपदेश है। ईर्ष्या-द्वेषादि-रहित मनोदशा। 'श्रद्धा छमा मयत्री दाया।' मा० ३.४६.४ मयन : मदन (प्रा० मयण)। (१) कामदेव । मा० २.१४०.७ (२) मोम । दे० मैन। मयनंदिनी : मयतनया । कवि० ६.२१ For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .844 तुलसी शब्द-कोश मयनपुर : कामदेव का नगर । गी० २.४७.८ मयना : मेना ने । 'पुनि गहे पद पाथोज मयनां ।' मा० १.१०१ छं० मयना : सं०स्त्री० (सं० मेना) । पार्वती की माता । मा० १.६६.१ मयसुता : मयतनया । मा० ६.८.१ मया : सं०स्त्री० (सं० ममता>प्रा० ममया) । स्नेह, ममत्व । 'जानकीनाथु मया करिहै ।' कवि० ७.४७ मयूख न्हि : मयूख+संब० । किरणों (से) (सं० मयूख = किरण) । 'बिधु महि पूर मयूखन्हि ।' मा० ७.२३ मयूर : सं०० (सं.)। मोर पक्षी। दो० ३३२ मर : मरइ । मर सकता है । 'उमा काल मर जाकी ईछा ।' मा० ६.१०२.३ मरंद : मकरंद (सं.)। पियत राम मुखारबिंद मरंद ।' गी० ७.२३.३ मरंदु : मरंद+कए० । 'अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु ।' कवि० १.२ /मर, मरइ, ई : आ.प्रए० (सं० म्रियते>प्रा० मरइ)। मरता है, प्राण त्याग करता है । मा० ६.१०२.२; ६६.५ मरउँ, ऊ : आ०उए० (अ०) मर रहा हूं, मरा जा रहा हूं। 'दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ।' मा० ४.२७.३ मरकट : मर्कट । मा० ४.४.४ मरकत : सं०० (सं.)। हरित मणिविशेष । मा० १.२८८ मरकतमय : (दे० मय) मरकत मणिस्वरूप, मरकत-तुल्य । 'मरकतमय साखा सुपत्र ।' कवि० ७.११५ मरक्कत : मरकत । कवि० ६.५१ मरजाद, दा : सं०स्त्री० (सं० मर्यादा) । (१) सीमा। 'सुदरता मरजाद भवानी।' मा० १.१००.८ (२) आचार पद्धति । ‘मरजाद तजि भए सकल बस काम ।' मा० १.८४ (३) व्यवस्था, विधान । 'मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।' मा० ५.५६.५ (४) परम्परागत नियम । 'निमि नप के मनजाद मिटाई ।' गी० १.१०८.६ मरजादा : मर्यादा में, सीमा में । 'सागर निज मरजादा रहहीं।' मा० ७.२३.६ मरत : (१) वकृ० । मरता-मरते; मरणान्तिक कष्ट सहता (ते)। 'मन मृग मरत जहाँ तहँ धाई।' कृ० २६ (२) मरते समय । 'मरत न मैं रघुबीर बिलोके ।' गी० ३.१२.३ मरतहुं, हु : मरते समय भी। 'मरतहुं लगी न खोंच ।' दो० ३०२ 'मरतहु और सँभार्यो।' गी० ३.६.१ मरती : (१) वकृ०स्त्री० । प्राण त्याग करती। (२) मरने की । 'निज तन प्रगटेसि मरती बारा।' मा० ६.५८.५ For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 845 मरतेउँ : क्रियाति०० उए । मैं मारता । 'बढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही।' मा० ६.४६.३ मरती : क्रियाति ००ए० । मर जाता । 'मरतो कहाँ जाइ को जाने ।' गी० ५.२८.८ मरदन : मर्दन । गी० २.१८.३ मरन, ना : (१) संपु० (सं० मरण)। मृत्यु । मा० १.४६.१ (२) भकृ० अव्यय । मरने । 'लागे अमर मरन ।' विन० २४८.३ मरनसोलु : वि० (सं० मरणशील) कए। म्रियमाण, मरणोन्मुख । 'मरनसीलु जिमि पाव पियूषा ।' मा० १.३३५.५ मरनिहार : वि.पु.। मरणोन्मुख । 'अब यहु मरनिहार भा सांचा।' मा० १.२७५.४ मरनु : मरन+कए । 'होइ मरन जेहिं बिनहिं श्रम ।' मा० १.५६ मरब : भक०० (सं० मर्तव्य>प्रा० मरिअव्व) । मरना । 'भूपति जिअब मरब उर आनी ।' मा० २.२८२.७ मरम : मर्म । (१) तत्त्व, यथार्थ स्वरूप (रहस्य) । 'मरम न जाने कोई ।' मा० १.१८६ छं० १ (२) गुप्त भेद । 'जब तेहिं जानेउ मरम ।' मा० १.१२३ (३) मारक अङ्ग (जिस पर प्रहार से मृत्यु हो सके) । 'मरम ठाहरु देखई ।' मा० २.२५ छं० (४) दुर्बल तथ्य की ओर संकेत । 'मरम बचन सीता जब बोला ।' मा० ३.२८.५ मरमु : मरम+कए० । एकमात्र रहस्य । 'सती न जानहिं मरम सोइ ।' मा०. १.४८ ख मरसि : आ०मए० (सं० म्रियसे>प्रा. मरसि) । तू मर रहा है । 'बिनु जाने कस मरसि पिआसा। विन० १३६.२ मरहिं, ही : (१) आ०प्रब० (अ.)। मरते हैं, मर सकते हैं । 'हरि बिनु मरहिं ने निसिचर पापी ।' मा० १.२०६.५ (२) उए । हम मर रहे हैं । लाज हम मरहीं।' मा० ६.११८.६ (३) हम मर सकें । 'हम काहू के मरहिं न मारें।" मा० १.१७७.४ मरहुं : आ०-कामना-प्रब० ! मरें, मर जायें । 'असही दुसही मरहुं मनहिमन ।' गी० १.२.१० मरहु : आ०मब० (अ०) । मरते हो, मरो। 'ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई ।' मा० १.२४६.१ मरा : (१) भूकृ०० (सं० मृत) । मर गया। (२) 'राम' का उलटा 'मरा। 'राम बिहाइ मरा जप तें बिगरी सुधरी कबि को किलहू की।' कवि० ७.८६ For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 846 तुलसी शब्द-कोश मराएँ : मरवाने से, प्राणघात करवाने से । 'बनिहि सो मोहि मराएँ ।' मा० ४.२२.८ मराएन्हि : आ०-भूकृ०+प्रब० । उन्होंने मरवा डाला । 'पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही।' मा० १.७६.८ मरायल : वि०० (सं० मारित>प्रा० मराविल्ल)। मारे हुए । 'सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल ।' मा० ६.९७.६ मराल : सं०० (सं०) । हंस । मा० १.१४ ग मरालन्हि : मराल+संब० । हंसों। 'बाल मरालन्हि के कल जोटा।' मा० १.२२१.३ मराला : मराल । मा० १.३.१ मरालिके : मरालिका+संबोधन (सं० मराली=मरालिका)। हे हंसि । 'मुनि मानस मरालिके ।' कवि० ७.१७३ मरालिनि : मराली। गी० ३.७.२ मराली : मराली+ब० । हसियाँ । 'परी बधिक बस मनहुँ मरालीं।' मा० २.२४६.५ मराली : (१) सं०स्त्री० (सं०) । हंसी । मा० २.२०.४ (२) हंस सम्बन्धी (सं० माराली) । 'चलो मराली चाल ।' दो० ३३३ मरालु : मराल+कए० । 'मराल होत खूसरो।' कवि० ७.१६ मरि : पू० (अ०)। मर (कर)। 'जो तरजनी देखि मरि जाहीं।' मा० १.२७३.३ मरिअ, य : आ०भावा० । मरा जाय। 'मारे मरिअ जिआएं जी जै।' मा० ३.२५.४ मरिबे : भक००। मरने योग्य, मरना । 'एक बार मरिबे हो।' कृ० ३६ मरिबेई : मरने ही। 'मरिबेई को रहतु हौं।' कवि० ७.१६७ मरिबो : भक००कए । मरना। मरिबोइ, ई : मरना ही । 'मरिबोई रहो है ।' कवि० ७.६१ मरिय, ये : मरिअ । 'कत पचि पचि मरिये ।' विन० १८६.६ मरिहउँ : आ०भ० उए० (सं० मरिष्यामि, मारयिष्यामि>प्रा० मरिहिमि. मारिहिमि>अ० मरिहिउँ, मारिहिउँ)। मरूंगा+मारूँगा। 'देहउँ साप कि मरिहउँ जाई ।' मा० १.१३६.३ मरिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० मारयिष्यन्ति>प्रा० मारिहिति>अ० मारिहिहिं)। मारेंगे । 'तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं राम सुजान ।' मा० ६.६६ यह दूषित प्रयोग है क्योंकि इसका 'मरेंगे' अर्थ भी आता है- (सं० मरिष्यन्ति>प्रा. मरिहिंति>अ० मरिहिहिं)। For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 847 मरिहि : आ०भ०प्रए० (सं० मरिष्यति>प्रा० मरिहिइ)। मरेगा। 'केहि बिधि मरिहि देव दुख दाता।' मा० ६.६६.४ मरिहैं : (१) (दे० मरिहहिं) मरेंगे, मर जायेंगे। 'मुए मरत मरिहैं सकल ।' दो० २२४ (२) ऊब जायंगे, निढाल हो जायेंगे। 'मिटिहि न मरिहैं धोइ ।' दो० ३८६ मरिहै : मरिहि । 'तजि सोइ सुधा मनोरथ करि करि को मरिहै री माई ।' कृ० ५१ मरीच : मारीच । हनु० ३६ मरु : (१) सं०० (सं०) । बालू का ऊजड़ लम्बा मैदान, मरुस्थल । 'मरु मारव महिदेव गवासा ।' मा० १.६.८ (२) आ०-आज्ञा-मए० (अ.) । तू मर जा । 'मरु गर काटि निलज कुलघाती । मा० ६.३३.४ मरुत : सं०० (सं० मरुत्) । (१) वायु । 'चलेउ बराह मरुत गति भाजी।' मा० १.१५७.१ (२) मरुद्वण-देवविशेष-जिनकी संख्या ४६ है। 'चले मरुत उनचास ।' मा० ५.२५ (३) देव जातिविशेष । विन० १०.६ मरुतसुत : वायु पुत्र हनुमान् । मा० ६.७६.६ मरुदंजना : मरुत् =वायु तथा अञ्जना। हनुमान के पिता-माता । विन० २७.२ मरुदग्नि : वायु तत्त्व तथा तेजस्तत्त्व (वायु और अग्नि) । विन, ५४.२ मरुभूमि : मरुस्थल, रेगिस्तान (दे० मरु) । मा० २.२२३.८ मरे : भूकृ•पु०ब ० (सं० मृत>प्रा० मरिय) । मृत हुए। 'दुइ सुत मरे ।' मा० ६.३७ मरे : (१) मरइ । मरे । मर सकता हो । 'मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।' हनु० २० (२) कष्ट उठाए । 'सेवत जन्म अनेक मरै ।' कवि० ७.५५ (३) भकृ० अव्यय । मरना । 'जिए मरै भल भूपति जाना ।' मा० २.१६६.८ मरंगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । समाप्त होगी। बांह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी।' हनु० २५ मरो : आ० -आज्ञा-प्रए । वह मरा करे, कष्ट उठाता रहे । 'फिरि फिरि पचि मरै, मरो सो।' विन० १७३.६ मरोरि, री : पूकृ० । मरोड़ कर, ऐंठ-तोड़ कर । 'लात घात ही मरोरि मारिये।' हन ० २३ 'भजे भुजा मरोरी।' मा० ६.६८.६ मरौं : मरउँ । मरूं, मृत्यु पाऊँ । 'रामदूत कर मरौं बरु ।' मा० २.५६ मरौ : मरो । 'कोटिक कलेस करो, मरौ छार छानि सो।' कवि० ७.१६१ मर्कट : सं०० (सं०) । वानर । मा० ५.१८ । मर्कटाधीश : (१) वानर राज =सुग्रीव । (२) वानरों में श्रेष्ठ हनुमान जी। विन० २६.१ For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 848 तुलसी शब्द-कोश 'मर्द, मर्दइ : आ०प्रए० (सं० मृद्नाति-मर्दयति) । मीज डालता है, कुचल__ मसल देता है । 'गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।' मा० ५.१६.६ मर्दन : वि० । विनाशकर्ता । 'मर्दन निसाचर धारि ।' मा० ६.११३.२ महिं : आ.प्रब० । मसल-कुचल डालते हैं, उच्छिन्न कर देते हैं । 'एक एक सों मर्दहिं ।' मा० ६.४४ मर्दहु : आ०मब० । मसल डालो। 'मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ।' मा० ६.७९.११ मर्दा : भूक०० । मसल डाला। 'कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा ।' मा० ६.६७.३ मदि : पूकृ० । मसल-घिस कर । 'रच्छक मदि मदि महि पारे ।' मा० ५.१८.४ मर्देसि : आo-भूक००+प्रए०। उसने मसल दिये। 'कछु मारेसि कछु मर्देसि ।' मा० ५.१८ मर्दै : भकृ. अव्यय । मसलने । 'लागे मर्दै भुज बल भारो।' मा० ६.४४.७ ।। मर्म : (दे० मरम) सं०० (सं० मर्मन्)। रहस्य। 'पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म । 'मायाच्छन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म।' मा० ३.३६ क मर्मी : वि.पु. (सं० मार्मिक)। मर्मज्ञ । (१) तत्त्व का ज्ञाता, तत्त्वनिपुण । रहस्यज्ञ । 'मर्मी सज्जन सुमति कुदारी।' मा० ७.१२०.१४ (२) गुप्त बातों का जानने वाला। मा० ३.२६.४ मर्यो : भूक.पु.कए० । मर गया। रिपुदल लरि मर्यो।' मा० ३.२० छं० मल : सं०० (सं.)। (१) कीचड़, धूल, मोरचा आदि । (२) माया तथा कर्म वासना (मनोमल)। 'जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।' मा० १.१.४ (३) दोष, पाप । 'कलिमलहारी।' मा० १.११.६ मलजुग : मलों का युग=पापयुग=कलियुग । विन० १४६.४ मलमार : वासनारूपी पङ क का बोझ । विन० ८२.३ मलमूल : पाप का मूल कारण, लाञ्छनदायी, कलङ कयक्त । गी० २.६०.३ मलय : सं०० (सं.) । (१) दक्षिण भारत का एक पर्वत जहाँ चन्दन वन कहा गया है । 'दारु बिचारु कि करइ कोउ, बंदिअ मलय प्रसंग।' मा० १.१० क (२) चन्दन वृक्ष (सं० मलयज)। 'काटइ परसु मलय सुनु भाई ।' मा० ७.३७.८ मलयरेनु : चन्दन चर्ण । गी० ७.२२.३ मलयानिल : मलयगिरि से आने वाला चन्दन गन्धयुक्त दक्षिण-समीरण; वसन्त समीर । गी० २.४८.४ मलरुचि : वि० (सं०) । मलिन विषयों में रुचि वाला । विन० २२.४ मलहर : कलुषरूपी पङक मिटाने वाला । मा० ५.६० छं. For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश मलाई : सं० स्त्री० ( फा० बालाई ) । गर्म दूध के ऊपर जमने वाली पर्त = साढ़ी | 'खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई है ।' कवि० ७.७४ मलाकर : वि० (सं० ) । कलुषरूपी कीचड़ की खानि; अतिपापी । मा० ६.७१ मलान, ना : भूकृ०वि०पु० (सं० म्लान > प्रा० मलाण ) । कुम्हलाया हुआ, क्लेशयुक्त, आभाहीन, अप्रसन्न । 'मनु जनि करसि मलान ।' मा० २.५३ मलानि : (१) मलान + स्त्री० । मुरझायी, खिन्न । 'लखि नई गति भइ मति मलानि । गी० ५.७.१ (२) सं० स्त्री० (सं० म्लानि > प्रा० मिलाणि) । मुरझाहट, खेद । 'भई कछुक मलानि ।' गी० ७.२८.३ मलापहा : वि०स्त्री० (सं० ) । मलों का नाश करने वाली । 'कीरति सकल लोक मलापहा ।' गी० ७.१६.५ 849 मलायतन : मलाकर । मा० ६.१२१ ख मलायन : मलाकर । मा० ७.३९.५ 1 1 मलार : सं०पु० (सं० मल्लार) । संगीत में रागविशेष । गी० ७.१८.५ मलिन : वि० (सं०) । (१) कुवासनादिरूपी पङ्कयुक्त । 'मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ।' मा० १.७.४ (२) धूल या कीचड़ से सना । 'मुकुट मलिन अरु नयन बिहीना ।' मा० १.११५.४ (३) आभाहीन ( विषादग्रस्त ) । 'खल भए मलिन ।' मा० १.२६५.१ मलिनमति : सदोष बुद्धि वाला, कलुष विचारों वाला । मा० १.२८.११ मलिना : सं० स्त्री० (सं० मलिनता > प्रा० मलिणाया ) । हनु० ३५ मलिनिया : सं० स्त्री० (सं० मालिनी = मालिनिका > प्रा० मालिनिया) । माला गूंथने वाला, माली जाति की स्त्री । रा०न० ७ मलीन, ना : मलिन । मा० १.२३७; १.२७.४ मलीनता : मलिनाई (सं० मलिनता ) । दोष, गन्दगी । कवि० ७.६२ मलोनी : मलीन + स्त्री० । मलयुक्त, दूषित । मा० २.२२३.६ मलीने : मलीना + ब० । आभाहीन, दूषित, विषादग्रस्त । मिटा मोदु मन भए मलीने । मा० २.११८.७ For Private and Personal Use Only मलु : मल + कए० । पङ्क, दोष । 'बढ़त मोह माया मलु ।' विन० २४.१ मलेछ : सं०पु ं० (सं० म्लेच्छ > प्रा० मिलेच्छ) । पापी, बधिक ( गोमर ) । 'जिमि मलेछ बस कपिला गाई । मा० ३.२६.८ मल्लजुद्ध : कुश्ती, दो में लड़ाई, मुष्टिका आदि ( दाँव-पेंच) की लड़ाई । मा० ६.६४ छं० महाइ, ई : पूकृ० । दुलरा कर, पुचकार कर । 'कहति मल्हार मल्हाई ।' गी० १.१६.५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 850 तुलसो शब्द-कोश मल्हावती : वकृ०स्त्री० । दुलराती । 'बालकेलि गावती मल्हावती सुप्रेम भर ।' गी० १.३३.४ मल्हावहिं, हीं : आ०प्रब० । दुलराती हैं। 'मधुर झुलाइ मल्हावहीं ।' गी० १.२२.१० मवासे : सं.पु०ब० (सं० अमावास = साथ-साथ निवास)। शिविर, स्कन्धावार, सैनिक गढ़ । 'मनहुं मवासे मारि कलि राजत सहित समाज ।' दो० ५५८ मशक : सं०० (सं.)। मच्छर । विन० ५६.७ मष्ट : चुप, मौन (मुंह बन्द)। 'मष्ट करहु, अनुचित, भल नाहीं।' मा० १.२७८.४ मसक : मशक । (१) मच्छर । 'मसक दंस बीते हिम त्रासा।' मा० ४.१७.८ (२) चमड़े की भाथी, खलायत (सं० मशक)। 'मसक फूंक बरु मेरु उड़ाई।' मा० २.२३२.३ (यहाँ दोनों अर्थ सम्भव हैं।) मसकतु : वकृ००कए० । मसक से फुहारें डाल कर भिगोता, मसकारता । 'तुलसी उछलि सिंधु मेरु म सकतु है ।' कवि० ६.१६ मसखरी : सं०स्त्री० (फा० मस्खरगी= दिल्लगी)। हास-परिहास, भंड़ती। मा० ७.६८.६ मसान : सं०० (सं० श्मशान>प्रा० मसाण)। मरघट । मा० २.८३.७ मसानु : मसान+कए । 'जागति मनहुं मसानु ।' मा० २.३६ मसि : सं०स्त्री० (सं०) । (१) कज्जल । 'भ्रू पर मसि बिंदु बिराजत ।' गी० १.२२.६ (२) स्याही, कज्जली-लेखनोपकारी द्रव पदार्थ । 'लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।' मा० १.७.११ (३) लेप करने वाला रंग । 'जनु मुहँ लाइ गेरु मसि भए खरनि असवार ।' गी० २.४७.१५ (४) पराजय, अपमान आदि की सूचक स्याही या भासी । 'जमगन मुहँ मसि जग जमुना सी।' मा० १.३१.११ (५) (सं० श्मश्रु>प्रा० मस्सु) । मूछ-दाढ़ी की रोम रेखा । 'उठति बयस मसि भीजत ।' गी० २.३७.२ मसीत : सं०स्त्री० (अरबी-मसजिद) मुसलमानों के सिज्द: करने (ईश्वर-नमन) का स्थान (इबादतगाह) । कवि० ७.१०६ मस्तक : सं०पु० (सं०) । मत्था, ललाट । मा० २ श्लोक १ महँ : परसर्ग । में 'एहि मह रघुपति नाम उदारा।' मा० १.१०.१ (दे० महिं) । महंगे : वि.पुब० (सं० महाघ>प्रा० महग्ध =महग्धय) । अधिक मूल्य वाले । ___'महंगे मनि कंचन किए।' दो० १४६ महंगो : वि०पु०कए० (सं० महार्घः>प्रा० महग्घो) । अधिक मूल्य से प्राप्य । सो तुल्यसी महँगो कियो।' दो० १०८ महतारी : महतारी । हनु० २७ For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्द-कोश 851 महत : (१) सं०पु० (सं० महत्त्व>प्रा० महत्त)। महिमा, शक्ति, औदात्य । 'मुनि मम महत-सीलता देखी।' मा० ७.११३.४ (२) वि०+क्रि०वि० (सं० महत्) अधिक । 'कलि को कलुष मन मलिन किए महत ।' कवि० ७.६६ (३) वकृ०० (सं० मथत्>प्रा० महत) । मथता-ते; बिलोता-ते। 'पायो केहि घृत बिचारु हरिन-बारि महत ।' विन० १३३.५ महतत्त्व : सं०० (सं० महत्तत्त्व) । प्रकृति का आदि परिणाम बुद्धि तत्त्व जिससे अहंकार की सृष्टि होती है और अहंकार से शेष तत्त्व परिणाम लेते हैं। यही महत्तत्त्व समष्टिरूप से सात्त्विक, राजस और तामस भागों में विष्णु, ब्रह्मा और शिव नाम (सांख्य में) पाता है। प्रकृति महतत्त्व शब्दादि गुण देवता ब्योम मरुदग्नि अमलांबु उ: ।' विन० ५४.२ महतारी : (१) माताएँ। 'अति आनंद मगन महतारी ।' मा० १.२६५.४ (२) माताओं ने । 'कोसल्यादि राम महतारी । प्रेम बिबस तन दसा बिसारी ।' मा० १.३४५.८ महतारी : सं० स्त्री० (सं० महत्तरार्या>प्रा० महत्तरारिया) माता। मा० २.४२.६ (किसी भी सम्मान्य स्त्री के लिए प्रयोग चलता है ।) महदादि : गोस्वामी जी के (वैष्णव) दर्शन में ३० तत्त्व हैं-माया =मूल प्रकृति; जीव=पुरुष; स्वभाव; गुण त्रिगुण ; काल; कर्म और २३ महत् आदि तत्त्व । सांख्य दर्शन में महत् आदि तत्त्वों की व्यवस्था दी गई है :मूल प्रकृति का परिणाम महत-तत्त्व है (दे० महतत्त्व)। उससे अहंकार परिणत होता है । अहंकार के सात्त्विक भाग को 'वैकृत अहंकार' कहते हैं। तामस भाग को 'भूतादि अहंकार' और राजस को 'तेजस' कहा जाता है । 'तैजस अहंकार' शेष दोनों का सहयोगी रहता है ओर तब वैकृत से ११ तत्त्व परिणाम लेते हैं-मन, पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कर्मेन्द्रिय । 'भूतादि' से पाँच तन्मात्र परिणाम पाते हैं-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-ये सूक्ष्मभूत अथवा पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय कहे गये हैं । सूक्ष्म भूत ही स्थूल रूप में महाभूत बनते हैं--आकाश, तेज, जल, पृथ्वी और वायु । इन २६ तत्त्वों में ईश्वर को जोड़ने से ३० तत्त्व होते हैं । ईश्वर शेष तत्त्वों से विशिष्ट है-वह शेषी अथवा अंशी है, शेष सब उसके अंश तथा शरीर रूप हैं । 'माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि ।' दो० २०० महन : मथन (प्रा० महण)। महनु : महन+कए। (१) मथन, विनाश । 'मयन महनु पुरदहनु गहनु जानि ।' कवि० १.१० (२) विनाशक । 'अनंग को महनु है ।' कवि० ७.१६० महर : सं०० (सं० महत्>प्रा० महल्ल) । महाजन =नन्दगोप । कृ० ३८ For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 852 तुलसी शब्द-कोश महराज : महाराज । गी० ५.३४.३ महरि : महर+स्त्री० । यशोदा (के लिए प्रयुक्त) । कृ० २ महल : सं०० (सं० महल्ल) । प्रासाद, रनिवास, विशाल भवन । (अरबी-महल) उतरने की जगह, मकान । विन० १५७.४ महाँ : मह । में । 'प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ ।' कवि० ७.८ महा : वि० (सं० महत्) । (१) बड़ा, विशाल (समासादि में) । 'महासल' । मा.. ६.५१.२ 'महासिंधु'। मा० ७.११५.४ ‘महासायक' । मा० २ श्लोक ३ 'महासुख'। मा० १.२४४.८ 'महाछबि'। मा० १.२४४.२ इत्यादि । (२) (असमस्त प्रयोग) 'महा महा मुखिआ जे पावहिं ।' मा० ६.४५.१ महाकाल : संहारकर्ता=रुद्र । मा० ७.१०८.४ (उज्जयिनी के महाकाल) महागद : (महा+अगद) महान् औषध । 'भवरोग महागद मान अरी। मा०. ७.१४.१८ महाजन : (१) बहुत लोग । 'नृप करि बिनय महाजन फेरे ।' मा० १.३४०.१ (२) बड़े लोग । मुख्य जन । 'सचिव महाजन सकल बोलाए। मा० २.१७१.२ मह-तप : विशाल तपस्या । मा० १.१८७.३ महातम : (१) सं०० (सं० माहात्म्य) । महिमा। 'कहत महातम अति अनुरागा।' मा० २.१०६.४ (२) (सं० महातमस्) । घोर अन्धकार । 'मनो रासि महातम तारकर्म ।' कवि० २.१३ महादेव : (१) बड़ा देव (२) शिव । मा० १.८० महाद्रुमायुध : विशाल वृक्षों के आयुधों से लैस । मा० ६.७९ छं० महाधन : वि० (सं.)। बहुमूल्य । कर कंकन केयूर महाधन ।' गी० ७.१६.५ महान : (१) वि०० (सं० महत्-महान्) विशाल । (२) विष्णु । 'अहंकार सिव, बुद्धि अज, मन ससि, चित्त महान ।' मा० ६.१५ क महानद : महानद+कए । विशाल नद । मा० १.४०.२ महानल : विपुल अग्नि । 'जरत महानल जनु घृत परा ।' मा० ६.२७.८ महानाटक : हनुमन्नाटक (जिसके रचयिता हनुमान जी कहे जाते हैं)। विन.. २६.३ महानाद : विशाल शब्द । 'महानाद करि गर्जा ।' मा० ६.६६ महानिधि : बहुत बड़ी निधि । मा० १.२०६.३ महाबन : गहन विशाल वन । मा० १.१५७.८ महाफलु : (दे० फल) । एकमात्र परम पुरुषार्थ = मोक्ष। विन० २४.५ महाबल : वि० (सं०) अत्यन्त बलशाली। 'दनुज महाबल मरइ न मारा ।" मा० १.१२३.६ For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 853 महबीर : (१) अत्यन्त शूर । 'महाबीर बलवान ।' मा० १.१२२ (२) हनुमान । मा० १.१७.१० महावृष्टि : अतिवृष्टि, अतिशय वर्षा । मा० ४.१५.७ महाब्याल : बहुत बड़ा सर्प । गी० १.६२.३ महामट : महाबीर । मा० ५.१६.६ महाभटमानी : (दे० भटमानी)। अपने को बहुत बड़ा वीर समझने वाला (वीर पुरुषम्मन्य) । 'अहो मुनीसु महाभटमानी ।' मा० १.२७३.१ महाभव : अनेक बड़े जन्म । विन० १३६.६ महाभूत : (दे० महदादि) प्रपञ्च के स्थूल तत्त्व-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । (२) बड़े भूत (पिशाचादि)। कवि० ७.१२६ महाभूतन : महाभूत+संब० । महाभूतों (बड़े जीवों, पिशाचादिकों, पञ्चभूतों)। 'कालहू के काल महाभूतन के महाभूत ।' कवि० ७.१२६ महामंत्र : बीजमंत्र । विन० १०८.२ महामंद : अति दुद्धि, अत्यन्त नीच, अतिशय मूढ़ । मा० ३.३६ महासख : (१) बड़ा यज्ञ। (२) पञ्च महायज्ञ-(क) ऋषियज्ञ = स्वाध्याय ; (ख) देवयज्ञ-होम; (ग) पित यज्ञ =श्राद्ध-तर्पण; (घ) नरयज्ञ = आतिथ्य; (ङ) भूतयज्ञ = काक, श्यान, गो इत्यादि को भोजन देना । कवि० ७.५५ महामति : अति बुद्धिमान् । गी० ५.२४.१ महामत्त : अतिशय मतवाला । मा० १.२५६ महामद : अतिशय अहंकार रूपी बड़ा नशा । गी० ५.२४.२ ।। महामनि : (१) बहुमूल्य रत्न । 'भूषन बसन महामनि नाना।' मा० १.३०५.४ (२) स्वर्ग की मणि (चिन्तामणि)। 'मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ।' मा० १.३२.६ महामाया : सं०स्त्री० (सं.)। राम-ब्रह्म की आदि शक्ति (सीता) जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की शक्ति के रूप म त्रिधा विभक्त होती है- महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली । जीवों के साथ वही ब्यामोहिका माया (अविद्या) का रूप लेती है । 'भजिअ महामाया पतिहि ।' मा० १.१४० महामारिन्ह : महामारी+ संब० । महामारियों। 'देवता निहोरे महामारिन्ह सों कर जोरे।' कवि० ७.१७५ महामारिही : महामारी ही। 'संकट सरोष महामारिही तें जानियत ।' कवि० ७.१८३ महामारी : सं०स्त्री० (सं०) । दूर तक फैलने वाला (संसर्गज) रोग-प्लेग, हैजा आदि । कवि० ७.१७३ महामोद : अति हर्ष । मा० १.३१५.४ For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 854 तुलसी शब्द-कोश महामोदु : महामोद+कए । अद्वितीय महान् हर्ष । 'महामोदु मेरे मन में ।' कवि० महामोह : सं०० (सं.)। सांख्यानुसार तृतीय क्लेश (तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र-ये सांख्य के बाधक तत्त्व हैं); योगदर्शन में राग । 'महामोह निसि दलन दिनेसू ।' मा० २.३२६.६ (२) अतिशय अज्ञान । 'महामोह उपजा उर तोरें।' मा० ७.५६.७ । महामोह : महामोह+कए । राग, क्लेशविशेष । 'महामोह महिषेसु कराला ।" मा० १.४७.६ महाराज : (सं०) चक्रवर्ती राजा, सम्राट् । मा० ७.१०.८ महाराजन : महाराज+संब० । महाराजों। 'महाराजन के महाराज ।' कवि०. ७.१२६ महाराजा : महाराज । कवि० १.६ महारिषि : महर्षि, श्रेष्ठ ऋषि । मा० ७.११६ ख महासुख : अतिशय सुख, परमानन्द । मा० १.२४४.८ महिं : मह (सं० स्मिन्-प्रत्यय>प्रा० म्हि) । में। ‘छन महिं सबहि मिले भगवाना।' मा० ७.६.७ महि : (१) सं०स्त्री० (सं.) । पृथ्वी । मा० ७.१२७.१ (२) पञ्चभूतों में परि. गणित पृथ्वी तत्त्व जिसका अपरिहार्य गुण गन्ध है (न्यायदर्शन)। बिनु महि गंध कि पावइ कोई ।' मा० ७.६०.४ महिदेव, वा : भूदेव, भूसुर, ब्राह्मण । मा० १.६.८; १.१५५.४ महिदेवन, न्ह, न्हि : महिदेव+संब० । ब्राह्मणों (को)। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।' १.२७२.७; १.२१२.३ महिधर : भूधर । (१) पर्वत (२) शेषनाग, दिग्गज, वराह, कमठ जो पृथ्वी को धारण करने वाले पुराण-प्रसिद्ध हैं। महिधरनि : महिधर+संद ० । पृथ्वी धारण करने वालों (शेष, शूकर, कच्छप, दिग्गजों और पर्वतों से) । 'महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावन ।' जा०म०६८ महिधरु : महिधर+कए । एकमात्र श्रेष्ठ पृथ्वी धारणकर्ता= शेष । 'जो सहस सीसु अहीसु म हिधरु ।' मा० २.१२६ छं० महिष : भूप (सं०) । राजा । मा० २.२५४.७ महिपाल : राजा (सं०) । भूपाल । मा० १.२८.१० महिपालक : महिपाल । जा०म० ४६ महिपाला : महिपाल । मा० १.१३०.६ For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 855 महिपालु : महिपाल+कए । अद्वितीय राजा। 'जीति मोह महिपालु ।' मा० २.२३५ महिपावली : राजाओं का समूह । गी० १.८४.१ महिबे : भकृ.पु (सं० मथितव्य>प्रा० महिअव्व =महिअव्वय)। मथना, मथित करना, बिलोना । 'मति मटुकी मृग-जल भरि घतहित मनही मन महिबे ही।' कृ० ४० महि-मनि-महेस : मिट्टी (महि) और मणि से बनाए हुए शिव । 'महि-मनि-महेस पर सबनि सुधेनु दुहाई।' गी० १.१५.१ महिमा : सं०स्त्री० (सं० महिमन्>प्रा० महिमा) । महत्ता, गरिमा, माहात्म्य । ___ सतसंगति महिमा नहिं गोई। मा० १.३.२ महिमायतन : महात्म्य के आगार, सभी महिमाओं से सम्पन्न । विन० ५६.६ महिमा ही : महिमा को। मा० २.२८८.५ महिष : सं०पु० (सं०) । (१) भंसा । मा० २.२३६.३ (२) महिषासुर जिसे दुर्गा ने मारा था । विन० १५.४ महिषी : महिषी+ब० । भैसें । मा० १.३३३.८ महिषी : सं०स्त्री० (सं.)। (१) भैंस । (२) राजपत्नी। गी० १.२.१६ महिषेस, सा : (सं० महिषेश-दे० महिष)। (१) बड़ा भंसा (२) महिषासुर । __ 'तेज कृषानु रोष महिषेसा ।' मा० १.४.५ महिषेसु : महिषेस+कए । महिषासुर । 'महामोहु महिषेसु कराला । राम कथा कालिका कराला ।' मा० १.४७.६ महिसुर : भूसुर । ब्राह्मण । मा० १.२७३.६ महिसुरन्ह : महिसुर+संब० । ब्राह्मणों (को)। 'सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई।' ____ मा० १.१७४.८ महीं : (१) मैं ही । 'महीं सकल अनरथ कर मूला।' मा० २.२६२.३ (२) मही में, पृथ्वी पर । 'झपट भट कोटि महीं पटक ।' कवि० ६.३६ मही : (१) सं०स्त्री० (सं.)। पृथ्वी। मा० १.२५२.३ (२) सं०० (सं० मथित>प्रा० महिअ) । मथा हुआ निर्जल दधि, मठा। 'मथि माखन सियराम संवारे सकल भुवन छबि मनहु मही री।' गी० १.१०६.३ महीधर : महिधर । पर्वत । मा० १.१५६ महीप : सं०० (सं०) । राजा । मा० १.१३४ महीपति : (सं०) । महीप । राजा। मा० १.२६१ महीपन्ह : महीप+संब०। राजाओं। ‘मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।' मा० १.२६०.४ For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 856 लसो शब्द-कोश महीपा : महीप । मा० १.२१४.४ महीस, सा : महीप (सं० महीश) । मा० १.१५७.३; १६०.१ महीसु : महीस+कए । राजा। 'कहइ न मरमु महीसु ।' मा० २.३८ महीसुर : महिसुर । मा० १.२.३ महुं : महँ । में । 'योरे महं जानिहहिं सयाने ।' मा० १.१२.६ महूं : मैं भी । 'महूं सनेह सकोच बस सनमख कहे न बैन ।' मा० २.२६० महेश, महेस, सा : सं०० (सं.)। शिव, महादेव । मा० ७ श्लोक २; मा० १.१२; १०१.३ महेसु, सू : महेस+कए । एकमात्र शिव। मा० १.५१ 'आपु कहहिं सत बार __ महेसू ।' मा० १.८१.६ महेसानि : सं०स्त्री० सम्बोधन ए० (सं० महेशानि) । हे महेश्वरि, हे पार्वति । __ कवि० ७.१७४ महोख : (१) सं०० (सं० महोक्षन् >प्रा० महोक्ख)। सांड, बड़ा (जंगली) बैल । (२) (सं० मधुक) पक्षिविशेष । 'ढक महोख ऊँट बिसराते।' मा० ३.३८.५ महोत्सव : महान् उत्सव, समारोह । मा० १.३४.८ महोदधि : (महा+उदधि) महासागर । दो० ४८५ महोदर : (१) बड़े पेट वाला (२) एक राक्षस का नाम । मा० ६.६२.१२ मह्यो : (१) सं०पु०कए० (सं० मथितम्>प्रा० महिअं>अ० महिउ=महियउ) मठा (दे० मही)। 'दूध को जार्यो पियत फूकि फूकि मह्यो हौं ।' विन० २६०.३ (२) भूकृ००कए० । मथा, बिलोया । 'तुलसी सिय लगि भव-दधि निधि मनु फिरि हरि चहत मह्यो है।' गी० ४.२.४ मां : मा। माता । गी० १.८.३ माँग : सं०स्त्री० । सीमन्त; स्त्रियों के केशकलाप के बीच की रेखा जिसमें सिन्दर भरा जाता है (सं० मङ्ग=नौका का शीर्ष भाग)। 'माँग कोखि तोषि पोषि।' गी० १.७२.३ मांगहु : मांग भी । 'माँगहु कोखि जुड़ानो।' गी० १.४.१० मांगत : मागत । दो० ३८ मांगने : मागने । याचक । विन० ४.४ मांगनो : मंगन+कए । याचक । 'तुलसी चातक मांगनो।' दो० २८७ मांगि : मागि । मांगकर । कवि० ७.१०६ मांगिए : मागिए । 'तात बिदा माँगिए मातु सों।' गी० २.११.२ मांगिबो : भकृ.पु.कए० । मांगना । (मान राखिबो मांगिबो।' दो० २८५ मांगिये : माँगिए । 'और काहि मांगिये, को मांगिबो निवार।' विन ० ८०.१ For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलसी शब्द-कोश माँगिहै : आ०भ०म० (सं० मार्गयिष्यसि > प्रा० मग्गिहिसि > अ० मग्गिहिहि ) | तू माँगेगा। 'तू जोइ जोइ मांगिहै ।' विन० ७०.५ : आ०भ० उ० । माँगूँगा । 'तदपि नाथ कछु और माँगिहौं ।' विन० १०२.२ माँगी : मागी । (१) याचित की। 'माँगी भगति अनूप ।' गी० ७.२१.२५ (२) मांगकर । 'पियत बिषय बिष माँगी ।' विन० १४०.२ मांगें : मागें । माँगने से, पर । रा० प्रा० ४.५.५ माँगे : मागे । 'घर घर माँगे टूक ।' दो० १०६ माँग : मागइ | 'तुलसी राम भगति बर माँगें ।' विन० २.५ माँ : माझ । 'संतन माँझ गनावो ।' विन० १४२.८ मांडव : सं०पु० (सं० मण्डप > प्रा० मंडव ) । वितान । 'आलेहि बाँस के माँडव ।' रा०न० ३ माँसु, सू: मांस + कए० । आमिष । 'तेहि बिप्र माँसु खल सांधा । मा० 857 १.१७३.३; ७ मह : माह में, भीतर । दो० ४०६ मा : सं० स्त्री० (सं०) । (१) माता, माँ । 'देहि मा मोहि पन प्रेम ।' विन० १५.५ (२) लक्ष्मी - जैसे, माधव ( मा = लक्ष्मी + धव = पति ) । 'मानाथ ।' विन० ५६.६ मां : माम् । मुझे । 'शरणागतं पाहि मां पाहि । विन० ५६.५ I मांडवी : सं० स्त्री० (सं० ) । भरत की पत्नी - सीरध्वज जनक के अनुज कुशध्वज की ज्येष्ठ पुत्री । मा० १.३२५ छं० २ मांस : सं०पु० (सं० ) । आमिष । मा० ६.४०.६ माई, ई : सं० स्त्री० (सं० मातृ> प्रा० माई) । (१) माता, जननी । मा० १.२०२.८ (२) सखी । 'प्रिय न काहि अस सासुर माई ।' मा० १.३११.१ ( ३ ) सम्मान्य स्त्री । 'कत सिख देइ हमहि कोऊ माई ।' मा० २.१४.१ For Private and Personal Use Only माख: सं०पु० (सं० प्रक्ष संघाते अपशब्दे रोषे च > प्रा० मक्ख ) । कोप, कीना, अपशब्द, रोष । 'सत्य बदहि तजि माख ।' मा० ६.२४ माखन: सं०पु० (सं० क्षण > प्रा० मक्खण) । मसका, नैनू । कृ० माखा : (१) माख । कीना ( मानहानि से क्रोध ) । 'तुम्हरें लाज न रोष न माखा ।' मा० ६.२४.८ (२) भूकृ०पु० । रुष्ट हुआ । 'देखि कुभा॑ति कुमति मन माखा ।' मा० २.३०.१ माखि: पूकृ० । रोष करके । 'खल डाटत मन माखि ।' दो० १४४ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 858 तुलसी शब्द-कोशः माखो : सं० स्त्री० (सं० मक्षिका>प्रा० मक्खि आ>अ० मक्खी) । 'भामिनि भइहु दूध कइ माखी ।' मा० २.१६.७ (२) मधुमक्षिका । 'बिकल मनहुं माखी मधु छीने ।' मा० २.७६.४ माखे : भूकृ००ब० । रुष्ट हुए। 'माखे लखनु कुटिल भई भौहैं ।' मा० १.२५२.८ (ललकारने लगे, अपशब्द कह चले-अर्थ है । दे० माख ।) माख : आ०प्रए० (सं० म्रक्षति>प्रा० मक्ख इ) । माख करे, ललकारे। 'अब जनि ___ कोउ माखै भटमानी।' मा० १.२५२.३ 'माग, मागइ : आ.प्रए० (सं० मार्गयति>प्रा० मग्गइ)। मांगता है, जांचता है, पाना चाहता है । 'कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी।' मा० १.१३३.१ माग', ऊँ : आ० उए० । मांगता-ती हूं, पाने की प्रार्थना करता-ती हूं। 'मागउँ ___ दूसर बर कर जोरी।' मा० २.२६.८; ४.१० छं० २ मागत : वकृ.पु । मांगता-मांगते, प्रार्थना करते । 'बहु संपति मागत सकुचाई।' मा० १.१४६.५ पागध : सं.पु. (सं.)। वैश्य पिता और क्षत्रिया माता से उत्पन्न एक संकर जाति (जो मुख्यत: राजस्तुति का व्यवसाय करती थी)। मा० १.१९४.६ मागधन्हि : मागध+संब० । मागधों (ने) । 'बंदि मागधन्हि गुनगन गाए ।' मा० १.३५८.६ मागने : सं००+वि०ब० (सं० मार्गण>प्रा० मग्गण)। याचक, प्रार्थी । 'सादर _____ सकल मागने टेरे ।' मा० १.३४०.१ मागनेउ : मागने (याचक) भी। 'तुलसी दाता मागनेउ देखिअत अबुध अनाथ ।' दो० १७० मागनेहि : मागने (याचक) को। ‘ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिनु देइ ।' दो० २६० मागनो : माँगनो। याचक । कवि० ७.१५३ मागब : भकृ०० (सं० मार्गयितव्य>प्रा० मग्गिअन्व)। मांगना (चाहिए)। 'मएहुं न मागब नीच । दो० ३३५ भागसि : आ०मए० (सं० मार्ग यसि>प्रा० मग्गसि) । तू मांगता है । 'काहे न मागसि अस बरदाना।' मा० ७.८५.२ माहि, हीं : आ०प्रए० उए० (१) मांगते हैं। 'सबहि बंदि माहिं कर जोरी ।' मा० १.३५१.२ (२) हम मांगते हैं । 'देव यह बर मागहीं।' मा० ७.१३.६ मागहु : आ०मब० (सं० मायथ, त>प्रा० मग्गह>अ० मग्गहु)। मांगते हो, मांगो। 'जो बर मागहु देउँ सो तोही।' मा० ३.११.२३ मागा : भूकृ.पु । प्रार्थित किया, लेना चाहा। 'बरु दूसर असमंजस मागा।' मा० २.३२.४ For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 859 मागि : पूकृ० । प्राथित कर, मांगकर । 'आयसु मागि चरन सिरु नाई।' मा० ४.२३.८ मागिए, ये : आ०-कवा०-प्रए । मांगा जाय । 'जनि मागिये थोरो।' कवि० ७.१५३ मागिहु : आ०-भूक स्त्री०+मब० । तुमने मांगी। 'थाती राखि न मागिह काऊ ।' मा० २.२८.२ मागी : (१) मागि। 'परिहरि अमृत लेहिं विषु मागी।' मा० २.४२.३ (२) भूक०स्त्री० । मांगी, चाही, चाही हुई। 'उचित असीस लीन्ह मन मागी।' मा० २.२४६.१ मागु : आo-आज्ञा - मए । तू मांग । 'बेगि मागु मन भावति बाता ।' मा० २.२६.७ मागें : मांगने से, में, पर । 'यह मोहि मागें देहु ।' मा० १.७६ मागे : (१) भूक०० ब० । प्रार्थित किये, पाने चाहे । (२) मंगाये । 'कंद मूल फल खग मृग मागे।' मा० २.१६३.२ मागेउ : भूकृ००कए० । (१) मांगा, पाना चाहा। तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुराग।' मा० १.१७७ (२) मँगाया। 'रावन मागेउ कोटि घट ।' मा० ६.६३ मागेसि : आ० - भूकृ०+प्रए । उसने मांगा । 'मागेसि नीद मास षट केरी।' मा० १.१७७.८ मागेहु : (१) आभूक०+मब० । तुम ने मांगा । 'मागेहु भगति मोहि अति भाई।' मा० ७.८५.५ (२) भ०+आज्ञादि+मब० । तुम मांगना । 'तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।' मा० २.२२.७ मागौं : मागउँ । मांग लू। 'हरि सन मागों सुंदरताई।' मा० १.१३२.१ माघ : सं०० (सं.)। शिशिर ऋतु का मासविशेष जिसकी पूर्णिमा को मघानक्षत्र होता है । मा० १.४४.३ माचहीं : आ०प्रब० । मचाते हैं, व्याप्त करते हैं, ऊँचा करते हैं, बढ़ाते हैं । 'मुदित रोम रोम मोद माचहीं।' कवि० १.१४ माची : भूक०स्त्री० । मच गई, छायी, व्याप्त हुई। 'कीरति जासु सकल जग ___ माची।' मा० १.१६.४ माछी : माखी (प्रा० मच्छिआ) । मक्खी। मा० ६.१०१ क माजहि : माजा को । ‘माजहि खाइ मीन जनु मापी।' मा० २.५४.४ माजा : (१) (दे० मजा) सं०० (सं० मज्जन्-मज्जा=वृक्षसार या अस्थिसार)। वर्षा का फेन (जो बिसला होता है) । (२) (सं० मद्य>प्रा० मज्ज) मादक द्रव्य (?) । 'माजा मन हुं मीन कहुं ब्यापा।' मा० २.१५३ ६ For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 860 सुलती शब्द-कोश माझ, माझा : सं००+क्रि०वि० (सं० मध्य>प्रा० मज्झ) । (१) बीच, बीच ____ में । 'मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी।' मा० २.४७.१ (२) में । 'कैकह कत जनमी जग माझा।' मा० २.१६४.४ माटी : सं०स्त्री० (सं० मृत्ति, मृत्तिका>प्रा० मिट्टी, मट्टिआ) । मिट्टी। कवि० ७.१६ माठ : सं०० (सं० मार्त>प्रा० मट्ट) । मृत्पात्र, मटका । 'पिघले हैं आँच माठ मनो घिय के ।' गी० ४.१.२ मात : माता । मा० १.३४६ मातन्ह : माता+संब० । माताओं (को)। 'लछिमन सब मातन्ह मिलि ।' मा० मातलि : सं.पु. (सं.)। इन्द्र के सारथि का नाम । मा० ६.८६.२ मातहि : आ०प्रब० । मत्त हो जाते हैं, मत वाले हो जाते हैं। जो अचवत नृप मातहिं तेई ।' मा० २.२३१.७ मातहि : माता को । 'देख रावा मातहि ।' मा० १.२०१ माता : माता ने । 'मातां भरतु गोद बैठारे ।' मा० २.१६५.४ माता : सं०स्त्री० (सं०) । मा० १.८.६ माति : माती । 'अनी मोह मद माति ।' रा०प्र० ३.१.५ माती : भूक०स्त्री० (सं० मत्ता) । मतवाली हुई, सुधबुध खो बैठी। दैहिक संज्ञा (का अध्यास) छोड़ बैठी। 'सहित समाज प्रेम मति माती।' मा० २२७५.५ मातु : माता । मा० १.१५.३ मातुल : सं०० (सं.)। माता का भाई मामा (रावण का मामा माल्यवान् था) । 'बातुल मातुल की न सुनी सिख ।' कवि० ६.५ माते : वित्पुब० (सं० मत्त) । मदयुक्त। 'कूजत पिक मानहुं गज माते ।' मा० __३.३८.५ मात्यो : भूकृ०पु०कए । मत्त हुआ। 'मोह मद मात्यो रात्यो कुमति कुनारि सों।' कवि० ७.८२ मात्र : केवल (समासान्त में प्रयुक्त)। 'राम मात्र लघु नाम हमारा ।' मा० १.२८२.६ माथ, था : (१) सं०० (सं० मस्त, मस्तक>प्रा० मत्थ, मत्थअ)। ललाट। 'कहहु त कहाँ चरन कहें माथा ।' मा० १.२८२.५ (२) भाग्य । 'जस चातकहीं के माथ ।' दो० २८८ माथें : मत्थे पर । 'माथे हाथ मूदि दोउ लोचन ।' मा० २.२६.६ For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 861 माथे : (१) माथा का रूपान्तर । 'माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू ।' मा० २.३१५.२ (२) माथें । 'राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं।' हनु० ३२ माथो : माथा+कए० (सं० मस्तकम् >प्रा० मत्थअं>अ० मत्थउ) । 'नाइ माथो पगनि ।' कवि० ५.२६ माधव : सं०० (सं०) । (१) विष्णु । कृष्ण या राम । 'सब बिपरीत भए माधव बिनु ।' कृ० ३१ (२) काशी में बिंदुमाधव । विन० २२.७ (३) प्रयाग में वेणीमाधव । 'पूजहिं माधव पद जल जाता।' मा० १.४४.५ (४) वैशाख मास । जा०म०छं०४ माधुरी : सं०स्त्री० (सं.)। (१) मिठास (स्वादविशेष) । 'जल माधुरी सुबास ।' मा० १.४२ (२) सभी दशाओं में मनोहर लगने वाला सौन्दर्य । 'माधुरी बिलास हास ।' गी० २.४४.४ मान : सं०० (सं.)। (१) अहंकार । 'भजु तुलसी तजि मान मद ।' मा० १.१२४ ख (२) सम्मान, आदर । 'दान मान बिनती बर बानी।' मा० १.३२१.५ (३) आत्मसम्मान, स्वाभिमान । 'मान राखिबो मागिबो।' दो २८५ (४) परिमाण, प्रमाण, सीमा। दे० अमान । (५) बल, बूता। 'काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं।' हनु० ३६ (६) माइन । माने, मानता हो । 'तदपि बिरोध मान जहँ कोई ।' मा० १.६२.६ (७) मानि । 'लेत मान मन की।' विन० ७१.५ (८) आ०-आज्ञा-मए । तू मान ले। 'मान हिय हारि ।' विन० १६३.२ (६) लोक सम्मान की प्राप्ति । दे० मान-मद । 'मान, मानइ : (१) आ०प्रए० (सं० मानयति>प्रा० माणइ) । आदर देता है, मन्नत करता है, प्रार्थना करता है। (२) (सं० मन्यते>प्रा० मण्णइ) । समझता है । 'जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ।' मा० ७.२४.७ मानउँ : आ० उए । मानता हूं, आदर देता हूं। 'फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ।' मा० ३.३.१३ मानत : (१) वकृ००। मानता-ते । आदर देता । 'बिनय न मानत जलधि जड़।' मा० ५.५७ (२) अनुभव करता-ते; समझता-ते । 'काहे को मानत हानि हिये हो।' गी० २.७५.१ मानति : (१) वक०स्त्री० ! मानती, समझती, अनुभव करती । 'मानति भूमि भूरि निज भागा। मा० २.११३.८ (२) रुचती, भावित करती, प्रसन्न करती । 'कंबु कंठ सोभा मन मानति ।' गी० ७.१७.१० मानतो : मानत+कए । अनुभव करता, समझता । 'मानतो न नेकु संक।' कवि० मानद : वि०० (सं०)। दूसरों को सम्मान देने वाला । 'सावधान मानद मदहीना ।' मा० ३.४५.६ For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 862 तुलसी शब्द-कोश मानप्रद : (१) मानद (सं०) । अभिमान देने वाला। 'गत मानप्रद दुखपुज ।' मा० ६.११३.६ (२) सम्मान देने वाला । म्यान निधान अमान मानप्रद ।' मा० ७.३४.५ मानप्रिय : वि० (सं.)। जिसे अभिमान या लोक सम्मान प्रिय हो। 'मुखर मान प्रिय ग्यान गुमानी।' मा० २.१७२.६ मानब : भकृ०० । मानना (चाहिए) । 'अनुचित नाथ न मानब मोरा ।' मा० २.२२६.७ मानबि, बी : मानिबी। पा०म० १४२ मानमद : (१) अभिमान रूपी नशा । (२) लोक सम्मान का अभिमान = लोकेषणा । 'कोउ न मानमद तजेउ निबेही।' मा० ७.७१.१ मानस : (१) सं०० (सं.)। मन, अन्तःकरण । 'रचि चरित्र निज मानस राखा ।' मा० १.३५.११ (२) मानस-सरोवर । 'जो भुसुडि मन-मानस हंसा।' मा० १.१४६.५ (३) रामचरितमानस । 'जस मानस जेहि बिधि भयउ ।' मा० १.३५ (४) मनरूपी मानसरोवर । 'मानस मंजु मराल ।' मा० १.१४ ग (५) रामचरितमानस रूपी मानसरोवर। तेइ सुर बर मानस अधिकारी।' मा० १.३६.२ (६) वि० । मन सम्बन्धी । 'मानस रोग कहहु समुझाई ।' मा० ७.१२१.७ मानसपूजा : देव को ध्यान में लाकर मन में ही (वाह्य सामग्री के बिना) षोडशोपचार पूजन । मा० ७.५७.६ मानसि : आ०मए० (सं० मानयसि, मन्यसे>प्रा० माणसि, मण्णसि)। (१) तू मानता है समझता या आदर देता है। 'मूढ परम सिख देउँ न मानसि ।' मा० ७.११२.१३ (२) तू मान, समझ, अनुभव कर । 'सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना।' मा० ४.३.७ मानसिक : (१) वि० (सं०) । मन सम्बन्धी। ध्यान-कल्पित । 'मानसिक आसन दए।' मा० १.३२१ छं० (२) आन्तरिक । 'मुएहु न मिटगो मेरो मानसिक पछिताउ ।' गी० २.५७.१ मानहर : वि० (सं०) । अभिमान दूर करने वाला । 'सुबाहु मथन मारीच मानहर।' कवि० ७.११२ मानहि, हीं : (१) आप्रब० । आदर देते हैं । 'सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।' मा० ७.१०१.४ (२) समझते हैं, अनुभव करते हैं। 'तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा।' मा० १.१४८ (३) महत्त्व देते हैं। 'मानहिं नहिं बिनय निहोरा ।' विन० १२५.३ (४) स्वीकार करते हैं । 'ते उपदेस न मानहीं।' दो० ४८५ मानहि : आ०-आज्ञा-मए० (सं० मानय, मन्यस्व>प्रा० माणहि, मण्णहि)। तू मान=समझ+आदर दे । 'सुनि मन मानहि सीख ।' दो० ४२७ For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्दकोश 863 मानहुं : मनहुं (उत्प्रेक्षा वाचक)। मानों। 'मानहुं मदन दुदुभी दीन्ही ।' मा० १.२३०.२ मानहु : (१) आ०मब० । मानो । अनुभव करो । 'जनि मानहुहिये हानि गलानी।' मा० २.१६५.६ (२) समझो। 'तात राम कहुं नर जनि मानहु ।' मा० ४.२६.१२ (३) स्वीकार करो। 'अजहुँ मानहु कहा हमारा ।' मा० १.८०.१ (४) मानते हो, समझते हो। 'हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।' मा० ५.४०.७ (५) मानहुँ । मानों । 'पट पीत मानहु तड़ित रुचि ।' विन० ४५.२ माना : (१) मान। 'लोभ मोह मच्छर मद माना।' मा० ५.४७.१ (२) भूक०० । स्वीकृत किया (आदर दिया) । 'मैं संकर कर कहा न माना।' मा० १.५४.१ (३) अनुभव किया। 'ब्रह्म सभा हम सन दुख माना।' मा० १.६२.३ (४) स्वीकृत किया, सहमत हुआ। 'मोर मनु माना ।' मा० १.२१४.६ (५) स्वीकार्य (आदरणीय) हुआ। 'मोर बचन सबके मन माना।' मा० १.१८६.८ मानाथ : (दे० मा) मा (लक्ष्मी) के नाथ =विष्णु । विन० ५६.६ मानि : (१) पूकृ० । मान कर । 'तेहि के बचन मानि बिस्वासा ।' मा० १.७६.६ (२) अनुभव कर । 'मानि हारि ।' मा० १.१२६ (३) महत्त्व देकर, स्वीकार कर । 'सम मानि निरादर आदरही बिचरंति ।' मा० ७.१३.६ (४) आ० आज्ञा-मए । तू मान ले । 'कह्यो मेरो मानि ।' कृ० १७ मानिहिं : आ०कवा०प्रब० (सं० मान्यते, मन्यते>प्रा० माणीअंति, मण्णीअंति> अ० माणीअहिं, मण्णीअहिं)। माने जाते हैं = समझे जाते हैं+आदर पाते हैं । 'सब मानिअहिं राम के नातें।' मा० २.७४.७ मानिऐ : आ०कवा०प्रए० (सं० मान्यन्ते, मन्यन्ते>प्रा० माणीअइ, मण्णीअइ) । माना जाता है, माना जाय । 'केहि नाते मानिऐ मिताई।' मा० ६.२१.२ मानिक : सं०० (सं० माणिक्य>प्रा० माणिक्क)। लाल रत्नविशेष । मा० मानिकमय : (दे० मय) माणिक्यों से रचित । गी० ७.१७.१५ ।। मानिबी : भक०स्त्री० (सं० मानयितव्या, मन्तव्या>प्रा० माणिअन्वी, मण्णिअव्वी)। माननी =आहत करनी+समझनी (चाहिए)। निज किंकरी करि मानिबी।' मा० १.३३६ छं. मानिबे : भकृ०० । मानने, सम्मान देने । 'जननिउ तात मानिबे लायक ।' गी० २.३.१ मानिबो : भक०कए० । मानना (चाहिए)। 'बात चलें बात को न मानिबो बिलगु बलि ।' कवि०७.१६ For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 864 तुलसी शब्द-कोश मानिय, ये, ये : मानिऐ। समझिए । 'बचन फुर मानिय ।' जा०म० ७६ 'मानिये जो भावै।' विन० ७६.४ मानिहहिं : आ०भ०प्रब० । मानेंगे, समझेगे । 'सुनि आचरज न मानिहहिं ।' मा० १.३३ मानिहि : आ०भ०ए० । मानेगा, समझेगा । 'सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि।" मा० २.१७५.७ मानिहैं : मानिहहिं । 'राम भलो मानिहैं ।' विन० १३५.५ मानिहै : मानिहि। 'कोन मानिहै साँची।' गी० २.६२.२ मानिहौं : आ०भ० उए । मानूगा, आदर दूंगा । 'मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहौं ।' कवि० ७.६३ मानी : (१) मानि । मानकर । 'सुनहु सकल सज्जन सुख मानी।' मा० १.३०.२ (२) भूकृ०स्त्री० । मान्य की, स्वीकृत की। 'लछिमन राम चरन रति मानी।' मा० १.१६८.३ (३) वि.पु(सं.)। स्वाभिमानी, आत्मसम्मानी। ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिनु देइ ।' दो० २६० (४) अहंकारी । 'मानी महिप कुमुद सकुचाने ।' मा० १.२५५.२ (५) (समासान्त में) अपने को समझने वाला । 'भटमानी।' मा० १.२५२.३ ।। मानु : (१) मान+कए। अभिमान (आदि)। 'निज सरूप रति मान बिमोचनि ।' मा० १.२६७.२ (२) आ०-आज्ञा-मए । तू मान, स्वीकार कर । 'नाहिं त सपदि मानु मम बानी ।' मा० ५.१०.२ (३) प्रार्थना-मए । 'मातु मानु प्रतीति जानकि ।' गी० ५.६.१ मानुष : मनुष्य (सं.)। मा० २.१००.४ . माने : (१) मानि। मानकर । 'सकल करइ सुख माने ।' मा० १.१५५.५ (२) भूक००ब० । समझे । 'कपिन्ह रिपु माने फुरे।' मा० ६.६६ छ० मानेउ : भूकृ००कए । माना, समझा। 'सबहि भांति भल माने उ मोरा ।' मा० २.३००.२ मानेहि : आ०-भूक.पु+मए । तूने माना । 'तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ।' मा०६.३६.६ मानेहु : आ०-भ०+आज्ञा-मब०। तुम मानना=समझना+आदर देना। ___'बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।' मा० २.२२.८ मान : मानहिं । अनुभव करते हैं। 'हिय हानि माने जानकीसु ।' कवि० ७.१२१ मान : (१) मानइ । मानता है, स्वीकृत करता है । 'सुमिरत ही मान भलो।' विन० १०७.३ (२) मान जाता है, लीन हो जाता है। 'श्रवन विभूषन रुचिर देखि मन माने ।' जा०म० ५१ (३) मान ले, स्वीकृत कर । 'जौं यह मत मान महीप मन ।' मा० २.२८४२ For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 865 मानो : (१) मान्यो । समझा । गीधु मान्यो गुरु के ।' कवि० ७.२४ (२) मानहुं (उत्प्रेक्षार्थक अव्यय) । 'मानो बारे तें पुरारि ही पढ़यो है ।' कवि० १.१० मानौं : मानउँ । 'मानौं न सकोचु हौं ।' कवि० ७.१२१ मानौ : मानहुं (उत्प्रेक्षा)। गी० १.८४.४ मान्य : वि० (सं०) । सम्माननीय, आदरणीय । तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।' मा० ७.६८ ख मान्यता : सं०स्त्री० (सं०) । मान्य होना । (१) ख्याति, यश । 'लोक मान्यता अनल सम ।' मा० १.१६१ क (२) आदर । 'करि पूजा मान्यता बड़ाई।' मा० १.३०६.४ मान्यो : मानेउ । अनुभव किया। सील सिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि के।' कवि० ६.५५ मापा : भूकृ०० (सं० मापित)। व्याप्त हो गया, (एक छोर से दूसरे तक) सर्वाङ्ग ओत-प्रोत हुआ। तलफत बिषम मोह मन मापा।' मा० २.१५३.६ मापी : भूक०० । सर्वाङ्ग व्याप्त-ओत-प्रोत हो गई । 'माजहि खाइ मीन जन मापी।' मा० २.५४.४ माम् : सर्वनाम (सं०) । मुझे । मा० २ श्लोक १ मामभिरक्षय : (सं०-माम् +अभिरक्षय)। मुझे सर्वात्मना रक्षित कर । मा० ६.११५ छं० मामवलोकय : (सं०-माम् +अवलोकय) । मुझे देख । मा० ७.५१.१ मायें : माता ने । 'सरल सुभाय माय हिय लाए।' मा० २.१६५.१ माय : माता (प्रा० माया>अ० माय) । 'सुनिय माय मैं परम अभागी।' मा० २.६६.३ (२) माया । 'ब्रह्म जीव माय हैं।' गी० २.२८.३ (३) माया = छलना । 'सूझत मीचु न माय ।' दो० ४८२ मायन : सं०० (सं० मातृ पूजन, मातृ का पूजन)। विवाहादि के पूर्व स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला सप्त-मातृका=देवी पूजन । 'बनि बनि आवति नारि जानि गृह मायन हो ।' रा०न० ५ मायहि : माया को । 'बहुरि राम मायहि सिरु नावा ।' मा० १.५६.५ मायाँ : माया से । 'निज मायाँ बसंत निरमयऊ ।' मा० १.१२६.१ माया : सं०स्त्री० (सं०)। (१) परमेश्वर की आदिशक्ति, योगमाया, महामाया, सीता । 'आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सो अवतरिहि मोरि यह माया ।' मा० १.५२.४ (२) त्रिगुणात्मक प्रकृति । 'माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि ।' दो० २०० 'माया गुनमई ।' विन० १३६.४ (३) जीव को संसारचक्र में भ्रमण कराने वाली (महामाया का परिणाम विशेष) अविद्या, व्यामोहिका शक्ति । 'सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ।' मा० For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 866 तुलसी शब्द-कोश १.१४० (४) इन्द्र जाल, छलना, जादू । 'अस कहि चला रचिसि मग माया ।' मा० ६.५७.१ (५) ममता (माया) । 'खाचेहुं उन्ह के मोह न माया। मा० १.६७.३ (६) माय, माई। माता । 'माया सब सिया माया माहूँ।' मा० २.२५२.३ (सिय माया में 'माता+माया' दोनों का श्लेष है)। दे० अग्यान । मायाकुरंग : मायामृग । विन० ५०.६ मायाछन्न : वि० (सं.) माया से आवृत =अज्ञानावरण से ढका हुआ । 'मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म।' मा० ३.३६ क मायाधनी : महामाया का स्वामी ब्रह्म । मा० १.५१ छं० मायाधीन : माया के आश्रित, प्रकृति परतन्त्र । विन० २४६.१ मायाधीस : (सं० मायाधीश) माया का स्वामी ब्रह्म । मा० १.११७.७ मायानाथ : मायाधीश । मा० ३.२०७० ४ मायापति : मायानाथ । मा० ६.५७.३ मायापाश : मायारूपी जाल । विन० ६०.८ मायामय : वि० (सं०) । (१) माया (इन्द्र जाल) से निर्मित : 'मायामय तेहिं कीन्हि रसोई ।' मा० १.१७३.२ (२) माया से पूर्ण । 'मायामय रथ ।' मा० ६.७२ मायामृग : (सं०) इन्द्रजाल रचित मृग, छद्महरिण (मृग रूपधारी मारीच)। मा० ३.२७.११ मायारहित : माया से परे, अज्ञानरहित =सर्वज्ञ एवं प्रकाशमय, भेदरहित । मा० १.१८६ छं० २ मायारूपी : मायास्वरूपा, व्यामोहक रूप वाली, मूर्त माया। 'मायारूपी नारि ।' मा० ३.४३ मायावी : (१) वि.+सं०० (सं० मायाविन्)। छली (इन्द्रजालिक)। धोखेबाज । 'खल मायावी देव सतावन ।' मा० ६.७५.४ (२) एक असुर का नाम । 'मयसुत मायावी तेहि नाऊँ।' मा० ४ ६.२ मायिक : वि० (सं०) । माया निर्मित, असत्, मायापूर्ण, मिथ्या । 'जगगति मायिक ।' मा० २.२४७.२ मायो : भूकृ.पु० (सं० मितम>प्रा. माइयं>अ० माइयउ)। नापा, तोला । 'सबनि अपनो बल मायो।' गी० ५.१.३ मार : (१) सं०पू० (सं०) । कामदेव । मा० १.१२७.६ (२) मारइ । मारता है । "चुकइ न घात मार मुठभेरी।' मा० २.१३३.४ (३) मार दे (डक आदि) प्रहार कर दे । 'तेहि पुनि बीछी मार ।' मा० २.१८० (४) प्रहार । 'समर सुमार सूर मारै रघुबीर के ।' कवि० ६.३१ For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 867 'मार, मारइ : आ०प्रए० (सं० मारयति>प्रा. मारइ) । (१) मार डालता है =प्राणहीन करता है । 'तिन्हहि को मारइ बिन भगवंता ।' मा० ३.२३.२ (२) प्रहार करता है । जो मारइ तेहि कोउ नहिं जाना ।' मा० ६.७३.४ मारउ : आ० उए । (१) अभी मार डालता हूं। 'बंधु सहित न त मारउँ तोही।' मा० १.२८१ (२) मारू, मार डालू। 'तो मारउँ रन राम दोहाई ।' मा० २.२३०.८ मारग : मग । (१) मार्ग । मा० २.६२.६ (२) पन्थ, धार्मिक सम्प्रदाय । 'मारग सोइ जा कहुं जो भावा ।' मा० ७.६८.३ मारगन : सं०० (सं० मार्गण) । बाण । मा० ६.६१ मारग : मारग+कए० । एक मार्ग । 'कत न सुमनमय मारगु कीन्हा ।' मा० २.१२१.४ मारत : वकृ००। (१) मारता-मारते । 'मग पुनीत बहु मारत भयऊ ।' मा० १.१५६.४ (२) आहत करता-करते । 'आरत मारत माथ ।' रा०प्र० ५.५.२ (३) क्रियाति००। मार डालता। 'पिता बधे पर मारत मोही।' मा० ४.२६.५ मारतंड : सं०पु० (सं० मार्तण्ड) । सूर्य । कवि० ५.६ मारतहू : मारते समय भी (मारने पर भी)। 'मारतहूं पा परिअ तुम्हारे ।' मा० १.२७३.७ मारध्वज : कामदेव (मार) का ध्वज (जो मकर निर्मित कहा गया है- अत: काम को मकरध्वज कहते हैं) । 'जगल मारध्वज के मकर ।' गी० ७.६.३ मारन : भकृ० अव्यय । मारने । 'मारन धावा।' मा० ५.१०.७ मारबि : भक०स्त्री० । मार डालनी (होगी-मार डालूंगा)। 'तो मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।' मा० ५.१०.६ मारव : सं.पु० (सं० मालव) । अत्यन्त उपजाऊ प्रदेशविशेष =मालवा। 'मरु मारव महिदेव गवासा ।' मा० १.६.८ मारसि : आ०मए० (सं० मारयसि>प्रा० मारसि) । (१) तू मारता है, मारती है । 'मारसि गाय नहारू लागी ।' मा० २.३६.८ (२) तू मार, तू मारना । 'मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।' मा० ५.१६.२ मारहिं, हीं : (१) आप्रब० । मारते हैं-मार डालते हैं। 'जौं कदाचि मोहि मारहिं ।' मा० ४.७ (२) आहत करते हैं। 'गहि दसन लातन्ह मारहीं।' मा० ६.८५ छं० मारहुं : आ०-संभावना (आशङ का) प्रब० । चाहे मारें । 'बरु तीर मारहुं लखन ।' मा० २.१०० छं० For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 868 तुलसो शब्द-कोश मारहु : आ०मब० । मारो, मार डालो। 'धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।' मा०. ३.१८.६ मारा : (१) भूक पु० । मार डाला । 'राम सकुल रन रावन मारा।' मा० १.२५.५ (२) मारा हुआ । 'दनुज महाबल मरइ न मारा।' मा० १.१२३.६ (३) प्रहार किया। 'बिनु फर बान राम तेहि मारा।' मा० १.२१०.४ (४) मार । कामदेव । मा० १.६०.६ मारादि : काम इत्यादि षड्वर्ग=काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर । मा०. ७.१०१ क मारि : पूकृ० । (१) मार कर । 'मारि असुर सुर निर्भयकारी।' मा० १.२१०.६. (२) मिटाकर (अज्ञेय बनाकर) । 'खोज मारि रथ हाँकहु ताता।' मा० २.८५.८ (३) आघात देकर । 'चोंचन्ह मारि बिदारेसि देही ।' मा० ३.२६ २० (४) दृढता से निवास करके । 'मनहं मवासे मारि कलि राजत सहित समाज ।' दो० ५५८ (५) सं० स्त्री० (सं०) । मार, मारामार (युद्ध)। 'तात करिअ हठि मारि ।' मा० ६.६ (६) जनसंहारक प्रहार । 'बिरहिन पर नित नइ पर मारि ।' गी० २.४६.६ (७) महामारी। मारिअ, ए, ऐ : आ०कवा०प्रए० (सं० मार्यते>प्रा० मारीअइ) । मारा जाय । 'नीति बिरोध न मारिअ दूता।' मा० ५.२४.७ 'बरु मारिए मोहि ।' कवि.. २.६ मारिबे : भकृ.पु । मारने । 'मीच मारिबे को।' हनु० ११ मारिये : मारिए । 'मारिये तो अनायास कासीबास ।' कवि० ७.१६६ मारिषी : दे० रीति मारिषी। मारिसि : आ०-भूकृ०स्त्री०+प्रए । उसने मारी, आहत की। 'मारिसि मेघनाद के छाती।' मा० ६.७४.७ मारिहउँ : आ०भ० उए० । मारूंगा। 'हौं मारिहउँ भूप द्वो भाई।' मा० ६.७९.१२ मारिहि : आ०म०प्रए । मारेगा। 'बालि इतेसि मोहि मारिहि आई।' मा० ४.६.८ मारिहै : मारिहि । 'राखि है रामु तो मारिहै को रे।' कवि० ७.४८ मारी : भूक०स्त्री०ब० । मारी हुईं, आहत की हुई। 'जनु सुबेलि अवली हिम ___ मारी ।' मा० २.२४४.६ मारी : (१) मारि । मार (कर)। 'सकउँ तोर अरि अमरउ मारी।' मा० २.२६.३ (२) मार डाली । केहि बिधि तात ताडका मारी।' मा० १.३५६.८ (३) आहत की। 'ताकि ताकि मार बार बहु मारी।' मा० ६.६६.६ (४) मार दी गई=काट दी गई । 'सो जानइ जनु गरदनि मारी।' मा०. For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्तुलसी शब्द-कोश 869 २.२३५.३ (५) सं०स्त्री० । मारामार । 'सही न जाइ कपिन्ह के मारी।' मा० ६.८६.६ (६) महामारी । 'शमन घोर मारी।' विन० २८.४ मारीच : सं०पु० (सं.)। राक्षसविशेष । मा० १.२० ६.३ मारीचा : मारीच । मा० ३.२४.६ मारीचु : मारीच+कए ० । कवि० ६.४ मारु : (१) आ०- आज्ञा-मए । तू मार डाल, प्रहार कर । 'धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना।' मा० ६.७३.४ (२) मार+कए । कामदेव । 'भयो मोहित मारु ।' गी० ७.१०.४ मारुत : सं०० (सं०) । वायु । मा० १.१२.११ मारुतनंदन : वायु पुत्र हनुमान् । कवि० ६.५४ मारुतसुत : हनुमान् । मा० ४.१६.४ मारुति : सं०० (सं.)। मारुतसुत । मा० ६.६८.३ मारू : मारु । (१) कामदेव । सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू ।' मा० १.८६.२ (२) तू मार डाल । 'मारु मारु धरु धरु धरु मारू ।' मा० ६.५३.६ (३) वि० पुं० (सं० मारक)। युद्ध सम्बन्धी, जुझाऊ । 'मारू राग सुभट सुख दाई ।' मा० ६.७६.६ (वीर रस पूर्ण राग से तात्पर्य है)। मारें : मारने से, पर । 'मारें मरिअ जिआएं जीजै ।' मा० ३.२५.४ मारे : भक.पुब० । (१) मार डाले । 'जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ।' मा० १.२२१.४ (२) आहत किए। 'मनहुं कमल हिम मारे ।' गी० २.८७.३ (३) तू न मार डाला। 'जनमत काहे न मारे मोही।' मा० २.१६१.७ (४) मारें। मारने से । 'तेरे मारे मरेगी।' हनु० २५ मारेउँ : आ० -- भूक००+उए० । मैंने मारा । तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ।' मा० ४.८.५ मारेउ : भूक.पु०कए । मारा । 'बिनु फर सायक मारेउ।' मा० ६.५८ मारेसि : आ०-भूक००+प्रए० । उसने मारे-मार डाले । 'कछु मारेसि कछु ___मर्देसि ।' मा० ५.१८ मारेहु : (१) आ०-भूकृ००+मब० । तुमने मारा-मारे। 'मारेहु मोहि ब्याध की नाईं ।' मा० ४.६.५ (२) भ०+आज्ञा+मब० । तुम मारना । 'तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही।' मा० ६.७५.८ (३) मारने पर भी। ‘पाए पालिबे जोग मंज मृग मारेहु मंजल छाला ।' गी० ३.३.२ मारै : मारहिं । 'समर सुमार सूर मारै रघुबीर के ।' कवि० ६.३१ मार : मारइ । 'मारै मद मार ।' विन० १०५.४ । मारो: (१) मारहु । 'सकुचि साध जनि मारो।' कृ० ३४ (२) मार्यो। मारा हुआ, आहत । 'गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाज को मारो।' कवि० ६.३८ For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 870 तुलसी शब्द-कोश मारौं : मारउँ । मार सकू । जेहि प्रकार मारौं मुनि-द्रोही।' मा० ३.१३.३ मारो : मारहु । मार डालो। 'बानरु बहाइ मारौ महाबारि बोरिक ।' कवि०. ५.१६ मार्कण्डेय : सं०० (सं०) । ऋषिविशेष जो अमर माने गये हैं। प्रलय काल में बालरूप भगवान् वट वृक्ष के पत्र पर लेटा हुआ देखते और आनन्दित होते हैं। विन० ६०.४ मार्जार : सं०० (सं.)। बिलाव । विन० ११.१ मार्जारधर्मा : वि० (सं.)। बिलाव के गुण-कर्म वाला । विन० ५९.४ मार्यो : मारेउ । 'बालि एक सर मार्यो ।' मा० ६.३६ माल : (१) माला । श्रेणी । 'गंग-तरंग-माल ।' मा० १.३२.१४ (२) हार । 'उर मनि माल ।' मा० १.२३३.७ (३) सं०० (सं० मल्ल) पहलवान । 'कहुं माल देह बिसाल..' अखारेन्ह भिरहिं ।' मा० ५.३ छं० २ मालधारी : वि० । माला धारण करने वाला । विन० ११.६ मालनि, न्हि : माला+संब० । मालाओं, श्रेणियों (ने) । गी० १.३०.२ मालव : दे० मारव (पाठान्तर)। मालवंत : माल्यवंत । मा० ६.४८.५ मालवान : मालवंत । कवि० ५.२१ माला : सं०स्त्री० (सं.) (१) श्रेणी, पङिक्त । 'अलि माला।' मा० १.३७.७. (२) हार । मा० १.२४५.३ (३) लड़ी । 'नर सिर माला ।' मा० १.६२.४ (४) सं०० (सं० माल्य) | 'कुअरि हरषि मेले उ जय माला।' मा० १.१३५.३ मालिका : (१) माला (सं.)। मा० ६.६३ छं० (२) श्रेणी, समूह । 'तरंग मालिका ।' विन० १७.२ | मालिके : मालिका+सम्बोधन (सं.)। कपा-तरंग-मालिके ।' कवि० ७.१७३ (हे ___ कृपारूपी तरङ्गों की श्रेणी=पार्वती जी)। माली : (१) सं०पु० (सं० मालिक>प्रा० मालिअ) । मालाकार । मा० १.३७ (२) (समासान्त में) श्रेणियों से पूर्ण-जैसे, किरन माली। मालम : वि० (अरबी-मअलूम) । ज्ञात, विदित । 'सो मालुम है सब को।' कवि० ७१० मालेव : (सं0- माला+इव) । माला के समान । विन० ११.३ माल्यवंत : सं०० (सं० माल्यवत्) रावण का मामा=एक राक्षस। मा० ५.४०.१ माषे : माखे । गी० १.८४.६ For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 871 मास : सं०० (सं०)। (१) महीना। 'सावन भादव मास ।' मा० १.१६ (२) तीस दिन का समय । 'मास दिवस तह रहेउँ खरारी ।' मा० ४.६.७ मासा : मास । मा० १.३४.५ मासु : मास+कए । महीना । 'हिम रितु अगहन मासु सुहावा ।' मा० १.३१२.५ माहं : महिं । में, भीतर । जिमि मन माह मनोरथ गोई ।' मा० २.३१६.१ माहली : सं०० (सं० महल्लिक-दे० महल-अरबी-महल से संबद्ध)। रनिवास का रक्षक=काञ्चुकीय । 'कोनें ईस किए कपि भालु खास माहली।' कवि० ७.२३ माहि. ही : माहँ। मैं (परसर्ग) । 'भय बिषाद मन माहिं ।' मा० २.१५८, १.५.५ माहिषमती : सं०स्त्री० (सं० माहिष्मती)। नगरी विशेष सहस्रबाहु (अर्जुन) की राजधानी । कवि० ६.२५ माहुर : सं०० (सं० मधुर=विष>प्रा. महुर; सं० माधुर=विष सम्बन्धी चूर्ण ___ आदि>प्रा० माहुर)। विष । 'मरम पाछि मनु माहुर देई ।' मा० २.१६०.७ माहरु : माहुर+कए । 'अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ।' मा० १.६.६ माह : (१) में । ‘सोचे जनि मन माहूं।' विन० २७५.३ (२) मध्य में, अन्तर्गत । माया सब सिय माया माहूं।' मा० २.२५२.३ 'मिट, मिटइ : आ०प्रए० (सं० म्लेट्यते>प्रा० मेट्टइ=मिट्टइ)। मिटता है, नष्ट होता है (म्लेट्ट उन्मादे)। 'मिटइ न मलिन सुभाउ अभंग ।' मा० १.७.४ 'सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना।' मा० १.५३.४ (मूल अर्थ उन्मत्त होना है)। मिटत : वकृ० पु । मिटता-ते । 'सरगहुं मिटत न सावत ।' विन० १८५.४ । मिटति : वकृ०स्त्री० । मिटती, दूर होती । 'अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी ।' मा० १.१४१.५ मिटहि : आ०प्रब । मिटते हैं, नष्ट होते हैं। मिटहि दोष दुख दारिद दावा ।' मा० १.१.७ मिटा : भूकृ.पु । समाप्त हुआ। 'सब कर मिटा बिषादु ।' मा० १.६८ मिटाई : पूकृ० । मिटा कर, समाप्त कर । 'निरखहिं' 'निमि नप के मरजाद मिटाई ।' गी० १.१०८.६ मिटाए : भूकृ०० । मिटा देने पर । ‘सूने पर सून से मनो मिटाए आंक के ।' गी० १.६४.२ मिटि : पू० । मिट कर । 'जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई ।' मा० १.११८.३ मिटिहहि : आ० भ०प्रब० । 'मिटेंगे, नष्ट होंगे । 'मिटिहहिं पाप प्रपंच सब ।' मा० २.२६३ मिटिहिं : मिटिहहिं । 'पाप मिटिहिं किमि मेरे ।' मा० १.१३८.४ For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 872 तुलसी शब्द-कोश मिटिहि : आ०भ०प्रए । मिटेगा-गी। 'आन उपाय न मिटिहि कलेसू ।' मा० १.७२.२ मिटिहैं : मिटिहहिं । 'सोच सकल मिटि हैं ।' विन० १३५.५ मिटी : भूक०स्त्री० । समाप्त हो गयी। मिटी मोहमय सूल ।' मा० १.२८५ मिटे : भूक ०० ० । समाप्त हो गये। 'छन महँ मिटे सकल श्रुति सेतू ।' मा० १.८४.६ मिटेउ : भूकृ.पु०कए । मिट गया । 'मिटेउ छोभु ।' मा० २.२६८.१ मिटेडं : मिट जाने पर भी । 'तुलसी मिटै न मरि मिटेहुँ ।' दो० ३१६ मिट : मिटहिं । कवि० ७.१४४ मिट : (१) मिटइ। मिटता है । 'तुलसी मिटै न मोह तम ।' वैरा० २ (२) चाहे ___मिटे । 'भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू ।' मा० २.१६९.३ ।। मिटेगो : आ.भ.पु०प्रए । मिटेगा । 'मएहु न मिटैगो मेरो मानसिक पछिताउ ।' गी० २.५७.१ मिट्यो : मिटेउ । 'मिट्यो मन को संदेह ।' कृ० ३६ मितप्रद : वि० (सं०) नपा-तुला या सीमित (मित) देने वाला, अल्प दाता। मा० . ३.५.५ मित-मोगी : वि० (सं.)। परिमित भोग (या भोजन) करने वाला=संयमी । मा० ३.४५.८ मिताई : सं०स्त्री० (सं० मित्रता>प्रा. मित्तया)। सौहार्द, मैत्री। ते सठ हठि कत करत मिताई ।' मा० ४.७.३ मिति : सं-स्त्री० (सं०) । नाप, तोल, सीमा। 'राम कथा के मिति जग नाहीं।' मा० १.३३.५ मित्र : (१) सं०पू० (सं०) । सखा, सुहृद् । 'धीरज धरम मित्र अरु नारी।' मा० ३.५.७ (२) स्वपक्षी (विपक्ष या शत्रु का विलोम), शुभेच्छ तथा विपत्ति में सहभागी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।' मा० २.३.२ (३) सूर्य । दो० ३२२ मित्रक : मित्र का । 'मित्रक दुख रज मेरु समाना ।' मा० ४.७.२ मित्रहि : मित्र से, को। 'मित्रहि कहि सब कथा सुनाई ।' मा० १.१७१.२ मिथिला : सं०स्त्री. (सं०) । (१) निमि के पुत्र (जनक वंश के पूर्व ज) द्वारा बसायी हुई नगरी । (२) मिथिला जनपद । मा० २.२७० मिथिलाधनी : मिथिला जनपद के स्वामी जनकराज । मा० २.३०१ छं० मिथिलाधिप : जनकराज । कवि० ७.१ ।। मिथिलापति : जनकराज । मा० १.२१४.८ मिथिलेस : (सं० मिथिलेश) जनकराज । मा० २.२८४ For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 873 'मिथिलेसकिसोरी, कुमारी : जानकी जी। मा० २.८२.२; ४.५.२ मिथिलेसि : मिथिलेस+स्त्री० । जनकराज की रानी । मा० २.२८३ 'मिथिलेसु, सू : मिथिलेस+कए। जनकराज (सीरध्वज)। मा० २.२७४; २.३१५.२ मिथ्या : अव्यय (सं.)। (१) असत्, जिसका आभासमात्र हो-बाद में प्रतीति बदल जाय=प्रातिभासिक । ‘समझें मिथ्या सोपि ।' मा० ७.७१ ख (२) व्यर्थ, निष्प्रयोजन । 'कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ।' मा० ७.४३ मिथ्यावाद : (१) मिथ्या कथन, असत्य जल्पन । ‘पर अपबाद मिथ्याबाद बानी हई ।' विन० २५२.२ (२) असत् को सत् मानने का दर्शन । मिथ्यावादी : (१) वि० सं० मिथ्यावादिन्) । असत् जगत्-सुखों तथा देहादि को सत् मानने वाला (२) झूठ बोलने वाला (३) असत्य को ही अज्ञानवश सत्य कहने वाला । 'बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी । कहहिं परसपर मिथ्याबादी ।' मा० ७.७३.६ मिथ्यारंभ : (१) वि० (सं०) । असत्य तथा निरर्थक (मिथ्या) कार्य (आरम्भ) करने वाला (२) सृष्टि (आरम्भ) को मिथ्या मानने वाला (वैष्णवमत में सृष्टि प्रपञ्च सत्य तथा नित्य है और उसका प्रयोजन लीला है) । मा० ७.६८.४ । मिल : मिलइ । मिलता है, मिल सकता है। ‘सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई ।' मा० ७.६०.६ मिल, मिलइ, ई : आ.प्रए० (सं० मिलति-मिल संगमे>प्रा. मिलइ)। (१) जुटता-ती है । 'तैसी मिलइ सहाइ।' मा० १.१५६ (२) भेंटा जाता है । 'कोज मनि मिलइ ।' मा० ४.२४.२ (३) प्राप्त हो। 'हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ।' मा० १.१३१.८ (४) मिश्रित होता है । 'कीचहि मिलइ नीच जल संगा।' मा० १.७.६ (५) अन्तर्भूत हो जाता है । 'गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ।' मा० २.२३२.२ ।। मिलइ : पूकृ० (सं० मेलयित्वा>प्रा० मिल्लविअ>अ० मिल्लवि)। मिला कर, ___ मिश्रित करके । 'सगुन खीरु अवगुनु जलु ताता। मिलइ रचइ पर पंच बिधाता।' मा० २.२३२.५ मिलए : दे० मिलये। मिलएसि : आ०-भूक.पु+प्रए । उसने मिला दिए =मीस डाले। 'कछु मिलएसि धरि धूरि ।' मा० ५.१८ मिलत : वकृ०० । मिलता-मिलते ; मिलते समय । 'मिलत एक दारुन दुख देहीं।' मा० १.५.४ मिलति : वकृ०स्त्री० । मिलती, भेंटती। 'पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना ।' मा० १.१०२.७ For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 874 तुलसी शब्द-कोश मिलतेउ : क्रियाति०पु० उए० । तो मैं मिलता । ' मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ।' मा० ७.६६.४ मिलतेहु : क्रियाति०पु० म मुनीसा । मा० १.५१.१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० मब० । ( यदि ) तुम मिलते । 'जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मिलन कठिन उर भा संदेहू ।' मा० मिलन: (१) सं०पु० (सं० ) । संयोग । १.६८.५ (२) भेंट | 'मिलन सुभग संबाद ।' मा० १.४३ ख (३) भकू० अव्यय । मिलने । 'ससिहि मिलन तम के गन आए ।' गी० १.२६.५ मिलनि, नी : सं० स्त्री० । मिलने की क्रिया + रीति । 'अवलोकनि बोलनि मिलनि ।' मा० १.४२; ७.१६.४ मिलन: मिलन + कए० । भेंट | 'मुनि गन मिलनु बिसेषि बन ।' मा० २.४१ मिलने की रीति भी । 'निज मिलन्यो नहि मोहि मिलन्यो : ( मिलनि + ऊ) सिखाई ।' कृ० २५ मिलब : भकृ०पु० । (१) मिलना । 'मिलब हमार भुलाब निज ।' मा० १.१६५ (२) मिलना ( होगा - मिलूंगा ) । 'चौथें दिवस मिलब मैं आई। मा० १. १७१५ मिलये : भूकृ०पु० ७. १३२ मिलयो : भूकृ०पु०कए० । मिलाया, मिश्रित किया । 'तन मिलय जल पय की नाई ।" ०ब० । मिला दिये । मीस दिये। 'ते मिलये धरि धूरि ।' कवि० कृ० २५ 'मिलव, मिलवs : आ०प्र० (सं० मेलयति > प्रा० मेलवइ = मिलवइ ) | मिलता है, मिश्रित करता है । 'कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ।' मा० ६. ६७.३ मिलवत: वकृ०पु० । मिलाता-ते, मिश्रित करता ते । 'मिलवत अमिय माहुर घोरि के ।' पा०मं० छं० ७ मिलवह: आ०प्र० । मिश्रित करते हैं कर देंगे कर सकते हैं । 'मदि गर्द मिलवहि दस सीसा ।' मा० ५.५५.७ मिलहिं : आप्रब० । मिलते हैं, मिलें, मिल सकते हैं। 'बिनु हरि कृपा मिलहिं नहि. संता । मा० ५.७.४ मिलहु : आ०म० । मिलो, भेंट करो । 'सीता देइ मिलहु ।' मा० ५.५२ मिला : भूकृ० पु० । 'मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा !' मा० ५.५४.२ मिलाइ : पूकृ० । मिला कर, मिश्रित कर (परिचित करा कर तथा एकीभूत करा कर) । 'सादर सबहि मिलाइ समाजहि निपट निकट बैठारि ।' गी० ५.३६.३ मिलाउब: भकृ०पु० । मिलाया जायगा । 'अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी ।' मा० १.५०.४ For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्द-कोश 875 मिलापु : सं०० (सं० मेलाप = मेलापक) कए। मिलन । 'गुह गीध को मिलापु ।' कवि० ७.२१ मिलाहिं : मिलहिं । 'पूरब भाग मिलाहिं ।' वैरा० २४ मिलि : पूक० । मिलकर । (१) जुट कर । 'सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ।' मा० १.८.३ (२) भेंट कर । 'मिलि सप्रेम पुनि आसिष दीन्ही ।' मा० १.३४२.८ (३) संयुक्त होकर । 'तूल न ताहि सकल मिलि ।' मा० ५.४ मिलिअ, ए : आ०कवा०प्रए० । मिला जाय । 'भरतहि मिलिअ, न होइहि रारी ।' ___ मा० २.१६२.५ मिलिए पै नाथ रघुनाथु पहिचानि के ।' कवि० ६.२६ मिलिक : सं०स्त्री० (अरबी-(१) मलिक=जमीन । (२) मिल्क= राज्याधिकार)। राज्याधिकार का भू-भाग। यह ब्रज भूमि सकल सुरपति सों मदन मिलिक करि पाई।' कृ० ३२ मिलित : भूकृ०वि० (सं०) । संयुक्त । 'नृप मनि मुकुट मिलित पदपीठा।' मा० २.६८.१ मिलिबे : भकृ०० । मिलने । "मिलिबे को साजु सजि ।' कवि० ६.२३ मिलिबो : भकृ.पु०कए। मिलन । 'सोहै सितासित को मिलिबो।' कवि० ७.१४४ मिलिहहिं : आ० भ० प्रब० । मिलेंगे। 'मिलिहहिं राम्।' मा० २.२२५.२ मिलिहि : आ०भ०ए० । मिलेगा । 'अस स्वामी एहि कहें मिलिहि।' मा० १.६७. मिलेगी । 'मिलिहि जानकी ।' मा० ४.५८ मिलिहौं : आ०भ० उए । मिलूंगा । गी० ५.२८.७ मिली : भकृ०स्त्री०ब० । भेटी । 'भगिनीं मिलीं। मा० १.६३.२ मिली : भूकृ०स्त्री० । 'सादर भले हि मिली एक माता।' मा० १.६३.२ मिलु : आ० - आज्ञा- मए । तू मिल । 'सद मिल जाइ तिन्हहि ।' मा० ५.४१.५ मिलें : मिलने से-पर । 'सुरसरि मिलें सो पावन जैसें ।' मा० १.७०.२ मिले : (१) भूकृ.पुब ० । भेटे । 'हरषि मिले उठि रमानिकेता ।' मा० १.१२८.५ (२) मिलें । तिनहिं मिले मन भयो कुपथ रत ।' विन० १८७.२ मिलेउ, ऊ : भूकृ००कए । मिला। 'अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ ।' मा० १.१६१ क; ५.२६.६ मिलेहि : मिलते ही-मिल ही गया था कि ; परिणाम मिलने के समय में ही । 'मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी।' मा० २.४७.१ मिलेहु : आ०-भूकृ००+मब० । तुम मिले । 'मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।' मा० ४.७.१६ मिलें : मिलहिं । 'ते तब मिलें द्रवै जब सोई ।' विन० १३६.१० For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 876 तुलसी शब्द-कोश मिले : (१) मिलइ | मिलता है, मिल सकता है । 'तेहि दिन ताहि न मिल अहारा । मा० ५७.८ (२) मिलइ । मिला कर । 'जड़ पंच मिले जेहि देह करी ।' कवि० ७.२७ "मिलौं : आ० उए । मिलूं मिल सकूं । 'जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ।' मा० ३.८.६ मिलौ : आ० - कामना + प्रार्थना - प्रए० (सं० मिलतु > प्रा० मिलउ ) । मिले । 'बरु मिली सीतहि सांवरो ।' जा०मं० छं० ७ मिल्यो : मिलेउ । 'कहा बिभीषन लै मिल्यो ।' दो० १६५ मिष : सं०पु० (सं० ) । बहाना, ब्याज । विन० २७.१ मिस : मिष ( प्रा० ) । 'कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं ।' मा० १ ६१.६ मिसकीनता : सं० [स्त्री० ( अरबी - मिसकीन = निकम्मा, निर्बल, कुख्यात, जर्जर, अकिंचन । अरबी - मसुकनत् = अकिंचनता आदि ) । दरिद्रता, निर्बलता, निष्क्रियता, कुख्याति । ' लाभ जोगछेम को गरीबी मिसकीनता ।' विन० २६२.३ मींजत : मीजत । विन० १३६.७ मींजि : मीजि । विन० ८३.५ मजिबो : भकृ०पु०कए० । मींजना, मसलना । 'हाथ मीजिबो हाथ रह्यो ।' गी० २.८४.१ मींज : भूकृ०पु०कए० । मसला, रगड़ कर लगाया । 'मींजो गुरु पीठि ( शाबाशी दी) । विन० ७६.३ ' मीच : मीचु । दो० ३४ मोचि : पूकृ० । मूद कर, मोलित करके । 'नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई ।' कृ० १३ मीचु चू : (१) सं० स्त्री० (सं० मृत्यु > प्रा० मिच्चु, मिच्चू) । मोत, मरण । मा० २.२५२.६, मा० १.६.६ (२) जन्मकुण्डल में आठवाँ - मृत्यु का स्थान । 'दारुन बैरी मीचु के बीच बिराजति नारि ।' दो० २६८ मी मई : वि० (सं० मृत्यमय > प्रा० मिच्चुमइअ ) । मृत्यु से परिव्याप्त । 'जल थल मीचुमई है ।' कवि० ७.१७६ मीजत: वकृ०पु० | मसलता-ते । 'अधर दसन दसि मीजत हाथा।' मा० ६.३१.६ मोह, हीं : आ०प्र० । मसलते हैं । 'परम क्रोध मीजह सब हाथा ।' मा० ५.५५.५ मोजि: पूकृ० । मीज कर, मसल कर । 'कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ।' मा० ६.६७.३ मीजिहैं : आ०भ०प्रब० । मसलेंगे, मलेंगे । 'मूढ़ मीजिहैं हाथ ।' दो० १६५ For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश मीठ, ठा: वि०पु० (सं० मिष्ट, मृष्ट > प्रा० मिट्ठ) मीठा, मधुर ( चिकना ) । 'मन मलीन मुह मीठ नृप । मा० २.१७ मीठ, ठी : वि०स्त्री० (सं० मिष्टा, मृष्टा > प्रा० मिट्टी ) । मधुर । मा० १.२६०.५ मीठे : वि०पु०ब० ( प्रा० मिट्ठ = मिट्ठय ) । मधुर, प्रिय । मुख मीठे मानस मलिन ।' दो० २६६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीठो : मीठा + कए० ( अ० मिट्ठउ) । मीठो अरु कठवति भरो । दो० १५ मीत : सं०पु० (सं० मित्र > प्रा०मित्त ) । सुहृद्, सखा, स्वपक्षी । मा० १४ मी : मीत + कए० । अद्वितीय मित्र । 'माधव सरिस मीतु हितकारी ।' मा० २.१०५.३ मीन : (१) सं०पु० (स्त्री०) (सं० ) । मत्स्य । मा० १.२२ ( २ ) नक्षत्र राशिविशेष । 'कोढ़ में की खासी सनीचरी है मीन की ।' कवि० ७.१७७ मीनता : सं० स्त्री० (सं० ) । मत्स्यभाव ( जैसा प्रेम मछली जल से करती है और जलधारा के सम्मुख बहती है, उसी प्रकार का अनन्य तथा आराध्यमुखी प्रेम ) । ' सीतापति भक्ति सुरसरि नीर मीनता ।' विन० २६२.५ मीनराउ : (दे० राउ) मीनराज, महामच्छ । विन० १५२.६ 877 मीना : मीन । मा० १.२७.४ मीनु : मीन + कए० । अकेला मत्स्य । 'मीनु दीन जनु जल तें काढ़ें ।' मा० २.७०.३ मोला : मिला । संयुक्त । 'खेल गरुड़ जिमि अहिगन मीला ।' मा० ६.६६.१ मोसी : भूकृ० स्त्री० । (१) मिश्रित – शकर, मक्खन आदि में मिलाई हुई । (२) मींजी हुई, मसल कर छोटे टुकड़ों में की हुई । 'छोटी मोटी मीसी रोटी ।" कृ० २ मुंदरी : मुदरी । रा०प्र० ३.७.१ मुंह : (१) मुहँ । 'मह भरि भरत न भूलि कही ।' गी० ७.३७.१ ( २ ) मुख से ! 'अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी बरनी । मा० १.२७४.६ मुँहभरि : ठीक से, पूर्णतः बोलकर । गी० ७.३७.१ मुहाचाही : संस्त्री० । परस्पर ( असमर्थता - सूचक) आनाकानी, कंठहँसी, मुहाचाही होन लागी ।' गी० १.८४.८ मुंज : सं०पु० (सं० ) । मूज, सरकण्डा । 1 मुंजाटवी : (मुज + अटवी ) मूज का वन । विन० ५५.६ मुंड : सं०पु० (सं० ) । सिर, कपाल । मा० ६.४४ ' : वि० (सं० ) । मुण्डों से परिव्याप्त । मा० २.१ २.२ For Private and Personal Use Only मुख देखने की क्रिया | मुंडमाल : कपाल-माला | कवि० ७.१४ε मुंडित भूकृ०वि० (सं० ) । मुड़ाए हुए, केश सफाचट कराये हुए । मा० ५.११.४ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .878 तुलसी शब्द कोश मुई : भूक० स्त्री० (सं० मृता>प्रा० मुई)। (१) मर गयी। 'नारि मृई गृह संपति नासी।' मा० ७.१००.६ (२) मरणतुल्य क्लेश में पड़ी। 'जननी कत भार मुई दसमास ।' कवि० ७.४० मुएँ : मरने पर । 'मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।' मा० १.२६१.२ मुए : भूकृ००ब० । मरे हुए । 'मुए मारि मंगल चहत ।' मा० २.३०१ मुएहि : मरे हुए को। 'मुएहि बधे नहिं कछु मनु साई ।' मा० ६.३१.१ मुएहुं, हु : मरने पर भी। 'मुएहुं न मिटिहि ।' मा० २.३६.५ मुकता : सं०स्त्री (सं० मुक्ता)। मोती। मा० २.२६१.४ ।। मुकतावलि : (सं० मुक्तावलि) मुक्तामाला । विन० ७.४.४ मुकतावहिंगे : आ० भ०पू०प्रब० । छुड़ाएंगे, मुक्त करेंगे। 'सब परे बंदि कब मुकतावहिंगे।' गी० ५.१०.४ सुकताहल : सं०० (सं० मुक्ताफल>प्रा० मुत्ताहल)। मोती। सीप में फले हुए ___मोतियों की लड़ी । 'मुकताहल गुन गन चुनइ ।' मा० २.१२८ मुकाम : सं०० (अरबी) । ठहराव, पड़ाव, डेरा। ‘सोच न कूच मुकाम को।' विन० १५६.३ मुकद : सं०० (सं.)। विष्णु । मा० ६.१०३ मुकदा : मुकुंद । मा० १.१८६ छं० १ मुकुट : सं०० (सं०) । (१) शिरोभूषण । मा० १.१०६ (२) श्रेष्ठ (मृकुट __ तुल्य) । 'भटमुकुटमानी ।' विन ० २६.४ मुकुटमनि : (१) मुकुट में खचित मणि । 'एकु छत्रु एकु मुकुटमनि ।' मा० १.२० (२) शिरोमणि, श्रेष्ठ । 'सुनहु महीपति-मुकुटमनि ।' मा० १.२६१ मुकुटांगदादि : (मुकुट, अंगद आदि) शिरोभूषण, बाहुभूषण आदि विविध अलंकरण । मा० ७.१२ छं० २ मुकुटु : मुकुट+कए० । 'मुकुटु सम कीन्हा ।' मा० २.२.६ मुकुत : वि० (सं० मुक्त)। (१) मायारहित, मोक्षप्राप्त, जन्म-मरण से मुक्त । 'भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।' मा० १.२६.७ (२) विदेहमुक्त+जीवन्मुक्त । 'मएँ मुकुत, जीवत मकुत, मुकुत मुकृतहूं बीचु ।' दो० २२५ (३) मुकुता। मोती। 'केस मुकुत सखि मरकत मनिमय होत ।' बर ०६ मुकुता : मुकता ! मा० १.११.१ मुक्तादाम : (दे० दाम) मोतियों को लड़ी। गी० ७.१६.३ मुक्ताफल : मुकताहल । जा०म० ५३ मुकुतामनि : मणितुल्य जगमगाते मोती। मा० १.११.६ मुकुतावली : मुकतावलि । गी० ७.६.२ For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 879 मुकुताहल : मुकताहल । 'बिथुरे नभ मुकुताहल तारा ।' मा० ६.१२.३ मुकुताहलनि : मुकुताहल + संब० । मुक्ता फलों (के) । 'आलबाल मुकुताहलनि ।' दो० ३०१ मुकृति : मुक्ति । मा० १.१६.३ मुकर : सं०० (सं०) । दर्पण । मा० १.१.४ मुकरु : मुकर+कए । एक दर्पण । 'म कुरु कर लीन्हा ।' मा० २.२.६ मुक्ख : मुख । 'परत दसकंध मुक्ख भर ।' कवि० १.११ मुक्त : वि० (सं०) । बन्धनरहित, जन्म-मरणरहित, मोक्षप्राप्त । मा० ३.३६ मुक्तकृत : वि० (सं० मुक्तकृत)। मुक्त करने वाला-वाले । विन० ५०.४ मुक्ता : मुकता (सं०) । मोती। गी०.१.१०८.६ मुक्ति : सं०स्त्री० (सं.)। (१) छुटकारा, स्वतन्त्रता। (२) दार्शनिक दृष्टि से संसार से छुटकारा। इस मुक्तदशा के चार प्रकार हैं-(क) सायुज्य= परमेश्वर और जीव की अभेद दशा । 'सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ।' मा० ६.३.२ (ख) सारूप्य = ईश्वर के समान रूप की प्राप्ति जिसमें सर्वकर्तत्व को छोड़कर सभी कल्याणगुण जीव में आ जाते हैं। (ग) सालोक्य = ईश्वर लोक की प्राप्ति । (घ) साष्टि-ईश्वरवत् ऐश्वर्य की प्राप्ति। चारों ही परस्पर पूरक हैं—केवल पक्षभेद है। 'ऋषि सिद्धि कल्यान मुक्ति नर पावइ हो।' रान० २० मुख : सं०० (सं.)। (१) वदन । 'मुख आव न बाता।' मा० १.७३.८ (२) मुखाकार, चेहरा । 'निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ।' मा० १.१३५.६ ।। मुखछबि : (१) मुख की शोभ । (२) मुख का बिम्ब । 'मुखछबि कहि न जाइ ___ मोहि पाहीं।' मा० १.२३३.६ मुखनि : मुख+संब० । मुखों (से)। 'निज निज मुखनि कही निज होनी ।' मा० मुखर : वि० (सं.)। (१) वाचाल, व्यर्थ अधिक बोलने वाला । 'मुख र मानप्रिय ग्यान गुमानी।' मा० २.१७२.६ (२) शब्दकारी। 'जनु खग मुखर ।' मा० १.१६५.७ (३) शब्द, रव । मुखरकारी : वि० । शब्द करने वाला। 'नपुर बर मधुर मुखरकारी ।' गी० १.२५.३ मुखहिं : मुखों से । 'मुखहिं निसान बजावहिं भेरी ।' मा० ६.३६.१ मुखागर : वि०+सं०० (सं० मुखागर)। जबानी, पत्रादि के बिना केवल मुख __ से कहा हुआ सन्देश । मा० ५.५२ मुखारविंद : (१) कमल (अरविन्द) सदृश विकासयुक्त मुख । गी० १.३८.५ (२) मुखरूपी कमल । 'पियत राम मुखारबिंद मरंद।' गी० ७.२३.३ For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 880 तुलसी शब्द-कोश मखिया : सं0+वि०० (सं० मुख्य)। (१) मुख = अग्रभाग में रहने वाला; मुख के समान सर्वोपार; गणमुख्य, नायक, अग्रणी। राजा । 'मुखि आ मुख सो चाहिऐ।' मा० २.३१५ (२) यथप । 'महा महा मुखआ जे पावहिं ।' मा० ६.४५.१ मुखी : (समासान्त में) वि०स्त्री० (सं०)। मुख वाली। 'निसिनाथ मुखी।' कवि० २.१५ मुख : मुख+कए । मा० २.१०४.२ मुख्ख : मुक्ख । मुख्य : वि० (सं.) दे० मुखिआ । प्रमुख, श्रेष्ठ । मा० १.६२ मुग्ध : मूढ़ (सं०) । 'मुग्ध मधु मथन ।' विन० ५६.६ मुचत : वकृ०० (सं० मुच्यमान>प्रा० मुच्चंत)। छुटते, बरसते । 'अति मुचत स्रमकन मुख नि ।' गी० ७.१८.५ मुठभेरी : सं० स्त्री० । मुष्टिकाओं का संघर्ष; मुष्टिप्रहार । 'चुकइ न घात मार ___ मुठभेरी ।' मा० २.१३३.४ मुठि : मूठि। टोना-टोटका । 'डिठि मुठि निठुर नसाइहौं।' गी० १.२१.२ मुठिकन्ह : मठिका+संब० । मुक्कों (से) । मा० ६.५३.५ मुठिकाँ : मुष्टिका से । 'सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ।' कवि० ६.३८ मुठिका : सं०स्त्री० (सं० मुष्टिका)। मुक्का, मुट्ठी । 'मुठिका मारि महा धुनि गर्जा ।' मा० ४.८.२ मुड़ाइ : पूकृ० (सं० मुण्डापयित्वा>प्रा. मडाविअ>अ० मुडावि) । मुडा कर, केशरहित करवा कर । 'मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।' मा० ७.१००.६ ।। मुड़ायो : भूकृ• पु०कए० । केशरहित करवाया । 'मूड़ मुड़ायो बादिही ।' दो० ६३ मुद : सं०स्त्री० (सं० मुद्)। हर्ष, प्रमोद । मा० १.२.७ मुदमग : मोद के मार्ग, आमोद के उपाय । 'जग मद मग नहिं थोरे ।' विन० १६४.३ मुदमय : (दे० मय) हर्षोल्लासपूर्ण । विन० १६१.३ मुदरी : सं०स्त्री० (सं० मुद्रिका>प्रा० मुद्दिआ>अ० मुद्दड़ी)। अंगूठी । 'मनि मुदरी मन मुदित उतारी।' मा० २.१०२.३ मुदा : (सं०) । प्रसन्नता से । 'देहु कृपालु कपिन्ह कहुँ मुदा !' मा० ६.११६.६ मुदित : भूक०वि० (सं०) । प्रसन्न । मा० २.१०२.३ मदिता : मुदिता से । 'मुदिता मथै बिचार मथानी।' मा० ७.११७.१५ मुदिता : सं० स्त्री० (सं०) । पुण्यात्माओं के प्रति हर्ष की अनुभूति (जो योग में एक ___ सम्पत्ति मानी गयी है) । मा० ३.४६.४ मदितायन : मुदिता नामक सात्त्विक हर्ष से सम्पन्न । मा० ७.३८.५ For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 881 मुद्गर : सं०० (सं०) । गदा के आकार का आयुधविशेष जो मूठ में पतला और उत्तरोत्तर मोटा होता है । मा० ६.४०.८ मुद्रिक : मुद्रिका । विन० ६३.५ मुद्रिका : मुदरी। मा० ५.१२ मुषा : अव्यय (सं०) । मिथ्या । 'होइ न मुधा देवरिषि भाषा।' मा० २.२८५.८ मुनि : सं० (सं.)। मननशील महात्मा-अगस्त्य, ब्यास आदि । मा० १.४५ मुनिद, दा : (सं० मुनीन्द्र>प्रा० मुणिद)। श्रेष्ठ मुनि । मा० १.६४.१ मुनिद : मुनिंद+कए । एक मुनि (वाल्मीकि) । कवि० ७.१३८ मुनिकुल : मुनि-समूह । मा० १.२१६.१ मुनिगन : मुनि-समूह । मा० २.४१ मुनिचीर, रा : मुनियों का परिधान=बल्कल वस्त्र । मा० ३.११.३ मुनिजन : मुनिगन । मा० २.३०२ मुनितिय : मुनि पत्नी । मा० १.३५७.३ मुनितियन्ह : मुनितिय+संब० । मुनि पत्नियों । मा० २.२४६.२ मुनिन : मुनिन्ह । मुनिनाथ, नायक : मनि-मुख्य । मा० २.१७१, ३.१ मुनिन्ह : मुनि+संब० । मुनियों । 'भंजी सकल मुनिन्ह के त्रासा।' मा० ७.६६.२ मुनिपट : मुनिचीर । मा० १.१४३.८ मुनिपतिनी : (सं० मुनि-पत्नी) अहल्या (आदि) । मा० ७.१३ छं० ४ मुनिबधू : मुनि-पत्नी । मा० १.२२१ मुनिबनिता : मुनि-पत्नी । मा० १.३२४ छं० २ मुनिबर : श्रेष्ठ मुनि । मा० १.१८.५ मुनिबरन्ह : मुनिबर+संब० । मुनिवरों (ने) । 'समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई ।' मा० १.३२४.३ मुनिबरु : मुनिबर+कए । 'बोले मुनिबरु ।' मा० २.२५४.१ मुनिबर्य : (सं० मुनिवर्य) । मनिबर । मा० १.४३ ख मनिबसन : मुनिचीर । मा० १.२६८.८ मुनिबाल : मुनियों के बालक । गी० ३.६.३ मुनिराई : मुनिराय । मा० १.३२३.७ मुनिराउ, ऊ : मुनिराय+कए । मा० २.२४३; २६१.५ मुनिराज, जा : (सं० मुनिराज) श्रेष्ठ मुनि । वसिष्ठ (आदि) । मा० २.५ मुनिराय, या : मुनिराज (प्रा० मुणिराय) । मा० २.१२६.१; १.४६.५ मुनिहि : मुनि को । 'मुनिहि हरिअरइ सूझ ।' मा० १.२७५ For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 882 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश मुनिहु : मुनि के भी । 'मुनिहु कहें जलु काहु न लीन्हा । मा० २.२४०.८ मुनी : मुनि । कवि० ७.७२ मुनींद्र : मुनिंद | मा० ३.४ छं० मुनीस, सा: मुनींद्र (सं० मुनीश) । मा० १.४५.३; १८.६ मुनीसन्ह : मुनीस + संब० । बड़े मुनियों (ने) । 'भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ।' मा० १.३३.७ मुनीसु : मुनीस + कए० । ' देत असीस मुनीसु ।' मा० १.३५२ मुनीस्वर : मुनीस ( सं० मुनीश्वर ) । मा० ७.११०.१० मुरछा : मुरुछा । मा० ६.७५.१ मुरछित : मुरुछित । गी० २.५.३ मुरति : मूरति । गी० १.५.३ भुरलि : सं० स्त्री० (सं० मुरली ) । वंशी, सुषिर वाद्य विशेष = बाँसुरी । कृ० ३३ मुरा : भूकृ०पु० (सं० मुटित > प्रा० मुडिअ ) । मुड़ा, पिछड़ा ( शङ्कित हुआ) । 'गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा ।' मा० ६.१६.७ मुरारी : सं०पु० (सं० मुरारि ) । मुर दैत्य के विनाशक = विष्णु (कृष्ण) । कृ० २२ मुरारे : मुरारि + संबोधन (सं० ) | हे मुरारि । विन० ११०.४ मुरि : पूकृ० (सं० मुटित्वा > प्रा० मुडिअ > अ० मुडि) । मुड़ कर पीछे घूमकर । 'मुरि चले निसिचर बीर ।' मा० ३.२०.३ मुरुखाई : सं० स्त्री० (सं० मूर्खता > प्रा० मुरुक्खया) । नासमझी, अविवेक । पा०मं० छं० ६ मुरुछा : सं०स्त्री० (सं० मूर्छा ) । संज्ञा शून्यता, बेहोशी । मा० २.४३ सुरुछि : पू० । मूर्च्छित होकर । 'मुरुछि परा महि राऊ ।' मा० २०८२.८ मुरुछित : भूकृ०वि० (सं० मूर्च्छित ) | संज्ञा शून्य बेहोश । मा० २०७९६.७ मुरे : भूकृ०पु०ब० । मुड़े, पीछे घूम चले । 'मुरे सुभट सब फिरहि न फेरे । मा० ६.६७.६ मुर्यो : भूकृ०पु० ०कए० । मुड़ा, पीछे घूमा, पिछड़ा । 'मुर्यो न मनु । ' मा० For Private and Personal Use Only ६.६५.६ मुष्टि: सं० स्त्री० (सं०) । मुक्का, बद्धाङ्ग लिहस्त । मा० ४.८.३ मुसलधार : क्रि०वि० (सं० ) । मूसलाधार, मुसलतुल्य मोटी धाराओं से । 'बरबैं मुसलधार बार-बार घोरि के ।' कवि० ५.१६ मुसुका, मुसुकाइ : आ०प्र० । अप्रकट दन्तपंक्तिपूर्वक हास करता है, स्मित करता है, मुसकुराता है । मन मुसुकाइ भानुकुल भानू ।' मा० २.४१.५ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलसी शब्द-कोश 883 मुसुकाइ : पू० । मुसकुरा कर; स्मित करके । 'कह कृपाल मुसुकाइ।' मा० ५.५६ मुसुकाई : (१) मुसुकाइ । स्मित करता है। 'अवलोकि मातु मुख प्रभु मन में मुसुकाई ।' गी० १.१६.५ (२) मुसुकाइ । स्मित करके। 'कृपासिंधु बोले मु पुकाई ।' मा० २.१०१.१ (३) भूक०स्त्री० । स्मितपूर्वक हँसी, मुसकुरायी। कृ०८ मुसुकात, ता : वकृ०० । मसकुराते हुए, स्मित करते हुए । 'चोरत चितहि सहज ___ मुसुकात ।' गी० २.१५.२ 'भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता।' मा० १.६३.२ मुसुकान, ना : भूकृ.पु । स्मितपूर्वक ओष्ठ विकास किया, मुसुकुराया । मा० ६ १३.८, ६.८६.७ मुसुकानि, नी : (१) भूकृ०स्त्री० । हँसी, मुसकुरायी। 'भरत मातु मुसुकानि ।' मा० २.१४ 'उमा मुसुकानी।' मा० १.१४१.७ (२) सं०स्त्री० । मुस्कुराहट, स्मित-क्रिया । 'प्रभु हसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ।' मा० १.२०१.८ मुसुकाने : भूक ००ब० । मुसकुराए । 'मुनि मुसुकाने ।' मा० ३.१३.४ मुसुकाहिं, ही : आ०प्रब० । स्मित करते हैं, मुसकुराते हैं। 'जननि जनक __ मुसुकाहिं ।' मा० १.६५; ६१.६ मुहँ : (१) मुह में । 'मुहं परेउ न कीरा ।' मा० २.१६२.२ (२) मुह पर । 'लागि मुह लाटी ।' मा० २.१४५.४ (३) मुह से। मुह : मुख (प्रा०) । मा० २.१७ मुहु : मुह+कए । अकेला (अपना) मुख । 'बैठ मुहु गोई ।' मा० २.३६.६ मूड़: मुड । सिर । कवि० ६.५० मूदरी : मुंदरी । गी० ५.३.१ मूदे : मूदे । 'मूदे कान जातुधान मानों गाजे गाज के।' कवि० ६.६ मूक : सं० (सं०) । गूगा, वाक्शक्ति हीन । मा० २.५४ ।। मूकनि : मूक+संब० । गूगों (को) । 'मूकनि बचन लाहु ।' गी० १.६०.५ मूकिये : आ०कवा०प्रए० (सं० मुक्त+नाम धातु>प्रा० मुक्कीअइ) । छोड़िए । ___ 'परेहू चूक मूकिये न ।' हनु० ३४ मूकी : भूक०स्त्री. (सं० मुक्ता>प्रा० मुक्की)। छोड़ी। 'मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।' कवि० ७.८८ मूठि : सं०स्त्री० (सं० मुष्टि>प्रा० मुट्ठि) । तलवार आदि का पकड़ा जाने वाला भाग । मा० २.३१.२ (२) एक प्रकार का मारण प्रयोग जो इसी नाम से जाना जाता है । (३) मुष्टि प्रहार । 'काहूं देवतनि मिलि मोटी मूठि मार दी।' कवि० ७.१८३ For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 884 तुलसी शब्द-कोश मूठी : मूठि । बन्द हाथ की मात्रा (नाप) । 'तिन आखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये ।' दो० ४५ मूड़ : मंड़ । 'मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।' मा० ७.१००.६ मूड मारि : सिर पीट कर =अतिशय प्रयास करके । विन० २७६.५ मूढ़ : वि० (सं.)। मोहग्रस्त, तमोलीन, मूर्ख । मा० १.२८.६; १.२५० मूढ़ता : सं०स्त्री० (सं.)। मूढ़ दशा, अज्ञता, मूर्खता । मा० ६.५६.७ मूढ़मति : वि० (सं.)। मोहग्रस्त बुद्धि वाला, तमोगुणी बुद्धि वाला, अज्ञानी । विन० २१४.५ मूढ़ा : मढ़ । मा० १.४७.४ मूत्र : सं०० (सं.)। विन० १३६.३ मूदहिं : आ०प्रब० (सं० मुद्रयन्ति>प्रा० मुइंति>अ० मुद्दहिं) । बंद करते हैं, ढक __ लेते हैं । 'ते मूदहिं काना।' मा० १.२६३.८ मूबहु : आ० मब० । (१) ढक लो। 'मूदहु नयन ।' मा० ४.२५.५ (२) ढकते ती हो । 'का घूघट मुख मूदहु ।' बर० १७ मूदि : पूकृ० । ढंक कर । 'नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा ।' मा० ४.२५.६ मूदें : ढक लेने पर । 'मूदें आँखि कतहुं कोउ नाहीं।' मा० १.२८०.८ मूदे : भूक००ब० । ढके । 'मूदे सजल नयन पुलके तन ।' मा० २.२८८.२ भूदेउँ : आo-भूक००+उए । मैंने ढक लिये। 'मूदेउँ नयन त्रसित जब भयऊँ।' मा० ७.८०.१ मूर : सं०० (सं० मूल) । पूजी, मूलधन । 'फिरेउ बनिक जिमि मूर गाई ।' मा० २६६.८ मूरख : मरुख । मा० ३.१ मूरति : (१) सं०स्त्री० (सं० मूर्ति) । विग्रह, शरीर, आयामबद्ध आकार । 'सुकृत सुमंगल मूरति मानी।' मा० १.१६.६ (२) बिम्ब, प्रतिबिम्बित आकृति । 'संकर सोइ मरति उर राखी ।' मा० १.७७.७ (३) प्रतिमा । 'खसी माल मूरति मुसुकानी ।' मा० १.२३६.५ (४) रूपाकार । 'मूरति मधुर मनोहर देखी।" मा० १.२१५.८ मूरतिमंत : वि० (सं० मूर्तिमत्) । मूर्त, साकार । 'मूरतिमंत तपस्या ।' मा० १.७८.१ मूरि, री : सं०स्त्री० (सं० मूल) । (१) जड़। 'मोर-सिखा बिनु मूरिहूँ पलुहत गरजत मेह ।' दो० ३१६ (२) जड़ी-बूटी । 'जिअ मूरि जिमि जोगवत रहऊँ ।' मा० २.५६.६ मूरिमय : (दे० मय) बूटी से निर्मित । 'अमिअ-मूरिमय चूरन चारू ।' मा० १.१.२. For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 885 मूरी : मूरि । 'संसति रोग सजीवनि मूरी।' मा० ७.१२६.२ मूरुख : वि० (सं० मूर्ख>प्रा० मूरुक्ख) । मूढ़, विवेक हीन, दुर्बुद्धि । मा० मूल : सं०० (सं०) । (१) जड़ । 'कंद मूल फल ।' मा० २.१३५.२ (२) मुख्य कारण । 'कलि केवल मलमूल मलीना ।' मा० १.२७.४ (३) नक्षत्र विशेष । गी० १.१६.३ मूलक : सं०० (सं.) । मूली, कन्दविशेष । 'सकौं मेरु मूलक इव तोरी।' मा० १.२५३.५ मूलभूत : कारणस्वरूप । विन० ४६.५ मूलमिदमेव : (सं० - मूलम् + इदम् +एवं इदमेव मूलम्) यही मूल है। विन० ४६.७ मूला : मूल । मा० १.३.८ मूलिका : (१) सं० स्त्री० (सं०) । जड़ी । गी० १.६.३ (२) संजीवनी बूटी । 'जिये कुवँर निसि मिल मूलिका ।' गी० ६.६.३ मूलु : मूल+कए । एकमात्र मूल, मुख्य जड़ । 'मानहुं कमल मूलु परिहरेऊ ।' मा० २.३८.७ मूषक : (१) सं०० (सं०) । चूहा, मूसा । मा० ७.१२१.१८ (२) चोर । मूसर : सं०० (सं० मुसल, मूसल) । 'कलपद्रुमु काटत मूसर को । कवि० ७.१०३ मृग : सं०० (सं०) । (१) खुरों वाला वन्य जीव (बराह आदि) । 'प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा।' मा० १.१५७.४ (२) हरिण । 'होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी।' मा० ३.२५.२ (३) चन्द्रमा का कलङ क । 'देह सुधागेह ताहि मृगहूं मलीन कियो ।' कवि० २.४ (४) मृगशिरा नक्षत्र । दो० ४५६ मृगछाल, ला : मृग चर्म । 'लखन ललित कर लिये मृगछाल ।' गी० ३.६.१; मा० ६.११.४ मृगजल : सं०० (सं०)। चमचमाती धूप में जलतरङ्ग की भ्रान्ति जो मृग को हो जाती है (ऐसी अनुश्रुति है); मृगमरीचिका, मृगतृष्णा । मिथ्या आशा, असत् वासना । मा० ७.१२२.५ ‘मति मटकी मृगजल भरि घृत हित मन ही मन महिबे ही ।' क० ४० मृगजल : मृगजल+कए० । मृगतृष्णा, व्यर्थ आशा-वासना । 'मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ।' मा० १.२४६.५ मृगजूथ : (दे० जूथ) मृगसमूह । मा० ७.३०.६ मृगनयनी : वि०स्त्री० (सं.)। मृग के समान चकित-मुग्ध नेत्रों वाली। मा० मा० ७.११५ ख For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 886 तुलसी शब्द-कोश्य मृगनायक : वन जीवों का राजा=सिंह । मा० ६.६६.२ मगनि : मगन्ह । मृगों (को)। 'तुलसी मुनि खग मगनि सराहत ।' गी० ३.१.३ मृगनै नि, नी : मृगनयनी । मा० ३.३०.६ मृगन्ह : मृग+संब० । मृगों (वन जन्तुओं) । 'बिबिध मृगन्ह कर आमिष राधा। ___ मा० १.१७३.३ मृगपति : मगनायक । मा० ६.११ ख मृगबारि : मृगजल । विन० ७३.२ मृगभ्रमबारि : मृगबारि । विन० १३६.२ मृगमद : सं०० (सं.)। कस्तूरी । मा० १.१६४.८ मृगमाला : मृग-श्रेणी, हरिणसमूह । मा० १.३०३.६ मगया : संस्त्री० (सं.)। आखेट, शिकार । मा० ३.१६.६ मृगराउ, ऊ : मृगराजु (अ०)। सिंह । 'कलुष पुज कुंजर मृगराऊ ।' मा० २.१०६.१ मृगराज : मृगनायक । मा० १.१२५ मृगराजु, जू : मृगराज+कए० । अकेला सिंह। जिमि करि निकर दलइ मृगराजू ।' मा० २.२३०.६ मृगरूपा : (सं० मृगरूप) मगरूपधारी (चन्द्रमा के भीतर बसने वाले मृग के समान)। 'कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा । जहँ बस राम-प्रेम मृगरूपा ।' मा० २.२१०.१ मृगलोचनि, नी : मृगनयनी । मा० २.६३.४ मृगवात : मृगसमूह । विन० ५६.५ मगसावक नयनी : मृगशावक (हरिणशिश) के समान भोले सुन्दर नेत्रों वाली। ___मा० २.८.७ मृगा : मृग । कवि० ३.१ मृगांक : (१) सं०० (सं०)। एक प्रकार का रसायन = चन्द्रोदय रस जो क्षय रोग की उत्तम औषध है । उसे रत्नों और सुवर्ण की भस्म से बनाया जाता है । कवि० ५.२५ (२) चन्द्रमा । मुगिन्ह : मृगी+संब० । मृगियों (को)। 'मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।" मा० २.५१.१ मृगी : मृगी+ब० । हरिणियाँ । 'मृगी कहहिं तुम्ह कहुं भय नाहीं।' मा० ३.३७.५ मृगी : सं०स्त्री० (सं०) । हरिणी । मा० ३.२६.२४ मृगु : मृग+कए० । कोई हरिण । 'मनहुं भाग मृगे भाग बस ।' मा० २.७५ मतक : सं.पु. (सं.)। मरा हुआ, शव । मा० १.३०८.४ मृतककर्म : प्रेतकर्म ; दाह-संस्कार आदि औध्र्वदेहिक कृत्य । मा० ४.११.८. For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 887 मृत्यु : मीचु । मा० ३.२.६ मृदंग : सं०० (सं.)। वाद्यविशेष । मा० १.३०२ मद् : वि० (सं०) । कोमल, सुकुमार । मा० १.२.१ मृदुगात : (दे० गात) कोमलाङ्ग, सुकुमार । मा० १.२२३.२ मुचित : कोमल चित्त वाला, सहृदय, दयालु । मा० ६.४५.४ मृदुता : सं०स्त्री० (सं०) । कोमलता । 'बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं (मृदुता से ही)।' मा० २.२११.७ मृदुल : मृदु (सं०) । मा० १.१६० मदुलाई : मृदुता (सं० मृदुलता) । 'मो पर कृपा परम मृदुलाई ।' मा० ७.१२४.३ मनाल : सं०० (सं० मृगाल)। कमलनाल । मा० १.२५५.८ मषा : अव्यव (सं.)। मिथ्या, मुधा । 'संभु गिरा पुनि मृष्टा न होई ।' मा० १.५१.३ में : परसर्ग - अधिक रणसूचक (सं० स्मिन् >प्रा० म्मि)। 'न मूहू में बारु है ।' कवि० ७६७ मेंढक : मेड़ क । विन० ३२.२ । मे : (१) (सं०) मम । मेरे लिए, मुझे । 'प्रसीद मे नमामि ते ।' मा० ३.४.२२ (२) मेरा-मेरी-मेरे । 'न अन्यथा वचांसि मे ।' मा० ७.१२२ ग । मेकल : सं.पु० (सं.)। पर्वतविशेष (जिससे नर्मदा निकली है) । मा० १.३१.१३ मेकलसुता : रेवा, नर्मदा नदी । मा० २.१३८.४ मेखल : मेखला । विन० ६३.३ ।। मेखला : (१) संस्त्री० (सं०) । करधनी, कटिभूषण । विन० ६१.६ (२) घेरा । 'भूमि सप्त सागर मेखला ।' मा० ७.२२.१ (मूल अर्थ कटिभूषण का यहाँ भी मेखु : मेषु । मेष राशि (जिसका पूर्ण चन्द्र आश्विन पूर्णिमा को होता है) । 'ससि सुपूरन मेखु ।' गी० ७.६.२ मेघ : सं०० (सं.)। बादल । मा० २.१.२ मेघ-डंबर : मेघ-घटाओं का घेरा। मा० ६.१३.५ मेघनाद : सं०० (सं.)। रावण पुत्र=इन्द्र जित् (जन्म समय में मेघवत् नाद करने से नाम पड़ा।' मा० १.१८२.१ ।। मेघनाद : मेघनाद+कए० । अकेला मेघनाथ । कवि० ५.१२ मेघमाल : मेघों की श्रेणी, मेघसमूह । कवि० ५.२ ।। मेघहिं : मेघ में । 'गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ।' मा० २.२३२.१ मेचक : वि० (सं.)। काला, नीला, नील-कृष्ण । 'मेचक कुंचित केस ।' मा० १.२१६ For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 888 तुलसी शब्द-कोश मेचकताई : सं०स्त्री० (सं० मेचकता) । लालिमा या नीलिमा । मा० ६.१२.४ मेट, मेटइ : आ०प्रए० (सं० म्लेटति>प्रा० मेट्टइ-म्लेट उन्मादे) । मिटाता है, मिटाये, मिटा सके। 'राम रजाइ मेट मन माहीं । देखा सुना कतहुं कोउ नाहीं।' मा० २.२६८.७ मेटत : वकृ.पु० । मिटाता-ते । 'मेटत कठिन कुअंक भाल के।' मा० १.३२ मेटति : वकृ०स्त्री० । मिटाती । 'छाँह जेहि कर की मेटति पाप ।' विन० १३८.५ मेटनिहार : वि.पु. । मिटाने वाला । मा० १.६८ मेटब : भकृ०० । मिटाना (होगा, चाहिए)। 'बेगि प्रजा दुख मेटब आई।' मा० २.६८.६ मेटहि : मा०मए । तू मिटा दे। 'अमिय बचन सुनाइ मेटहि बिरह ज्वाला जालु ।' गी० ५.३.१ मेटहु : आ०मब० । मिटाओ, दूर करो। 'मेटहु तात जनक परितापा।' मा० १.२५४.६ मेटा : भूक०० । मिटाया। मा० २.२१७.२ मेटाई : पू० । मिटा कर । 'चले धरम मरजाद मेटाई ।' मा० २.२८८ मेटि : पूकृ० । मिटा कर । 'बिदा कीन्ह 'सोच सब मेटि ।' मा० २.३१ मेटे : भूकृ००ब० । मिटाये । मा० ७.६.१ मेट्यो : भूक००कए। मिटाया। 'मैं-तें मेट्यो मोह तम ।' वैरा० ३३ मेड़ क : सं०० (सं० मण्डूक)। मेढक । मेड़ कन्हि : मेड़ क+संब० । मेढकों (को) । 'जौं मृगपति बध मेड़ कन्हि ।' मा० ६.२३ ग मेढ़ी : सं० स्त्री० (सं० मेढी-स्तम्भ>प्रा० मेढी) । (१) करधनी में दण्डाकार आभूषण विशेष । (२) बालों की दण्डाकार चोटी । 'मेढ़ी लटकन मनि कनक रचित ।' गी० १.११.२ मेढ़ क : मेड़ क । दो० ३९८ मेदिनि : सं०स्त्री० (सं० मेदिनी) । (मधुकैटभ की मेदा-चर्बी से बनी हुई) पृथ्वी । मा० २.१६२.२ मेधा : सं०स्त्री० (सं०) । स्मरण शक्ति ; धारणावती बुद्धि (जो एक विषय पर ___ एकाग्र होती है) । मा० १.३६.८ मेरवनि : सं० स्त्री० (सं० मेलना>प्रा० मेलवणा) । मिलाना, संगत करना (बाँधना) । 'कटि निषंग परिकर मेरवनि ।' गी० ३.५.२ मेरिऔ : मेरी भी । 'मेरिऔ टेव कुटेव महा है।' कवि० ७.१०१ मेरियै : मेरी ही । 'कलिहूं जो सीखि लई मेरिय मलीनता।' कवि० ७.६२ मेरियो : मेरिओ। विन० २७१.२ For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 889 मेरी : वि० सर्वनाम-स्त्री० । 'मेरी बार ढील की।' कवि० ७.१८ मेरु, रू : सं०० (सं०) । (पुराण प्रसिद्ध) सुमेरु पर्वत (जो सोने का कहा जाता है)। मा० २.७२.३ मेरू : मेरु । 'सकइ उठाइ सरासुर मेरू।' मा० १.२६२.७ मेरें: (१) मेरे अधीन, मेरे पास । 'जस कछु बधि बिबेक बल मेरें।' मा० १.३१.३ (२) मेरे...से । 'मेरें ही अभागनाथ ढील की।' कवि० ७.१८ मेरे : सार्वनामिक विशेषण पु० । मा० १.१४.३ मेरो : मेरा+कए० । मा० ७.४४.७ मेरोइ, ई : मेरा ही। 'मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु।' कवि० ७.१५७ मेलत : व.पु. (सं० मुञ्चत् =प्रा. मेल्लंत) । डालता-ते । 'मेलत पावक हाथ।' दो० १४७ मेलहि, ही : आ०प्रब० (प्रा० मेल्लति>अ० मेल्लहि सं० मुजन्ति) डालते हैं। गल अंतावरि मेलहीं।' मा० ६.१ छं० मेला : भूकृ००। डाला, छोड़ा। 'सो उचाट सब के सिर मेला।' मा० २.३०२.३ मेलि : पूकृ० । (१) डालकर (पहनकर)। 'मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।' मा० ७.६६.२ (२) ऊपर फेंक कर । 'नाउनि मन हरषाइ सुगंधन मेलि हो।' रान०१८ (३) आ०-प्रार्थना-मए । तू डाल ले । 'के खरिया मोहि मेलि ।' दो० २५५ मेलिए, ये : आ०कवा०प्रए० । डालिए, छोड़िए । 'तिन आँखिन में धूरि 'मेलिये।' दो० ४५ मेलिहि : आ०म०प्रए । डालेगा-गी। 'मेलिहि सीय राम उर माला ।' मा० १.२४५.३ मेली : भूक स्त्री० । डाली । 'सुता बोलि मेली मुनि चरना।' मा० १.६६.८ मेले : भक०पू०ब० । डाले । 'पुनि चरननि मेले सुत चारी।' मा० १.२०७.५ मेलेउ : भूक ००कए० । डाला । 'कुरि हरषि मेलेउ जयमाला ।' मा० १.१३५.३ मेल : मेलहिं । मिलाते हैं। 'मेले गरे छुराधार सों ।' कवि० ५.११ मेले : आ०प्रए । डाले । 'तब मैलै जयमाल ।' मा० १.१३१ मेवा : सं०० (फा० मेवः) । फल । मा० १.३३३.४ मेष : सं०० (सं.) । (१) भेड़ा । 'वृकु बिलोकि जिमि मेष बरू था।' मा० ६.७०.१ (२) मेष राशि (एक नक्षत्र समूह)। मेषादिक : मेष इत्यादि १२ नक्षत्र राशियां-मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या; तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन । दो० ४५६ मेषु : मेष+कए । मेष राशि । For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 890 तुलसी शब्द-कोश मेह : मेघ (प्रा.) । दो० २६४ मैं : सर्वनाम - उत्तम पुरुष-कर्ताकारक (सं० मया>प्रा० मइ>अ० मई)। (१) मैंने । “मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा ।' मा० १.५.१ (२) मुझ से, मेरे द्वारा । 'सो सब हेतु कहब मैं गाई।' मा० १.३३.२ (३) मैं-हौं (सं० अहम् >प्रा० मं) । 'तो मैं जाउँ कृपायतन ।' मा० १.६१ (४) अहन्ता, अहंकार । 'मैं अरु मोर तोर त माया।' मा० ३.१५.२ मैं-तै : अहन्ता का वह रूप जिसमें मनुष्य अपने को केन्द्र बना कर शेष को पृथक् मानता है-यही द्वैत है। मा० ३.१५.२ 'मैं-तं मेट्यो मोहत ऊगो आतम भानु ।' वैरा० ३३ मैंमोर : मायाकृत अहंता और ममता- अपने को भोक्ता मानकर विषयों के प्रति भोग्य भावना लेकर अपनापन । मा० ३.१५.२ 'तुलसिदास मैंमोर गये बिनु जिउ सुख सांति न पावै ।' विन० १२०.५ मै : मय । व्याप्त, पूर्ण । 'मनो रासि महातम तारक मै ।' कवि० २.१३ मैना : सं०स्त्री० (सं० मातृका>प्रा० माइआ माइया)। माता । मा० २.५३ मैथिली : संस्त्री० (सं०) । मिथिला नरेश की पुत्री=सीता । मा० ६.१०६.१ ।। मैथुन : सं०स्त्री० (सं.)। मिथुन भाव +मिथुनकर्म । स्त्री पुरुष के मिलन का सुख । विन० २०१.४ मैन : मयन । (१) कामदेव । मा० १.१२६ (२) मोम, मधुमल । 'तुलसी ताहि कठोर मन सुनत मैन होइ जाइ।' वैरा० १६ 'मैन के दसन कुलिस के मोदक कहत सुन बोराई।' कृ० ५१ (३) काम+मोम । 'बिथकी है ग्वालि मैन मन मोए । कृ० ११ मनहिं : (१) मेना को । 'सोचु भयउ मन मनहिं ।' पा०म० १०८ (२) मैना से । ___ 'अरुंधती मिलि मैनहिं बात चलाइहि ।' पा०म० ७६ मैना : मेना ने । 'मैना सुभ आरती सवारी।' मा० १.६६.२ मैना : सं०स्त्री० (सं० मेना)। हिमाचल-पत्नी=पार्वती की माता। मा० १.६६.६ मनाक : सं०० (सं.)। हिमाचल-पुत्र पर्वतविशेष जो सागर में स्थित बताया गया है। मा० ५.१.६ मैनु : मैन+कए । कामदेव । 'मनोहरो जिति मनु लियो है ।' कवि० २.१६ मैया : मैआ। 'याहि कहा मैया मुह लावति ।' कृ० १२ मैला : वि.पु. (सं० मलिन>प्रा० मइल्ल ) । कलुष, क्षुब्ध । 'पठए बालि होहिं मन मैला ।' मा० ४.१.५ मैले : विपुब० । कलुष, क्षोभयुक्त, कुभलाये हुए । 'अबुध असैले मन मैले महिपाल भये ।' गी० १.७३.५ For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 891 मैलो : मैला+कए० । कलुष, खिन्न । 'तुम जनि मन मैलो करौ ।' विन० २७२.१ मो: (१) सर्वनाम । मुझ । 'मोतें' (मुझ से) । मा० ३.३६.३ 'मो सो (मुझ __सा) । मा० १.२८.४ आदि (२) परसर्ग । में। 'रुचिर रूप जल मो रसेस ह्व मिलि न फिरन की बात चलाई।' क० २५ मोई : भकृ.स्त्री० (सं० मोदिता-मुद स्नेहने) । चिकनाई हुई, भावित की हुई, सिक्त । 'कछुक देव मायाँ मति मोई।' मा० २.८५.६ मोए : भूकृ००ब० । (सं० मोदित-मुद स्नेहने>प्रा० मोइय)। मोवन लगाये हुए, चिकनाये हुए, सिक्त-आर्द्र किये हुए । 'बिथकी है ग्वालि मैन मन मोए।' कृ० ११ मोको : मुझको । 'तुम्हही बलि ही मोको ठाहरु हेरें ।' कवि० ७.६२ मोखे : सं०पु०ब० । मुखाकार गवाक्ष, झरोखे । 'नयन बीस मंदिर के से मोखे ।' ___ गी० ५.१२.५ मोचत : वकृ०० । छोड़ता-ते । बारिज लोचन मोचत बारी।' मा० २.३१७.६ मोचति : वकृस्त्री० । छोड़ती । 'लोचन मोचति बारि ।' मा० २.१६४ मोचन : वि०पुं० । छुड़ाने वाला । 'बदन मयंक तापत्रय मोचन ।' मा० १.२२१.५ मोचनि : वि०स्त्री० । छुड़ाने वाली । 'कथा सुनी भव मोचनि ।' मा० ७.५६.१ मोहि : आ.प्रब० । छोड़ते हैं । 'मोचहिं लोचन बारि ।' मा० २.१४२ मोचिनि : संस्त्री० (प्रा. मोच= फा० मोजः-सं० मोचिनी) । मोजा (या ___ जता) बनाने वाली जाति की स्त्री । मोची स्त्री । रा०न० ७ मोच्छ : सं०पुं० (सं०) । मुक्ति । मा० ३.१५ मोच्छप्रद : मोक्षदायक । मा० ३.१६.१ मोट : (१) वि०पू० । मोटा-झोटा, खुरदुरा । 'भूमि सयन पटु मोट पुराना ।' मा० २.२५.६ (२) सं०स्त्री०। गठरी (धन की ग्रन्थि) । 'चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहाल को।' कवि० ७.१७ पोटरी : मोट । गठरी । 'निज निज मरजाद मोटरी सी डार दी।' कवि० ७.१८३ मोटी : वि०स्त्री० । स्थूल, बड़ी, भारी ! 'काहूं देवतनि मिलि मोटी मूठि मार दी।' कवि० ७.१८३ मोटे : वि०पू०ब० । बड़े, स्थूल (भद्दे) । 'बोल न मोटे मारिऐ।' दो० ४२६ मोटेऊ : स्थूल भी । 'मोटेऊ दूबरे ।' विन० २४६.१ मोति : मोती । गी० ७.२१.८ मोतिन : मोती+संब० । मोतियों। 'मोतिन माल अमोलन की।' कवि० १.५ मोती : सं०० (सं० मौक्तिक>प्रा. मोत्तिअ) । मुक्ता । मा० १.१६६.२ मोते : मुझसे । 'मोतें कौन अभागी।' गी० २.४.३ मोद : सं०० (सं०) । हर्ष, उल्लास, आनन्द-विनोद । मा० १.१.३ For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 892 तुलसी शब्द-कोश मोदक : सं०पु० (सं०) । लड्डू (खाद्यविशेष) । 'दुहूं हाथ मुद मोदक मोरें।' मा० २.१६०.६ मोदकन्हि : मोदक+संब० । मोदकों (से) । 'मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ।' मा० १.२४६.१ मोदकप्रिय : जिन्हें मोदक प्रिय है =गणेश जी। विन० १.३ मोदमय : (दे० मय) हर्षोल्लास से निर्मित तथा व्याप्त । 'मंजुल मंगल मोदमय मूरति मारुतपूत ।' दो० २२८ मोदाकर : मोद की खानि, मोदमय । रा०प्र० २.७.४ मोद : मोद+कए । एकमात्र (अमिश्र) हर्षोल्लास । 'किमि कहि जात मोदु मन __ जेता।' मा० १.३३०.३ मोपै: (१) मुझसे । 'सहि न जात मोपै परिहास एते ।' विन० २४१.५ (२) मेरे पास । 'मोपै सुतबधू न आईं।' गी० २.५१.२ (दे० पं) मोर : (१) सं०० (सं०) । मयूरपक्षी । मा० ४.१३ (२) सार्वनामिक विशेषण। मेरा । मोर भाग्य राउर गुन गाथा।' मा० १.३४२.३ (३) ममत्व-बुद्धि; माया द्वैत जनित आत्मबोध । 'मैं अरु मोर तोर तें माया।' मा० ३.१५.२ मोरचंद : मोरपंख का चंदवा, मोर चन्द्रक । 'तन दुति मोरचंद जिमि झलके।' गी० १.३१.२ मोर-तोर : द्वैतजनित स्वता-परता का भाव । मा० ३.१५.२ मोरपंख : मयूर पक्ष । मा० १.११३.३ मोरसिखा : मोरचंद । 'मोरसिखा बिनु मूरिहूं पलुहत गरजत मेह ।' दो० ३१६ मोरा : मोर । (१) मेरा । 'होइ हित मोरा।' मा० १.६.१ (२) मयूर पक्षी। 'नटत कल मोरा ।' मा० १.२२७.६ मोरि : (१) सार्वनामिक विशेषण । मेरी । 'छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।' मा० १.८.५ (२) पूकृ० (सं० मोटयित्वा>प्रा० मोडिअ>अ. मोडि)। मोड़ कर, घुमाकर । 'मेघ भागे मुख मोरि के।' कवि० ५.१६ मोरी : मोरि । मेरी । थोरि मति मोरी।' मा० १.६.४ मोरे : (१) मेरे । मेरे पास । 'कबित बिबेक एक नहिं मोरें।' मा० १.६.११ (२) मेरे में । 'हुलसै तुलसी छबि सो मन मोरें।' कवि० २.२६ (३) मोड़ने से, फेर लेने से (विमुख होने से) । 'न अकाज़ कछू जिनके मुख मोरें।' कवि० ७.४६ मोरे (१) मेरे । 'तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे ।' मा० १.१४.११ (२) मोरें। मोड़ने से । कृ० ४४ 'ते करनी मुख मोरे ।' कवि० ७.४८ मोरेहं, ह : मेरे भी। 'मोरेहुं मन भावा । मा० १.६२.१ 'मोरेह कहें न संसय जाहीं।' मा० १.५२.६ For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 893 मोल, ला : (१) सं०० (सं० मूल्य>प्रा० मोल्ल)। निष्क्रय । 'सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।' मा० १.२३.८ (२) मूल्य से, मूल्य देकर । 'आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।' मा० २.३०.२ (३) मूल्य से क्रीत । 'हास बिलास लेत मन मोला ।' मा० १.२३३.५ मोसी : मेरे जैसी । गी० ६.१८.३ मोसे : मुझ जैसे । कवि० ७.२३ मोसों : मुझसे । कवि० ७.१३७ मोसो : मुझ जैसा । 'राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।' मा० १.२८.४ मोहँ : मोह से, अविवेकवश, अनिश्चय के कारण । 'भूप बिकल मति मोहें भुलानी।" मा० १.१७३.८ मोह : सं०० (सं०) । अज्ञान, तमोगुणी चित्तदशा। (१) योग में अस्मिता जो अहंकार का सूक्ष्मरूप है, सांख्य में मोह कहा जाता है । 'मैं-तै मेट्यो मोह तम ऊगो आतम भानु ।' वैरा० ३३ (२) भावातिरेक में अविवेक-षड्वर्ग का अन्यतम ।' मा० १.३८.६ (३) संज्ञा शून्यता, मूर्छ । 'भए मोह बस सकल भुलाना ।' मा० १.२४८.७ (४) आसक्ति, लगाव । 'सपने हं उन्ह के मोह न माया।' मा० १.६७.३ (५) मोहइ। 'माया-जेहि न मोह अस को जग जाया ।' मा० १.१२८.८ 'मोह मोहइ, ई : आ०प्रए (सं० मोहयति >प्रा० मोहइ)। (१) मुग्ध करता ती है; बेसुध करता-ती है। 'सिव बिरंचि कहुं मोहइ। मा० ७.६२ ख (२) मोहित होता-ती है (मूछित होता है) । 'अहिपति बार बारहिं मोहई ।' मा० ५.३५ छं०२ मोहत : वकृ.पु । मग्ध करता-ते । 'मोहत कोटि मयन ।' गी० १.५१.३ मोहति : वकृ०स्त्री० । मुग्ध करती । 'मूरति जनु जग मोहति ।' पा०म० १२४ मोहन : (१) वि.पु.। मोहने वाला, मुग्धकारी। 'सब भाँति मनोहर मोहन रूप ।' कवि० २.१८ (२) श्रीकृष्ण । कृ० २८ मोहनिहार : वि.पु.कए । मुग्ध करने वाला । गी० ७.८.४ मोहनी : (१) वि०स्त्री० । मुग्ध करने वाली। 'बिलोकनि मोहनी मनहरनि ।' गी० १.२८.३ (२) मुग्ध करने की क्रिया। (३) मोहित करने की यन्त्रमन्त्रयुक्त क्रिया। (४) अभिमन्त्रित बूटी आदि । 'जिन्ह निज रूप मोहनी डारी।' मा० १.२२६.५ (५) वशीकरण-नटी 'एतेहुं पर भावत तुलसी प्रभु गये मोहनी मेलि ।' कृ० २६ (सर्वत्र अर्थों का गुम्फल विद्यमान है।) मोहनीमनि : ऐसी मणि जो दूसरे को मुग्ध करने का उपकरण होती है। 'मनहु मनसिज मोहनीमनि गयो भोरे भूलि ।' गी० ५.२.२ For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 894 तुलसी शब्द-कोश मोहपर : मोह से परे, अज्ञान सीमातीत, अविद्या-विकारों से मुक्त। मा० १.१६६ मोहमय : मोह (अज्ञान, बेसुधी) से ओतप्रोत; विमूढतापूर्ण । 'मिटी मोहमय सूल ।' मा० १.२८५ मोहमूल : (१) वि० (सं.) । मोहमूलक जिसका कारण अज्ञान है । 'मोहमूल परमारथु नाहीं।' मा० २.६२.८ (२) मोह का कारण । 'मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहु तम अभिमान ।' मा० ५.२३ मोहहि, हीं : आ०प्रब०। (१) मोहित हो जाते हैं। ‘हरि मायां मोहहिं मुनि ग्यानी।' मा० १.१४०.७ (२) मोहित करते-ती हैं। 'गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।' मा० ५.३ छं० २ मोहा : (१) भूक००। मोहित, मोह में डाला। 'नाथ जीव तव माया मोहा।' मा० ४.३.२ (२) मोह । 'उमा रामबिषइक अस मोहा।' मा० १.११७.४ (३) मोहइ । मोहित करता है। 'छत्रु अखयबटु मुनि मन मोहा।' मा० २.१०५.७ (४) मोहित होता है। 'बरनि न जाइ देखि मन मोहा ।' मा० १.२२८.४ मोहापह : वि.पु. (सं०) । मोहनाशक । विन० ४६.५ मोहिं : मोहि । मुझे । 'कीजै मोहिं आपनो।' विन० १८०.१ मोहि : (१) मुझ । 'मोहि ते अधिक ते जडमति रंका।' मा० १.१२.८ (२) मुझे। 'समुझि सहम मोहि अपडर अपनें ।' मा० १.२६.२ (३) मेरे पास । 'मोहि मति बल अति थोर ।' मा० १.१४ ख (४) पूकृ० (सं० मोहयित्वा>प्रा० मोहिअ>अ० मोहि) । मुग्ध करके । 'मोहि मानो मदन मोहनी मूड़ नाई है।' गी० १.७१.३ मोहित : भूकृ०वि० (सं.)। मूछित, मोहग्रस्त । विन० २४६.१ मोही : (१) मोहि । मुझको। 'कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।' मा० १.४६.६ (२) भूकृस्त्री० । मुग्ध की, मोह ली। 'जेहिं जग जुवती हसि मोही।' कृ० ४१ (३) मुग्ध हुई । 'निरखि हौं मोही।' गी० २.१८.१ मोहु, हू : (१) मोह+कए । मा० १.६८.८ ‘भएँ ग्यानु बरु मिट न मोहू ।' मा० २.१६६.३ (२) मुझे भी । 'जानि कृपाकर किंकर मोहू ।' मा० १.८.३ मोहे : भूकृ०० ब० (सं० मोहित>प्रा० मोहिय) । (१) मोहित (मुग्ध) हुए। "नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ।' मा० १.१६६.३ (२) मुग्ध कर लिये । 'रूप की मोहनी मेलि मोहे अग जग हैं।' गी० २.२७.३ मोहेउ : भकृ००कए० । मुग्ध हुआ, मुग्ध किया । 'रूप मन मोहेउ ।' जा०म०१८ मोहेहु : आ०-भूकृ००+मब० । तुमने मोहग्रस्त किया था। 'मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया।' मा० ३.४३.२ For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 895 मोहैं : मोहहिं । (१) मोहित करते हैं । 'चित तुम्ह त्यों हमरो मन मोहैं ।' कवि० २.२१ (२) मोहित होते हैं। 'कौतुक कला देखि सुनि मुनि मोहैं ।' गी० मोंगी : वि॰स्त्री० । चुप, मौन (मूक) । 'अंब मौंगी रहि, समुझि प्रेमपथ न्यारो।' ____ गी० २.६६.५ मौन : (१) वि० (सं.)। चुप , अवाक् । मा० २.१५.४ (२) सं०० । चुप्पी । मौनता : चुप्पी । 'मानो मौनता गही। कवि० १.१६ मौनु : मौन+कए । चुप्पी । थकित रहे धरि मौनु ।' मा० २.१६० मौने : मौन ही, चुप ही । 'बिथकि रही है मति मौने ।' गी० १.१०७.२ मौर : (१) सं०० (सं० मकुट>प्रा. मउड)। शिरोभूषणविशेष (जो वर को विवाह में पहनाया जाता है। मा० १.३२७ छं० (२) वि००। (लक्षणा से) श्रेष्ठ । दे० सुर मोर । मौरु : मोर+कए । विलक्षण मौर। 'जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा।' मा० १.६२.१ मौलि : सं०पु० (सं०) । सिर, मस्तक । मा० १.१६७.८ मौलिमनि : शिरोमणि, श्रेष्ठ । 'मंद जन-मौलिमनि ।' विन० २११.४ मौसी : सं०स्त्री० (सं० मातृष्वसा>प्रा० माउसिआ>अ० माउसी)। माता की बहन । गी० ७.३४.४ म्हाको : सार्वनामिक वि०। (१) (सं० आस्माक>प्रा० अम्हाक) कए । (२) (सं० अस्मद्>प्रा० अम्हा=म्हा+को) । मेरा; हमारा। ‘मंदमति कंत सुनु मंतु म्हाको।' कवि० ६.२१ यंता : वि०+सं०० (सं० यन्त)। (१) सारथि (२) नियन्त्रणकर्ता। विन० २६.७ यंत्र : (१) सं०पू० (सं०) । नियन्त्रण, बन्धन (२) तान्त्रिक लेखविशेष । 'जयति पर-यंत्र-मंत्राभिचार-प्रसन ।' विन० २६.७ (३) कोल्हू, जांत आदि । 'समर तैलिक यंत्र, तिल तमीचर निकर ।' विन० २५.७ For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 895 तुलसी शब्द-कोशः यंत्रित : भूक०वि० (सं.)। नियन्त्रित, नियमित, बद्ध । विन. ३९.३ यः : सर्वनाम (सं.)। जो। मा० ६ श्लो०३ यज्ञोपवीत : सं०० (सं०) । जनेऊ । गी० ७.१६.६ यत् : सर्वनाम (सं.)। जो। मा०१ श्लो०६ यत्र : क्रि०वि० अव्यय (सं.)। जहाँ । 'यत्र हरि तत्र नहि भेद माया ।' विन० ४७.५ यथा : अव्यय (सं.)। जैसे, जैसा, जिस प्रकार । विन० ५४.४ यथार्थ : वि०+क्रि०वि० (सं० यथार्थ)। सार्थक, सत्य, सप्रयोजन, जैसा है वैसा । ‘की मुख पट दीन्हे रहै, यथाअर्थ भाषत ।' वैरा० ११ यम् : सर्वनाम (सं.)। जिसे । मा० १ श्लो० ३ यम : (१) सं०० (सं०) । यमराज, कर्मफलों के अनुसार स्वर्ग, नरक आदि की व्यवस्था देने वाला। विन० १०.६ (२) अष्टाङ्गयोग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) में प्रथम अङ्ग (जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह परिगणित हैं)। विन० ५८.६ यवन : सं०० (सं०) । म्लेच्छ । विन० ४६.६ यष्टी : सं०स्त्री० (सं० यष्टि)। छड़ी, लाठी (सहारा)। विन० ६०.८ यस्य : सर्वनाम (सं०) । जिसका-की-के । मा० २ श्लो० १ यह : एह-एहा । मा० १.१२४.८ यहउ : यह भी । 'यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ ।' मा० २.२०७.१ यहि : एहि । 'तो यहि मारग लागु ।' विन० २०३.१७ यहु : एहु । 'कहहु काहि यहु लाभु न भावा ।' मा० १.२५२.१ यहै : इहै । यही । 'रघुबर रावरि यहै बड़ाई।' विन० १६५.१ या : (१) सर्वनाम स्त्री० (सं.)। जो। मा० २ श्लो० २ (२) यह (सं० एतद्)। संतराज सो जानिये तुलसी या सहिदानु ।' वैरा० ३३ (३) इस । 'जितिहहिं राम न संसय या महिं ।' मा० ६.५७.५ (यामहि =इसमें) । “या के' =इसके । मा० ६.१०२.५ 'या को' इसको। मा० ६.३३.७ यातुधान : सं०पू० (सं.)। राक्षम ('मायावी' मूल अर्थ है- यातु =जादू, माया, इन्द्रजाल)। विन० २६.५ यान : सं०० (सं०) वाहन । विन० १०.४ याभ्यां विना : (सं.) जिन (दो) के बिना । मा० १ श्लो०२ यामिनी : सं०स्त्री० (सं०) । रात्रि । विन० १८.३ यावद् : अव्यय (सं०) । जब तक । मा० ७.१०८.१३ याहि : इसको। याहि कहा मैया मुह लावति ।' कृ० १२ याही : इसी से, पर । 'याही बल बालिसो बिरोधु रघुनाथ सों।' कवि० ५.१३. For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 897 याही : इसी । 'बयो लुनिअत सब याही दाढ़ी जार को।' कवि० ५.१२ युगल : सं०० (सं०) । द्वय, जोड़ा । विन० ५१.६ युत : वि० (सं०) । संयुक्त, सहित । मा० ३ श्लो० २ युवति : (१) सं०स्त्री० (सं.)। तरुणी। (२) युवती। युवती : (१) सं०स्त्री० (सं०) । स्त्री। (२) युवति, तरुणी । विन० ३६.२ यूथ : सं०० (सं०) । सेना की टुकड़ी, समूह । मा० ३.११.१० ये : (१) सर्वनाम (सं.)। जो सब, जो लोग। 'पश्यन्ति ये ब्रह्मबादी ।' विन ५४.४; मा० ७.१३० श्लो० २ (२)ए। ये सब । 'ये अभागी जीव ।' कवि० ७.८३ यों : अव्यय (सं० एवम् >प्रा० एवं>अ० एवं)। इस प्रकार । 'यों सुधारि सनमानि जन ।' मा० २.२६६ योग : (१) सं०० (सं०) । अष्टाङ्गयोग, चित्तवृत्ति निरोध या समाधि । 'न जानामि योगं जपं नैव पूजां ।' मा० ७.१०८.१ (२) नाथम त का हठयोगदे० जोगु । (३) विशेष स्थिति (संयोग)। (४) मिलन । (५) ज्योतिष में विशेष ग्रहस्थिति । (६) ज्योतिष के पञ्चाङ्ग का एक अङ्ग । (७) वैद्यक में औषधिमिश्रण। योगीन्द्र : श्रेष्ठ योगी। मा०६ श्लो०१ योनि : (१) सं०स्त्री० (सं.)। उद्गम, उत्पत्ति स्थान । (२) विविध जीव जाति । 'भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।' विन० ११.८ रंग : दे० रंग। रंगमगे : भूकृ०वि००० (सं० रङ्ग-मग्न >प्रा० रंगमग्गय)। (१) उत्साह में लीन । 'महेस आनंद रंगमगे।' पा०म०;० ११ (२) अरुणिमा आदि में डूबे हुए । 'सोहत स्याम जलद मुदु छोरत धातु रँगमगे सृगनि ।' गी० २.५०.३ रंगीले : वि०पू०ब० (सं० रङ्गवन्त:>प्रा. रंगिल्लया)। रागयुक्त, अनुरक्त । 'तिहं काल तिन को भलो जे राम रंगीले।' विन० ३२.५ रंगे : भूकृ.पुं०ब० । रागयुक्त, रञ्जित, रंगे हुए, अनुरक्त। 'खग मृग प्रेम मगन रंगे रूप रंग ।' गी० १.५३.३ For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 898 तुलसी शब्द-कोश रंगो : आ०-संभावना-प्रए । चाहे कोई रंग ले । 'चरन चोंच लोचन रंगो चलो मराली चाल ।' दो० ३३३ रंग्यो : भूकृ००कए ० । रंगा हुआ+अनुरक्त । 'राम रँग्यो रुचि राच्यो न केहो।' कवि० ७.३६ रंक : (१) वि० (सं.) । दरिद्र, अकिञ्चन । मा० १.८.६ (२) हीन, तुच्छ । रंकतर : अतिशय दरिद्र । 'कबहुं दीन मतिहीन रंकतर ।' विन० ८१.३ रंकन, न्ह : रंक+संब० । रंकों (ने)। 'लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी।' मा० २.११४.५ रंका : रंक । (१) दरिद्र (२) तुच्छ। 'मोहि ते अधिक ते जड़मति रंका ।' मा० १.१२.८ रंकु : रंक+कए । अद्वितीय रंक । 'रंकु नाकपति होइ ।' मा० २.६२ रंग, गा : सं०० (सं.)। (१) वर्णक (जिसमें रंगा जाय)। 'मृग बिहंग बहु रंग ।' मा० २.२४६ (२) प्रेम। 'हरि रेंग रए।' मा० ३.४६ छं० (३) उत्साह । 'कुंभकरन दुर्मद रन रंगा ।' मा० ६.६४.२ (४) पंडाल । 'रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।' मा० १.२४४.५ (५) नाट्यादि के दर्शकों, संगीतादि के श्रोताओं का समाज । (६) रञ्जन, हर्षोल्लास । 'मुख प्रसन्न मन रंग न रोष।' मा० २.१६६.१ रंगभूमि : सं०स्त्री० (सं.)। पण्डाल, दृश्य-श्रव्य-शाला। 'रंगभूमि आए दोउ भाई।' मा० १.२४०.५ रंच : वि० । थोड़ा-सा, लेशमात्र । 'रिपु रिन रंच न राखब काऊ।' मा० २.२२६.२ रंचक : रंच । बहुत थोड़ा-सा । 'रति को जेहिं रंचक रूपु दियो है ।' कवि० २.१६ रंचौ : रंच भी, लेशमात्र भी । 'बाँची रुचिरता रंची नहीं।' जा०म०छं० ४ रंजन : वि०० (सं.)। रंगने वाला+अनुरक्त करने वाला, रागयुक्त तथा तन्मय करने वाला । 'कृपासिंधु सेवक मन रंजन ।' मा० १.७०.७ रंजनि : रंजन+स्त्री० (सं० रञ्जनी) । 'सकल जन रंजनि.. रामकथा ।' मा० १.३१.५ रंजित : भक०वि० (सं.)। रंगे हुए । रंजित अंजन नैन।' कवि० १.१ रंतिदेव : सं०० (सं०) । एक सूर्यवंशी राजा जिसने अपना सम्पूर्ण धन दान, यज्ञादि सत्कर्मों में लगाया । उसके यज्ञों में इतनी गौ बलियां हुई कि चमड़ों के पहाड़ से चर्मण्वती (चम्बल) नदी निकली। मा० २.६५.४ रंध्र : सं०० (सं.)। छिद्र, बिल । मा० १.११३.२ रंमादिक : रम्भा इत्यादि (देवाङ्गनाएँ) । मा० १.१२६.४ For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 899 रई : भूकृ०स्त्री० । रचित, रंगी हुई । 'सब की सुमति राम-राग-रंग रई है ।' गी० २.३४.३ रउरें : (दे० राउर) आपको (द्वारा, ने) । 'राम मातु मत जानब रउरें।' मा० २.१८.२ रउरे : (दे० राउर) आपके । 'रउरे अंग जोगु जग को है।' मा० २.२८५.५ रउरेहि : आपको । 'भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।' मा० २.१६.२ रए : भूकृ००ब० । रंगे हुए+अनुरक्त । 'जे हरि रँग रए ।' मा० ३.४६ छं० रकतबीज : सं० पु० (सं० रक्तबीज)। एक असुर जिसके रक्त की बदे पृथ्वी पर गिरें तो उतनी संख्या में रक्तबीज बन जाते थे। काली ने खप्पर में बूंद-बूंद रक्त ऊपर ही लेकर पी लिया, तब वह मारा जा सका। 'पाप'रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं।' विन० १२८.३ रक्षक : वि० (सं.)। पालक, रखवाला । रा०प्र० ५.५.१ ।। रक्षण : सं०पू० (सं०) । रक्षा, पालन । विन० २५.४ रखवार, रा : वि.पु. (सं० रक्षपाल, रक्ष पालक>प्रा० रक्खवाल, रक्ख वालअ)। रक्षक, बचाने वाला, पालक । 'को रखवार जग खरभरु परा ।' मा० १.८४/०; रखवारी : सं०स्त्री० (सं० रक्षपालिका>प्रा० रक्ख वालिआ) । ब्याघात आदि से बचाने की क्रिया । 'आपु रहे मख की रखवारी।' मा० १.२१०.२ रखवारे : रखवारा+ब० (प्रा० रक्ख वालय) । बचाने वाले । 'मुनि कोसिक मख के रखवारे ।' मा० १.२२१.४ रखवारो : रखवारा+कए । एकमात्र रक्षक । ‘रख वारो जगदीस ।' दो० ४०५ रखिहि : आ० कवा०प्रए० (सं० रक्ष्यन्ताम् >प्रा० रक्खीअंतु>अ० रक्खीअहिं)। रखे जायें । (१) सुरक्षित कर लिये जायं । 'ए रखिअहिं सखि आँखिन माहीं।' मा० २.१२१.५ (२) रोक लिये जायें । 'रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन ।' मा० २.२८४.२ रखिहउँ : आ०भ० उए । रखूगा । 'रखिहउँ इहां बरष परवाना।' मा० १.१६६.५ रखिहहिं : आ० भ० प्रब० । रखेंगे। (१) रोकेंगे। ‘रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा ।' मा० २.७०.५ (२) मान लेंगे। 'रुचि रखिहहिं राम कृपाल ।' मा० १.२८ रगर : सं०स्त्री०। (१) संघर्षण । (२) टेक, आग्रह । 'जनम कोटि लगि रगर हमारी।' मा० १.८१.५ रघु : (१) सं०० (सं०) । सूर्यवंशी राजा विशेष दशरथ के पितामह । मा० १.१८७.५ (२) रघुगोत्र-जैसे, रघुनायक, रघुनंद आदि । 'रघुकुल' । मा० For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 900 तुलसी शब्द-कोश १.६८.७ 'रघुकुल केतू'= रघुकुल में पताका के समान सर्वोपरि राम (आदि)। मा० २.१२६.८ 'रघुकुलचंदु' = रघुकुल में चन्द्रमा के समान आह्लादकारी । मा० १.३५० 'रघुकुल तिलक'= रघुवंश में तिलक के समान श्रेष्ठ । मा० २.५२.१ 'रघु कुलदीप'= रघुवंश को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान =राम । मा० २.३६.७ रघुकुलनायक' = रघुवंश में अग्रणी, श्रेष्ठ= राम । मा० ७.८५.१ रघुकुलभानु'=रघवंश में सूर्यवत् प्रकाशकारी= राम मा० १.२७६ 'रघुकुलमनि' = रघुवंश में शिरोमणि । मा० १.११६ रघचंदु : रघुवंश में चन्द्रमा के समान आह्लाद, शान्ति आदि बिखेरने वाले । मा०. २.२३६ रघुनंदन : रघुनंदू । मा० १.२४.८ रघुनंदनु : रघुनंदन+कए । एकमात्र राम । मा० २.१४१.७ रघुनंदू : रघुवंश को आनन्दित करने वाले राम । मा० २.२६३.४ रगुनाथ, था : रघुवंश का स्वामी=राम । मा० १.३८ रघुनाथु : रघुनाथ+कए । एकमात्र रघुवंश का स्वामी राम । 'कह रघुनाथ ।" मा० २.१४६.३ रघनायक : रघुनाथ । मा० १.७५.८ रघुनायकु : रघुनाथु । मा० २.१३७.५ रघुपति : रघुनाथ । मा० १.८.५ रघुपते : रघुपति+सम्बोधन । मा० ५ श्लोक २ रघुपुगव : रघुवंश में श्रेष्ठ=राम । मा० ५ श्लोक २ रघुपति : रघुपति । कवि० ६.३४ रघुवंश, स : रघओं का कुल । मा० २ श्लो० ३; १.४८.७ रघुवंसिन्ह : रघुबंसी+संब० (सं० रघुवंशिनाम्)। रघुवंशियों । 'रघुबंसिन्ह महुं जहँ कोउ होई ।' मा० १.२५३.१ रघबंसी : वि.पु. (सं० रघुवंशिन्) । रघु के कुल की सन्तति । मा० १.२८४.४ रघबर : रघुपुंगव । मा० १.६.६ रघुबरनि : रघुबर+संब० । रघुवरों= राम आदि चारों भाइयों (को) । 'नेकु बिलोकि धौं रघुबरनि ।' गी० १.२८.१ रघुबीर, रा : रघुवंश के वीर पुरुष राम (आदि)। मा० १.२१; ५०.८ रघुबीर : रघुबीर+कए । राम । मा० २.१४४.४ रघुबीरै : रघुवीर को राम को । 'हृदय घाउ मेरे पीर रघुबीर।' गी० ६ १५. रघुराई : रघुराय । मा० १.४६.७ रघुराउ, ऊ : रघुराजु (दे० राउ)=रामचन्द्र । मा० २.२६१, १२.३ For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 901 रघुराजु : रघुराज+कए० । रघुवंशी राजा। (१) रामचन्द्र । मा० १.१३.७ (२) दशरथ जी । 'राजसभा रघुराजु बिराजा ।' मा० २.२.१ रघुराय, या : (दे० राय) । रघुवंशी राजाराम (आदि) । कवि० ७.१३६; मा० १.२१०.७ रघुरैया : रघुराई । गी० १.२०.२ रघुवर्य : रघुवंश में श्रेष्ठ । विन० ५६.१ रघुसिंघ : रघुकुल में सिंह के समान वीर पुरुष एवं श्रेष्ठ । मा० १.२३४.३ /रच, रचइ : आ०प्रए० (सं० रञ्जयति, रचयति>प्रा० रच्चइ)। बनाता-ती है; संवारता-ती है (चित्रित करता-ती है)। 'तप बल रचइ प्रपंचु बिधाता।' मा० १७३.३ रचत : वकृ०पु० । रचता । कवि० ७.१७३ रचना : रचना से । 'रचना रुचिरता मुनि मन हरे।' मा० १.३२० छं० रचना : (१) सं० स्त्री० (सं०) । बनाव, सजावट । 'देखत रुचिर बेष के रचना।' मा० ४.२.६ (२) वचन रचना, कथन-शैली, रीति । 'भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना । मा० १.७७.५ (३) सृष्टि । 'मानहुँ जग-रचना बिचित्र ।' गी० २.५०.५ (४) कलात्मक निर्माण । 'श्रीनिवास पुर ते अधिक रचना बिबिध प्रकार ।' मा० १.१२६ (५) आडम्बर । 'मिटिग सब कुतरक के रचना ।' मा० १.११६.७ रहि : आ०प्रब० (सं० रञ्जयन्ति, रचयन्ति>प्रा० रच्चंति>अ० रच्चहिं) । __बनाते हैं+सजाते हैं । 'जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना ।' मा० १.३४.८ रचहु : आ०मब० (सं० रञ्जयत, रचयत >प्रा० रच्चह>अ० रच्चहु) । सजाओ। 'रचह बिचित्र बितान बनाई।' मा० १.२८७.६ रचा : भूकृ.पु । बनाया-संवारा। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी।' मा० ३.१७.८ रचि : (१) पूकृ० । बनाकर । होइहि सोइ जो राम रचि राखा।' मा० १.५२.७ (२) सजाकर-सवरकर । 'लछिमन रचि निज हाथ डसाए ।' मा० ६.११३ रचित : (१) भूकृ०वि० (सं०) । निर्मित । 'जनम अनेक रचित अघ दहहीं।' मा० १.११६.३ (२) सज्जित । 'कनक रचित मनि भव ।' मा० १.१७८.६ रचि पचि : गढ़ कर तथा सप्रयास प्रपञ्च करके ; विस्तृत रचना करके (पचि विस्तारे)। 'रचि पचि कोटिक कुटिलपन ।' मा० २.१८ रचिधे : भकृ.पु । रचना करने । रचिबे को बिधि जैसे ।' हनु० ११ रचिसि : आ०-भूक स्त्री०+प्रए । उसने रची। 'अस कहि चला रचिसि मग माया।' मा० ६ ५७.१ रची : भूकृस्त्री०ब० । बनायीं। 'कहहिं बिरंचि रची कत नारों ।' मा० १.३३४.८ For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 902 तुलसी शब्द-कोश रची : भूकृ०स्त्री० । निर्मित की, सजाई । 'मंगल रचना रची बनाई।' मा०. १.२६६.६ रच : आ०-आज्ञा-मए । तू रच दे। 'आनि काठ रचु चिता बनाई।' मा०. ५.१२.३ रचे : (१) भूक००ब० (सं० रचित)। बनाये । 'मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ ।' मा० १.२६६ (२) (सं० रञ्जित>प्रा० रचिय)। रँगे, उरेहे । 'कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।' कृ० २२ रचेउ : भूकृ००कए । सजाया। 'इहां हिमाचल रचेउ बिताना ।' मा० १.६४.२ रचेन्हि : आ०-भूकृ.पु+प्रब० । उन्होंने रचा। जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ ।' मा० १.१७०.८ रचेसि : आ०-भूक००+प्रए । उसने बनाया। ‘मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ।' मा० १.८६.५ रचें : (१) रचहिं । रचते हैं। 'पूजा को साजु बिरंचि रचे ।' कवि० ७.१४५ (२) भकृ० अव्यय । रचने, बनाने । 'लागे रचें मूढ़ सोइ रचना।' मा० ५.२५.४ रच्छ : (१) आ०-प्रार्थना-मए० (सं० रक्ष)। तू रक्षा कर । 'हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ।' मा० ७ १३ छं० २ (२) वि० (सं० रक्ष) । रक्षक । 'जच्छेस रच्छ तेहि ।' कवि० ७.११५ । रच्छक : रक्षक । 'रच्छक कोटि जच्छपति केरे ।' मा० १.१७६.२ रच्छन : रक्षण । 'मुनि मख रच्छन दच्छ।' कवि० ७.११२ रच्छहीं : आ०प्रब० । रक्षा करते हैं । 'भट.. 'नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।' मा० ५.३ छं. ३ रच्छा : सं०स्त्री० (सं० रक्षा)। बचाव । मा० १.६४ रच्छा-ऋचा : रक्षामन्त्र । 'लगे पढ़न रच्छा-ऋचा ऋषिराज बिराजे ।' गी० रच्यो : रचेउ । 'सुभ दिन रच्यो स्वयंबर मंगलदायक ।' जा०म०३ रज : (१) सं००+ स्त्री० (सं० रजस्-नपु०) । धूलि । 'रज मग परी निरादर रहई ।' मा० ७.१०६.११ (२) पराग । 'सरोज रज ।' मा० २ दो. १ (३) प्रकृति के त्रिगुण में अन्यतम= रजोगुण । 'सत्त्व बहुत रज कछु रति कर्मा।' मा० ७.१०४.३ (४) रजक, धोबी। ‘तिय निदक मतिमंद प्रजा रज निज्न नय नगर बसाई ।' विन० १६५.४ रजत : सं०० (सं.)। चांदी । मा० १.११७ रजतेज : (१) राजतेज=राजकीय प्रताप (२) रजोगुणी (क्रोधयुक्त) प्रताप । रावनु सो राजा रजतेज को निधानु भो।' कवि० ५.३२ For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 903 रजधानिय, नी : रजधानी। 'जन रितुराज मनोज-राज रजधानिय ।' पा०म० ८५ रजधानी : राजधानी । मा० १.२५.६ रजनि : सं०स्त्री० (सं०) । रात्रि । मा० १.२२६.२ रजनिकर : चन्द्रमा। रजनिचर : निसाचर । मा० १.७ घ रजनी : रात में । 'इहाँ बसब रजनी भल नाहीं ।' मा० २.२८७.७ रजनी : रजनि । मा० १.१.७ रजनीकर : चन्द्रमा । रजनीचर, रा : निसाचर । मा० १.१७९.७; १.६५ छं० रजनीस, सा : सं०० (सं० रजनीश) । चन्द्रमा । मा० ७.८०.५ रजपूत : सं०+वि०० (सं० राजपुत्र)। (१) राजकुमार (२) क्षत्रिय (३) शूरवीर । 'पवन को पूत रजपूत रूरो।' हनु० ३ रजपूतु : रजपूत+कए । क्षत्रिय । 'रजपूतु कही जोलहा कही कोऊ।' कवि० ७.१०६ रजहिं : रज में । 'गुर पद रजहिं लाग छरु भारू ।' मा० २.२१५.७ रमाइ, ई : सं०स्त्री० (अरबी-रजा = सदिच्छा, ईश्वरेच्छा जो अनुकूल या प्रतिकूल हो सकती है) । (१) इच्छा+सम्मति+आदेश । 'निरखि बदन कहि भूप रजाई ।' मा० २.३६.७ (२) सम्मति । 'दुख वह मोरे दास जनि, मानेहु मोरि रजाइ ।' गी० २.४७.१८ 'मेटि जाइ नहिं राम रजाई ।' मा० २.६६.७ रजायस : (दे० आयस) । राजादेश, आज्ञा, अनुज्ञा । 'राम रजायस आपन नीका ।' मा० २.२६६.७ रजायसु : रजायस+कए। आज्ञा, अनुज्ञा । 'रामहि देखि रजायसु पाई ।' मा० १.३५५.३ रजु : सं०स्त्री० (सं० रज्ज)। डोरी, रस्सी। 'सोभा रजु मंदर सिंगारू ।' मा० १.२४७.८ रजोगन : सं०० (सं० रजोगुण) । प्रकृति के त्रिगुण में अन्यतम जिसके कार्य दुःख तथा चंचलता हैं। मा० ७.१०४.५ रज्जौ : (सं०) रज्जु में, रस्सी में । मा० १ श्लो०६ रट, रटइ : आ०ए० (सं० रटति-रट परिभाषणे>प्रा० रटइ)। बार-बार बोलता है, अभ्यस्त उच्चारण करता है । 'राम राम रट बिकल भुआलू ।' मा० २.३७.१ रटत : वकृ.पु० । रटता-रटते । 'चातक रटत तृषा अति ओही ।' मा० ४.१७.५ रटति : वकृस्त्री० । रटती= अभ्यस्त उच्चारण करती। 'रटति रहति हरिनाम ।' मा० ३.२६ For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 904 तुलसी शब्द-कोश (१) अभ्यस्त उच्चारण । चातकु रटनि घटें रनि: सं०स्त्री० (सं० रटन) । घटि जाई ।' मा० २. २०५.४ (२) निरन्तर ध्वनि । 'किकिणी रटनि कटि तट रसालं ।' विन० ५१.६ (३) बकवास ( काकरटंत ) । ' तव कटु रटनि करउँ नहि काना ।' मा० ६.२४.४ रहि : आ०प्र० । रटते हैं, शब्द करते हैं । 'रहि कुर्भाति कुखेत करारा ।' मा० २.१५८.४ रटहि : आ० - आज्ञा-मए० । तू अभ्यस्त उच्चारण कर । 'रटहि नाम करि गान गाथ ।' विन० ८४.३ रहु : आ०म० । रटते हो, अभ्यस्त उच्चारण करते हो । 'रटहु निरंतर गुन गन पाँती । मा० ७.२.३ रटि : कृ० । (१) अभ्यस्त उच्चारण करके । 'राम रामु रटि भोरु किय । मा० २. ३८ (२) बकवास करके, निरर्थक बोलकर । 'पर अपबाद भेक ज्यों रटि रटि जनम नसावौं ।' विन० १४२.४ र : रटइ । 'रटै नाम निसिदिन प्रति स्वासा | वैरा० ४० टो : (१) रटहु । अभ्यस्त उच्चारण करो । 'रसना निसि बासर राम रटो ।' कवि० ७.८६ (२) भूकृ० पु०कए० । रटा, जपता रहा । 'नामु रटो जम-पास क्यों जाउँ ।' कवि० ७.६२ रढ़े : रहि (सं० रठन्ति - रठ परिभाषणे > प्रा० रति > अ० रढहि ) | अभ्यस्त उच्चारण करते हैं । 'बनरा 'जय राम' रढ़े ।' कवि० ६.६ रत: वि० (सं० रत, रक्त > प्रा० रत) । (१) आसक्त । 'बिषय रत । मा० ७.१२१-११ (२) तत्पर । 'ब्रह्मचरज रत । मा० १.१२९.२ ( ३ ) तल्लीन । 'मन क्रम बचन चरन रत होई ।' मा० २.७२.८ रतन : रत्न । मा० १.२३.८ रतनाकर सं०पु० (सं० रत्नाकर) । (१) रत्नों की खानि । (२) समुद्र । 'तीय रतन तुम्ह उपजिहु भव रतनाकर ।' पा० मं० ४४ रतनारे: वि०पु ं०ब० (सं० रक्त नालिक > प्रा० रत्तनालिय) । लाल रेखाओं से युक्त कोयों वाले ( नालिका = कमल की पंखड़ी का नतोदर भाग - कमलदल समान भीतर रक्त रेखायुक्त ) । 'नव सरोज लोचन रतनारे ।' मा० १.२३३.४ रता : रत । 'सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता । मा० ७.१०२.२ 1 रति : सं ० स्त्री० (सं०) । (१) आसक्ति, राग, प्रेम । 'हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । मा० १.१०६. १ ( २ ) आनन्द, संभोग, कामकेलि । 'चेरी सों रति मानी ।' कृ० ४७ (३) शृङ्गार का स्थायी भाव । ( ४ ) भक्तिरस का स्थायी भाव = भगवत्प्रेम | 'हरि पद रति रस बेद बखाना । मा० १.३७.१४ (५) कामदेव की पत्नी । मा० १.८७ (६) रती / । रती 1 For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 905 रतिआतो : क्रियाति०पु०ए० । यदि प्रीति (रति) करता। 'राम नाम अनुराग ही जिय जो रतिआतो । स्वारथ परमारथ पथी तोहिं सब पतिआतो।' विन. १५१.५ रतिन : रती+संब० । रत्तियों, गुञ्जाओं। 'रतिन के लालचिन प्रापति मनक की।' कवि० ७.२० रतिनाथ : कामदेव । मा० १.८४ छं. रतिपति : कामदेव । मा० २.६०.८ रती : (१) रति । सुख चैन । (२) सं०स्त्री० (सं० रक्ति>प्रा० रत्ती) । गुञ्जा, गुजा की तोल, घुघची भर । 'काहू की रती न राखी, रावन की बंदि लागे अमर मरन ।' विन० २४८.३ (रावण ने देवों की सब सम्पत्ति छीन ली, रत्ती भर भी न छोड़ी और उनकी सारी चैन भी छीन ली।) रत्न : सं०० (सं०)। हीरा आदि जवाहरात । मा० ७.२३.६ रत्यो : रति (काम पत्नी) भी । 'रत्यो रची बिधि, जो छोलत छबि छूटी।' गी० २.२१.१ रथ : सं०० (सं०) । स्यन्दन=वाहनविशेष । मा० १.१६५ रथकेतु : रथ की पताका । हनु० ५ रथनि न्ह : रथ+संब० । रथों । 'रथनि सों रथ बिदरनि बलवान की।' कवि० ६.४० 'ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।' मा० १.२६६.५ रथहि : (छुछे) रथ को । 'चले अवध लेइ रथहि निषादा ।' मा० २.१४४.२ रथांग : सं०० (सं०) । चक्रवाक, चकवा पक्षी । 'पिक रथांग सुक सारिका।' मा० २.८३ रथारूढ : रथ पर बैठा हुआ। मा० ६.८६.५ रथी : सं०+वि.पु.० (सं० रथिन्) । (१) रथस्वामी। (२) रथारूढ । मा० १.२६६.८; ६.८०.१ रथु : रथ+कए । 'खोज मारि रथु हाँकहु ताता।' मा० २.८५.८ रद : सं०५० (सं.)। दांत । मा० १.१४७.२ ।। रदपट : सं०० (सं०) । दन्तच्छद--ओष्ठ । मा० १.२५२.८ रन : सं०पु० (सं० रण)। युद्ध । मा० १.२५.५ रनधीर, रा : युद्धवीर, युद्ध में धैर्यपूर्वक स्थिर रहने वाला। मा० ६.४०, १.१५३.४ रनभूमि : युद्ध क्षेत्र । मा० ६.१००.८ For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 906 तुलसी शब्द-कोश रनरस : युद्ध वीर रस- वीर रस के चार भेदों (युद्धवीर, दयावीर, दानवीर और धर्मवीर) में अन्यतम जिसका स्थायी भाव युद्धोत्साह होता है। युद्धोत्साह । 'रन-रस बिटप पुलक मिस फूला।' मा० २.२२६.५ रनरोर : वि० (सं० रण-रोख)। (१) युद्ध में कोलाहल मचाने वाला। (२) योद्धाओं को अतिशय रुलाने वाला। 'देव बंदी छोर रन-रोर केसरी किसोर ।' हनु० १५ रनिवास : सं०पु० (सं० राज्ञीवास>प्रा० रण्णिवास)। राजा का अन्त:पुर । मा०. १.२६५.१ रनिवासहि : अन्तःपुर में । 'मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ।' मा० १.३१८.७ रनिवासा : रनिवास । मा० १.३५६.५ रनिवासु, सू : रनिवास+कए । मा० १.३३५; ३३६.७ रनी : वि.पु० (सं० रणिन्) । रणवीर । गी० ५.३६.३ रनु : रन+कए । युद्ध । 'रिपु जनु रन जए।' जा०म०छं० १७ रबि : सं०० (सं० रवि)। सूर्य । मा० १.११५ रबितनुजा : सूर्यपुत्री= यमुना नदी । मा० २.११२.२ रबिनंदनि, नंदिनी : यमुना नदी । मा० १.२.६ रबिमनि : सूर्यकान्त मणि । 'जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ।' मा० ३.१७.६ रबिसुत : सूर्यपुत्र =अश्विनी कुमार (जो अत्यन्त सुन्दर माने गये हैं तथा देवों के वैद्य हैं)। गी० ७.१७.११ ।। रबिसुता : यमुना नदी । गी० ७.१५.२ रबिसुवन : रबिसुत । गी० ७.८.१ 'रम रमइ : आ.प्रए० (सं० रमते>प्रा० रमइ) । रमता है, रत होता है, सुख मानता है । 'जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ।' मा० १.८० रमन : सं०० (सं.)। (१) स्त्री का प्रेमी (जार) । (२) रमण करने वाला, रत रहने वाला । 'आकिंचन इंद्रिय दमन रमन राम इकतार ।' वैरा० २६ (३) पति । 'रमा-रमन' । मा० २.२७३.५ रमनीय : वि० (सं० रमणीय) । रम्य, मनोहर, रजक, रमण योग्य । 'हरि अवनि रमनीय ।' गी० ७.१६.२ रमा : सं०स्त्री० (सं.)। (१) (रमण देने वाली) विष्णु की शक्ति --लक्ष्मी । मा० २.२७३.५ (२) सीता (रामचन्द्र की महामाया शक्ति)। मा० ६.१०७ छं० रमादिक : लक्ष्मी, उमा इत्यादि । जा०म० १३१ रमानाथ : लक्ष्मी-पति = विष्णु । मा० ७.२६ For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 907 रमानिकेत, ता : रमानिवास । मा० १.१२८.५ रमानिवास, सा : लक्ष्मी (शक्ति) के निवास स्थान विष्णु, राम। मा० ३.१२.१, ७.८३ क रमापति, ती: विष्णु । मा० १.३१७.३; ६.१२१ छं० रमेउ : भूकृ.पु०कए० । रम गया, विनोदित हुआ। 'रमेउ राम मनु ।' मा० २.१३३.६ रमेस : (सं० रमेश)। (१) रमापति विष्णु । (२) सीतापति राम । मा० ७.२३ छं० ४ रमेसु : रमेस+कए । विष्णु । 'सदा संकित रमेसु मोहि।' कवि० ५.२१ रमैया : वि०+सं० । जगत् में व्याप्त होकर रमने वाला=राम। 'तहाँ मेरो ____साहेबु राख रमैया ।' कवि० ७.५३ रम्य : रमणीय (सं०) । मा० १.४४.६ रम्यता : सं०स्त्री० (सं०) । रमणीयता, रञ्जकता। मा० १.२१२.५ रये : रए । रंगे । गी० १.११.४ रयो : भूकृ ००कए० । रंग हुआ, अनुरक्त । 'मन अनुराग रयो है।' गी० ६.११.४ रव : (१) सं०० (सं.)। शब्द, ध्वनि । मा० १.८६ छं० (२) (सं० रय)। वेग, रौ। 'आवत देखि अधिक-रव बाजी। चला बराह मरुत गति भाजी।' मा० १.१५७.१ रवकारी : वि० (सं०) । ध्वनि करने वाला-बाले । 'नपुर चारु मधुर रवकारी।' मा० ७.७६.७ रवन : (१) रमन । 'जानत हो सब के मन की गति मृदुचितपरम-कृपालु रवन ।' गी० २.८.१ (२) उपपति, प्रेमी। 'कूबरी-रवन ।' कृ० ४० रवनि : रवनी। स्त्री, पत्नी । 'गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि ।' मा० १.२७६ रवनिन्ह : रवनि+संब० । रमणियों, स्त्रियों। 'देखत खग निकर मृग रवनिन्ह जुत।' गी० ३.५.४ रवनी, नि : (१) सं०स्त्री० (सं० रमणी) । स्त्री, अङ्गना । 'गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर-रवनो।' मा० १.१८२.५ (२) प्रिया, पत्नी। 'राम-रवनी को बटु कलि कामतरु है।' कवि० ७.१३६ रवन : रवन+कए । पति । 'बहुरि सोचबस भे सिय रवनू ।' मा० २.२२७.१ रवा : वि० (फा०) । रमणीय, उत्तम, सार्थक, उपयुक्त । ‘समुझेहिं भलो, कहिबो _____न रवा है ।' कवि० ७.५६ रस : सं०० (सं०) । (१) रुचि, राग, प्रीति, वासना । 'बिषय रस रूखे ।' मा० २.५०.३ (२) स्वाद । 'तुलसी भूलि गयो रस एहा ।' वैरा० २८ (३) अमत । For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 908 तुलसी शब्द-कोश 'चंदकिरन रस रसिक चकोरी।' मा० २.५६.८ (४) निचोड़, सार । 'तुलसी अधिक कहे न रहै रस गूलरि को सो फल फोरे।' कृ० ४४ (५) मकरन्द, पुष्पसार । 'गुजत मंजु मत्त रस भृगा।' मा० १.२१२.७ (६) द्रव, स्निग्ध पदार्थ, जल । 'मनहुं प्रेम रस सानि ।' मा० १.११६ (७) स्नेह । 'सानी सरल रस मातु बानी ।' मा० २.१७६ छं० (८) काव्यरस :-शृङ्गार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स, रौद्र और शान्त । नव रस जप तप जोग बिरागा।' मा० १.३७.१० (६) व्यञ्जन रस :-मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त । 'छ रस रुचिर बिजन बहु भाँती।' मा० १.३२६.५ (१०) खनिज औषध (अभ्रक, स्वर्ण, मण्डूर आदि) । 'रावन सो रसराज, सुभट रस सहित, लंक खल खलतो।' गी० ५.१३.२ (११) काव्य का भक्तिरस (जिसमें उक्त नवरसों का समावेश मान्य किया गया है)। हरि पद रति रस बेद बखाना ।' मा० १.३७.१४ (१२) (छह व्यञ्जन रसों के आधार पर) छह संख्या । दो० ४५८ (१३) स्थिति । 'सदा एकहि रस दुसर दाह दारुन दहौं ।' विन ० २२५.३ (१४) थोड़ा, धीरे (सं० ह्रस्व>प्रालि रस्स) । 'रस रस सूख सरित सर पानी।' मा० ४.१६.५ रसखानि : अधिक सरस, रसपूर्ण । रान०८ रसग्य : वि० (सं० रसज्ञ) । स्वाद जानने वाला-वाली । विन० १६७.३ रसन : रसना । जीभ । 'कहै कौन रसन मौन जाने कोइ कोई ।' कृ० १ रसना : जीभ से । 'रसना निसिबासर राम रटो।' कवि० ७.८६ रसना : सं०स्त्री० (सं०) । (१) जीभ । 'गिरहिं न तव रसना अभिमानी ।' मा० ६.३३.८ (२) स्वाद-ग्राहक इन्द्रिय। 'रसना बिनु रस लेत।' वैरा० ३ (३) कटिभूषण (सं० रशना) । करधनी । 'रसना रचित रतन चामीकर।' गी० ७.१७.५ रसभंग : काव्य या नाट्य में रसविरोधी तत्त्व (दोष) आ जाने से रसिक के रसा स्वाद में बाधा आती है उसे मूलत: ‘रसभङ्ग' कहा जाता है। लक्षणा से विघ्न या त्रुटि आ जाने पर जो फल प्राप्ति या आनन्द में व्याघात होता है, उसे भी 'रसभङ्ग' कहा जाता है। (१) स्नेह में विच्छेद । 'लग्यो मन बहु भांति तुलसी होइ क्यों रस-भंग।' कृ० ५४ (२) अपशकुन, अनर्थ, बड़ा ध्याघात । 'रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग।' मा० ६.१३ ख रसभंगू : रसभंग+कए । आनन्द एवं पूर्णता में महाव्याघात । 'राम राज रसभंगू।' मा० २.२२२.७ रसभेद : (दे० रस) साहित्य शास्त्र में रसों के विविध प्रकार तथा मतान्तर से भक्ति आदि रसों की विविधता । 'भावभेद रसभेद अपारा ।' मा० १.६.१० For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 909 रसराज : श्रेष्ठ रस, रसों में उत्तम । (१) शृङ्गार रस (जिसका श्यामवर्ण माना गया है) । 'भ्रू पर मसि बिंदु बिराज रच्छक राखे रसराज ।' गी० १.२२.६ (२) रसेन्द्र =पारा । 'रावन सो रस राज सुभट रस सहित लंक खल खलतो।' गी० ५.१३.२ रसरीति : (१) काव्य रस की विशेष अभिव्यक्ति शैली-वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली। (२) स्वाद ग्रहण का ढंग । (३) स्नेह+भोगविलास की प्रणाली। 'मधुकर रसिक-सिरोमनि कहियत कोने यह रसरीति सिखाए।' कृ० ५० रससिद्धि : सं०स्त्री० (सं०) । रसनिष्पत्ति । विभाग, अनुभाव तथा संचारीभाव के योग से रसिक के हृदय में व्यक्त स्थायी भाव (रति आदि) की रसात्मक (आनन्दरूप) परिणति । रस-परिपाका । ‘राम भगति रससिद्धि हित भयउ सो समउ गनेसु ।' मा० २.२०८।। रसा : सं०स्त्री० (सं.)। पृथ्वी । मा० २.१७६.२ रसाइनी : वि०पू० (सं० रासायनिक)। आयुर्वेद के रसायन का ज्ञाता, रस चिकित्सक । रसाइनी समीर सून ।' कवि० ५.२५ रसातल : सं०पू० (सं.) । पाताल लोक । 'रसा रसातल जाइहि तबहीं।' मा० २.१७६.२ रसाल, ला : (१) सं०० (सं.)। आम्र। 'देखि रसाल बिटप बर साखा ।' मा० १.८७.१ (२) सरस, रसयुक्त । 'कहत अनुज सन कथा रसाला ।' मा० ३.४१.४ (३) स्निग्ध, प्रेमयुक्त । 'राम सिय सेवक सनेही साधु सुमुख रसाल।' गी० ७.१.४ (४) मनोरम, रम्य । 'चिबुक अधर द्विज रसाल ।' गी० ७.३.४ रसिक : वि० (सं०)। (१) रसयुक्त । (२) रसग्राहक । (३) आसक्त होकर विलास मग्न । (४) प्रेमी, प्रेम का मर्मज्ञ । (५) विषयी, विषयलोलुप । (६) स्वाद लेने वाला-वाली । 'चंद किरन रस रसिक चकोरी।' मा० २.५६.८ (७) काव्य रस की अनुभूति से सम्पन्न सहृदय । 'कबित रसिक ।' मा० १.६.३ (८) मकरन्द+काव्यरस+प्रेम का आस्वादक । 'मधुकर रसिक सिरोमनि कहियत कोने यह रसरीति सिखाए।' कृ० ५० रसु : रस+कए। (१) सार+प्रेम । 'बिलग होइ रसु जाइ।' मा० १.५७ (२) काव्यरस । 'मनहं बीर रसु धरे सरीरा।' मा० १.२४१.५ (३) निचोड़, अमतसार । 'बचन सुनत ससि रसु से।' मा० २.३०४.७ (४) निष्कर्ष+ निष्पत्ति, परिपाक । 'जान प्रीति रसु एतनेइ माहीं।' मा० ५.१५.७ (५) भक्तिरस । 'राम प्रेम रसु कहि न परत सो।' मा० २.३१७.४ (६) आनन्द (भाव) । 'सो सकोच रसु अकथ सुबानी।' मा० २.३१८.३ रसेस : सं०० (सं० रसेश)। रसों में श्रेष्ठ । (१) रसराज=शृङ्गार (२) पारा। (३) लवण । 'रुचिर रूप जल में रसेस व मिलि न फिरन की बात चलाई।' कृ० २५ For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 910 तुलसी शब्द-कोश रसोई : रसोई में । 'भयउ रसोई भूसुर मांसू ।' मा० १.१७३.७ रसोई : (१) सं०स्त्री० (सं० रसवती>प्रा० रसवई) । पाकशाला । (२) पाकशाला में पकाने का कार्य । 'जौं नरेस मैं करौं रसोई ।' मा० १.१६८.५ रहँट : सं०० (सं० अरघट्ट>प्रा० रहट्ट)। बालटियों की शृङ्खला से बना यन्त्र विशेष जिससे सिंचाई का काम होता है। 'रहँट नयन नित रहत नहे री।' मा० ५.४६.२ रहँसि : पू० । रभसहर्षावेग से भरकर । 'बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी ।' मा० २.४.१ रहँसेउ : भूक ००कए । रभस-वेग से भर गया अथवा रहस्-वेग से युक्त हुआ, उल्लसित हुआ । 'सुनि रहँसेउ रनिवासु ।' मा० २.७ रह : (१) रहइ । रहता है । 'लोचन जल रह लोचन कोना।' मा० १.२५६.२ (२) रहउ । रहे । 'सदा सो सानुकूल रह मो पर।' मा० १.१७.८ 'रह, रहइ, ई : आ.प्रए० (सं० रहयति = रहति>प्रा० रहइ)। (१) छूटता है । (२) बचा रहता है। 'जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा ।' मा० १.४६.२ (३) निवास करता है, स्थित रहता है। 'एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई।' मा० १.११८.१ (४) रुकता-ती है । 'कहि देखा हर जतन बहु, रहइ न दच्छ कुमारि ।' मा० १.६२ रहउँ, ऊ : आ०उए० । रहता-ती हूं। रहूं। 'बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ।' मा० १.८१.५; २.५६.६ रहउ : आ०-संभावना-प्रए०। (१) रहे, रहने दे। 'रहउ चढ़ाउब तोरब भाई ।' मा० १.२५२.२ (२) यथा स्थित रहे । 'कुरि कुआरि रहउ का करऊँ ।' मा० १.२५२.५ रहत : व.पु. । रहता-ते, रुकता-ते । 'उर अनुराग रहत नहिं रोके ।' मा० २.२१६.७ रहति, ती : (१) वक०स्त्री० । रहती, रुकती, बचती। ‘रहति न प्रभुचित चूक किये की।' मा० १.२६.५ (२) क्रियाति० स्त्री०ए० । (यदि, तो) रहती। 'होती जो अपने बस, रहती एक ही रस..'न लालसा रहति ।' विन० २४६.२ रहतु : रहत+कए । रहता । 'मरिबेई को रहतु हौं।' कवि० ७.१६७।। रहते : क्रियाति०पुब० । यदि "तो." रहते । 'जो पै हरि जन के औगुन गहते । तो कत.. गोप गेह बसि रहते।' विन० १७.१-२ रहन : भकृ० अव्यय । रहने को । 'कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू।' मा० २.१८५.७ रहनि : संस्त्री० । रहने की क्रिया, रहने की रीति, ढंग, रखरखाव । 'भरत रहनि समुझनि करतूती।' मा० २.३२५.७ For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश रहब : भक०पु० । रहना । 'दरसनु देत रहब मुनि मोहू ।' मा० १.३६०.७ रहम : सं०पु० (अरबी) । दया । 'सब को भलो है राजा राम के रहम ही ।' कवि० ६.८ 911 रहस: सं०पु० (सं० रभस > प्रा० रहस - वेग ) । हर्षा वेग, उल्लास | 'सर्जाह सुमंगल साज, रहस रनिवासहि ।' जा०मं० १३० रहसहि : रहस + प्रब० । उल्लसित होते हैं । 'सकल मन रहसहि ।' पा०मं० १२६ रहसि : क्रि०वि० (सं० ) । एकान्त में । ' रहसि जोरि कर पति पग लागी ।' मा० ५.३६.५ रहसी : भूकoस्त्री० । हर्षा वेग से भर उठी । 'रहसी चेरि घात जनु फाबी ।' मा० २.१७.२. रहस्य : सं०पु ं० (सं०) । (१) ममं गुप्त तथ्य । ' यह रहस्य काहूँ नहिं जाना ।' मा० १.१६६.१ (२) तत्त्व + मर्म । 'राम रहस्य अनूपम जाना ।' मा० ७.६३.८ रहहि, हीं : आ०प्रब० । (१) रहते हैं । 'खग मृग मधूप सुखी सब रहहीं । मा० १.६६.१ ( २ ) रुकते हैं । 'रहहि न रोके।' मा० ६.५२.८ (३) रहें, रुकें । 'बचन मोरि तजि रहहि घर । मा० २.४४ रहहुं : आ० -- आशी:मा० ६.१०७ :- प्रब० । रहें । 'सानुकूल कोसलपति रहहुं समेत अनंत ।' रहहु : आ०म० । रहो । मा० १.१७१.४; २.६१.३ रहा : भूकु०पु० । (१) निवास किया, स्थित हुआ । 'सकल भुवन भरि रहा उछाहू । मा० १.१०१.६ (२) बचा । ' रहा एक दिन अवधि कर ।' मा० ७ दोहा (३) रुका, विराम लिया । ' तदपि कहें बिन रहा न कोई ।' मा० १.१३.१ (४) छूट गया । ( ५ ) था । 'रहा प्रथम अब ते दिन बीते ।' मा० २.१७.६ . रहि : (१) पूकृ० । रह (कर) । 'रहि न जाइ बिनु किएँ बरेखी । मा० १.८१.३ (२) रही । 'बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ।' मा० ७.१०१.१ (३) रहीं । 'मातु सब रहि ज्यों गुड़ी बिनु बाय ।' गी० ६.१४.३ र हिश्र, ए : ( १ ) आ० भावा० । रहा जाय । 'इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना । मा० १.२१४.६ रहित: वकृ० भावा० । रहा जाता । 'रहिअत न राखे राम के ।' दो० १०२ रहिअहु : आ० - आशी::-मब० । तुम रहो । 'रहिअहु भरी सोहाग ।' मा० For Private and Personal Use Only २.२४६ रहिउँ : आ०- - भूकृ ० स्त्री० + उए० ! मैं रही । 'ता तें अब लगि रहिउँ कुमारी ।' मा० ३.१७.१० Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 912 तुलसी शब्द-कोश रहिए : रहिअ । 'तुलसी रहिए एहि रहनि ।' वैरा० १७ रहित : भूकृ०वि० (सं०) । हीन, वियुक्त ।' मा० १.६ रहियो : भकृ.पु०कए० । रहना (चाहिए) । 'तो लौ मातु आपु नीके रहिबो । गी० ५.१४.१ रहिये : रहिए। रहिहउँ : आ०भ० उए० । रहूंगा-गी। ‘रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।' मा०. २.६६.४ रहिहहिं : आ०भ०प्रब० । रहेंगे । 'लखनु कि रहिहहिं धाम ।' मा० २.४६ रहिहि : आ०भ०प्रए । (१) रहेगा, छूटेगा । 'जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।' मा० १.६५ छं० (२) मानेगा, रुकेगा। ‘सो कि रहिहि बिनु सिव धन तोरें।' मा० १.२२३.६ रहिहु : आ० - भूकृस्त्री०+मब० । (१) तुम रही हो। 'सती सरीर रहिहु बोरानी।' मा० १.१४१.४ (२) तुम थीं । 'रहिहु उमा कैलास ।' मा० ७.६० रहिहैं : रहिहहिं । 'जहां सजनी रजनी रहिहैं ।' कवि० २.२३ । रहिहौं : रहिहउँ । 'राम हौं कौन जतन घर रहिहौं।' गी० २.४.१ रहीं : (१) रही+ब० । थीं। 'प्रथम गए जहं रहीं भवानी।' मा० १.८९.८ (२) स्थित हुई । 'एक टक रहीं।' मा० १.३४६.८ रही : भूक०स्त्री०। (१) थी। 'गई रही देखन फुलवाई।' मा० १.२२८.७ (२) स्थित हुई । 'जोरि कर सन्मुख रही ।' मा० १.८७ छं० रहु : आo-आज्ञा-मए । तू ठहर, रुक जा। 'झुकी रानि अब रहु अरगानी। ___ मा० २.१४.७ रहें : रहने से । 'रहें नीक मोहि लागत नाहीं।' मा० २.२८४.४ रहे : भूकृ.पु०ब० । (१) बसे, ठहरे । 'कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ।' मा० १.४८.५ (२) थे । 'चली तहाँ जहँ रहे गिरीसा।' मा० १.५५.८ (३) स्थित हुए । 'रहे प्रबोधहि पाइ।' मा० १.७३ (४) बचे । 'दंड द्वै रहे हैं रघु-आदित उवन के।' कवि० ६.३ रहेउ', ॐ : आ०-भूकृ००+उए० । मैं था । 'तब अति रहेउँ अचेत्त ।' मा० १.३०; १.१८५.४ रहेउ, ऊ : भूकृ००कए । रहा। (१) स्थित रहा। 'तुम्हार पन रहेऊ ।' मा० १.७७.६ (२) बचा । 'रहेउ एक दिन अवधि अधारा।' मा० ७.१.१ रहेसि : आ०-भूकृ.पु+मए । 'तू रहा । 'बैठि रहेसि अजगर इव पापी।' मा० ७.१०७.७ (२) तू बच गया। 'जौं ते जिअत रहेसि सुरद्रोही।' मा० ६.८४.४ For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 913 रहेहु : (१) आ०-भ०+अनुज्ञा-मब । तुम रहना, ठहरना। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी ।' मा० २.८२.५ (२) आ०-भूकृ००+मब० । तुम रहे। 'का चुप साधि रहेहु बलवाना।' मा० ४.३०.१ रहैं : रहहिं । मा० १.३२३ छं० १ । रहै : रहइ । (१) रहता-ती है । 'सुनत धौर मति थिर न रहै।' मा० १.१६२.३ (२) रहना चाहिए । 'तुलसी न्यारे व रहै।' वैरा० ४२ रहेगी : आ०भ० स्त्री०प्रए । बचेगी। 'हाथ लंका लाइहैं तो रहेगी हथेरी सी।' कवि० ६.१० रहैगो : आ०भ००ए० । रहेगा । 'यों न मन रहैगो।' विन० २५६.२ रहो : रह्यो । रह गया, बचा । 'कहिबो न कछू मरि बोई रहो है।' कवि० ७.६१ रहों : आ० उए । रहूं, निवास करूं। 'कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं।' मा० रहोंगो : आ०भ०० उए । रहूंगा । 'रघुबीर को ह्व तव तीर रहौंगो।' कवि० ७.१४७ रहो : रहह । 'रही आलि अरगानी। कृ० ४७ रहोगी : आ०भ० स्त्री०+मब० । रहोगी । गी० १.७२.३ रह्यो : रहेउ । (१) था। 'बास जहें जाको रह्यो।' मा० १.६६ छं० (२) बचा। ___ 'रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ।' मा० १.१६०.३ । रांक : रंक । दरिद्र, हीन । 'सकल सुख राक सो।' कवि० ५.२५ राकनि : रंकन्ह । 'रांकनि नाकप रीझि करे। कवि० ७.१५३ रांक : रांक+कए । 'राउ होइ कि राकु ।' गी० १.८६.३ रोड़ : सं०स्त्री० (सं० रण्डा) । विधवा (अनाथ स्त्री)। 'सहित समाज गढ़ रोड़ को सो भांडिगो।' कवि० ६.२४ रोडरोरु : (दे० रांड़+रोर)। (१) रांड़ स्त्रियों का कलह-कोलाहल । (२) वि.पु(सं० रण्ड-रोरुद>प्रा० रंडरोरुअ) । एकाकी व्यर्थ रोने-चिल्लाने वाला (रण्ड=एकाकी पुत्र पत्नीहीन-रोरुद=अतिशय रोदनशील)। 'आपनी न बूझ न कहे को रांडरोरु रे ।' विन० ७१.१ रोषा : भूकृपु० (सं० राद्ध) । पकाया। बिबिध मृगन्ह कर आमिष राधा ।' __ मा० १.१७३.३ राधे : रांधने से, पकाने से । 'राधे स्वाद सुनाज ।' दो० १९७ राध्यो : भूक००कए । पकाया हुआ। 'लंक नहिं खात कोउ भात रोध्यो।' कवि०६.४ राइ : राई । राजा, श्रेष्ठ । 'जादवराइ ।' विन० २१४.२ For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 914 तुलसी शब्द-कोश राई : (१) राय । राजा, श्रेष्ठ । रघुराई, रिषिराई आदि । (२) सं०स्त्री० (सं० राजी>प्रा० राई) । श्रेणी, पङिक्त, समूह । बनराई, अंबराई आदि । राउ : राय+कए। (१) राजा । 'दसरथ राउ।' मा० १.१६.६ (२) राजपद। 'राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू ।' मा० २.१४६.७ (३) श्रेष्ठ । रघुराउ, मुनिराउ आदि । राउत : (१) सं०+वि०० (सं० राजपुत्र>प्रा. राउत्त) । राजकुलीन, नेता, नायक । 'गुह राउतहि जोहारे जाई ।' मा० २.१६१.७ (२) क्षत्रिय वीरपुरुष । 'राढ़उ राउत होत फिरि के जूझै ।' विन० १७६.६ राउर : सं०० (सं० राजकुल>प्रा० राउल) । (१) राजपरिवार । 'राउर नगर कोलाहलु होई ।' मा० २.२३.८ (२) राजभवन । 'गे सुमंत्रु तब राउर माहीं।' मा० २.३८.३ (४) आपका (सम्मानार्थक प्रयोग-जैसे, सरकार का) । 'राजन राउर नाम जसु ।' मा० २.३ राउरि : राउर+स्त्री०। आपकी (सरकार की)। 'इहाँ न लागिहि राउरि माया ।' मा० २.३३.५ राउरे : ('राउर' का रूपान्तर) (सं० राजपुर>प्रा० राउर)। राजकीय, राजधानी । 'भट भारी भारी राउरे के चाउर से कोडिगो।' कवि० ६.२४ राऊ : राउ। (१) राजा । 'मन मति रंक मनोरथ राऊ ।' मा० १.८.६ (२) श्रेष्ठ । जैसे, मुनिराऊ। राकस : सं०० (सं० राक्षस>प्रा० रक्खस)। निशाचर। राकसनि : राकस+संब०। राक्षसों (ने)। 'खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि ।' हनु० ३५ राका : सं०स्त्री० (सं.)। पूर्णिमा की रात्रि । मा० २.३२५.५ राकापति : पूर्णिमा का चन्द्रमा, पूर्ण चन्द । मा० ७.७८ ख राकेस : राकापति (सं० राकेश) । मा० १.४.३ राकेसु : राकेस+कए । एक विशिष्ट पूर्ण चन्द्र । 'रामरूप राकेसु निहारी।' मा० १.२६२.३ राख : (क) सं०स्त्री० (सं० रक्षा>प्रा० रक्खा>अ० रक्ख) । भस्म । 'राख को सो होम है।' विन० २६४.३ (ख) राखइ । (१) रक्षा करता है, बचाता है । 'ऐसेहुं दुख जो राख मम प्राना।' मा० ६.६६.१० (२) रक्षा करे, बचाये । 'क्रोध भएँ तन राख बिधाता।' मा० १.२८०.५ (३) धारण करता है। राख सीस रिपु नाव ।' दो० ५२० 'राख, राखद : आ०प्रए० (सं० रक्षति>प्रा० रक्खइ) । रक्षा करता है, बचाता है । 'जिमि बालक राखद महतारी।' मा० ३.४३.५ For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 915 राखउँ : आ० उए । (१) रोकता हूं। 'सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।' मा. २.६१.८ (२) रोक रखू। 'राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू ।' मा० २.५५.४ (३) रखता हूं (बचाता हूं) । 'इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ ।' मा० ७.११६.१ राखत : वकृ०० । (१) स्थित करता । 'बन असोक महँ राखत भयऊ ।' मा० ३.२६.२६ (२) पालन करते । 'राजनीति राखत सुरत्राता।' मा० ४.२३.१३ (३) रक्षा करते, बचाते । 'राखत नयन निपुन रखवारे ।' कृ० ५६ राखति : वकृ० स्त्री० । रखती, स्थित करती+रक्षित करती। 'कबहूं राखति लाइ हिये ।' गी० १.७.२ राखन : भकृ० अव्यय । रखने । (१) रोकने । 'राय राम राखन हित लागी।' मा० २.७८.१ (२) रक्षा करने । 'मुनि मख राखन गयउ कुमारा।' मा० ३.२५.५ राखब : भकृ० । रखना, बचाना। 'तात भांति तेहि राखब राऊ।' मा० २.१५२.६ राखबि : भकृ स्त्री० । रखनी । 'मया राख बि मन ।' जा०म० १६८ राखहि : आ०प्रब० (सं० रक्षन्ति>प्रा. रक्खंति>अ० रक्ख हिं)। (१) रक्षा करते हैं। 'राहिं निज श्रुति-सेतु ।' मा० १.१२१ (२) रोकते हैं। 'राखहिं जनकु सहित अनुरागा।' मा० १.३३२.२ (३) धारण करते हैं। अवधि आस सब राखहिं प्राना।' मा० २.८६.८ (४) बचने देते हैं । 'जन अभिमान न राखहिं काऊ ।' मा० ७.७४.५ राखहुं : आ०-आशीर्वाद-प्रब० । रक्षा करें। 'देव पितर सब राखहुं पलक नयन की नाईं।' मा० २.५७.१ राखहु : आ०मब० । (१) रक्षा करो। 'कस न राम राखहु तुम्ह नीती।' मा० १.२१८.७ (२) बचाओ। 'सोउ दयाल राखहु जनि गोई ।' मा० १.१११.४ (३) धारण करो। 'तनु राखहु ताता।' मा० ३.३१.५ (४) स्थित करो। 'राखहु सरन ।' मा० ७.१८.६ (५) रोक लो। ‘राखहु राम कान्ह यहि अवसर ।' कृ०१८ राखा : (१) भूकृ०० । रक्षित किया। 'ईस्वर राखा धरम हमारा।' मा० १.१७४.२ (२) गुप्त कर लिया। 'रचि महेस निज मानस राखा।' मा० १.३५.११ (३) बचा दिया, छोड़ दिया । 'अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।' मा० १.१८८.६ (४) स्थिर किया। 'तहाँ बेद अस कारन राखा ।' मा० १.१३.२ (५) राखइ । बचा सकता है, बचाता है। द्विज गुर कोप कहहु को राखा ।' मा० १.१६६.५ राखि : (१) पूकृ० । रख कर । स्थापित कर । 'चली राखि उर स्यामल-मरति ।' मा० १.२३५.१ (२) सुरक्षित कर । सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।' मा० For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 916 तुलसी शब्द-कोश । ३.२६.१६ (३) छिपा कर । 'संकर साखि जो राखि कहौं कछु ।' विन०२२६.६ (४) आ० – प्रार्थना - मए० । तू रक्षा कर । 'कहैं तुलसीस राखि । कवि० ६.४२ राखिअ : आ०प्र० (सं० रक्ष्यते > प्रा० रक्खी अइ ) । रखा जाय, रखिए (१) रोकिए । 'राखिअ अवध जो अवधि लगि ।' मा० २.६६ ( २ ) स्थापित कीजिए । 'राखिअ तीरथ तोय तहुँ ।' मा० २.३०६ ( ४ ) सुरक्षित कीजिए । 'राखिअ नारि जदपि उर माहीं । मा० ३.३७.६ राखिए, ये : राखिअ । स्थापित कर बचाइए । 'संकर निज पुर राखिऐ ।' दो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ राखिबे : भकु०पु० (सं० रक्षितव्य > प्रा० रक्खि अन्वय) । बचाने, रक्षा करने 'मखु राखिबे के काज राजा मेरे संग दए ।' कवि० १.२१ राखियो : भकृ०पु०कए० । रक्षा करना, बचना। 'मान राखिबो मागिबो ।" दो० २८५ राखिति : आ० - भूकृ० स्त्री० + प्रए० । उसने रखी। 'राखिसि जतन कराइ ।" मा० ३.२६ शखिहि : आ०भ० प्र० (सं० रक्षिष्यति > प्रा० रक्खि हि ) । रखेगा-गी । 'हठि राखें नहि राखिहि प्राना ।' मा० २.६८.२ राखिहैं : रखिहहिं । रक्षा देंगे । 'राखिहैं तव अपराध बिसारि । मा० ५.२२ राखि राखिहि । 'राखिहै रामु तो मारिहे को रे ।' कवि० ७.४८ I राखिही : आ०भ०मब० । रखोगे ( रोकोगे ) । 'जो हठि नाथ राखिहो मोकहूँ ।" गी० २.६.३ राखी : भूकृ० स्त्री० । रखीं, स्थापित कीं । 'बस्तु सकल राखों नृप आगें ।' मा 1 १.३०६.२ राखी : (१) राखि । रखकर । 'चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी । मा० ७.१६.५. (२) भूकृ० स्त्री० । रखी, स्थापित की । 'संकर सोइ मूरति उर राखी ।' मा० . १.७७.७ राखु : आ० - आज्ञा, प्रार्थना - मए ० । (१) तू रक्षा कर । 'राखु कह्यो नर-नारी । * विन० ६३.४ ( २ ) रहने दे, रोक ले । 'राखु राम कहुं जेहि तेहि भाँती ।" मा० २.३४.८ (३) धारण कर । 'प्रभु कहेउ राखु सरीरही । मा० ४.१०. छं० १ ( ४ ) स्थापित कर । 'हृदयँ राखु लोचनाभिरामा । मा० ६.५६.६ राखें : क्रि०वि० । (१) रखने से, रोकने से । 'हठि राखें नहि राखिहि प्राना । मा० २.६८.२ (२) प्रतिपालन करते हुए । 'लोकप कहि प्रीति रुख राखें । मा० २.२.३ For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्दकोश 917 राखे : (१) भूकृ००ब० । रखे । 'राखे सरन जान सब कोऊ।' मा० १.२५.१ (२) रखे-ही-रखे । 'पिंजरा राखे भा भिनुसार ।' मा० २.२१५ (३) राखें । रखने से । 'लोक राखे निपट निकाई है।' गी० ५.२६.३ (४) रख कर । 'राखे रीति आपनी जो जोइ सोई कीज।' कवि० ७.१२२ । राखेउ': आ०-भूक०पु+उए । मैंने रखे, बचाये। ‘राखेउँ प्रान जानकिहि लाई।' मा० २.५६.२ राखेउ : भूकृ.पु०कए० । (१) रक्षित किया। 'मख राखेउ ।' मा० १.२१६ (२) स्थित किया, रखा । 'जोगु भोग मह राखेउ गोई ।' मा० १.१७.२ राखेसि : आ०-भूकृपु+प्रए । उसने रखा, स्थापित किया। 'ल राखेसि गिरि खोह महुँ ।' मा० १.१७१ (२) रहने दिया। 'राखेसि कोउ न सुतंत्र।' मा० १.१८२ (३) उसने धरा, प्रस्तुत किया। 'दोना भरि भरि राखेसि पानी। मा० २.८६.८ राखेहु : (क) आ०-भ०+ आज्ञा, प्रार्थना+मब०। (१) तुम स्थिर कर लेना। 'अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ।' मा० १.७७.६ (२) तुम रक्षा करना । 'राखेहु नयन पलक की नाई।' मा० १.३५५.८ (ख) आ०-भूकृ.पु+ मब० । तुमने (छिपा) रखा। 'सो भुजबल राखेहु उर घाली ।' मा० ६.२६.८ राखे : राखाइ । रख ले, रख सकता है। (१) रोक ले । 'मिटा सोचु जनि राखै राऊ।' मा० २.५१.८ (२) बचा ले। 'के राखै के सँग चल ।' दो० ५४४ (३) बचा सकता है। जाहि घालो चाहिए, कहौ धौं, राखै ताहि को।' कवि०७.१०० राखौं : राखउँ । रखू', रहने दूं, बचाऊँ, धारण करूं। 'राखौं देह नाथ केहि खाँगें।' मा० ३.३१.७ राख्यो : राखेउ । 'जद्यपि है दारुन बड़वानल, राख्यो है जलधि गभीर धीरतर ।' राग : सं०० (सं.)। (१) रंग, वर्ण । 'सिय अंग लिखें धातु राग ।' गी. २.४४.४ (२) आसक्ति, विषयवासना । 'लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ।' मा० २.१३०.१ (३) प्रेम+रंग। 'उन्हहिं राग रबि नीरद जल ज्यों।' कृ० ३६ (४) संगीत की स्वरयोजना विशेष । 'सरस राग बाहिं सहनाई।' मा० १.३४४.२ (५) संगीत में छह रागों, छत्तीस रागिनियों में अन्यतम । 'गावत गोपाल लाल नीके राग नट हैं।' कृ० २० (६) गीत, गेय पद । 'मारू राग सुभट सुखादाई।' मा० ६.७६.६ रागा : राग, आसक्ति । तेहिं पुर बसत भरत बिन रागा।' मा० २.३२४.७ रागिन : रागी+संब० । रागियों, विषयी जनों। 'रागिन 4 सीठ।' कवि. ७.१४० For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 918 तुलसी शब्द-कोश रागिहि : रागी को, विषयी जन को। 'रागिहि सीठ बिसेषि थलु ।' रा०प्र० २.६.१ रागी : वि०पु० (सं० रागिन्) । रागयुक्त, विषयासक्त । 'राजा रंक रागी ओ बिरागी।' कवि० ७.८३ राग : राग+कए० । आसक्ति, विषय-वासना । 'रागु रोष इरिषा मद मोहू ।' मा०. २.७५.५ रागे : भूक पुब० । संगीत-राग अलाप उठे । 'गायक सरस राग रागे।' गी० राघव : सं०० (सं०) । रघुवंशी= राम । गी० ५.१०.१ राघौ : राघव । पहिरावो राघो जू को।' कवि० १.१३ राचहीं : रचहिं । सजाते हैं । 'सुर रूरे रूप राचहीं।' कवि० १.१४ राचा : भूकृ०० (सं० रक्त>प्रा. रच्चिअ)। (१) रंगा। (२) अनुरक्त हुआ। 'सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ।' मा० १.२३६.८ राचेउ : राचा+कए० । 'मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु ।' मा० १.२३६ छं० राच्छस : सं०० (सं० राक्षस)। एक मानव जाति पहले रक्षा का कार्य करने से 'रक्षस्' कहलायी। उसकी सन्तान को राक्षस कहा गया । ये पहले लङका में रहते थे, फिर विष्णु के कोप से पाताल चले गये। उस वंश की कन्या से विश्वा मुनि का विवाह हुआ जिससे रावण आदि ने जन्म लिया अत: यह पूरा वंश 'राक्षस' कहलाया। मा० ६.५४.५ राच्छसी : राच्छस+स्त्री० (सं० राक्षसी) । मा० ५.११.१ राच्यो : राचेउ । 'रुचि राच्यो न केहीं ।' कवि० ७.३६ राछस : राच्छस । मा० ५.५७.११ राज : (१) राजा । मा० १.३०६ (२) श्रेष्ठ । मुनिराज। मा० २.५ (३) राज्य। 'नाहिंन रामु राज के भूखे ।' मा० २.५०.३ (४) राजइ । /राज राजइ : आ०प्रए० (सं० राजति) । शोभित होता-होती है । 'भृकुटी बिच तिलक रेख रुचि राजै ।' गी० ७.१२.२ राजकाज : राज्य प्रशासन का कार्य । 'जागै राजा राजकाज ।' कवि० ७.१०६ राजकाजु : राजकाज+कए । कवि० ७.६८ राजगृह : राजभवन । मा० २.१६६ राजघर : राजगृह । कवि० २.४ राजघाट : (१) राजकीय घाट । (२) बड़ा घाट । मा० ७.२६.३ । राजडगरो : राजमार्ग, सीधी-लम्बी-चौड़ी सड़क । 'गुरु कहा राम भजन नीको,, __मोहि लगत राजडगरो सो।' विन० १७३.५ ।। राजत : वकृ.पु । विराजमान । राजत लोचन लोल ।' मा० १.२५८ For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश राजति : वकृ०स्त्री० । शोभित होती । 'पुरी बिराजति राजति रजनी ।' मा० १.३५८.३ राजधरम : राजा का कर्तव्य, राज्य का संविधान, राजनीति । 'राजधरम सरबसु एतनोई | मा० २.२१६.१ राजधानी : सं० स्त्री० (सं० ) । राज्यभूमि का मुख्य नगर जहाँ राजा रहता है । 919 पा०मं० छं० ११ राजन : (१) सम्बोधन (सं० राजन् ) । हे राजा । मा० १.२९३.३ (२) राजनि । राजाओं । 'राजन के राजा।' कवि ० १.६ । राजनीति | मा० २.२८८.४ राजनय : सं०पु० (सं० ) राजनि, न्ह, न्हि : राजा + संब० । राजाओं । सिय के स्वयंबर समाजु जहाँ राजनि को ।' कवि० १.६ राजनीति, राजनय : सं०स्त्री० (सं० ) । ( १ ) राजप्रशासन की रीति । (२) कूटनीति । 'भरत न राजनीति उर आनी ।' मा० २.१८६.६ (३) राजा के शासनोपाय = साम, दान, दण्ड और भेद । 'राजनीति भय प्रीति देखाई ।' मा० ३.२८.१२ राजपद : राजपद +कए० । राजा का पद, राज्याधिकार । 'नीति न तजिअ राजपदु पाएँ ।' मा० २.१५२.३ राजपूतु : रजपूतु । राज्याधिकारी राजकुमार पुत्र । 'राजपूत पाएहूं न सुखु लहियतु है ।' कवि० २.४ राजभंग : सं०पु० (सं० ) । ज्योतिष में एक प्रकार का ग्रहयोग जिससे राज्य-प्राप्ति में बाधा आती है; (राजयोग का विलोम ) राज्य - व्याघातक योगविशेष । 'राजभंग कुसमाज बड़ गत ग्रह चाल बिचारि ।' रा०प्र० ७.६.१ राजमग: सं०पु० (सं० राजमार्ग - दे० मग ) । लम्बी-चौड़ी पक्की ( राजकीय ) सड़क । 'कुतरुक सुरपुर राजमग लद्दल भुवन विख्याति ।' दो० १६ राजमद : राजा होने का अहंकार । मा० २.२२६-१ राजमदु : राजमद + कए० । जरा सा भी राज्याभिमान । 'सब तें कठिन राजमदु भाई ।' मा० २.२३१.६ For Private and Personal Use Only ३.८.१ राजमराल, ला : राजहंस । मा० १.१३४; राजमरालिनि : राजमराल + स्त्री० (सं० राजमराली) । राजहंसी । गी० ३.७.२ राजमहिषी : सं० स्त्री० (सं० ) । राजा की (बड़ी ) रानी । गी० १.२.१६ राजमारग : राजमग । गी० ५.४२.२ जरिषि : राजा होते हुए ऋषि, क्षत्रिय ऋषि (सं० राजर्षि) । गी० ७.३२.२ राजरोग : राजरोग (सं०) कए० । राजयक्ष्मा, क्षय रोग, तपेदिक । कवि० ५.२५ राजहंस : हंसविशेष जो श्वेत होते हैं और चरण लाल होते हैं । गी० ५.४०.३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 920 तुलसी शब्द-कोश राजहिं : आ०प्रब० । सुशोभित होते-होती हैं । 'मंदिर महं सब राजहिं रानी।' मा० १.१६०.७ राजहि : राजा को । 'परी न राजहि नीद निसि ।' मा० २.३८ राजहीं : राजहिं । मा० १.३२५ छं० ४ राजा : राजा ने । 'राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ।' मा० १.२४४.८ राजा : (१) सं०० (सं० राजन्) । प्रजार-रञ्जनकारी शासक । मा० १.१३०.२ (२) (समासान्त में) श्रेष्ठ । राजाधिराज : (सं०) राजाओं के ऊपर सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न महाराज सम्राट । गी० ५.५०.६ राजि, जी : सं०स्त्री० (सं.)। श्रेणी, समूह । 'कुसुमित नव तरु राजि बिराजा।' ___ मा० १.८६.६ राजिव : राजीव । मा० १.१८.१० राजी : राजि । मा० १.३००.२ राजीव : सं०० (सं०) । कमल । मा० १.१४८.१ राजु, राजू : राज+कए । (१) राज्य । 'राजु कि भूजब भरत पुर ।' मा० २.४६ ___ 'उलटहुँ महि जहँ लगि तव राजू।' मा० १.२७०.४ (२) राजा । 'मानहुँ राज अकाजेउ आजू ।' मा० २.२४७.६ राजे : भूकृ.पु०ब० । सुशोभित हुए, प्रकाशमान हुए । 'खल भए मलिन साधु सब राजे ।' मा० १.२६५.१ राज : राजहिं । गी० १.३१.३ राज : राजइ। राज्य : (१) संपु० (सं०) । एक शासक के अधीन जनसंख्या से युक्त भू-भाग। विन० ५०.५ (२) शासन। (३) राजा का कर्म । राड़ : राढ़। मूर्ख, कायर । 'गजगुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़।' दो. ३८० राढ़ : वि.पु.। (१) दुष्ट, क्रूर, निष्ठुर । 'खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि ।' हनु० ३५ (२) मूर्ख, कायर लोभी। 'लाज तोरि साजि साज राजा राढ़ रोषे हैं ।' गी० १.६५.१ (३) लङका का एक नाम भी था। राढ़उ : राढ़ भी, कायर भी। 'राढ़उ राउत होत फिरि के जूझै ।' विन० १७६.६ रात, ता : वि.पुं० (सं० रक्त>प्रा० रत्त) । (१) रंगा हुआ, रंगे हुए । (२) अनुरक्त । 'जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता।' मा० १.२०४.२ (३) आसक्त । 'चितव न सठ स्वारथ मन राता ।' मा० ६.८५.८ (४) लाल रंग का। For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 921 राति, ती : सं०स्त्री० (सं० रात्रि, रात्री>प्रा. रत्ति, रत्ती)। निशा। मा० १.१०८.७, २.११.७७ रातिचर : निशाचर । 'मारे रन रातिचर ।' कवि० ६.५८ रातिचर राज : राक्षसराज, रावण । 'सेना सराहन जोगु रातिचर-राज की।' कवि० राते : राता+०। (१) रक्तवर्ण, लाल । 'नयन रिस राते ।' मा० १.२६८.६ (२) रंगे हुए+अनुरक्त । 'जो 4 जानकी नाथ के रंग न राते ।' कवि० ७.४४ रातो : राता+कए । अनुरक्त हुआ (होता-क्रियाति पु०ए०) । 'जो मन प्रीति प्रतीति सो राम नामहि रातो।' विन० १५१.६ रात्यो : रातो। अनुक्त हुआ। 'मोह मद मात्यो रात्यो कुमति कुनारि सों।' कवि० ७.८२ राधो : भूकृ.पु.कए० (सं० राध:>प्रा० रद्धो) । आराधित किया। 'जो 4 राधो नहीं पति पारबती को।' कवि० ७.१५६ रानि : रानी । मा० २.१३.७७ रानिन, न्ह : रानी+संब० । रानियों। 'रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।' मा० १.२६०.६ रानी : रानी+ब० । रानियां । 'मंदिर महं सब राजहिं रानी।' मा० १.१६०.७ रानी : सं०स्त्री० (सं० राज्ञी>प्रा० राणी)। राज पत्नी । मा० १.४० राम : (१) सं०+वि.पु. (सं0-रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः) । योगियों तथा भक्तों का आनन्दमय विश्रामस्थल । (२) परमात्मा। 'राम सच्चिदानंद दिनेसा।' मा० १.११६.५ (३) कोसल्यापुत्र (अवतार रूप) राम। मा० २.१३.२ (४) 'राम' शब्द । 'मुखन ते धोखेउ निकसत राम ।' वैरा० ३७ (५) परशुराम । 'कहा राम सन राम ।' मा० १.२८२ (६) कृष्ण के अग्रज (बल)। कृ० २६ (७) यक्षर 'राम' मन्त्र । रामघाट : वह गङ्गा तट जहाँ शृङ्गवेर पुर में रह कर राम ने स्नान किया था। मा० २.१६७.४ रामचंद : रामचंद्र । मा० २.१.६ रामचंदु : रामचंद+कए । 'रामचंदु पति सो बैदेही।' मा० २.६१.७ रामचंद्र : चन्द्रमा के समान आह्लादकारी भगवान् राम । मा० २.१६७.६ रामचरित : राम की सम्पूर्ण जीवनचर्या । मा० १.११ रामचरितमानस : काव्य का नाम । (१) शिव के मन में रक्षित राम का चरित । (२) मानस सरोवर के समान हृदय का आह्लादकारी रामचरित । (३) राम चरित रूपी मानस सरोवर। :रचि महेस निज मानस राखा । ..."तातें For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 922 तुलसी शब्द-कोश रामचरितमानस बर ।' मा० १.३५.११-१२ ( मानस सरोवर की तुलना का लम्बा रूपक है । मा० १.३५-४३) । रामचरित्र मानस : रामचरितमानस । मा० ७.१३० श्लो० २ रामघाम, पद : (१) रामचन्द्र का आवास गृह । 'रामधाम सिख देन पठाए ।' मा० २. ६.१ (२) साकेत लोक = राम ब्रह्म से सायुज्य की दशा जिसमें जीव सदा अपने को रामाकार हुआ (मुक्त) अनुभव करता है । गी० ३.१७.८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामपद : रामधाम । जीव-ब्रह्म की सायुज्यदशा । मा० १.४४.१ रामबनु : रामबन + क० | चित्रकूट का वनविशेष जहाँ राम रहे थे । मा० २.१३८.३ रामबोला : वि० + सं०पु० । (१) 'राम' का उच्चारण (२) गोस्वामी जी का नाम । 'राम- बोला नाम हीं गुलाम राम कवि० ७.१०० करने वाला । साहि को ।' राम भगति : (दे० भगति ) । रामाकार चित्तवृत्ति से राम की उपासना जो दास्यरूप में मुख्य होती है । मा० १.४०.१ रामभद्र : रामचन्द्र । कल्याणगुण सम्पन्न राम । विन० १५०.१ राम मंत्र : 'राम' शब्दरूप द्वयक्षर मन्त्र । मा० ७.११३.६ राममय: वि०पु० (सं० ) । रामरूप तथा राम से व्याप्त (ब्रह्म-राम अंशी हैं और जड़-चेतन विश्व उनका अंश है अतः समस्त प्रपञ्च राम का ही रूपावतार है; अन्तर्यामी रूप से राम सब में व्याप्त भी हैं) । 'जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।' मा० १.७ ग रामा : (१) राम । मा० १.१६८.६ (२) सं० स्त्री० (सं० ) । सुन्दरी, स्त्री । 'रामासि वामासि वर बुद्धि वानी ।' विन० १५.३ ( ३ ) लक्ष्मी, सीता । 'रामा रमन रावनारी ।' विन० ५५.२ रामाकार : द्रवीभूत चित्त की दशा जो राममय हो जाती है, जागतिक विषयों के स्थान पर चित्त में राम का आकार प्रविष्ट हो जाता है । राममय । 'रामाकार भए तिन्ह के मन | मुक्त भए छूटे भवबंधन ।' मा० ६.११४७ रामास्य : राम नाम वाला (आख्या = नाम ) । मा० ५ श्लो० १ रामानुज : राम के अनुज = लक्ष्मण । मा० ४.२० रामायण : सं०पु० (सं० ) । आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य । मा० ७. १३० श्लो० १ For Private and Personal Use Only रामायन : रामायण । ( १ ) आदिकाव्य । 'बंदउँ मुनिपद कंज रामायन जेहि निरमयउ ।' मा० १.१४ (२) रामकथा, रामचरित । रामायन सतकोटि अपारा।' मा० १.३३.६ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 923 रामायुध : (१) धनुष-बाण । (२) धनुष बाण के रेखाचित्र (जो रामानन्दी वैष्णव अपने शरीर आदि पर अङिकत कराते हैं)। 'रामायुध अंकित गृह ।' मा० ५.५ रामु, मू: राम+कए । रामु सहज आनंद निधान ।' मा० २.४१.५; १.२६६ रामेस्वर : सं००० (सं० रामेश्वर) । समुद्र तट पर रामचन्द्र द्वारा स्थापित शिव । ___ मा० ६.३.१ राम : रामहि । राम के । 'दूसरो न देखतु साहिब सम राम ।' गी० ५.२५.१ राय : राजा ने । 'तबहिं राय प्रिय नारि बोलाई।' मा० १.१६०.१ राय : (क) सं०० (सं० राजन् >प्रा० राया) । (१) राजा । 'राय रजायसु सब कहें नीका।' मा० २.१८१.३ (२) (समासान्त में) राजा । 'कोसलराय' । मा० २.१३५ (३) (समासान्त में) श्रेष्ठ । 'मुनिराय' । मा० २.१२६.१ 'धनुधर-राय ।' गी० २.२८.४ (४) राव सामन्त । 'ऊँचे नीचे बीच के धनिक रंक राजा राय ।' कवि० ७.१७५ (ख) सं०स्त्री० (सं० रै-राय:) धन । रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।' मा० २.११७.८ रायमुनी : सं०स्त्री०ब० । ललमुनिया = लाल रंग की विशेष चिड़ियाँ। मा०. ६.१०३ छं० राया : (१) राय । राजा । मा० १.१६९.४ (२) स्वामी । 'बोले बिहसि चराचर राया।' मा० १.१२८.६ रारि, री : सं०स्त्री० (सं० राटि>प्रा. राडि, राडी)। युद्ध, कलह । 'तो न बढ़ाइअ रारि।' मा० ६.६; १.४२.५ राव : राउ । राजा या सामन्त । 'रंकहू को रावहू को सुलभ ।' विन० २५५.२ रावन : सं०० (सं० रावण) । लङ केश्वर, दशग्रीव। मा० १.७६ रावनारि, रो : (सं० रावणारि) रावण के शत्रु राम । मा० ३.४६ क रावनु : रावन+कए० । 'भयउ रोष रन रावन मारा।' मा० १.४६.८ रावनो : (१) रावनु । 'सबिषाद कहै रावनो।' कवि० ५.६ (२) रावण भी। 'अकुलाइ उठो रावनो।' कवि० ५.८ रावरि, री : (दे० राउर) वि०स्त्री०। आपकी । 'रघुबर रावरि यहै बड़ाई।' विन० १६५.१, मा० १.२६ रावरिय, रीऐ, रीये : आपकी ही। 'मेरे रावरिय गति ।' विन० १५३.१ 'आस रावरीय दास रावरो बिचारिय।' हनु० २१ रावरें : आपके से। 'संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।' मा० १.३२६ छं० २ राघरे : (दे० राउर)। (१) आपके । 'साँवरे से सखि रावरे को हैं ।' कवि. २.२१ (२) आप लोग । 'बावरे ही रावरे ।' कवि० ५.८ For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 924 तुलसी शब्द-कोश रावरेई : आपके ही । 'आगम निगम कहैं रावरेई गुन ग्राम।' विन० ७७.३ रावरेऊ : आप भी। 'रावरेऊ जानि जिय कीजिए ज अपने ।' कवि० ७.७८ रावरो: रावर+कए० (दे० राउर) । आपका । 'सीलु सनेहु जानत रावरो।' मा० १.२३६ छं. 'रावरोई : आपका ही। 'रावरो भरोसो तुलसी के रावरोई बल ।' हनु० २१ रास : सं०० (सं.)। (१) कोलाहल, शब्द । (२) नत्यविशेष (जो कृष्ण ने गोपियों के साथ रचाया था); रासलीला। 'ब्रज बसि रास बिलास, मधुपरी चेरी सों रति मानी।' क० ४७ रासम : सं०० (सं.)। गधा । मा० ३.२६.५ रासमी : संस्त्री. (सं०) । गधी। 'बेचिए बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिए।' कवि० ७.७६ रासि, सी : संस्त्री० (सं० राशि>प्रा० रासि, रासी)। ढेरी, पुज। मा० ३.२२ ६ 'सिव भगवान ग्यान गुन रासी।' मा० १.४६.३।। रासिन्ह : रासि+संब० । राशियों, ढेरों । 'जनु अंगार रासिन्ह पर ।' मा० ६.५३ राहु, हू : सं०० (सं.)। (१) पृथ्वी की छाया जो अष्टमग्रह के रूप में मान्य है और ग्रहण का कारण है । (२) पुराणों में एक असुर जिसे समन्दमन्थन में अमृत-पान करते हुए विष्णु ने सुदर्शन चक्र से काट दिया तो सिर भाग राहु और धड़ केतु बन गये । मा० १.७० राहू : राहु । मा० १.७.६ राहुमातु : राहु की माता=सिंहिका (राक्षसी) । हनु० २१ रिगु : सं०० (सं० ऋग्-स्त्री०)। ऋग्वेद । विन० १५५.२ रिच्छ : सं०० (सं० ऋक्ष)। भालू । गी० ६.१६.३ ।। रिच्छेस : (सं० ऋक्षेश) । भालुओं के राजा =जाम्बवान् । मा० ६.३६.३ रिछेसा : रिच्छेस । मा० ४.२६.७ रिझये : भूक००ब० । रिझाये हुए, आसक्त । 'खेलन लगे खेल रिझये री।' गी० १.४५.२ रिझयो : भूकृ००कए। रिझाया, तल्लीन किया। 'कलगान तान दिनमनि रिझयो री।' गी० ७.७.२ रिझव : आ०प्रए० (रीझ+प्रेरणा)। रिझाता-ती है, अनुरक्त करता-ती है; ___अनुकूल करता-ती है । 'सो कमला. रिझर्व सुरमौरहि ।' कवि० ७.२६ रिझाइ : पूकृ० । रिझा कर, फुसला कर । 'बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।' मा० ५.५६ रिझाइबो : भकृ.पु०कए । रिझाना, अनुकूल बनाना । 'तुलसी लोग रिमा इबो करषि कातिबो नान्ह ।' दो० ४६२ For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तुलसी शब्द-कोश रिभाई : रिझाइ । मा० ६.२४.२ रिझाएँ: क्रि०वि० । रिझाने से, अनुकूल एवं सन्तुष्ट करने से । 'कहहु सिधि लोक रिझाएँ । मा० १.१६२.२ रिझाव : आ०उए० | रिझाऊँ, अनुकूल करूँ, मनाऊँ । 'तुलसिदास प्रभु सो गु 925 जेहि सपनेहुँ तुमहि रिझावों ।' विन० १४२.११ रितई : भूकृ० स्त्री० । रिक्त कर दी, छूछी कर डाली । 'मही मोद मंगल रितई है ।" विन० १३६.६ रितऍ : क्रि०वि० । रिक्त करने पर । 'को भरिहे हरि के रितएँ ।' कवि० ७.४७ रितए : भूकृ०पु०ब० । रिक्त किये। 'देत सबनि मंदिर रितए ।' गी० १.३.६ रितवे : आ०प्र० (सं० रिक्तयतिरिक्तं करोति > प्रा० रित्तवइ ) । छूछा ( रिक्त) करता या कर सकता है । 'रितर्व पुनि को हरि जो भरिहै ।' कवि ० ७.४७ अ० रित्तवहि ) । छूछा जा०मं० ८० रितर्वाह : आ०प्रब० (सं० रिक्तयन्ति > प्रा० रितवंति करते हैं (उंडेलते हैं) । ' कलस भरहि अरु रितवहि ।' रितु : सं०पु० + स्त्री० (सं० ऋतु) । वर्ष का छठा भाग जो दो मास का होता है- बसन्त = = चैत्र वैशाख, ग्रीष्म ज्येष्ठ - आषाढ़, वर्षा = श्रावण-भाद्रपद, शरद् = आश्विन - कार्तिक, हेमन्त = मार्गशीर्ष पौष, शिशिर = माघ फाल्गुन |मा० १.१६ = रितुन्ह : रितु + संब० । ऋतुओं (में) । 'सकल रितुन्ह सुखदायक ।' गी० ७.२१.२ रितुराज, जा : बसन्त ऋतु । मा० २.१३३; १.८६.६ रितुराजू, जू : रितुराज + कए । अद्वितीय बसन्त । 'सो मुद मंगलमय रितुराजू ।" O मा० १.४२.३ रितो : आ० - आज्ञा - मए० (सं० रिक्तय- रिक्तं कुरु > प्रा० रित्तव ) । तू रीता कर, उँडेल कर खाली कर ले । 'साँवर रूप सुधा भरिबे कहूँ नयन कमल कल कलस रितो री ।' गी० १.७७.२ रिद्धि : सं० स्त्री० (सं० ऋद्धि ) । ऐश्वर्यं । रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख ।' मा० १.६५. ( विकास, सफलता, सम्पत्ति, प्रचुरता, सौभाग्य, औदात्य, महिमा, लोकोत्तरता, पूर्णता - इतने अर्थ समूह को 'ऋद्धि' कहते हैं । पार्वती और लक्ष्मी को भी इस नाम से जाना जाता है । 'ऋद्धि' और 'सिद्धि' गणेश- पत्नियाँ भी कही गयी हैं । ) I For Private and Personal Use Only रिधि : रिद्धि | मा० १.३४५.२ रिन : (१) सं०पु० (सं० ऋण > प्रा०रिण) । ब्याज पर लिया हुआ धन । रिपु रिन रंच न राखब काऊ ।' मा० २.२२६.२ (२) धर्मशास्त्र में तीन ऋॠण = = ऋषि ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 926 तुलसी शब्द-कोश = रिनिया : वि०पु० (सं० ऋणिक > प्रा०रिणिय ) । जिस पर ऋण हो = अधमर्णं = कर्जी । दो० १११ रिनी : रिनिया (सं० ऋणिन् > प्रा०रिणी) । 'तेरो रिनी हीं कह्यो कपि सों ।' विन० १६४.६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिनु : रिन + कए । एकमात्र ऋण । 'गुर रिनु रहा सोच बड़ जी के ।' मा० १.२७६.२ (गुरु-ॠण = ऋषि ऋण) । रिपु: सं०पु० + स्त्री० (सं० ) । शत्रु | मा० १.१४ क रिपुदमन : शत्रुओं का दमन करने वाला शत्रुघ्न । रिपुदमनु : रिपुदमन + कए० । शत्रुघ्न । मा० २.१३ रिपुदवन : रिपुदमन । रा०प्र० ४.१.७ रिपुदवनू : रिपुदमनु । मा० २.२४३. १ रिपुसूदन : (१) शत्रु संहारक । (२) शत्रुघ्न – दशरथ के यविष्ठ पुत्र । मा० = १.१७.६ रिपुसूदनु : रिपुसूदन + कए० । मा० २.७१.२ रिपुहन : रिपुसूदन (सं० रिपुघ्न) । मा० २.१६३.७ रिपुहि : शत्रु को । 'रिपुहि जीति आनिबी जानकी ।' मा० ५.३२.४ रिरिहा : वि०पुं० । रिरियाने वाला, दैन्यवश 'री-री' करने वाला । 'रटत रिरिहा; आरि और न, कोरही तें काजु ।' विन० २१६-१ रिषयँ : ऋषि ने । 'पठए रिषयं बोलाई ।' मा० २.२५३.८ रिषय : रिषि (सं० ऋषयः) । 'सहाँ होइ मुनि रिषय समाजा ।' मा० १.४४.७ रिषि, षी: सं० (सं० ऋषि) । वेद मन्त्रों का द्रष्टा, तत्त्वदर्शी । मा० १.२४.४ विन० १८०.४ रिषिन्ह : रिषि + संब । ऋषियों । 'तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए ।' मा० १.२१२.३ रिषिहि : ऋषि को । 'सौंपे भूप रिषिहि सुत । मा० १.२०८ क रिषीस, सा : (सं० ऋषीश ) श्रेष्ठ ऋषि । मा० १.७५.४ रिष्ट : (१) वि० (सं० ) । सम्पन्न । (२) (सं० हृष्ट) प्रसन्न । रिष्ट-पुष्ट : सम्पन्न + प्रसन्न तथा स्वस्थ । मन तथा शरीर से स्वस्थ । रिष्ट-पुष्ट कोउ कोउ अति खीना ।' मा० १.६३.८ रिष्यमूक : सं०पु० (सं० ऋष्यमूक) । पम्पातटवर्ती पर्वतविशेष । मा० ४.१.१ रिस : सं० स्त्री० (सं० रिष्) । रोष, क्रोध । मा० १.८७.२ रिसाइ, ई : पूकृ० । क्रुद्ध होकर । 'सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।' मा० १.२७१.२, ५.४१.२ रिसात : वकु०पु० । क्रुद्ध होता होते । 'बिधि सों बहुत रिसात ।' द० ४१३ For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश रिसाते : वकु०पु०ब० । क्रुद्ध होते । 'सहजहुं चितवत मनहुं रिसाते ।' मा० १.२६८.६ रिसान, ना : भूकृ०पु० । क्रुद्ध हुआ । 'सुनि दसकंठ रिसान ।' मा० ६.५६६ ६.४२.६ । क्रुद्ध हुई रिसानी ।' रिसानि, नी : (१) भूकृ० स्त्री० | २.२५ छं० 'प्रानप्रिया केहि हेतु रिस करने की क्रिया । 'घोर धार भृगुनाथ रिसानी । मा० १.४१.४ रिसानें : क्रि०वि० । क्रुद्ध होकर ( होते हुए ) । कवि० ७.१६३ रिसाने : रिसानें । क्रुद्ध होने से । 'टूट चाप नहि जुरिहि रिसाने ।' मा० १.२७८.२ रिसाहि : आप्रब० । क्रोध करते हैं । 'निज अपराध रिसाहि न काऊ ।' मा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir O 927 'केहि हेतु रानि रिसानि ।' मा० मा० २.२५.८ ( २ ) सं० स्त्री० ॥ २.२१८.४ रिसिवाह : पूकृ० । रुष्ट होकर । 'कबहूं रिसिआइ कहैं ।' कवि० १.४ रिसोहैं : क्रि०वि० + वि०पु० ०ब० । क्रुद्ध से । 'रदपट फरकत नयन रिसोहैं ।' मा० १.२५२.८ री : स्त्री० सम्बोधन (सं० अली > अरी > री) । हे सखी । ' को मरिहै री माई ।' कृ० ५१ रीछ, छा : रिच्छ । मा० १.१८.१, ६.५०.७ रीछपति: रिछेस जाम्बवान् । मा० ४.३०.३ रीछराज : रीछपति । गी० ५.३२.१ रीझ : रीति । रुचि । 'बावरे बड़े की रीझ बहन बरद की ।' कवि० ७.१५८ रोत: वकृ०पु० (सं० ऋध्यत् > प्रा० रिज्यंत ) । अनुरक्त + अनुकूल होता होते । 'रीझत राम सनेह निसोतें ।' मा० १.२८.११ हु : आ०म० (सं० ऋध्यथ > प्रा० रिज्झह> अ० रिज्झहु) । रीझते हो, अनुकूल हो जाते हो । 'तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ।' मा० १.३४२.४ । रीझि : (१) पू० । रीझ कर, आसक्त होकर । रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रामहि रीझि ।' दो० २८४ (२) सं० स्त्री० । रीझने की क्रिया, रुचि, अनुरक्ति, प्रीति । 'तुलसी चातक जलद की रीझि बूझि बुध काहु ।' दो० २६२ रोझिअ : आ० भावा० । रीझा जाय, प्रसन्न एवम् अनुकूल रहा जाय । काहे को खीझम, रीशिअ पे ।' कवि० ७.६३ रोझिने : भक०पु० । रीझने ( को ) । 'राम रीक्षिबे जोग ।' दो० ८५' रोझिहि : आ०भ० प्र० । रीझेगा-गी ; आकृष्ट होगी । 'रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी ।' मा० १.१३४.४ For Private and Personal Use Only रीझिहु : आ० - भूकू ० स्त्री० + मन्त्र० । तुम रीझ गई हो । 'कहहु काह सुनि रीक्षिहु बर अकुलीनहि ।' पा०मं० ४६ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 928 तुलसो शब्द-कोश रोझै : रीमने से अनुरक्त होने से । 'राम नाम ही सों रीझें सकल भलाई है।" कवि० ७.७४ रीझे : (१) भूकृ००। प्रसन्न तथा अनुकूल हुए। रीझे ह हैं, राम की दोहाई, रघुराय जू ।' कवि० ७.१३६ (२) रीझें। रीझने पर । रीझे बस होत ।' विन रीझेउँ : आ०-भूक.पु+उए० । मैं रीझ गया-वशीभूत हो गया। रीझेउँ देखि तोरि चतुराई ।' मा० ७.८५.५ रीझ : आ०प्रए० (सं० ऋध्यति>प्रा. रिज्झइ)। रीझ जाय, मुग्ध हो उठे । 'जो बिलोकि रीझं कुरि।' मा० १.१३१ रोति : सं०स्त्री० (सं.) । (१) गति (२) मार्ग (३) सीमारेखा (४) ढङ्ग, शैली। 'समुझि सो प्रीति की रीति स्याम की।' कृ० ३८ (५) चलन, आचरण । 'सुनत जरहिं खल रीति ।' मा० १.४ (६) परम्परा, मर्यादा, प्रथा। 'नेग सहित सब रीति निबेरी।' मा० १.३२५.७ (७) काव्य-शैली रस निर्वाहोपयोगी पद-संघटना (वैदर्भी, गौड़ी, पाञ्चाली अथवा सुकुमार मार्ग, पुरुष मार्ग, मध्य मार्ग) । दे० रस रीति । रोतिमारिषी : (सं० आर्षी रीतिम् = रीतिमार्षी)ऋषियों की रीति । 'लोक लखि बोलिए पुनीत रीतिमारिषी।' कवि० १.१५ ।। रोती : रीति+ब० । रीतियाँ । 'करि लौकिक बैदिक सब रीतीं।' मा० १.३२०.१ रीती : (१) रीति। 'काक समान पाकरिपु रीती।' मा० २.३०२.२ (२) वि०स्त्री० (सं० रिक्ता>प्रा० रित्ती)। छूछी; अन्तःशून्य । 'जोगिजन मुनि मंडली मो जाइ रीती ढारि ।' कृ० ५३ रीते : वि.पु. (सं० रिक्त>प्रा. रित्त=रित्तय)। छूछे। सारहीन । 'भए देव सुख संपति रीते।' मा० १.८२.६ एंड : सं०० (सं.)। धड़, कबन्ध, शिरोहीन काय । मा० २.१९२.२ रंडन : रुंड+संब० । रुड़ों। 'रुंडन के झुंड ।' कवि० ६.३१ रुख : (१) सं०० (फा० रुख)। चेहरा, मुखाकार। 'निरखि राम रुख सचिव सुत...।' मा० २.५४ (२) मुख-संकेत, निर्देश, इङ्गित । 'लोकप करहिं प्रीति रुख राखें ।' मा० २.२.३ (३) मुख की ओर (अपनी ओर)। 'निज निज रुख सब रामहि देखा।' मा० १.२४४.७ (४) ओर, सामने । रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।' मा० २.५९.८ (५) मनोभाव (जो मुखाकार से प्रकट होता हो)। 'लखी राम रुख रहत न जाने ।' मा० २.७८.२ 'रुच रुचह : आ०प्रए० (सं० रोचते>प्रा० रुच्चइ-रुच दीप्तिी अभिप्रीती च)। (१) प्रीतिकर लगता है (रुचता है)। 'दुइ में रुचे जो सुगम सो तुलसी कीबे For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश तोहि ।' दो० ७८ (२) सोहता है, फबता है । 'रुचं मागनेहि मागिबो । दो० ३२७ द्युति । एतेहु पर रुचि रूप रुचि : सं० स्त्री० (सं०) । (१) किरण, आभा लोभाने ।' कृ० ३८ (२) स्वाद, आसक्ति । 'ये सनेह सुचि अधिक अधिक रुचि ।' कृ० ३७ (३) इच्छा । ' देबि मागु बर जो रुचि तोरें ।' मा० १.१५०.३ वि० (सं० रुच्य ) । रुचिर, सुन्दर । 'रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे । मा० १.२६८.४ ( ४ ) रुचिर : वि० (सं० ) । रुचिकर, सुन्दर, प्राञ्जल, पवित्र । 'प्रगटेसि तुरत रुचिर रितु राजा । मा० १.८६.६ (२) प्रकाशपूर्णं । ' रुचिर रजनि ।' मा० 929 १.२२६.२ farai : रुचिरता से । 'रुचिरतां मुनि मन हरे । मा० १.३२० छं० चिरता : सं० स्त्री० (सं० ) । स्वच्छता, सुरुचि सम्पन्नता, सुन्दरता । मा० १.३२७.६ रुचिराई : रुचिरता । मा० ७.२६.७ रुचिराकर : ( रुचिर + आकर ) उत्तम खानि । 'रामकथा रुचिराकर नाना ।' मा० ७.१२०.१३ vat : भूकृ० स्त्री०ब० । प्रीतिकर लगी- भाईं । 'चातक बतियाँ ना रुचीं ।' दो० ३१० vat : भूक०स्त्री० । प्रीतिकर लगी । 'रुची न साधु समीति ।' विन० २३४.३ 1 : रुच । (१) रुचता है, अच्छा लगता है । 'रुचं समाज न राजसुख ।' रा०प्र० ६७.२ (२) रुचे, अच्छा लगे । 'जेहि जो रुचै करो सो ।' विन० १७३.२ रुज : रुजा । मा० १.१.२ राजा : सं० स्त्री० (सं० ) । रोग, व्याधि । मा० ७.१४.३ जाली : सं० स्त्री० (सं० ) । व्याधि- समूह । 'दहन दोष दुख दुरित रुजाली । " विन० २.२ रुदन : रोदन (सं० ) । मा० १.१६३.१ रुदनु : रुदन + कए० । 'घर घर रुदन् करहि पुरबासी । मा० २.१५६.५ दहि : आ०प्र० । रोते-ती हैं । 'प्रतिमा रुदहि ।' मा० ६.१०२ छं० हदित : भूकृ०वि० (सं० ) । रोया हुआ, रुआंसा । 'रुदित मुख ।' जा०मं० छं० १३ रुद्र : (१) सं०पु० (सं० ) । प्रलयंकर, शंकर । मा० १.१३३ (२) एकादश रुद्र जो शिवगणविशेष हैं । For Private and Personal Use Only रुद्राग्रणी : ( रुद्र + अग्रणी ) ग्यारह रुद्रों में श्रेष्ठ = हनुमान् । विन० २७.३ क : सं०पु० (सं० ) । रुद्रस्तुति के आठ श्लोकों का समूह । मा० ७.१०८.६ रुषिर : सं०पु० (सं०) । रक्त = खून । मा० २.१६३.५ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 930 तुलसी शब्द-कोश रुधिरोपल : (रुधिर+उपल) खून और पत्थर । 'बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।' मा० ६.४६.११ रुनझुन : ध्वनिविशेष = रणन। गी० १.२७.२ रुह : (समासान्त में) सं०० (सं०) । उत्पन्न, जात । जलरुह = कमल, थलरुह= वृक्ष, शिरोरुह = केश, तनूरुह =रोम आदि। 'उकठेउ हरित भए जल-थल-रुह।' गी० २.४६.३ रूँधहु : आ०मब० (सं० रुन्घ>प्रा० रुंधह>अ० रुंधह)। रूंधो, बाड़ आदि से घेरकर सुरक्षित करो। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।' मा० २.१७.८ रुध्यो : भूक.पु०कए० (सं० रुद्धम् >प्रा. रुधिअं>अ० कंधियज)। रूंधा, बाड़ __ लगाकर घेरा । 'तुलसी दल रूंध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ।' विन० ८.४ रूख, खा : सं००+वि० (सं० रूक्ष = नीरस+वक्ष>प्रा० रुक्ख)। (१) वृक्ष । मा० १.२८७.५; ५.१७.७ (२) नीरस, शुष्क । 'रूख बदन करि ।' मा० १.१२८ रूखी : वि०स्त्री० (सं० रूक्षा>प्रा० रुक्खी) । निःस्नेह । 'उतरु न देइ दुसह रिस रूखी।' मा० २.५१.१ रूखु : रूख+कए । एक वृक्ष । 'काटिये न नाथ बिषहू को रूखु लाइ के।' कवि० ७.६१ रूखे : रूखा+ब० (प्रा० रुक्खय) । नीरस, उदासीन । 'बिषय रस रूखे ।' मा० २.५०.३ 'रूच रूचइ : रुचइ । 'सूर सकल रन रूचइ रारी।' मा० २.१६१.३ रूझे: आ०प्रए० (सं० रुध्यते>प्रा० रुज्झइ) । उलझता है, आसक्त होता है। 'निज अवगुन, गुन राम रावरे लखि सुनि मति मन रूझै ।' विन० २३८.२ रूठनि : सं०स्त्री० । रूठने की क्रिया, रुष्ट होने की रीति । गी० १.३०.३ रूठहिं : आ०प्रब० । रुष्ट होते हैं । रूठहिं काज बिगारि ।' दो० ४७६ ।। रूठा : भूकृ०० (सं० रुष्ट>प्रा० रुटु) । कुपित । 'अजहुं सो दैव मोहि पर रूठा।' __ मा० ६.६६.७ रूठि : पूकृ० । रुष्ट होकर । 'को अब रूठि चलैंगो माई ।' गी० २.५४.३ रूप : सं०पु० (सं.)। (१) दृश्यमान द्रव्यों का चाक्षुष प्रत्यक्षीय गुण (जो तेज तत्त्व का धर्म है)। 'जिमि बिन तेज न रूप गोसाई। मा० ७.६०.६ (२) आकार । 'धरि सीता कर रूप ।' मा० १.५२ (३) पदार्थ (शब्द बोध्य अर्थमात्र) । 'नाम रूप दुइ ईस उपाधी।' मा० १.२१.२ (४) स्वरूप, यथार्थ गुण-धर्म । 'गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु ।' मा० १.४८ क (५) सौन्दर्य । 'देखि रूप मुनि बिरति बिसारी।' मा० १.१३१.१ (६) अभिन्न, तदात्म । 'परम प्रकास For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 931 रूप ।' मा० ७.१२०.३ (७) (सं० रूप्य, रुक्म>प्रा० रुप्प) । सुवर्ण । 'खोयो सो अनूप रूप।' विन० ७४.२ रूपमय : वि०+सं०पु० (सं०) । रूप-प्रसार । परमरूपमय कच्छप सोई ।' मा० १.२४७.७ रूपा : रूप । 'अकथ अनामय नाम न रूपा।' मा० १.२२.२ रूपादि : रूप आदि पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय+तन्मात्र या सूक्ष्मभूत (जिनसे ___ महाभूत बनते हैं) रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द । विन० ५६.७ रूपिन् : वि०० (सं.)। मूर्त, तदकार, रूपधारी । 'रूपिणम् ।' मा० १ श्लो० ३ ___ 'रूपिणी ।' मा० २ श्लो० २ रूपी : रूपिन् । रूपधारी, तदात्म । 'रामरूपी रुद्र ।' विन० ११.८ रूपु : रूप+कए । एकमात्र वह रूप (सौन्दर्य) । 'श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी।' मा० १.१३०.४ रूरी : रूरी+ब० । गी० १.३१.४ रूरी : वि०स्त्री० (१) सं० रूपिणी>प्रा० रूइरी, (२) (सं० रुचिरा>प्रा० रुइरी) । सुन्दर, रुचिपूर्ण । 'कीरति सरित छहूं रिन रूरी।' मा० १.४२.१ रूरे : वि०पू०ब० (सं० रूपिन् >प्रा० रूइरय) । सुन्दर, मनोहर । 'मनि कोपर रूरे।' मा० १.३२४.५ रूरो : वि०पू०ए० (सं० रूपवान् >प्रा० रूइरो)। उत्तम, सुन्दर । 'पवन को पूत रजपूत रूरो।' हनु० ३ रेंगाई : भूकृ स्त्री० (सं० रिङ्गिता-रिगि गतौ>प्रा० रेंगाविआ)। चलाई, सिकलाई, धीमे-धीमे गति कराई। “अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ।' मा० ६.७६.१४ रेंगाए, ये : भकृ००ब० । धीरे चलाये । गी० १.३२.२ रेंड : सं०पु० (सं० एरण्ड) । रेंडी का वृक्ष । 'कामतरु बिहाइ के बबूर रेंड गोड़िए।' कवि० ७.२५ रे : अरे (सं०) । खेद, क्रोध, विस्मय, हर्ष, आह्वान आदि का सूचक सम्बोधनार्थक अव्यय । 'रे नृप बालक ।' मा० १.२७१ रेख, खा : सं०स्त्री० (सं० रेखा) । (१) लकीर, लीक । 'तिलक रेख सोभा जनु चांकी।' मा० १.२१६.८ (२) सामुद्रिक शास्त्र में विचारणीय अङ्गों की लकीर । 'परी हस्त असि रेख ।' मा० १.६७ (३) चिह्न। 'चरन रेख रज आँखिन्ह लाई ।' मा० २.१६६.२ (४) सत्यापन । 'रेख खेंचाइ कहउँ बलु भाषी।' मा० २.१६.७ (५) गणना । 'तिन्ह महें प्रथम रेख जग मोरी।' मा० १.१२.४ (६) दृढ़ निष्ठा । 'अबिचल हृदय भगति के रेखा।' मा० १.७६.४ रेखें : रेख+ब० । रेखाएँ । रेखें रुचिर कंबु कल गीवा ।' मा० १.२४३.८ For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 932 तुलसी शब्द-कोश रेत, ता : (१) सं०० (सं० रेत्र>प्रा० रेत्त) । चूर्ण, बालू । 'उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता।' मा० २.१०२.१ (प्राय: जल के पास सैकत भाग का अर्थ देता है ।) मा० ६.८७ छं० (२) (सं० रेतस् =रेत्र) वीर्य, शुक्र । जैसे, 'ऊर्ध्वरेता।" विन० २६.३ रेते : भूकृ००० (सं० रेत्रित>प्रा. रेत्तिय) । चूणित, चकनाचूर, दलित, चूर चूर, परिश्रान्त । 'पीसत दांत गये रिस रेते ।' विन० २४१.२ रेनु, नू : सं०स्त्री० (सं० रेणु)। (१) धूलि । मा० १.१४ च 'बिधि हरि हर बंदित पद रेनू) ।' मा० १.१४६.१ (२) चूर्ण (पाउडर) । “छिरकै सुगंध भरे मलयरेनु ।' गी० ७.२२.३ (३) पराग । 'बह सहित सुमन रस रेनु बृद।' गी०. २.४८.४ रेवती : संस्त्री० (सं.)। (सत्ताइस नक्षत्रों में) एक नक्षत्र । दो० ४५६ रेवा : सं०स्त्री० (सं.) । नर्मदा नदी । गी० २.८९.४ रेसू : रेस+कए० (सं० रेष:-रिष हिंसायाम् +घन >प्रा० रेसो>अ० रेसु)। रिस, क्रोध, रोष, डाह । 'कबहुं न कियहु सोतिआ रेसू ।' मा० २.४६.७ (संस्कृत में रिष-रुष दोनों धातु एकार्थक है अतः 'रोष' के समान 'रेष' भी कृदन्त संज्ञा बनेगा)। रअत : सं०स्त्री० (अरबी)। प्रजा, जनता । दो० ५२१ रैन : रैनि । नि, न : रजनि (प्रा० रयणि) । रात। मा० २.१५६.८ रोइ : पूकृ० (सं० रुदित्वा>प्रा० रोइअ>अ० रोइ)। रोकर । 'दीन्ह बाल जिमि रोइ।' मा० २.६४ रोइए : आ.भावा० । रोया जाय, रोना पड़े। कवि० ७.८३ रोइबो : भूकृ.पुं०कए० (सं० रोदितव्यम् >प्रा० रोइअव्वं>अ. रोइव्वउ). रोना । 'उचित न होइ रोइबो।' गी० २.८३.३ रोइहै : आ०मए । तू रोएगा । 'जनम जनम जुग जुग रोइहै ।' विन०६८.३ रोई : (१) रोइ। रोकर । 'निज संताप सुनाएसि रोई।' मा० १.१८४.८ (२) भूकृ०स्त्री० । 'चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।' मा० २.२७.५ रोकन : भकृ० अव्यय । रोकने, रोक । 'तासु पंथ को रोकन पारा।' मा० ६.५६.४ रोकहि : आ०प्रब० । रुद्ध करते-ती हैं। ‘मंगल जानि नयन जल रोकहिं ।' मा० ६.७.३ रोकहु : आ०मब० । रुद्ध कर दो । 'होहु सँजोइल रोकहु घाटा ।' मा० २.१६०.१ रोकि : पूक० । रुद्ध करके । 'जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।' मा० १.२७४.७ रोकिए : आ०कवा०प्रए । रोका जाए, निवारण किया जाय । 'सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए।' कवि० ५.१७ For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश रोकौं : आ०भ० उ० । रोकूंगा-गी, निवारण करूँगा-गी । 'रोकिहों नयन बिलोकत औरहि ।' विन० १०४.३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोकी : (१) भूक० स्त्री० । रुद्ध की । 'सकल भुवन सोभी जन रोकी ।' मा० १-२१३.८ (२) रोकि । 'सहउँ रिस रोकी ।' मा० १.२७३.५ `रोकेँ : रोकने से, रुद्ध करने से । 'उर अनुराग रहत नहि रोकें ।' मा० २.२१६.७ रोके : भूकृ०पु०ब० । रुद्ध किये, वर्जित किये। 'भए प्रबल रन रहहि न रोके । रोग: सं०पु० (सं० ) । व्याधि | मा० १.३२.३ I मा० ६.५२.८ रोक्यो : भूक०पु०कए० । रोक दिया, रुद्ध कर दिया । 'रोक्यो परलोल लोक भारी मुभानि के ।' कवि० ६.२६ 933 रोगवैया : सं० स्त्री० | विनोद, बालक्रीड़ा ( ? ) । ' खेलत खात परसपर डहकत छीनत कहत करत रोगदैया ।' कृ० १६ रोगनि : रोग + संब० । रोगों (ने) । ' घेरि लियो रोगनि ।' हनु० ३५ रोगा : रोग । मा० ७.१२१.२८ रोगों : रोगी ने । 'अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं ।' मा० १.३५०.६ रोगी : वि०पु० (सं० रोगिन् ) । व्याधिग्रस्त । मा० १.१३३.१ रोग, गू: रोग + कए० । 'भरत दरस मेटा भव रोगू ।' मा० २.२१७.२ रोचन : सं०पु० (सं० ) । गोरोचन । मा० ७.३.५ रोचना : रोचन (सं० ) । जा०मं० २०७ रोचनु : रोचन + कए० । 'दूब दधि रोचनु । ' कवि० १.१३ रोटिन : रोटी + संब० । रोटियों । 'कृसगात ललात जो रोटिन को ।' कवि० ७.४६ रोटिहा : सं०पु० + वि० । रोटी पर रहने वाला चाकर । 'रोटिहा रोवरो, बिनु मोलही बिकेहौं ।' गी० ५.३०.४ रोटी : सं० स्त्री० (सं० रोटिका ) । आटे का बना खाद्यविशेष | कवि० ७.६३ रोदति : वकृ० स्त्री० । रोती हुई । 'रोदति बदति संकर पहि गई ।' मा० १.८७ छं० For Private and Personal Use Only रोदन : सं०पु० (सं० ) । रोने की क्रिया । मा० १.१६२.४ रोर्पाहि : आ०प्र० (सं० रोपयन्ति > प्रा० रोप्पंति > अ० रोपहि) । स्थापित करते हैं । 'थूनि थिर रोर्पाहि ।' जा०मं० ८५ रोप : आ०म० । रोपो, लगाओ, थापो । मा० २.६.६ रोपा : भूकृ०पु० । (१) स्थिर जमाया । 'सभा माझ पन करि पद रोपा ।' मा० ६. ३४.८ ( २ ) स्थापित किया = समर्थित किया, सतर्क पतिपादित किया । पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा । मा० ७.११२.१२ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 934 तुलसी शब्द-कोश रोपि, पी : पू० । रोप कर, स्थापित कर । 'नाथ कहउँ पद रोपि ।' मा० ७.७१ 'भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी।' मा० २.२६६.७ रोपे : भूकृ००ब० । लगाये, स्थापित किये। 'रोपे बकुल कदंब तमाला ।' मा० १.३४४.७ रोप्यो : भूकृ.पु०कए० । रोपा, स्थिर जमाया। 'अति कोप सों रोप्यो है पाउ सभाँ।' कवि० ६.१५ रोम : सं०० (सं० रोमन्) । (१) रोया, अंगों में उगने वाले छोटे बाल । मा०. १.१६२.३ (२) ऊन । ‘रोम पाट पट अगनित जाती।' मा० २.६.३ रोमराजि, जी : सं० स्त्री० (सं.)। रोम-पङि क्त । गी० ७.१७.६ रोमांच : सं०० (सं.)। पुलक =रोंगटे खड़े होने की दशा । विन० २६.५ रोमावलि, लो : रोमराजी (सं.)। मा० १.१०४.२ रोयो : भूकृ००कए । रोया, रोदन किया। 'मैं जग जनमि जनमि दुख रोयो।" विन० २४५.१ रोर : सं०पु० (सं० रोरव)। कोलाहल, चिल्लाहट । 'कुलिस कठोर तनु जोर पर रोर रन ।' हनु० १० "रोव रोवइ, ई : आ०ए० (सं० रोदित>प्रा० रोवइ)। रोता-ती है । 'रोवइ बाल अधीर ।' मा० ७.७४ 'सीस धुनि धुनि रोवई ।' विन० १३६.३ रोवत : (१) वकृ.पु. । रोता-रोते। 'पालने झलावतह रोवत राम मेरो।' गी० १.१२.१ (२) रोते हुए । 'रोवत करहिं प्रताप बखाना।' मा० ६.१०४.४ रोवति : वकृ०स्त्री० । रोती। रा०प्र० ३.२.२ रोवनि : सं०स्त्री० । रोदन, रोने की क्रिया। गी० १.२१.१ रोवनिहारा : वि.पु । रोने वाला। ‘रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ।' मा०. ६.१०४.१० रोवहिं : आ०प्रब० (अ०) । रोते हैं, रोती हैं । 'रोवहिं रानी ।' मा० २.१३३.७ रोवा : रोवइ । रोया जाय (रोती हो)। 'जीवन नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ।' मा० ४.११.५ रोवाइ : पूकृ० (सं० रोदयित्वा>प्रा० रोवाविअ>अ० रोवावि)। रुलाकर । 'कबहुंक बाल रोवाइ पानि गहि मिस करि उठि उठि धावहिं ।' कृ० ४ रोष : सं०० (सं.)। क्रोध । मा० १.४.५ रोषा : रोष । मा० १.१२७.१ ।। रोषि : पूकृ० । क्रुद्ध होकर । 'रोषि बानु काढ्यो।' कवि० ६.२२ रोषिहैं : आ०भ०प्रब । क्रुद्ध होंगे। को कुंभकर्नु कीट जब राम रन रोषि हैं।" __ कवि० ६.२ रोषु, ष : रोष+कए । मा० १.४६.८; २८१.५ For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 935 रोष : क्रुद्ध होने से । 'काहे को कुसल रोषे राम बामदेवहू की।' कवि० ५.६ रोषे : भूकृ०० ब० । क्रुद्ध हुए । 'राजा राढ़ रोषे हैं।' गी० १.६५.१ रोष्यो : भूक ००कए । क्रुद्ध हुआ। रोष्यो रन रावनु ।' कवि० ६.३० रोस, सा : रोष (प्रा.)। कवि० ७.१७२; मा० ३.२६.३ रोसु, सू : रोष । मा० १.२८१ 'मुनि बिन काज करिअ कत रोसू !' मा० १.२७२.३ रोहिनि : सं०स्त्री० (सं० रोहिणी)। चन्द्र पत्नी नक्षत्रविशेष । 'जनु बुध बिधु बिय रोहिनि सोही ।' मा० २.१२३.४ रौंदि : पूकृ० । पैरों से कुचल (कर) । 'भारी भीर ठेलि पेलि रौंदि खोंदि डारहीं।' कवि० ५.१५ रौताई : (दे० राउत) सं०स्त्री० (सं० राजपुत्रता>प्रा० राउत्ताया)। रजपूती, वीरता । 'होइ कि खेम कुसल रीताई ।' मा०२.३५.६ रौरव : सं०० (सं.)। (१) अत्यन्त भयानक । (२) नरकविशेष। मा० ७.१०७.५ रौरिहि : (दे० रावरी) । आपकी ही। 'करहिं छोहु सब रोरिहि नाई।' मा० २.२.४ रोरें : (दे० रउरे) । आपके.. में । 'हित सबही कर रौरें हाथा।' मा० २.२६०.६ रोरेहि : (दे० रउरे)। आपको, आपके विषय में । 'जो सोचइ ससिकलहि सो सोचइ रोरेहि ।' पा०म० ५५ लंगर : लंगूर । 'दहँ दिसि लंगूर बिराज ।' मा० ६.१०१.८ लंगल : लंगर । कवि० ५.७ लंध्यो : लोध्यों । गी० ६.११.५ लंक : (१) लंका। मा० २.८१.४ (२) सं०स्त्री० (सं० लङका)। कटि भाग । ___'लंक मृगपति ठवनि ।' गी० ७.५.२ लंकपति : लंकापति । मा० ४.५०.५ लंका : लंका नगरी में । 'कहत राम जसु लंका आए।' मा० ५.५३.२ For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 936 तुलसी शब्द-कोश लंका : सं०स्त्री० (सं.)। (१) रावण की नगरी जिसमें पहले यक्षों का और उससे भी पूर्व प्राचीन राक्षसों का निवास था। मा० १.१७८.८ (२) एक राक्षसी = लंकिनी। 'पुनि संभारि उठी सो लंका ।' मा० ५.४.५ लंकापति : लङका का राजा । (१) रावण । मा० ७.७.७ (२) विभीषण । मा० ७.८.१ लंकिनी : सं०स्त्री० । लङका की एक राक्षसी । मा० ५.४.२ लंकेस : लंकापति (सं० लङ के श)। (१) रावण । मा० ३.२२.२ (२) विभीषण। मा० ५.४६.१ लंगर : वि०+सं०० (सं० लङ्ग =प्रेमा या जार)। लम्पट, व्यभिचारी। 'लोकरीति लायक न लंगर लबारु है।' कवि० ७.६७ लंगरि : लंगर+स्त्री० । कुलटा, दुष्टास्त्री। 'गनति कि ए लंगरि झगराऊ।' कृ० १२ लंगूर : सं०० (सं० लाङ्गल) । पूंछ । मा० ६.५८.५ लंघन : सं०+वि०० । (१) लांघना (२) लांघने वाला। 'जलधि लंघन सिंह सिंहिका मद मथन ।' विन० २५.४ लंधि : पू० । (अ.)। लांघ कर । कवि० ५.२८ लंघेउ : भूकृ.पु.कए । लांघ गया, कूद कर पार किया। 'तुलसी प्रभु लंघेउ __जलधि ।' रा०प्र० ५.१.७ लंपट : वि.पु. (सं०) । विषयभोग की तृष्णा वाला; भोगों में स्वेच्छाचारी। ___ मा० १.११५.२ लंबित : भूक ०वि० (सं.) । लटके हुए। 'सोभित स्रवन कनक कुंडल कल लंबित बिबि भुजमूले।' गी० ७.१२.५ लइ : लेइ । लेकर । 'प्रमुदित मन लइ चलेउ ले वाई ।' मा० २.१६६.८ । लई : भूक स्त्री०ब० । लीं। 'कुअरि लई हकारि के ।' मा० १.३२५ छं० २ लई : भूकृ०स्त्री० । ली। 'ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।' हनु० ३८ लएँ : लिएँ । लिए हुए । 'बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता।' मा० ४.२६.२ लए : भूक०० । लिये, प्राप्त किये, ग्रहण किये। 'सेवक जानिए बिनु गथ लए।' मा० १.३२६ छं० २ लकड़ी : सं०स्त्री० (सं० लकुटी>प्रा. लक्कुडी)। काष्ठ । दो० ५२६ लकुट : सं०० (सं०) । डंडा, लाठी। 'भूतल परे लकुट की नाई।' मा० २.२४०.२ लकुटी : सं०स्त्री० (सं०) । छड़ी, छोटा डंडा । कृ० १७ लक्ख : संख्या (सं० लक्ष>प्रा० लक्ख) । लाख । 'लक्ख में पक्खर, तिक्खन तेज ।' कवि० ६.३६ For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 937 लक्खन : सं०० (सं० लक्ष्मण>प्रा. लक्खण) । रामानुज । 'ते रन तिक्खन लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं।' कवि० ६.३३ लक्खनु : लक्खन+कए० । अकेले लक्ष्मण । 'जल को गये लक्खन हैं लरिका ।' कवि० २.१२ लक्ष्मण : सं०० (सं.)। सौमित्रि, रामानुज । मा० ३ श्लोक २ 'लख लखइ : आ०प्रए० (सं० लक्षयति>प्रा० लक्खइ)। लक्षित करता है, पहिचानता है (लक्षणों से जानता है)। 'बिप्र बेष गति लखइ न कोऊ ।' मा० १.१३४.२ लखत : वकृ०० । देखता (पहचानता) । कवि० ६.४१ लखन : (१) लक्खन । मा० १.२५३.१ (२) (लक्षण)-राजलखन सब अंग तुम्हारें। मा० २.११२.४ लखनहिं : लक्ष्मण के (में) । 'बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं।' मा० १.२७८.४ लखनहि : लक्ष्मण को । 'लखनहि भेटि प्रनाम करि ।' मा० २.३१८ लखनु : लखन+कए । केवल लक्ष्मण । 'लखनु कि रहिहहिं धाम ।' मा० २.४६ लखब : भूक०० (सं० लक्षयितव्य>प्रा. लक्खि अव्व) । लक्षित करना, जान समझ लेना (चाहिए, होगा)। 'लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ ।' मा० २.१६३.१ लखहिं : आ०प्रब० (सं० लक्षयन्ति>प्रा० लक्खंति>अ० लक्खहिं)। (१) लक्षित करते हैं, पहचानते हैं । 'लखहिं सुलच्छन लोग ।' मा० १.७ (२) ताकते हैं। 'जे पर दोष लखहिं सहसाखी ।' मा० १.४.४ लखहि : आ.मए० (सं० लक्षयसि>प्रा० लक्खसि>अ० लक्खहि) । तू देखता है, लक्ष्य करता है । 'तुलसी अलखहि का लखहि ।' दो० १६ लखहु : आ०मब० (सं० लक्षयथ>प्रा. लक्खह>अ० लक्खहु) । लक्षित करते-ती हो; जान पाते-ती हो । 'लखहु न भूप कपट चतुराई ।' मा० २.१४.६ लखा : भूक०० (सं० लक्षित>प्रा० लक्खिअ)। लक्षित किया, देखा-समझा। 'काहुं न लखा सो चरित बिसेखा।' मा० १.१३४.७ लखाइ : पू० । लक्षित करा, दिखा । 'किधौं कछु काहूं लखाइ दियो है ।' कवि० ७.१५७ लखाई : भूक स्त्री० । दिखाई, लक्षित कराई । 'लखी ओ लखाई ।' गी० ५.२५.३ लखाउ, ऊ : सं०पु०कए । लक्षण, पहचान । 'और एक तोहि कहउँ लखाऊ।' मा० १.१६६.३ लखाए : भूकृ०० ब ० । दिखाये, लक्षित कराये । 'लता ओट तब सखिन्ह लखाए ।' मा० १.२३२.३ लखि : (१) पूकृ० (सं० लक्षयित्वा>प्रा० ललिखअ>अ० लक्खि)। लक्षित कर; देखकर । 'प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ।' मा० १.२६१.४ सहसा लखि न For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 938 तुलसी शब्द-कोश सकहिं नर नारी।' मा० १.३११.६ (२) आ०-आज्ञा-मए० (सं० लक्षय> प्रा० लक्ख>अ० लक्खि) । तू देख । 'हम लखि, लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच ।' दो० १६ लखि प्रत : वक०कवा० । दिखाई देता देते । दो० ४६७ लखीं : भूक०स्त्री०ब० । लक्षित की, देखी-जानी । 'लखीं सीय सब प्रेम पिआसी। मा० २.११८.३ लखी : भूक०स्त्री०। (१) लक्षित की, चिन्हों से जानी। परबस सखिन्ह लखी जब सीता ।' मा० १.२३४.५ (२) समझी । 'मैं न लखी सौति ।' कवि० २.३ लखु : आo-आज्ञा-मए० =लखि। तू देख । ‘सैल सग भव भंग हेतु लखु । विन० २४.२ लखे : भूकृ००ब० (सं० लक्षित>प्रा० लक्खिय) । पहचाने, समझे, लक्ष्य किये । ___'सुर लखे राम सुजान ।' मा० १.३२१ छं० लखेउ, लख्यो : भूक.पु०कए० (सं० लक्षितम् >प्रा० लक्खिअं>अ० लक्खियउ)। लक्षित किया, जाना । 'लखन लखेउ रघुबंस मनि ।' मा० १.२५६ लखै : लखइ । 'करषत लख न कोइ।' दो० ५०८ लख्यो : लखेउ । 'जानकी नाह को नेहु लख्यो।' कवि० २.१२ 'लग, लगइ : आ०प्रए० (सं० लगति>प्रा० लग्गइ) । संपक्त होता है, संश्लिष्ट हो जाता है, आसक्त होता है। तुलसी जासों हित लगे। दो० ३१२ लगत : (१) वकृ० । लगता-ती-ते। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ।' मा० १.११.७ (२) लगते ही । 'मुनि तिय तरी लगत पग धूरी।' मा० १.३५७.३ लगति : वकृ०स्त्री० । लगती । 'सुनत मीठी लगति ।' गी० २.८२.१ लगन : (१) सं० स्त्री० (सं० लगन-पु.)। प्रेम, आसक्ति । “जो पं लगन राम सों नाहीं ।' विन० १७५.१ पाही खेती बट लगन ।' दो० ४७८ (२) (सं० लग्न) नक्षत्र राशि जो क्षितिज से लगी उदय ले रही हो, उस राशि की क्षितिज लग्न कला । 'जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।' मा० १.१६० (३) विवाहादि मुहूर्त (जो उक्त लग्न पर होते हैं) । 'राम तिलक हित लगन धराई ।' मा० २.१८.६ (४) विवाह महूर्त के लग्न की पत्रिका । 'लगन बाचि अज सबहि सुनाई ।' मा० १.६१.७ लगनि : सं० स्त्री० (सं० लगन-पु.)। लग्ने (संसक्त होने) की क्रिया । 'नहिं बिसरति वह लगनि कान की।' गी० ५.११.३ लगहिं : आ०प्रब० (सं० लगन्ति>प्रा. लग्गति>अ० लग्गहिं) । लगते हैं (प्रतीत होते हैं)। 'तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।' मा० १.२८६.७ लगाइ : पूकृ० । लगाकर (आरोपित कर) । 'बहु भांति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं।' मा० १.६७ छं. For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 939 लगाइन: आ०कवा०प्रए । लगाया (आरोपित किया) जाय। 'तो कत दोसू ___ लगाइअ काहू ।' मा० १.६७.७ लगाई : भूक०स्त्री०ब० । रोपी । 'सुमन बाटिका सबहिं लगाई। मा० ७.२८.१ लगाई : (१) लगाइ। 'कोसल्यां लिए हृदयें लगाई।' मा० २.१६७.१ (२) भूकृ०स्त्री० । रोपी। 'तुलसिका' 'मुनिन्ह लगाई ।' मा० ७.२६.६ । लगाऊ : वि०पू० । लगाने वाला । 'जस जस चलिअ दूरि तस तस निज बास, न भेंट लगाऊ रे ।' बिन० १८९.४ लगाए : भूक०० ब० । (१) संसक्त किये । 'साधु जानि हसि हृदय लगाए ।' कृ० ६ (२) रोपे । 'तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुं कहुं सिय कहुं लखन लगाए।' मा० २.२३७.७ लगामु : (फा० लगाम) क ए० । घोड़े की बाग । मा० १.३१६ छं० लगाय : लगाइ । 'ईंधन अनल लगाय कलप सत औदत नास न पावै ।' विन.. ११५.२ लगावत : वकृ०० । लगाता-ते, लिपटाता-ते । 'हृदयं लगावत बारहिं बारा।' मा० २.४४.५ लगावति : वकृ०स्त्री० । लगाती। (१) संसक्त करती। 'मनहुं जरे पर लोन लगावति ।' मा० २.१६१.१ (२) आरोपित करती। 'बिनु कारन हठि दोष लगावति ।' कृ० ५ लगावहिं : आ०प्रब० (सं० लगयन्ति>प्रा. लग्गावंति>अ. लग्गावहिं) । लगाते ती हैं । (१) आरोपित करते हैं । 'ते नृप रानि हि दोसु लगावहिं ।' मा० २.१२२.३ (२) संसक्त करते हैं। 'नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ।' मा० १.१८३.६ लगावा : भूक०० । लगाया। (१) लिपटाया । 'कंठ लगावा।' मा० ४.२०.६ (२) एकाग्र किया । इहाँ आइ बकध्यान लगावा ।' मा० ६.८५.७ लगाव : आ.प्रए० (सं० लगयति>प्रा० लग्गावइ)। लगाता है, आरोपित करता है । 'बेनु करिल श्रीखंड बसंतहि दूषन मषा लगावै ।' विन० ११४४ लगि : पूकृ०। (१) लगकर, संलग्न होकर । (२) लिए, तदर्थ । 'पर अकाज लगि तन परिहरहीं।' मा०१.४.७ (३) तक, पर्यन्त । 'तब लगि बैठ अहउँ बट छाहीं।' मा० १.५२.२ (४) संस्त्री० । लग्गी, लम्बा बांस आदि । 'नामलगि लाइ, लासा ललित बचन कहि, ब्याध ज्यों बिषय बिगनि बझावौं ।' विन० २०८.२ लगिहहु : आ०भ० मब० । लगोगे-गी, एकनिष्ठ होगे-होगी । 'जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे ।' मा० २.५०.५ For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 940 तुलसी शब्द-कोश लगी : भूकृस्त्री०व० । आरम्भ कर चलीं । 'लगीं देन गारों मृदु बानी।' मा० १.६६.८ लगी : भूकृ०स्त्री० । प्रतीत हुई । 'ससुरारि पिआरि लगी।' मा० ७.१०१.५ लगें : क्रि०वि० । तक, पर्यन्त । 'आज लगें अरु जब तें भयऊँ।' मा० १.१६७.४ लगे : (१) लगें। 'चीन्हो री सुभाय तेरो आजु लगे माई मैं न।' कृ० १५ (२) भूकृ०० । एकाग्र हुए। अस कहि लगे जपन हरि नामा ।' मा० १.५२.८ (३) जुड़ गये, संसक्त हुए । 'लगे संग लोचन ।' मा० १.२१६.२ (४) एक मात्र सहारे तक । 'गिरिज लगे हमार जिवनु सुख संपति ।' पा०म०१८ लगेइ : लगे ही, संलग्न ही । 'लगेइ रहत मेरे नैनन आगे।' गी० २.५३.२ लगे : लगइ ! आरोपित हो सके । 'बहोरि न खोरि लग सो कहौंगो।' कवि० ७.१४७ लग्यो : भूक००कए । लगा। 'सिय बियोग सागर नागर मन बूड़न लग्यो।' गी० ५.२१.२ लघु : वि० (सं०) । (१) छोटा । 'लघु देवर ।' मा० २.११७.५ (२) अल्प । ___ 'बिकल मीन गन जिमि लघु पानी ।' मा० १.३३४.२ (३) हलका । 'उपमा सकल मोहि लघु लागीं।' मा० १.२४७.२ (४) तुच्छ । 'बड़ो लाभ लघु हानी।' कृ० ४८ लघुता : सं०स्त्री० (सं०) । हल्कापन (क्षुद्रता), छोटाई । 'जद्यपि लघुता राम कहुं ___ तोहि बधे बड़ दोष ।' मा० ६.२३ लघुन्ह : लघु+संब० । छोटों। 'बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं।' मा० १.१६७.७ लघुबयस : वि० (सं० लघुवयस्) । अल्पवयस्क, तरुण (किशोर) । मा० २.११०.७ लधुमति : (१) अल्प बुद्धि । 'लघुमति मोरि ।' मा० १.८.५ (असमस्त)। (२) अल्प बुद्धि वाला, तुच्छ-बुद्धि । गी० ७.१०.५ लच्छ : (१) संख्या (सं० लक्ष) लक्ख । 'चारि लच्छ बर धेन मगाईं।' मा० १.३३१.२ (२) वि०पु० (सं० लक्ष्य) । निशाना । 'मनहुं महिप मृदु लच्छ समाना ।' मा० २.४१.२ लच्छन : सं०० (सं० लक्षण) । (१) चिह्न, सूचक । 'राम भगत कर लच्छन एहू ।' मा० १.१०४.६ (२) शुभ सूचक चिह्न । 'सब लच्छन सम्पन्न कुमारी।' मा० १.६७.३ लच्छा : लच्छ । लक्ष, लाख । मा० ६.६८.३ लच्छि : सं०स्त्री० (सं० लक्ष्मी>प्रा० लच्छी)। (१) विष्णु-पत्नी। 'एहि बिधि उपज लच्छि जब ।' मा० १.२४७ (२) धन, ऐश्वर्य । 'लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ।' मा० १.६.७ (३) महामाया=सीता । मा० १.२८९ लच्छिनिवासा : (सं० लक्ष्मीनिवास) विष्णु । मा० १.१३५.४ For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 941 तुलसी शब्द-कोश लछिमन : लखन । मा० १.१७.५ लछिमनु : लछिमन + कए० । मा० १.५५.५ 'लजा, लजाइ, ई : आ०प्र० (सं० लज्जते > प्रा० लज्जइ ) । लज्जित होता-ती है । 'सो सेवकु खि लाज लजाई ।' मा० २.२६९.५ ~ लजाइ : पूकृ० । लज्जित होकर । 'उठइ न, चलहि लजाइ ।' मा० १.२५० लजाएँ : क्रि०वि० । लज्जित किए हुए । 'ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ।' मा ०. १. २५४.८ लजाए : भूकृ०पु०ब० । लज्जित किये । 'निज संपति सुर रूख लजाए ।' मा० १.२२७.५ लजात : वकृ०पु० । लज्जित होता होते । दो० ४१३ लजातो : क्रियाति०पु०ए० । (यदि) लज्जित होता । 'जो पे चेरई राम की करतो,. न लजातो ।' विन० १५१.१ लजान : भूकु०पु० । लज्जित हुआ । 'बलउ लजान ।' जा०मं ६० लजानों : लजानी + ब० । लज्जित हुई । 'कलकंठि लजानीं ।' मा० १.२६७.३ लजानी : भूकृ० स्त्री० । लज्जित हुई । मा० १.२६६.६ जाने : भूकृ०पु ०ब० । लज्जित हुए। मा० ६.४२.६ लजायो : भूकृ०पु०कए० । लज्जित कर दिया । 'मारुत नंदन· खगराज को बेगु लजायो ।' कवि० ६.५४ लजारु, रू : सं०पु ं०+ स्त्री० (सं० लज्जालु) । एक पौधा जिसकी पत्तियां छूते ही सिमट जाती हैं = अलंबुषा । 'जनक बचन सुने बिरवा लजारू के से बीर रहे सकल सकुचि सिर नाइ के ।' गी० १.८४.६ जावन : वि०पुं० । लज्जित करने वाला । 'सोभा कोटि मनोज लजावन ।' मा० १.३२७.१ जावनिहारे : वि०पु०ब० । लजावन । मा० २.११७.१ लजावहि : आ०मए० । तू लज्जित कर । 'नर मुख सुन्दर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि ।' विन० २३७.२ जावहु : आ०म० । लज्जित करो । 'बिधि बस बलउ लजान, सुमति न लजावहु ।' जा०मं० ६० लजावें : आ०प्रब० । लज्जित करते हैं । 'कुलहि लजावें बाल ।' मा० १.६५.२ जाहि हीं : आ०प्र० । लज्जित होते हैं । 'जो बिलोकि बहु काम लजाहीं ।' मा०१.२३३.६ For Private and Personal Use Only लजाहि : आ०म० । तू लज्जित होता है । 'तू' लजाहि न मागत कूकर कोरहि ।" कवि ० ० ७.२६ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 942 तुलसी शब्द-कोश लज : आ०प्रए० (सं० लज्जते>प्रा० लज्जइ)। 'तदपि अधम बिचरत तेहिं मारग ___ कबहुं न मूढ़ लज।' विन० ८६.३ लटकन : सं० । आभूषणविशेष । 'लटकन ललित ललाट ।' गी० १.२२.७ लटके : आ० प्रब० । लम्बमान हैं। लटक रही हैं। 'घु घरारि लटें लटकै मुख ऊपर ।' कवि० १.५ लटत : वकृ०० (सं० लटत् - लट बाल्ये)। ललचा कर टूट पड़ता (बच्चों के समान लटपटाता) । 'गुजा लखि लटत ।' विन० १२९.४ (२) शिथिल होता होते । 'न लटत तन जर्जर भए।' मा० ६.४६ छं० लटपटेनि : भूक.पुंसंब० । लटपटों, स्खलितों, थके हुओं (की)। 'लटे लटपटेनि कौन पीर गहैगो।' विन ० २५६.३ लटि : पूक० । (१) बाल हट करके, बचकाना प्रयास कर । 'करहु राज रघुराज चरन तजि, ले लटि लोगु रहा है।' गी० २.६४.१ (२) थककर, शिथिल होकर । 'रहौं दरबार परो लटि लूलो।' हनु० ३६ लटी : भूक०स्त्री० । जर्जर हो गयी, थक गई । 'रटत रटत रसना लटी।' दो० २८० लटू : वि० । (लट =बालक के समान) मुग्ध । 'जा सुख की लालसा लटू सिब ।' गी० ८.५ लटूरी : संस्त्री०ब० । घुघराली-उलझी अलके । 'लटकन लसत ललाट लटूरी ।' गी० १.३१.४ लटे : भूकृपु०ब ० । जर्जर, शिथिल । 'लटे लटपटेनि कौन पीर हरंगो।' विन० २५६.३ लौ : संस्त्री० (लट) ब० । अलकें, केशपुञ्ज । 'घुघरारि लट लटकै मुख ऊपर।' ____ कवि० १.५ लट्यो : भूकृ.पु.कए । जर्जर हुआ, शिथिल पड़ गया। 'रटत रटत लट्यो।' विन० २६०.३ लड़ाइ : पूकृ० । लाड़ (दुलार) करके ; स्नेह-सम्मान करके। 'प्रमुदित महामुनिबद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ के।' मा० १.३२६ छं० १ लता : सं०स्त्री० (सं०) । वल्ली, बौंड़ । मा० १.३७.१३ लताभवन : लताओं का घना झुरमुट; लताओं का कृत्रिम मण्डप । मा० १.२३२ लपट : सं० स्त्री० । आसपास को लपेटने वाली वायवेग से फैलती हुई अग्निज्वाला। 'झपट लपट बहु कोटि कराला ।' मा० ५.२६.२ 'लपटा, लपटाइ, ई : आ०प्रए० । लपेटता है, आबद्ध एवम् आवृत करता है। 'जनम जनम अभ्यास निरत चित अधिक अधिक लपटाई।' विन० ८२.१ For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 943 लपटाइ, ई : (१) पूकृ० । लिपटाकर, लिपटकर । 'सबरी परी चरन लपटाई।' मा० ३.३४.८ (२) चभोर कर । 'भाजि चले किलकत, मुख दधि ओदन लपटाइ।' मा० १.२०३ ।। लपटानि, नी : भूकृ०स्त्री० । लिपट गयी। 'बहु बिधि बिलपि चरन लपटानी ।' मा० २.५७.६ लपटाने : भूकृपु० ब० । लिपटे हुए, आवृत, लिथरे हुए। 'मोह द्रोह ममता लपटाने ।' मा० ७.१००.१ लपटावहि : आ०प्रब० । लिपटाते हैं, चभोरते हैं। 'भांग धतूर अहार छार लपटावहिं।' पा०म० ५१ लपट : लपट+ब० ज्वालाएँ । 'लपट झपट सो तमीचर तौंकी ।' कवि० ७.१४३ ‘लपत : वकृ.पुं० (सं० लपत्) । बकवास करते । 'साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत ।' विन० १३०.४ लपेटत : वकृ० । आबद्ध+आवृत कर लेता। 'लंगूर लपेटत पटकि भट।' कवि० ६.४७ लपेटन : लपेट-+संब० । लपेटों (से), आवरणों (से), पाशबन्धनों (से) । 'कांट ___ कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे ।' विन० १८६.४ लपेटनि : लपेटन । लपेटों+लप्पड़ों (से)। 'बानर भालु चपेट लपेटनि मारत ।' गी० ६.४.३ लपेटि : पूकृ० । लपेटकर सब ओर से आबद्ध-आवृत कर। 'लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ।' मा० २.२३०.६ लपेटे : भूकृ.पु.ब ० । ओतप्रोत, चभोरे हुए, आवृत । 'प्रेम लपेटे अटपटे (बैन)।' मा० २.१०० लबार, रा : वि०० (सं० लप-कार>प्रा० लवार) । वाचाल, बकवादी, मिथ्या वादी । मा० ६.३४.६-७ लबार : लबार+कए । एक ही झूठा । 'लोकरीति लायक न लंगर लबारु है ।' कवि० ७.६७ लबेद : (१) सं०पु० (अरबी)। टटू की लादी। (२) वैदिक विधान के अतिरिक्त लोकिक व्यवहार-विधि । हनु० २८ लय : सं०० (सं.)। (१) तल्लीनता, ध्यानावस्था, समाधि । 'साधक नाम जपहिं लय लाएँ।' मा० १.२२.४ (२) लगाव, आसक्ति, राग। 'रबि कर जल लय लायो।' विन० १६६.१ (३) प्रलय, युगान्त । 'जग संभव पालन लय कारिणि ।' मा० १.६८.२ For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 944 तुलसी शब्द-कोश लय उ, ऊ : (१) भूक०पु०कए । लिया। ग्रहण किया। 'दमके उ दामिनि जिमि जब लयऊ ।' मा० १.२६१.६ (२) आरम्भ किया। 'आपन नाम कहन तब लयऊ।' मा० १.१६३.७ लयलीन, ना : (दे० लीन)। (१) ध्यानमग्न, समाधिलीन । मा० १.१३१ (२) अनुरक्त, आसक्त । 'बिषय लयलीना।' मा० २.१७२.३ लये : लए। लिये । गी० १.१११ लयो : लयउ । (१) लिया, ग्रहण किया। हरि अवतार लयो।' गी० १.४७.२ (२) पाया। 'लयो बयो बिनु जोतो।' विन० १६१.४ लरखरत : वकृ०० । लड़खड़ाता-ते । 'दिग्गयंद लरखरत ।' कवि० १.११ लरखरनि : सं०स्त्री० । लड़खड़ाने की क्रिया, गिरना-पड़ना । गी० १.२७.६ लरखरे : भूकृ००ब० । लड़खड़ाए, स्खलित हुए । 'भूधर लरखरे ।' जा०म०/० लरत : वकृ.पु. (सं० लडत्>प्रा० लडंत) । लड़ाई करता-ते । 'लरत निसाचर भालु कपि ।' मा०६.८० लरन : सं०० (सं० लडन)। लड़ना-झगड़ना। 'या की टेव लरन की; सकुच बेचि सी खाई।' कृ०८ लरनि : सं०स्त्री० । लड़ने की क्रिया, युद्ध-कोशल । 'देखो देखो लखन लरनि हनुमान की।' कवि० ६.४० लरहिं, ही : (१) आप्रब० । लड़ते हैं। 'जहें तहँ परहिं उठि लरहिं ।' मा० ३.२० छं० १ (२) आ० उब० । हम लड़ते हैं। 'लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ।' मा० १.२८४.२ 'एक बार कालहुँ सन लरहीं।' मा० ३.१६.१० लराई : लराई+ब० । लड़ाइयां । 'जहें तह परी अनेक लराई।' मा० १.१५४.६ लराई : संस्त्री०। लड़ाई, युद्ध । बिबिध भांति नित होइ लराई ।' मा० १.१७५.५ लरि : पूकृ० । लड़कर । रिपु दल लरि मर्यो ।' मा० ३.२० छं० ४ लरिकई : लरिकाई । बचपन । गी० १.८६.४ लरिकनी : लरिकिनीं। लड़कियाँ । मा० १.३५५.२ (पाठान्तर) लरिकन्ह : लरिका+संब० । लड़कों (ने) । ‘बात असि लरिकन्ह कही ।' मा० १.६५ छं० लरिकपन : (दे० पन)। बचपन । 'खेलत खात लरिकपन गो चलि ।' विन० २३४.२ लरिकवनि : लरिकवा (लरिका) संब० । लड़कों। 'कहँ सिव चाप, लरिकवनि बूझत ।' गी० १.६२.४ . लरिका : सं०० (सं० लटक) । लड़का, बालक । मा० १.२७७.३ For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 945 लरिकाइअ : लड़कपन ही । ‘जो बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ ।' पा०म० ४६ लरिकाइहि : लड़कपन ही, बचपन ही। मा० २.२७४.५ ।। लरिकाई : लड़कपन में, शिशुकाल में । 'बह धधहीं तोरी लरिकाईं।' मा० १.२७१.७ लरिकाई : (१) सं०स्त्री०। लड़कपन, शैशव, बचपन । मा० २.१०५ (२) बचकाना स्वभाव (अज्ञता)। कृ० १३ (३) बालसुलभ चञ्चलता (अशिष्टता) । 'कहबि न तात लखन लरिकाई।' मा० २.१५२.८ लरिकिनी : सं०स्त्री०ब० । लड़कियाँ। 'बधू लरिकिनी पर घर आईं ।' मा० १.३५५.८ लरिक : लड़का ही। 'अंत तो हौं लरिक ।' गी० १.७२.२ लरिको : लड़के भी, पुत्र भी। 'जा के जिये मुये सोच करिहैं न लरिको।' हनु० ४२ लरिबे : भकृ० पु. (सं० लडितव्य>प्रा० लडिअव्व) । लड़ने, युद्ध करने । 'जिन्ह __के लरिबे कर अभिमाना।' मा० १.१८२.२ लरिहै : आ०भ० प्रए । लड़ेगा। 'लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।' कवि० १.२० लरे : भूकृ००ब० । लडे, युद्धरत हुए । 'लोहे ललकारि लरे हैं।' गी० ६.१३.१ लर : आ०प्रए० (सं० लडति>प्रा० लडइ)। लड़ता है, युद्ध करता है । ‘मृगराज के साज लरे।' कवि० ६.३६ । लरौं : आउए० । लड़ता हूं। कलह करता हूं। 'निज पाप........ सुनत लरौं ।' विन० १४१.४ लर्यो : भूक ००कए । लड़ा, युद्ध किया । 'राम काज खगराज आज लर्यो ।' गी० ३ ८.३ ललक : सं०स्त्री० । लालसा, स्पृहा, लिप्सा=प्राप्त करने की तीव्र इच्छा । दो० ६७ ललकत : वकृ००। तीव्र लिप्सा से लपकते । 'ललकत लखि ज्यों कंगाल पातरी सुनाज की।' कवि० ६.३० ललकारि : पूकृ० । ललकार कर, चुनौती देकर, प्रतिद्वन्द्विता में आह्वान करके । 'लोहे ललकारि लरे हैं ।' गी० ६.१३.१ ललकि : पूकृ० (सं० लालक्य-लक रसने) । ललक कर, तीव्र लालसा से चञ्चल होकर । 'लगे ललकि लोचन ।' मा० १.२४८.८ ललचानी : भूक०स्त्री० । ललचायी, लुब्ध हुई। 'रसना 'त्यों न ललकि ललचानी ।' विन० १७०.३ ललचाने : भूक००० । ललच उठे, लुब्ध हुए। 'देखि रूप लोचन ललचाने ।' मा० १.२३२.४ For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 946 तुलसी शब्द-कोश ललचायो : भूक००कए । लालच में पड़ गया, लोभ में डाला गया । 'नाथ, हाथ कछु नहिं लग्यो, लालच ललचायो।' विन० २७६.४ ललन : लला। लाल, दुलारा-दुलारे, प्रिय पुत्र । 'छोड़ो मेरे ललित ललन लरिकाई ।' कृ० १३ ललना : (१) ललन । मातु दुलराइ कहि प्रिय ललना।' मा० १.१९८.८ (२) सं०स्त्री० (सं.)। सुन्दरी, स्त्री । मा० १.३२२ ‘ऐसी ललना सलोनी ।' गी० २.२१.१ लला : लाल (सं० लाल्यक>प्रा० लल्लअ) । प्रिय बेटा । 'बलि जाउँ लला इन बोलन की।' कवि० १.५ 'लला, ललाइ,ई: आ०प्रए० (सं० लालायते>प्रा० लालाइ) | लार टपकाता है, ललचाता है; तरसता है । 'ककर ट्रकन लागि ललाई ।' कवि० ७.५७ ।। ललाइ : पूकृ० । लल्ला कर, तरस कर । 'मरतो' 'लटि लालची ललाइ के ।' गी० ५.२८.८ ललाट : सं०० (सं०) । मस्तक । मा० १.१४७.४ ललात : वकृ.पु । तरसता-ते । 'पानी को ललात बिललात ।' कवि० ५.१६ ललाम, मा : सं+वि० (सं.)। (१) सुन्दर, उत्तम, ललित । 'परम सुदरी नारि ललामा ।' मा० १.१७८.२ (२) रत्न । 'मनहुं पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम ।' दो० ७ (३) आभूषण। 'चंद्रललाम' = चन्द्र-भूषण (शिव) । पा०म० छं०४ ललामु : ललाम+कए । अद्वितीय रत्न । 'राम नाम ललित ललामु कियो लाखनि को।' कवि० ७.६८ ललामो : ललामु । ‘गुंजनि जितो ललामो ।' विन० २२८.४ ललित : वि० (सं.)। विलासपूर्ण, मोहक, सुन्दर, कोमल । मा० १.४३.१ ललिताई : सं०स्त्री०। लालित्य, छविविलास, मनोहरता। 'इंदिरा अधिक ललिताई।' विन० ६२.१२ लल्लाट : ललाट । विन० ११.३ लव : सं०० (सं.)। (१) खण्ड, अंश, लेश । 'जो सुख लव सतसंग ।' मा० ५.४ (२) क्षण; पलक मारने के समय (पल) का छठा भाग । 'लव निमेष परमानु जुग।' मा० ६ दोहा १ (३) राम का छोटा पुत्र। 'लव कुस बेद पुरानन्हि गाए।' मा० ७.२५.६ लवन : सं०० (सं० लवण)। लोन, क्षार, नमक । मा० २.६३.६ लवनि, नी : सं०स्त्री० । अन्न के रूप में दी जाने वाली सस्य की कटाई की मजदूरी । 'रूपरासि बिरची बिरंचि मनो सिला लवनि रति काम लही री।' गी० १.१०६.४ For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश लवलेस, सा : (सं० लव-लेश खण्ड का खण्ड ) । क्षुद्र कण, अल्पतम अंश । मा० ५.२१ नहि तह मोह निसा लवलेसा ।' मा० १.११६.५ 947 लवलेसु, सू : लवलेस + कए० । मा० २.३०३.५ लवा: सं०पु० (सं० लवक > प्रा० लवअ ) लावा । बटेर पक्षी । 'बाज झपट जन लवालुकाने ।' मा० १.२६८.३ वाई : (१) पूकृ० । लिवा कर साथ लेकर । 'सादर चलीं लवाइ ।' मा० १.२४६ (२) लवाई | शीघ्र ब्याई हुई । 'हुंकरि हुँकार सुलवाइ धेनु जिमि धावहिं ।" पा०मं० १०३ वाई : (१) लवाइ । साथ लेकर । 'जा दिन तें मुनि गए लवाई।' मा० १.२६१.७ (२) भूकृ० स्त्री० । साथ ले जाई गयी । ( ३ ) शीघ्र ब्याई हुई | 'बाल बच्छ जनु धेनु लवाई ।' मा० १.३३७.८ (संस्कृत में 'लाविका' भैंस के अर्थ में है - उसी का रूपान्तर तथा अर्थान्तर जान पड़ता है) । ल : आ०प्र० (सं० लू छेदने) फसल काटता है, काट सकता है ( फल पाता है) । 'बवं सो लवं निदान ।' वैरा० ५ / लस, लसइ, ई : आ०प्र० (सं० लसति - लस कान्ती > प्रा० लसइ) । शोभित होता है, दीप्ति बिखेरता ती है । 'लस मसि बिंदु बदन बिधु नीको।' गी० १. २४.६ 'जनु मधु मदन मध्य रति लसई ।' मा० २.१२३.३ लसत: वकृ०पु० । दीप्त होता होते । 'लसत स्वेद कन जाल ।' मा० २.११५ लसति : वकृ० स्त्री० । प्रकट होती । 'मति लसति बिषयँ लपटानि ।' दो० २५३ लसद् : लसत (सं० ) । सुशोभित होता हुआ । मा० ७.१०८.३ सम: वि० अल्प, अकिंचन । 'लसम के खसम तुहीं पे दसरत्थ के ।' कवि० ७.२४ सहि: आ०प्र० (अ० ) । दमकते हैं । 'रद लसहि, दमक जनु दामिनि ।' 1 जा० मं० ७२ लसी : भूकृ० स्त्री० । शोभित हुई, चमकी । 'मानों प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी ।' कवि० ६.५४ लसे : भूकृ०पु०ब० (सं० लसित > प्रा० लसिय) । शोभित हुए । 'पिसाच पसुपति संग लसे ।' पा०मं० छं० १२ लसें : लसहि । 'द्वे द्वे दंतुरियां लसें ।' गी० १.३३.४ लर्स : लसइ । कवि० ७.१३८ लस्यो : भूकृ०पु०कए० । दीप्त हो उठा, चमक चला । 'सरीरु लस्यो तजि नीरु ज्यों कोई ।' कवि० २.२ For Private and Personal Use Only 'लह, लहइ, ई : आ०प्र० (सं० लभते > प्रा० लहइ) । (१) पाता है, पा सकता है । तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ।' मा० ६.३५.६ सुभ गति लहइ ।' मा० ३.५ ‘अकलं'कता कि कामी लहई ।' मा० १.२६७.३ (२) संगत होता है, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 948 तुलसी शब्द-कोश शोभा पाता है, उचित होता है। 'सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई ।' मा० २.६.८ 'भलो भलाइहि पं लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।' मा० १.५ लहउँ, ऊँ : आ० उए० (सं० रू.भे>प्रा० लहमि>अ० लहउँ) । पाऊँ, पा सकता हूं, पाता हूं। 'बाढ़ इ कथा पार नहिं लहऊँ ।' मा० १.१२.३ लहकी : भूकृ०स्त्री० । लहक उठी, वायु में दमदमा उठी, लपलपा उठी। 'लहकी कपि लंक जथा खर-खोकी ।' कवि० ७.१४३ लह कौरि : सं०स्त्री० (सं० लघुकवल) । विवाह संस्कार के तुरन्त बाद कोहबर में वर वधू को परस्पर ग्रास देने की प्रथा । मा० १.३२७ छं० २ लहत : वकृ.पु । पाता-पाते। मा० १.५.७ लहति : वकृ०स्त्री० । पाती । 'उपमा कहुं न लहति मति मोरी।' मा० १.१०५.२ लहते : क्रियाति ०० ब० । यदि तो.. पाते । 'जो पै हरि जन के औगुन गहते... तो.. सपनेहुं सुगति न लहते ।' विन ० ६७.१-५ लहतो : क्रियाति ००ए० । पाता । 'चाहतो जो जोई जोई लहतो सो सोई सोई ।" विन० २४६.२ लहब : भकृ०० (सं० लब्धव्य>प्रा० लहि अव्व) । पाना (होगा)। 'सो फल सुरत लहब सब काहूँ।' मा० १.६४.२ लहरि : सं०स्त्री० (सं० ) । (१) तरङ्ग । (२) सर्प-विष चढ़ने पर होने वाली कायिक कम्प तथा अकड़न के साथ झूमने की क्रिया । 'संसय सर्प ग्रसेउ मोहि भ्राता । दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ।' मा० ७.६३.६ लहलहात : वकृ०० । लहकते, लहराते । 'लहलहात जनु ब्याल ।' मा० ६.६१ लहलहे : भूकृ.पु । लहराते हुए, चपल-प्रसन्न । 'लहलहे लोयन सनेह सरसई ।' ___ गी० १.६६.२ लहसुन : सं०० (सं० लशुन) । दो० ३५५ लहहि, ही : आ०प्रब० । (१) पाते हैं । 'उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।' मा० १.११.३ (२) पायें, पा सकें । 'लहहिं लोग सब लोचन लाडू ।' मा० २ ४.३ ।। लहहं : आ०-आशंसा, कामना-प्रब० । प्राप्त करें। 'लोग 'लहहं बिश्राम ।" मा० २.२४८ लहा : भूकृ०० (सं० लब्ध>प्रा० लहिअ)। पाया । संत कहत जे अंत लहा है।" कवि० ७.३९ लहि : (१) पू० । प्राप्त कर । 'मुदित भए लहि लोचन लाहू ।' मा० २.१०८.७. (२) लही । प्राप्त की । 'लहि जन रंकन्ह सुरमनि ढेरी ।' मा० २.११४.५ (३) लगि । पर्यन्त, तक । 'उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ।' मा० १.२७०.४ For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 949 लहिअ : आ०कवा०प्रए० (सं० लभ्यते>प्रा० लहीअइ) । पाया जाता है, पाया जा सकता है । 'बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा ।' मा० २.१६.५ लहिबे : भक०० । पाने (योग्य), प्राप्य । गति परमिति लहिवे ही ।' क० ४० 'लहिबो : भक००कए० (सं० लब्धव्यम् >प्रा. लहिअव्वं>अ० लहिव्वउ) । पाना (होगा)। 'परम मुद मंगल लहिबो ।' गी० ५.१४.३ लहियतु : वक-कवा०-पु०कए० (सं० लभ्य मानम् >प्रा० लहीअंतं>अ० लहीअंत) । प्राप्त होता । 'राजपूतु पाए हूँ न सुखु लहियतु है ।' कवि० २.४ लहिहैं : आ०भ० उब० । हम प्राप्त करेंगे-गी। 'फलु जीवन आपन तो लहिहैं ।' ___कवि० २.२३ लहिहौं : आ०भ० उए । पाऊँगा-गी। 'हौं लहिहौं सखु राजमातु ह्वे ।' गी० २.६०.३ लहीं : लही+ब० । प्राप्त की। 'ते परितोष उमा रमा लहीं ।' गी० १.५.६ लही : भूक०स्त्री० । प्राप्त की। 'सब सन लही असीस ।' मा० १.३२० लहु : लघु (प्रा.) । अल्प । 'बड़ी आस लहु लाहु ।' रा०प्र० ७.५.१ लहे : भूकृ०० ब० । प्राप्त किये । तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ।' मा० ७.६ छ० लहेउँ : आ०-भूकृ० पु+उए० । मैंने पाया । 'लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ।' __मा० १.३३१.४ लहेउ, ऊ : भूकृ००कए । पाया। मा० १.४६.८ 'राजां मुदित महासुख लहेऊ ।' मा० १.२४४.८ लहैं : लहहिं । पायें, पाते हैं । 'फलु सब लहैं।' मा० १.३२७ छं०२ लहै : लहइ । (१) पाता है । 'बास नासिका बिन लहै ।' वैरा० ३ (२) पा जाय, प्राप्त करे । 'सुरतरु लहै जनम कर भूखा।' मा० १.३३५.५ लहैगो : आ० भ००प्रए० । पायेगा । 'आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो।' विन० २५६.३ लहो : ल ह्यो । 'नाहिन काहू लहो सुख ।' क० ५४ लहौं : लहउँ । पाता हूं, पाऊँ । 'कहुं न कृपानिधि सो लहौं।' विन २२२.१ लहौंगो : आ० भ०० उए । पाऊंगा । 'परसें पद पापु लहौंगो।' कवि० ७.१४७ लह्यो : लहेउ । पारु कवि कोनें लह्यो।' मा० १.३६१ छं० • लांघत : वकृ०० (सं० लङ्घयत् >प्रा० लंघत)। कूदकर पार जाता-जाते । _ 'कोउ लाँघत कोउ उतरत थाहैं।' गी० ७.१३.१ लांघि : लंघि । 'लाँघि गए हनुमान ।' दो० ५२८ लाध्यो : लंघेउ। गी० ५.१६.२ लांबी : वि.स्त्री० । लम्बी, दीर्घ । 'लांबी लूम लसत ।' कवि० ६.४० For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 950 तुलसी शब्दकोशः लांछन : सं०पु० (सं.)। चिह्न। 'भ्राज श्रीवत्प लांछन उदारं ।' विन० ६१.५ लाइ : (१) पूकृ० । लगाकर । लिपटा कर । 'बहुरि लाइ,उर लीन्ह कुमारी ।' मा० १.१०२.४ (२) लेकर । 'कहीं कौन मुह लाइ के ।' विन० १४८.१ लाइन : आ०कवा०प्रए । लगाइए । 'बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।' मा० २.५.७ लाइन्हि : आ०- भूकृ+प्रब० । उन्होंने लगाये । 'हाट पटोरन्हि छाइ सफल तरु लाइन्हि ।' पा०म० ८७ लाइयत : वकृ०कवा०पू० । लगाया जाता । 'बबुर बहेरे को बनाइ बागु लाइयत । कवि० ७.६६ लाइयो : लायउ। लगाया, लिपटाया। 'भरत ज्यों उर लइयो।' मा०. ६ १२१ छं० २ लाइहैं : आ ०भ०प्रब० । लगा देंगे । 'हाथ लंका लाइहैं तो रहैगी हथेरी सी।' कवि.. ६.१० लाइहौं : आ०भ० उए । लगाऊंगा । 'कृपानिकेत पद मन लाइहौं ।' मा० ३.२६ छं.. लाईं : लाई+ब० । लगायीं, लिपटायीं। 'रानिन्ह बार-बार उर लाई।' मा.. १.३३४.७ माई : (१) भूकृ०स्त्री० । लगा दी। 'मानहुं मघा मेघ झरि लाई ।' मा० ६.७३.३. (२) जला दी। 'ख्याल लंका लाई कपि रोड़ की सी झोपरी।' कवि० ६.२७, (३) लाइ। लगाकर । 'सुनिहहिं बाल बचन मन लाई।' मा० १.८.८ (४) आधार मान कर । 'राखेउँ प्रान जानकिहि लाई ।' मा० २.५६.२. (५) लेकर । 'देहउँ उतरु कौन महु लाई ।' मा० २.१४६.७ ।। लाउब : भकृ०० । लाना (होगा) (लाएँगे) । 'तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।" मा० १.५.१ लाएँ : (१) क्रि०वि० । लगाकर । 'साधक नाम जपहिं लय लाएँ।' मा० १.२२.४. (२) ओर । 'लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ।' मा० २.१२३.६ लाए : भूकृ००ब० । लगाये । 'मुनिबर उर लाए।' मा० १.३०८.५ लाकरी : लकड़ी । 'पावक परत निषिद्ध लाकरी होति अनल जग जानी।' कृ० ४८ः लाख : लक्ख । 'आकर चारि, लाख चौरासी।' मा० १.८.१ लाखन : लाख+संब० । लाखों। 'ते रन तिक्खन लवखन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं ।' कवि० ६.३३ लाख नि : लाखन । कवि० ७.६८ लाग : (१) लागइ । लगता है, प्रतीत होता है । निज कबित्त के हि लाग न नीका।" मा० १.८.११ (२) भूकृ० पु० (सं० लग्न >प्रा० लग्ग) । लगा, संसक्त हुआ, For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 951 प्रभाव डाल सका । 'लाग न उर उपदेसु ।' मा० १.५१ (३) सं०० (सं०) । सहारा। लाग, लागइ, ई : लगइ। (१) संलग्न होता है। 'फलु..'बबूरहिं लागई।' मा० १.६६ छं० (२) प्रतीत होता-ती है । 'लागइ लघु बिरंचि निपुनाई।' मा० १.६४.८ (३) आहत करता है, विकार उत्पन्न करता है । 'लागइ अति पहार कर पानी।' मा० २.३३.२ (४) संचित होता है । 'कहत न लागइ ढेर।' दो० ४३७ लागउँ : आ०उए । लगता हूं (मस्तक से स्पर्श करता हूं)। 'बार बार पद लागउँ।' मा० ५.३६ लागत : लगत । (१) प्रतीत होता-होते । 'प्रानहुँ ते प्रिय लागत ।' मा० १.२०४ (२) संसक्त होते । 'चिक्करत लागत बान ।' मा० ३.२०.१० लागति : लगति । लगती, प्रतीति होती। 'लागति अवध भयावनि भारी।' मा० २.८३." लागते : क्रियाति००ब० । यदि लगते, प्रतीत होते । 'जो मोहि राम लागते मीठे।' विन० १६६.१ लाहिं : लगहिं । लगते हैं । (१) संपृक्त होते हैं । 'लाहिं सैल वज्र तन तासू ।' __ मा० ६.८२.३ छं० (२) प्रतीत होते हैं । 'सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ।' मा० १.२४२.२ लागहु : आ०मब० । लगो। (१) स्पर्श करो। 'मुनि पद लागहु सकल सिखाए।' मा० ७.८.५ (२) प्रतीत होओ। 'प्रिय लागहु मोहि राम ।' मा० ७.१३० लागा : भूकृ.पु । लगा। (१) संसक्त हुआ। “बिसरी देह तपहिं मनु लागा।' मा० १.७४.३ (२) आरम्भ किया। 'पुनि रघुपति से जूझै लागा।' मा० ६.७३.१० लागि : (१) भूकृस्त्री० । लगी। (१) एकाग्र हुई। 'लागि समाधि ।' मा० १.५८.८ (२) संपृक्त हुई । 'लागि लागि आगि ।' कवि० ५ (३) लागे। लगे हुए । 'लागि देखि सुदर फल रूखा।' मा० ५.१७.७ (४) पूकृ०प्रयोजनार्थक । लिए, हेतु । 'तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।' मा० २.४६.८ (५) आ० – आज्ञा-मए० । तू लग, उलझ । 'बार बार कह्यो पिय कपि सों न लागि रे ।' कवि० ५.६ लागिन : आ०कवा०प्र० । लगा जाय, घेर कर स्थित हुआ जाय, घेरा डाला जाय। 'लंका बांके चारि दुआरा । केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा।' मा० ६३६.२ लागिहि : आ०भ०प्रए० (सं० लगिष्यति>प्रा० लग्गिहिइ)। लगेगा-गी। (१) प्रतीत होगा-होगी। 'तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ।' मा० १.६.५ (२) सफल होगी । 'इहाँ न लागिहि राउरि माया।' मा० २.३३.५ (३) प्राप्त For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 952 तुलसी शब्द-कोश होगा । 'नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे ।' मा० २.५०.५ (४) होगा-होगी। 'दिवस जात नहिं लागिहि बारा ।' मा० २.६२.२ (५) छुएगा-गी। 'लागिहि तात बयारि न मोही ।' मा० २.६७.६ लागिहै : लागिहि । लगेगा-गी। (१) संपृक्त होगी । तिन्ह के मुहँ मसि लागिहै ।' दो० ३८६ (२) अनुरक्त (तल्लीन) होगा। 'रघुबरहि कबहुं मन लागिहै ।' विन० २२४.१ (३) उलझेगा । 'चित्रहू के कपि सो निसाचरु न लागिहै।' कवि० ५.१४ (४) मए । तू लगेगा, सहमत होगा। ‘भलो भली भांति है जो मेरे कहे लागि है ।' विन० ७०.१ लागिहौ : आ०भ०मब० । लगोगे (प्रतीत होओगे) । 'राम कबहुँ प्रिय लागिहो ।' विन० २६६.१ लागी : लगीं। (१) आरम्भ कर चलीं। 'जाइ बिपिन लागी तप करना ।' मा० १.७४.१ (२) प्रतीत हुईं, जान पड़ीं । 'उपमा सकल मोहि लघु लागीं।' मा० १.२४७.२ (३) संपृक्त हुईं। 'जुबती भवन झरोखन्हि लागीं।' मा० १.२२०.४ लागी : (१) लगी । संपृक्त हुई । 'काई विषय मुकुर मन लागी।' मा० १.११५.१ 'चरनन्हि लागी ।' मा० १.२११ छं० १ (२) प्रतीत हुई । 'दूत बचन रचना प्रिय लागी।' मा० १.२६३.६ (३) आरम्भ हुई। 'लागी जुरन बरात ।' मा० १.२६६ (४) तल्लीन । 'मातु काज लागी।' कृ० १० (५) लागि । लिये, हेतु । 'मनहुं रंक निधि लूटन लागी।' मा० १.२२०.२ लागु : (१) लाग+कए । लगा। जेहिं अनुराग लागु चित।' पा०म० ३३ (२) आ० - आज्ञा-मए । तू संलग्न हो। 'तो यहि मारग लागु।' विन० २०३.१७ लागू : लाग+कए । सहारा । सोहत दिएँ निषादहि लागू ।' मा० २.१९७.२ लागें : लगें । लगने से । 'कस न मरौं रघुपति सर लागें ।' मा० ३.२६.६ लागे: लगे। (१) लगे (आरम्भ किया)। 'राम नाम सिव सुमिरन लागे ।' मा० १.६०.३ (२) प्रतीत हुए । 'दंपति बचन परम प्रिय लागे।' मा० १.१४६.७ (३) आबद्ध, संपृक्त, संलग्न । 'रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मड ।' मा० १.२०१ (४) चुभ गये। 'बिषम बिसिख उर लागे।' मा० १.८७.३ (५) स्थित थे। 'लागे बिटप मनोहर नाना ।' मा० १.२२७.४ (६) लागें । लगने से । 'दीन मलीन छीन तनु डोलत मीन मजा सों लागे।' कृ० ३५ लागेउँ : आ० --- भूकृ•पु+उए । मैं लगा, आरम्भ किया । 'म न अनुमान करन तब लागेउँ ।' मा० ७.८४.३ For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्तुलसी शब्द-कोश 953 लागेउ : भूक००कए । लगा। (१) व्याप्त हुआ। 'लागेउ तोहि पिसांच जिमि ।' मा० २.३५ (२) आरम्भ किया। 'लागेउ बष्टि करै बहु बाना ।' मा० ६.७३.२ लागेसि : आ०-भूक ००+मए ० । तू लगा, तूने उपक्रम किया। 'लागेसि अधम सिखावन मोही।' मा० ५.२४.३ लाग : लागइ। (१) लगता है, प्रतीत होता है। 'समुझि महाभय लागे ।' विन० ११६.३ (२) लगे, प्रतीत हो । 'जौं पांचहि मत लागे नीका। मा० २.५.३ लागेगी : आ० भ०स्त्री०प्रए । लगेगी=प्रतीत होगी। 'लागैगी पै लाज ।' कवि० ७.१७७ लागो : लाग्यो । उग आया। पिपीलिकनि पंख लागो।' गी० ५.२४.३ लागौं : लागउँ । 'पा लागौं ।' कृ० ३५ लाग्यो, गो : लागेउ । अनुरक्त हुआ। ‘यों मन कबहूं तुमहिं न लाग्यो ।' विन० १७०.१ लाघवं : लाघव से, हस्तकौशल से। 'अति लाघवं उठाइ धनु लीन्हा।' मा० १.२६१.५ लाघव : सं०० (सं०) । लघुता-हल्कापन+शीघ्रता। कोशल । लाघौ : लाघव । 'धावत दिखावत हैं लाघो राघौ बान के ।' कवि० ६.४८ लाज : सं०स्त्री० (सं० लज्जा)। (१) ब्रीडा। मा० १.२५६.१ (२) संकोच । 'सो धौं को जो नाम लाज तें नहिं राख्यो रघुबीर ।' विन ० १४४.१ लाजत : (१) वकृ.पु. (सं० लज्जमान>प्रा० लज्जत) । लज्जित होता-होते । (२) (सं० लज्जयत् >प्रा. लज्जंत) । लज्जित करता-करते । 'आछे मुनि बेष धरें लाजत अनंग हैं ।' कवि० २.१५ लाजवंत : वि०पु० (सं० लज्जावत्>प्रा. लज्जवंत)। लज्जालु, संकोची। ___'लाजवंत तव सहज सुभाऊ ।' मा० ६.२६.६ लाहिं, ही : आ०प्रब० (सं० लज्जन्ते>प्रा० लज्जति>अ० लज्जहिं)। लजाते. ती हैं । मा० १.१४६; १.३२२ छं० लाजा : (१) लाज । 'कहत सों मोहि लागत भय लाजा।' मा० १.४५.८ (२) सं०० (सं० लाज) । लावा, खील । 'अच्छत अंकुर लोचन लाजा।' मा० १.३४६.५ लाजे : (१) भूक०० । लज्जित हुए। जिन्हहि देखि दिसि कुंजर लाजे ।' मा. १.३३३.७ (२) आ.प्रए० (सं० लज्जेत) । लज्जित हो जाय । गति बिलोकि खग नायकु लाजे ।' मा०.१.३१६.७ लाजै : लाजहिं । लजाते हैं । 'छबि बिलोकि लाज अमित अनंग ।' गी० ३.४.३ For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 954 तुलसी शब्द-कोश लाजे : आ.प्रए० (सं० लज्जते>प्रा० लज्जइ)। लजाता-ती है। 'कच निरखि मधुप अवली लाज ।' विन० ६३.७ लाटी : सं०स्त्री० (सं० लाट=जीर्ण वस्त्रखण्ड)। पपड़ी, भासी (लार सूखने से पड़ी हुई मलीन वस्त्राकार) छाल । 'सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी ।' मा० २.१४५.४ लाडिले : वि०० (सं० लाडवत् >प्रा० लाडिल्ल) । दुलारे । 'सोइये लाल लाहिले रघुराई ।' गी० १.१६.१ लाडू : सं०० (सं० लड्डुक>प्रा० लड्डुअ) । लड्डू, मोदक । 'ठग के से लाडू खाए प्रेम मद छाके हैं ।' गी० १.६४.२ लात : सं०स्त्री० (सं० लत्ता) । पादप्रहार । 'हुमगि लात तकि कूबर मारा।' मा० २.१६३.४ लातन्ह, न्हि : लात+संब० । लातों। 'म ठिकन्ह लातन्ह दाँतन्ह काटहिं ।' मा० ६.५३.५, ६.७६.३ लाता : लात । मा० ६.४३.७ लाधे : लहे (सं० लब्ध>प्रा० लद्ध) । पाये। 'काहुं न इन्ह समान फल लाधे ।' मा० १.३१०.२ लाभ : सं०० (सं०) । प्राप्ति । (१) (हानि का विलोम) सिद्धि, पूर्ति । 'परहित हानि लाभ जिन्ह केरें।' मा० १.४.२ (२) मूलधन आदि पर मिलने वाला ब्याज आदि; धन आदि की प्राप्ति । 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।' मा.. ६.१०२.२ (३) आवश्यक वस्तु की प्राप्ति । 'जथा लाभ संतोष सदाई ।' मा० ७.४६.२ (४) उन्नति, ऋद्धि । 'कहा, लाभ आगे सुत तोही ।' मा० ७.४८.७. " (५) जागतिक आमोद-प्रमोद । 'लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा ।' मा० ६.२६.८ (६) उपलब्धि, साध्य की सिद्धि, फल प्राप्ति । 'इहइ लाभ संकर जाना।' मा० १.२११ छं० ३ लाभु : लाभ+कए । अद्वितीय लाभ । 'काहि यहु लाभु न भावा ।' मा० १.२५२.१ लामी : लांबी। लम्बी । 'तुलसी की बांह पर लामी लूम फेरिये ।' हनु० ३४ लाय : लाइ । लगाकर । गी० १.१४.२ लायउ : भूकृ०पु०कए । लगाया, संश्लिष्ट किया। 'राम उठाइ अनुज उर लायउ।' मा० ६.६१.२ लायक : वि० (फा० लायक)+ (सं० लायक =लाने वाला, प्राप्त करने वाला)। योग्य, सुपात्र । मा० १.१८.६ लाये : लाएँ। (१) सहारा देकर । सिख वति चलन अंगुरियाँ लाये ।' गी० १.३२.११ (२) लगाने से। मिलहिं न राम कपट लो लाये ।' विन० १२६.५ For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 955 लायो : लायक । (१) लगाया। 'दसरथ भेद भगति मन लायो।' मा० ६.११२.६ (२) रोपा, स्थापित । 'लायो तरु तुलसी तिहारो।' हनु० ३७ (३) ले आया। 'जानत अनजानत हरि लायो ।' गी० ६.२.३ लाल, ला : (१) सं०० (सं० लाल्य>प्रा० लल्ल)। दुलारा बालक । 'नंदलाल बिन जीज।' कृ० ४५ (२) वि० । अरुण । 'लाल कमल ।' जा०म०६४ लालच : सं० । ललक, लोभ, लिप्सा, लालसा, तृष्णा । कवि० ७.१०६ लालचिन : लालची+संब० । लालचियों, लोभियों (को) ! 'रतिन के लालचिन प्रापति मनक की ' कवि० ७.२० लालची : वि०० (सं० लालसित) । लालसायुक्त, लोभी । मा० १.४८ ख लालचु : लालच+कए । एकमात्र लालसा । 'पितु दरसन लालच मन माहीं ।' मा० १.३०७.५ लालत : वकृ०० (सं० लाल यत्>प्रा० लालंत) । दुलराता-ते; प्यार से सहलाता ते । 'लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि ।' जा० मं० ६४ लालति : वकृ०स्त्री० । दुलराती । गी० १.१०.२ लालन : (१) ललन । 'पौढ़िए लालन पालने हौं झुलावौं ।' गी० १.१८.१ (२) सं०पू० (सं०) । सार-संभाल, दुलार, लाड़। 'लालन जोगु लखन ।' मा० २.२००.१ लालसा : लालसा में, से । 'एहिं लालसा मगन सब लोगू ।' मा० १.२४६.६ लालसा : सं०स्त्री० (सं.)। लिप्सा, तीव्र इच्छा, स्पृहा । मा० १.१०४.२ लालहिं, हीं : आ.प्रब० (सं० लालयन्ति>प्रा० लालंति>अ० लालहिं)। दुलारते हैं । 'पितु मातु प्रिय परिवार हरहिं निरखि पालहिं लाल हीं।' पा०म०ई० १ लालहु : आ०मब० (अ.) । लाल न करो, दुलारो। 'सुत ललाम लाल हु ललित ।' रा०प्र० ४.४.३ लाला : लाल । अरुणवर्ण । 'नील सघन पल्लव, फल लाला।' मा० २.२३७.४ लालि : पूकृ० (सं० लालयित्वा>प्रा० लालियअ० लालि)। दुलार करके। सारसँभाल करके । 'कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देइ ।' कवि० ७.११६ लालित : भूक०वि० (सं.)। दुलार किया हुआ-किये हुए। मा० ७ श्लोक २ ___ 'लच्छि-लालित ललित करतल ।' विन० २१८.२ लाली : भूक०स्त्री० । दुलरायी, सार-संभाल के साथ पाली। 'कलपबेलि जिमि बहु बिधि लाली ।' मा० २.५६.३ लालु : लाल+कए । प्रिय पुत्र । 'बहुरि बच्छु कहि लालु कहि ।' मा० २.६८ लाले : भूक पु०ब० । सं० लालित>प्रा० लालिय) । दुलराये । 'जे सुक सारिका पाले, मातु ज्यों ललकि लाले ।' गी० ३.६.३ लावउँ : आ० उए । लगाऊँ । 'कहहु सो करत न लावउँ बारा ।' मा० १.२०७८ For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 956 तुलसी शब्द-कोश लावक : सं०पू० (सं.)। बटेर पक्षी। मा० ३.३८.७ लावत : वकृ०पु० । लगाता-ते । 'चाहि चुचकारि चूमि लालत लावत उर ।' गी० १.११.२ लावति : वकृ०स्त्री०। लगाती । 'याहि कहा मैया मह लावति ।' कृ० १२ लावती : वकृ०स्त्री० ब० । लगातीं। पलको न लावतीं ।' कवि० १.१३ लावण्य : दे० लाबन्य । विन० १०.१ लावनिता : सं०स्त्री० (सं० लावण्यिता)। सौन्दर्य मयता। 'तुलसी तेहि औसर लावनिता।' कवि० १.७ लावन्य : सं०० (सं० लावण्य) । सुन्दर अङ्गों में झलकने वाली आभा, अङ्ग संघटना की चमक । मा० १.१०६ लावहिं : आ०प्रब० । (१) लाते हैं, उपस्थापित करते हैं । 'बहु बिधि लावहिं निज निज सेवा ।' मा० १.१६१.८ (२) लगाते हैं। 'एकटक रहे निमेष न लावहिं ।' मा० ७.३३.४ लावहि : आ०मए । तू लगा, अनुरक्त कर । 'सरस चरित चित लावहि ।' विन० २३७.५ लावहु : आ०मब० । लगाओ, लावो (मन में समझो) । 'भाइहु लावहु धोख जनि ।' मा० २.१६१ लावा : (१) लावक (प्रा० लावअ) । बटेर । 'जनु सचान बन झपटेउ लावा।' मा० २.२६.५ (२) सं०० (सं० लाज, लाजक>प्रा० लाऊअ)। धान के खील (जो विवाह की लाजाति में उपयक्त होते हैं) । 'लावा होम बिधान ।' पा०म० १३१ (३) भूकृ०पु० । लगाया। 'तुम्ह तो कालु हांक जन लावा ।' मा० १.२७५.१ लावै : लावहिं । पहुंचाते-ती हैं । 'बामहि बाम सबै सुखसंपति लावै ।' कवि० ७.२ लावौं : लावउँ। (१) लगाऊँ । 'चरन चितु लावौं।' गी० १.१८.३ (२) (पहुंचाता हूं) लगाता हूं। 'जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं ।' विन. १४२.२ (३) ले आऊँ । 'अमृत कुंड महि लावौं ।' गी० ६.८.२ लावौंगी : आ०भ० स्त्री०उए । लगाऊँगी। 'हरषि हिय लावौंगी।' २.५५.३ लासा : सं०० (सं० लसिका-स्त्री०) । गोंद आदि से बना हुआ सरेस जिससे चिपकाकर पक्षियों को फांसा जाता है । नाम लगि लाइ, लासा ललित बचन कहि, ब्याध ज्यों, बिषय बिहगनि बझावौं ।' विन० २०८.२ लाह : (१) लाभ (प्रा.)। 'लोयन लाह लूटति नागरी ।' जा०म०/० १६ (२) सं०स्त्री० । आग की लौ । (३) लता आदि की पतली शाखा। “जा की आंच अजहूं लसति लंक लाह सी।' कवि० ६.४३ For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 957 लाहु : लाभु (अ०) । मा० १.२०.२ 'हानि कुसंग सुसंगति लाहू ।' मा० १.७.८ लिंग : सं०० (सं०) । शिवलिङ्ग (शिवमूर्ति-विशेष) । मा० ६.२६ लिंगमई, यो : (दे० मई) शिवलिङ्गों से व्याप्त (काशी) । कवि० ७.१८२ लिएँ : लिए हुए, ग्रहण किये हुए (मुद्रा में) । 'मंगल द्रब्य लिए सब ठाढी ।' मा० १.२८८.६ लिए : (१) भूकृ००ब० । ले लिये, प्राप्त किये, ग्रहण किये । ‘लिए गोद करि __ मोद समेता।' मा० १.३५४.३ (२) लेकर। ‘लिए फल मूल भेंट .. मिलन चलेउ ।' मा० २८८.२ (३) परसर्ग । तदर्थ । दे० लिये। लिखत : वकृ००। लिखता-लिखते। लिखत सुधाकर गा लिखि राह ।' मा० २.५५.२ लिखन : भकृ. अव्यय । लिखने, रेखा खींचने । 'महि न लिखन लगी सब सोचन ।' मा० २.२८१६ लिखा : भूक.पु० । लिपिबद्ध किया। मा० १.६८ (२) रेखित किया। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें।' मा० ६.२६.३ लिखाइ : पूर्व० । लिखा कर, लिपिबद्ध करा कर । 'चले. 'लगन लिखाइ कै ।" पा०म०छं० १० लिखाउ : आ-आज्ञा-मए । तू लिखा ले । 'रिनिया हौं, धनिकतूं पत्र लिखाउ ।' विन १००.७ लिखाए : भूक००ब० । लिपिबद्ध कराये । गी० १.६.३ लिखि : पूकृ० । (१) लिखकर । 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ।' मा० १.६.११ (२) चित्रित कर, उरेह कर । 'जहँ तह मनहुँ चित्र लिखि काढ़े।' मा० २.८४.१ लिखिअ : आ०कवा०प्रए । लिखिए, लिखा जाय, लिखा जाता है। लिखिम पुरान ।' मा० १.७.११ लिखित : भूकृ०वि० (सं.)। (१) लिपिबद्ध । (२) चित्रित । 'चित्र-लिखित ।' मा० ६.८६ छं० लिखी : भूक०स्त्री० । (१) लिपिबद्ध की, रेखित की। लिखी न भलाई भाल ।' कवि० ७.१६५ (२) कविता रचकर लिपिबद्ध की। 'हिये हेरि तुलसी लिखी।' विन० २७७.३ लिखे : लिखित (प्रा० लिखिय) ब० । (१) लिपिबद्ध । 'बिधि के लिखे अंक ।' मा० ६.२६१ (२) आलिखित, चित्रित । चित्र लिखे जनु जहं तहँ ठाढ़े।' मा० २.१३५६ (३) लिखने पर, से। 'चित्र कल पतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ।' विन० १२३.३ लिखें : आ०प्र० । लिखते हैं, चित्रित करते हैं । 'सिय अंग लिखें धातु राग ।' गी०. २.४४.४ For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 958 तुलसी शब्द-कोश लिख्यो : भूकृ००कए । लिखा । कवि० ७.५६ लिपि : सं० स्त्री० (सं०) । लेख, अङक । 'तेरे हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनक की।' कवि०७.२० लिय : भृकृ० । लिया, ग्रहण किया, चना । 'रामचरित सत कोटि मह लिय महेस जिय जानि ।' मा० १.२५ लियउ : लिय+कए । 'पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। मा० ६.१०७.१ लिया : लिय । ग्रहण किया। 'तेरो नाम लिया रे।' विन० ३३.४ लिये : लिए । कृ० १७ (२) लेने । 'नाम लिये तें।' कवि० ७.१२६ (३) ले लेने पर । 'मनि लिये फनि जिय ब्याकुल बिहाल रे ।' विन० ६७.३ (४) परसर्ग । के हेतु, तदर्थ । 'तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायो पार ।' विन १८५.३ लियो : लियउ। (१) ग्रहण किया। ‘लियो काढि बामदेव नाम घत है।' विन० २५४.२ (२) अङ्गीकृत किया। 'कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।' मा० ७.५ छं०२ लिलार : ललाट (प्रा० निडाल)। (१) मस्तक । मा० ५.३८.६ (२) भाग्य । 'जो बिधि लिखा लिलार ।' मा० १.६८ लिवाइ : लवाइ । लिवाकर, साथ लेकर । 'रामहि चले लिवाइ ।' जा०म० ३६ लिहे : लिए । लिये हुए। रा०न०६ ली : लई । पाई, ले ली । “मैं सबै के जी की थाह ली।' कवि० ७.२३ लोक, का : संस्त्री० (सं० लेखा-रेखा)। (१) लकीर । 'मानों प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यो धुकि धायो।' कवि० ६.५४ (२) स्थान, संख्या । 'भटमहुं प्रथम लीक जग जासू ।' मा० १.१८०.७ (३) मर्यादा, सीमा। 'अजहुं गाव श्रुति जिन्ह के लीका ।' मा० १.१४२.२ (रेखा अर्थ सर्वत्र अनुस्यूत है।) लीख : लीक । 'बेद बिदित यह लीख ।' विन० १८.४ लीचर : सं०० । अशक्ति, शिथिलता (?)। 'बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच।' हनु० ३६ अवधी में 'लीचर' नवजात पशु-शिशु को कहते हैं जो निश्चल' से ___ लगता है। लीजत : वकृ०पुंकवा० । लिया जाता है, लिये जाते। 'लीजत क्यों न लपेटि लवा से ।' हनु० १८ लीजिए : आ०-कवा०-प्रए । लिया जाय । मा० ४.१० छं० लीज : लीजिए। 'दै पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज सादर सिर धरि लीजै ।' कृ० ४६ लीन : भूक०० (सं.)। (१) मग्न, डूबा हआ। (२) तदाकारता प्राप्त । 'तातें मुनि हरि-लीन न भयऊ ।' मा० ३.६.२ (३) ध्यानावस्थ, समाहित, एकान। For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 959 'राम भगति रस लीन ।' मा० १.२२ (४) लीन्ह । लिया। 'सींक धनुष हित सिखन सकुचि प्रभु लीन ।' बर० ८ लोनी : (१) लीन+स्त्री० (सं० लीना)। मग्न | 'कपटी मुनि पद रह मति लीनी।' मा० १.१७२.७ (२) लीन्ही । ली। 'सूपनखा आगें करि लीनी।' मा० ३.१८.६ लीन्ह, न्हा : भूक०० । लिया। मा० १.४८.७; ६८.८ लीन्हि : लीन्ही । 'लीन्हि परीछा कवन बिधि ।' मा० १.५५ लोन्हिसि : आ०-भूक०स्त्री०+प्रए । उसने ली। 'लीन्हिसि रथ बैठाइ ।' मा० ३.२८ लीन्हीं : लीन्ही+ब० । लीं। 'बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं।' मा० १.३५३.५ लीन्ही : भूकृ०स्त्री० । ली। मा० १.२३५.३ लीन्हें : लिये हुए, लेकर । 'प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ।' मा० १.१८६.६ लीन्हे : (१) भूक०० ब० । लिये । 'बोलि सकल सुर सादर लीन्हे ।' मा० १.१००.१ (२) लीन्हें । लिये हुए । 'काम कुसुम धनु सायक लीन्हे ।' मा० १.२५७.१ लीन्हेउ : लीन्हा+कए । लिया। 'बिषय मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ।' मा० ४.१६.३ लोन् सि : आ०- भूक००+प्रए । उसने लिया। हरि लीन्हेसि सरबसु अरु नारी ।' मा० ४.६.११ लीन्हो : लीन्ह्यो । 'लीन्हो उखारि पहारु बिसाल ।' कवि० ६.५४ लीन्ह्यो : लीन्हेउ । पाया, लिया । 'बिमुख ह बालि फल कौन लीन्ह्यो।' कवि० लीबी : भकृ०स्त्री० । लेनी (चाहिए) । 'जानि लीबी गति ।' गी० १.६६.५ लीयो : लियो । 'कुमारग कोटिक के धन लीयो।' कवि० ७.१७६ लीलाह : लीला में खेल-खेल में। 'लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा।' मा० ४.३०.८ लीलहि : लीला को। मा० ७.१२८.३ लीला : लीला से, खिलवाड़ में । 'लीला हत्यो कबंध ।' मा० ६.३६ लोला : सं०स्त्री० (सं.)। (१) क्रीडा, खेल । 'हर गिरि जान जासु भुज लीला।' मा० ६.२५.१ (२) नाट्य, अभिनय, वेषान्तर ग्रहणपूर्वक स्वाँग । 'सर्वदरसी जानहिं हरि लीला ।' मा० १.३०.६ (३) ईश्वर की परमा शक्ति; जगत्प्रसार करने वाली योगमाया। 'लीला सगुन जे कहहिं बखानी।' मा० १.३६.५ (४) ईश्वरावतार का नरचरित्र । 'राज बैठि कीन्हीं बहु लीला।' मा० For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 960 तुलसी शब्द-कोश १.११०.८ (५) अभिनय, लीला-नाट्य । 'करउँ सकल रघुनायक लीला ।' मा० ७.११०.४ (६) लीलरस की अनुभूति । 'सोउ जाने कर फल यह लीला।" मा० ७.२२.५ लीलातनु : यों तो सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म की लीला है उसी का रूपावतरण है, परन्तु इस लीला का कोई वाह्य प्रयोजन नहीं-ली लाया एव प्रयोजनत्वात्-परन्तु जब ब्रह्म धर्म के उद्धार हेतु विशेष रूप ग्रहण करता है तब वह सप्रयोजन अवतार होता है और उस अवतारी रूप को 'लीलातनु' कहा जाता है । 'भगत हेतु लीला-तनु गहई।' मा० १.१४४.७ वही रूप भक्तों का उपास्य भी होता है। लीलारस : बल्लभाचार्य ने 'भक्तिरस' को 'लीलारस' नाम दिया है। शान्त भक्त भगवान् के स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं (लीला का नहीं) जबकि दास, सखा, वत्सल तथा मधुर भक्त लीलाओं का आनन्द लेते हैं - यही लीलारस है। इन में दासभक्त लीला-सहयोगी न होकर द्रष्टा मात्र रहते हैं जबकि शेष लीला सहयोगी रहते हैं । 'बालकेलि लीला-रस ब्रज जन हितकारी।' कृ० १ लीलावतार : परमेश्वर का सष्टि रूप में अवतरण लीलावतार से भिन्न है। उपासना हेतु मुख्यत: पांच रूप माने गये हैं - (१) अर्चावतार=मति आदि में देवता की प्राणप्रतिष्ठा (२) ब्यूहावतार = वासुदेव, सकर्षण, द्युम्न ओर अनिरुद्ध का चतुर्व्यह; अथवा राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का चव्ह । (३) विभवावतार भगवान् के विविध अवतार (दस या चौबीस या अन्य अंशावतार) । (४) सूक्ष्म = उक्त सभी में अनुस्यूत परमात्मा । (५) प्रत्यक् = अन्तर्यामी = तुरीय। इनमें व्यूह और विभव को 'लीलावतार' भी कहते हैं । कभी-कभी सम्पूर्ण सष्टि को लीलावतार कहा जाता है--दे० लीलातनु-परन्तु भू-भार हरण हेतु अवतार को विशेषत: 'लीलावतार' कहा जाता है। लीलावतारी : वि.पु. (सं० लीलावतारिन् ) । लीलावतार लेने वाला, लीलातनु ग्रहण करने वाला । विन० ३८.१; ४३.१ लीलि : पूकृ० (सं० निगीर्य>प्रा० निइलिअ->अ. नीलि) । निगल (कर) । तिन की मति लोभ लालची लीलि लई है। विन० १३६.२ लीलिबे : भकृ०० । निगलने । 'लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।' कवि० लीले : भूक०० ब० । निगल लिये । 'सिंह के सिसु मेंढ़क लीले ।' विन० ३२.२ लुकाइ, ई : पूकृ० । छिपकर । मा० ६.२३ क । 'प्रभु देखें तरु ओट लुकाई ।' मा० ३.१०.१३ For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 961 लुकात : वकृ०पु । छिपता-छिपते । 'लवा ज्यों लुकात तुलसी झपेटें बाज के ।' कवि० ६६ लुकाने : भूकृ.पुब ० । छिप रहे । 'कपटी भूप उलूक लुकाने ।' मा० १.२५५.२ लुके : लुकाने । 'लुके उलूक नरेस ।' रा०प्र० १.५.५ लुगाई : लोगाई । मा० १.२०४.८ लुटाई : भूक०स्त्री० । लुटा दी, बिखेर दी। 'निज संपदा लुटाई ।' गी० १.१.५ लटि : लुटि । 'नयन लाभ लटि पाई।' गी० १.५५.८ लुटैया : वि०ब० । लूटने वाले। ‘ह हैं सकल सुकृत सुख भाजन लोचन-लाहु ___ लुटवा।' गी० १.६.५ लुठत : वकृ.पु० (सं० लुठत्) । लोटता हुआ, बिखरता हुआ। 'जनु महि लुठत सनेह समेटा।' मा० २.२४३.६ लुनाई : लोनाई । सुषमा। गी० १.५२.४ लुनिप्र : आ०कवा०प्रए० (सं० लूयते>प्रा. लुणीअइ) । काटा जाता है। 'बवा ___सो लुनिअ ।' मा० २.१६.५ लुनिअत : वकृ००कवा० (सं० लूयमान>प्रा० लुणीअंत)। काटा जा रहा है। __ 'बयो लुनिअत सब याही दाढ़ीजार को।' कवि० ५.१२ लुनिए : लुनिअ । काटा जाय । 'बयो सो सब लुनिए।' कु० ३७ लुनिहै : आ०म०प्रए० (सं० लविष्यति>प्रा० लुणिहिइ) । काटेगा। 'लुनिहै पै सोई सोई जोई जेहिं बई है।' गी० १.८६.६ लुप्त : भूकृ०वि० (सं०) । अदृश्य, नष्ट । 'लुप्त भए सदग्रंथ ।' मा० ७.६७ लुबुध : लुब्ध । 'लुबध मधुप इव तजइ न पासू ।' मा० १.१६.४ लुब्ध : भूकृ०वि० (सं.)। लोभग्रस्त, लिप्सा-लीन । विन० २०७.३ लुभाइ, ई : पूकृ० । लुब्ध होकर, लोभलीन हो। 'जहँ बसंत रितु रही लुभाई ।' मा० १.२२७.३ रही है लुभाइ लुभाई ।' गी० १.५५.२ लुमाने : भूक पुब ०। लुब्ध हुए। 'मुक्ति निरादर भगति लुभाने ।' मा० ७.११६.७ लुमाहिं : आ०प्रब० । लुब्ध होते हैं । 'बिरत जे परम सुगतिहुं लुभाहिं न ।' विन० २०७.३ लूक : सं०० (सं० उल्का-स्त्री०) । टूटा हुआ तारा । 'दिनहीं लूक परन बिधि लागे।' मा० ६.३२.७ लूगा : सं० । लुगड़ा, चिथड़ा, जीर्ण वस्त्र-खण्ड । विन० ७६.१ लूटक : वि.पु. (सं० लुण्टाक)। लूटने वाला, अपहरण करने वाला । 'मुनिपट लूटक पटनि के ।' कवि० २.१६ (पट्ट रेशम की शोभा हरने वाले मुनिपट)। For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 962 तुलसी शब्द-कोश लूटत : वकृ.पु । छीनता-ते, अपहरण करते । 'प्रभु तिय लूटत नीच भर ।' दो० ४४० लूटति : वकृ०स्त्री० । लूटती-तीं । 'लोयन लाह लूटति नागरीं ।' जा०म०छं० १६ लूटन : भकृ० अव्यय । लूटने । 'चले रंक जन लूटन सोना ।' मा० २.१३५.२ लूटहिं : आ०प्रब० । लूटे ले रहे हैं । 'लूटहिं तसकर तव धामा।' विन० १२५.८ लटि : कृ० । लटकर । 'जस रासि.."लूटि लई है।' कवि०७.१७५ लूटिबे : भक०पु०। लूटने । 'रंक लूटिबे को मानो मनि गन ढेरै ।' गी० ५.२७.३ लटि हैं : आ०भ०प्रब० । लूटेंगे। 'लोग लूटिहैं लोचन लाभ अघाइ के।' गी० १.७०.१ लूटी : लूटी+ब० । 'रंकन्ह राय रासि जनु लूटी।' मा० २.११७.८ लूटी : भूक०स्त्री० । लूट ली, अपहृत की । 'तिहुं तिभुवन सोभा मनहुं लूटी।' गी० २.२१.२ लूट्यो : भूकृ००कए ! लूट लिया। कवि० ६.४६ लूम : सं००+स्त्री० (सं.)। पूछ । हनु० ३४; दो० ३४५ लरति : वकृ०स्त्री० (सं० लोलन्ती)। चञ्चल हो रही, झूल रही । 'उरसि रुचिर बनमाल लुरति ।' गी० ५.४७.२ लूलो : वि.पु०कए० (सं० लून:=कटे अङ्ग वाला) । हस्त विहीन । 'रहौं दरबार परो लटि लूलो।' हनु० ३६ ले : लेहि (तू प्राप्त कर)। ‘साँसति तुलसीदास की सुनि सुजस तुही ले ।' विन० ३२.५ ले, लेइ : (१) आ०प्रए० (सं० लाति>प्रा० लेइ) । लेता-ती है। 'ऊतरु देइ न, लेइ उसासू ।' मा० २.१३.६ (२) ले, ले लेवे । 'छोनि लेइ जनि ।' मा० १.१२५ लेइ : पू० । लेकर । 'मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा ।' मा० २.७१.३ लेइअ : आ०कवा०प्रए । लीजिए। 'लेइअ संग मोहि छाडिअ जनि ।' मा० २.६६.७ लेइहि : आ० भ०ए० (सं० लास्यति>प्रा० लेइहिइ)। लेगा, लेगी। ‘जानेहु लेइहि मागि चबेना।' मा० २.३०.६ लेई : लेइ । लेता है । 'चारा चाषु बाम दिसि लेई ।' मा० १.३०३.२ लेउ ऊ : आ० उए० (सं० लामि>प्रा. लेमि>अ० लेउँ)। लू, प्राप्त करूं। 'जिमि गएँ तकइ लेउ केहि भांती ।' मा० २.१३.४; २.१६०.२ लेउ : आ०-अनुज्ञा-प्रए० (सं० लातु>प्रा० लेउ)। ले, ले सकता है। 'जानि लेउ जो जाननिहारा ।' मा० २.१३७.१ For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 963 'लेख, लेखइ, ई : आ०ए० (सं० लेखयति) । लेखे में लेता है, गिनता है, समझता है। 'तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई ।' मा० २.२५ छं० लेखउ : आ० उए । लेखे में लू, गिनू मानू । 'केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ।' मा० ७.१२४.४ लेखति : वकृ० स्त्री० । रेखाएँ (लेखाएँ) बनाती। 'चारु चरन नख लेखति धरनी।' मा० २.५८.५ लेखन : भकृ० अव्यय । आलेखित करने, चित्रित करने, रेखाङिकत करने । 'सो समाज चित चित्रसार लागी लेखन ।' गी० १.७५.२ लेखनी : सं०स्त्री० (सं.)। लेखोपकरण = कलम । वैरा० ३५ लेखहि : आ.प्रब० । मानते हैं, गिनते हैं । मा० २.१३४.८ लेखहि : मा०मए । तू गिन, समझ । 'सब सम लेखहि बिपति बिहाई ।' विन० १२६.३ लेखहीं : लेखहिं । 'सुफल जीवन लेखहीं।' मा० १.३१६ छं० लेखहु, हू : आ०मब० । गिनो, समझो। 'रघबरहि कुंभज लेखहू ।' जा०म०छं० १२ लेखा : (क) सं०० (सं.)। (१) लेख । (२) देवता । 'भए अलेख सोच बस लेखा।' मा० २.२६४.८ (३) चित्र । 'लोचन मोर पंव कर लेखा।' मा० १.११३.३ (४) समानता । 'गुर सिष अंध बधिर कर लेखा।' मा० ७.६६.६ (५) (सं० लेख्य)। अङक, आंकड़ा, गणना । 'सो मूरुख जो करन चह लेखा।' मा० ४.२२.१ (ख) भूकृ०० । गिना, माना। 'आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।' मा० २.२६४.८ (ग) लेखइ। समझता है। 'अचल मोहबस आपुहि लेखा।' मा० ७.७३.५ लेखि : (१) पूकृ० । गिनकर, समझकर। (२) आ०-आज्ञा–मए । तू समझ। 'सुमिरि सत्य सब लेखि।' रा०प्र० २.४.३ लेखिन : आ०कवा०प्रए० । लेखे में लाइए, समझिए। 'भूप सुसेबित बस नहिं लेखिअ ।' मा० ३.३७.८ लेखिये : लेखिअ । 'देहवंत न लेखिये ।' विन० १३६.११ लेखी : लेखि । मानकर । 'मुदित सफल जग जीवन लेखी।' मा० १.३४६.४ लेखु : आo-आज्ञा-मए० । (१) तू गणना कर । 'अंक लिखि लख ।' दो० ३६ (२) तू समझ । 'सफल जीवन लेख । गी० ७.६.२ लेखें : लेखे में, गणना में । 'भयउँ भाग भाजन जन लेखें ।' मा० २.८८.५ लेखे : (१) भूकृ०० ब० । गिने, समझे । 'ते पुनि पुन्य पुज हम लेखे ।' मा० २.१२०.८ (२) लेखा । गिनती। 'कहहु तूल केहि लेख माहीं।' मा० १.१२.११ (३) कारण । 'माधव अब न दवहु केहि लेखे। (केहि लेखे =किस हेतु क्या समझकर।) For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 964 तुलसी शब्द-कोश लेखो : लेखा+कए । गिनती । 'लेखो कौन हमारो ।' गी० २.६७.३ लेखौं : लेखउँ । 'तब निज जन्म सफल करि लेखौं ।' मा० ७.११०.१४ लेखौ : लेख हु । समझो। 'सफल जीवन लेखी री।' गी० ७.७.६ लेत : (१) वकृ०० (सं० लात्>प्रा० लेत)। लेता-लेते । 'लेत चढावत बँचत गाढ़ें ।' मा० १.२६१.७ (२) लेते ही तत्क्षण । 'नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं।" मा० १.२५.४ लेति : वकृस्त्री० । लेती । मा० १.१४७ लेतु : लेत+कए । लेता । 'जो.. राम नाम लेतु है ।' कवि० ७.८२ लेते : क्रियाति.पुब ० । तो लेते । 'सुनि सादर आगे लेते ।' विन० २४१.१ लेन : भकृ० अव्यय । लेने । “चले लेन सादर अगवाना ।' मा० १.६५.२ लेना : (१) सं०पु० । ग्रहण करना, पाना । 'झूठइ लेना झूठइ देना।' मा० ७.३६.७ (२) लेन । लेने । 'लंका रहइ को पठई लेना।' मा० ६.५५.७ लेनो : लेना+कए । 'मोको न लेनो न देनो कछु।' कवि० ७.१०२ लेब, लेबा : भक००। लेना (होगा)। 'लेब भली बिधि लोचन लाहू ।' मा० १.३१०.६ 'सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।' मा० २.१०२.८ लेरुमा : सं० । गाय आदि का नवजात शिशु । बछड़ा । 'ललन लोने लेरुआ, बलि मैया।' गी० १.२०.१ लेवाइ, ई : लवाइ। साथ लेकर । 'रघुकुल-दीपहि चले लेवाई।' मा० २.३६७ लेवादेई : सं०स्त्री० । लेन-देन ; उदला-बदल । 'स्वारथ के साथी मेरे हाथी स्वाना लेवादेई ।' विन० ७५.२ लेवैया : वि.पु.। लेने वाला । 'भुजा गहि काढ़ि लेवैया।' कवि० ७.५२ लेस : सं०पु. (सं० लेश) । क्षुद्र अंश, थोड़ा-सा । 'तुलसी तऊ लेस रिस नाहीं ।' वैरा० ४६ 'कतहुं नहीं अघलेस ।' मा० १.१५३ लेसा : लेस । मा० ३.२८.१० लेसु : लेस+कए० । एक कण । 'मोहि न सो दुख लेसु ।' मा० २.५५ लेसे : आ०प्रए० (सं० लेशयति-लिश गतौ>प्रा० लेसइ) । दीप्त करे, जलाये । 'एहि बिधि लेस दीप ।' मा० ७.११७ लेह' : आ०भ०उए० (सं० लास्यामि>प्रा० लेहिमि>अ० लेहिउँ)। लूगा । 'अंसन्ह सहित मनुज अवतारा लेहउँ।' मा० १.१८७२ लेहहिं : आ०भ० प्रब० । लेगे। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा ।' मा० २.७०.५ लेहि, हीं : (१) आप्रब० (अ.)। लेते-ती हैं। 'सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं।' मा० १.७.३ (२) धारण करते हैं, (कर सकते हैं) । 'डाबर कमठ कि मंदर लेहीं ।' मा० २.१३६.७ For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 965 लेहि : आ०मए । तू ले, ग्रहण कर। 'कहेउ कृपाल लेहि उतराई।' मा० २.१०२.४ लेहु, ह : आ०मब० (अ०) । लो, प्राप्त करो। मा० २.३३.६; ५०४ लेहौं : लेहउँ । लुगा-गी। 'बलैया लेहौं।' कवि० २.३ ल : (१) लइ । लेकर । 'बालक सब ल जीव पराने ।' मा० १.६५.५ (२) ले ___ जाकर । 'तहां बासु ल दीन्ह भुआला ।' मा० १.२१६.७ (३) ग्रहण करके । 'पाय ले परहीं।' मा० २.११.८ लैन : लेन । लेने। 'जनु सोभा आये लैन ।' गी० १.३५.२ लंबे : 'लेबा' का रूपान्तर । लेने । 'लैबे को एक न देबे को दोऊ ।' कवि०७ १०६ लै हैं : (१) लेहहिं । लेगे, प्राप्त करेंगे। 'लैहैं लोचन लाहु, सुफल लखि ललित मनोरथ बेली।' गी० १.८.४ (२) लाइहैं । लगाएंगे। 'सहज कृपालु बिलंब न ले हैं।' गी० ५.५१.१ लहै : (१) लेहै। लेगा। 'लोचन सुख लहै ।' गी० १.६६.२ (२) लाइहै। लाएगा, लगाएगा। लहौं : (१) लेहौं। लूगा (लूगी)। 'भाई हौं कहा अवध रहि लहौं।' गी० २.६५.१ (२) लाइहौं। लगाऊँगा-गी। 'निरखि हरषि उर लहौं ।' गी० १.६६.४ लोइ, ई : लोक (प्रा० लोय) । लोग, जनता । 'ब्रह्मानंद मगन सब लोई ।' मा० १.१६४.२ लोक : सं०० (सं०) । (१) दृश्यमान जगत् । (२) तीन लोक = स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल । (३) चौदह लोक-दे० भुवन । (४) यह जीवन । 'लोक लाहु परलोक निबाहू ।' मा० १.२०.२ (५) व्यावहारिक जगत् । 'लोक बेद बर बिरिद बिराजे ।' मा० १.२५.२ (६) दो लोक=ऐहिक तथा आमुष्मिक जीवन । 'उभय लोक निज हाथ नसावहिं ।' मा० ७.१००.७ (७) जनता, लोग। जैसे, लोकमत। 'भे सब लोक सोक बस बौरा ।' मा० २.२७१.१ (८) समाज । 'लोक लखि बोलिए।' कवि० १.१५ (8) लौकिक मर्यादा। 'लोक राखे निपट निकाई है।' गी० ५.२६.३ (१०) (सं० श्लोक) =सिलोक +लोक (मान्यता) । यश । 'सुत बित लोक ईषना तीनी ।' मा० ७.७१.६ 'लोकउ : लोक भी, व्यावहिक विश्व भी। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।' मा० २.२०७.२ लोकनाथ : लोकपाल (सं.)। कवि० ७.२५ लोकनि : लोक+संब० । लोकों (को) । 'लोकनि सिधारे लोकपाल सबै ।' कवि० ६.५८ लोकप, पति : लोकपाल (सं०) । मा० २.२.३, मा० १.३३३ For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 966 तुलसी शब्द-कोश लोकपति : लोकपाल । मा० १.३३३ लोकपाल : (१) सं०० (सं.)। दिक्पाल (इन्द्र, अग्नि, यम, नित, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान) । मा० १.३२६.६ (२) लोक-रक्षक (राजा आदि)। लोकपालन : लोकपाल+संब० । लोकपालों (जनरक्षकों)। 'परम कृपाल जो नपाल लोकपालन पै ।' कवि० ६.२६ लोकमत : जनरुचि, प्रजा वर्ग का अभिप्राय । मा० २.२५८ लोकमान्यता : सं०स्त्री० (सं.)। विश्व प्रसिद्धि, लोक-सम्मान, कीति । 'लोक___मान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ।' मा० १.१६१ लोकरीति : लोक प्रचलन, जागतिक व्यवहार । कवि० ७.६४ लोकलाज : (दे० लाज)। लोकमर्यादा का संकोच ; व्यवहार पालन का संकोच । गी० ४.२.२ लोका : लोक । मा० १.२७.१ लोकि : पूकृ० । बीच में ही लपक लेकर, झपट लेकर, रोककर । 'तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है ।' कवि० ७.१५७ लोक : लोक+कए । यह संसार, लोकाचार । 'लोकु बेदु बुध-संमत दोऊ ।' मा० २.२०७.१ लोके : (सं०) । लोक में । मा० ७.१०८.७ लोग : लोक (प्रा०) । जन, जनता । मा० १.६६.२ लोगनि, न्ह, न्हि : लोग+संब०। (१) लोगों। 'निज जड़ता लोगन्ह पर डारी ।" मा० १.२५८.७ (२) लोगों ने। 'भवन लोगन्ह रचे ।' मा० १.२६६. (३) लोगों से (को)। पूछेउ मगु लोगन्हि मदु बानी ।' मा० २.११८.५ लोगाई : लोगाई+ब०। स्त्रियां। 'बृद बृद मिली चलीं लोगाई।' मा० १.१६४३ लोगाई : लोग+स्त्री० । स्त्री लोग, स्त्री। लोगु, गू : लोग+कए० (अ.) । जन-वर्ग । 'तो कृत कृत्य होइ सब लोगू ।' मा०. १.२२२.७; २.८८.७ लोचन : सं०० (सं.)। (१) नेत्र। मा० १.३७ (२) वंश लोचन । (३) गोरोचन । 'अच्छत अंकुर लोचन लाजा ।' मा० १.३४६.५ लोवनन, नि : लोचन+संब० । नेत्रों (में) । 'लोचनानि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।' हनु० ४ लोचनामिराम : वि० (सं०) । नेत्र-सुखद। कवि० १.१२ लोचनाभिरामा : लोचनाभिराम। मा० ६.५६.६ लोचनि, नी : (समासान्त में) वि०स्त्री० (सं.)। नेत्रों वाली। 'मगसावक लोचनि ।' मा० १.२६७.२ For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 967 लोहि : आ०प्रब० । पर्यालोचन करते हैं; विचारते-खोजते हैं। 'बरु अनुदिन लोहिं ।' पा०म०६ लोटन : सं०० (सं० लुठन, लुण्ठन) । लड़खड़ाहट, स्खन, लेटना, लुढ़कना । __ 'काट कुराय लपेटन लोटन ठावहि ठाउँ बझाऊ रे ।' विन० १८६.४ लोथि : सं०स्त्री० । शव । मृतक शरीर । लोथिन : लोथि+संब० । लोथों, शवों। 'लोथिन सों लोहू के प्रबाह चले जहाँ तहाँ।' कवि० ६.४६ लोन : सं०० (सं० लवण>प्रा० लोण)। (१) नमक । मा० २.३०.८ 'बरी बरी को लोन ।' दो० ५४६ (२) लावण्य । (३) सुन्दर । 'करि सिंगार अति लोन तो बिहसति आई हो।' रा०न० १० लोना : लोन । सुन्दर, कमनीय (दे० लावन्य) । 'साँवर कुवँर सखी सुठि लोना ।' मा० १.२३३.८ लोनाई : लावनिता । लावण्य, सौन्दर्याभा । मा० १.२३७.१ लोनी : वि०स्त्री० । लावण्यवती। 'सोहैं साँवरे पथिक, पाछे ललना लोनी।' गी० २.२२.१ लोनु : लोन+कए । नमक, क्षार । 'मनहुं जरे पर लोनु लगावति ।' मा० २.१६१.१ लोने : वि.पु.ब० । लावण्ययुक्त, सुन्दर । 'लालन जोगु लखन लघु लोने ।' मा० २.२००.१ लोप : (१) सं०० (सं.)। अदर्शन । (२) वि० (सं० लुप्त>प्रा० लुप्प= __ लोप्प) । अदृश्य, लुप्त । 'लोप प्रगट प्रभाय को।' हनु० ३१ लोपति : वकृ०स्त्री० । लुप्त करती। 'लोपति बिलोकत कुलिपि भोंड़े भाल की।' कवि० ७.१८२ लोपित : भूक०वि० (सं०) । लुप्त किया कि ये । 'कोपित कलि लोपित मंगल मगु ।' विन० २४१ लोपिहैं : आ०भ०प्रब० । लुप्त (नष्ट) कर देंगे। 'मंडि मेदिनी को मंडलीक लीक लोपिहैं ।' कवि० ६.१ लोपी : भक०स्त्री० । लुप्त कर दी। 'कलि सकोप लोपी सुचाल। विन० १६५.२ लोपेउ : भूक००कए । लुप्त कर दिया। 'लोपेउ काल बिदित नहिं के हू ।' मा० २.३१०.४ लोप : आ.प्रए०कवा० (सं० लुप्यते>प्रा० लुप्पइ = लोप्पइ)। लुप्त होता-होती है । 'तेरें हेरें लोप लिपि बिधिहू गनक की।' कवि० ७.२० लोभ : सं०पू० (सं.)। लालच । अप्राप्त वस्तु की लिप्सा का तीव्र संवेदन दे० षड्वर्ग । मा० १.३२.६ For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 968 तुलसी शब्द-कोश लोभइ : लोभ ही, एकमात्र लोभ । 'लोभइ ओढ़न लोभइ डासन ।' मा० ७.४०.१ लोमहि : लोभ को । जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।' मा० ४.१६.३ लोभा : (१) लोभ । 'गुजत मधुप निकर मधु लोभा।' मा० ४.१३.१ (२) लुब्ध (प्रा० लुब्भ=लोब्भ) । लोभलीन, ललचाया, लुब्ध हुआ । 'बिप्र चरन देखत मन लोभा।' मा० १.१६६.६ । लोमा, लोभाइ : आ०ए० । लोभयुक्त होता है; लुब्ध (मुग्ध) होता है । 'मन फिरि नहिं अनत लोभाइ ।' गी० ७.२१.१५ लोमाई : (१) लोभाइ। 'जहाँ जाइ मन तहइ लोभाई ।' मा० १.२१३.१ (२) पूकृ० । लुब्ध होकर । 'बरष पाँच तह रहउँ लोभाई ।' मा० ७.७५.४ लोभाउँगो : आ० भ०० उए । ललचाऊँगा । 'लघु लालच न लोभाउँगो।' गी० ५.३०.३ लोभाए : भूक००ब० । लुब्ध किये, लोभ में डाले। 'मागहु बर बहु भांति लोभाए।' मा० १.१४५.३ लोभागि : (लोभ+आगि) लोभरूपी अग्नि, तीव्र लालसा । विन० २०३.७ लोमादि : लोभ तथा अन्य (षड्वर्ग) । मा० ३.४३ लोमान : भूक०० । लुब्ध हुआ । 'मन सिय रूप लोभान ।' मा० १.२३१ लोभानी : भूकृस्त्री० । लुब्ध हुई। 'हरि बिरंचि हर पुर सोभा सब कोसलपुरी लोभानी ।' गी० १.४.६ लोमाने : भूक००ब० । लुब्ध हुए । 'एतेहु पर रुचि रूप लोभाने ।' कृ० ३८ लोभामरष : (लोभ+अमर्ष) लोभ तथा क्रोध । मा० ७.३८.२ लोभारे : वि०पू०ब० (सं० लोभकारक>प्रा० लोभारय) । लुभावने । 'नख सिख ____ अंग लोभारे ।' गी० १.६१.२ लोभिहि : लोभी को । 'लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।' मा० ७.१३० ख लोभी : वि०पु० (सं० लोभिन्) । लालची। मा० १.२६७.३ लोभु : लोभ+कए । मा० १.४८ ख लोभे : लोभाने । 'नव सुमन माल सुगंध लोभे मंजु गुंजत मधुकरा ।' गी० ७.१६.३ लोम : रोम (सं.)। विन० २८.१ लोमस : सं०पू० (सं० लोमश) । एक ऋषि जो अमर माने गये हैं । मा० ७.११० लोयन : लोचन (प्रा० लोयण)। 'लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा ।' मा० २.८६.३ लोयनन, नि, न्ह, न्हि : लोयन+संब० । नेत्रों (को) । 'ब्रह्मानंद हृदय, दरस-सुख लोयननि ।' गी० १.६१.४ लोल : वि.पु. (सं.)। (१) चञ्चल । 'राजत लोचन लोल ।' मा० १.२५.८ (२) लोलुप, लालची । भागु भागो लोभ लोल को।' कवि० ७.१५ For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 969 लोलदिनेस : (दे० दिनेस) । लोलार्क (काशी में एक कुण्ड तीर्थ) । विन० २२.४ लोला : लोल । मा० १.२४३.४ ।। लोलुप : वि० (सं०-लोलपीति इति लोलुपः)। हड़प जाने वाला, लुप्त करने का अतिशय इच्छुक; किसी प्रकार से वस्तु प्राप्त करने का अभिलाषी। मा० १.२६७.३ लोलुपचारा : वि० (सं० लोलुपचार) । लोलुप आचरण करने वाला; हड़प जाने __ के लिए तत्पर । 'लोभी लंपट लोलुपचारा।' मा० २.१६८.३ लोलुपता : सं० स्त्री० (सं०) । हड़प लेने की प्रवृत्ति । 'इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।' मा० ७.१०२.७ लोवा : सं०० (सं० लोपाक >प्रा० लोवाअ =सियार) । लोमड़ी। 'लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा ।' मा० १.३०३.५ लोह : (क) सं०० (सं.)। (१) धातुविशेष । मा० २.१७६ (२) आयुध (लोहायुध)। (३) युद्ध । 'सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।' मा० २.१६०.२ (ख) (सं० लोभ>प्रा. लोह) । लालच । 'तब तें बेसाह्यो दाम लोह कोह काम को।' कवि० ७.७० लोहा : लोह । लोहारिनि : सं०स्त्री० (सं० लोहकारिणी>प्रा० लोहारिणी)। लोहार जाति की ___स्त्री। रा०न० ५ लोहित : (१) वि० (सं०) । अरुणवर्ण, लाल । 'लोहित ललित लघु चरन कमल चारु ।' गी० १.१०.३ (२) सं०० (सं.)। मङ्गल ग्रह । लोहितपुर : मङ्गल ग्रह के नगर; मङ्गल-ग्रह-पिण्ड । 'प्रति मंदिर कलसनि पर भ्राजहिं मनिगन दुति अपनी । मानहुं प्रगटि बिपुल लोहितपुर पठइ दिये अवनी।' गी० ७.२०.३ लोहू : सं०० (सं० लोहित)। रक्त, रुधिर, खन । कवि० ६.४६ लोहे : लोह । आयुधों से, युद्ध में । 'लोहे ललकारि लरे हैं ।' गी० ६.१३.१ । लौं : अव्यय'। तक, पर्यन्त । 'सुत मानहिं मातु पिता तब लौं । अबलानन दीख ___ नहीं जब लौं ।' मा० ७.१०१.४ लौ : लय+कए । ध्यान, चाह, भाव, प्रेम । 'मिलहिं न राम कपट लो लाये।' विन० १२६.५ लौका : सं०पुं० (सं० अलाबुक) । लौकी का फल (तूंबा)। 'लोह ले लोका तिरा ।' मा० २.२५१ छं० लौकिक : वि० (सं० लोके विहितो हितः प्रसिद्धो वा लोकिक:) । (१) लोक में प्रचलित । (२) लोकविहित । (३) लोक हित कर । 'तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ।' मा० २.८७.८ 'करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।' मा० १.२२०.१ For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 970 तुलसी शब्द-कोश ल्याइ : पू० (लेइ+आइ)। ले आकर, लिवा कर, साथ लेकर। 'सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ के।' मा० १.३२६ छं. ४ ल्याई : (लेइ+आई) लेकर आईं, साथ लाई । 'सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ।' ____ मा० १.३२४.३ ल्याए : (लेइ+आए) लेकर आये, साथ लाये । 'मंगल सकल साजि सब ल्याए।' मा० १.३१३.२ ल्यायो : (लेइ-+आयो)। लेकर आया। 'अचल ल्यायो चलि के ।' कवि० ६.५५ 'अस कहि लछिमन कहुं कपि ल्यायो ।' मा० ६.८४.५ ल्यावौं : (लेइ+आवौं) ले आऊँ, साथ लेकर आऊँ। 'जो लौं हौं ल्यावौं रघुबीरहि ।' गी० ५.१४.१ चंदारु : वि० (सं०) । वन्दनाशील, प्रणतिशील । विन० ५४.६ वंदित : वन्दित । विन० ४६.५ वंदिनि : वि०स्त्री० । वन्दनीया, प्रणम्या। 'नर नाग असुर वंदिनि ।' विन० १७.१ वंदे : वन्दे । विन० १०.३ वंद्य : वि० (सं०) । वन्दनीय, स्तुत्य, प्रणम्य । विन० १२.२ वंश : सं०० (सं०) । (१) कुल । मा० ३.४ छं० (२) वेणु, बाँस । वंशाटवी : (वंश+अटवी) । कुल रूपी वेणु का वन । 'कसं वंशाटवी धूमकेतू ।' विन०५२.७ वक्र : वि० (सं.) । (१) तिरछा । 'वक्र अवलोक ।' विनः ५१.३ (२) कुटिल । मा० १ श्लोक ३ वचन : सं०० (सं.)। कथन, उक्ति । विन० ३८.३ वचांसि : (सं०) सं०ब० । वचन । 'न अन्यथा वचांसि मे।' मा० ७.१२२ ग । वन : सं०० (सं.)। (१) इन्द्र का आयध विशेष । विन० ४६.७ (२) हीरा । 'द्विज वज्र दुति ।' विन० ५१.३ (३) मेघ की बिजली। (४) लोह । (५) वि० । सुदृढ, लोहतल्य कठोर । 'वज्र तनु (वज्राङ्गहनुमान जी)।' विन० २५.७) For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 971 बज्रसार : वि० (सं.)। वज तुल्य सुदृढ । 'वचसार सर्वाङ्ग।' विन० २६.३ बत : प्रत्यय (सं० वत्) । समान, तुल्य । 'कलहंस वत ।' विन० ६१.६ । वत्सल : वि.पु. (सं०) । पाल्य के प्रति कृपापूर्ण स्नेहशील । मा० ३.४ छं० वद : आ०-आज्ञा- मए० (सं.)। तू कह । 'वद वेदसारं। विन० ४६.१ वदति : आ.प्रए० (सं.)। कहता है । 'इति वदति तुलसीदास ।' विन० ४५.५ वदन : सं०० (सं.) । मुख । विन० ११.४ वदामि : आ० उए० (सं.)। कहता हूं । मा० ५ श्लोक २ वद्रिकाश्रम : सं०० (सं० वदरिकाश्रम)। हिमालय स्थित वदरी (बेर) के वन ____ में नर-नारायण की तपोभूमि । विन० ६०.५ वध : सं०० (सं०) । मार डालना । मा० ६ श्लोक १ वधू : (दे० बधू) । विन० ४३.३ वन : सं०पू० (सं.)। (१) जंगल । मा० ५ श्लोक ३ (२) जल । वनचर : वि०+सं०पु० (सं.)। (१) काननचारी (दे० बनचर)। (२) जलचारी । (३) मत्स्य । वनचरध्वज : जलचरध्वज = मीनध्वज, मीन केतन = कामदेव । विन० ५४.६ वनज : जलज । कमल, पद्म । वनजनाम : पद्मनाभ =विष्णु । विन० ५४.६ वनद : जलद । मेघ । वनवाम : जलदाभ-मेघाभ =मेघसदश । विन० ५४.६ वनमाल, ला : (दे० बनमाला) । विन० ५१.५ वन्दित : वि० (सं.)। प्रणाम किया हुआ, स्तुत । मा० ७ श्लोक २ वन्दे : आ०उए० (सं०) । प्रणाम करता हूं। मा० १ श्लोक १ वपु : बपु । विन० ४६.४ वपुष : वपु । विन० २५.३ वमन : वि०पू० । उगलने वाला । विन० ३८.१ वयं : सर्वनाम (सं०) । हम । विन० ६०.७ वर : वि० (सं०) । (१) श्रेष्ठ । विन० १०.३ (२) वरण किया हुआ=पति । 'शैलकन्यावरं। विन० १२.१ (३) प्रार्थित वस्तु=वरदान । (४) अपेक्षा में उत्तम। वरक : वि० (सं०) । वर देने वाला, अभीष्ट-दाता । विन० २६.६ वराक : वि० (सं.)। बेचारः, दीन, तुच्छ। वराका : वराक+ब० (सं० वराका:) । बेचारे । 'के वराका वयं विगत-सारा।' विन० ६०.७ वरुण : सं०० (सं.)। जल के अधिदेव । विन० १०.६ For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 972 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश (१) रथ के वरूथ : सं०पु० (सं०) । रखने का गुप्त स्थान ( २ ) कवच | (३) आवास । ( ४ ) रक्षा साधन । 'त्रातु सदा नो कृपा वरूथ: ।' मा० ३.११.१० (५) समूह । 'निशिचर करि वरूथ मृगराज: । मा० ३.११.६ वर्ण : सं०पु० (सं० ) । अक्षर । मा० १ श्लोक १ ( अन्य अर्थों के लिए दे० बरन ) वर्णाश्रम : ( वर्ण + आश्रम ) वर्णचतुष्टय = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; आश्रमचतुष्टय = ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास । विन० ४४.८ वत: वि०पु० (सं० वर्तिन् ) । विद्यमान । मा० १ श्लोक ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ता : सं० स्त्री० (सं०) बाती । बत्ती ( दीपदशा) । विन० ४७.४ वर्म : सं०पु० (सं०) कवच । मा० ३.११.१६ विन० १६.२ वर्य : वि० (सं० ) । वरणीय, वरेण्य, श्रेष्ठ । विन० ६०.४ वल्लभ : सं० + वि० (सं० ) । (१) पति । 'श्रुतिकीर्ति वल्लभ ।' विन० ४०.४ (२) प्रिय, प्रीतिकर, इष्ट । 'ब्रह्मकुल - वल्लभं ।' विन० १२.३ ' भजामि भाव - वल्लभं । मा० ३.४ छं० वल्लि, ली : सं० स्त्री० (सं० ) । बेल=लता । विन० ५१.६ वश : वि० सं० (सं०) । (१) अधीन । मा० १ श्लोक ६ (२) अधीनता । विन० २५.५ वस्तु: (सं०) आ०- - प्रार्थना - प्रए० । निवास करे । 'वसतु मनसि मम काननाचारी | मा० ३.११.१८ वसन: सं०पु० (सं० ) । वस्त्र । विन० ३८.२ ससि : आ०म० (सं० ) । तू निवास करती है ( करता है) । 'ईस सीस वससि ।' विन० २०.१ सु: सं०पु० (सं० ) । अष्ट देवविशेष ( ध्रुव, आप, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास ) । विन० १०.६ (दे० बसु ) वस्त्र : सं०पु० (सं०) । परिधान । विन० ५०.२ वह : सर्वनाम (सं० असो> प्रा० अहो > अ० ओह ) । ' वह सोभा कहत न बनइ खगेस ।' मा० ७.१२ क वहसि : आ०म० (सं० ) । तू प्रवाहशील है, तू प्रवाह में ले चलती है । 'विमल विपुल वारिवहसि ।' विन० १७.२ वहित्र : सं०पु० (सं०) । पोत, नौका, जहाज । विन० ५०.६ वा: (१) सर्वनाम | उस । 'वा मुरली पर वारौं ।' कृ० ३३ (२) अव्यय (सं० ) । अथवा | 'पुरुष नपुंसक नारि वा । मा० ७.८७ क ( ३ ) और । 'तिन्ह के सम बैभव वा बिपदा ।' मा० ७.१४.१३ वागीश : वि० + सं० (सं० ) । (१) वाणी का स्वामी । (२) बृहस्पति । (३) परमेश्वर । विन० ५४.१ For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 973 वागीशा : सं० स्त्री० (सं०) । सरस्वती, वाणी (दे० बागीसा) । वाचक : सं०० (सं०) । शब्द । 'वाच्य-वाचक रूप ।' विन० ५३ ७ पाच्य : सं०० (सं.) । कथ्य, अर्थ (वाचक की अपेक्षा में) अभिधेय । विन ५३.७ वाणी : (दे० बानी) (१) वाक्शक्ति । विन० २६.५ (२) सरस्वती देवी। मा० १ श्लोक १ वात : सं०० (सं.)। वायु । विन० २८.१ वातजात : वायु पुत्र हनुमान । मा० ५ श्लोक ३ वादी : वि.पु. (सं० वादिन)। (१) कहने वाला (२) व्याख्याता । (३) सिद्धान्तविशेष (वाद) का मानने वाला । 'ब्रह्म वादी।' विन० ५४.४ वानर : (बानर)। मा० ५ श्लोक ३ बानीर : सं०० (सं०) । बेत, वेत्रलता । 'हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीर पर।' विन० १८.४ वाम : वि० (सं०) दे० बाम । बायां । विन० ५१.७; मा० २ श्लोक ३ वामदेव : सं०० (सं०) । (१) शिव । विन० १२.१ (२) शिवावतार हनुमान् । विन० २८.५ वामन : वि० सं०० (सं०) । (१) खर्व, बौना (२) भगवान् का अवतार विशेष । विन० ४६.३ वामा : (दे० बामा) । सुन्दरी, कमनीया। विन० १५.३ वारहि, ही : आ०प्रब० (सं० अवतारयन्ति =वतारयन्ति>प्रा० वारंति>अ० वारहिं) । नेवछावर उतारते-ती हैं । 'मनि बसन भूषन भूरि वारहिं ।' मा० १.३१८ छं० 'सखी सुमित्रा वारहीं मनि भूषन बसन बिभाग ।' गी० १.२२.१० वारांनिधि : सं०० (सं०) । समुद्र । वारानिधे : वारांनिधि+सम्बोधन । हे समुद्र । विन० ४४.६ चारि : (१) (दे० बारि) । जल । विन० १०.३ (२) कृ० (सं० वतारयित्वा >प्रा० वारिअ>अ० वारि) । नेवछावर उतारकर । 'मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं ।' मा० १.३२७ छं० १ । वारिहिं : आ०प्रब०कवा० (सं० वतार्यन्ते>प्रा. वारीअंति>अ० वारीअहिं)। नेवछावर किये जाते हैं-किये जायें, किये जा सकते हैं। 'अंग अंग पर वारिहिं कोटि कोटि सत काम ।' मा० १.२२० वारिए : आ०कवा०प्रए० (सं० वतार्यते>प्रा. वारीअइ) । नेवछावर कीजिए। 'कौसिला की कोखि पर तोषि तन वारिए री।' कवि० १.१२ वारिचर : सं०० (सं.)। (१) जलजन्तु (२) मत्स्य (३) मत्स्यावतार भगवान् । विन० ५२.२ For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 974. तलसो शब्द-कोश वारिज : सं०० (सं.) । कमल । विन० २६.४ वारिद : सं०० (सं.)। मेघ। वारिदाम : (वारिद+आभ) मेघ तुल्य । विन० ५०.२ वारिधर : सं०० (सं०) । मेध । विन० ५१.२ वारिधि : सं०० (सं.) । समुद्र । विन० २५.३ वारियहि : वारिअहिं । 'कुटिल सत कोटि मेरे रोम पर वारियहिं ।' विन० २०८.३ वारी : भूक० स्त्री० । नेवछावर उतार डाली। 'काम कोटि सोभा अंग अंग पर वारी।' गी० १.२५.१ वारीश : सं०० (सं.) । समुद्र । विन० १५.४ वारीशकन्या : लक्ष्मी जी। विन० ६१.७ वारु : आ० -आज्ञा-मए० (सं० वतारय>प्रा० वारहि>अ० वारु)। तू नेवछावर उतार । 'सुभग उर दधिबद सुदर लखि अपनपी वारु ।' कृ० १४ । वारौं : आ० उए० (सं० वतारयामि>प्रा० वारमि>अ० वारउँ) । नेवछावर उतार डालू। 'जोग जुगुति अरु मुकुति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं।' कृ० ३३ वालधि : (दे० बालधी)। पूछ । विन० २६.३ वालि : (दे० बालि) । सुग्रीव का अग्रज । विन० २५.४ वास : (बास) निवास । मा० २ श्लोक २ वासना : (दे० बासना) । (१) इच्छा । (२) विषय-लालसा । 'वासना-वृद कैरव दिवाकर ।' विन० ४६ (३) संस्कार । 'बिपुल-भव-वासना-बीज-हारी।' विन० ४७.३ (४) श्रद्धा, निष्ठावृत्ति । 'अचर चर रूप हरि'' इति वासना धूप दीजै ।' विन० ४७.२ वासी : विपु० (सं० वासिन्) । निवासी । विन० ४४.२ विध्याद्रि : संपु० (सं.)। विन्ध्य पर्वत (विन्ध्य+अद्रि) । विन० ४३.४ विकट : (दे० बिकट)। विन० १२.३ विकटतर : (दे० तर) । अतिविकट । विन० ६०.७ विकराल : वि० (सं.)। अत्यन्त भयानक । विन० २६.३ विकल : वि० (सं.)। (१) कलारहित, अंश-हीन । (२) आतं, व्याकुल । विन० ४३.१ विकलता : सं०स्त्री० (सं०) । व्याकुलता । विन० ५५.७ विकार : (दे० बिकार)। (१) दोष, क्षत, व्याधि आदि । 'भोगौघ वृश्चिक विकारं ।' विन० ५६.६ (२) विवर्त= वस्तु का अतात्त्विक परिवर्तन । 'वीथी विकार।' विन० ५८.३ विकासी : वि०० (सं० विकासिन्) । विकसित करने वाला । विन० २६.४ For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 975 'विक्रम : सं०० (सं.)। (१) विशेष चरण-विक्षेप (गति) । (२) अभियान शक्ति । (३) पराक्रम, उत्साह शक्ति । 'मगराज विक्रम ।' विन० २६.१ विख्यात : वि० (सं०) । कीर्तिशाली, प्रसिद्ध । विन० २५.६ विगत : वि० (सं०) । (१) व्यतीत । (२) रहित । विन० २५.५ 'विगतसार, रा : सारहीन । विन० ६०.७ । विग्रह : (दे० बिग्रह)। (१) युद्ध, वैर। (२) देवप्रतिमा=अर्चावतार । (३) शरीर । 'कंब-कुंदेन्दु-कपूर-विग्रह रुचिर ।' विन० १०२ (४) स्वरूप । ____ बिशुद्ध-बोध-विग्रहं ।' मा० ३.४.१० 'विघटन : सं०० (सं.)। अंशों में बिखराव लाना (संघटन का विलोम); विदारण, विच्छेदन । विन० २५.८ 'विचित्र : वि० (सं.)। (१) विविध वर्णों वाला, रंगबिरंगा । (२) विविध आश्चर्यों से पूर्ण । (३) विलक्षण, चमत्कारी । 'मौलि-मालेव शोभा विचित्रं ।' विन० ११.३ विच्छेद : सं०० (सं०) । खण्डन, कर्तन (काटना) । विन० ५७.७ विजय : सं००+ स्त्री० (सं० विजयः) । जय, सर्वोपरि उत्कर्ष । विन० २५.६ विज्ञान : सं०० (सं.)। (१) शिल्ल तथा शास्त्र के द्वारा प्राप्त ज्ञान । (२) विज्ञानमय कोश =ज्ञानेन्द्रिय+बुद्धि। (३) विवेक= सत् तथा असत् तत्त्वों को विविक्त बोध । (४) ब्रह्मज्ञान (माया तथा ब्रह्म का विवेक) । (५) स्वानुभति, परप्रत्यक्ष, अतीन्द्रिय स्वरूप बोध । विन० १०.४ विडंबित : वि० (सं.) । तिरोहित, अवच्छादित, अवमानित । 'जनु विडंबितकारी विश्व-बाधा ।' विन० ४३.५ वितर्क : सं०० (सं०) । वाद-विवाद का तर्क, कल्पना, संशय, अनुमान । मा० ३.४.७ विद : वि० (सं.)। ज्ञाता । 'वेदांत-विद.. वेदांगविद ।' विन० २६.८ विदित : वि० (सं०) । विख्यात, प्रसिद्ध । विद्या : (दे० बिद्या)। (१) ज्ञान । (२) तत्त्व बोध । (३) शास्त्राभ्यास । (४) आत्मज्ञान । 'विविध विद्या विशद ।' विन० २६.८ शास्त्र आदि, कला, कौशल । 'प्रणत जन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण ।' विन० ५१.८ विद्युत् : संस्त्री० (सं.)। बिजली । विन० १०.३ विद्युल्लता : लता तुल्य बिजली की लम्बी रेखा । विन० २८.१ विद्राविणी : वि.स्त्री० (सं.) । खदेड़ देने वाली, दूर करने वाली। 'अघ वृद विद्राविणी।' विन० १८.१ विधाता : वि०+सं० (सं.)। (१) विधायक, निर्माता। (२) ब्रह्मा। (३) विश्व का धारणकर्ता तथा सष्टा=परमेश्वर । विन० ११.८ For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 976 तुलसी शब्द-कोशः विधायी : विधाता (सं० विधायिन्) । कर्ता, रचयिता । 'ऋक्ष-कपि-कटक-संघट.. विधायी। विन० २५.६ विधि : (दे० बिधि) । ब्रह्मा, विधाता। विन० १२.२ विधु : सं०पु० (सं०) । चन्द्रमा । मा० २ श्लोक १ विधौ : (सं०) विधि में, करने में । मा० ३ श्लोक १ विध्वंस : सं०पु० (सं.)। विनाश । विन० ४६.७ विना : अव्यय (सं०) । रहित । मा० १ श्लोक २ विनायक : सं०० (सं०) । गणेश जी । मा० १ श्लोक १ विनिश्चित : वि० (सं०) । अत्यन्त निश्चित, सुनिश्चित । मा० ७.१२२ ग विपिन : सं०० (सं.) । वन । विन० २५.५ विपुल : वि० (सं०) । अधिक, प्रचुर, पुष्कल, पर्याप्त, अतिशय । मा० ३.११.१५; विन० ११.२ विप्र : (१) (दे० बिप्र०) । विन० २५.३ (२) भृगुमुनि (के अर्थ में) । मा० ४ श्लोक १ विबुध : (दे० बिबुध) । विन० १७.१ विभंजन : वि०पु० । ध्वंसकर्ता, विनाशक । मा० ३.११.१५ विभाति : आ.प्रए० (सं०) । सुशोभित है । मा० २ श्लोक १ विभासि : आ०मए० (सं०) । तू सुशोभित है । विन० १७.१ विभीषण : (दे० बिभीषन)। विभु : (दे० बिभु) । व्यापक, सर्वगत । विन० १२.३ विभूषण : (दे० बिभूषन) । अलंकार । मा० २ श्लोक १ विभो : विभु+सम्बोधन (सं.)। हे प्रभु, हे अन्तर्यामिन् । विन० १०.६ विमल : वि० (सं.)। निर्मल, स्वच्छ । विन० ११.६ विमलतर : (दे० तर) । अति निर्मल । विन० १६.२ विमुख : (दे० बिमुख) । रुचिहीन (पराङ मुख) । विन० १०.८ विरज : वि० (सं० विरजस्)। (१) रजोगुण रहित, निष्कलुष । 'जदपि विरज व्यापक अविनाशी।' मा० ३.११.१७ (२) धूलि रहित=निर्मल । 'विरज वर वारि।' विन० १८.२ विरति : सं०स्त्री० (सं.)। विराग (रति का विलोम), अनासक्ति, विषय वैराग्य । विन० ६०.८ विरह : सं०० (सं.)। (१) अभाव (२) वियोग । विन० २७.४ विरागी : विपु० (सं० विरागिन्) । रागहीन, स्वभाव से ही विरक्त, विषय पराड मुख; अनासक्त, निष्काम । विन० २६.२ For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 977 तुलसी शब्द-कोश विराज : (बिराजइ) । शोभित है। 'व्याल न कपाल माला विराज । विन० १०.२ विराधा : (बिराध) राक्षसविशेष । विन० ४३.५ विरुदावली : (दे० बिरुदावली) कीर्ति गान समूह । विन० २५.६ विलसित : वि० (सं.) । सुशोभित, दीप्त । मा० ७ श्लो० १ विवर्धन : वि०पू० । बढ़ाने वाला । विन० ५५.५ विवश : (दे० बिबस) । परतन्त्र, स्वेच्छारहित । विन० ४३.६ विविक्त : (१) वि० (सं.)। पृथक् किया हुआ, अलग करके जाना हुआ। (२) एकान्त । मा० ३.४.८ विविध : (दे० बिबिध) अनेक-प्रकारक । विविध विद्या विशद ।' विन० २६.८ विवेक : (दे० बिबेक) । (१) सत् और असत् का अन्तर करने वाली बुद्धि । (२) जड़-चेतन का अन्त र करने वाली बुद्धि । मा० ३ श्लो०१ विशद : वि० (सं.)। (१) निर्मल, स्वच्छ । 'मध्य धारा विशद ।' विन० १८.४ (२) कुशल, निपुण, स्पष्ट । 'विविध विद्या विशद ।' विन० २६.८ विशाल : (दे० बिसाल) । मा० ७.१०८.७ विशिख : (दे० बिसिख) । विन० ५०.१ विशुद्ध : वि० (सं.)। अत्यन्त शुद्ध, नितान्त निर्मल । विविक्त । विन० ५३.२; मा० १ श्लो०४ विश्राम : सं०० (सं.)। (१) चित्त की शान्त दशा, निरुद्ध चित्तदशा । विन० ४६.६ (२) सुख-स्थिति । 'शान्ति पयंक शुभ शयन विश्राम श्रीराम राया।' विन० ४७.५ (३) आधार, अधिष्ठान, परम धाम । 'विश्व विश्राम ।' विन० ५१.१ (४) मोक्ष, परमपुरुषार्थ । 'सर्व सुख धाम गुण ग्राम विश्राम-पद ।' विन० ५३.२ विश्व : सं०० (सं.)। जगत्प्रपञ्च (जिसे रामानुज मत से ब्रह्म का ही अंश माना गया है) । 'विश्व भवदंश संभव पुरारी।' विन० १०.६ विश्वत : वि० (सं० विश्वधृत) । विश्व का आधार । विन० ६१.८ विश्वायतन : विश्व जिसका आयतन (कलेवर) है; विश्वरूप, परमेश्वर (दे० विश्व) । विन० ५४.१ विश्वास : (दे० बिस्वास) निश्चय-बोध, निष्ठा, श्रद्धा । मा० १ श्लो० २; विन० विषम : वि० (सं.)। (१) उच्चावच । (२) अनेक रूप (सम का विलोम) । 'निर्गुण सगुण विषम-सम-रूपं ।' मा० ३.११.११ (३) दुरूह, दुर्बोध । विन० ५८.८ For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 978 तुलसी शब्द-कोश विषमता : सं०स्त्री० (सं.)। दुरूहता, समत्वरहित दशा । द्वैत । विन० ५५.२ विषय : (दे० बिषय) । भोग्य पदार्थ । 'विषय रस निरस ।' विन० ३८.४ विषाद : (दे० बिषाद) अवसाद, श्रान्ति, थकान, ग्लानि, मानसिक शून्यता । मा० ३.११.६ विष्ण : सं.पु. (सं०) । सर्वव्यापी देवविशेष=परमात्मा का सात्त्विक रूपान्तर । विन० १२.२ विष्णो : विष्णु+सम्बोधन (सं.)। विन० ५४.३ विस्तार : सं०पू० (सं.)। प्रसार, फैलाव, व्याप्ति । विन० ११.२ विहग : (दे० बिहग) पक्षी । विहगराज : गरुड़ । विन० ५५.५ विहगेश : गरुड़ । विन० २६.३ विहारी : वि.पु. (सं० विहारिन्) । विहार करने वाला । (१) विचरण करने वाला । 'पुण्य-कानन-विहारी।' विन० ४३.४ (२) विनोद करने वाला । 'आनंद वीथी-विहारी।' विन० ४६.८ विहित : (दे० बिहित)। (१) किया हुआ। (२) शास्त्रीय विधान द्वारा पुष्ट । वीचि, ची : सं०स्त्री० (सं०) । तरङ्ग, लहर । विन० ५८.३; मा० ३.४ छं. वीर : (दे० बीर)। शूर, युद्धोत्साह सम्पन्न । विन० ३६.३ (२) काव्य-रस विशेष=दानवीर, दयावीर, धर्मवीर, युद्धवीर (सामान्यतया उत्साहीमात्र का अर्थ संगत है)। वृद : सं०० (सं०) । समूह । विन० १५.४; मा० ४ श्लो० १ दारका : सं०० (सं० वन्दारक) । देव । विन० १२.२ वृक : सं०० (सं.)। भेडिया हिंसक वन्य जन्तुविशेष । विन० ५९.४ वृजिन : सं०० (सं.)। पातक, पाप । विन० ६१.८ वृत्ति : सं०स्त्री० (सं०) । (१) चित्त व्यापार; विषयमुखी चित्तगति । 'प्रौढ अभिमान चितवृत्ति छीज ।' विन ० ४७.२ (यहां चित्त की अभिमानग्रन्थि का अर्थ है जो विषयाभिमान से बनती है) । (२) त्रिगुण-जनित चित्तदशाएंसात्त्विकवृत्ति सुख; राजसवृत्ति =दुःख ; तामसवृत्ति =मोह। 'गुण-वृत्ति हर्ता ।' विन०४६.७ वृत्र : संपु० (सं०) । त्वष्टा मुनि का पुत्र असुर विशेष जिसे इन्द्र ने मारा था। विन० ५७.३ वृश्चिक : सं०० (सं०) । बीछू । विन० ५६.६ वृषभ : सं०० (सं०) । बैल । विन० १०.४ वृष्णि : सं०पु० (सं०) । यदुवंश का शाखा-पुरुष जिसके नाम से वृष्णि-वंश कहा जाता है और कृष्ण को वार्ष्णेय कहते हैं । विन० ५२.७ For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश वेग : सं०पु० (सं० ) । गतिसधर्मा गुणविशेष, गति की तीव्रता, शीघ्रता । विन० २६.३ वेताल : (दे० बेताल ) । विन० १६.२ वेद : (दे० बेद) । (१) श्रुतिग्रन्थ- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद् तथा वेदाङ्ग । (२) ज्ञान । विन० १२.३ वैवस्वरूप : (१) ज्ञानरूप, (२) वेदमन्त्ररूप, (३) ओंकार स्वरूप | मा० ७.१०८ ० १ वेदांग : सं०पु० (सं० ) । वेदों के छह अङ्ग जिनके द्वारा वेदों की व्याख्या संभव होती है - शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष । विन० २६.८ वेदांत : सं०पु० (सं० ) । वेदों का अन्त ( चरम ) भाग = उपनिषद् ( तथा गीता और ब्रह्मसूत्र ) । ब्रह्म ज्ञान का शास्त्र, ब्रह्मविद्या । विन० २६.८ मा० ५ श्लो० १ वैद्य : वि० (सं० ) । ज्ञेय, प्रमेय, ज्ञातव्य, जानने योग्य । मा० ५ श्लो० १ वेश : सं०पु० (सं०) । (१) स्त्रियों ( वेश्याओं की ) व्यापारिक सज्जा या शृंगार रचना | 'दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी ।' विन० ४३.५ (२) वेष | 'सुभग सर्वांग वेश ।' विन० ६१.६ 979 वेष : (दे० बेष) बनाव, परिधानादि-सज्जा । विन० १२.३ I वै: सर्वनाम ( वह + ब० ) । वे । 'कहाँ ते आए व हैं ।' गी० ६.१७.१ वैकु ंठ : सं०पु ं० (सं०) । (१) विष्णु ! विन० ५३.८ ( २ ) वागीश वैकुंठ स्वामी ।' विन० ५५.५ संदर्भ : सं० + वि०स्त्री० (सं० वैदर्भी) । विदर्भ देश के राजा की पुत्री = रुक्मिणी ( कृष्ण की पटरानी ) । विन० ५७.६ वैदेहि : (दे० बंदेही) । सीता । विन० ४३.६ वैनतेय : (दे० बैनतेय ) । विनता ( कश्यप - पत्नी) के पुत्र = गरुड़ । विन० ५०.१ वैभव : सं०० (सं० ) । विभूति, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, समृद्धि । मा० ३.४ छं० ; विन० For Private and Personal Use Only विष्णु लोक । 'विमल २६.२ वैराग्य : सं०पु० (सं०) । (१) विरक्ति, विषय-निरीहता, वितृष्णा । मा० ३ श्लो० १ (२) योग के दो साधनों - अभ्यास और वैराग्य - में एकतर जो विषय-वासना के प्रति चित्तवशीकारपूर्वक अनिच्छा का नाम है । विन० १०.८ रि, री : (दे० बेरी) शत्रु । मा० ३.४ छं० ; विन० २६.३ व्यक्त : (१) वि० (सं० ) । प्रकट । 'विग्रह - व्यक्त लीलावतारी ।' विन० ४३.१ (२) सं०पु० (सं० ) । अव्यक्त = = मूल प्रकृति के परिणामरूप २३ तत्त्व — महत्, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्र ( शब्द, रूप रस, गन्ध स्पर्श), पाँच महाभूत । विन० ५४ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 980 तुलसी शब्द-कोश व्यग्र : (१) (दे० ब्यग्र ) । ( २ ) संलग्न, तत्पर, तल्लीन । (३) संभ्रम-युक्त, हड़बड़ी से युक्त, त्वरित । व्यग्रचित : विo ( व्यग्रचित्त) । (१) संलग्न चित्त वाला । (२) त्वरित चित वाला | 'विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा ।' विन० ५७.५ व्याकरण: सं०पु० (सं० ) । वेदाङ्गविशेष = = शब्दशास्त्र, पदशास्त्र । विन० २८.५ याघ्र: सं०पु० (सं० ) । बाघ, चीता । विन० १०.४ व्याध : सं०पु० (सं० ) । व्यधन करने वाला; पशुपक्षियों की मृगया का व्यवसायी । विन० ५७.३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याधि : सं० स्त्री० (सं०पु० ) । रोग । विन० २८.४ व्यापक : वि० (सं० ) । पूर्ण, दूसरे की अपेक्षा अधिक विस्तार वाला (व्याप्य का विलोम ) । मा० ७.१०८.१ 'ब्रह्म व्यापक अकल ।' विन० ४६.७ व्याप्य : (दे० ब्याप्य) व्यापक तत्त्व की अपेक्षा अल्प विस्तार वाला । व्याल : सं०पु० (सं० ) । सर्प । विन० १०.२; मा० ६ श्लो० २ 1 व्यालाराट् : सं०पु० (सं०) । ( १ ) शेषनाग । ( २ ) विशाल सर्प । मा० २ श्लो० १ व्यालसूदन : सर्पों का नाशक = गरुड़ । विन० २८.३ व्यालारि : सर्प शत्रु = गरुड़ । विन० ५४.१ व्योम : सं०पु० (सं० ) । आकाश । विन० ५३.८ व्रजन्ति : आ०प्र० (सं० ) । प्राप्त करते हैं । मा० ३.४ छं० व्रत : (दे० व्रत ) । विन० २६.६ व्रती : वि०पु० (सं० व्रतिन् ) । व्रत वाला, प्रतिज्ञारत, दृढ संकल्प । विन० २६.२ व्रात: सं०पु० (सं० ) । समूह | 'दुखद मृग व्रात उत्पात कर्ता ।' विन० ५१.५ श शं : अव्यय ( सं ० ) । कल्याण | मा० ६ श्लो० ३; ३.११.१६ शंकर : सं०पु० (सं० ) । कल्याणकारी = शिव मा० ७.१०८.८ शंका : (दे० संका) । विन० २५.५ शंख : (दे० संख) । मा० ६ श्लो० २ शंप्रद : (दे० प्रद) कल्याण-दायक । विन० १२.१ शंभु : सं०पु० (सं० ) । शङ्कर । शिव । मा० ७.१०८.१५ For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 981 शंभो : शंभु+सम्बोधन (सं०) । हे शंकर । मा० ७.१०८.१६ शक्ति : (दे० सक्ति, सकति) । विन० ५५.२ शक्र : संपु० (सं०)। इन्द्र । विन० २५.२ शची : सं०स्त्री० (सं.)। इन्द्राणी । मा० ३.४.१२ शठ : (दे० सठ)। विन० ४६.१ शत : संख्या (सं.)। सौ, सैकड़ा । विन० ११.२ शतपत्र : सं०० (सं.)। कमल । विन० ६१.२ शत्रु : सं०+वि० (सं.)। (शातनकर्ता)। वैरी । विन० १०.४ शत्रुघ्न : सं०० (सं०) । कनिष्ठ दशरथ पुत्र । विन० ४४.६ शत्रुसूदन : शत्रुघ्न (सं.)। विन० ३८.२ शत्रुहन : शत्रुघ्न । विन० ४०.१ शबरी : (दे० सबरी)। विन० ४३.६ शब्द ब्रह्म : सं०० (सं०) । (१) शब्दरूप ब्रह्म । (२) परा वाणी जो क्रमश: पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी का रूप लेती है। (३) वेद । (४) ओंकार । (५) स्फोट शब्द जो आन्तरिक होता है और जिससे ही अर्थ-बोध संभव होता शब्दब्रह्म कपर : (शब्दब्रह्म+एकपर) । वि.पु. (सं.)। एकमात्र शब्दब्रह्म में तत्पर । ब्रह्मलीन, ओंकारादि में तत्पर । शब्दब्रह्म में निष्णात एवं उसके एकमात्र ज्ञाता । विन० ५७.४ शब्दादि : (दे० महदादि) राजस और तामस अहंकार से उत्पन्न पांच सूक्ष्मभूत या तन्मात्र-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध जिनसे महाभूत परिणत होते हैं-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी। 'प्रकृति, महतत्त्व, शब्दादि, गुण, देवता, व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु, उर्छ ।' विन० ५४.२ शम : (दे० सम) । विन० ४४.८ शमन : वि० (सं०) । शान्त करने वाला । मा० ६ श्लोक २ शयन : सं०पू० (सं.) । शय्या, विश्राम । 'नील पर्यंक कृत शयन ।' विन० १८.४ शर : सं०० (सं०) । बाण । मा० ३.११.४ शरण : सं०० (सं०) । रक्षक, आश्रय । विन० १०.६ शरणागत : (शरण+आगत) शरण आया हुआ; रक्षा हेतु (आश्रय पाने) आया हुआ । प्रत्पन्न । विन० ५६.५ शरासन : (दे० सरासन) । मा० ३ श्लोक २ । शरीर : सं०० (सं०) । देह, कलेवर । मा० ३.११.३ शर्म : सं०० (सं० शर्मन्) । कल्याण । विन० ६०.६ शर्व : सं०० (सं० -- शहिंसायाम्-संहारकर्ता)। शिव । मा० २ श्लोक १ For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 982 तुलसी शब्द-कोश शर्वरी : संस्त्री० (सं.)। रात्रि । शर्वरीश : (शर्वरी+ईश) रजनीश चन्द्रमा । विन० १६.१ शस्त्र : सं०० (सं०-शसन=हिंसन का साधन)। विन० २६.३ शशाङ्क : सं०० (सं०) । चन्द्रमा । मा० ६ श्लोक २ शशि : सं.पुं० (सं० शशिन्) । चन्द्रमा । मा० २ श्लोक १; विन० १०.१ शाकिनी : सं०स्त्री० (सं.)। (१) शाक का खेत । (२) शाक की देवी। (३) दुर्गा की सहचरी यक्षी देवीविशेष । विन० ११.६ । शाखी : सं०० (सं० शाखिन् = शाखासम्पन्न)। वृक्ष । विन० २७.४ शान्त : वि.पु. (सं.)। परमविश्राम-प्राप्त । अविचल, कूटस्थ, निर्विकार, नि:स्पन्द । मा० ५ श्लोक १ शान्तये : (सं.) शान्ति पाने के लिए; शमन हेतु । मा० ७.१३० श्लोक १ शान्ति : सं०स्त्री० (सं०) । अविचल भाल, निर्विकार स्थिति, परमविश्राम दशा,, ___ शमन । मा० ७.१०८.१४ शाप : सं०पू० (सं.)। प्रतिकूल आशंसा (वरदान का विलोम)। विन० ४३.३. शारदा : सं०स्त्री० (सं.)। वाणीदेवी, सरस्वती । विन० ११.६ शार्दूल : सं०० (सं.) । सिंह । मा० ६ श्लोक २ शालि : (१) सं०० (सं.)। धान । (२) (समासान्त में) वि.पु. (सं० शालिन्) । सम्पन्न, युक्त । 'बल-शालि ।' विन० २५.४ शाश्वत : वि० (सं०) । सनातन, अविनाशी, नित्य । मा० ५ श्लोक १ शिर : सं०० (सं० शिरस्) । शीर्ष । विन० १८.२ शिरसि : (सं.) सिर पर । विन० ११.२ शिव : सं०० (सं०)। (१) कल्याण । (२) शंकर । विन० १०.८ शिवकर : वि.पु. (सं०) । कल्याणकारी । मा० ७.१३० श्लोक २ शीतल : वि० (सं०)। ठंडा । विन० २७.४ शील : (दे० सील) । मा० ३.४.१ । शंभ : सं०० (सं०) । एक असुर जिसे दुर्गा ने मारा था। विन० १५.४ शुक : सं०० (सं०) । मुनि विशेष । विन० २६.८ शुद्ध : वि० (सं.) । निर्मल, स्वच्छ । विन० ३६.२ शुभ : वि०+संपु० (सं.)। कल्याण, कल्याणकर, दीप्त, शोभायक्त, उत्तम । विन० ४७.४; मा० ७.१३० श्लोक २ शूकर : (दे० सूकर) । विन ० ५६.४ शूल : (दे० सूल) । मा० ७.१०८.१० शूलधारिणि : सं+वि०स्त्री० (सं० शूलधारिणी)। त्रिशूल धारण करने वाली. =संहारिका शक्ति; शिव की आदिशक्ति, दुर्गा । विन० १५.१ For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 983 शूलपाणि : सं०+वि० (सं०) । त्रिशूलधारी= शंकर । मा० ७.१०८.१० शूलिन् : शूलपाणि (सं०) । 'शूलिनं मोहि तम भूरि भानुं ।' विन० १२.४ शृगार : (दे० सिंगार, सृगार) । विन० ४४.३ शेल : (सेल) आयुधविशेष । विन० १६.२ शेष : सं०० (सं.)। (१) बचा हुआ अंश । (२) शेषनाग। (३) प्रलयानन्तर भी जो बचा रहे परमेश्वर । विन० ११.६ शेल : सं०० (सं०) । शिला-समूह पर्वत । मा० ५ श्लोक ३ शैलात्मजा : शैलपुत्री पार्वती=उमा। विन० १०.२ शंलाम : (शैल+आभ) पर्वताकार, पर्वतसदृश । मा० ५ श्लोक ३ शोक : (दे० सोक) । विन० १०.१ शोकापह : (शोक+अपह) शोकनाशक । विन० ५१.३ शोच : (सोच) । विन० २५.५ . शोमा : सं०स्त्री० (सं.)। दीप्ति, कान्ति, कमनीयता, सुन्दरता । मा० ४ श्लोक १ शोभाढ्य : (शोभा+आढ्य) । शोभा का धनी, सौन्दर्य-सम्पन्न । मा० ७ श्लोक १ शोभित : वि० (सं.) । शोभायुक्त । विन० २५.६ श्याम : (दे० स्याम) । मा० ३.४.३ श्यामल : श्याम । मा०२ श्लोक ३ श्येन : सं०पू० (सं०) । बाज पक्षी। विन० ५९.३ श्रद्धा : सं०स्त्री० (सं.)। इच्छा, आस्था, निष्ठा, अविचल विश्वास, एकनिष्ठ चित्तवृत्ति । मा० ७.६०.४ श्रम : सं०० (सं.)। (१) खेद, थकावट । (२) प्रयास । मा० ७.१३ छं० ३ श्रमविद् : पसीने की बूदें। मा० १.२३३.३ श्रमसीकर : श्रमबिंदु (सं.)। कवि० २.१३ श्रमहारी : वि० (सं.)। थकावट दूर करने वाला । मा० ५.१.६ श्रमित : वि० । श्रमयुक्त, थकाहारा । मा० ३.२.४ श्रमु : श्रम+कए । मा० १.२५.३ श्रवन : (१) सं०० (सं० श्रवण) । श्रोत्र इन्द्रिय, कान । मा० ७.२.२ (२) सुनने की क्रिया । (३) नवधा भक्ति में राम गुण-श्रवण । श्रवननि, न्हि : श्रवन+संब० । कानों । 'मुख नासा श्रवनन्हि की बाटा।' मा० ६.६७.४ श्रवनपूर : सं०० (सं० श्रवणपूर=कर्णपूर)। कनफूल = कर्णाभरण । ताटङ क = तरकी । मा० ६.१४.६ अवनवंत : वि० । कानों वाला । श्रवणशक्ति से युक्त । मा० ७.५३.५ For Private and Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 984 तुलसी शब्द-कोश श्रवनादिक : श्रवण आदि नवधा भक्ति (रामगुण श्रवण आदि) । मा० ३.१६.८ श्रवनामृत : कानों के लिए (सुनने में) अमृत तुल्य । मा० ५.१३.७ श्राध : सराध । विन० १७९.४ श्राप : साप (सं० शाप) । मा० ७.१०६.६ श्रापु : श्राप+कए । गौतम श्रापु परम हित माना।' मा० १.३१७.६ श्रियमूला : वि० (सं. श्रियो मूलम्) । (१) शोभा का कारण । (२) राजलक्ष्मी का मूल कारण । मा० २.५३.४ श्री : सं०स्त्री० (सं.)। (१) लक्ष्मी, विष्णु की शक्ति । 'श्री बिमोह जिसु रूप निहारी।' मा० १.१३०.४ (२) सीता । 'श्री सहित अनज समेत ।' मा० ३.२६ छं० (३) शोभा। आनन श्री ससि जीति लियो है।' कवि० ६.५३ (४) तेज, प्रताप आदि । 'श्रीहत भए हारि हिय राजा।' मा० १.२५१.५ (५) धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य । 'श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि।' मा० ७.७० (६) आदरार्थक वि०=श्रीयुत, श्रीमान् । 'श्रीमुख'। मा० ७.३७.३ श्री रघुनाथ' । मा० १.१११.८ श्रीकंता : सं०० (सं० श्रीकान्त) । (१) विष्णु । (२) सीतापति राम । 'जीव अनेक एक श्रीकता।' मा० ७.७८.७ श्रीखंड : सं०० (सं.) । चन्दन । मा० ७.३७ श्रीनिवास : सं०० (सं०) । लक्ष्मी के निवास =विष्णु । मा० १.१२८.४ श्रीनिवासपुर : विष्णुलोक = वैकुण्ठ । मा० १.१२६ श्रीपति : लक्ष्मीपति विष्णु । मा० १.५१.२ श्रीफल : सं०० (सं०) । बिल्वफल । मा० ३.३०.१३; विन० १४.५ श्रीबस्स : सं०० (सं० श्रीवत्स) । भगवान् के वक्ष पर भृगु के पदाघात का चिन्ह । मा० १.१४७.६ । श्रीमत्, द् : वि० (सं०) । श्रीसम्पन्न, शोभादि युक्त । मा० ४ श्लोक २ श्रीमद : लक्ष्मी=ऐश्वर्य का अहंकार रूपी नशा । दो० २६२ श्रीरंग : सं०० (सं०) । विष्णु, परमेश्वर (राम) । मा० ७.१४ श्रीरमन : (दे० रमन)। (१) लक्ष्मीपति विष्णु । (२) सीतापति राम । मा० ७.१४.१६ श्रीवर : (१) विष्णु । विन० ५३.४ (२) राम । श्रीहत : वि० (सं.) । दीप्ति आदि से रहित । 'श्रीहत सर सरिता बन बागा।' मा० २.१५८.६ श्रुत : भूकृ० (सं.)। सुना हुआ। मा० १.११४.५ For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 985 श्रुतकीरति : सं०स्त्री० (सं० श्रुतकीर्ति) । सीतापिता सीरध्वज के अनुज कुशध्वज ___ की पुत्री शत्रुघ्न-पत्नी । मा० १.३२४ छं० २ श्रुति : सं०स्त्री० (सं०) । (१) श्रवणेन्द्रिय । 'सुनत लखत श्रुति नयन बिनु ।' वैरा० ३ (२) कर्णकुहर, कान । 'श्रुति-नासा-हीनी।' मा० ३.१८.६ (३) वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् तथा वेदानुसारी शास्त्र । मा० ३.३१.६ श्रुतिकीति : (दे० श्रुतकीरति)। विन० ४०.४ श्रुतिधारी : वेदों के अभ्यासी । मा० ७.८६.५ श्रुतिपंथु : वैदिक आचारसंहिता, वैदिक धर्म । मा० २.१६८.७ । श्रुतिमाथा : सं०० (सं० श्रुतिमस्तक =वेदशीर्ष)। वेदों के शीर्षतुल्य =विष्णु, राम । मा० १.१२८.४ वेदान्तस्वरूप, वेदान्तरूप उपनिषदों को वेदशीर्ष कहा गया है। अतिमारग : श्रुतिपंथु । मा० ७.१०७.४ श्रेनी : श्रेनी+ब० । श्रेणियाँ । 'देव दनुज किंनर नर श्रेनीं।' मा० १.४४.४ श्रेनी : सं०स्त्री० (सं० श्रेणी) । पङि क्त, समूह । मा० ५.८.८ श्रेयः : सं० (सं०) । परमकल्याण, परमार्थ, मोक्ष । मा० १ श्लोक ५ श्रेयस्करी : वि०स्त्री० (सं.)। परमकल्याणकारिणी । मा० १ श्लोक ५ श्रोता : वि० (सं० श्रोत) । सुनने वाला, श्रवणकर्ता । मा० १.३६ श्रोनित : सोनित । कवि० ६.१४ ।। श्वपच : सं०० (सं.)। कुत्ते का मांस पकाने (खाने) वाला=चाण्डाल । विन० ५७.३ षट : संख्या (सं० षट् ) । छह । मा० ७.१५ षटबदन : षडानन (सं० षड्वदन) । मा० १.१०३.७ षटरस : सं०० (सं० षड्-रस) । छह रस =मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त । विन० १७०.३ षडंघ्रि : सं०० (सं.)। षट्पदभ्रमर । गी० १.२५.४ षडानन : सं०० (सं.) । कातिकेय =उमा के पुत्र (जिनके छह मुख पुराणों में वणित हैं) । मा० १.२३५.६ For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 986 तुलसी शब्द-कोश षड्वर्ग : सं०० (सं.)। छह अन्त:शत्रुओं का गण-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर । विन० ५९.८ षन्मुख : षडानन (सं० षण्मुख) । मा० १.१०३.८ षोडस : संख्या (सं० षोडश) । सोलह । मा० ७.७८ संकेला : भूक०० (सं० संकेलित संकलित>प्रा० संकेलिअ)। बटोरा, संचित किया, एकत्र किया। प्रथम कुमत करि कपटु सकेला ।' मा० २.३०२.३ संकेलि : पूकृ० (सं० संकेल्य>प्रा० संके लिय>म० संकेलि)। संकलित (संचित) ___ करके, बटोर कर । 'बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी।' मा० २.२३७.५ संकोच : संकोच । मा० २.२५२ संकोची : (१) वि०पू० (सं० संकोचिन्) । संकोचशील, विनीत, लज्जालु । 'राम संकोची प्रेम बस ।' मा० २.२१७ (२) भूकृ०स्त्री० (सं० संकोचित)। संकोच में डाली हुई; प्रार्थना आदि से विवश की हुई। 'बार बार गहि चरन संकोची।' मा० २.१२.५ (३) प्रकृ० (सं० संकोच्य>प्रा० संकोच्चिअ>अ. संकोच्चि) । संकोच में डालकर । 'जो सेवकु साहिबहि संकोची। निज हित चहइ, तासु मति पोची।' मा० २.२६८.३ संकोचु, चू : संकोचु । मा० २.२५०; २.४०.८ सँग : संग। साथ । मा० १.४८.६ संगु : सँग+कए० । साथ । 'सीय कि पिय संगु परिहरिहि ।' मा० २.४६ संघाती : वि०पू० (सं० संघातिन्) । संघात =संघ में रहने वाला, सहचर । 'ब्रह्म __जीव इव सहज संघाती ।' मा० १.२०.४ सँघारा : संघारा । संहार किया, मार डाला । मा० १.२१०.५ संघारि : पू० (सं० संहार्य>प्रा० संघारिअ>अ० संघारि) । संहार करके । मा० ४.३० छं० संघारिहै : आ०भ०प्रए । संहार करेगा-गी । कवि० ७.१४२ संचरत : वकृ०० (सं० संचरत्>प्रा० संचरंत)। संचरण करता-करते ; व्याप्त होता-होते । 'अगिनि ताप हा संचरत हम कहें आइ ।' बर० ३३ For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-काश 987 संजोऊ : सं०पु०कए० (सं० संयोगम>प्रा. संजोअं>अ० संजोउ)। व्यूहरचना ताल-मेल, तैयारी । 'बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ ।' मा० २.१६१.१ संजोग : संजोग । मेलापक (वरकन्या-योग)। 'यह संजोग बिधि रचा बिचारी।' मा० ३.१७.८ संजोग : संजोग+कए । मा० १.२२२.७ संजोवन : भक० अव्यय (सं० संयोजयन्>प्रा. संजोइउं>अ० संजोअण) । सजोने, व्यवस्थित करने, संचित करने। 'अस कहि भेंट संजोवन लागे ।' मा० २.१९३.२ संदेस : संदेस । मा० २.१४६.२ संदेसु, सू : सँदेस+कए० । मा० २.१५१; ८२.४ संदेसो : संदेसु । कृ० ४५ सेंदेहा : संदेह । मा० १.६२.५ ।। संधानो : संधान+कए । अचार (खटाई आदि) । कवि० ५.२३ संभार : (क) सं०पु० (सं.)। (१) संभाल । (२) (सं० संस्मार>प्रा० संभार) । संभाल, व्यवस्थिति+सुधबुध, स्मरण, ज्ञान । 'बोलत तोहि न संभार ।' मा० १.२७१ (ख) दे० सार-संभार । समारत : वकृ० । (१) सँभालता-ती-ते । (२) सुध रखता-ती-ते । 'बसन बिसार मनि भूषन संभारत न ।' कवि० ५.१० संभारन : (१) भक० अव्यय । सँभालने, व्यवस्थित करने । 'लगे संभारन निज निज अनी ।' मा० ६.५५.४ (२) वि० । संभालने वाला। ‘पट पीत संभारन।' विन० २०६.३ संभारहिं : आ०प्रब० । (१) (सं० संभालयन्ति>प्रा० संभालंति>अ० संभालहिं)। संभालते हैं । (२) (सं० संस्मारयन्ति>प्रा० संभारंति>अ० संभारहिं) । सुध रखते हैं । 'प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं ।' जा०म० १३६ संभारहि : आ०मए । (१) तू सँभालता है । क्यों न संभारहि मोहि ।' दो० ४६ (२) तू स्मरण कर । 'पुनि पुनि प्रभुहि सँभारहि ।' विन० ८५.१ ।। संभारा : (१) संभार । 'छूटे कच नहिं बपुष सँभारा।' मा० ६.१०४.३ (२) भूक००। संभाला, व्यवस्थित किया। 'उतरि भरत तब सबहि संभारा ।' मा० २.२०२.६ (३) स्मरण किया। 'तेहिं खल पाछिल बयरु संभारा।' मा० १.१७०.७ संभारि : (१) संभारि । स्मरण करके । 'करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु संभारि ।' मा० १.६६ (२) सँभाल कर । 'बोलु संभारि अधम अभिमानी।' For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 988 तुलसी शब्द-कोश मा० ६.२६.१ (३) आ०-आज्ञा-मए । तू स्मरण कर । 'तुलसी संभारि, ताड़का संहारि भारी भट । हनु० ३६ संभारिअ : आ०कवा०प्रए । सँभालिए, सँभाला जाय । 'समय संभारिअ आपु ।' दो० ४३२ संभारिये : संभारिअ । (१) संभालिए, सहेजिए । 'कपि साहिबी संभारिये ।' हनु० २० (२) स्मरण कीजिए । 'केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये । हनु० २२ संभारी : संभारि । (१) स्मरण करके । 'बार बार रघुबीर सँभारी। तरके उ पवनतनय बल भारी।' मा० ५.१.६ (२) संभाल-सहेज कर । 'फंद गहे कर सजगह्र रह्यो सँभारी।' कृ० २२ 'बहुरि धीर धरि उठे संभारी।' मा० २.१६०.६ (३) भूकृ०स्त्री० । संभाली, व्यवस्थित की। 'तात तात बिनु बात हमारी । केवल गुरकुल कृपा संभारी।' मा० २.३०५.५ संभार : क्रि०वि० । (१) सँभाले हुए, संभाल कर । (२) स्मरण करके । 'काहे न बोलहु बचन संभारें ।' मा० २.३०.३ संभारे : भूकृ.पु०ब० । (१) स्मरण किये । 'बंदि पितर सुर सुकृत संभारे ।' मा. १.२५५.७ (२) सँभाले हुए, संभाल कर । 'जे गावहिं यह चरित संभारे ।' मा० १.३८.१ संभारेहु : आ०- भ०+आज्ञा-मब० । तुम संभालना, व्यवस्थित रखना । 'अनुज संभारेहु सैन ।' मा० ६.६७ समार : आ.प्रए० (सं० संभालयति>प्रा० संभालइ)। सार संभाल करे, संभालता है। 'प्रजहि सँभार राउ।' दो० ५०१ (२) याद करे या देखभाल करे । 'जिय की परी, संभार सहन भंडार को।' कवि० ५.१२ समारो : संभारा+कए। संभाल लिया। 'पुर परिवार समारो।' गी० २.६६.३ संभाषन : सं०० (सं० संभाषण)। बातचीत, वार्तालाप । 'कियो न संभाषन काहूँ।' विन० २७५.१ संवदरसी : संवदरसी । मा० १.३०.६ सँवराए : भूकृपुब० (सं० समारचित>प्रा. समराविअ>अ. सर्वराविअ) । सजवाए, सुसज्जित करवाए । 'प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए।' मा० १.६४.७ संवरी : भूकृ०स्त्री० । बनी-बनायी। 'बिधि अब संवरी बात बिगारी।' मा० १.२७०.७ संवार : आ०-प्रार्थना-मए० (सं० समारचय>प्रा० समार>अ० सँवार)। बना दे । 'बिगरी सवार अंजनी कुमार ।' हनु० १५ /सँवार संवारइ : आ०ए० (सं० समारचयति>प्रा० समारइ>अ. सारइ)। रचता-सुधारता है, सजाता है, संवारता है, बनाता (निर्माण करता) है। For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 989 संवारत : वकृ०पु । सँवारता, संवारते, सँवारते हुए । 'मनहुं भानु मंडलहि सँवारत धर्यो सूत बिधि सुत बिचित्र मति ।' गी० ७.१७.३ संवारन : भ०० अव्यय । सँवारने, बनाने-सुधारने । 'हरषि चले सुर काजु संवारन ।' मा० ३.२७.६ सँवारनिहारो : वि०पु०कए । बनाने सुधारने वाला । गी० २.६७.४ सँवारब : भकृ०० । सँवारना (है, होगा, चाहिए)। 'सब बिधि तोर सँवारब ___ काजू ।' मा० १.१६६.६ सँवारहिं : आ०प्रब० । संवारते हैं, बनाते हैं, जुगाते हैं। 'बहु दाम सँवारहिं धाम ___ जती।' मा० ७.१०१.१ संवारहु : आ०मब० । सजाओ, सँवारो-बनाओ। 'नगर संवारहु चारिहुं पासा।' मा० १.२८७.४ संवारा : भकृ००। (१) बनाया, उत्तम कर लिया। 'राम बिरह करि मरन सँवारा।' मा० २.१५६.२ (२) सजाया। 'जटा मुकुट अहि मोर संवारा। मा० १.६२.१ संवारि : पूकृ० । रचकर, बनाकर, सुसज्जित करके । मा० ७.११७ संवारित : भूक०वि० (सं० समारचित) । सँवारा हुआ, गढ़ा-बनाया हुआ । 'सुतिय सुभूपति भूषिअत लोह सारित हेम ।' दो० ५०६ सवारी : भूकृ०स्त्री०ब० । सजायीं, रची-बनायीं । मा० १.३००.१ संवारी : (१) भूकृ०स्त्री० । बनायी, रचकर तैयार की। 'रूप रासि बिधि नारि संवारी ।' मा० ३.२२.६ (२) संवारि । संवार कर । 'मनहुं इंदु पर खंजरीट दोउ कछुक अरुन बिधि रचे सवारी।' कृ० २२ संवारें : क्रि०वि० । सँवारे हुए, बनाकर । 'इच्छामय नर बेष संवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे।' मा० १.१५२.१ संवारे : (१) सँवारइ । बना सकता है। 'कदलि सीप चातक को कारज स्वाति बारि बिनु कोउ न संवारे ।' कृ० ५७ (२) भूकृ.पु.ब० । सजाए । 'कछु तेहिं ले निज सिरन्हि संवारे ।' मा० ६.३२.६ ।। संवारेहु : आ०-भ०+आज्ञा-मब० । तुम सँवारना। ‘रामचन्द्र कर काज सँवारेहु ।' मा० ४.२३.३ संवारो : संवारा+कए । बना लिया, सुधार लिया। 'मरन महीप सँवारो।' गी०. संहारि : (१) संघारि । हनु० २७ (२) वि०पु० (सं० संहारिन्) । विनाशकारी। 'तुलसी संभारि ताड़का-सहारि भारी भट ।' हनु० ३६ स : अव्यय (सं०) । सहित (समास में पूर्वपद) । सदोष, सदल आदि । For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 990 तुलसी शब्द-कोश संक : संका । सन्देह । 'सबल संक न मानहीं।' मा० ६.७६ छं. संकट : वि० सं०० (सं.) । सँकरा, भीड़, विपत्ति, अनिश्चयात्मक कष्टदशा । 'सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु ।' मा० २.४० 'हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले ।' मा० ६.६५ छं० संकटान : संकट + संब० । संकटों (पर) । कवि०७७५ संकटु : संकट+कए । एकमात्र संकट । मा० २.३०६.५ संकठ : संकष्ट (प्रा० संकट्ट) । अधिक क्लेश, अति कष्ट । 'संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।' मा० ६.५४.६ संकर : (१) शंकर (प्रा.)। शिव । मा० १.३३.१ (२) वि०० (सं०) । __ मिश्रित-अनेक वर्गों के मिश्रण से उत्पन्न (जातिविशेष)। 'भए बरन संकर कलि ।' मा० ७.१०० संकर : संकर+कए० (अ.) । एकमात्र शिव । ‘सत्य कहउँ करि संकर साखी।' मा० २.३१.६ संकलप : संकल्प । (१) प्रतिज्ञा, व्रत । (२) पुरश्चरण आदि में जल हाथ में लेकर की हुई प्रतिज्ञा । 'संबत भरि संकलप करेहू ।' मा० १.१६८.८ (३) कामना । 'काम-संकलप ।' विन० २०९.२ संकल्प : सं०० (सं०)। (१) प्रतिज्ञा। (२) पुरश्चरणहेतुक निष्ठा । (३) वासना । 'संग-संकल्प-बीची-विकारं ।' विन० ५८.३ संकल्पि : पूक० । जल-कुश आदि से दान प्रतिज्ञा करके । 'संकल्पि सिय रामहि समरपी।' जा०म०छं०१८ संकल्पु : संकल्प+कए० । दृढ प्रतिज्ञा । 'सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ।' मा० १.५७.२ संकष्ट : सं०० (सं.) । अतिकष्ट । 'भक्त-संकष्ट अवलोकि ।' विन० ५८.७ संकष्टहारी : (दे० हारी) । संकष्टों का हरण-कर्ता। विन० ५३.५ संका : सं०स्त्री० (सं० शङ का)। संदेह, दुबिधा, अनिष्ट की संभावना। मा० ५.२०.८ संकाश : वि० (सं०) । सदृश । मा० ७.१०८.५ संकास : संकाश (प्रा.) । 'स्वन-सैल-संकास ।' हनु० २ संकि : पूकृ० । शङका में पड़कर । 'साँसति संकि चली।' कवि० ७.४८ संकित : वि० (सं० शङि कत)। शङ काकुल, वैविध्ययुक्त । 'चले तुरत संकित हृदयं ।' मा० २.७५ संकुचित : भूकृ०पु०वि० (सं०) । सिकुड़ा, सिमटा, संकोचग्रस्त । ‘सेषु संकुचित संकित पिनाकी ।' कवि० ६.४४ For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 991 संकुल : वि० (सं०) । (१) प्रचुर, सघन, व्यापक । भूमि जीव संकुल रहे ।' मा० ४.१७ (२) व्याप्त, अवच्छादित । 'सरसिज संकुल सकल तड़ागा। मा० ७.२३.१० संकले : (सं०) संकुल (ध्याप्त).. में । 'पतंति नो भवार्णवे, वितर्कवीचि-संकुले ।' मा० ३.४ छं० संकेत : सं०० (सं०) । लक्षण, परिचय-चिह्न, इङ्गित । 'दई ही संकेत कहि कुसलात सियहि सुनाउ ।' गी० ५.४.५ संकोच : सं०० (सं.)। (१) सिकुड़न, कमी। 'जल संकोच बिकल भई मीना।' मा० ४.१६.८ (२) मानसिक सिमटन की अनुभूतिविशेष । 'बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी।' मा० १.६१.८ संकोचु : संकोच+कए । मानसिक सिकुड़न (लज्जा आदि)। 'उपजा अति संकोचु ।' मा० १.५३ संख : सं०० (सं० शङ्ख) । मा० २.३७.५ संग : सं०० (सं.) साथ, साहचर्य, लगाव । (१) घनिष्ठ सपर्क, आसक्ति । 'संग तें जती कुमंत्र तें राजा (नासहि) । मा० ३.२१.१०-११ (२) क्रि०वि० । साथ में। 'ता ते नाथ संग नहिं लीन्हा ।' मा० ७.१.४ (३) एक साथ संहत होकर । 'बैठहिं सभी संग द्विज सज्जन ।' मा० ७.२६.१ संगति : सं०स्त्री० (सं.)। संग, साहचर्य, सामञ्जस्य, व्यवस्था, सहभाव, सम्पर्क । मा० ५.१३.११ संगम : सं०० (सं०) । मेला, मिश्रण। (१) अनेक धाराओं का मिलन+नर नारी आदि का मिलन । 'संगम करहिं तलाव तलाईं।' मा० १.८५.२ (२) धाराओं का मिलन स्थान । 'सरित सिंधु संगम जनु बारी।' मा० २.३०२.६ संगमु : संगम+कए । त्रिवेणी संगम । मा० २.१०५.७ संगा : संग । मा० १.७.६ संगिनि : वि०स्त्री० (सं० संगिनी) । सहचरी, सहायिका, अन्तरङ्गिणी सखी। 'मातु बिपति संगिनि ते मोरी ।' मा० ५.१२.१ संगी: वि.पु. (सं० संगिन्) । साथ रहने वाला, संलग्न, साथी; आसक्त । 'निज संगी निज सम करत ।' वैरा० १८ संग, गू : संग+कए। (१) साथ । 'सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू ।' मा० २.२६०.७ (२) संघ, समुदाय । 'चढ़े जाइ सब संगु बनाई ।' मा० १.२६०.७ संग्रह : सं०० (सं०) । अनुकूल मानकर ग्रहण, संचय । 'संग्रह त्याग न बिनु पहिचानें ।' मा० १.६.२ For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 992 तुलसी शब्द-कोश संग्रहहिं : आ०प्रब० । संग्रह करते हैं, अनुकूल समझकर अपनाते (ग्राह्य बनाते) हैं। ____ 'सुप्रभ संग्रहहि परिहरहिं सेवक सखा बिचारि ।' दो० ५२६ संग्रहिअ : आ०कवा०प्रए । संग्रह कीजिए, अनुकूल समझकर अपनाया जाय। ____ का छांडिअ का संग्रहिन ।' दो० ३५१ संग्रही : वि०पु० (सं० संग्रहिन्) । संग्रहकर्ता। (१) संचयशील । 'नहिं जाचत नहिं संग्रही।' दो० २६० (२) ग्राह्य करने वाला, आश्रय में लेने वाला। _ 'संग्रही सनेहबस अधम असाधु को।' विन० १८०.६ संग्रहे : क्रि०वि० । संग्रह करने से, अपनाने पर । 'जग हंसिहै मेरे संग्रहे।' विन० २७१.३ संग्रह्यो : भूकृ००कए ० । ग्रहण किया, अपनाया। 'को तुलसी सो कुसेवक संग्रह्यो।' विन० २३०.३ संग्राम : सं०० (सं०) । युद्ध । मा० ६.३६.११ संग्रामा : संग्राम । मा० ६.३६.३ संघ : सं०० (सं०) । संघात, समवाय (समूह)। मा० १ श्लोक १ संघट : (१) सं०० (सं.)। समूह, योग, संयोग । 'ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।' विन० २५.६ (२) (सं० सघट्ट)। भीड़, संघर्ष, सम्मद । सकल संघट पोच सोच बश सर्वदा।' विन० ५६.६ (दोनों अर्थों में विशेष अन्तर नहीं।) संघटत : वकृ०० (सं० संघटमान, संघट्टमान>प्रा० संघटुंत) । जुड़ते, संघर्ष करते । 'सुर बिमान हिमभानु भान संघटत परसपर।' कवि० १.११ संघटु : संघट+कए । संयोग, संघटना, समन्वय । 'यह संघट तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ।' मा० १.२२२ संघरषन : सं० (सं० संघर्षण) । घिसने की क्रिया, संघर्ष, द्वन्द, रगड़ । मा० ७.१११.१६ संघात : सं०पू० (सं.)। (१) संघ, समुदाय । (२) घात नाश । (३) वि.पु. (समासान्त में) । संहारक । 'दुष्ट-बिबुधारि-संघात ।' विन० ५०.८ संघाता : संघात । समवाय । 'सो जल अनल अनिल संघाता।' मा० १.७.१२ संघार : संहार (प्रा.) । विनाश । मा० ७.६७ संघारा : (१) संघार। 'तप बल संभु करहिं संघारा।' मा० १.७३.४ (२) भूकृ०० । विनष्ट किया। 'आधा कटकु कपिन्ह संघारा ।' मा० ६.४८.४ संघारे : भूकृ००ब० । मारे । 'महाबीर दितिसुत संघारे।' मा० ६.६.७ संघारेहु : आ०-भूक००-मब० । तुमने मार डाला। 'निसिचर निकर सुभट संघारेहु ।' मा० ६.९०.६ For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 993 संचहि, हीं : आ०प्रब० (सं० संचयन्ति>प्रा. संचंति>अ० संचहि) । संचित ___ करते-ती हैं । 'जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं ।' मा० ६.८८.७; ३.२० छं० संछेप : सं०पू० (सं० संक्षेप) । साररूप, सारांश । मा० ७.१२२.८ संछेपहिं : संक्षेप में, थोड़े में । 'सोउ संक्षेपहिं कहहु बिचारी ।' मा० ७.१२१.४ संजम : संपु० (सं० संयम>प्रा० संजम)। (१) इन्द्रियनिग्रह आदि व्रत । (२) योग के अन्तिम तीन अङ्गों (धारणा, ध्यान और समाधि) का त्रिक । 'संजम दम जप तप मख नाना ।' मा० ७.१२६.५ संजात : भूक ०वि० (सं.)। उत्पन्न । मा० ५.१०.५ संजीवनी : सं०स्त्री. (सं.) । जीवनदायिनी, जीव नौषधि । विन० ३९.४ संजुक्त : भूकृ०वि० (सं० संयुक्त) । सहित, समवेत, समन्वित । मा० ७.१३ छं० १ संजुग : सं०० (सं० संयुग) युद्ध । मा० ६.७८.५ संजुत : भूकृ०वि० (सं० संयुत, संयुक्त>प्रा० संजुत्त)। समन्वित, सहित। मा० ७.२६.३ संजोग, गा : सं०पू० (सं० संयोग)। (१) मेल, सामञ्जस्य । 'अस संजोग ईस जब करई ।' मा० ७.११६.८ (२) मिलन, वर कन्या-मेलापक । 'सीय राम संजोग जानियत रच्यो बिरंचि बनाइ के।' गी० १.७०.६ (३) व्यवस्था । 'करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।' मा० १.२०५.५ संत, ता : सं०+वि.पु.। (१) (सं० सत्>प्रा. संत)। विद्यमान, यथार्थ सत्ता वाला । (२) सत् प्रकृति वाला, उत्तम, साधु, सज्जन । 'बंदउँ संत असज्जन चरना ।' मा० १.५.३ (३) (सं० शान्त>प्रा० संत) शम दशाप्राप्त, योगी, निरुद्ध चित्त की शान्ति से सम्पन्न (दे० सम)। 'तुलसी यह मत संत को बोले समता माहिं ।' वैरा० १३ संतत : वि०+क्रि०वि० (सं०) । (१) सदैव+निरन्तर । 'संतत संग खेलावहिं ।' कृ० ४ (२) निरन्तर+ स्थायी। 'अमृतु लहेउ जन संतत रोगीं। मा० १.३५०.६ संतन, न्ह : संत+संब० । संतों, मुनियों। मा० १.१६१.३ 'संतन्ह के महिमा ।' मा० ७.३७.२ संततम् : संतत (सं.)। 'जगदम्बा संततम निदिता ।' मा० ७.२४.६ संतप्त : भकृ०वि० (सं.)। सन्तापयुक्त, दग्ध । विन० ५५.७ । संतान : सं०पु (सं०) । (१) निरन्तरता (२) अपत्य (पुत्र-पुत्री आदि) । रा०प्र० १.२.४ संताप : सं०पु० (सं.)। तचन, दाह । (१) व्यथा, मनोदुःख । 'निज संताप सुनाएसि रोई ।' मा० १.१८४.८ (२) दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट । 'समान For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 994 तुलसी शब्द-कोश सकल संताप समाज ।' मा० २.३२६.७ (३) क्लेश= अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (योग में परिगणित मायिक चित्तदोष)। मा० ७.१०८.१४ संताप, पू : संताप+कए । एकमात्र मनोव्यथा । मा० १.५६; २.१८०.४ संतुष्ट : भूकृ०वि० (सं.)। परितृप्त, पूर्ण काम । विन० ५३.५ संतोष : सं०० (सं.)। तुष्टि, तृप्ति । कामना-हीनता की सुखात्मक अनुभूति । मा० ७.१३.८ संतोषमय : वि० (सं०) । सन्तोषपूर्ण । रा०प्र० १.६.१ संतोषा : संतोष । मा० ४.१६.३ संतोषि : प्रकृ० । संतुष्ट (पूर्ण काम) करके । मा० १.१०२ छं० संतोषु, षू : संतोष+कए । 'उपजा डर संतोषु बिसेषी।' मा० १.३०७.६; २.३०७.३ संतोषे : भूकृ.पु.ब. (सं० संतोषित् >प्रा. संतोसिय) संतुष्ट किए । 'जाचक दान मान संतोषे।' मा० २.८०.४ संत्रास : संपु० (सं.)। अधिक भय, अतिशय आतङ्क । विन० ४६.६ संदग्ध : भूकृ.वि० (सं.)। पूर्णतया जला हुआ (दग्ध) । विन० २८.६ संदनु : स्यंदन । रथ । 'राम सखा सुनि संदनु त्यागा।' मा० २.१६३.७ संदेस : सं०पू० (सं० संदेश)। किसी के द्वारा भेजा हुआ संवाद (मौखिक समाचार) । मा० ७.२.१३ संदेसु, सू : संदेस+कए । मा० ६.१०८.३; २.१४६.५ संदेह : सं०पू० (सं०) । संशय, अनिश्चय (यथार्थ-निर्णय-रहित मनोवत्ति) । मा० संदेहा : संदेह । मा० १.१६१.४ संदेहु, हू : संदेह+कए० । मा० २.२७; ३१.७ संदोह, हा : सं०० (सं.)। सम्पूर्ण समवाय, सकल राशीभूत समूह । 'कृपानंद संदोह ।' मा० ७.३६ संदोहा : संदोह । मा० ७.७२.६ संधान : सं०० (सं.)। (१) चढ़ाना, मिलाना, संहित करना । 'सर संधान कीन्ह करि दापा।' मा० ६.७६.१५ (२) सिरका, मदिरा आदि बनाने की प्रक्रिया। (३) उस प्रक्रिया से बनाए हुए अचार, खटाई आदि । दे० संधानो। संघाना : (१) संधान । 'तुरत कीन्ह नृप सर संधाना।' मा० १.१५७.२ (२) भूकृ०० । चढ़ाया, संयुक्त किया। 'चाप चढ़ाइ बान संधाना।' मा० ६.१३.८ For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 995 -संपानि : पूकृ० । चढ़ाकर, संधान करके । 'संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि ।' मा० ६.८२ छं. संघाने : भूकृ००० । संघान किये, चढ़ाये । अस कहि कठिन बान संधाने ।' __ मा० ६.५०.४ संघाने उ : भूकृ०पु०कए। संधान किया, चढ़ाया। 'संधाने उ प्रभु बिसिख कराला ।' मा० ५.५८.६ संधिहिं : संधि में, रन्ध्र में, ग्रह-युति (ग्रहयोग) में। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।' मा० १.२३८.१ संध्या : सं०स्त्री० (सं.)। (१) सम्यक् ध्यान (नित्य कर्म में विहित पूजा जो प्रातः, मध्याह्न और सायम् की जाती है) । 'रघुबर संध्या करन सिधाए ।' मा० २.८६.६ (२) सायंकाल । 'संध्या समय जानि दस-सीसा ।' मा० संध्यावंदनु : सन्ध्योपासन (त्रिकाल पूजाविशेष) । मा० १.२२६.१ संनिपात : सं०० (सं.)। (१) संघात, समुदाय । 'गुण-सन्निपातं ।' विन० ५३.६ (२) त्रिदोष ज्वर (जो वात पित्त और कफ तीनों के एक साथ दूषित होने से बनता और मारक होता है)। 'संसृति संनिपात दारुन दुख बिनु हरि कृपा न नास ।' विन० ८१.४ संन्यास : सं०० (सं.)। कर्म त्याग वाला चतुर्थ आश्रम धर्म । 'बिगरत मन संन्यास लेत।' विन० १७३.४ संन्यासी : सं०+वि.पु. (सं० संन्यासिन्) । चतुर्थाश्रमी, संसार-त्यागी जन, विरक्त । मा० ७.२६.५ । संपति : संपत्ति । मा० २.२१५ संपत्ति : सं०स्त्री० (सं०) । वैभव, ऐश्वर्य, पूर्णता। 'रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख ।' मा० १.६४ संपदा : संपत्ति (सं० संपद) । मा० ७.२२.६ संपन्न : वि० (सं.)। सम्पूर्ण, परिनिष्पन्न, फलित, विभूतियुक्त । 'ससि संपन्न सदा रह धरनी।' मा० ७.२३.६ संपाति, ती : सं०० (सं.) । जटायु का अग्रज गृध्र । मा० ४.२७.१, ११ संपादन : विपु । सम्पन्न करने वाला, सिद्ध करने वाला। 'सुख संपादन समन बिषादा।' मा० ७.१३०.१ संपुट : संपु० (सं०) । (१) दो ओर से बन्द वस्तु । (२) सीपी आदि का बन्द आकार । (३) हथेलियों की संयुक्त मुद्रा । 'कहत कर संपुट किएँ।' मा० १.३२६ छं० १ (४) ढक्कनदार पात्र, डब्बा । 'संपुट भरत सनेह रतन के।' मा० २.३१६.६ For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 996 लुलसी शब्दकोश संबंध : सं०० (सं.) । (१) अनेक को एकभाव देने वाला आन्तरिक भाव-बन्धन । (२) वर पिता और वधू पिता का भाव बन्धन । मा० १.३२६ छं० २ संबत : सं०० (सं० संवत् - अव्यय)। (१) वर्ष । 'प्रति संबत अस होइ अनंदा।' मा० १.४५.२ (२) ज्योतिष के अनुसार ६० वर्षों के संवत्सर जो नामों से जाने जाते हैं । इनकी ब्रह्म, विष्णु और रुद्र नामों से तीन विशतियाँ मानी गयी हैं। जय, विजय आदि संवतों के नाम हैं । 'जय संबत फागुन सुदि पांचे गुरु दिनु ।' पा०म० ५ संबतु : संबत+कए । एक वर्ष । 'लघु जीवन संबतु पंच दसा ।' मा० ७.१०२.४ संबरारि : सं०पू० (सं० शम्बरारि=शम्बर दैत्य के शत्रु)। प्रद्युम्न =कामदेव । गी० ७.७.३ संबल : सं०० (सं०) । पाथेय, पथिक के लिए मार्गन्यय आदि आवश्य साधन; साधन-सामग्री । मा० १.३८ संबल : संबल+कए० । कोई साधन । एक भी पाथेय । 'सुरालयहू को न संबलु ___मेरे ।' कवि० ७.६२ संबाद, दा : सं०० (सं० संवाद)। (१) वार्तालाप । मा० ७.५५.५ (२) कथान__ कथन, उपदेशात्मक प्रश्नोत्तर । मा० १.३६ (३) समाचार (खबर)। "छन महुं ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ।' मा० १.६८ संबाद, दू : संबाद+कए । मा० २.३०८ ६६.३ संबुक : सं०० (सं० शम्बूक) । घोंघा। मा० २.२६१.४ संभव : सं०० (सं०) । (१) उत्पत्ति । 'जग संभव पालन लय कारिनि।' मा० १.९८.४ (२) (समासान्त में) । उत्पन्न । 'दुसह बिरह-संभव दुख मेटे ।' मा० ७.६.१ संभारि : पूकृ० । (१) संभाल कर, व्यवस्थित कर। 'उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं।' मा० ६.६८.६ (२) स्मरण करके । 'पुनि संभारि उठी सो लंका।' मा० ५.४.५ संभारी : संभारि। (१) संभाल कर, सोच-विचार कर । 'रे कपिपोत बोल संभारी ।' मा० ६.२१.१ (२) स्मरण करके । 'दीनदयाल गिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ।' मा० ५.२७.४ संभार्यो : भूकृ००कए० । स्मरण किया। 'तम मारुतसुत प्रभु संभार्यो।' मा० ६.६५८ संभावित : वि० (सं०) । सम्मानित, कीर्तिशाली। 'संभावित कहुं अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारु दाहू ।' मा० २.६५.७ संभु : शंभु (प्रा.)। मा० १.१.३ For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 997 सुलसो शब्द-कोश -संभूत : वि० (सं.)। उत्पन्न । 'संभु सुक्र संभूत सुत ।' मा० १.८२ संभ्रम : सं०० (सं.)। (१) हड़बड़ी, त्वरा, झटपट । 'संभ्रत चलि आई सब रानी ।' मा० १.१६३.१ (२) सम्मान, आदर । 'सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ।' मा० २.२७४ संभ्राज : आ०प्रए० (सं० संभ्राजते) । शोभित (दीप्त) हो रहा है (था)। 'राम संभ्राज सोभा सहित सर्वदा।' विन० २७.५ संमत : वि (सं०) सं००। (१) गुप्त रूप से अभिप्रेत या मान्य मत । 'बंधु कहइ कटु संमत तोरें।' मा० १.२८१.१ (२) मन्त्रणा। समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ ।' मा० २.२५४ (३) सिद्धान्त रूप से स्वीकृत तथा समर्थित । श्रुति संमत सज्जन कहहिं ।' मा० ७.६५ (४) संमानित । 'बिप्र बिबेकी बेद बिद संमत साधु सुजाति ।' मा० २.१४४ ।। संमोह : सं०० (सं०) । भ्रम । महामोह (अहंकार का सूक्ष्मरूप=अस्मिता)। विन० ५३.६ संम्राज : सं०० (सं० साम्राज्य) । चक्रवर्ती का राजत्व । 'संम्राज सुख पद बिरागी।' विन० ३६.२ संयुक्त : (दे० संजुक्त) । सहित, सम्पृक्त । विन० ६१.७ । संयुत : वि० (सं०) । संयुक्त । मा० २ श्लोक २, ३.४ छं० संशय : सं०० (सं०) । सन्देह । अनिश्चयात्मक बोध । एक ही वस्तु में अनेक की द्वैविध्यपूर्ण प्रतीति (जिसमें निर्णय न हो) । मा० ३.११.६ संसउ : संसय+कए । एक ही सन्देह । 'यहु संसउ सबके मन माहीं।' मा० २.२५२.८ संसकृत : (सं० संस्कृत) संस्कार सम्पन्न भाषा, देववाणी । 'का भाषा का संसकृत।' ___ दो० ५७२ संसय : संशय (प्रा.) । मा० ७.३०.७ संसर्गा : सं०० (सं० संसर्ग) । संगति, सम्पर्क । मा० ७.४६.७ संसार : सं.पु. (सं.)। (१) जगत्, विश्व-प्रपञ्च । 'विदित सकल संसार ।' मा० १.२७१ (२) जन्म-मरण चक्र । 'गुनागार संसार दुख ।' मा० ३.४५ (३) ज्ञान द्वारा नष्ट होने वाले जागतिक सम्बन्ध (पिता-पुत्र आदि) । मा. ७.१३० श्लो०२ संसारपार : संसार से परे =जरामरण रहित = अविनाशी । मा० ७.१०८ छं ४ -संसारा : संसार। मा० १.१२.१० संसारी : वि०० (सं० संसारिन्) । (१) संसार सम्बन्धी । (२) संसरण (जन्म मरण-चक्र) प्राप्त करने वाला । (३) बद्ध जीव या प्रवाह-जीव । 'तब ते जीव भयउ संसारी।' मा० ७.११७.५ For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 998 तुलसी शब्द-कोश संसारू : संसार+कए० (अ० संसारु) । जगत् । मा० १.८६.२ संसृत : वि० (सं०) । सांसारिक, संसार में उपाजित । 'भजहि मोहि संसृत दुख जाने।' मा० ७.४१.६ संसृति : सं०स्त्री० (सं०)। (१) सृष्टि । (२) संसार-जन्म-मरण चक्र। 'देहि भगति संसति रारि तरनी।' मा० ७.३५.६ संसृतिचक्र : सं०० (सं०) । संसार में जन्म-मरण का आवर्तन =आवागमन । विन० १३६.७ संहर्ता : वि.० (सं० संहर्त) । संहारकर्ता, प्रलयंकर । मा० ६.७.४ संहार : सं०० (सं.)। (१) समेट कर एकीभूत करने की क्रिया । (२) सर्वनाश, प्रलय। मा० १ श्लो० ५ संहारे : भ कृ००ब० । मार डाले । मा० ६.६२.१० (पाठान्तर) । सः : सर्वनाम (सं.)। वह । मा० २ श्लो० १ सइल : सं०पु० (सं० शैल>प्रा० सइल) । पर्वत । कवि० ६.४४ सई : सं०स्त्री० । (१) (सं० स्यन्दिका) । एक नदी जो आजकल रायबरेली जिले में होकर बहती है । 'सई तीर बसि चले बिहाने ।' मा० २.१८६.१ (२) (अरबी -सई) लाभ (हासिल) । 'पूजी बिनु बाढ़ी सई ।' गी० ५.३७.४ स उछाह : (सं० सोत्साह-दे० उछाह) उत्साह सहित । कवि० ६.३१ सक : (१) सकइ। सकता है। 'पुरुष त्यागि सक नारिहि ।' मा० ७.११५ (२) संस्त्री० (सं० शङका फा० शक)। सन्देह, दुविधा। 'राम चाप तोरब सक नाहीं।' मा० १.२४५ 'सक, सकइ : आ०प्रए० (सं० शक्नोति>प्रा० सक्कइ)। सकता-ती है; समर्थ होता-होती है । 'कहि न सकइ फनीस सारदा।' मा० ७.२२.५ सक' : आ० उए० (सं० शक्नोमि>प्रा० सक्कमि>अ० सक्कउँ)। मैं सकता-ती हूं। 'सकउँ पूत पति त्यागि । मा० २.२१ ।। सकत : वकृ०० । सकता-ते । 'सनमुख होइ न सकत मन मोरा ।' मा० ५.३२.६ सकति : (१) कृस्त्री० । सकती (समर्थ होती)। 'कहि न. सकति कछु, सकुचति ।' जा०म० १०० (२) सं०स्त्री० (सं० शक्ति) । सामर्थ्य । 'सभ के सकति संभु धनु भानी।' मा० १.२६२.६ (३) शस्त्रविशेष, साँग । 'गई गगन सो सकति कराला ।' मा० ६.८४.७ सकतु : सकत+कए । 'धराधर धीर भारु सहि न सकतु है ।' कवि० ६.१६ सकरुन : वि० (सं० सकरुण) । करुणायुक्त, आर्त । मा० ६.७०.५ सकल : (१) वि० (सं०) । कलासहित सम्पूर्ण कलाओं (अंशों) से सम्पन्न; सम्पूर्ण, सब । मा० १.१.२ कौशलयुक्त सकल ताड़ना के अधिकारी । मा. For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 999 ५.५६.६ (२) (सं० शकल>सकल) खण्ड, अंश, लेश । 'जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं। यहां द्वितीय 'सकल' लेशपर्याय है। सकलंक : कलङ कयुक्त (लाञ्छित+चिह्नयुक्त)। मा० १.२३७ सकलंक : सकलंक+कए । मा० २.११६.३ सकसि : आ०मए० (सं० शक्नोषि>प्रा० सक्कसि) । तू सकता है, सके । 'जों मम चरन सकसि सठ टारी ।' मा० ६.३४.६ सहि, हीं : आ० प्रब० (सं० शक्नुवन्ति>प्रा० सक्कंति>अ० सक्कहि) । सकते हैं। सेष सहस सत सहहिं न गाई ।' मा० ७.११.६; ६.२६७.८ सकहु : आ० मब० (सं० शक्नुथ>प्रा. सक्क ह>अ० सक्कहु) सकते हो, सको। 'सकहु त आयसु धरहु सिर ।' मा० २.४० सकाई : सकइ । 'जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।' मा० ७.११६.५ सकाना : भूकृ००। शक किया, शङ्काकुल हो गया, हिचका, सहम गया । ___ 'छत्रिय तनुधरि समर सकाना ।' मा० १.२८४.३ सकानी : भूकृ०स्त्री० । शङिकत हुई, सहम गयी। 'कोलाहल सुनि सीय सकानी ।' मा० १.२६७.५ सकाम : वि० (सं.)। कामनासहित, लौकिक फल प्राप्ति की इच्छा से युक्त । मा० ७.१५.३ सकारें : क्रि०वि० (सं० श्वःकाले>प्रा० सकाले =सकालेण>अ. सकालें)। सबेरे, प्रातः । 'अवधेस के द्वार सकारें गई।' कवि० १.१ सकाहि : आ०प्रब० । शङ का करते हैं, हिचकते हैं, संकोच अनुभव करते हैं। 'बरनत अगम सुकबि सकाहिं ।' गी० ७.२६.४ सकिअ : आ०भावा० । सकिए, सका जाय । 'बुधि बल जीति सकिअ जाही सों।' __मा० ६.६.५ सकिलि : पू० (सं० संकिल्य)। सिकल कर, सब ओर से एकत्र होकर । ‘सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ।' मा० १.३६.८ सकिहि : आ०भ० प्रए० । सकेगा-गी। 'सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ।' मा. २.६६.६ सकी : भूक०स्त्री० । समर्थ हुई । 'न सकी सँभारि ।' मा० २.२८६ सकु : सक+कए । कुछ भी शक, शङका । 'हम हैं तुम्हरे तुम्ह में सकु नाहीं।' कवि० ७.६४ सकुच : सं०स्त्री० । संकोच । 'सीय सकुच बस उतरु न देई ।' मा० २.७६.१ 'सकुच, सकुचइ : आ०ए० (सं० संकुचित>प्रा० संकुच्चइ) । संकोच करता है, सिकुड़ता है, मन में सिमटन-सी अनुभव करता-ती है। 'छुअत जो सकुचइ सुमति सो।' दो० ४०६ For Private and Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1000 तलसी शब्द-कोश सकुचउँ : आ० उए । संकोच अनुभव करता हूं । 'सकुचउँ तात कहत एक बाता ।' मा० २.२५६.२ सकुचत : (१) वकृ०पु० । संकोच करता-करते । 'प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ।" मा० ७.३६.६ (२) सिकुड़ता । 'कछु कहि न सकत, मृसुकत सकुचत । कृ० १७ सकुचति: वकृ०स्त्री० । संकोच करती ( सिकुड़ती ) । 'सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ।' मा० २.१२१.३ सकुचनि, न्ह : सकुच + संब० । संकोचों ( के कारण ) । गी० १.६६.१ ' सकुचन्ह कहि न सकत।' मा० १.३०७.५ सकुचब : भकृ०पु० । संकोच करना । 'नाथ न सकुचब आयसु देता ।' मा० २.१३६.८ सकुचमय: वि० । संकोचपूर्ण । मा० १.३३६.४ सकुर्चाह : आ०प्र० । संकोच करते हैं, हिचकते हैं । मा० १.२८६ /सकुचा, सकुचाइ, ई : सकुचइ । 'कहति सिय सकुचाइ ।' गी० ७.२७.२ 'तेहि बिलोकि माया सकुचाई ।' मा० ७.११६.७ सकुचाइ, ई : पूकृ० । संकोच करके । मा० २.२७०.७ 'सुनत फिरा मन अति सकुचाई ।' मा० ६.३५.३ सकुचाउँ : सकुचउँ । 'मैं पूँछत सकुचाउँ ।' मा० २.१२७ सकुचाउँगो : आ०भ०पु० उए० । संकुचित होऊँगा । 'हीं निपटहि सकुचाउँगो ।' गी० ५.३०.२ सकुचात : सकुचत । (१) संकोच अनुभव करते । 'देखि लोग सकुचात जमी से ।' मा० २.२१५.५ (२) सिमटते, सिकुड़ते । 'सूखे सकुचात सब ।' कवि० ५.२० सकुचाति : सकुचति । सिकुड़ती, संकोच अनुभव करती । 'सकुचाति मही पद पंकज छ्वं ।' कवि० २.१८ सकुचाना : भूकृ०पु० । संकुचित हुआ, सिकुड़-सा गया । 'अंगद बचन सुनत सकुचाना । मा० ६.२१.४ सकुचानि, नो: भूकृ० स्त्री० । संकुचित हुई । मा० ७.६ 'बानी कहत साधु महिमा सकुचानी । मा० १.३.११ सकुचाने : भूकृ०पु ं०ब० । संकुचित हुए, सिकुड़ गये । 'काम क्रोध कैरव सकुचाने ।' For Private and Personal Use Only मा० ७.३१.४ सकुचाहि हीं : सकुचहि । (१) संकोच अनुभव करते हैं । 'निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।' मा० ३.४६.१ (२) सिमटते हैं । 'बर दुलहिनि सकुचाहि ।' मा० १.३५० ‘राम लला सकुचाहि देखि महतारी हो ।' रा०न० १८ सकुचाहूं : आ०- - संभावना - प्रब० । वे संकोच करें । 'अब ते सकुचाहूं सिहाहूं ।' विन० २७५.४ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1001 सकुचि : पूर्व० । (१) संकोच अनुभव करके । 'सकुचि दीन्हि रघुनाथ ।' मा० ५.४६ (२) सिकुड़कर, सिमट कर । 'बैठो सकुचि साधु भयो चाहत ।' कृ०३ सकुचिअ, ये : आ०भावा० । संकोच करना पड़ता है, संकुचित हुआ जाय । 'कहि सुनि सकुचिअ सूम खल ।' दो० ३६१ सकुचिये : सकुचिअ । संकोच हो । 'प्रगट कहत जो सकुचिये अपराध भर्यो हौं ।' विन० २६७.४ सकुचिहि : आ०भ०प्रए । संकोच करेगा, सिमट जायगा। 'सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ।' मा० २.१४५.८ सकुची : भूक०स्त्री० । संकुचित हुई। मा० २.११७.२ सकुचे : भूकृ.पुं०ब० । संकुचित हुए। मा० २.२६०.७ सकुचेउ : भूकृ००कए० । संकुचित हुआ, सहमा, झिझका। 'कोप भवन सुनि सकुचेउ राऊ।' मा० २.२५.१ सकचे : सकुचइ । 'सिय सकुचति, मन सकुच न ।' मा० १.३२६ सकचेहैं : आ०भ०प्रब० । संकोच अनुभव करेंगे, सकुचेंगे। 'जमपुर जात बहुत सकुचैहैं ।' गी० ५.५१.३ सकुन : सं०० (सं० शकुन) । पक्षी । मा० १.३४६.६ सनाषकुम : पक्षियों में अधम, नीच पक्षी। मा० ७.१२३.८ सकुनि : सं०पु० (सं० शकुनि) । दुर्योधन का एक मित्र जिसने द्यूतक्रीडा में पाण्डवों को हराया था। दो० ४१८ सकुल : वि० (सं.)। कुलसहित, वंश समेत । 'राम सकुल रन रावन मारा।' ____ मा० १.२५.५ सकृत : (१) अव्यय (सं० सकृत्) । एक बार । 'सकृत प्रनाम किहें अपनाए ।' मा० २.२६६.३ 'सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन तरन ।' विन० २१८.४ (२) एक (गोस्वामी जी का विशिष्ट प्रयोग) । सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ।' मा० ७.५४.३ 'जो सुख-सिंधु सकृत सीकर तें सिव बिरंचि प्रभुताई ।' __गी० १.१.११ सके : भूक००ब० । मा० ७.३३.२ सकेउ : भूक पु०कए० । सका (समर्थ हुआ) । 'बिधि न सके उ सहि मोर दुलारा।' मा० २.२६१.१ सकेली : संकलि । बटोर के, समेट कर । आयउँ 'इहाँ समाज सकेली।' मा० २.२६८.५ सके : सकहिं । 'ठाढ़ो द्वार न दे सके।' दो० ३८२ सके : सकइ। (१) सकता है। 'सोऊ रघुबीर बिनु सके दूरि करि को।' हनु० ४२ (२) सके, सकता हो । मा० २.२७६ छं० For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1002 ent : सक्यो । 'सीव न चपि सको कोउ तब ।' कृ० ३२ सकोच : (१) संकोच । मा० २.३१४.७ (२) प्रार्थना | 'जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ । मा० २.२०६ सकोचs : आ०प्र० । प्रार्थना करता है, अनुनय आदि से विवश करता (संकोच में डालता ती ) है । 'गोरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ ।' जा०मं० १०० सोचत: वकृ०पु० । प्रार्थनाओं से अनुकूल बनाता बनाते । 'सोचत सकोचत बिरंचि हरि हर को ।' गी० १.६६.२ सकोचहीं : आ०प्रब० । प्रार्थनाओं से अभीष्ट पाने हेतु विवश या अनुकूल करते हैं । 'सकल सिवहि सकोचहीं । जा०मं०छं० १० सकोचिनि : वि०स्त्री० (सं० संकोचिनी ) । सिकोड़ने वाली । 'मोचिनि बदनसकोचिनि ।' रा०न० ७ सकोचा : सकोच । संकोच + प्रार्थना । 'पूछा सिवहि समेत सकोचा ।' मा० तुलसी शब्द-कोश १.५७.६ सकोची : सँकोची । (१) संकोचशील । 'बालक सुठि सुकुमार सकोची ।' गी० १.१०१-३ (२) अभ्यर्थनाशील । 'सोचत सकोचत सकोची बानि धरी है ।' गी० १.६२.२ सोच, चू : ( १ ) सकोच + कए० । संकोच, सिमटन । 'तन सकोचु मन परम उछाहू मा० १.२६४.३ (२) मानसिक संकोच । 'अंतरजामी प्रभुहि सकोचू ।' मा० २.२६६.५ 1 सकोप, पा: क्रोधसहित । मा० ७.१११ क; १३ कोपि : पूकृ० । सकोप होकर, क्रुद्ध होकर । 'उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ ।' मा० ६.३२ सकोरी : भूकृ०स्त्री० (सं० संकोटिता = संकोचिता > प्रा० संकोडिआ ) । सिकोड़ ली, कुचित की । 'सुनि अघ नरकहु नाक सकोरी ।' मा० १.२६.१ For Private and Personal Use Only * सकोरे : भूकृ०पु० (सं० संकोटित > प्रा० संकोडिय) । सिकोड़े हुए, आकुञ्चित किये, समेटे हुए । 'तकत सुभौंह सकोरे ।' गी० ३.२.४ सोहा : सकोप (सं० सक्रोध > प्रा० सक्कोह ) । क्रुद्ध | 'रावन आवत सुनेउ सकोहा । मा० १.१८२.६ सकौं : सकउँ । गी० ५ २०.१ सक्ति : शक्ति । (१) सामर्थ्य, क्षमता । ( २ ) अर्हता, योग्यता । (३) कौशल, दक्षता । 'अजित अमोघ सक्ति करुनामय । मा० ६.११०.६ (४) भगवान् की योगमाया (लक्ष्मी या सीता) । 'परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ।' मा० १.१८७.६ (५) दुर्गा, पार्वती । मा० १.६८.३ (६) एक प्रकार का खड्ग या शस्त्रविशेष । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1003 मा० ३.१९ छं० (७) सांग (प्रहरणविशेष)। 'मुरुछा भई सक्ति के लागें ।' मा० ६.५४.८ (८) देवी। सक्तिन्ह : सक्ति+संब० । शक्तियों, देवियों। 'सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ।' मा० १.५५.१ सक्यो : सकेउ । 'नाम सक्यो नहिं धोइ ।' दो० ५३१ सक : सं०० (सं० शक्र) । इन्द्र । मा० १.४.१०।। सक्रसुत : इन्द्र-पुत्र=जयन्त । मा० ५.२७.५ सकारि : इन्द्रजित् =मेघनाद । मा० ६.२७ सक्रोध : वि० (सं.)। सकोप, क्रुद्ध । मा० ३.२६.२१ सखन्ह : सखा+संब० । सखाओं (को)। 'प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।' मा० ७.११.२ सखर : वि० (सं०) । खर-युक्त । (१) खर नामक राक्षस से युक्त । (२) तीव्र (खर) वीर-रौद्र आदि रसों से युक्त । मा० १.१४ घ सखहि : सखा को (से) । 'पूछत सखहि ।' मा० २.२१६.६ सखाँ : सखा ने । 'लखन सखां सब कीन्ह सुपासू ।' मा० २.१०५.१ सखा : सं०० (सं०) । साथ खेलने वाला मित्र, सहचर । मा० १.१५.४ सखाउ : सखा भी । 'सब सुमति साध सखाउ !' गी० ७.२५.५ सखि : सखी+संबोधन (सं०) । हे सखी । मा० २.२०.८ सखिन, न्ह : सखी+संब० । सखियों (ने) । 'सखिन्ह सिखावन दीन्ह ।' मा० २.५० सखियां : सखी+ब० । 'सखियां सिखावतीं।' कवि० १.१३ सखीं : सखियाँ । 'मुदित मातु सब सखी सहेली।' मा० २.१.७ सखी : सं०स्त्री० (सं०) । सहचरी, मित्र स्त्री। मा० १.२२८.७ सगन : वि० (सं० सगण) । गणों सहित, सभी साथियों युक्त । कृ० ६१ सगर : सं०० (सं.)। रामचन्द्र के एक पूर्वज । विन० १८.२ सगरम : सगर्भ । गर्भवती । 'सब सगरभ सोहहिं सदन ।' रा०प्र० ४.१.३ सगरे : वि००ब० (सं० सकला:>प्रा० सगल या>अ० सगलय)। सब-के-सब, बहुत । 'तनु पोषक नारि नरा सगरे ।' मा० ७.१०२.५ सगर्भ : वि० (सं०)। (१) गर्भवती। (२) गम्भीर अर्थ की व्यञ्जना वाला, गूढ अर्थ-युक्त । 'नारद बचन सगर्भ सहेतू ।' मा० १.७३.३ सगलानि : (दे० गलानि) क्रि०वि० । ग्लानिपूर्वक, खेद के साथ, दु:ख अनुभव करते हुए । 'ध्रुवं सगलानि जपेउ ।' मा० १.२६ ५ For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1004 तुलसी शब्द-कोश सगाई : सगेपन में, घनिष्ठता (आत्मीयता) में। 'सब सुचि सरस सनेहं सगाई।' मा० २.३१४.१ सगाई : सं० स्त्री० (सं० स्वकता>प्रा० सगाया)। सगापन, आत्मीयता । 'जहं लगि जगत सनेह सगाई ।' मा० २.७२.५ सगुण : (१) वि० (सं०) । गुणयक्त। (ब्रह्म-सन्दर्भ में)। सत्यसंकल्पता, सत्यकामता, सर्वज्ञता, सर्वकर्तृत्व, व्यापकता, अजरामरता, निरीहता आदि कल्याण गुणों से सम्पन्न (जो वैष्णवदर्शन की मान्यता है) स्वेच्छा से मायागुणों द्वारा रूप लेकर साकार होने वाला। मा० ३.११.११ (२) सं०० (सं० सद्गुण>प्रा० सग्गुण) । उत्तम गुण-दे० सगुनु । सगुन : (१) सगुन । कल्याण गुण युक्त ब्रह्म राम (जो मायागुणों से परे होने के कारण निर्गुण भी है)। 'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी।' मा० १.२१८ (२) मायागुण ग्रहण कर साकार । 'अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।' मा० १.२३.१ 'राम सगुन भए भगत पेमबस ।' मा० २.२१६.६ (३) सं०० (सं० शकुन> प्रा० सगुण) । मङ्गलसूचक पक्षी आदि चिन्ह । 'सगुन होहिं सुदर सकल ।' मा० ७ दोहा २ सगुननि : सगुन+संब० । शकुनों (ने) । गी० १.४७.३ सगुनिअन्ह : सगुगिमा (शकुन-ज्ञाता) संब० । सगुन जानने वालों ने । 'कहेउ ___ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।' मा० २.१६२.४ सगुनु : सगुन+कए० (दे० सगुण)। सद्गुण । मा० २.२३२.५ ।। सगुनोपासक : (दे० सगुण) लीलावतारी पुरुषोत्तम के आराधक; लीलारस के भोक्त-वात्सल्य, सख्य तथा माधुर्य भावों के भक्त । 'सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं।' मा० ६.११२.७ सगे : वि०० ब० (सं० स्वक>प्रा० सग)। आत्मीय । “सगे सजन प्रिय लागहिं जोसें।' मा० १.२४२.२ सगो : वि०पु०कए० (सं० स्वक:>प्रा० सगो)। आत्मीय, सगा। सोइ सगो सो ___ सखा सोइ सेवक ।' कवि० ७.३५ सगौरि : गौरी (उमा) के सहित (शिव) । हनु० १३ सघट : वि०+क्रि०वि० (सं०) । घटसहित, घड़ा लिये हुए । मा० १.३०३.४ सघन : वि० (सं०)। (१) मेघयुक्त । (२) गहन, अविरल । 'पुरइनि सघन ओट जल ।' मा० ३.२६ क सचकित : वि० (सं०) । विस्मयाविष्ट, अकचकाये हुए। मा० २.२२६ छं० सचर : वि० । गतिशील, चलनात्मक, जंगम । 'अचर सचर चर अचर करत को।' मा० २.२३८.८ For Private and Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्दकोश 1005 सचराचर : वि० (सं.)। चराचर सहित, स्थावर तथा जंगम पदार्थों सहित, चेतन-जड़ तत्त्वों से युक्त । मा० ७.२१ सचान : सं०० (सं० शशादन>प्रा० ससान) । श्येन, बाज पक्षी । 'जनु सचान बन झपटेउ लावा।' मा० २.२६.५ सचि : (१) पूक० (सं० संचित्य>प्रा० संचिअ>अ० संचि)। संचित कर, समेट __ कर । (२) सांचे में ढालकर । 'राखी सचि कूबरी पीठ पर ये बात बकुचौंहीं।' कृ. ४१ सचिउ : सचिव+कए । मन्त्री । 'सचिउ सभीत सकइ नहिं पूछी।' मा० २.३८.८ सचि-पचि : (सचि+पचि) संचित कर+कष्ट उठाकर । 'करौं जो कुछ धरौं सचि-पचि सुकृत सिला बटोरि ।' विन० १५८.४ सचिव : सचिव ने । 'सचिव संभारि राउ बैठारे ।' मा० २.४४.२ सचिव : सं०० (सं०) । मन्त्री। मा० २.३६.८ सचिवन, न्ह : सचिव+संब० । सचिवों (ने, से, के, को)। 'सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ।' मा० ६.६.४ 'सचिवन्ह सहित बिभीषन आए।' मा० ५.२४.६ सचिवहि : सचिव को । 'सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई ।' मा० २.८७.६ सची : शची । इन्द्राणी । मा० २.१४१ सच : सं००कए० (सं० सत्त्वम्>प्रा. सच्चं>अ० सच्च)। (१) उत्साह, उल्लास । 'सिर धरि बचन चले सच पाई ।' मा० १.२८७.६ (२) सुख, तृप्ति, तुष्टि । 'बिनोदु सुनि सच पावहीं।' मा० १.६६ छं० (३) विनोद, आमोद-. प्रमोद । 'हसहिं संभुगन अति सचु पाएँ ।' मा० १.१३४.५ सचेत, ता : वि०पु० (सं० सचेतस्) । चेतनायुक्त, सजग । मा० २.३०२ सचेतन : वि० (सं०) । चेतनायुक्त, प्राणी (विशेषतः तर्कशील मानव) । मा० १.८५.३ सचेतू : सचेत+कए । सजग, जाग्रत्, पूरे होश-हवास के साथ । 'बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।' मा० २.१७६.५ सच्चरित : वि० सं०) । सदाचारी, उदार, उदात्त चरित्रयुक्त । मा० ७.२८ छं० सच्चिदानंद : सं०वि० (सं.)। ब्रह्म का यह स्वरूप-लक्षण है। (१) वह सत्स्वरूप =अपरिणामी, निर्विकार है; (२) चित् = पूर्ण चैतन्य युक्त है। (३) आनन्द का अधिष्ठान है । तीनों का असीम घनीभूत रूप ब्रह्म । मा० ७.२५ सच्चिदानंदमय : सत्, चित तथा आनन्द गुणों से परिपूर्ण ब्रह्म । मा० २.८७ सच्चिदानंदा : सच्चिदानंद । मा० १.१४४.१ सच्चिदानंद : सच्चिदानंद+कए । एकीभूत सत्, चित् ओर आनन्द । 'सीय रघुचंदु..'जन.. भगति सच्चिदानंदु ।' मा० २.२३६ For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1006 तुलसी शब्द-कोश सज, सजइ : आ०ए० (सं० सज्जते, सज्जयति>प्रा० सज्जइ)। सजता है; सजाता है, बनाता-संवारता है, व्यवस्थित करता है। 'मो कह तिलक साज सज सोऊ ।' मा० २.१८२.२ 'दलि दुख सजइ सकल कल्याना।' मा० २.२५५.७ सजग : वि०+क्रि०वि० (सं० सजागर>प्रा० सजग्ग)। जागरूक, सावधान । 'काजु सँवारेहु सजग सबु ।' मा० २.२२ । सजत : वकृ०० । सजाते-बनाते-संवारते । 'भयउ पाखु दिन सजत समाजू ।' मा० २.१६.३ सजति : वकृ.स्त्री० । सजाती-सँवारती । 'भूषन सजति ।' मा० २.२६ सजन : (१) संपु० (सं० सज्जन)। उदार पुरुष । (२) (सं० स्वजन) आत्मीय जन । 'सासु ससुर गुर सजन सहाई।' मा० २.६५.२ (३) पू० (सं० सज्जितुम्>प्रा० सज्जिउं>अ० सज्जण) । सजाने, बनाने-संवारने । 'लगे सुमंगल सजन सब ।' मा० २.८ सजनी : सं०स्त्री० (स्वजनी)। आत्मीया सहचरी, अन्तरङ्ग सखी। 'रानी कहहिं बिलोकहु सजनी ।' मा० १.३५८.३ सजल : वि० (सं०) । (१) जल-युक्त । (२) (नेत्रों के प्रसंग में) अश्रुपूर्ण । 'सजल नयन राजीव ।' मा० ७.१८ सहि : आ०प्रब० (सं० सज्जन्ते>प्रा० सज्जति>अ० सज्जहिं)। सजाते हैं। मा० २.२३ सनहि : आ० - आज्ञा, प्रार्थना-मए० (सं० सज्जस्व>प्रा० सज्जहि)। तू सुसज्जित कर । 'भूषन सजहि मनोहर गाता ।' मा० २.२६.७ सजहु : आ०मब० (अ० सज्जहु) । सजाओ । 'सजहु तुरग रथ नाग।' मा० २.६ सजाइ : (१) सं०स्त्री० (फा० सजा)। दण्ड । 'दीन्ही मोहि सरूप सजाइ ।' गी० ७.३०.१ (२) कृ० । सुसज्जित करवा कर । सजाई : सजाइ । (१) दण्ड । अपराध-निष्कृति । 'तौ बिधि देइहि हमहि सजाई ।' मा० २.१६.५ (२) सुसज्जित करवा कर । 'सब साजु सजाई। देउँ भरत कहुं राजु ।' मा० २.३१.८ सजाए : भूकृ०पु०ब० । सुसज्जित कराये, बनवाये । 'सब साज सजाए।' गी० १.६.८ सजाय : सजाइ । सजा, दण्ड । 'पैहहि सजाय नत कहत बजाय ।' हनु० २६ सजायउ : भूक.पु०कए० । सुसज्जित कराया । 'भ-धर भोरु बिदा कर साज सजायउ।' पा०म० १४० सजि : पू० (सं० सज्जित्वा>प्रा० सज्जिअ>अ० सज्जि)। (१) सुसज्जित कर। 'सजि सारंग एक सर हते सकल दस सीस ।' मा० ६.९६ (२) उत्पन्न कर, जमा कर । 'सजि प्रतीति बहु बिधि गढ़ि छोली।' मा० २.१७.४ For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1007 सजीव : वि. (सं०) । जीवधारी, प्राणवान् । मा० ६.७१.३ सजीवन : वि० (सं० संजीवन) । जीवनदायी, नीरोगकारी । 'संसृति रोग सजीवन मूरी।' मा० ७.१२९.२ सजीवनि : सं+वि०स्त्री० (सं० संजीवनी)। जीवित करने वाली, जीवन दायिनी । मा० २.५६ 'प्रीति सजीवनि बेलि ।' कृ० २६ । सजीवनु : सजीवन+कए। एकमात्र जीवनप्रद । 'अमिअ सजीवनु ।' मा० सजें : क्रि०वि० । शृङ्गार सज्जा किये हुए । 'जुबतीं सजें करहिं कल गाना।' मा० सजे : भूक०० ब० (सं० सज्जित>प्रा० सज्जिय)। सुसज्जित-शृङ्गारित किये। 'अंग अंग सजे बनाइ ।' मा० ७.११ सजेउ : भूकृ.पु०कए । सजाया । 'भूप सजेउ अभिषेक समाजू ।' मा० २.१०.२ सजे : सजइ । विन० १३५.३ सज्जन : सं०+वि० (सं.)। उत्तम जन, साधु पुरुष । मा० ७.२६.१ सज्जननि, न्हि : सज्जन+संब० । सज्जनों (को, के लिए)। दो० १६४ सज्या : सं०स्त्री० (सं० शय्या) सेज । 'तून सज्या द्रुम प्रीति ।' दो० १६२ सठ : शठ । दुष्ट, हठी । सदोष होकर भी अपने को निर्दोष ही मानने वाला तथा दूसरे को ही दोषी ठहराने वाला दुराग्रही । तर्क संगत बात भी न मानने वाला नीच । मा० १.३.६ सठई : सं०स्त्री० (सं० शठता) । दुराग्रहपूर्ण कर्म । 'नंदनंदन हो निपट करी सठई ।' कृ०३६ सठताई : सठई । मा० ७.४६.८ सठन्ह, न्हि : सठ+संब० । शठों (को, के)। मा० ५.२१.७; २.३२६ छं० सठही : शठ को । 'यह न कहिअ सठही हठसीलहि ।' मा० ७.१२८.३ सठहु : सठ-+सम्बोधन । ऐ दुष्टो । 'सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ।' मा० ६.८८.३ सछु : सठ+कए । एक ही शठ । 'मैं सठु सब अनरथ कर हेतू ।' मा० २.१७६.५ सड़सिन्ह : सड़सी+संब० । सड़सियों (से) । मा० ६.२३ सड़सी : सं०स्त्री० (सं० संदंशिका>प्रा. संडंसिआ) । बड़ी चिमटी जिससे तार आदि पकड़ कर खींचा जाता है। सत : (१) संख्या (सं० शत) । सौ, सैकड़ा । 'कहेसि कथा सत सवति के ।' मा० . २.१८ (२) संख्या (सं० सप्त>प्रा. सत्त)। सात । 'सत पंच चौपाई मनोहर ।' मा० ७.१३० छं० २ (३) वि०० (सं० सत्)। उत्तम, साधु । जैसे, सतसंगति, सतगुरु आदि । (४) ब्रह्म का स्वरूप (दे० सच्चिदानंद)। For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1008 तुलसो शब्द-कोश 'सत चेतन धन आनंद रासी।' मा० १.२३.६ (५) वि० (सं० सत्, सत्य) । सच्चा, यथार्थ । 'सत हरि भजन जगत सब सपना ।' मा० ३.३६.५ (६) सं०पू० (सं० सत्त्व>प्रा० सत्त)। साहस, उत्साह, सार, स्वरस । सतकर्मा : शुभ कर्म, पुण्यकार्य । मा० ३.२१.८ सतगुन : (दे० सत) । (१) सत्त्वगुण =प्रकृति का सुखात्मक गुण । (२) (सं० सद्गुण)। उत्तम गुण, उपकार आदि धर्म । 'बिपति काल कर सतगुन नेहा ।' मा० ४.७.६ सतगुरु : सं०० (सं० सद्गुरु) । उत्तम गुरु, सत् (परमार्थ तत्त्व) का उपदेशक आचार्य (वैष्णव मत में आचार्योपदेश ज्ञान तथा भक्ति का आधार है)। 'जहाँ सांति सतगुरु की दई ।' वैरा० ५१ सतड़ित : वि० (सं० सतडित्) । बिजली सहित । गी० ३.१.१ सतत : संतत । निरन्तर । मा० ४ श्लो० २ सतभाय, व : (दे० सत) सत्यभाव, सात्त्विक भाव, सद्भाव = यथार्थ विनीत अभिप्राय । 'सूधी सतभाव कहें मिटति मलीनता ।' विन० २६२.४ सतर : वि० (सं० सत्त्वर>प्रा० सत्तर)। भावावेश आदि से वक्र-चञ्चल । 'कान्हहू पर सतर भौंहैं महरि मनहिं बिचारु ।' कृ० १४ ।। सतरंज : सं०स्त्री० (फा० शतरंज)। गोटों का खेलविशेष । विन० २४६.४ सतराइ : पूक० (दे० सतर)। चिढ़ा हुआ त्वरित प्रतिकूल गति लेकर । इतरा कर । 'सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकए।' कवि० ५.१७ (रोकने पर और भी सत्त्वर चाल से चलता है)। सतरूपहि : शतरूपा को । 'सतरूपहि बिलोकि कर जोरें।' मा० १.१५०.३ सतरूपा : सं०स्त्री० (स० शतरूपा) । स्वायंभुवमनु की पत्नी । मा० १.१४२.१ सतसंग, गा : सं०० (सं० सत्संग) । सज्जनों का सम्पर्क, साधुजन संसर्ग । मा० १.३.६; ७.३३.८ सतसंगत : (दे० सत) (सं० संगतमंत्री)। सज्जनों का मंत्री सम्बन्ध । 'सत संगत मुद मंगल मूला ।' मा० १.३.८ सतसंगति : सं०स्त्री० (सं० सत्संगति) =सतसंग। मा० ७.४५.६ सतसमाज : (दे० सत) श्रेष्ठ, उत्तम समाज; सज्जनों का समाज । मा० १.११३ सतां : (सं०) सज्जनों का-की-के । मा० ३.४.११; ६ श्लो० ३ सताइहै : आ०भ०प्रए० (सं० सन्तापयिष्यति>प्रा० संताविहिइ) । सन्तप्त करेगा, क्लेश देगा। 'सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ।' विन० ६८.२ सतानंद : सं०० (सं० शतानन्द)। अहल्या-गौतम के पुत्र जनकराज के पुरोहित । मा० १.२३६ For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1009 सतानंदु : सतानंद+कए। मा० १.२३६.६ सतायो : भूक००कए० (सं० सन्तापित:>प्रा० संतावियओ>अ० संतावियउ)। संतप्त किया। 'ता पर दुसह दरिद्र सतायो ।' विन० २४४.४ 'सताव, सतावइ, ई : आ.प्रए० (संतापयति>प्रा० संतावइ)। सताता है। सन्ताप (क्लेश) देता है । 'ब्याधि सूल सतावई ।' विन० १३६.८ सतावन : वि.पु. (सं० सन्तापयित्>अ० संतावण)। सन्तापकारी, क्लेशदायी। ___ 'खल मायाबी देव सतावन ।' मा० ६.७५.४ सतावहिं : आ०प्रब० (सं० संतापयन्ति>प्रा. संतावंति>अ० संतावहिं)। सन्ताप देते हैं, पीड़ित करते हैं, सताते हैं । 'असुर समूह सतावहिं मोही।' मा० १.२०७.६ सतावे : सतावइ । 'दारुन बिपति सतावै ।' विन० ११६.२ सतासी : संख्या (सं० सप्ताशीति>प्रा० सत्तासी) । मा० १.६०.२ सति : वि० (सं० सत्य) । सच्चा। 'लखि नहिं सकहिं कपट सति भाऊ ।' कृ० १२ सतिभाउ, ऊ : सतभाय+कए। (१) सद्भाव । 'बुझि भरत सतिभाउ कुमाऊ।' मा० २.२७१.८ (२) सत्य भाव । 'प्रभु पद सपथ कहउँ सतिभाऊ ।' मा० २.२६६.८ (३) सात्त्विक आशय। मा० २.३०४.२ (४) यथार्थ । 'है सपना बिधि कंधों सतिभाउ ।' गी० ३.७.४ । सतिभाएं : सात्त्विक-सत्य-सद्-भाव से। 'बहुरि दि खलगन सतिभाएँ ।' मा० १.४.१ सतिमार्य : सतिभाएँ । 'अति सनेह सतिभायं पायं परि पुनि पुनि ।' पा०म० १३ सतिभाय : सतभाय । कह सनेह सतिभाय ।' मा० २.२८४ सतिभाव : सतभाव । निश्छल आशय । 'मैं तुम सों सतिभाव कही है।' गी० २.६.१ सतिहि : सती (को, से)। 'सतिहि बिलोकि जरे सब गाता।' मा० १.६३.३ सती : सती ने । 'सती हृदय अनुमान किय ।' मा० १.५७ सती : सं०+वि०स्त्री० (सं०) । (१) महादेव की पूर्व पत्नी दक्षपुत्री। मा० १.५६.८ (२) सच्चरित्रा स्त्री। मा० ७.१०१.३ (३) मृतक पति के साथ जल मरने वाली पतिव्रता । 'निकसि चिता ते अधजरति मानहुं सती परानि।' दो० २५३ सतु : सत+कए । सत्त्व, साहस, उत्साह, सार । 'निघटि गए सुभट, सतु सब को छुट्यो।' कवि० ४.४६ सतुआ : सं०० (सं० सक्तुक>प्रा० सत्तुअ)। भूने जो आदि का चूर्णविशेष । कवि० ६.५० सतोगुन : सत्त्वगुण । विन० ४७.४ For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1010 तुलसी शब्द-कोश सत्तरि : संख्या (सं० सप्तति>प्रा० सत्तरि) । सत्तर । मा० १.१५६.८ सत्य : वि०+सं०० (सं०) । परमार्थ, यथार्थ, सत् । मा० १.६.११ सत्यकृत : वि०पू० (सं० सत्यकृत्) । सत्य का कर्ता। वैष्णवमत में जगत्प्रपञ्च सत्य है, उसका कर्ता= परमेश्वर । विन० ५३.५ सत्यकेतु : सं०० (सं०) । एक राजा प्रतापभानु का पिता । मा० १.१५३.२ सत्यता : सं०स्त्री० (सं०) । यथार्थता, वस्तु-सत्ता, वास्तविकता । 'जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य इव ।' मा० १.११७.८ सत्यधाम : वि० (सं० सत्यधामन्)। (१) सत्य प्रकाश (धाम) वाला। (२) सत्य का अधिष्ठान=सत्य कामता, सत्य-संकल्प आदि कल्याण गुणों का आधार । (३) परमार्थ तत्त्वरूप । 'सत्यधाम सर्वग्य तुम्ह ।' मा० १.४६ सत्यव्रत : वि० (सं० सत्यव्रत) । सत्य संकल्प, दृढप्रतिज्ञ । मा० २.२०७.४ सत्यमूल : वि.पु. (सं०) । ऐसे, जिनका मूल कारण सत्य है; सत्य से ही जनित । 'सत्यमूल सब सुकृत सुहाए।' मा० २.२८.६ सत्यरत : वि० (सं०) । सत्य में रमण करने वाला=सत्य संकल्प । विन० ५३.५ सत्यलोक : सात ऊर्ध्व लोकों में सर्वोपरि लोक ==ब्रह्मलोक । मा० १.१३८ सत्यसंकल्प : वि० सं० सत्य: संकल्पो यस्य स सत्यसंकल्प:) । अमोघ संकल्प वाला (वैष्णव मत में ब्रह्म का यह-सत्यसंकल्पता-कल्याण गुण है)। 'राम सत्य संकल्प प्रभु ।' मा० ५.४१ सत्यसंध : वि०पू० (सं0- सत्या सन्धा यस्य स सत्यसंध:) । (१) दृढप्रतिज्ञ (सन्धा=प्रतिज्ञा)। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।' मा० २.३०.४ (२) अमोघ बाण संधान करने वाला (सन्धा=सन्धान)। 'सत्यसंध छाड़े सर लच्छा।' मा० ६.६८.३ सत्यसंधान : सत्यसंध (सं.)। विन० ५५.३ सत्यसार : वि० (सं.)। सत्य ही जिनका तथा जिनके लिए सार तत्त्व है= सत्यधन (सत्त्यव्रती) । मा० ३.४५.८ सत्र : सं० (सं० शत्रु) । शातनकर्ता=मारक । रिपु, वरी । मा० ४.७.१८ सत्रुघुन : सत्रुहन (सं० शत्रुघ्न) । मा० २.१६३.१ सत्रुसमन : सत्रुहन (सं० शत्रुशमन-शमन = अन्तक) । दो० १२१ सत्रुसाल : वि०+सं०० (सं० शत्रुशल्य)। (१) रिपुओं को शल्यवत् चुभने __ वाला । (२) शत्रुघ्न । गी० १.४२.१ सत्रुसूदन : (सं० शत्रुसूदन) । (१) शत्रुसंहारक । (२) शत्रुघ्न नामक दशरथ पुत्र । मा० १.३११.७ सत्रुहन : सं०पू० (सं० शत्रुघ्न) । सुमित्रा के छोटे पुत्र का नाम । मा० २.१७३ For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश 1 सत्व : सं०पु० (सं०) । (१) त्रिगुण प्रकृति का प्रथम गुण जो सुखात्मक तथा ज्ञान-प्रकाशरूप होता है । मा० ७.१०४.२-४ (२) सार, निष्कर्ष । (३) जन्तु | (४) सत्ता, होना, विद्यमानता । मा० १ श्लोक ६ सत्वगुण: प्रकृति का प्रथम गुण (दे० सत्त्व) | सत्वगुणप्रमुख : सत्त्वगुण आदि = त्रिगुण सत्त्व, रज = और तमस् तीनों प्रकृतिगुण जो क्रमश: ज्ञान-सुख, क्रिया- दुःख तथा मोह के कारण हैं । विन० ५८.२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्संग : (दे० सतसंग ) । विन० ५७.१ सदई : सदैव । सदा ही । 'गई बहोर बिरद सदई है ।' विन० १३६.१२ 1 सदगुन: सं०पु० (सं० सद्गुण) । (१) उत्तम मानवीय गुण = दया, क्षमा, सन्तोष, प्रेम आदि । मा० ७.२ छं० (२) ब्रह्म के कल्याणगुण = सत्यसंकल्पता, सत्यकामता, सर्वज्ञता, सर्वकर्त ता, अजरामरता, ७.१३ छं० ६ क्षुधा पिपासा - हीनता आदि । मा० सदगुनाकर : (दे० सदगुन ) । कल्याण गुणों का आधार । सदगुनाकर ।' मा० ७.१३ छं० ६ सदन : सं०पु० (सं० ) । भवन, घर । मा० २.६.५ सदननि: सदन + संब० । घरों । गी० २.५१.२ 1 1011 सबगुर, रु: सतगुरु । ब्रह्मोपदेशक आचार्य । मा० ७.४४.८ सवग्रंथ : सं०पु० (सं० सद्ग्रन्थ) । बेद, शास्त्र आदि प्रामाणिक उत्तम ग्रन्थ । मा० ७.३३ 'करुनायतन प्रभु सदनि: सदन + स्त्री० । आवास, आधार, आवास देने वाली । विन० १६.१ सदनु: सदन + कए० । घर । 'सुरपति सदनु न पटतर पावा ।' मा० २.६०.७ सदय : (१) वि० (सं० ) । दयालु । 'सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी ।' मा० २.८५.१ (२) क्रि०वि० । दयापूर्वक । 'हहरि हिय में सदय बूझ्यो ।' विन० २१९.३ सदल : वि० (सं० ) । सेनासहित । मा० ६.११६.६ - सदसि : (सं० सदसि सभा में सदस् = सभा ) । 'पांडु सुवन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि ।' दो० ४१६ ( सदसि ते = सभा में रहने की अपेक्षा । ) सदा : अव्यय ( सं ) । सर्वदा, सभी समयों में । मा० १.४.११ - सदाई : सदई, सदैव । सभी दशाओं में, सभी अवसरों पर । 'जथा - लाभ संतोष I For Private and Personal Use Only सदाई ।' मा० ७.४६.३ सदाचार : सं०पु० (सं०) । उत्तम आचरण, विहित कर्म करने की प्रवृत्ति । मा० १.८४.८ सदासिव : सं०पु० (सं० सदाशिव ) | ( १ ) शङकर शिव । चाहिअ सदसिवहि भरतारा ।' मा० १.७८.७ (२) परम शिव (ब्रह्म) के तीन रूप हैं - सदाशिव, Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1012 तुलसी शब्द-कोस ईश्वर और शुद्ध विद्या । इनमें सदाशिव ज्ञान शक्ति प्रधान है और प्रायः 'शिव' अर्थ में चलता है। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।' मा० २.४४.७ सदासीन : (सदा+आसीन)। सर्वदा विराजमान, सदा विद्यमान । सदा बैठे हुए । 'वद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं ।' विन० ६०.५ सदश : वि. (सं.)। समान । विन० ५१.२ सदेह : वि० (सं.)। सशरीर, भौतिक आकार युक्त, मूर्त । विन० २१४.५ सदैव : (सदा+एव) । सदा ही; सभी समयों में । मा० १.२६६.५ सदोष : वि० (सं०) । दोषयुक्त, दूषित, विकारयुक्त । मा० २.१८३ सधर्म : सं०० (सं.)। (१) कल्याणगुण (सदगुन)। मा० ४ श्लोक १ (२) उत्तम धर्माचार । 'जिमि कपूत के उपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।' मा० ४.१५ सम : सं०० (सं० सद्मन्) । सदन; घर । विन० ५१.६ सद्य : (१) क्रि०वि० (सं० सद्यस्) । शीघ्र ही, तत्काल । 'करउँ सद्य तेहि साधु समाना।' मा० ५.४८.३ (२) वि० (सं० सद्यस्क) । प्रत्यग्र, ताजा । 'करि सब सोनित पान ।' मा० ६.१०१.२ सक्ति : सं०स्त्री० (सं०) । श्रेष्ठ उपाय, कौशल (दे० जुगुति) । विन० ५७.७ सधन : वि० (सं.)। धन-सहित । दो० २०७ सषरम : (सं० सधर्म) । धर्मयुक्त । दो० ५३० सन : (१) अव्यय (परसर्ग) । से । 'नृप सन अस बरु दूसर लेहू ।' मा० २.५०.४ (२) ओर । 'बहुरि बिलोकि बिदेह सन ।' मा० १.२६६ (३) सं०० (सं.. शण) । पटसन (सनई या जूट के समान एक सुप जिसकी त्वचा से रस्सी बनती है)। 'सन इव खल पर बंधन करई ।' मा० ७.१२२.१७ सनक : (दे० सनकादि) । विन० ५०.६ सनकादि : (सं.)। ब्रह्मा के चार मानस पुत्र=सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार । मा० ७.३५ सनकादिक : सनकादि । मा० ७.३१.३ सनकादी : सनकादि । मा० ३.६.५ सनकार : सं०स्त्री० । इङ्गित, कायिक संकेत (अङ्ग लिनिर्देश आदि) । 'समय सुकरुना सराहि सनकार दी।' कवि० ७.८३ सनकारे : भूक००ब० । संकेतों से बुलाये । 'सनकारे सेवक सकल।' मा० २.१९६ सनमान : सं०० (सं० सन्मान =सम्मान) । सत्कार, आदर । 'सब कर करि सनमान बहूता।' मा० ४.१६.६ सनमानत : वकृ.पु । सत्कार करता-करते । गी० १.४२.३ For Private and Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सनमानहि : सनमान + प्रब० । (१) सम्मान देते हैं । 'सुनि सनमानह सबहि सुबानी । मा० १.२८. ९ (२) सम्मान दें । 'जो सनमानहि सेवकु जानी ।' मा० २.२३४.१ समाना : (१) सनमान । 'कीन्ह सनमाना ।' मा० १.१२५.३ (२) भूकृ०पु० । सम्मानित किया । 'सहित बरात राउ सनमाना । मा० १.३०६.६ सनमानि : सनमान + पूकृ० । आदर देकर । मा० २.२८७ सनमानित : सनमान + वकृ० कवा०पु० । आदर पाता पाते; सम्मानित किया जाता-जाते । 'राम ही के द्वारे पे बोलाइ सनमानियत ।' कवि० ७.२३ सनम मानिये, ए : आ०कवा०प्र० । सम्मानित कीजिए किया जाय किया जाता है । 'सब सों सनेह सबही को सनमानिये ।' कवि० ७.१६८ सनमान : भूकृ० स्त्री०ब० । सम्मानित कीं। 'गंग गोरि सम सब सनमानीं ।' मा० । 1013 २. २४५.२ सनमानी : (१) सनमानि । 'सेवहि सनमानी ।' मा० २.१२६०८ (२) भूकृ० स्त्री० । सम्मानित की। 'काहुं न सनमानी ।' मा० १.६३.१ (३) सम्मान पायी हुई । 'नंदसुवन सरमानी ।' कृ० ४८ सनमानु, नू : सनमान + कए० । 'करि सनमानु आश्रमह आने ।' मा० २.१२५.२; मा० १.७.७ सनमाने : भूकृ०पु०ब० । सम्मानित किये । मा० २.१० सनमानेउ : भूकृ०पु०कए० । सम्मानित किया । पा०मं० ६५ सनमान्यो : सनमानेउ । गी० १.१७.६ सनमुख : (१) सन्मुख | सामने । मा० ६.७.१ ( २ ) अनुकूल । 'विधि सब विधि मोहि सनमुख आजू ।' मा० २.४२.१ सनाए : भूकृ०पु०ब० । ओतप्रोत कराये, मिश्रित कराये । 'भरि भरि सरवर पिका अरगजा सनाए ।' गी० १.६.७ सनाथ : (१) वि० (सं०) । ( अनाथ का विलोम ) । कृतार्थ, सफल, पूर्णकाम | 'पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ।' मा० ७.६ (२) सहित, युक्त । सनाथा : सनाथ । मा० ४.२२.२ सानाला : वि० (सं० सनाल ) । नाल-दण्ड सहित । 'सोहत जनु जुग जलज For Private and Personal Use Only सनाला । मा० १.२६४.७ सनाह : (१) सं०पु० (सं० सन्नाह) । कवच । 'उठि उठि पहिरि सनाह अभागे ।' मा० २.२६६.२ (२) सनाथ (प्रा० साह ) । दे० सना हैं | सनाहु : सनाह + कए० । कवच । मा० २.१६० Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1014 तुलसी शब्द-कोश सनाह : सनाह+ब० । सनाथ =संयुक्त । 'गावत जिन्ह के जस अमर नाग नर सुमुखि-सनाहैं ।' गी० ७.१३.७ सनि : सं०० (सं० शनि) । (१) शनैश्चर ग्रह । (२) शनिवार। 'सनि बासर बिश्राम। रा०प्र० ७.२.२ सनीचरी : सं०स्त्री० । शनैश्चर (प्रा० सणिच्चर) की स्थिति । 'सनीचरी है मीत की। कवि० ७.१७७ सनीरा : (सं० सनीर)। सजल । मा० २.७०.२ सनेम, मा : (दे० नेम) । नियमों से युक्त (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान-नियमों से संयुक्त) । मा० २.३१०.८; ३२३.७ सनेहँ : (१) स्नेह ने । 'गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ ।' मा० २.२४ (२) स्नेह से, में । 'मैं सिसु प्रभु सनेहें प्रतिपाला।' मा० २.७२.३ सनेह : संपु० (सं० स्नेह>प्रा० सणेह)। (१) प्रेम । 'आवत हृदयं सनेह बिसेकें। मा० १.२१.६ (२) चिकनाई-घी, तेल आदि । 'सुख सनेह सब दिये दसरथहि, खरि खलेल थिर-थानी।' गी० १.४.१३ (३) प्रेम+ चिकनाई।' 'रीझत राम सनेह निसोते।' मा० १.२८.१० (४) वि० (सं०. सस्नेह>प्रा० स-णेह-दे० नेह) । सप्रेम, नेह सहित । सनेहता : संस्त्री० (सं० सस्नेहता-दे. सनेह+नेह) । स्नेहशीलता । 'एक जंग जो सनेहता।' दो० ३१२ सनेहविषनी : वि.स्त्री. (सं० स्नेहविषयिनी) । प्रेम के विषय की, स्नेह के बारे में होने वाली । गी० १.८१.३ । सनेहमय : स्नेहप्रचुर, स्नेहपूर्ण, स्नेहस्वरूप (दे० मय)। मा० २.११७.२ सनेहा : सनेह । सप्रेम । मा० १.८२.३ सनेही : वि० (सं० स्नेहिन्) स्नेहयुक्त । (१) प्रेमी, प्रिय । मा० २.६४.३ (२) तेल (चिकनाई से युक्त) । 'तिली सनेही जानि ।' दो० ४०३ (प्रायः श्लिष्ट प्रयोग देखे जाते हैं ।) सनेहु, हू : सनेह+कए । अनन्य प्रेम । ‘सील सनेहु जानत रावरो।' मा० १.२३६ छं०; २.३.८ सन्तापनास : (सं० सन्तापनाश) दुःख-नाशक । मा० ७.१०८.१४ सन्मुख : (१) वि० (सं० सम्मुख)। अनुकूल । (२) क्रि०वि० । सामने । मा० सन्यपात : संनिपात । असाध्य त्रिदोषज रोगविशेष । 'गुनकृत सन्यपात नहिं के ही।' मा० ७.७१.१ (मूल अर्थ समूह है अत: अनेक भाषादि का मिश्रण अर्थ भी (अभिप्रेत है)। For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1015 सपच्छ, च्छा : वि० (सं० सपक्ष) पंखों वाला-वाले। 'जन सपच्छ धावहिं बहु नागा।' मा० ६.५०.५, ६७.३ सपथ : सं० (सं० शपथ)। सौंह, कसम । मा० १.२५३ इसके प्रयोग प्रायः स्त्री में होते हैं । 'तोहि स्याम की सपथ जसोदा।' कृ० ३ सपदि : अव्यय (सं.)। शीघ्र, तत्काल, तुरन्त । मा० ७.११२.१५ सपन, ना : सं०० (सं० स्वप्न)। निद्रावस्था में दिखाई पड़ने वाली मानसी ___ सृष्टि । मा० १.७२ 'सबन्हो बोलि सुनाएसि सपना।' मा० ५.११.२ सपनें, ने : स्वप्न में । ‘सपनें बानर लंका जारी।' मा० ५.११.३ सपनेहुं : स्वप्न में भी। 'बिसरे गह सपनेहुँ सुधि नाहीं।' मा० ७.१६.१ सपनो : सपना+कए । 'अपनो न कछु सपनो दिन द्वै ।' कवि० ७.४१ सपरन : वि० (सं० सपर्ण) । पत्र सहित । मा० १.२८८.२ सपरब : वि० (सं० सपर्वन) । पोरों (गांठों) से युक्त । 'सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ।' मा० १.२८८.१ सपरिजन : (दे० परिजन) परिजन (परिवारादि) सहित । मा० २.६६.३ सपल्लव : (सं०) पल्लव-सहित । जा०म० १८४ सपुर : वि० (सं.)। नगर समेत । जा०म० ८९ सपूत : सुपूत (सं० सत्पुत्र>प्रा० सप्पुत्त) । हनु० ८ सपेम, मा : सप्रेम । मा० २.२२२.१; ३२२.७ सपेला : सं०० (सं० सर्पक = ह्रस्वसर्प>प्रा. सप्पिल्ल=सप्पल्ल)। छोटा साप, तुच्छ सर्प । मा० ६.५१.८ सप्त : संख्या (सं.)। सात । मा० ७.२२.१ सप्तधातु : (सं०) । शरीर रचना के सात तत्त्व रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र । विन० २०३.८ सप्तरिषि : (दे० रिषि) । सप्तर्षि =मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, ऋतु, पुलह, पुलस्त्य और वसिष्ठ । मा० १.७७.८ सप्तरिषिन्ह : सप्तरिषि+संब० । सप्तर्षियों (को, से) । मा० १.६१.५ सप्तावरन : (सं० सप्त+आवरण) । (१) भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः तपः और सत्यम् -इन लोकों के सात वातावरण। (२) अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, मायमय और तुरीय-इन सात कोषों के अवरण (जिनके आधार पर ब्रह्म को सप्तात्मा कहा गया है) । (३) योग की सात भूमियाँ = सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, सानन्द, सस्मित और असंप्रज्ञात समाधियों के आवरण । मा० ७.७९ For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1016 तुलसी शब्द-कोश सप्रकासू : (१) सं००कए० (सं० सत्प्रकाशः)। उत्तम प्रकाश (ज्ञान रूपी श्रेष्ठ ज्योति) । 'दलन मोह तम सो सप्रकासू ।' मा० १.१.६ (२) वि०पु०कए. (सं० सप्रकाश:) प्रकाश-सहित । सप्रिय : वि०पु० (सं.)। प्रियासहित । गी० २.२५.३ सप्रिया : वि.स्त्री० (सं०) । प्रिय-सहित स्त्री । गी० २.२५.३ सप्रीति : क्रि०वि०+वि० (सं०) । प्रेमपूर्वक ; प्रेम-सहित । 'बिनती करइ सप्रीति।' मा० १.४ सप्रीती : सप्रीति । मा० २.६.६ सप्रेम : वि० (सं०) । प्रेमसहित, सस्नेह । मा० १.२.४ सप्रेमा : सप्रेम । मा० २.१६५.३ सप्रेमु : सप्रेम+कए० (क्रि०वि०) । 'मिलि सप्रेम पुनि आसिष दीन्ही ।' मा० १.३४२.८ सफरी : सं०स्त्री० (सं० सफरी=शफरी) । छोटी मछली । विन० १६७.२ सफल : वि० (सं.)। (१) फल युक्त । 'सफल रसाल पूगफल केरा।' मा० २.६.६ (२) पूर्ण काम, कृतार्थ । 'मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।' मा. २.६६.४ (३) धर्मादि पुरुषार्थों को प्राप्त । 'तब निज जन्म सफल करि लेखौं। मा० ७.११०.१४ सफूला : वि० । पुष्प-सम्पन्न, पुष्पित । मा० २.२३६.८ सब : वि० (सं० सर्व>प्रा० सव्व) । सकल, समस्त । मा० ७.२ ख सबइ : सभी, सब कुछ, सभी बातें । 'प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं।' मा० २.४.४ सबद: सब्द । मा० १.३१६.३ सबदरसी : (दे० दरसी) वि.पु. (सं० सर्वदशिन्>प्रा० सव्वदरिसी)। सम्पूर्ण का द्रष्टा, सर्वज्ञ, अन्तर्यामीरूप से सब पर दृष्टि रखने वाला । मा० ७.७२.५ सबदी : सं०स्त्री० (सं० शब्द) । सन्तों आदि के पद जो सबदी' या 'सबद' नाम से जाने जाते हैं; विशेषतः हठयोगियों के पदों के लिए गोस्वामी जी ने प्रयुक्त किया है । 'साखी सबदी दोहरा ।' दो० ५५४ ।। सबनि, न्ह, न्हि : सब+संब० । (१) सबों । ‘पर हित हेतु सबन्ह के करनी।' मा० ७.१२५.६ (२) सबों ने । 'सबन्हि बनाए ।' मा० ७.६.२ (३) सबों में। 'सबन्हि परसपर प्रीति बढ़ाई।' मा० ७.२३.२ (४) सबों को । 'सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।' मा० ७.२४.८ 'सासुन्ह सबनि मिली बैदेही ।' मा० ७.७.१ सबन्हौं : सभी को । 'सबन्हों आइ सुनाएसि सपना ।' मा० ५.११.२ सबर : सं.पु. (सं० शबर) । वन्य मानव जातिविशेष । मा० २.१९४ सबरिका : सबरी (सं० शबरिका) । गी० ३.१७.३ For Private and Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1017 सबरिहि : शबरी को। मा० ७.६६.७ सबरी : सं०स्त्री० (सं० शबरी)। (१) शबर जाति की स्त्री। जंगली शिकारी स्त्री । 'सबरी गान मृगी जनु मोही।' मा० २.१७.१ (२) शबर जाति की एक तापसी जिसे अरण्यकाण्ड में राम मिले थे । मा० ३.३४.५ सबरूप : वि०० (सं० सर्वरूप)। सभी रूपों में स्वयं ही आकार लेने वाला, सब का उपादानकारण । 'सब-रूप सदा सब होइ न गो।' मा० ६.१११.१५ सबल : वि० (सं०) । बलयुक्त । मा० ६.७६ छं० । सबहिं, हीं : (१) सभी ने । 'सजे सबहिं हाटक घट नाना ।' मा० १.६६.३ (२) सभी से । 'सबहीं बिधि हीना।' मा० ५.७.७ सबहि, ही : सबको, सबके लिए । मा० १.१० क 'बरषि दिए मनि अंबर सबही।' मा० ६.११७.६ सवाल : शिशु-सहित, बच्चा लिये हुए । मा० १.३० ३.४ सषिकारा : वि० (सं० सविकार)। विकारयुक्त, सदोष (कामादि मनोविकारों वाले) । 'अब लगि संभु रहे सबिकारा ।' मा० १.६०.२ सबिता : सं०पू० (सं० सवित)। सूर्य । गी० ७.१३.२ सबिधि : क्रि०वि० (सं० सविधि)। विधिपूर्वक, शास्त्रविहित रीति से । मा० २.२०४.४ सबिनय : वि० (सं० सविनय) । विनीत, शिष्टाचारयुक्त । मा० २.३१.४ सबिबेका : वि०+कि०वि० (सं० सविवेक)। विवेक सहित, विवेकपूर्वक । उचित विचार सहित । मा० १.४१.२ ।। सविष : वि० (सं० सविष) । विषयुक्त, विषदिग्ध । मा० ६.६६.६ सबिषाद, दा : वि०+क्रि०वि० (सं० सविषाद)। विषादयुक्त, विषाद के साथ । मा० २.१८६.२ 'सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं ।' मा० २.११०.६ सबीज : वि० (सं०) । बीज मन्त्र (ओंकार आदि) से युक्त । 'मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।' मा० २.१८४.२ सबील : सं०स्त्री (अरबी-सबील =मार्ग, मार्ग पर शर्बत आदि का मुफ्ती प्रबन्ध) । उपाय, प्रबन्ध, सहाय-व्यवस्था । 'मैं बिभीषन की कछू न सबील की।' कवि० ६.५२ सबु : सब+कए । सब-का-सब, एकीभूत समष्टि । 'भिन्न भिन्न मैं दीख सबु ।' मा० ७.८१ सबुइ : सभी, (एकीभूत) सब कुछ । 'साजिअ सबुइ समाजु ।' मा० २.४ सबेग : वि० (सं० सवेग) । वेगयुक्त, तीब्रगामी । मा० २.२४३.२ सबेरें, रे : (१)क्रि०वि० (सं० सवेल =वेलानुसार, समयानुसार) । समय पर, शीघ्र। 'चितइए सबेरे ।' विन० २७३.३ (२) (सं० श्वोबेल-प्रभातवेला में) प्रातः काल (में)। कहीं ते बाते जे कहि भजे सबेरे ।' कृ०३ For Private and Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1018 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश सबेरो: सबेरे । शीघ्र । 'सनेह सों राम को होहि सबेरो ।' कवि० ७३५ सबै : सबइ । ( १ ) सभी । 'सो तो सबै मन की चतुराई ।' कृ० २५ (२) सब कुछ । 'सुलभ सबै जग माहं ।' दो० ८० (३) सब में । ' हानि लाभ दुख सुख सब समचित ।' विन० २६८.३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सउद : सं०पु० (सं० शब्द) । (१) ध्वनि । ( २ ) वर्णं, अक्षर, पद, वाक्य । (३) आकाश गुण जो श्रवणेन्द्रिय का विषय है = शब्द तन्मात्र । विन० २०३.६ सभ : सब, सभी, सब कुछ ( सब + ही ) । 'अंतरजामी प्रभु सभ जाना ।' मा० ७.३६.४ समय: सभय होने से । 'सभयं सकोच जात कहि नाहीं ।' मा० २.३०८.१ समय: वि० (सं० ) । भययुक्त, भयभीत । मा० १.८४.८ समहि: सभा को । 'तब अहस्य भए पावक सकल समहि समुझाइ ।' मा० १.१८६ सभ : सभा में । 'बैठहि सभाँ संग द्विज सज्जन ।' मा० ७.२६.१ सभा : सं० स्त्री० (सं० ) । एक के नेतृत्व में एकत्र जन समुदाय । संसद्, परिषद् । मा० २.२६६ सभाग : (१) वि० (सं० सभाग्य ) । भाग्यशाली । (२) (सं० सभाग ) । सुविभवत + भाग ( अंश) को प्राप्त । 'भूरुह भूरि भरे जनु छबि अनुराग सभाग ।' गी० २.४७.५ सभासद : सं० + वि० (सं० सभासद्) । सदस्यगण, पारिषद, सभा में उपस्थित सभ्य जन । मा० ६.१६.८ सभीत, ता : वि० । भययुक्त | मा० १.५३; ५५.५ सर्भ : सभय । विन० । २४६.३ सम : (क) सं०पु० (सं० शम > प्रा० सम ) | ( १ ) शान्ति । ( २ ) शान्तरस का स्थायी भाव । ( ३ ) वासना शमन की चित्तदशा (जो वेदान्त की छह सम्पत्तियों में अन्यतम है ) । 'सम दम राम भजन अधिकाई ।' वैरा० ६ मा० ७ १५.५ (ख) वि० (सं०) । (१) समान, तुल्य । मा० १.३.१० (२) बराबर । 'सम सुगंध कर दोइ ।' मा० १.३ क ( ३ ) चौरस ( विषम का विलोम ) । (४) सुव्यवस्थित, ठीक । 'बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा ।' मा० २.२.६ (५) सर्वत्र सम भाव रखने वाला, समदर्शी । 'सम अभूतरिपु बिमद बिरागी ।' मा० ७.३८.२ (६) अनुकूल अनुसार, उचित । 'भयउ समय सम सबहि सुपासू ।' मा० २.२२१.१ समउ : ( १ ) समय + कए० । 'समउ फिरें रिपु होहि पिरीते । मा० २.१७.६ ( २ ) ( समय :) शब्द की अर्थ बोधक शक्ति = संकेत । समउ सनेह सुमिरि सकुचानी ।' मा० २.३१८.३ For Private and Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1019 समचर : वि० (सं०) । सबके प्रति समान आचरण करने वाला। विन० १६१.३ समचित : वि० (सं० समचित्त) । चित्त में समता रखने वाला, सभी स्थितियों में अव्याकुल; स्थितप्रज, समत्वबुद्धियुक्त । विन० २६८.३ ।। समता : सं०स्त्री० (सं.)। (१) धरातल आदि की समतलता (विषमता का विलोम) । (२) समानता, तुल्यता, उपमा। 'सिय मुख समता पाव किमि।' मा० १.२३७ (३) मानसिक समरसता, समत्वबुद्धि । (४) अभेद, भेदराहित्य, एकरूपता (अद्वैत) । 'दीनबन्धु समता बिस्तारय ।' मा० ७.३५.४ समतूल, ला : वि० (सं० सम-तुल्य>प्रा० समतुल्ल)। बराबर तुला के योग्य = उचित उपमान । ‘सीय समतूल ।' मा० १.२४७ 'ते सिर कटु तुंबिर समतूला।' मा० १.११३.४ समत्थ : समरथ (प्रा.) । 'साहसी समत्थ तुलसी को नाह ।' हन०६ समदरसी : वि.पु. (सं० समशिन् >प्रा० समदरिसी)। (१) सब (सम) देखने वाला । (२) सबको समान रूप से देखने वाला । द्वन्द्वातीत, रागद्वेषरहित, __ निर्द्वन्द्व । 'समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।' मा० ७.३२.५ समदि : पूकृ० (सं० सम्मदय्य) । प्रसन्न करके । मा० १.३५४.१ समहक : वि० (सं समहक) । समदरसी। विन० ५७.४ समषी : समधी+ब० । दोनों समधी । “ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान ।' कवि० १.१५ समधो : सं०० (सं० सम्बन्धिन्) । वर-वधू के पिता परस्पर 'समधी' कहे जाते हैं । मा० १.३०४.२ समन : (१) सं०० (सं० शमन)। यमराज, मृत्युदेव । 'समन कोटि सत सरिस कराला ।' मा० ७.६२.१ (२) वि०पू० । शान्त करने वाला । 'समन सकल भवत्रास । मा० ७ ९२ समनि, नी : वि०स्त्री० । शान्त करने वाली । 'कलिमल समनि मनोमल हरनी।' मा० ७.१२६.१ जो कलिमल समनी ।' गी० ७.२०.४ समबल : वि० (सं.)। समान बल वाला । मा० १.२८४.१ समय : समय पर, से, अनुसार । 'सेवकु समय न ढीठ ढिठाई।' मा० २.२२७.७ समय : सं०० (सं०) । (१) काल, अवसर । मा० ७.५८.१ (२) अनुकूल समय। 'समय प्रताप-भानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी।' मा० १.१५८.३ (३) प्रत्येक समय पर । समय सुहावनि पावनि भूरी।' मा० १.४२.१ (४) शपथ, प्रतिज्ञा । 'समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीन की।' विन० २७८.३ (५) आचार, विहित पद्धति ।' 'भए कामबस समय बिसारी।' मा० १.८५.४ For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1020 तुलसी शब्द-कोश समयन : समय + संब० । समयों, अवसरों (में, पर ) । तिन्ह समयन लंका दई ।' दो० १६२ समग्रह : समय पर । 'समग्रह साधे काज सब ।' दो० ४४८ समर : सं०पु० (सं० ) । युद्ध | मा० १.४०.२ समरस्थ : समर्थ । हनु० ३ समरथ : समर्थ । मा० २.१२१.८ समरथु : समरथ + कए० । एक भी समर्थ व्यक्ति । 'तुलसी न समरथु कोउ ।' मा० २.२७६ छं० समरवित : भूकृ०वि० (सं० समर्पित ) । प्रदत्त । 'बिद्या बिस्वामित्र सब सुथल समरपित कीन्हि ।' रा०प्र० ४.६.३ समरप : भूकृ० स्त्री०ब० । सौंपीं, समर्पित कीं । मा० १.१०१.२ समरपी : समर्पी | दान करके सौंपी। ' जनक रामहि सिय समरपी । मा० १.३२४ छं ० ४ समरपेड : भूकु०पु ं०कए० । समर्पित किया, सौंपा। 'मनसहि समरपेउ आपु ।' पा०मं० छं० ५ समरथ्यौ : समरपेउ । 'सीस समरथ्यो आनि ।' दो० ३१३ समरभूमि : रणक्षेत्र । मा० १.१३१.३ समरामहे : आ० उब ० (सं० स्मरामः) । हम स्मरण करते हैं । मा० ७.१३ छं० ३ समरारूढा : (सं० समरारूढ समर + आरूढ़ ) । युद्ध मे दृढता से संलग्न, चढ़ाई करके युद्धरत । मा० ६.२३.४ समरु : समर + कए० । 'प्रभुहि सेवक हि समरु कस । मा० १.२८१ ' छलु तजि करहि समरु ।' मा० १.२८१.३ समरूप : (१) वि० (सं० ) । एकरूप, अपरिवर्तित निर्विकार । 'तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी ।' मा० ६.१९१०.५ (२) सर्वरूप ( सम= सर्व ) सबरूप | समर्थ : वि० (सं० ) । शक्ति सम्पन्न, योग्य । मा० ७.११६ / समर्थ समर्पइ, ई : आ०प्र० ( मं० समर्पयति > प्रा० समप्पइ > अ० सप्पइ ) | पता-ती है । देता देती है । 'सेएं सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम । दो० २५८ समर्प : पूकृ० | सौंप कर अर्पित करके, अपनापन छोड़कर । 'प्रभुहि समपि कर्म भव तरहीं । मा० ७.१०३.२ समर्पी : भूकृ० स्त्री० | सौंपी, दी, स्वता छोड़कर अर्पित की। 'रामहि समर्पी आनि सो ।' मा० ६.१०६ छं० २ समर्पे : भू०पु० । समर्पित किये हुए, स्वकीयता छोड़कर अर्पण किये हुए । 'हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ।' मा० ३.२१.८ For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1021 समसरि : (दे० सरि) समानता, बराबर की उपमा। 'को कबि समसरि करै पर भवकूप ।' बर०६ समसील : (१) वि० (सं० शमशील+समशील)। इन्द्रिय विकारों का शमन करने वाला, संयमी+सभी को सम दष्टि से देखने वाला; समदर्शी ।' 'तुम्ह समसील धीर मुनि ग्यानी ।' मा० १.२७७.४ (२) समान स्वभाव वाले (सं० समशील) । ते श्रोता बकता समसीला ।' मा० १.३०.६ (३) एक जैसे, तुल्य आकार-प्रकार वाले । 'सजनी ससि में समसील उभै नव नील सरोरुह से बिकासे ।' कवि० १.१ सपस्त : वि० (सं०) । सम्पूर्ण । मा० ७.५७.३ समा : सम । मा०६९० छं० 'समा समाइ, ई : आ०ए० (सं० समाति>प्रा० समाइ)। समाता है, समाती है । अन्तर्भूत होता-होती है। 'आनंद हिय न समाइ।' रा०न०१० 'प्रीति न हृदयें समाइ ।' मा० ६.५६ 'जनु टीड़ी गिरि गुहां समाई।' मा० ६.६७.२ समाइ, ई : पूकृ० । समाकर, अन्तर्भूत होकर । ‘रही सीय दुहुँ प्रीति समाई ।' मा० २.३२०.३ समाउँ : आ०उए । समाऊँ, समाविष्ट हो सके । 'ठाउँ न समाउँ कहाँ।' कवि० ७.७८ समाउ, ऊ : सं००कए। (१) (सं० संमाय:>प्रा० समाओ>अ. समाउ)। समाने का स्थान । 'इती न अनत समाउ ।' विन० १००.५ (२) शक्ति, (समावेश) सामर्थ्य । 'बोलि लियो हनुमान करि सनमान जानि समाउ ।' गी० ५.४.४ (३) प्रबन्ध, जुगाड़। पंहिएँ उपमा को समाउ न आयो ।' कवि० ६.५४ (४) समाज (अ० समाउ) । संभार, सामग्री। 'अरुंधती अरु अगिनि समाऊ ।' मा० २.१८७.३ ऽसमाकं : सर्वनाम (सं० अस्माकम्) । हमारा। 'सर्वतो भद्रदाता ऽसमाकं ।' विन० ५१.८ समागम : सं०० (सं०) । (१) मिलन, संगति । 'सुन मुनि आजु समागम तोर ।' मा० १.१०५.२ (२) समुदाय, समाज । 'गावत सुर मुनि संत समागम ।' मा० ७५१.७ समाचार : सं०० (सं.)। (१) उत्तम आचरण, समुदाचार, शिष्टाचार । (२) चरित्र, व्यवहार । (३) संदेश, संवाद, सूचना, हालचाल । 'समाचार सब संकर पाए। मा० १.६५.१ समाज : सं०० (सं.)। (१) व्यवस्थित समुदाय, एक उद्देश्य से एकत्र जनगण। 'नत्य-समाज ।' मा० ७.२२ (२) एक नेतृत्व में एकत्र जनसमुदाय, सभा संसद् । 'राजसमाज सभासद समरथ ।' कृ०६० (३) वर्ग, विचारविशेष के For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1022 तुलसी शब्द-कोश आधार पर कल्पित जनगण । 'सुजन समाज।' मा० १.२.४ (४) सामग्री-समूह। 'जो न तर भव-सागर नर समाज अस पाइ।' मा० ७.४४ समाजा : समाज मा० १.१८.१ समाजी : वि०पू० (सं० समाजिन्) । समाज के सदस्य । कृ० ६१ समाजु, जू : समाज+कए० । (१) समूह, मेला, भीड़ । 'बूड़ सो सकल समाजु ।' मा० १.२६१ (२) उद्देश्य विशेष से जुटा समूह । 'गुरजन लाज समाज बड़।' मा० १.२४८ (३) वर्गविशेष । 'मुदमंगलमय संत समाजू ।' मा० १.२.७ (४) संभार । 'बरनब राम बिबाह समाजू ।' मा० १.४२.३ (५) तैयारी । 'कहिअ कृपा करि करिअ समाजू ।' मा० २.४.२ समात, ता : समा+वकृ.पु । समाता-ते, अटता-अटते । मा० १.१४२ मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता ।' मा० ७.२.१० समाति, ती : वक०स्त्री० । अटती, समाविष्ट हो पाती। 'प्रीति न हृदय समाति ।' मा० २.३२५.१; ६१.६ समाते : क्रियाति००० । चाहे अटते हों। 'बाहेर भूप खरे न समाते ।' कवि० ७.४४ समातो : क्रियाति०पू०ए० । तो अटता, समा सकता। 'जो तू मन मेरे कहे राम नाम कमातो। 'सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो।' विन० १५१.३ समाधान : सं०० (सं०)। शङ कानिवारण । मा० २.२२७.५ समाधानु : समाधान+कए । प्रबोधन, शङ कानिवारण । मा० २.३६.५ समाधि, घी : (१) सं०स्त्री० (सं० समाधि) । योग, चित्तवृत्ति निरोध की दशा, स्वरूपस्थित चैतन्य दशा, निविषय चित्त दशा। मा० ७.४२.८ (२) लय, अध्यासरहित विषयमुक्त चित्त दशा । 'सिथिल समाज सनेह समाधी।' मा० २.३०७.२ (३) समाधान । (भय, शङका आदि का) निवारण । 'ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खल की, समाधि कीजै, तुलसी को जानि जन फुर के।' हनु० ४३ समान, ना : (क) वि.पु. (सं० समान)। (१) सदश, तुल्य । 'अधम कवन जग मोहि समाना ।' मा० ७.१.८ (२) एकरूप । 'जद्यपि सलिल समान ।' मा० २.४२ (३) अनरूप, उचित, योग्य । 'बोले मुनिबर समय समाना।' मा० २.२५४.१ (ख) भूकृ.पु । समा गया, प्रविष्ट हुआ। 'तासु तेज समान प्रभु आनन ।' मा० ६.१०३.६ 'मानहुं ब्रह्मानंद समाना।' मा० १.१६३.३ समानी : भूक०स्त्री० । समा गयी, लीन हुई । 'प्रभु पद हियं धरि अनल समानी।' मा० ३.२४.३ समाने : भूकृपु०ब०। (१) प्रविष्ट हुए । 'छुटे तीर सरीर समाने ।' मा० ६.७०.७ (२) लीन हुए, व्याप्त हुए। 'नीकेइ लागत मन रहत समाने।' कृ०३८ For Private and Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश समारोपित : भूकृ०वि० (सं० ) । स्थापित किये हुए। मा० २ श्लो० ३ समाश्रित: भूक०वि० (सं० ) । भली भांति आश्रित, अवलम्बित । विन० ५७.१ समास : सं०पु० (सं० ) । समष्टि, संक्षेप | 'ब्यास समास स्वमति अनुरूपा ।' मा० 1023 ७.१२३.१ समह, हीं : आ० प्रब० (सं० संमान्ति > प्रा० संमंति> अ० संमाहि) । समाते हैं, अमाते हैं, अटते हैं + अटती हैं । 'जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ।' मा० ६.६९.६ 'बचन न हृदय समाहीं । कृ० ५८ समाहिंगे : आ०भ०पु०प्रब० । समायँगे, अटेंगे । कवि० ६.८ समिटि : पूकृ० (सं० समिट्य= सम् + इट गतौ + ल्यप् > प्रा० समिट्टिअ> अ० समिट्टि ) । सिमट कर सब ओर से बटूर कर । 'समिटि समिटि जल भरहि तलावा ।' मा० ४.१४.७ समिटे : भूक०पु०ब० । सब ओर से एकत्र हुए । 'समिटे भूप एक तें एका ।' मा० १.२६२.४ समिध: सं० स्त्री० (सं० समिघ्) । होम के निमित्त काष्ठ, ईंधन | कवि० ५.७ समिधि : समिध । 'समिधि सेन चतुरंग सुहाई ।' मा० १.२८३.३ समीचीन : वि०पु० (सं० ) । सम्यक्, उत्तम । विन० २७८.२ समीचीनता : सं०स्त्री० (सं०) उत्तमता, अर्हता । विन० २६२.२ समीति : (१) कृ० । समेट कर समवेत कर, एकत्र करके । 'समय सब रिषिराज करत समाज साज समीति । गी० ७.३५.२ (२) सं० स्त्री० (सं० समिति ) । संगति । 'रुची न साधु समीति । विन० २३४.३ समीती : सं० स्त्री०= समीति । संगति, मेल । 'भाइहि भाइहि परम समीती ।' मा० १.१५३.७ समीप : क्रि०वि० (सं० ) । निकट । मा० १.६०.८ समीपा : समीप । मा० १.२१४.४ समीर : (१) सं०पु० (सं० ) । वायु । मा० १.१०६.३ (२) प्राण अर्थ में भी इसके प्रयोग होते हैं । (३) वायु तत्त्व जिसका स्पर्श गुण है । समीरन : समीर (सं० समीरण) । वायु (प्राण) । 'करि जोग समीरन साधि ।' कवि० ७.४५ For Private and Personal Use Only समीरा : समीर । मा० ४.११.४ समीरु : समीर + कए० । कवि० ५.२२ समीहा : सं० स्त्री० (सं० ) । इच्छा शक्ति, इच्छानुसार चेष्टा । 'उतपति पालन प्रलय समीहा ।' मा० ६.१५.६ समुझ : ( १ ) समुझइ । समझती है । 'दुख न समझ तेहि सम को खोटी ।' मा० ३.५.१७ (२) समुझु । तू समझ ले । 'सठ यह समुझ सबेरो ।' विन० ८७.१ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1024 तुलसो शब्द-कोश 'समुझ, समुझइ : आ०ए० (सं० संबुध्यते>प्रा० संबुज्झइ) । समझता है = बोधगम्य करता है+संवेदन में लाता है (जानता है) । समुझइ खग खग ही के भाषा ।' मा० ७.६२.६ समुझउँ : आ० उए। समझता हूं (था); समझू । बुद्धिगत भले ही कर लूं। 'समुझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ।' मा० ७.११०.५ समुझत : वकृ०० । समझता, समझते । 'समुझत नहिं कछु लाभ न हानी।' मा० १.२५८.२ (२) समझते हुए, समझने में-से-पर । 'समुझत मन दुख भय उ अपारा।' मा० ७.१.१ समुझनि : सं०स्त्री० । समझने की क्रिया, बोध व्यापार । 'भरत रहनि समझनि करतूती।' मा० २.३२५.७ समुझब : (१) भूकृ.पु० । समझना । 'दसा एक समुझब बिलगाना।' मा० १.६८.२ (२) तुम्हें समझना (होगा)। 'समुझब कहब करब तुम जोई ।' मा० २.३२३.८ (तुम समझोगे)। समुझहि : आ०प्रब० (सं० संबुध्यन्ते>प्रा० संबुज्झति>अ० संबुज्झहिं)। समझते हैं, बोधगम्य करते हैं । 'सुनि समुझहिं जन मुदित मन ।' मा० १.२ समुझहु : आ०मब० । तुम समझो, बुद्धिगत करो। 'समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।' मा० ५.५७.३ समुझाइ : पूकृ० । समझाकर। (१) विवेचित कर, बोधगम्य बनाकर । ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कही समझाइ ।' मा० ३.१४ (२) प्रबोध देकर, सान्त्वना देकर । 'बिदा कोन्हि भगवान् तब बहु प्रकार समुझाइ ।' मा० ७.१८ समुझाइबी : भकृ०स्त्री० । समझानी (चाहिए); विवेचित करनी। 'प्रीति रीति समुझाइबी।' विन० २७८.३ समुझाइहौं : आ०भ० उए । समझाऊंगा, प्रबोध (सान्त्वना या हिसाब-किताब) दूगा । 'घरनी घर का समुझाइहीं जू ।' कवि० २.६ समुझाई : भूक०स्त्री०ब० । प्रबोधित की। मा० ७.३.३ समुझाई : (१) समुझाइ। 'आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।' मा० १.२०५.६ (२) भूकृ०स्त्री० । समझाई, विवेचित की । 'यहि बिधि सकल कथा समझाई।' मा० ४.४.५ (३) प्रबोधित की, सान्त्वना देकर शान्त की। 'समुझाई गहि बांह उठाई।' मा० ३.२२.१ समुझाउ : आ०-आज्ञा-मए । तू समझा, शान्त कर । 'करि बिनती समुझाउ कुमारा।' मा० ४.२०.३ समुझाए : भूक००० । विवेचित कर ज्ञात कराये । 'प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए।' मा० ६.१६.६ For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1025 समुझाएसि : आ०-भूकृ०पु+प्रए । उसने समझाया, बताया। प्रबोध दिया। 'सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।' मा० ५.१२.५ समुझाएहु : आ० - भ०+आज्ञा, अभ्यर्थना+मब० । तुम समझाना। 'बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ।' मा० ५.२७.५ समुझायउँ : आ०-भूक+उए । मैंने समझाया। 'ता ते तात न कहि समुझायउँ ।' मा० ३.१३.२ समुझायउ : भूक.पु०कए। समझाया, प्रबोध दिया। 'कहि बहु कथा पिता समुशायउ ।' मा० ६.७२.६ समुझाये : समुझाए। समुझायो : समुझायउ । मा० ६.१०५.६ 'समुझाव, समुझावइ : आ०ए० (सं० सम्बोधयति>प्रा० संबुज्झावइ) । समझाता है, प्रबोध देता है । 'सुनि सप्रेम समुझाव निषादू ।' मा० २.२०१.७ समुझावउँ : आ.उए । समझाता हूं, प्रबोध (या सान्त्वना) देता हूं। कोटि भांति समुझावउँ मनु न लहइ विश्राम ।' मा० ७.८२ समुझावत : वकृ००। समझाता-ते। 'समुझावत सब सचिव सयाने ।' मा० १.३३८.७ समुझावति : वकृ०स्त्री० । समझाती, प्रबोध देती (शान्त करती)। बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति ।' मा० २.१६१.१ समुझावहिं : आप्रब० । समझाते हैं, बोध देते हैं (विवेचित कर बताते हैं)। 'कृपासिंधु बहु बिधि समुझावहिं ।' मा० २.८३.४ समझावहिंगे : आ०भ०५०प्रब० । समझाएंगे, प्रबोध देंगे । गी० ५.१०.३ समझावा : भूक०पु । प्रबोधित किया। मा० ७.६२.७ समुझावै : समुझावइ । जा०म० ७५ समझावौं : समझावउँ । समझाऊँ, समझा सकता हूं। 'कवन भांति समुझावौं तोही।' मा० ७.६१.३ समुझि : (१) सं०स्त्री० (सं० सम्बुद्धि>प्रा० संबुज्झि)। समझ, विवेकशक्ति । सूझबूझ । 'अपनी समुझि साधु सुचि को भा ।' मा० २.२६१.२ (२) पू० । समझकर । 'घरी कुघरी समुझि जियें देखू ।' मा० २.२६.८ (३) आ० - आज्ञा-अभ्यर्थना- मए । तू समझ, विचार कर । 'समुझि धौं जिय भामिनी।' मा० २.५० छं० समझिअ, य : आ०कवा०प्रए । समझ लीजिए, जान लिया जाय । 'नृप समुझिअ मन माहिं ।' मा० २३३ समुझिऐ, ये : 'अवसि समुझिए आपु।' दो० ४८६ For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1026 तुलसी शब्द-कोश समुझियो : भकृ०पु०कए० (सं० संबोद्धव्यम् >प्रा० संबज्झिमव्वं>अ० संबुज्झिअव्वउ) । समझना (होगा)। 'के समुझि बो के ये समुझे हैं, हारेहु मानि सहीजे ।' कृ० ४५ समुझियत : वकृ००कवा० । समझ में आता । समझा जाता । 'सुनत समुझियत थोरे ।' कृ० ४४ समुझिहहिं : आ०भ०प्रब० । समझेंगे, ज्ञात कर लेंगे। 'सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू ।' मा० १.२१.३ समझिहैं : समुझिहैं । 'जगुति धूम बघारिबे की समुझिहैं न गवारी।' कवि० ५३ समुझी : भूकृ०स्त्री० । समझी, विवेक से जानी । मा० १.३० क समुझ : आ०- आज्ञा-मए । तू समझ, ज्ञात कर । 'मूढ़ समुझु तजि टेक ।' मा० ६.३१ समुझे : समझने से, पर । विवेक द्वारा जानने पर । 'समुझें मिथ्या सोपि ।' मा० ७.७१ समुझे : (१) भूकृ००ब० । जाने, बोधगम्य किये । 'नाथ न मैं समझे मुनि ___ बैना।' मा० १.७१.२ (२) समुझें । ‘समुझे सहे हमारो है हित ।' कृ० २७ । समुझे : समुझइ । समझे, जान जाय । “जों करनी समझ प्रभु मोरी।' मा० ७.१.५ समुहैं : आ०भ० प्रब० । समझाएंगे, बुद्धिगम्य करेंगे । 'के समुझिबो, के ये समुझैहैं।' कृ० ४५ समुझौं : समुझउँ । समझ सकें । 'किमि समुझौं मैं जीव जड़।' मा० १.३० ख समुझ्यो : भूकृ.पु.कए। समझा, जाना। ‘ता तें कछु समझ्यो नहीं।' विन. १६०.५ समुदाइ, ई : समुदाय । मा० ४.१७; ७.१०.४ समुदाय : सं०पू० (सं.)। समूह, एक जातीय गण, संघ । मा० ७.७८ ख समृद्भव : सं०० (सं०) । आविर्भाव, उत्पत्ति । मा० ४ श्लो० २ समुद्र : सं०० (सं०) । सागर। मा० ६.३४.२ 'समुहा, समुहाइ, ई : आ.प्रए० (सं० संमुखायते>प्रा० समुहाइ) । संमुख आता है, सामना करता है । 'अति भय त्रसित न कोउ समुहाई।' मा० ६.६५.१० समुहान : भूक०० । सामने आया । 'जनु दुकाल समुहान ।' रा०प्र० ५.७.२ समुहानी : भूक०स्त्री० । सामने हुई, संमुख चली। 'राम सरूप सिंधु समुहानी।' मा० १.४०.४ समुहाही : आ.प्रब ० । सम्मुख आते हैं, सामना करते हैं । 'तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।' मा० २.१६४.५ For Private and Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1027 समूला : वि० (सं० समूल) । जड़ समेत। मा० २.२६.८ समूलें : समूल से; सकारण . . से । 'अपडर डरेउँ न सोच सम्लें।' मा० २.२६७.३ समूलो : वि००कए० (सं० समूलः>प्रा. समूलो)। जड़सहित, सब-का-सब, सम्पूर्ण । 'पितु मातु सों मंगल मोद समूलो।' हनु० ३६ अवधी में 'समुल्ल' तथा 'समुल्लो' आज भी 'सम्पूर्ण' के अर्थ में प्रचलित हैं । समूह : सं०० (सं०) । समुदाय । मा० ६.४१.८ समूहा : समूह । मा० ६.१.१० समृति : सं०स्त्री० (सं० स्मृति) । धर्मशास्त्रीय ग्रन्थविशेष । विन० १२०.४ समृद्धि : सं०स्त्री० (सं.)। प्रचुर, ऐश्वर्य । कवि० ५.३२ समेटा : भूक.पु । संकलित किया, सब ओर से एकत्र किया =बटोरा । 'जन महि लुठत सनेह समेटा ।' मा० २.२४३.६ समेटि : पूकृ० । समेट कर, बटोर कर, सब कहीं से एकत्र करके । 'सब समेटि बिधि रची बनाई ।' मा० १.३२४.२ समेत : वि० सं०) । सहित, समवेत । 'फिरि आवइ समेत अभिमाना।' मा० १.३६.३ समेता : समेत । मा० १.१४.१० समेति : समेत+पूकृ० । समवेत करके; एकत्र कर । 'सेन समेति. 'उतरे जाइ।' मा० ७.६७.७ समेते : समेता+ब० । सहित (सब) । 'त्रिजग देव नर असुर समेते।' मा० ७.८७.६ समै : समय । गी० २.३७.३ समैहैं : आ० भ०प्रब० । समायंगे, अटेंगे । 'सुचित तेहि समै समै हैं ।' गी० २.३७.३ समैहै : आ० भ०प्रए । समायगा, अटेगा । 'निरखि हृदय आनंद न समैहै ।' गी० ५.५०.४ समोइ, ई : पूकृ० । (१) मिश्रित या चिकनाई (स्नेह) से ओतप्रोत होकर । 'ता में तन मन रहै समोई ।' वैरा० ५२ (२) ओतप्रोत करके । गी० ५.५.७ समो : समउ । जा०म० १४६ सम्यक : वि० (सं० सम्यक्) । समीचीन, उत्तम, परमार्थ रूप । 'सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ।' मा० ७.५४.३ सम्हारहिं : संभारहिं । जा०म० छं० १७ सम्हारा : संभारा । स्मरण किया। संकर सहज सरूपु सँभारा।' मा० १.५८.८ सय : संख्या (सं० शत>प्रा० सय) । सौ । मा० २.१४०.७ For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1028 तुलसी शब्द-कोश सयगुन : वि० (सं० शत गुण>प्रा० सयगुण)। सो गुना। 'दिन दिन सयगुन भूति भाऊ ।' मा० १.३६०.४ । सयन : सं०० (सं० शयन) । (१) निद्रा लेने की क्रिया। 'सयन करहु निज निज गृह जाई ।' मा० ६.१४.५ (२) सुषुप्ति दशा । 'जीव सीव सम सुख सयन ।' दो० २४६ (३) शय्या, बिछोना। भूमि सयन ।' मा० २.२५.६ (४) (समासान्त में) शयन करने वाला, सोने वाला। 'छोर-सागरसयन ।' मा० १ दोहा ३ (५) सैन । संज्ञा, संकेत, इङ्गित । 'कहा अनुज सन सयन बुझाई।' मा० ३.१७.२० सयननि : सयन+संब० । संकेतों (से) । 'निज पति कहेउ तिन्हहि सिय सयननि ।' मा० २.११७.७ सयनहिं : संकेतों से । 'सयनहिं रघुपति लखन निवारे ।' मा० १.२५४.४ सयना : सयन । सयल : सइल । पर्वत । मा० ३.१८ छं० सयान, ना : वि०पू० (सं० सज्ञान>प्रा० सयाण)। चतुर । “सचिव सयान बंधु बलबीरा ।' मा० १.१५४.२ 'सुनु बायस ते सहज सयाना।' मा० ७.८५.२ सयानप : (१) सयानपन । सं०० । सज्ञानता, चातुरी, सजगता । 'रह्यो न सयानप तन मन ती के ।' कृ० १० (२) सं०स्त्री० । 'भूप सयानप सकल सिरानी।' मा० १.२५६.५ सयनि : सयानी । (१) चतुरा। 'कपट सयानि न कहति कछु।' मा० २.३६ (२) तरुणी, वयः प्राप्ता (ज्ञातयोवना)। "कुरि सयानि बिलोकि मातु पितु सोचहिं ।' पा०म० ६ सयानिन्ह : सयानी+संब० । सयानियों ने, चतुर तरुणियों ने । 'जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह ।' जा०म० १५० सयानी : सयानी+ब० । निपुण युवतियां । मा० १.२३८.३ सयानी : सयान+स्त्री० । (१) चतुरा। विवेकवती। 'मन महं रामहि सुमिर सयानी।' मा० १.५६.५ (२) ज्ञातयौवना, युवती । (३) चातुरी, निपुणता । 'सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ।' मा० ७.२१.८ सयाने : सयाना+ब० । मा० ७.४१.६ सयानो : सयाना+कए । चतुर, सतर्क, चालाक । 'सत्रु सयानो सलिल ज्यों ।' दो० ५२० सयौ : (दे० सय) । सौ-के-सौ, सभी सौ; पूरे सौ। 'सयौ संघारे भीम ।' दो० ४२८ सर : (१) सं०पू० (सं० शर>प्रा० सर)। बाण । मा० ६ १३ ख (२) (सं० सरस्>प्रा० सर)। तालाब । 'सर समीप गिरिजा गृह सोहा।' मा० For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1029 १.२२८.४ (३) (प्रा० सल) चिता । 'एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा।' मा० ३.८.८ 'सर, सरइ, ई : आ०प्र० (सं० सरति-सृगतो>प्रा० सरइ) । चलता है, पूरा पड़ता है, काम बनता है; परिणाम तक पहुंचता है । 'तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई ।' मा० १.२६६.४ सरऊ : सरजू (प्रा.) । 'प्रात काल सरऊ करि मज्जन ।' मा० ७.२६.१ सरक : सं०स्त्री० (सं००)। (१) मार्ग की निरन्तर रेखा (सड़क)। (२) यज्ञ सम्बन्धी मदिरा, सोमरस । (३) मद की लहर, नशा । 'बय अनहरत बिभूषन बिचित्र अंग, जोहे जिय आवति सनेह की सरक सी।' गी० १.४४.२ सरकस : (१) वि.पु.० (फा० सरकश) । अहंकारी, विद्रोही (सिर काटने वाला मूल अर्थ है)। (२) सं० (फा० सरकशी)। विद्रोह, घमंड । 'काहू की सहत नाहिं सरकस हेतु है ।' कवि० ७.८२ सरखतु : सं००कए० (फा० सर-खत-सर-विजय+खत-पत्र)। विजय पत्र । 'तुलसी निहाल के के दिये सरखतु हैं।' कवि० ६.५८ सरम : सं०० (सं० स्वर्ग) । देवलोक । मा० १.६.६ सरगु : सरग+कए० । 'सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।' मा० २.६२.७ सरघर : शर (बाणों) के घर तूणीर । गी० २.४५.३ सरजु, जू : सं०स्त्री० (सं० सरयू) । अयोध्या होकर बहने वाली एक नदी। मा० २.१७०.४; १.१६.१ ।। सरद : सं०स्त्री०+० (सं० शरद् +स्त्री०)। आश्विन+कार्तिक मासों का ऋतुविशेष । मा० १.३२.१२ सरदातप : सं०पु० (सं० शरदातप) शरद् ऋतु का तीखा घाम (कृारा घाम)। मा० ४.१७.६ सरन : शरण । (१) आश्रय । (२) रक्षक । 'मोरें सरन राम की पनहीं।' मा० २.२३४.२ (३) प्रपत्ति, रक्षा हेतु प्रणिधान । 'राम सरन सब गे मन माहीं।' मा० २.२६५.२ (४) रक्षा । (५) शरणागत । सरनद : वि० (सं० शरणद)। रक्षा देने वाला, आश्रयदाता । विन० ७७.२ सरनपाल : शरणाबात का पालक, प्रपन्न-रक्षक । विन० २२२.४ सरना : सरन । आश्रय । 'तब ताके उ रघुनायक सरना ।' मा० ३.२६.५ सरनाई : शरणागति में। 'जों सभीत आवा सरनाईं।' मा० ५.४४.८ सरनाई : सं०स्त्री० (सं० शरणागति>प्रा० सरणाई) । शरण में आना, प्रपत्ति । सरनागत : (सं० शरणागत =शरण + आगत) । शरण में आया हुआ, प्रपन्न । मा० ७.१४.२ For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1030 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सरनाम : वि० ( फा० ) । प्रसिद्ध । 'तुलसी सरनाम गुलाम है राम को ।' सरनि, न्हि: सर + संब० । (१) सरोवरों में । सरनि सरोज बिटप बन फूले । मा० २.१२४.७ 'बिक से सरन्हि बहु कंज ।' मा० १.८६ छं० (२) बाणों से 'सरन्हि भरा मुख ।' मा० ६.७१.३ सरनु : सरन + कए० । एकमात्र आश्रय, रक्षक । 'सब ही को तुलसी को साहेबा सरनु भो ।' कवि० ६.५६ सरपि: सं०पु० (सं० सर्पिष्) । धी । मा० १.३२८ सरब : वि० (सं० सर्वं ) । सब, समस्त । विन० २६२.३ सरबगत: सर्वगत । विन० ४७.२ सरबग्य : सर्बग्य । मा० ६.१०२.४ सरबदा : सर्बदा | विन० ४७.२ I सरब-बिद : वि० (सं० सर्व विद्) । सर्वज्ञ । गो० ७.२८.२ सरबरी : सं० स्त्री० (सं० शर्वरी) । रात्रि । गी० १.३८.२ सरबरीनाथ : चन्द्रमा । मा० २.११६ सरबरु : सं०पु० (सं० सरोवर > प्रा० सरवर ) कए० (अ० सरवरु) । जलाशय मा० १.१५८ सरबस : सं०पु० (सं० सर्वस्व ) । सम्पूर्ण धन, सब-कुछ। 'मुनि जन धन सरबस ।" मा० १.१ ८.२ सरबसु : सरबस + कए० । मा० २.२६.५ सरभंग, गा: सं०पु० (सं० शरभङ्ग ) । एक तपस्वी मुनि । मा० ३.७; ८.८ सरम : सं० स्त्री० (सं० शर्म ) । लज्जा । विन० २४६.२ सरल : (१) वि० (सं० ) । ऋजु ( वक्र का विलोम ) । (२) निश्छल । मा० ७. ५५.६ (३) वि० (सं० शटित > प्रा० सडिअ = पडिल्ल) । सड़ा हुआ, जर्जर । 'सरल तिकोन खटोला रे ।' विन० १५६.२ सरलचित: वि० (सं० सरलचित्त ) | सरल स्वभाव- युक्त । निश्छल । मा. २.१८१ सरलता : सं० स्त्री० (सं०) । सीधापन, आर्जव, निश्छलता । मा० ७.३८.६ सरलं : सरल को, सीधे व्यक्ति को । 'सरलं दंडे चक्र ।' दो० ५३७ पायक उछलते हैं । सरव : पटेबाजी का खेल ( 2 ) । 'सरव कहि पाइक पहराहीं । मा० १.३०२.७ (१) सं० - रव रव सहित = सशब्द हाथों से (२) पायक शख्य लक्ष्यवेध करते हैं और उच्छलते हैं । सरवर : सं०पु० (सं० सरोवर > प्रा० सरवर ) । गी० १.६.७ For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1031 सरवाक : सं०० (सं० शराव, शरावक)। सरवा, सकोरा, मृत्पात्रविशेष । कवि० ५.२५ सरस : वि० (सं.)। रस-युक्त । (१) आर्द्र, सजल । 'तब सेवकन्ह सरस थलु देखा।' मा० २.३१०.५ (२) स्नेह युक्त । 'कह रिषिबधू सरस मृदु बानी।' मा० ३.५.४ (३) आनन्द भावना युक्त । 'बंधु सनेह सरस एहि ओरा।' मा० २.२४०.४ (४) कलात्मक सौन्दर्यानुभूति से युक्त । 'सरस राग बाहिं सहनाई।' मा० १.३०२.६ (५) कामोद्दीपक भावयुक्त । 'सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।' मा० ३.४०.६ (६) काव्यानन्द युक्त । 'निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ।' मा० १.८.११ (७) मकरन्द युक्त +स्नेह-वात्सल्ययुक्त । 'सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।' मा० १.१.१ (८) आनन्दमय । 'जग सरस जिन्ह की सरसई । गी० १.५.३ सरसइ : सं०स्त्री० (सं० सरस्वती>प्रा० सरसई)। प्रयाग-संगम की त्रिधारा में परिगणित (अदृश्य) नदी विशेष । सरसई : सं०स्त्री० (सं० सरसता>प्रा० सरसया>अ० सरसई)। रस सम्पूर्णता (दे० सरस) । (१) आर्द्रता । 'लहलहे लोयन सनेह सरसई है । गी० १.६६.२ (२) आनन्दमयता । 'जग सरस जिन्ह की सरसई ।' गी० १.५.३ सरसावति : वकृ०स्त्री० । सरस बनाती, आनन्दोत्कर्ष देती। गी० ७.१७.५ सरसिज : सं०० (सं.)। कमल । मा० ७.२३.१० सरसी : सं०स्त्री० (सं०) । छोटा सरोवर । मा० २.२५७.४ सरसोरूह : सं०० (सं.)। सरोरुह । कमल । मा० ६.६३.८ सरहना : सराहना । प्रशंसा । मा० २.२०१ छं० सरहि : सरोवर को । 'पंपा सरहि जाहु रघुराई ।' मा० ३.३६.११ सराग : वि० (सं.)। रागयुक्त, आसक्तिपूर्ण । 'वासना सराग मोह द्वेष निबिड तम टरे।' विन० ७४.२ सराध, धा : सं०पु० (सं० श्राद्ध)। (१) पित कर्म (जो पितृलोकवासी अग्निष्वात्त आदि देवविशेषों (पितरों) के लिए अपने पूर्वजों को भी सम्मिलित कर किया जाता है)। 'द्विज भोजन मख होम सराधा ।' मा० १.१८१.८ (२) देव कार्यविशेष । 'नंदीमुख सराध करि ।' मा० १.१६३ सराधु : सराध+कए० । पितृकार्य (पितृ संस्कार आदि) । 'सराधु कियो सबरी जटाइ को।' कवि० ७.२२ सरानल : (सर+अनल-दे० सर) बाणों की अग्नि+चिता की अग्नि । 'होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ।' मा० ५.५६ ख सराप : श्राप । शाप । मा० १.१३५.८ For Private and Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1032 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सराफ : सं०पु० (अरबी - सर्राफ सोना चांदी परखने वाला) । सोने चांदी का व्यापारी । मा० ७.२८ छं० सरावग : सं०पु० (सं० श्रावक > प्रा० सावग ) । जैनमतवादी, अणुव्रती जैन । 'स्वान सरावग के कहें लघुता लहै न गंग ।' दो० ३८३ सरासन: सं०पु० (सं० शरासन - शर + असन बाण फेंकने का साधन ) । धनुष । मा० ३.२६ सरासनु : सरासन + कए० । 'श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ।' मा० ६.७१.१ सरासुर : ( सर + असुर - सं० शरासुर ) । 'बाण' नामक असुर । 'सकइ उठाइ सरासुर मेरू । मा० १.२९२.७ 'सराह सराहइ : आ०प्र० (सं० श्लाघते > प्रा० सलहइ = = सलाह ) । प्रशंसा करता है । 'नृप सब भाँति सराह विभूती ।' मा० १.३३२.१ 'बकिहि सराहइ मानि मराली ।' मा० २.२०.४ सराहत : वकृ०पु० । प्रशंसा करता-करते, सराहता - ते । 'नृपहि सराहत सब नर नारी । मा० १.२८.७ सराहति : वकृ० स्त्री० । प्रशंसा करती । गी० ५. ३४.३ सराहन : भकु० अव्यय । प्रशंसा करते । 'कपि बल बिपुल सराहन लागा ।' मा० ६.८४.३ सराहना : सं०स्त्री० (सं० श्लाघना > प्रा० सलहणा, सलाहणा ) । प्रशस्ति, स्तुति, गुणगान । 'बार बार सेवक सराहना करत रामु ।' कवि० ६.४० सहस : आ०म० (सं० श्याघसे > प्रा० सलाहसि ) | सराहता ती है । 'तुहूं सराहसि करसि सनेहू ।' मा० २.३२.७ सराहहि : आ०प्रब० । प्रशंसा करते हैं । 'सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती ।' मा० ७.८.४ O सराहा : भूकृ० पु ं० । प्रशस्त माना, प्रशंसायुक्त किया । मा० २.१७१.६ सराहि: पूकृ० | सराहना करके । 'सत्य सराहि कहेहु बर देना ।' मा० २.३०६ सराहिअ : आ०कवा०प्र० (सं० श्लाध्यते > प्रा० सलाही अइ ) । प्रशंसित किया जाय की जाय । प्रशंसित किया जाता है की जाती है । 'सुधा सराहिअ अमरत गरल सराहिअ मीचू ।' मा० १.५ सराहिअत: वकृ०पु० - कवा० । सराहा जाता, सराहे जाते । 'चातक हंस सहित । मा० २.३२४ साहिए, ऐ : सराहिअ । सराही जाय । 'तुलसी की साहसी सराहिए कृपाल राम ।' कवि० ७.८१ 'सुमति सराहिऐ ।' दो० ४४३ साहिबे : भकृ०पु० | सराहने, प्रशंसा करने ।' कवि० ७.२२ सराहिय, ये : सराहिअ । पा०मं० ७ For Private and Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1033 सराहियत : सराहिअत । गी० १.८८.१ सराही : (१) सराहि । 'गान करहिं निज सुकृत सराही।' मा० १.३४६.५ (२) भूकृ०स्त्री० । प्रशस्त की, सराहना की (हुई) । 'भगति मोरि मत स्वामि सराही।' मा० १.२६.३ सराहु, हू : आ०- आज्ञा-मए० (सं० श्लाघस्व>प्रा० सलाह>अ० सलाहु)। तू सराहना कर । 'पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ।' मा० ६.२६.८ सराहे : भूक००ब । प्रशंसित किये । 'देखि कृपा करि सकल सराहे ।' मा० ७.५०.४ सराहेउ : भूकृ.पु०कए० । प्रशंसित किया। 'कोसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि ।' जा०म० २३ सराहेहु : आ०-भूक००+मब० । तुमने सराहा, सराहे । 'जो अति सुभट ___ सराहेहु रावन ।' मा० ६.२३.६ सराहैं : सराहहिं । प्रशंसा करते हैं । 'तुलसी सराहैं ता को भागु सानुराग सुर ।' कवि०२.१० सराहै : सराहइ । 'तुलसी सराहे रीति साहेब सुजान की।' कवि० ६.४० सरि : (१) सं०स्त्री० (सं. सरित>प्रा० सरि)। नदी। मा० ७.३५.६ (२) (सं० सदृश्>प्रा० सरि) समानता, सादृश्य, उपमा । सरित, ता : सरि । नदी। मा० १.४१.१; ३१.४ सरितन्ह, न्हि : सरिता+संब० । नदियों (में) । 'सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।' मा० ५.२३.६; १.३०४.५ सरिबरि : सं०स्त्री० (सरि=सदृश् + बरि=वरता, श्रेष्ठता)। समान श्रेष्ठता, बराबरी । 'हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु त कहाँ चरन कहँ माथा।' मा० १.२८२.५ सरिस : (१) वि० (सं० सदृश>प्रा० सरिस)। तुल्य । 'राम सरिस सुत कानन जोगू ।' मा० २.५०.७ (२) अनुरूप, अनुसार । 'देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ।' मा० २.३१४ सरिसा : सरिस । मा० ५.१५.३ सरीकता : सं.स्त्री० (अरबी-शिरकत-शरीक+ता)। भाग, भागिता, अंश प्राप्ति में सम्मिलित होना । 'रावरी पिनाक में सरीकता कहाँ रही।' कवि० सरीखे : सारिखे । सदृश । 'बान बलवान जातुधानप सरीखे सूर ।' कवि० १.६ सरीर, रा : सं०पू० (सं० शरीर>प्रा० सरीर) । देह । मा० १.३४; ७४.८ सरीरन्हि : सरीर+संब० । शरीरों (को) । मा० ५.३ छं. ३ For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1034 तुलसी शब्द-कोश सरीरहि, ही : शरीर को । मा० २.१४२.२ 'प्रभु कहेउ राखु सरीरही।' मा० ४.१० छं०१ सरीरु, रू : सरीर+कए । मा० १.१०७.१, २.४१.३ सरीरै : सरीरहि । 'कहत यों.. बिसराय सरीरं ।' गी० ६.१५.१ सरीसा : सरिस । तुल्य । 'भरत सरीसा।' मा० २.२३१.८ सरु : सर+कए० । (१) बाण । 'जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें।' मा० २.३०.३ (२) सरोवर । 'सकल सुकृत सरसिज को सरु है।' विन० २५५.१ सरुज : वि० (सं०) । (१) रोगी। 'सरुज सरीर बादि बहु भोगा।' मा० २.१७८.५ (२) क्षतियुक्त, क्षयी । जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंक ।' मा० २.११६.३ सरुष : सरोष (सं० सरुष्) । क्रुद्ध, कुपित । मा० २.४.२ सरुहाए : भूकृ००ब० (सं० संरोहित>प्रा० सरुहाविय) । घाव पूर दिये । 'बिरह ब्रन अनख अमिय औषध सरुहाए।' कृ० ५० सरूप, पा : (१) सं०+वि०पु० (सं० स्वरूप)। आकार । ‘सो सरूप नृप कन्याँ देखा।' मा० १.१३४.७ (२) रूपधारी, अभिन्न (रूपक)। 'तव सरूप गारुड़ि रघुनायक ।' मा० ७.६३.७ (३) एक ही रूप वाला (सं० सरूप)। 'अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।' मा० १.२३.१ (४) रूप सहित, साकार, मूर्त । _ 'श्रीराम सगुन सरूप।' मा० ६.११३.७ ।। सरूपु : सरूप+कए । स्वरूप, अपना यथार्थ रूप । 'संकर सहज सरूपु सम्हारा।' मा० १५८.८ सरेन : (सं० शरेण>प्रा० सरेण) । बाण से। मा० ७.१४.७ सरै : सरइ । पूरा पड़ सकता है, सफल हो सकता है। जो पं कृपा रघुपति कृपालू ____ की बैर और के कहा सरै।' विन० १३७.१ ।। सरो: भूकृ००कए० । पूरा हुआ। 'ताको काज सरो।' विन० २२६.५ सरोग : वि० (सं०) । रोगयुक्त, रुग्ण, रोगी । विन० १६१.३ सरोज : सं०० (सं०) । कमल । मा० १.१८.४ सरोजजा : कमल से उत्पन्न । विन० १७.१ सरोजनि : सरोज+संब० । कमलों (से) । जा०म० ६४ सरोजा : सरोज । मा० १.२८८.४ सरोबर : सरोवर । मा० १.३०७.८ सरोरुह : सं०० (सं०) । कमल । मा० १.१४६ सरोवर : सं०० (सं०) । श्रेष्ठ जलाशय । मा० ३.३६.६ सरोष : वि० (सं०) । कोपयुक्त । मा० २.२५ छं० For Private and Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1035 सरोषा : सरोष । मा० १.४.८ सकरा : सं०स्त्री० (सं० शर्करा) । शकर । 'ज्यों सर्करा मिले सिकता महें।' विन १६७.३ सर्प : सं०० (सं.)। सांप । मा० ७.६३.६ सर्पराज : शेषनाग । मा० ५.३५ छं० २ सी : सरपि । घी । 'सलिल सी समान । कवि० ५.२० सर्पश : सर्पराज (सं०) । विन० १८.४ सर्ब : (१) वि० (सं० सर्व)। सब। (२) सं०पु० (सं० शर्व)। शिव । 'सर्ब ___ सर्बगत सर्व उरालय ।' मा० ७.३४.७ (शिवरूप तथा समस्त रूप)। सबंग : वि० (सं० सर्वग) । सर्वगत, सर्वव्यापी । विन० १२.५ सर्बगत : वि० (सं० सर्वगत) । सर्वव्यापी, अन्तर्यामी । मा० ७.१६ सर्बग्य : सर्वज्ञ । (१) अन्तर्यामी रूप से सबका ज्ञान रखने वाला ईश्वर । 'प्रभु सर्बग्य ।' मा० ७.१२ ग (२) अधिक विषयों का पूर्ण ज्ञान रखने वाला। 'कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई ।' मा० ७.८७.३ सर्बत्र : अव्यय (सं० सर्वत्र)। सब कहीं। मा० १.१८५.६ सर्वदा : सर्वदा । मा० १.६८ छं० सर्वनाथ : सम्पूर्ण चराचर जगत् का स्वामी=सर्वेश्वर । मा० ७.१०८ छं०८ सर्वपर : सम्पूर्ण जगत्प्रपञ्च से परे= लोकातीत । मा० ३.१५ सर्वरूप : वि० (सं० सर्वरूप) । विश्वरूप, सर्वात्मा, सभी रूपों में स्वयं रूप लेने ____वाला (जगत् ईश्वर का ही अंश है) । मा० ५.५०.३ सर्वस : सरबस । सब कुछ। मा० १.२०८.३ सर्बसु : सर्बस+कए । सब धन, सम्पूर्ण सम्पत्ति । 'सर्बसु खाइ भोग करि नाना ।' मा०६.४२.८ सर्वहित : सबका हितकारी । मा० ७.१६ सर्वा : सर्ब । मा० १.६१.२ सर्व : सम्पूर्ण । मा० १ श्लोक २ सर्वकृत : वि० (सं० सर्व कृत्) । सबका कर्ता। विन० ५६.४ सर्वगत : सर्वव्यापी । मा० २ श्लोक १ सर्वजित : वि० (सं० सर्वजित्) । सर्व-विजयी, सर्वोपरि सत्ता वाला। विन० ५६.४ सर्वज्ञ : वि० (सं०) । सम्पूर्ण चराचर का ज्ञाता । विन० ५६ ४ सर्वतोभद्र : सं०पू० (सं.) । सब ओर कल्याण; व्यापक मङ्गल । 'सर्वतोभद्र निधि ।' विन० ५३.१ सर्वतोभद्रदाता : सब ओर (सम्पूर्ण) कल्याण देने वाला। विन० ५१.८ For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1036 तुलसी शब्द-कोश सर्वदा : अव्यय (सं०) । सदा । मा० ७.१०८.१५ सर्वनाथ : सर्वेश्वर, सबका स्वामी । मा० ७.१०८.८ सर्वभूताधिवास : सम्पूर्ण जड़-चेतन में व्याप्त परमेश्वर; सबका अधिष्ठान, सर्वाधार । मा० ७.१०८.४ सर्वभूत : वि० (सं० सर्वभूत) । सबका धारणकर्ता तथा पोषणकर्ता। विन० ५६.४ सर्वमेवात्र : (सं०-सवम् एव अत्र) । यहाँ सभी कुछ; सभी जागतिक तत्त्व । विन० ५४.३ सर्ववासी : वि० (सं० सर्ववासिन्) । सब में निवास करने वाला=अन्तर्यामी ! विन० ५५.७ सर्वहित : वि० (सं.)। सभी का हितकारी। विन० ५६.४ सर्वांग : सभी अङ्गों का समवाय= समस्त काय । विन० ६१.६ सर्वेश : वि० सं० (सं०) । सबका स्वामी परमेश्वर विन० ५३ १ सलखन, सलछिमन : लक्ष्मण सहित । गी० ५.४.१, ५.५०.५ सलज्ज : वि० (सं.)। लज्जाशील, मर्यादा पालन की सद्वृत्ति वाला। मा० सलम : सं०० (सं० शलभ)। टिड्डी, पतङ्ग । मा० ७.११७ घ सलाक : सं०स्त्री० (सं० शलाका)। सलाई; लम्बी छड़। 'कनक सलाक, कला ससि, दीपसिखाउ ।' बर० ३१ सलिल : सं०० (सं.)। जल । मा० ६.६१.१७ सलिल : सलिल+कए । मा० २.४२ सलीले : क्रि०वि० (सं० सलीलम् >प्रा० सलील सलीलयं) । खेल खेल में । 'पटके सब सूर सलीले ।' कवि० ६.३२ सलोनि, नी : वि०स्त्री० (सं० सलावण्या>प्रा० सलोणी)। लावण्ययुक्ता, चमत्कारी (तीखे) सौन्दर्य वाली । 'रूप सलोनि तँबोलिनि ।' रान० ६ सलोने : वि०पु० ब० (सं० सलावण्य>प्रा० सलोण)। लावण्ययुक्त, सुन्दर । 'राजकुअर दोउ सहज सलोने ।' मा० २.११६.८ सलोनो : वि०पु०कए । लावण्ययुक्त, सुन्दर । 'गोरे को बरन देखें सोनो न सलोनो ___ लागे।' कवि० २.१६ सदरसी : समदरसी (अ० सम=सर्व) । मा० १.३०.६ सव : सं०० (सं० शव) । मृतक शरीर, लोथ । मा० १.११३.५ सवति : (१) सं०स्त्री० (सं० सपत्नी>प्रा० सवत्ती>म० सवत्ति)। एक पुरष की अनेक पत्नियां परस्पर सपत्नी (सौत) होती हैं =समानपतिका । (२) (सं० सपत्नी=सपत्न स्त्री शत्र)। 'जरि तुम्हारि चह सवति उखारी।' मा० २.१७.८ For Private and Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1037 सवतिआरेसू : (सवतिआ+रेस) सं०पू०ए० (सं० सपत्निकारेषः-रेष=रोष >प्रा० सवत्तिआरेसो>अ. सवत्तिआरेसु)। सौतिया डाह, सपत्नीभाव की प्रतिहिंसा । 'कबहुं न कियहु सवतिआरेसू ।' मा० २.४६.७ सवांग : स्वाँग । सं० । अभिनय, लीला, भाड़ों आदि की नकल; विविध वेष प्रदर्शन । हिलि मिलि करहिं सांग ।' रा०न० १८ सारि : पूकृ० (सं० समाच्य>प्रा. समारिअ>अ० सारि)। बनाकर, रचकर । _ 'काहे को कहत बचन सारि ।' कृ. ५३ सारें : दे० संवारें । मा० १.१५२.१ सवाई : वि० (सं० सपाद>प्रा० सवाय) । सवाया, अधिक । 'दोना बाम करनि सलोने भे सवाई हैं।' गी० १७१.१ । सवारे : क्रि०वि० (सं० श्वोवारे>प्रा० सवारे) । सबेरे, प्रातः । 'जगावति कहि प्रिय बचन सवारे ।' गी० २.५२.२ सशक्ति : वि० (सं.)। शक्तिसहित (राम की आद्याशक्ति सीता के समेत) । 'भजे सशक्ति सानुजं ।' मा० ३.४.१२ सस : (१) सं०० (सं० शश>प्रा. सस)। खरगोश । मा० ३.२८.१५ (२) (सं० सस्य = शस्य>प्रा० सस्स) । खेत में लगा हुआ अन्न, फसल । 'सुख सस सुर सींचत देत निराइ के।' गी० ५.२८.६ ससंक, का : वि० (सं० सशङ क) । शङकाकुल, शङिकत (आतङिकत)। 'रावन सभा ससंक सब ।' मा० ६.१३; ५.४.५ ससंकित : ससंक (सं० सशङिकत) । सशङक हुआ = शङका व्याप्त । 'सब लंक ___ससंकित सोरु मचा।' मा० ६.१५ ससंकेउ : वि०पू०कए० (भूक०)। शङकासहित हुआ, प्राणरक्षा के संशय में पड़ ___ गया, ससेट गया। 'सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू ।' मा० १.८६.२ ससक : सस (सं० शशक) । खरगोश । मा० २.६७.७ ससचिव : सचिव-सहित । कृ०६१ ससाक : शशाङक । चन्द्रमा । गी० १.३८.२ ससि : (१) सं०० (सं० शशिन्) । चन्द्रमा । मा० १.७ ख (२) (सं० शस्य = सस्य)-दे० सस । 'ससि सम्पन्न सोह महि कैसी।' मा० ४.१५.५ ससिभूषन : सं०० (सं० शशिभूषण) । शिव । मा० १.१०८.४ ससिसेखर : सं०० (सं० शशिशेखर) । शिव । पा०म०/० ५ ससिहि : चन्द्रमा को । 'अजहुँ देत दुख रबि ससिहि ।' मा० १.१७० ससीय : (दे० सीय)। सीतासहित । मा० २.११२.२ ससु : सस+कए । एक कोई खरगोश । 'जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।' मा० १.२६७.१ For Private and Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1038 तुलसी शब्द-कोश ससुर : सं०पु० (सं० श्वशुर>प्रा० ससुर)। (१) पति का पिता। मा० २.५८ (२) पत्नी का पिता । मा० १.३४२.७ ससुरारि, री : सं०स्त्री० (सं० श्वशुरालत) । ससुगल। (१) पत्नी पिता का घर । मा० ७.१०१.५ (२) पति-पिता का घर । 'पतिगृह कबहुं कबहुं ससुरारी।' मा० २.८२.५ ससुरु : ससुर+कए । अद्वितीय श्वशुर । 'ससुरु एताहस अवध निवासू ।' मा० २.६८.५ ससुरें: (दे० सासुर) ससुराल में । 'मइके ससुरें सकल सुख ।' मा० २९६ ससोक : वि० (सं० सशोक) । शोकयुक्त, दीनहीन, सकरुण । मा० २.२७६.१ ससोच : वि० । सोच से युक्त =चिन्तित+शोकयुक्त । मा० २.१५६.६ सस्त्र : सं०पू० (सं० शस्त्र) । धारदार आयुध (खड्ग आदि) । मा० ३.१६ क सस्त्री : वि.पु० (सं० शस्त्रिन्) । शस्त्रधारी । मा० ३.२६.४ सहँगे : वि००ब० । सस्ते (महंगे का विलोम)। अल्प मूल्य से प्राप्य । 'मनि ___ मानिक महंगे किए सहगे तृन जल नाज ।' दो० ५७३ सह : (१) सहइ । 'परहित निति सह विपति बिसाला ।' मा० ७.१२२.१६ (२) अव्यय (सं.)। साथ । 'सह, सहइ, ई : आ०प्रए० (सं० सहते>प्रा० सहइ) । सहन करता है-करती है । सब कर पद प्रहार नित सहई ।' मा० ७.१०६.११ सहउँ, ऊँ : आ० उए । सहता हूं। मा० १.२७२.५, ६.२२.४ सहगामिनिहि : सहगामिनी (सती होने वाली) स्त्री को । 'मंगल सकल सोहाहिं न कैसें । सहगामिनिहि बिभूषन जैसें ।' मा० २.३७.७ (सं० सहगामिनी उस स्त्री को कहा जाता है जो मृत पति के साथ सती हो जाती है) । सहज : (१) वि० (सं०) । सहजात, जन्मजात । (२) प्राकृतिक, स्वाभाविक । 'खग ___ मग सहज बयरु बिसराई।' मा० ७.२३.२ (३) सं०पु० । स्वभाव । 'कुटिल न सहज बिहाइ ।' दो० ३३४। सहहि : सहज भाव से ही, स्वभावतः । 'सहजहिं चले ।' मा० १.२५५.५ सहजहुं : सहज भाव से भी । 'सहज हुं चितवत मनहुं रिसाते ।' मा० १.२६८.६ सहजु : सहज+कए० । स्वभाव, शील । 'जारेहुं सहजु न परिहर सोई ।' मा० १.८०.६ सहजेहिं : स्वभावतः ही, सरलता से ही (अपने आप ही) । तेहि प्रसंग सहजेहिं बस देवा।' मा० १.१६६.२ सहत : वकृ०० । सहन करता-करते । 'सहत दुसह बन आतप बाता।' मा० ४.१.६ सहति : वकृ० स्त्री० । सहन करती। गी० ५.१७.१ For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1039 सहतेउ : क्रियाति०० उए० । चाहे मैं सह लेता। 'बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं।' मा० ६.६१.१२ सहन : सं०० (अरबी)। आंगन या द्वार का खुला भू-भाग । 'जिय की परी, ___ संभार सहन भंडार को।' कवि० ५.१२ सहनाइन्ह : सहनाई+संब० । शहनाइयों (के साथ)। 'करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह ।' पा०म० १३६ सहनाई : सहनाई+ब०। शहनाइयां । 'सरस राग बाहिं सहनाईं।' मा० १.३०२.६ सहनाई : सं०स्त्री० (फा० शहनाई) सरना-नामक वाद्यविशेष । 'सरना' का सम्बन्ध (सं.) 'स्वरण' से है अतः स्वर-संघात वाले समुदित वाद्य विशेष को 'शहनाई' कहा जाता है। इसकी निष्पत्ति 'सहनाद' से मानी जा सकती है- यद्यपि फारसी शब्द का 'शह' संभवतः 'शाह से संबद्ध है । मा० ६.७६.६ सहनि : सं०स्त्री० । सहन करने की क्रिया। ‘सील गहनि, सब की सहनि, कहनि हीय, मुख राम ।' वैरा० १७ सहब : भक०पु० (सं० सोढव्य>प्रा० सहिअव्व) । सहना (होगा)। 'सो मैं सुनब सहब सुखु मानी ।' मा० २.१८२.४ सहबासी : वि०० (सं० सहवासिन्)। साथ रहने वाला-वाले, सहचारी। 'सहबासी काचो गिलहिं । दो० ४०४ सहम : सं०स्त्री० (फा०-सहम = 5र) । अनिष्ट की प्राप्ति या आशङका से उत्पन्न त्रास, जड़ता, कम्प, रोमाञ्च आदि का सम्मिलित अनुभाव । 'समुझि सहम मोहि अपडर अपनें ।' मा० १.२६.२ सहमत : सहम+वकृ०० । सहम जाते हैं, घबरा उठते । तेरी बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर ।' हनु० २८ सहमि : (१) सप्तम+पू० । सहम कर, जड़वत् होकर । 'कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।' मा० २.२०.१ (२) भूक०स्त्री० । सहम गई। 'सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी ।' मा० २.५४.२ सहमे : सहम+भूकृ.पु०ब० । सहम गये । 'सुनि सहमे परि पाय कहत भए दंपति ।' पा०म०१८ सहमे उ : भूकृ०पु०कए० । सहम गया, ठक रहना । 'सुनि सुठि सहमे उ राजकुमारू।' मा० २.१६१.५ सहर : सं०पु (फा शहर)। नगर । कवि० ७.१७० सहरषा : (सं० सहर्ष) । मा० २.१६१.२ सहरी : सफरी (प्रा०) । कवि० २.८ सहरु : सहर+कए । नगर । विन० २५०.१ For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1040 तुलसी शब्द-कोशः सहरोसा : क्रि०वि० । (१) प्रबलता के साथ, बल देकर । 'सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा ।' मा० ३.४३.४ (२) हर्षपूर्वक, अवश्य ही। 'सर्वस देउँ आज सहरोसा ।' मा० १.२०८.३ सहस : (१) सहस्र । मा० १.२५१.१ (२) क्रि०वि० (सं०) हस हर्ष के साथ । ____ 'सनमुख होत जो राम पद करइ न सहस सहाइ ।' दो० १३६ सहसनयन : (१) सं०० (सं० सहस्रनयन) । सहस्राक्ष = इन्द्र । 'सहस नयन बिनु लोचन जाने ।' मा० २.२१८.१ (२) हजार आँखें । 'सहसनयन पर दोष निहारा ।' मा० १.४.११ सहसनाम : सं०पु० (सं० सहस्रनाम) । महाभारत में विष्णु सहस्रनाम' स्त्रोत । __ मा० १.१६.६ सहसफन : हजार फणों वाला=शेषनाग । गी० ७.१६.८ सहसफनी : सहसफन । गी० ७.२०.२ सहसबाहु : सं०० (सं० सहस्रबाहु)। हैहयवंश का राजा अर्जुन जिसके हजार भुजाएँ कही गयी हैं । मा० ६.२६.८ सहसभुज : सहसबाहु । मा० ६.६.८ सहससीसु : सहससीस+कए० (दे० सहस्रसीस) । शेष । मा० २.१२६ छं० सहसहं : हजारों, सहस्रों से भी । 'सहसहं मुख न जाइ सो बरनी ।' मा० ५.३०.५ सहसा : क्रि०वि० (सं०) । अकस्मात्, बिना सोचे-बिचारे । 'सहसा जनि पतिमाहु।' मा० २.२२ सहसाखी : सं०स्त्री० (सं० सहस्राक्षि>प्रा० सहस्सक्खी) । हजार आँखों से । 'जे पर दोष लखहिं सहसाखी।' मा० १.४.४ सहसानन : सं०० (सं० सहस्रानन) । हजार मुखों वाला=शेष । मा० ६.२६.७ सहल : संख्या (सं०) । हजार । मा० ७.५४.१ सहस्र सीस : (दे० सीस) हजार सिरों (फनों) वाला । शेषनाग । मा० १.१७.७ सहहि, हीं : आ०प्रब० । सहते हैं । 'संत सहहिं दुख पर हित लागी।' मा० ७.१२२.१५, २.१३१.१ सहहु, हू : आ०मब० । सहो, सहन करो। 'जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।' मा० १.२७४.७ सहा : भूक०० । सहन किया । 'मैं दुख दुसह सहा है।' गी० २.६४.३ सहाइ, ई : सहाय । (१) सहचर, साथी, अवसर पर साथ देने वाला । (२) (सं० साहाय्य)। सहायता । 'जौं संकर सत करहिं सहाई ।' मा० ६.७५.१४ (३) सं० स्त्री० । साथ-संग, संगति । 'सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।' मा० ५.३८.१ For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1041 सहाए : (१) सहाय+ब० । मा० २.२३३.४ (२) भूक०० ब० । सहन कराये । 'जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए।' मा० ६.६६.८ सहानुज : सानुज । मा० १.३०८.७ सहाय, या : (१) संपु+वि० (सं० सहयाति गच्छतीति सहायः) । सहचर, साथ देने वाला, सहायक । 'भइ सहाय सारद मैं जाना।' मा० ५.२५.३ (२) (सं० साहाय्य) । सहायता । 'बूढ़ भयउ नत करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ।' मा० ४.२८ (३) (समासान्त में) सहकृत, सहित । 'भास सत्य इव मोह-सहाया ।' मा० १.११७.८ 'सहाव, सहावइ : आ०प्रए० (सं० सायति>प्रा० सहावइ)। सहाता है, सहन कराता है, सहने को विवश करता है। 'दुसह दुख देउ सहावइ काहि ।' मा० २.२६२ सहाबहु : आ०मब० । सहन कराओ। 'सब दुख दुसह सहावहु मोही ।' मा० २.४५.२ सहावा : (१) भूक०० । सहाया, सहन कराया, सहने को विवश किया। 'आज दया दुख दुसह सहावा ।' मा० १.२८०.३ (२) सहावइ । 'सो सबु सहिम जो देउ सहावा ।' मा० २.२४६.६ सहावं : सहावइ । सहने को विवश करे, सहन कराए। 'तुलसी सहावै बिधि सोई सहियतु है ।' कवि० २.४ सहि : (१) पू० । सह कर । 'जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।' मा० १.२.६ (२) सहिहि । सहेगा। 'सहि कि दरिद्र जनि दुख सोई ।' मा० १.१०८.३ (३) सही। सचमुच । 'देखौं सपन कि सोतुख ससिसेखर सहि ।' पा०म० ६६ सहिन : आ०कवा०प्रए० (सं० सह्यते>प्रा० सहीअइ) । सहिए, सहा जाय, सहना पड़ता है । 'सो सब सहिअ जो दैउ सहावा ।' मा० २.२४६.६ । सहिउ' : आ०-भूकृ०स्त्री०+उए । मैंने सही; सहन की। 'सो सुनि समझि सहिउँ सब सूला।' मा० २.२६२.३ सहित : (१) वि० (सं.)। समेत, युक्त । 'उमा सहित जेहि जपत पुरारी।' मा० १.१०.२ (२) क्रि०वि० (सं०) । हित युक्त । 'बरसत सुमन सहित सुर-सैया।' कृ० १६ सहिदानी : सं०स्त्री० (सं० स्वभिज्ञान >प्रा० साहिणाण) । (१) स्वपरिचय चिह्न । 'दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ।' मा० ५.१३.१० (२) लक्षण, __ पहिचान । 'तुलसी यहै सांति सहिदानी ।' वैरा० ५१ सहिदानु : सहिदानी-सं०पु०कए । पहिचान, लक्षण । संतराज सो जानिए तुलसी ___ या सहिदानु ।' वैरा० ३३ सहिबे : भकृ.पु । सहने को। 'सांसति ही सहिबे ही।' कृ० ४० For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1042 तुलसो शब्द-कोश सहिबो : भक००कए० (सं० सोढव्यम् >प्रा० सहिअव्वं>अ० सहिव्वउ) । सहना (होगा) । 'दिन दस और दुसह दुख सहिबो।' गी० ५.१४.१ सहियतु : वकृ० पुकवा०कए० । सहा जाता, सहना पड़ता। 'तुलसी सहावै बिधि सोई सहियतु है ।' कवि० २.४ सहिहाह : आ०भ०प्रब० । सहेंगे । 'दुख सहिहहिं पावर प्रान ।' मा० २.६७ सहिहि : आ०भ०प्रए० (सं० सहिष्यति>प्रा० सहिहिइ) । सहेगा । 'सहिहि निठुर ___ कठोर उर मोरा ।' मा० ६.६१.१३ सहिहौं : आ०भ०उए । सहूंगा। 'सब सहे दुसह अरु सहिहौं ।' विन० २६१.२ सहिहो : आ०भ०मब० । सहोगे। गी० २.५.२ सही : (क) (१) भूकृ०स्त्री० । सहन की। 'हम अबलनि सब सही है।' कृ० ४२ (२) सहि (पूकृ०)। 'सही न जाइ कपिन्ह के मारी।' मा० ६.८६.६ (ख) (अरबी-सहीह) (१) निर्दोष। 'पुर सोभा सही।' मा० १.६४ छं. (२) ठीक-ठीक । 'अबला निरखि बोले सही।' मा० १.८७ छं० (३) निर्दोष होने का प्रमाणभूत हस्ताक्षर आदि । 'परी रघुनाथ हाथ सही है ।' विन० २७६.३ (४) समर्थन, अनुमोदनात्मक स्वीकृति । 'सही भरी लोमस भुइंडि बहु बारिखो।' कवि० १.१६ (५) अवश्य । ‘गति पहहिं सही।' मा० ५.३ छं० ३ (६) भले ही । 'प्रभु कह देन सकल सुख सही । भगति आपनी देन न कही।' मा० ७.८४.४ (७) वस्तुतः। 'भाग्य बड़ तिन्ह कर सही।' मा० १.६५ छं० (८) यथार्थ, वास्तविक । 'मारुत मदन अनल सखा सही।' मा० मा० १.८६ छं० सहीजे : (१) आ०कवा०प्रए० । सहिअ (प्रा० सहिज्जइ) । सहा जाय, सहन करना पड़ता है । 'हारेहु मानि सहोजे ।' कृ० ४५ (२) सही। समर्थन । 'परी मनो प्रेम सहीजै ।' गी० ३.१५.४ सहें : सहने में, सहन करने से । 'सहे समझें भलाई है।' गी० ५.२६.२ सहे : (१) भूक००ब० । सहन किये । 'हठ बस सब संकट सहे ।' मा० २.६१ (२) सहे । 'समुझे सहे हमारो है हित ।' कृ. २७ सहेउँ : आo-भूकृपु+उए । मैंने सहे । 'सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ।' मा० ६.३०.४ सहेउ : भूकृ००कए ० । सहा, झेल लिया। ‘सन्मुख राम स हेउ सोइ सेला ।' मा० ६.६४.२ स तू : वि० (सं० सहेतु) । हेतुयुक्त, सकारण, सप्रयोजन, सार्थक । 'नारद बचन सगर्भ सहेतू ।' मा० १.७२.३ सहेली : सं०+वि०स्त्री० (सं० सहभवा>प्रा० सहेल्ली) । साथ रहने खेलने वाली, सहचरी । ‘मुदित मातु सब सखी सहेली।' मा० २.१.७ For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1043 सहेहु : आ०-भूक००+मब० । तुमने सहा-सहे। 'सहेहु दुसह हिम आतप बाता।' मा० ६.६१.४ सहै : (१) सहइ । सहन करे, सहता है। 'लात के अघात सहै।' कवि० ५.३ (२) भकृ० अव्यय । सहने को। 'बाली रिपु बल सहै न पारा ।' मा० ४.६.३ सहगो : आ० म०पू०प्रए । सहेगा । 'तुलसी परमेस्वर न सहेगी।' कृ० ४२ सहोदर : सं०+वि०० (सं०) । एक माता से उत्पन्न । भाई । 'मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।' मा० ६.६१.८ । सहौं : सहउँ । सहती हूं। 'गोरस हानि सहीं न कहीं कछु ।' कृ० ३ सहोंगो : आ०भ०० उए । सहूंगा । 'सुनि सानंद सहौंगो।' गी० २.७७.२ सही : सहहु । 'के यह हानि सहो ।' कवि० ७.५६ सह्यो : सहेउ । 'तनु राखि बियोगु सह्यो है ।' गी० ४.२.४ सांइ, ई : साईं। सांकरे : (१) सं०० (सं० संकट>प्रा० संकड=संकडय)। (२) क्रि०वि० (सं. संकटे>प्रा० संकडे) । संकट में । 'सांको सबै पं राम रावरे कृपा करी।' कवि० ७.६७ सांगि, गो : सं०स्त्री० । आयुधविशेष, शक्ति नामक प्रहरण । 'बीर घातिनी छाँडेसि सांगी.. मरुछा भई सक्ति के लागें ।' मा० ६.५४.७-८ सांच, चा : वि०+क्रि०वि० (सं० सत्य>प्रा० सच्च)। सत्य, यथार्थ, वस्तुतः । 'स्वारथ सांच जीव कहुं एहा ।' मा० ७.६६.१ 'अब यहु मरनिहार भा साँचा।' मा० १.२७५.४ सांचि : साँची । 'तब तें आज साँचि सुधि पाई ।' मा० १.२६१.७ सांचिअ, सांचिये : (१) सच्ची ही । 'कहैं हम साँचिअ ।' पा०म० १०७ (२) सच, मुच ही। 'साँचिय परैगी सही ।' विन० २५४.३ सांचिली : सांची (प्रा. सच्चिली)। सच्ची। 'साँचिली चाह ।' दो० ८० सांचिलो : साँचो (प्रा० सच्चिल्लो) । सच्चा । 'साँचिलो सनेह ।' दो० ३१८ सांचिहुं : सच्ची में भी । साँचिहुं सपथ अघाइ अकाजु ।' मा० २.२११.१ सांची : वि० स्त्री० (सं० सत्या>प्रा० सच्ची) । सच्ची, सच बात। 'हरषी सभा ___ बात सुनि साँची ।' मा० १.२६०.६ ‘अब सब साँची कान्ह तिहारी ।' कृ० ६ सांच : साँच+कए । सत्य, यथार्थ बात । 'कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू ।' मा० २.१७६.१ सांचे : वि००ब० । सच्चे । मा० २.१६८ साँचेहं : सच में ही, वास्तव में ही । 'सांचेहं कीस कीन्ह पुर दाहा।' मा० ६.२३.७ सांचो : (१) साँच+कए । सच्चा। 'हुतो न साँचो सनेह ।' कृ० ३६ (२) सं००कए । सांचा (जिस में मिट्टी आदि भर कर मूर्ति आदि बनाते For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1044 तुलसी शब्द-कोश हैं) । 'सोभा को साँचो सँवारि, रूप जातरूप ढारि, नारि बिरची बिरंचि, संग सोही ।' गी०२.२०.३ साँझ : सं० स्त्री० (सं० सन्ध्या > प्रा० संझा ) | सायंकाल | मा० ६.३५ साँठे : भूकृ०पु ं०ब० (सं० श्रन्थित > प्रा० संठिय) । बँधे हुए, नये हुए (साँठ-गाँठ में फँसे हुए) । 'बलि बालि गए चलि बात के साँठे ।' कवि० ६.२८ सांति, ती सांति । 'बिनु अधार मन तोष न साँती ।' मा० २.३१६.२ : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सांथरी : सं० स्त्री० (सं० संस्तर > प्रा० संथर ) साथरी । बिस्तर, घास-फूस का बिछावन । मा० २.८६.७ सीधा : भूकृ०पु० (सं० संहित > प्रा० संधिअ ) । (१) संधान किया, चढ़ाया। 'ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा । मा० ५.१९ (२) पकाया, पकाते समय मिला दिया । 'तेहि महुं बिप्र मांसु खल सांधा । मा० १.१७३.३ : सांधा + कए ० (सं० संहितः > प्रा० संधिओ ) । संधान किया, चढ़ाया। 'दूसरो सरुन सांध्यो ।' कवि० ६.४ साँप : सं०पु० (सं० सर्प > प्रा० सप्प) । मा० २.५५.३ सपन, नि: सांप + संब० । साँपों । 'साँपनि सों खेलें ।' कवि० ५.११ सपनि : सं० स्त्री० (सं० सर्पिणी > प्रा० सप्पिणी ) । मा० ७.७१.४ साँवर : वि०पु० (सं० श्यामल > प्रा० सामल > अ० सावल ) । श्यामवर्ण । रा०न० १२ साँवरि : साँवर + स्त्री० (अ० सावली ) । श्यामवर्ण वाली । 'निरखिनिरखि हिय हरषं मूरति साँवरि ।' जा०मं० १६५ साँवरी : श्यामवर्ण वाली ने। 'कियो बिदेहु मूरति साँवरी । मा० १.३२४ छं० ४ साँवरे : ('सांवर' का रूपान्तर ) । (१) श्याम वर्ण वाले । 'साँवरे गोरे सलोने सुभाय ।' कवि० २.१९ ( २ ) श्रीकृष्ण । कृ० १६ साँवरी: साँवर + कए० (सं० श्यामलः > प्रा० सामलो> अ० सावँलो) । मा० १.२३६ छं० I साँति : (१) सासति । ( २ ) सं० स्त्री० (सं० श्वासात्ति > प्रा० सासत्ति ) । साँ उखड़ने की व्यथा, तत्तुल्य मनोव्यथा । 'तुलसी प्रभुहि तुम्हहि हमहूं हिय सांस सी सहिबे ही ।' कृ० ४० सा: सर्वनाम स्त्री० (सं० ) । वह । मा० २ श्लोक २ सांख्य: सं०पु० (सं० ) । कपिल द्वारा प्रवर्तित दर्शनशास्त्र जिसमें प्रकृति-पुरुषविवेक (संख्या) को कैवल्य का कारण मानकर २५ तत्त्वों की व्याख्या की गई है । मा० १.१४२.७ सांत: वि० (सं० शान्त) । ( १ ) शान्तियुक्त | 'सांत बेषु करनी कठिन ।' मा० ( २ ) शमयुक्त - दे० सम । (३) समाहितचित्त एकाग्र । १.२६८ For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1045 (४) निर्विकार, पूर्ण, व्यापक, अविचल, कूटस्थ । 'सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ।' मा० १.२४२.४ सांतरस : (सं० शान्तरस) । काव्य का नवम रस जिसका स्थायी भाव 'शम' होता है और तत्त्वज्ञान आलम्बन रहता है। इसे सम्पूर्ण विकारात्मक मनोवेगों की शान्तिदशा कहा गया है। मा० २.२७५ सांतरसु : सांत रस+कए । केवल शान्तरस । 'धरें सरीर सांतरसु जैसें ।' मा० १.१०७.१ साति : सं०स्त्री० (सं० शान्ति) । (१) चित्त की पूर्ण मात्त्विकदशा, शमदशा जिसमें दुःख और मोह का पूर्ण शमन हो जाता है । 'सांति सुमति सुचि सुदर रानी ।' मा० २.२३५.७ (२) ताप शमन । (३) वैदिक शान्तिमन्त्र । 'सांति पढ़हिं महिसुर ।' मा० १.३१६.६ साई : साईं। साईदोह : वि.पु(सं० स्वामिद्रोह-स्वामिने द्रुह्यति यः>प्रा० सामिदोह) । स्वामी के प्रति द्रोहशील, स्वामी से वैर रखने वाला । 'साइंदोह मोहि कीन्ह कुमाता । मा० २.२०१.६ साइदोहाई : साइंदोहाई में; स्वामिद्रोह भावना में ; स्वामि के प्रति वैर भाव में । ___ 'मोहि समान मैं साईदोहाई।' मा० २.२६८.४ साइदोहाई : सं०स्त्री० (सं० स्वामिद्रोहता>प्रा० सामिदोहया) । स्वामी के प्रति द्रोह करने की भावना । 'स्वामी की सेवक-हितता सब, कछ निज साईदोहाई । मैं मति तुला तौलि देखी, भइ मेरिहि दिसि गरुआई ।' विन० १७१.६ साई : वि०पु० (सं० स्वमिन् >प्रा० सामि, सामी) । स्वामी, प्रभु । 'सिंघासन पर त्रिभुवन साईं।' मा० ७.१२.८ साईंद्रोह : साइंदोह । विन० ३३.६ साउज : सं०० (सं० श्वापद>प्रा० सावज्ज)। (शिकार किये जाने वाले) वन्य जन्तु । 'सकल कलुष कलि साउज नाना ।' मा० २.१३३.३ साक : सं०० (सं० शाक) । सब्जी, भाजी । 'साक बनिक मान गुन गन जैसें ।' मा० १.३ १२ साकं : अव्यय (सं.)। सहित, साथ। 'श्रीराम सौमित्रि साकं ।' विन० ५१.८ साका : (१) सं०० (सं० शक्य>प्रा० सक्क)। सामर्थ्यानुसार किया जाने वाला कर्म । (२) (सं० शाक =संवत्) । ख्याति, प्रसिद्धि । 'तस फल देउँ उन्हहि करि साका।' मा० २.३३.८ साके : साका+ब० । यशः प्रशस्तियां, कीति-गाथाएँ । 'जग जुग जग साके केसव के ।' कृ०६१ For Private and Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1046 तुलसी शब्द-कोश साको : (१) साका+ कए । कीर्ति कथा। 'जुग जुग जान किनाथ को जग जागत साको।' विन० १५२.१ (२) ख्यातिप्रद कोई बड़ा काम, यशोदायक उत्कर्ष । 'लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।' कवि० १.२० साखा : सं०स्त्री० (सं० शाखा)। (१) वृक्ष की डाल । 'लता निहारि नवहिं तरु साखा ।' मा० १.८५.१ (२) (लक्षणा से)। विस्तार, प्रपञ्च, अपवाद या अपयश का प्रसार-प्रचार । 'को करि तर्क बढ़ावै साखा ।' मा० १.५२.७. (३) विश्व-रचना से पच्चीस तत्त्व:-प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पञ्च तन्मात्र या विषय (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श), पञ्च महाभूत और जीव । 'साखा पंच बीस ।' मा० ७.१३ छं० ५ (४) वंश के गोत्र आदि। साखामग : सं०० (सं० शाखामृग) । वानर । मा० ६.२८.१ साखि, खी : सं+वि०। (१) (सं० साक्षिन्>प्रा० सक्खी) । गवाह, तटस्थ द्रष्टा । 'साखि सखा सब सुबल सुदामा ।' कृ० १२ ‘सत्य कहउँ करि संकरु साखी ।' मा० २.३१.६ (यहाँ शपथ का भी तात्पर्य है ।) (२) (सं० साक्ष्य =साक्षी) संस्त्री० । गवाही, साक्षात्कार, तटस्थ-दर्शन का प्रमाण । 'पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढाइ ।' मा० ४.४ (यहाँ भी शपथ का भाव है)। (३) सन्तों की वाणी-विशेष जिसमें आत्मा तथा परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन रहता है। 'साखी सबदी दोहरा कहि किहनी उपखान ।' दो० ५५४ (४) शाखी । वृक्ष । 'तुलसी दलि रूंध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ।' विन० ८.४ साखोचारु : साखोच्चारु । 'साखोचारु दोउ कुलगुरु करें।' मा० १.३२४ /०३ साखोच्चार : सं०० (सं० शाखोच्चार)। विवाह में वर-वधू के पितृवंश के गोत्र, पूर्वजों आदि का विस्तृत कथन जो दोनों ओर के आचार्यों द्वारा किया जाता है। पा०म० १२६ साखोच्चारु : साखोच्चार+कए० । मा० १.३२४; छं०३ (पाठान्तर) । साग : साक (प्रा.)। (१) पत्ती । गी० ३.१७.६ (२) सब्जी, तरकारी । ‘सालन ___ साग अलोने ।' विन० १७५.४ सागर : सं०० (सं०) । समुद्र (सगर पुत्रों द्वारा विस्तार देने से नाम पड़ा)। मा० १.१४ च सागरु : सागर+कए । एकमात्र सागर, अद्वितीय समुद्र । 'सागरु रघुबर बाहुबल ।' मा० १.२६१ सागु : साग+ ए. । हरित पत्र । 'सागु खाइ सत बरष गवाए। मा० १.७४.४ साच, चा : साँच, चा। जानहिं झूठ न साच।' मा० १.११४ 'मोर पनु साचा ।" मा० १.२५६.४ For Private and Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1047 साचिलो : साँचिलो । विन० १६१.१ साची : सांची। 'सब साची कहौं ।' मा० २.१०० छं० साचे : साँचे । यथार्थ, प्रमाणित । जन सब साचे होन हित भए सगुन एक बार ।' मा० १.३०३ साचेहं : साँचेहुं । वस्तुतः, यथार्थ में । मा० १.१५ साज : सं०० (सं० सज्ज)। (१) सजावट, बनाव, वेषरचना, साधन-सामग्री। 'दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।' मा० ७.४४.७ (२) (फा० साज) बाजा+ बनाव । 'साजक गिरे साज के।' गी० ५.२६.२ (३) क्रि०वि० । समान, तत्सदश बनाव के साथ । 'मृगराज के साज लरे।' कवि० ६.३६ साजक : वि० (सं० सज्जक) । बनाने-संवारने वाला । 'साजक बिगरे साज के।' गी० ५.२६.२ साजत : सजत । 'सात दिवस भए साजत सकल बनाउ।' बर० २० साजन : सजन । सजाने । लगे चलन के साजन साजा । मा० २.३१०.६ साहि, हीं : आ० प्रब । सजाते हैं, बनाते या तैयारी करते हैं । 'सकल चल कर - साहिं साजू ।' मा० २.१८५.५ साजहु : सजहु । 'हय गय स्यंदन साजहु जाई ।' मा० १.२६८.१ साजा : (१) साज । 'बिपिन बसइ तापस के साजा ।' मा० १.१५८.५ (२) भूकृ० पु० । सजाया गया। ‘राम तिलक हित मंगल साजा ।' मा० १.४१.७ साजि : सजि । सुसज्जित कर । मा० ६.६८.१ साजिअ : आ०कवा०प्रए । सजाइए, सुसज्जित किया जाए । 'साजिअ सबुइ समाजु ।' मा० २.४ साजी : (१) साजि । 'बरहिं सुमन सुअंजुलि साजी।' मा० १.१६१.७ (२) भूकृस्त्री० । सुसज्जित की। 'बीर बसंत सेन जनु साजी । मा० ६.७६.५ (३) आ०भ० प्रए० (सं० सज्जिष्यति>प्रा० सज्जिहिइ>साजिहि) । सजाएगा । 'को साहिब सेवकहि नेवाजी । आपु समाज साज सब साजी।' मा० २.२६६.५ साजु : साज+कए। (१) वेष विन्यास । 'साजु अमंगल मंगल रासी ।' मा० १.२६.१ (२) संभार, सामग्री। 'भोजन साज़ न जाइ बखाना ।' मा० १.३३३.४ (३) तैयारी आदि । 'परिछनि साजु सजन सब लागीं।' मा० १.३४६.२ (४) दे० साजू। साजुज्य : सं०० (सं० सायुज्य) । मुक्ति का एक प्रकार जिस में अद्वैत मतानुसार जीव को ब्रह्म का अभेद उपलब्ध होता-पृथक्ता सर्वथा खो जाती है । विशिष्टाद्वैत में अंशी ब्रह्म के अंश रूप में जीव अपनी परमार्थ सत्ता अनुभव For Private and Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1048 तुलसी शब्द-कोश करता और इस प्रकार अंशांशिभाव का भेद रहते भी अभेद पा जाता हैजैसा कि अङ्गका अङ्गी से भेदाभेद रहता है । मा० ६.३.२ साजू : (१) साजु । बनाव, शृङ्गार आदि । 'सजहि सुलोचन मंगल साजू ।' मा० २.२७.३ (२) आ० - आज्ञा - मए० । तू सुसज्जित कर, शृङ्गार सजा । 'रिस परिहरि अब मंगल साजू । मा० २.३२.३ साजें : क्रि०वि० । सुसज्जित किए हुए ( स्थिति में ) । 'नव सप्त साजें सुंदरी सब ।' मा० १.३२२ छं० साजे : भूकृ०पु०ब० । सुसज्जित किये बनाये । 'करि मज्जन प्रभु भूषन साजे ।' 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मा० ७.११.८ सार्ज : सर्जे, सजइ । सजाता है । गी० ७.१२.२ साटक : (१) सं०पु० (सं० शाटक) । परिधान, वेषविन्यास । (२) (सं० साटक-- साट् दर्शने ) । प्रदर्शन, प्रदर्शनी दिखाव । (३) (सं० सट्टक) एक प्रकार का क्षुद्र पात्रों का नाट्य, ग्राम्य नाट्य । 'सब फोटक साटक है तुलसी अपनो न कछू सपनो दिन है ।' कवि० ७.४१ साटि : पूकृ० (सं० शट अवसादने ) । कष्ट उठाकर । 'बार कोटि सिर काटि साटि लटि रावन संकर पै लई ।' गी० ५.३८.३ साढ़ेसाती : (१) सं०पु० + स्त्री० (सं० सार्धसप्तिक > प्रा० सड्ढसत्तिअ ) । बारहवें, राशिस्थान तथा द्वितीय स्थान को मिलाकर साढ़े सात वर्ष की शनैश्चर की स्थिति जिसमें स्थान परिवर्तन, उच्चाटन आदि कष्ट होते हैं । 'समय साढ़ेसाती सरिस नृपहि प्रजहि प्रतिकूल ।' रा०प्र० ३.२.४ ( २ ) साढ़ेसाती शनितुल्य उच्छेद, उच्चाटन आदि संकट लाने वाली - ' अवध साढ़साती तब बोली ।' मा० २.१७.४ साढ़ी : सं ० स्त्री ० । (दूध के ऊपर जमने वाली ) मलाई । गी० ५.३७.२ सात : सप्त (प्रा० सत्त) । संख्याविशेष | मा० ७.११४.१० सातक : (सात + एक ) लगभग सात । 'साथ किरात छसातक दीन्हे ।' मा० २.२७२.८ सातवें : वि०पुं० (सं० सप्तम > प्रा० सत्तम > अ० सत्तवं ) । सातवाँ । मा० ३.३६.२ सातहजान : (सं० सप्त + हय + यान ) सात घोड़ों वाहन वाला = सूर्य ( सूर्य को 'सप्ताश्व' तथा 'सप्त-सप्ति' कहा जाता है, इसी आधार पर शब्द गढ़ा गया है ) । 'छली न होइ स्वामि सनमुख ज्यों तिमिर सात- हय जान सों ।' गी० ५.३३.२ साता : सात | मा० २.२८०.८ For Private and Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1049 सातै : सं०+वि०स्त्री० (सं० सप्तमी>प्रा० सत्तमी>अ० सत्तवीं == सत्तवि)। (१) सातवीं (२) सप्तमी तिथि । विन० २०३.८ सातो : सातों, सब-के-सब सात । समुद्र सातौ सोषिहै ।' कवि० ६.२ सात्त्विक : वि० (सं.)। सत्त्वगुणी, दुःख-मोहरहित, राजस-तामस प्रवृत्तियों से शून्य-शुद्ध प्रकाशानन्दमय, उत्तम । मा० ७.११७.६ साथ, था : (१) सं०पु० (सं० सार्थ>सत्थ) । गोल, यूथ, संघ । 'गज चिक्करत भाजहिं साथ ते।' मा० ६.७८ छं० (२) सह, संग में । सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।' मा० ६.१०६.३ साथरी : साथरी पर । 'ते सिय रामु साथरी सोए ।' मा० २.६१.३ साथरी : सं०स्त्री० (सं० स्रस्तर>प्रा० सत्थर) । बिस्तर, घास-फूस का बिछोना। 'कुस किसलय साथरी सुहाई ।' मा० २.६६.२ साथिन्ह : साथी+संब० । साथियों । साथिन्ह सों भुज उठाइ कहीं टेरे।' विन० २२७.१ साथी : वि०पू० (सं० साथिक>प्रा. सत्थिअ) । साथ वाला, सहचर, अपने वर्ग का सदस्य, सहवर्गी । गी० ५.१६.२ साथ, थू : साथ+कए । संग, सहयात्रा । 'केहि सुकृतीसन होइहि साथू ।' मा० २.५८.३ सादर : वि०+क्रि०वि० (सं०) । आदर सहित, सम्मान पूर्वक । 'सेवत सादर समन कलेसा ।' मा० १.२.१२ सादरु : सादर+कए० । 'सो सब सादरु कीन्ह ।' मा० २.२४७ सादें : वि.पु. (फा० सादः) । सादे से, साधारण से (सहित) । 'भूषन बसन बेष सुठि सादें। मा० २.२२१.६ साध : (१) सं०स्त्री० (सं० श्रद्धा=इच्छा>प्रा. सद्धा>अ० सद्ध)। अभिलाष, वासना, इच्छा । 'सकुचि साध जनि मारो।' कृ० ३४ (२) वि०पुं० (सं. श्रद्ध>प्रा० सद्ध)। श्रद्धालु । 'सब सुमति साध सखाउ।' गी० ७.२५५ (३) साधक, सिद्ध करने वाला । 'सगुन साध सुभकाज ।' रा०प्र० १.४.१ ।। साधक : सं०वि०पु० (सं०)। (१) उद्यमशील । (२) साधना करने वाला, तपस्वी आदि । 'अति पुनीत साधक सिधिदाता।' मा० १.१४३.२ (३) युञ्जान योगी जो योगसिद्धि की प्रक्रिया में चल रहा होता है (इस अर्थ में ही सर्वाधिक प्रयोग हैं) । 'भए अकंटक साधक जोगी।' मा० १.८७.८ 'साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी।' मा० ७.१२४.५ (४) कार्य सफल करने वाला । ‘स्वारथ-साधक ।' मा० १.१३६ (५) विवाह के पूर्व वर-कन्या-पक्षों में मध्यस्थ होकर सम्बन्ध पक्का कराने वाला । 'दुलहिनि उमा, ईसु बरु, साधक ए मुनि।' पा०म० ८० साषको : साधक भी । 'सुनत सिहात सब सिद्ध साधु साधको।' कवि० ७.६८ For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1050 तुलसी शब्द-कोशः साधत : वपु । साधना द्वारा सिद्ध करते हुए। 'साधत कठिन बिबेक ।' मा.. ७.११८ साधन : सं०० (सं.) । (१) उपकरण (२) तप आदि उच्चतम साध्य की प्राप्ति के उपाय । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ।' मा. १.३.८ (३) अष्टाङ्ग योग आदि के उपाय :- यम, नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि+हठयोग के साधन मुद्रा आदि+राजयोग । 'अब साधन उपदेसन आए।' कृ० ५० (४) नवधा भक्ति-जिनका वर्णन अरण्यकाण्ड में है । मा० ३.१६.५ साहिं : आ०प्रब० । साधना कर रहे हैं; प्रयत्नरत हैं । 'तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साहिं ।' पा०म० २१ साधहि : आ० मए । तू साधन कर, ग्रहण कर । 'के चुप साधहि सुनि समुझि ।' दो०१८ साधा : भूक पु० । (१) निश्चित किया। 'राजू देन कहुं सुभ दिन साधा।' मा० २.५४.७ (२) परखा, कसा । 'अब लगि तुम्हहि न काहू साधा ।' मा० १.१३७.४ साधि : प्रकृ० । (१) निश्चित कर। 'सुदिन साधि नप चलेउ बजाई ।' मा० १.१५४.५ (२) ग्रहण कर । 'का चुप साधि रहेहु बलवाना।' मा० ४.३०.३ (३) आ०-आज्ञा-मए० । तू सिद्ध कर ले । 'एक ही साधन सब रिधि सिधि साधि रे ।' विन० ६६.२ साधी : (१) भूकृ स्त्री० । साध ली, ग्रहण की। ‘देखि दसा चुप सारद साधी ।' मा० २.३०७.२ (२) वि०स्त्री० (सं० साध्य) । सिद्ध होने योग्य, सिद्ध की जाने वाली । 'नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।' मा० १.२१.२ साधु : वि० (सं०) । (१) दूसरे का हित करने वाला (सानोति पर कार्याणि इति साधुः) । 'साधु चरित. 'जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।' मा० १.२.५-६ (२) महात्मा। 'परम साधु परमारथ बिंदक।' मा० ७.१०५.४ (३) सज्जन, निर्दोष । 'बैठो सकुचि साधु भयो चाहत ।' कृ० ३ (४) (अव्ययात्मक प्रयोग) भला-भला, बहुत अच्छा, अत्युत्तम हुआ (शाबाश) । 'साधु सराहि सुमन सुर बरषे ।' मा० २.२१०.७ (५) वणिक् । साधुता : सं०स्त्री० (सं.)। सज्जनता, परहित भावना, तपोनिष्ठा। मा० ७.१०६.४ साधुन्ह : साधु+संब० । साधुओं । 'मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।' मा० ३.४६.८ साधुपनो : सं००कए । साधुता । 'ब्याध को साधुपनो कहिए ।' कवि० ७.६३ For Private and Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1051 साधु-साधु : अव्यय (सं०) । हर्षोत्साहवर्धक शब्द (शाबाशी)। 'साधु-साधु बोले मुनि ग्यानी।' मा० २.१२६.७ साधू : साधु । मा० १.५.८ साधे : साधन करने से । 'लहिअ न कोटि जोग जप साधे ।' मा० १.७०.८ साधे : भूकृ०पु०ब० । सिद्ध किये । 'समयहिं साधे काज सब ।' दो० ४४८ साधेउँ : आ०-भूकृ.पु+उए । मैंने सिद्ध कर लिया; अपनी मुट्ठी में किया। _ 'अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा ।' मा० १.१७१.३ साधो : साध्यो । 'साधो कहा करि साधन त ।' कवि० ७.१५६ साधौंगो : आ०भ०० उए । सिद्ध कर लूगा । 'कालिहीं साधौंगो काज ।' कवि० ७.१२० साध्य : वि० (सं०) । (१) साधन द्वारा प्राप्य, लक्ष्य । (२) आराध्य । 'सिद्ध साधक साध्य वाच्य वाचक रूप ।' विन० ५३.७ साध्यौ : भूकृ००कए० । सिद्ध किया, पूर्ण किया। गी० २.३.४ सान : सं००+स्त्री० (सं० शाण) । शस्त्रों की धार तेज करने का उपकरण विशेष, खराद । 'धरी कबरी सान बनाई ।' मा० २.३१.२ सानंद : वि० (सं०) । आनन्दरहित, सुख-संयुक्त । मा० २.२४ साना : भूक पु० । गुधा हुआ, ओतप्रोत, मिश्रित । 'बिधि प्रपंचु गुन अवगुन __'साना ।' मा० १.६.४ सानि : पूकृ० । गधकर, मिश्रित करके । 'बोलीं गिरिजा बचन बर मनहं प्रेम रस सानि ।' मा० १.११६ सानी : (१) भूकृ० स्त्री० । गूधी हुई, आर्द्र करके मिलाई हुई; ओतप्रोत, लपेटी हुई । 'समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ।' मा० १.१३४.६ (२) सानि । 'बोले मधुर बचन छल सानी ।' मा० १.८६.८ सानुकल : वि०+क्रि०वि० (सं० सानुकूल्य) । अनुकूलता सहित, अनुकुल आचरण पूर्वक । 'सेवहिं सान कल सब भाई।' मा० ७.२५.१ सानुग : वि० सं०) । अनुगामियों (अनुचरों आदि) सहित । हनु० १३ सानुज : वि० (सं०)। अनुज सहित । मा० १.४०.२ सानुराग : वि० (सं०) । अनुराग-सहित, स्नेहयुक्त । कवि० २.१० साने : भूकृ००ब० । गधे, मोये हुए, ओतप्रोत, स्निग्ध किये हुए । 'सब के बचन प्रेमरस साने ।' मा० ७.४७.७ सान्द्र : वि० (सं०) । सघन, घनीभूत । मा० ३ श्लोक २ सान्यो : भकृ००कए० । सौंदा, मोया हुआ, लिथरा हुआ, चभोरा हुआ। 'करम कीच चित सान्यो।' विन० ८८.३ For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1052 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश साप, पा: सं० स्त्री० + पुं० (सं० शाप – पुं० ) । भावी अनिष्टकारी वचनविशेष ! मा० ७.१०७ क; १०६.३ सापत: वकृ०पु० (सं० शपत् > प्रा० सप्पंत ) । शाप देता हुआ । 'सापत ताड़त परुष कहंता । मा० ३.३४.१ सापे : शाप दिये जाने पर । 'सापे पाप, नये निदरत खल ।' गी० १.४७.२ साबर : ( १ ) वि० (सं० शाबर ) । शबर जाति सम्बन्धी, जंगली, अशिष्ट । ( २ ) शाबरी विद्या जो जंगली जाति में प्रचलित मन्त्रों वाली होती है । साबर मंत्र : शाबरी विद्या के मन्त्र ( जिनकी रचना शबर वेषधारी शिव ने की थी, ऐसा प्रचलित है । इन मन्त्रों की भाषा बेतुकी होती है ।) मा० १.१५.१ साम : सं०पु० (सं० सामन्) । (१) राजनीति के चार उपायों में प्रथम । प्रतिपक्षी को वाचिक सान्त्वना आदि से अनुकूल करने का उपाय । 'साम दान भय भेद देखावा ।' मा० ५.६.३ (२) द्वितीय वेद, वैदिक संहिताविशेष । 'धीर मुनि गिरा गंभीर सामगान की ।' गी० २.४४. १ ( सामवेद के मन्त्रों को भी 'साम' कहा जाता है) । ( ३ ) सान्त्वना । 'नाम कलि कामतरु सामशाली ।' विन० ४४.१ सामध : सं०पु० । समाधियों का परस्पर स्नेहाचार आदि । 'सामध देखि देव अनुरागे । मा० १.३२०.४ सामरथ : सं०पु ं० (सं० सामर्थ्य ) । शक्ति, क्षमता । 'यह सामरथ अछत मोहि त्यागहु ।' विन० ६४.५ सामादिक : राजनीति के चार उपाय:- साम, दान, भेद और दण्ड । दो० ५०६ सामु : साम + कए० । एकमात्र सामनीति, अनुकूल बनाने का उपाय । 'राम सों सामु किए हितु है ।' कवि० ६.२८ सामुभि: समुझि । समझ, विवेक बुद्धि । 'प्रभु पद प्रीति न सामुझि नोकी ।' मा० १.६.५ I सामहें : क्रि०वि० (सं० सम्मुखे, संमुखेन > प्रा० संमुहे > अ० संमुहें ) । सामने, अनुकूल होकर आगे । 'तेउ सुनि सरन सामुहें आए । मा० २.२६६.३ साहो : वि० ०कए० (सं० संमुखः > प्रा० संमुही ) | सामने स्थित । 'तुलसी स्वारथ सामुहो ।' दो० ४८१ साम : साम ही, सामनीतिमात्र (दान, भेद और दण्ड नीतियाँ नहीं ) । इहाँ किये सुभ सामं ।' गी० ५.२५.३ For Private and Personal Use Only सामो: सं०पु०कए० (सं० सामकम् = मूलधन > प्रा० सामअं > अ० सामउ ) । सामग्री, पूँजी ( फा० सामान ? ) । 'बालमीकि अजामिल के कछु हुतो न साधन सामो ।' विन० २२५.४ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1053. साय : (१) सं०० (सं.)। अन्त, छोर, अवसान, चरम सीमा (२) सं०स्त्री० (सं० साति>प्रा० साइ) । विनाश (मरण-तुल्य कष्ट)। 'कृपासिंधु बिलोकिए जनः मन की सांसति साच ।' विन० २२०.६ सायक : सं०० (सं.) । बाण । मा० १.१८.१० सायकन्हि : सायक+संब० । बाणों (ने) । 'प्रभु के सायकन्हि काटे ।' मा० ६.६८ सायका : सायक (बहुवचन में प्रयुक्त-सं० सायकाः)। 'पचारि डारे सायका।' मा० ३.२० छं० २ सायकु : सायक+कए । एक बाण । मा० २.२३६.८ सायर : सागर (प्रा०) । 'सायर जुरै न नीर ।' दो० ७२ सायरकांठे : (सं० सागर-कण्ठे) समुद्र-तट पर । 'प्रभु आइ परे सुनि सायर-कठि।" कवि० ६.२८ सारंगपानि, नी : (दे० सारंग-सं शाङ्गपाणि) विष्णु (राम) । मा० ६.११६.२ सार : (१) सं०० (सं.)। निष्कर्ष, निचोड़, स्वरस । मा० ६.१२.७ (२) दृढ़ अंश । ‘किये बिचार सार कदली ज्यों।' विन० २७७.२ (३) लोहा। 'कपट-सार-सूची सहस ।' दो० ४१० (४) देखभाल । 'सब के सार-संभार गोसाई।' मा० २.८०.६ (५) शाला । जैसे, घोरसार, हथिसार आदि । सारंग, गा : सं.पु.। (१) (सं० शाङ्ग>प्रा० सारंग)। विष्णु का धनुष; धनुष । 'कर सारंग साजि कटि भाथा।' मा० ६.६८.१ (२) (सं०)। एक प्रकार का संगीत-राग । 'सुसुर सुसारँग गुंड ।' गी० ७.१६.४ (३) (सं०) तन्त्री-वाद्यविशेष, सारंगी। 'सारंग गुडमलार ''बाजहीं।' गी० ७.१६.४ सारंगधर : वि०+सं०० (सं० शाङ्गधर)। विष्णु (राम)। रा०प्र० ३.७.१ सारथि : सं०० (सं०)। सूत, रथचालक । मा० ६.१००.७ सारथिन्ह : सारथि+संब० । सारथियों (ने) । 'रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए।' मा० १.२६६.३ सारथी : सारथि । मा० २.१४३ सारद : (१) सारदा । सरस्वती । 'सुमिरत सारद आवति धाई।' मा० १.११.४ (२) वि० (सं० शारद)। शरद् ऋतु-सम्बन्धी । 'सारद ससि सम तुड ।' गी० ७.१६.४ सारदउ, हु : शारदा भी । तेहि सारदउ न बरनै पारा।' मा० १.३१७.१; मा० २.२३८.४ सारदा : सं०स्त्री० (सं० शारदा) । सरस्वती, वाणी की देवी। मा० १.३५.२ सारदी : वि०स्त्री० (सं० शारदी) । शरद् ऋतु की । 'कहुं कहुं बृष्टि सारदी थोरी।' मा० ४.१६.१० For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1054 तुलसी शब्द-कोश सारदूल : सं०० (सं० शार्दूल)। सिंह। 'सारदूल को स्वांग करि कूकर की करतूति ।' दो० ४१२ सारनु : सं०पु०कए० (सं० सारणः) । रावण का एक गुप्तचर । 'आए सुकु सारनु बोलाए ते कहन लागे।' कवि० ६.८ सार-सँभार : संस्त्री० । देखभाल, रक्षा-व्यवस्था । मा० २.८०.६ सारस : सं०० (सं०) । (१) पक्षिविशेष । 'मोर हंस सारस पारावत ।' मा० ७.२८.५ (२) कमल । 'स्याम सारस मृग मनो ससि स्रवत सुधा सिंगारू ।' ३०१४ सारा : (१) सार । निष्कर्ष । 'अति पावन पुरान श्रुति सारा ।' मा० १.१०.१ (२) सार संभार । 'करिहहिं सासु ससुर सम सारा।' मा० २.६६.१ (३) भूकृ०० (सं० सारित>प्रा० सारिअ) । सँवारा, लगाया। 'अस कहि राम तिलक तेहि सारा।' मा० ५.४६.१० सारि : पूकृ० । सार कर, संवार कर, लगाकर । 'तिलक सारि अस्तुति अनुसारी।' मा० ६.१०६.६ सारिका : सं०स्त्री० (सं० शारिका, सारिका)। मनुष्य वाणी बोलने वाला पक्षि विशेष, मैना । 'सुक सारिका पढ़ावहिं बालक ।' मा० ७.२८.७ सारिखी : वि०स्त्री० (सं० सदशी>प्रा० सारिक्खी) । समानता वाली । 'राम सो न बर दुलही न सिय सारिखी।' कवि० १.१५ सारिखे : वि००० (सं० सदृक्ष>प्रा० सारिक्खय) । सरीखे, तुल्य । 'तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें ।' मा० ५.४८.८ सारिखो : वि०पू०कए० (सं० सदक्ष:>प्रा० सारिक्खो)। सरीखा, सदृश । 'हनुमान सारिखो 'न त्रिलोक महाबल भो।' हनु०७ सारी : सारी+ब० । सारिकाएँ, मैनाएँ। “सुक सारी-सुमिरहिं राम ।' मा० १.७.१०. सारी : (१) सारिका । (२) सं०स्त्री० (सं० शाटी>प्रा० साडी)। स्त्रियों का परिधानविशेष । 'सोह नवल तन सुदर सारी।' मा० १.२४८.२ सारु, रू : सार+कए । एकमात्र सार, निष्कर्ष, तत्त्व । मा० २.३२३.८ 'यह स्वारथ परमारथ सारू ।' मा० २.२६८.६ सारे : वि.पुं०ब० (सं० सकल >प्रा० सअल =सअलय)। सब । 'परमारथ स्वारथ ___ सुख सारे ।' मा० २.२८६.७ सारेहु : आ०-भ०+आज्ञा-मब । तुम सँवारना, लगाना । 'सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ।' मा० ६.१०६.३ सारो : सं०० (सं० सारक:>प्रा० सारओ) । मैनापक्षी (सारिका का पुलिङ्ग)। 'सुक सों गहबर हिये कहै सारो।' गी० २.६६.१ For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1055 सार्यो : भूकृ.पु०कए । (१) रचाया, लगाया। 'तिलक बिभीषन कहें पुनि सार्यो।' मा० ६.११८.४ (२) पूरा किया, सिद्ध किया। 'काजु कहा नर तनु धरि सार्यो ।' विन० २०२.१ साल : (१) सं०० (सं.) । वृक्ष विशेष । 'साल तें बिसाल बाहैं ।' कवि० ५.१३ (२) सं००० (सं० शल्य>प्रा० सल्ल)। तीर, तीखी नोक, चुभन, चुभने वाला, कष्टदायी। (३) (सं० शाल, साल)। बाड़ा, घेरा, दीवार आदि । गी० ३.१०.२ (४) साला । घर । जमे, 'परन-साल' । गी० २.४४.३ सालक : साल (सं० शल्यक) । सालने वाला, कष्टदायी। 'खल-सालक बालक ।' मा० ३.१६.११ सालति : वकृ.स्त्री० । शल्यतुल्य चुभती, खटकती । 'असुरनि उर सालति ।' गी० ७.१७.८ सालन : (१) साल+संब० । सालों, बाड़ों या झरोखों (से, में)। पल्लव सालन हेरी प्रानबल्लभा न टेरी ।' गी० ३.१०.२ (२) सं०० (सं.)। व्यञ्जन (दाल, तरकारी आदि) । 'जस सालन साग अलोने ।' विन० १७५.४ सालभंज : संस्त्री० (सं० शालभ जिका) । मूर्ति, वास्तु-प्रतिमा आदि । सालभंजनि : सालभंज+संब० । मूर्तियों । 'तुलसिदास मोसी कठोर-चित कुलिस सालभंजनि को ह हैं ।' गी० ६.१७.३ साला : (१) सं०स्त्री० (सं० शाला>प्रा० साला)। घर । 'बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला।' मा० २.१३३.८ (२) साल (सं० शल्य) । नोक, चुभन, खटका। 'सठ अजहूं जिन्ह के उर साला।' मा० ६.२५.४ । सालि : (१) सं०० (सं० शालि) । धान । 'सेवक सालि पाल जलधर से ।' मा० १.३२.१० (२) वि० (सं० शालिन्) । सम्पन्न, युक्त । 'तप सालि ।' मा० १.३३० (समासान्त में प्रयुक्त)। सालिम : वि० (अरबी)। पूर्ण, स्वस्थ, अधिक । 'जिनके गुमानु सदा सालिम संग्राम को।' कवि० १.६ साली : सालि । (१) धान । 'ईति भीति जस पाकत साली।' मा० २.२५३.१ (२) (समासान्त में) सम्पन्न, युक्त । बिमल बिबेक धरम नयसाली।' मा० २.२६७.८ साल : साल+कए० । शल्य, चुभन, कसक, क्लेश । 'भा कुबरी उर सालु ।' मा० २.१३ साले : साला+ब० । शल्य, कसक, काटे । 'बिराजत बैरिन के उर साले ।' हनु० १७ सावकरन : सं०० (सं० श्यामकर्ण-श्याम>प्रा० साम>अ. सावं)। For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1056 तुलसी शब्द-कोशः यज्ञोपयोगी अश्वजातिविशेष (जिसे साधारण कामों में नहीं जोता जाता)। 'सार्वकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।' मा० १.२६६.५. सावंतु : सं०पु०कए० (सं० सामन्त्यम् =सामन्तत्वम् >प्रा० सामंतं>अ० सावंतु)। सामन्तता, पराधीन राजत्व । 'देव निसान बजावत गावत, सावंतु गो, मन भावत भो रे।' कवि० ६.५७ सावर : वि० (सं० श्यामल>प्रा० सामल>अ० सावल) । श्यामवर्ण । 'सावर कुअर सखी सुठि लोना।' मा० १.२३३.८ सावरी : सारी ने । कियो बिदेहु मूरति सावरी ।' मा० १.३२४ छं. ४ सावरी : सावर+स्त्री० । श्यामवर्ण वाली। सावक : सं.पुं० (सं० शावक) । शिशु, बालक । 'केहरि सावक ।' मा० १.३२.७ 'मृगसावक नयनीं ।' मा० २.८.८ सावकास : वि० (सं० सावकाश)। अवकाशयुक्त (कार्यव्यग्रता से मुक्त)। 'सावकास सुनि सब रनिवासू ।' मा० २.२८१.३ सावज : साउज । कवि० ७.१४२ सावत : सं०० (सं० सापत्न्य>प्रा० सावत्त)। (१) सपत्नीभाव =सौतिया डाह । (२) सपत्नभाव = शत्रुता । 'सरगहुं मिटत न सावत ।' विन० १८५.४ सावधान : वि० (सं.)। अवधानपूर्वक, दत्तचित्त, एकान । मा० ७.७८.३ सावन : सं०० (सं० श्रावण>प्रा० सावण)। मासविशेष जो वर्षा ऋतु में परि गणित है, जिसकी पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र पड़ता है। मा० १.३००.२ सावनो : सावन+कए। सावन महीने का। 'बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो। कवि० ५.८ सास : सासु (सं० श्वश्रू) । गी० ५.५०.५ सासक : वि०पू० (सं० शासक) कए । एकमात्र शासनकर्ता, नियामक । 'सब को सासक, सब में, सब जामें।' गी० ५.२५.२ सासति : (१) सांसति । कष्ट । 'सासति सहत दास ।' हनु० २६ (२) संस्त्री० (सं० शास्तिः) । शासन, दण्ड आदि । 'सासति करि पुनि करहिं पसाऊ।' मा० १.८६.३ सासन : सं०पु० (सं० शासन) । आदेश । 'सुरपति सासन थन मनो मारुत मिलि धाए।' गी० १.६.५ सासु : सासू । मा० २.५८.१ सासुन्ह : सासु+संब० । (१) सासुओं ने । 'सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ ।' मा० ७.११ (२) सासुओं को। 'सासुन्ह सबनि मिली बैदेही ।' मा० ७.७.१ For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1057 सासुर : सं०० (सं० श्वाशुर>प्रा० सासुर)। ससुराल । 'प्रिय न काहि अस ___ सासुर माई ।' मा० १.३११.१ सासुरे : क्रि०वि० (सं० श्वाशुरे>प्रा० सासुरे) । ससुराल में । 'घर गुर गृह प्रिय __ सदन सासुरे भइ जब जहँ पहुनाई।' विन० १६४.४ सासू : सं०स्त्री० (सं० श्वश्रू>प्रा० सासू)। (१) पति की माता। मा० २.६८५ (२) पत्नी की माता । मा० १.३३६.७ सास्त्र : सं०० (सं० शास्त्र)। किसी विषय का अनुशासन करने वाला ग्रन्थ, सूत्र, नियम, विधि, विधान आदि । 'सासु सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ ।' मा० ३.३७.८ साह : साहि । सम्राट्, स्वामी । ‘साह ही को गोतु गोतु होतु है गुलाम को।' कवि० ७.१०७ साहनी : सं०पु० (सं० साधनिक =सैनिक–साधन = सेना>प्रा० साहणिअ)। सेनानायक या सिपाही । 'लिए सुभट साहनी बोलाई ।' मा० २.२७२.३ साहब : साहिब । दो० ९७ साहबी : साहिबी। कवि० ७.१२६ साहस : सं०० (सं.)। (१) अविवेकपूर्ण कार्य। मा० ६.१६.३ (२) दृढता, सहिष्णुता । 'सब मिलि साहस करिय सयानी।' कृ० ४८ साहसिक : वि० (सं०) । सहनशील, कष्ट सहिष्णु, दृढ, उत्साही । गी० १.६२.२ साहसी : (१) साहसिक (प्रा० साहसि अ) । दो० २३३ (२) सं०स्त्री०। साहस, साहसिकता । 'तुलसी की साहसी स राहिए कृपाल राम ।' कवि० ७.८१ साहि : सं०० (सं० शाखि = राजवंशविशेष>प्रा० साहि-फा० शाह = सम्राट) । 'गुलाम राम साहि को।' कवि० ७.१०० साहित : सं०० (सं० साहित्य)। काव्य, वाङमय । 'तुलसी असमय के सवा धीरज धरम बिबेक । साहित साहस सत्य ब्रत राम भरोसो एक ।' दो० ४४७, साहिब : सं०० (अरबी)। स्वामी। मा० २.२० ५.१ साहिदहि : साहब को । मा० २.२६८.३ 'सबै साहिबहि सोहै।' कृ० ३५ साहिबिनी : साहिब+स्त्री० (अरबी-साहिब:)। स्वामिनी (सीता)। कवि०. साहिबी : सं०स्त्री० । स्वामित्व, राजत्व । दो० ५७० साहिबु : साहिब+कए० । एक ही स्वामी । मुख सो साहिब होइ ।' मा० २.३०६ साहु : सं०० (सं० साधु>प्रा० साहु) । वणिक, सेठ धनी। 'तुलसी दिन भल साधु कहें, भली चोर कहँ राति ।' दो० १४८ साहेब : साहिब । दो० ८० साहेबु : साहिबू । कवि० ५.६ For Private and Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1058 तुलसी शब्द-कोश साहैं : सं० स्त्री०ब० (सं० शाखा:>प्रा. साहाओ>अ० साहई)। द्वारशाखाएं, दरवाजे के खम्भे, बाजू । 'द्वार बिसाल सुहाई साहैं।' गी० ७.१३.३ सिंगरौर : सगबेरपुर (प्रा० सिगेर उर) । मा० २.१५१.१ सिंगार, रा : सिंगार । (१) साजसज्जा, वेषविन्यास । 'सिवहि संभुगन करहिं सिंगारा।' मा० १.६२.१ (२) स्त्रियों के सोलह शृंगार । रा०न० १० (३) शृङ्गार रस (दे० सिंगार)। सिंगारु, रू : सिंगार+कए० । (१) शृङ्गार रस । 'ससि स्रवत सुधा सिंगारु।' कृ० १४ (२) वेषभूषा की रचना। 'संत सुमति तिय सुभग सिंगारू ।' मा० १.३२.१ (३) अलंकरण । 'सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू ।' मा० १.२६८.६ सिंचाई : भूक०स्त्री०ब० । सिक्त करायीं। 'बीथीं सकल सुगंध सिंचाई।' मा० ७.६.३ सिंचाई : (१) सं०स्त्री० । सींचने की क्रिया । कृ० ५६ (२) भूकृ०स्त्री०। सिक्त ___ करायी । 'संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ।' मा० १.२१३.४ सिंचावा : भूक०० । सिक्त कराया, सिंचाया। 'चरन सलिल सब भवन सिंचावा।' __ मा० १.६६.७ सिंचि : पूकृ० । सिंचकर, सिक्त होकर । 'कृपासिंधु सिंचि बिबुध बेलि ज्यों फिरि सुख फरनि फरी।' गी० १.५७.२ सि : सी। समान । 'प्रीति कि सि मूरति ।'मा० २.२८१.७ सिंगार, रा : सं०० (सं० शृङ्गार>प्रा० सिंगार)। (१) शृङ्गार रस जिसका स्थायी भाव रति (प्रेम) होता है । 'जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिलत ।' मा० ७.५ छं० १ इस रस का श्याम वर्ण माना गया है। 'जन सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप । मा० १.२४१ (२) वेषविन्यास, भूषण आदि की सजावट । 'बिधवन्ह के सिंगार नबीना ।' मा० ७.६६.५ (३) अलंकरण । 'निसि सुंदरी करे सिंगारा।' मा० ६.१२.३ (४) काम भोग। सिंगारु, रू : सिंगार+कए० । (१) शृङ्गार रस । 'सोभा रजु मंदर सिंगारू ।' मा० १.२२७.८ (२) अलंकरण । (३) वेषविन्यास । 'करि सिंगरु सखीं ले आई।' मा० १.१००.५ (४) कामभोग, रतिक्रीडा । 'जगत मातु पितु संभु भवानी । तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी।' मा० १.१०३.२ सिंघ : सिंह (प्रा.)। (१) केसरी । सिंघ कंध आयत उर सोहा।' मा० ५.४५.५ (२) श्रेष्ठ+सिंह के समान । 'पुरुष-सिंघ बन खेलन आए।' मा० ३.२२.३ सिंघनाद : सिंहनाद । मा० ६.३६.६ सिंघनाद : सिंघनाद+कए । कवि ५.६ सिंघल : सं०पू० (सं० सिंहल) । लङ कादीप । मा० २.२२३ For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1059 सिंघासन : सिंहासन । मा० ७.१०.५ सिघासनु : सिंघासन+कए । मा० १.१००.३ सिधिनि, नी : सिंघ+स्त्री० (सं० सिंही)। मा० २.३६ सिंदूर : सं०पु० (सं०) । सेंदुर । जा०म०/०१८ सिंधु : सं०० (सं०) । समुद्र। मा० १.८.१४ सिंधुर : सं०० (सं०) । हाथी । मा० १.३३३.७ सिंधुरगामिनी : गजगामिनी । मा० ७.३.६ सिंधुरबदन : गजानन । मणेश । रा०प्र० १.१.२ सिंधुरमनिमय : गजमुक्ताओं से निर्मित । मा० १.२८८.७ सिंधुसुत : (१) विष । (२) जलन्धर दैत्य (?)। विन० ४६.७ सिंधुसुता : समुद्र की पुत्री = लक्ष्मी । मा० १.१८६ छं० १ सिंधो : सिंधु+संबोधन (सं.)। मा० ७.१८.१ सिंसुपा : सं०स्त्री० (सं० शिशुपा) । सीसम वृक्ष । मा० २.८६.४ सिंह : सं०० (सं०) । (१) मगराज, हिंसक वन्य जन्तु विशेष। मा० ६.१८ (२) (समासान्त में) सिंह के समान, श्रेष्ठ । 'पुरुषसिंह दोउ बीर ।' मा० १.२०८ सिंहनाद : सिंह तुल्य गर्जन । मा० ६.५० सिंहासन : सं०पू० (सं०) । सिंह प्रतिमाओं से सुसज्जित राजपीठ +सिंह तुल्य राजा का आसन । राजगद्दी, राजासन । मा० ६.१०६.६ सिंहासनु : सिंहासन+कए । मा० २.१०५.७ सिंहिका : सं०स्त्री० (सं.)। राहु की माता राक्षसीविशेष । हनु० २७ सिअनि : सं०स्त्री० (सं० सीवनी>प्रा० सिअणी>अ० सिअणि)। सिलाई । सिअनि सुहावनि टाट पटोरें।' मा० १.१४.११ सिअरें : (सं० शीतलेन>प्रा० सीअलेण>अ० सीअलें) । ठंढे...से । 'सिअरें बचन सूखि गए कैसें ।' मा० २.७१.५ सियार, रा : सं०पु० (सं० श्रगाल>प्रा. सिआल)। गीदड़। मा० २.१५८.५%, ६७.७ सिकता : सं०स्त्री० (सं०) । बालू । मा० ७.१२२ क सिख : (१) सं०स्त्री० (सं० शिक्षा>प्रा० सिक्खा>अ० सिक्ख) । उपदेश । सीतलि सिख दाहक भइ कैसें ।' मा० २.६४.२ (२) (सं० शिखा)। चोटी । 'नख सिख खोटी।' मा० २.१६३.७ 'नख सिख सुदक ।' मा० १.२१६ सिखंड : सं०पू० (सं० शिखण्ड) । (१) मोरपक्ष । (२) मुकुट के बाहर के घुघराले बाल ; अलकावलि । 'सिरनि सिखंड सुमन दल मंडन ।' गी० १.५६.५ For Private and Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1060 तुलसी शब्द-कोश "सिख सिखाइ : आ०प्र० (सं० शिक्षते>प्रा० सिक्ख इ)। सीखता है, अभ्यास करता है । 'सिख इ धनुष बिद्या बर बीरू ।' मा० २.४१.३ सिख इअ : आ०कवा०प्रए । सिखाइए, उपदेश कीजिए, सिखाया जाय । 'तजि सकोच सिख इअ अनुगामी ।' मा० २.३१४.७ सिख ई : भूकृस्त्री० (सं. शिक्षिता>प्रा. सिक्खि आ =सिक्खविआ)। सिखाई, शिक्षित की । के ये नई सिखी सिखई हरि ।' कृ० ४१ सिखन : (१) सं०पु० (सं० शिक्षण>प्रा० सिक्खण)। सीखना । गी० ७.२३.२ (२) भकु० अव्यय । सीख ने । 'सींक धनुष हित सिखन सकुचि प्रभु लीन्ह ।' बर०८ सिख ब : भकृ.पु० (सं० शिक्षितव्य>प्रा० सिक्खि अव्व) । सीखना, सीखना (होगा, चाहिए) । 'राम लखन सब तुलसी सिख ब न आनु ।' बर० ४६ सिख ये : भूक००० । शिक्षित किये, बताये । 'मुनिबर सिखये लोकिको बैदिक बिबिध बिधान ।' गी० १.५.४ सिखयो : भूकृ००कए । सिखाया, सिखाया हुआ। 'देत सिख, सिखयो न मानत ।' विन० १५८.२ सिखर : सं०० (सं० शिखर)। चोटी, शृङ्ग । मा० १.१५६ सिख रन, नि : सिख +संब० । शिखरों। सिख रन पर राजति कंचन दीप अनी।' गी० ७.२०.२ 'मनहुं हिमालय सिख रनि लसहिं अमर मृगनै नि ।' गी० ७.२१.१६ 'सिखव सिखवइ : आ०प्रए० (सं० शिक्ष यति>प्रा० सिक्खावइ=सिक्खवइ)। सिखाता है । 'नृप हित हेतु सिख व नित नीती।' मा० १.१५५.३ सिखवत : वकृ०० (सं० शिक्षयत् >प्रा. सिक्खावंत=सिक्खवंत)। सिखाता सिखाते । 'ऊधो परम हितू हित सिखवत ।' कृ० ४५ सिखवति : वकृ०स्त्री० । सिखाती । गी० १.३२.१ सिखवन : सं०० (सं० शिक्षण>प्रा० सिक्खावण=सिक्खवण)। सिखाना, उपदेश । विन० १५६.४ सिखवनु : सिखावन+कए । उपदेश । 'सुदरि सिखावनु सुनहु हमारा।' मा० २.६२.२ सिखवहिं : आ.प्रब० (सं० शिक्षयतिन्त>प्रा० सिक्खावंति =सिक्खावंति >अ० सिक्खावहि सिक्लावहिं) । सिखाते-ती हैं । 'नारि धरम सिखावहिं मृदु बानी।' मा० १.३३४.६ सिखवौ : सिखावहु (अ० सिक्खाबहु) । सिखावो, समुझावो। 'ब्रह्मा कहैं, गिरिजा सिखावी, पति रावरो दानि है बावरो भोरो।' कवि० ७.१५३ सिखा : सं०स्त्री० (सं० शिखा) । (१) शिखर । (२) वृक्षादि का ऊपरी भाग । For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश I (३) दीपक या अग्नि की लौ । मा० ७.११८.१ (४) चोटी । 'मोर सिखा ।' दो० ३१९ 'सिरनि सिखा सुहाइ ।' गी० १.५३.२ सिखाइ : पूकृ० । सिखाकर समझाकर । 'बिरंचि गे देवन्ह इहs सिखाइ ।' मा० १.१८७ सिखाई : सिखाई + व० । शिक्षित कीं । 'कुलरीति सिखाई । मा० १.३३९.१ सिखाई : सिखई । शिक्षित की, बताई - पढ़ाई । 'असि मति केहि सठ तोहि सिखाई ।' 1 1061 मा० ६.१०.२ सिखाउ : शिखा भी (लो भी) । 'दीप सिखाउ ।' बर० ३१ सिखाए, ये : सिखाये । शिक्षित किये । मा० ७.८.५ सिखायो : सिखायो । मा० ६.१०८.६ 'सिखाव सिखावs : /सिव | पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ।' मा० ७.१०६.८ सिखावत : सिखावत । 'मोहि सिखावत ग्यान ।' मा० ६.९० 'सिखवति : सिखवति । 'मातु सिखावति स्यामहि ।' कृ० ५ सिखावत : सिखावति + ब० । सिखातीं । कवि० १.१३ सिखावन : (१) सिखावन । उपदेश, शिक्षण | 'नारि सिखावन करसि न काना ।' मा० ४.६.६ (२) भकृ० अव्यय । सिखाने । 'लागेसि मूढ़ सिखावन मोही ।' मा० ५२४.३ सिखावनु : सिखावन + कए० | सीख, उपदेश । 'तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ।' मा० ५.२१.७ fara : सिखर्वाह । 'नाना भाँति सिखावहिं नीती ।' मा० ७.२५.३ सिखावहु : आ०म० (सं० सिक्षयत > प्रा० सिक्खावह > अ० सिक्चा वहु ) | सिखलावो, बतावो । 'उठि किन मोहि सिखावहु भाई ।' मा० ६.६११६ सिखावा : भूकू०पु० । सिखलाया, सिखाई बात । 'न सुनइ सिखावा । मा० C १.७८.५ सिखाव : आ० उ० । सिखलाता हूं, उपदेश देता हूं। 'कहि कहि सबहि सिखावीं ।' विन० १४२.५ सिखि : (१) पूकृ० | सीखाकर । 'जो लौं हों सिखि लेउँ ।' गी० ७.२६.१ (२) आ० - आज्ञा -- मए० | तू सीख ले | 'सेइ साधु गुरु, समुझि सिखि राम भगति थिरताइ ।' दो० १४० (३) सिखी । मयूर । 'गच काँच लखि मन नाच सिखि जनु । गी० ७.१८.१ 'सिखिनि, नो: सं० [स्त्री० (सं० शिखिनी) । मयूरी । 'मनहुं सिखिनि सुनि बारिद नादू ।' मा० १.२६५.३ For Private and Personal Use Only सिखिहि : आ० - भूकृ० स्त्री० + मए० । तूने सीखी है । 'मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ।' मा० ६.३४.५ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1062 तुलसी शब्द-काश सिखी : (१) भूकृ०स्त्री० । सीखी, पढ़ी। 'के ये नई सिखी सिखाई हरि ।' क० ४१ (२) सीखी हुईं (ऊपरी, अस्वाभाविक, कृत्रिम)। 'लागति प्रीति सिखी सो।' गी० २.५२.४ (३) सं.पु. (सं० शिखिन् -शिखी)। अग्नि । विन० १६१.३ (४) मोर पक्षी। सिखे : भक०पू०ब० । (१) सीखो हुए, दूसरे से सीखकर अभ्यस्त किये हुए (ऊपरी)। 'सकुचत बोलत बचन सिखो से।' मा० २.३०३.३ (२) सीख गये (जान गये) । 'अब हीं तें ये सिखो कहा धौं चरित ललित सुत तेरे ।' क० ३ । सिगरिय : (दे० सगरे)। सब-की-सब, पूरी-पूरी। 'सिगरिय हो ही खोही, बलदाऊ को न देहौं ।' कृ० २ सित : (१) वि० (सं.)। श्वेत । मा० २.२.७ (२) नील (शिति ) । 'तहं जनु बरिस कमल सित श्रेनी ।' मा० १.२३२.२ सितपख सितपाख : शुक्ल पक्ष (सं० पक्ष>प्रा० पक्का) । गी० १.२.२; पा०म०१ सितलाई : आ०प्रए० (सं० शीतलायते>प्रा० सीअलाइ)। ठंढा हो जाता है। 'अनल सिनलाई ।' मा० ५.५२ सितासित : (सित+असित) श्वेत-कृष्ण (गङ्गा-यमुना का जल)। 'सबिधि सितासित नीर नहाने ।' मा० २.२०४४ सिथिल : वि० (सं० शिथिल) । ढीला-ढीले ; विशृङ्खल (विकल)। 'ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता ।' मा० २.३५.१ सिद्ध : सं०+वि० (सं.)। (१) सफल, पूर्ण । 'सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।' मा० १.१८६.७ (२) आणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्त योगी। 'होहिं सिद्ध अनिकादिक पाएँ ।' मा० १.२२.४ (३) युक्त योगी जो साधना पूरी करके असम्प्रज्ञात समाधि में लीन हो जाता है । 'साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी ।' मा० ७.१२४.५ (४) दिव्य जातिविशेष जो यक्ष आदि के समान अंशतः देवों में गिनी जाती है । 'किंनर नाग सिद्ध गंधर्वा ।' मा० ६६१.१ (५) सिद्धि प्राप्त, साधना में सफल । 'जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि । खल मायाबी जीति न जाइहि ।' मा० ६.७५.५ (६) सिद्धान्त, बिना पकाया हुआ दाल, चावल आदि सामग्री । 'तह तह सिद्ध चला बहु भाँती।' मा० १.३३३.३ सिद्ध नि : सिद्ध+संब० । सिद्धों (ने) । 'सुर सिद्धनि बरदान दए ।' गी० १.४५ ६ सिद्धपीठ : सिद्धपीठ+कए। (१) योगसिद्धि के उपयुक्त स्थान या तीर्थ । (२) सिद्धासन, योगसाधना में उपयोगी आसन विशेष । 'लंक सिद्धपीठु निसि जागो है मसानु सो।' कवि० ५.२८ सिद्धांत : सं०० (सं.)। सिद्ध मत; प्रमाणित मान्यत। । मा० ७.८६.२ सिद्धि : सं०स्त्री० (सं.)। (१) कार्य-फल की प्राप्ति, सफलता । 'सकल सिद्धि सुख संपत्ति रासी।' मा० १.३१.१३ (२) साधना की पूर्ति । 'कवनिउ सिद्धि For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1063 कि बिनु बिस्वासा ।' मा० ७.६०.८ (३) अष्ट सिद्धिया-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व । 'ऋद्धि सिद्धि कल्यान मुक्ति नर पावइ हो ।' रान० २० (४) निष्पत्ति, भाव पुष्ट संवेदन (गणेश पत्नी सिद्धि) । 'राम भगति रस सिद्धि हित भयउ सो समउ गनेसु ।' मा० २.२०८ (५) गणेश पत्नी (जो कार्य पूर्ति का प्रतीक है) । 'सुमिरे सिद्धि गनेस ।' मा० १.३३८ सिद्धिउ : सिद्धि भी । 'सिद्धिउ नाउँ कलंक ।' दो० २६० सिद्धिद, प्रद : सिद्धिदायक । मा० ७ श्लोक ३; १.३५.५ सिधरिहहिं : आ०भ०प्रब० । सिधारेंगे, जायंगे (प्राप्त करेंगे)। 'ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ।' मा० ६.३.१ सिधाई : भूकृ०स्त्री• । प्रस्थित हुई, चली गयी । 'पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई।' मा० ६.१००.१ सिधाए : भूकृपु०ब० । प्रस्थित हुए। 'सनकादिक बिधिलोक सिधाए ।' मा० ७.७६.१ सिधायउ : भूकृ.पु०कए । प्रस्थान किया। 'गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ ।' जा०म० १५ सिधायक : (सिधाय+क) सिधाने का, प्रस्थान का, जाने का। 'मरिहि नृपु सुनि __ संदेस रघुनाथ सिधायक ।' गी० २.३.३ सिघायो : सिधायउ । मा० ६.११७.३ सिधारहिं : आ०प्रब० । सिधारें, प्रस्थान करें, जायँ । पा०म० ६६ सिधारा : भूक० । गया । 'राम कृपा बैकुंठ सिधारा ।' मा० ३.६.१ सिंघारि : आo-आज्ञा+प्रार्थना.-मए । तू प्रस्थान कर । 'मधुप अनत सिधारि।' कृ० ५३ सिधारिए : आ० भावा० । प्रस्थान कीजिए, जाइए। 'घरनि सिधारिए सुधारिए ___ आगिलो काज।' गी०१.८४.८ सिधारी : भूक स्त्री० । चली गई। मा० ५.१२.६ सिधारे : भूक००ब० । प्रस्थित हुए, गये । मा० १.२०५.३ सिधारो : भूकृ.पु०कए ० । गया । 'बन सब लोग सिधारो।' गी० २.६६.४ सिधावहि, हीं : आ०प्रब० । जाते हैं (सीधे पहुंचते हैं) । 'राम धाम सिधावहीं।' मा० ७.१३० छं० २ सिधावहु : आ०मब० । जाओ, प्रस्थान करो । 'मारुत-सुत के संग सिधावहु ।' मा० ६.१०८.४ सिधावा : भूक०० । गया, प्रस्थित हुआ। मा० ५.६०.८ सिधावौ : सिधावहु । 'बहुरो बनहि सिधावी ।' गी० २.८७.१ For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1064 तुलसी शब्द-कोश सिधि : सिद्धि । मा० ७.८३ सिधे हैं : आ०म०प्रब० । जायंगे। पथिक कहाँ धौं सिधे हैं ।' गी० २.३७.१ सिबि : सं०० (सं० शिवि) । उशीनर देश का एक राजा जिसने अग्नि (कबूतर) __ और इन्द्र (बाज) की परीक्षा में अहना शरीरदान कर दिया था ! मा० २.३०.७ 'सिबिका : संस्त्री० (सं० शिविका। पालकी। मा० ६.१०८.७ सिमिटि : समिटि । 'होहिं सिमिटि इक-ठाईं ।' विन० १०३.४ सिय : सीता ने । 'लखन सचिर्व सिय किए प्रनामा ।' मा० २.८७.३ सिय : सीय । सीता। मा० २.६४.१ सियत : वकृ०० (सं० सीव्यत् >प्रा० सियंत)। सिलता-सिलते । सिलाई करता करते । गगन मगन सियत ।' विन० १३२.३ सियनि : (१) सिअनि । (२) सूई । 'अकास मह चाहत सियनि चलाई ।' कृ० ५१ सियवटु : सीताबाटु । कवि० ७.१४० सियरवन : (दे० रवन) । सीता-पति राम । मा० २.२२७.१ सियरे : क्रि०वि० (सं० शीतले>प्रा० सीचले) । ठंढ में, छाया में। 'ठाढे सुरतरु सियरे ।' गी० १.८३.२ 'सियहि : सीता जी को । 'तासु बचन अति सियहि सोहाने ।' मा० १.२२६.७ सिया : सीया । सीता जी । कवि० १.१२ 'सियार : सिआर । रा०प्र० ५.६.३ सियो : भूक००कए० (सं० स्यूतः>प्रा० सिइओ) । सिला, अथित किया, बांध कर दृढ किया । 'बिधाता निज कर यह संजोग सियो री।' गी० १.७६.३ 'सिर : (१) सं०पू० (सं० शिरम >प्रा. सिर)। मस्तक भाग । मा० १.११.१ (२) (अव्ययात्मक प्रयोग) पर, अनुसार । 'कही समय सिर भरत गति ।' मा० २.२८७ सिरउ : सिर भी । 'सिरउ गिरे संतत सुभ जाही।' मा० ६.१४.४ सिरताज : सं+वि० (फा० सिरताज)। मुकुट-तुल्ल, शिरोमणि, श्रेष्ठ । 'सकल भूप सिरताज ।' मा० १.३२६ सिरताज : सिरताज+कए० । एक तम श्रेष्ठ । कवि० ५.२२ सिरनि, न्ह, न्हि : सिर+संब० । (१) सिरों। 'बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।' मा० ६.८६.१ (२) सिरों पर । 'गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।' मा० १.१६७.७; ६.३२.६ (३) सिरों के । 'सिरन्हि समेत ।' मा० ६.३३.६ सिरमनि : (१) सिरोमनि । श्रेष्ठ । 'पुरजन सिरमनि राम लला ।' गी० १.२२.५ (२) सिरकी मणि । 'फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।' मा० १.३५८.४ प्रथम के साथ भी द्वितीय अर्थ की व्यञ्जना होती है । For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1065 सिरमोर, मौर : (दे० मौर) सं००+वि० (सं० शिरोमुकुट>प्रा. सिरमउड) । __सिर पर मुकुट के समान = श्रेष्ठ, शिरोमणि । 'किए साधु सिरमौर ।' मा० २.२६६ सिररुह : सं०० (सं० शिरोरुह) । केश, सिर के बाल । गी० ७.३.३ सिरस : सिरिस । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।' मा० १.२५८.५ सिरसि : (सं० शिरसि) सिर पर । गी० १.४३.२ सिरा : सिर । मा० ३.२० छं. सिरा, सिराइ, ई : आ०प्रए । सिर तक पहुंचता है, अन्त पाता है । 'रूप रासि गुन कहि न सिराई ।' मा० १.१९३.८ सिराइ : पूकृ० । पार कर । 'बिनु स्रम रहे सिराइ ।' मा० २.१२३ सिरात : वपु । पार पाता । 'केहि भांति बरनि सिरात ।' मा० १.३२५ छं०१ सिराति, ती : वकृ०स्त्री० । पार होती (बीतती)। 'सि राति न राती।' मा० ६.१००.३ 'सिरातो : कृियाति०ए० । तो पार पा जाता । 'भव मग अगम अनंत है बिन स्रमहि सिरातो।' विन० १५१.७ सिरान : भूक.पुं० । सिरे पर पहुंच गया (समाप्त हो गया) । 'सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा।' मा० २.७०.४ सिरानि, नी : भूकृ.स्त्री० । अन्त पर पहुंची, बीती, समाप्त हुई। 'निसा सिरानि __ भयउ भिनुसारा ।' मा० ६.७८.३; १२२६.२ सिराने : व्यतीत होने पर, समाप्त होने से । 'सुखी सिराने नेम ।' मा० २.२३६ सिराने : भूक०० ब० । बीत गये । 'ऐसेहिं जनम समूह सिराने ।' विन० २३५.१ सिरानो, न्यो : सिरान+कए । बीत गया, पार हुआ । 'सिरानो पथु छन में।' ___ कवि ५.३१ 'जनम सिरान्यो।' विन० ८८.४ सिराव : आ०प्रए० (सं० शीतलयति>प्रा० सीअलावइ) । ठंढा करे । 'बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ।' मा० ७.११७ सिरावौं : आ० उए । पार करता हूं । 'नाथ कृपा भवसिंधु धेनु पद सम जो जानि सिरावौं ।' विन० १४२.११ सिराहि, हीं : आ०प्रब० । (१) अन्त पर पहुंचते हैं । 'कहिं न सिराहिं ।' मा० १.३४२.३ 'रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।' मा० ७.५२.४ (२) बीत जाते हैं, बीत जायें । 'मिलहिं न पावक महं तुषारकन जो खोजत सत कलप सिराहीं।' कृ० ५८ सिरिहिं : आ०प्रब० । सर्जन करें, रचें, बनाएँ । 'जगदीस जुबति जनि सिरिजहिं ।' पा०म०२३ सिरिजा : भूक०० । बनाया, रचा । 'अनल जेहिं सिरिजा।' मा० ५.२६.७ For Private and Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1066 तुलसी शब्द-कोश सिरिस : सं०पु० (सं० शिरीष > प्रा० सिरीस = सिरिस ) । वृक्ष विशेष जो ग्रीष्म में फूलता है और उस के फूलों में अति सूक्ष्म केसर ही गुथे होते हैं । 'भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि ।' जा०मं० ६४ सिरु : सिर + कए० । 'सीता चरन भरत सिरु नावा । मा० ७.६.२ सिरोमनि : सं० + वि० (सं० शिरोमणि) । (१) सिर पर पहनी जाने वाली मणि, शिरोभूषण । (२) शिरोभूषण मणि के समान उत्तम श्रेष्ठ । कृ० ४७ मा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १.२६.४ सिरोमने : सिरोमनि + सम्बोधन (सं० शिरोमणे ) । मा० ७.१३ छं० १ सिल : (१) सिला । मसाला आदि पीसने का प्रस्तर खण्ड । 'फोरहि सिल लोढ़ा सदन लागें अढ़ क पहार ।' दो० ५६० (२) सं०पु० (सं० शिल) । कटे खेत में बचे - पड़े अन्न के दाने । सिलन : सिला + संब० । शिलाओं ( चट्टानों) पर । 'सिलनि चढ़ि चितवन ।' गी० १.५२.५ सिलपोहनी : सं० स्त्री० (सं० शिलापोहन) । (१) विवाहोत्सव के पूर्व शिलापोहन कार्य होता है जब घर की सिल पर धोई आदि पीसने कार्य पूरा कर उस पूज दिया जाता तथा उत्सव भर उससे काम लेना बन्द करके मण्डप के स्तम्भ के पास रख दिया जाता है । (२) भावरों के समय वर उक्त सिल पर वधू को आरोहण कराता है जिसे 'अश्मारोहण' कहते हैं; फिर वर उस सिल को पैर से हटाता — अपोहन करता है अत: 'शिलापोहन' का यह दूसरा अर्थ है । 'सिलपोहनी करि मोहनी मन हर्यो मूरति साँवरी ।' जा०मं० छं० १८ सिला : (१) सं०स्त्री० (सं० शिला ) | बड़ा प्रस्तर खण्ड या चट्टान । 'फटिक सिला ।' मा० ५.२६.८ (२) सिल (सं० शिव ) । 'रूप रासि बिरची बिरंचि मनो सिला लवनि रति काम लही री ।' गी० १.१०४.४ ( खेत की फसल कट जाने पर जो दाने छूट जाते हें उन्हें आधुनिक अवधी में 'सीला' कहते हैं और गरीब लोग बीन लेते हैं) । सिलाकन : सं०पु० (सं० शिलाकण ) । पत्थ के छोटे टुकड़े । 'गिरि मेरु सिलाकन होत ।' कवि० २.५ सिलातल : सं०पु० (सं० शिलातल ) । चट्टन का चौरस ऊपरी भाग । गी० २.४५.३ सिलिप : सं०पु० (सं० शिल्प) । वास्तुकला, कारीगरी । रा०प्र० ७.२.७ सिलिपि: सं० स्त्री० (सं० शैल्पी = शिल्पविद्या) वास्तुकला + मूर्तिकला की कारीगरी । दो० १८४ सिलोमुख : सं०पु० (सं० शिलीमुख) । (१) बाण (२) भ्रमर । 'रावन सिर सरोज बमचारी । चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ।' मा० ६.९२.७ For Private and Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1067 सिलीमुखाकार : बाणों का आगार तूणीर, तरकस । मा० ६.८६ छं० सिलोक : सं०० (सं० श्लोक) । यश, कीर्ति । 'पुन्य-सिलोक तात तर तारें।' मा० २.२६३.६ सिल्पि : सं०० (सं० शिल्पिन्) । वास्तुकला कुगल । सिल्पिकर्म : शिल्पी का कार्य, शिल्पविद्या । सिल्पिकर्म जानहिं नल नीला।' मा० ६.२३.५ सिर्व : शिव ने । 'सिर्व राखी श्रुति नीति ।' मा० ७.१०६ सिव : सं०० (सं० शिव) । (१) कल्याण । 'आसिव बेष सिव धाम कृपाला।' मा० १.६२.४ (२) त्रिदेय में अन्यतम=शङक । मा० १.१५.८ (३) परमात्मा-दे० सीव। सिवता : सं०स्त्री० (सं० शिवता)। शिवत्व = कल्याणरूपता+प्रलयकारिणी शक्ति । विन० १३५.३ तिवपुर : कैलास । मा० ३.२.४ सिवसैल : (दे० सल) कैलास । मा० १.२६२.८ सिवाह : शिव को । शिव से । मा० १.३४.३ 'पूछा सिवहि समेत सकोचा ।' मा० १.५७.६ सिवा : संस्त्री० (सं० शिवा)। शिव की शक्ति पार्वती। मा० ७.५ छं० २ सिवार : सेवार=सैबल । विन० २.४४.३ । सिष, ष्य : सं०पु० (सं० शिष्य)। विनेय छात्र, विद्यार्थी, दीक्षार्थी। मा० ७.६६.६ सिष्य : सिष । 'हरइ सिष्य धन सोक न हरई ।' मा० ७ ६६.७ सिसकत : वकृ.पु । सिसकता-ते । तीव्र लालसा वश 'सीचनी' करते; सिहाते । ____ 'जा को सिसकत सुर बिधि हरि हर हैं।' गी० २.४५.५ सिसिर : सं०० (सं० शिशिर) । माघ-फाल्गुन का ऋतु । मा० ३.४४.६ सिसु : (१) सं० (सं० शिशु) । आठ वर्ष से कम वय का बालक (या बालिका) । मा० १ ६६.२ (२) बच्चा । सिसुचरित : बाललीला । मा० १.६६ मिसुन्ह : सिसु+संब। शिशिओं (ने)। 'राखे उ बांधि सिसुन्ह हय-साला ।' मा०. ६.२४.१३ सिसुपन : सं०० (सं० शिशुत्व>प्रा० सिसुत्तण>अ० सिसुप्पण)। बचपन, __ लड़कपन । मा० ७.८१ ख सिसुपाल : सं०० (सं० शिशुपाल)। चेदि देश का एक राजा जो कृष्ण का फुफेरा भाई था और कृष्ण द्वारा ही मारा गया था । विन० २१४.४ सिसुविनोद : बालक्रीडा । मा० १.२००.७ For Private and Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1068 तुलसी शब्द-कोश सिसुलीला : बालविनोद । मा० १.१६२ छं० सिहि : बच्चे को । 'सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।' मा० १.३०३.५ सिस्नोदर : (सं० शिस्नोदर--शिस्न+उदर)। कामभोग और उदरपोषण (शिस्न = पुरुषत्व सूचक अङ्ग विशेष) । सिस्नोदरपर : कामसुख तथा उदरभरण में परायण, एकमात्र उन्हीं लौकिक सुखों को परम मानने वाले। 'सिस्नोदरपर जमपुर त्रास न ।' मा० ७.४०.१ 'सिहा, सिहाइ, ई : आ.प्रए० (सं० स्पृहायते>प्रा. सिहाई, छिहाइ)। उत्कट लालसा करता है, ललचाता है, विवश स्पर्धा करता है । 'अवधराजु सुरराज सिहाई ।' मा० २.३२४.६ सिहाउ, ऊ : आ०-आज्ञा+संभावना-प्रए । स्पृहा करे, ललचाए, सिहाए । थापिअ जनु सब लोग सिहाऊ ।' मा० २.८८.७ सिहात : वकृ.पु । ललचाता-ते । जेहिं सिहात अमरावति पालू ।' मा० २.१९६.७ सिहानी : भकृ.स्त्री० । ललचायी। 'देखत दुनी सिहानी।' गी० १.४.६ सिहाने : भूक००ब० । स्पहा-विह्वल हुए, ललच उठे। 'लोकपाल अवलोकि सिहाने ।' मा० १.३२६.६ सिहाहि, हीं : आ०प्रब० । स्पृहा करते हैं, सिहाते हैं, ललचाते हैं । मा० १.३४४ _ 'सुर सकल सिहाहीं।' मा० २.१०१.८ सिहाहुं, हूं : आ०-संभावना, कामना-प्रए । सिहाएं। ललचाएँ । 'अब ते __ सकुचाहुं सिहाहूं।' विन० २७५.४ सिहोरे : सं०० (सं० शाखोटक>प्रा० साहोऽय) । झाड़ जैसे सिहोर वृक्ष को सिहोर उपयोगहीन वृक्षविशेष है)। 'तुलसी दलि रुंध्यो चहै सठ साखि सिहोरे ।' विन० ८.४ सोंक : सं०स्त्री० (सं० इषीका)। गांडर का लम्बा डंठल (मञ्जरी की नाल)। मा० ३.१.८ सींग : सं००+स्त्री० (सं० शृङ्ग>प्रा० सिंग) । पशु-मस्तक के शङ कु । कृ. ४६ . 'सींच, सींचइ : आ.प्रए० (सं० सिञ्चति>प्रा० सिंचइ)। सिवत करता है; पानी डालता है । 'कोटि जतन कोउ सींच ।' मा० ५.५८ सींचत : वक०० । सींचता-ते । 'सींचत सीतल बगरि ।' मा० २.१५४ सींचति : वक०स्त्री० । सींचती, सिक्त करती । रा०प्र० २.३.३ सींचहि : आ.प्रब० (सं० प्रा० सिञ्चन्ति>अ० सिंचहिं) । सींचते हैं। दो० ३७७ सींचा : (१) भूक००। सिक्त किया (पानी डाला) । पेड़ काटि ते पाल उ __ सींचा।' मा० २.१६१.८ (२) सं०पू० । स्नान, पानी का छींटा । 'जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।' मा० २.१६४.३ For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1069 सींचि : पूक० । सींच कर, भिगो कर । निज लोचन जल सींचि जुड़ावा।' मा० सोंचिऐ, ये : आ.कवा०प्रए । सिक्त कीजिए, आई कीजिए। 'राम कृपा जल सींचिए । दो० २३६ सीचिबे : भकृ.पु । सींचने । 'सोइ सींचिबे लागि मनसिज के रहट नयन नित ___रहत नहे री।' गी० ५.४६.२ सीचिबो : भक००कए ० । सींचना । पात-पात को सींचिबो।' दो० ४५२ सींची : भक०स्त्री०ब० । सिक्त की। 'बीथीं सींचीं।' मा० १.२६६ सींच : आo-आज्ञा-मए । तू सींच, सिक्त कर । 'सुचि सनेह जल सीचु ।' __दो० २२० सींचे : भूकृ०० ब० । सींचे हुए, सिक्त हुए । 'अनजल सींचे रूख ।' दो० ३१० सींचें : सींचहिं । 'नीके सब काल सींचं सुधासार नीर के ।' कवि० ५.२ सींचो : भूक०कए । सिक्त किया हुआ, आर्द्र किया हुआ । 'बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।' विन० ७२.४ सीव, वा : सं०स्त्री० (सं० सीमा>अ० सीवा =सी)। परमावधि, परा काष्ठा, छोर, चरम बिन्दु। 'रघुपति करुना सींव।' मा० ७.१८ 'अंगद हनमंत बल सीवा।' मा० ६.५०.२ सी : (१) सीय । सीता । छुट्यो पोच सोच सी को।' गी० १.८८.४ (२) वि० स्त्री० । सदश। 'बिरची विधि सकेलि सुषमा सी।' मा० २.२३७.५ (३) मानों (उत्प्रेक्षा)। 'सकुच वेचि सी खाई।' कृ०८ (४) पू० (सं० स्यूत्वा>प्रा० सिविअ, सिइअ>अ० सिवि, सिइ)। सिल कर, सिलाई करके । 'सेवक को परदा फट तू समरथ सी ले ।' विन० ३२.४ सोकर : सं०पू० (सं०) । जल आदि का कण, बूंद । मा० ७.५२.४ सोकरनि : सीकर+संब० । बूदों (से)। कबहुंकि कांजी सीकरनि छीर सिंधु बिनसाइ।' मा० २.२३१ सीख : सिख (सं० शिक्षा>प्रा. सिक्खा>अ० सिक्ख) । उपदेश । दो० ४२७ सीझे : भूकृ.पु.ब० । सिद्ध हुए (साधना की) । तप, तीर्थ स्नान आदि करके पवित्र हुए । 'कासी प्रयाग कब सीझे ।' विन० २४०.१ ।। सीठि, ठी : वि०स्त्री० (सं. शिष्टा>सिट्टी) । मधर द्रव का बची तलछट (मीठी का विलोम) । अमधुर, माधुर्यहीन, रसहीन । 'तौं लौं सुधा सहस्र सम राम भगति सुठि सीठि।' दो० ८३ सोठे : वि०० ० । अमधुर (मीठे का विलोम); नीरस । 'तो नवरस षटरस रस अनरस ह जाते सब सोठे।' विन० १६६.१ For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1070 www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश सीत : सं०वि०पु० (सं० शीत ) | ( १ ) शीतल, ठंडा । 'सुखद सीत रुचि चारु चिराना ।' मा० १.३६.६ (२) जाड़े की ऋतु = शिशिर । 'सीता सीत-निसा सम आई ।' मा० ५.३६.६ सीतल : वि० (सं० शीतल) । ठंडा, शीत लाने वाला । मा० १.१७.५ (२) ताप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शामक । सीतलता : सं० स्त्री० (सं० शीतलता) । ( १ ) ठंडक । (२) तापशामकता । विन० ६०.२ (३) मानसिक तापहीनता, करुणा आदि की द्रवरूपता । ' सीतलता सरलता मयत्री ।' मा० ७.३८६ सीतल : सीतल + स्त्री० । ठंडी + तापहीन । 'तोहि देखि सीतलि भइ छाती ।' मा० ५.२७.८ सीतहि : सीता को । मा० ७.६७.४ सीताँ : सीता ने । दुइ सुत सुंदर सीतां जाए ।' मा० ७.२५.६ सीता : सं० स्त्री० (सं०) । (१) ब्रह्म राम की आदि शक्ति = महामाया; विश्व प्रकृति, योगमाया । मा० १.१८ ( २ ) जानकी । मा० १.२५५ (३) (व्यञ्जना में - सं० शीता) जानकी + ठंडी (जड़ कर देने वाली ) । 'सीता सीतनिसा सम आई ।' मा० ५.३६.६ सीताब : (दे० बटु) गङ्गा तट पर एक वटवृक्ष जिसे सीता जी द्वारा लगाया कहा गया है । कवि० ७.१३८ सीतानाथ, पति, बर : रामचन्द्र । मा० २.२६६; २.४३३; ७.७८.४ सीताबरु : सीताबर + कए० । राम । विन० २०५.३ सीते : सीता + संबोधन (सं० ) । हे जानकी । 'सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा ।' मा० ३.२६.६ सीदत: वकृ०पु० । अवसादग्रस्त रहता ( रहते ) ; कष्ट पाता ( पाते ) । 'सीदत सुसेवक बचन मन काय के ।' हनु० ३१ सीदह : आ॰प्रब० (सं० सीदन्ति ) । अवसादग्रस्त रहते हैं; दुखी होते हैं, क्लेश पाते हैं । 'सीदह बिप्र धेनु सुर धरनी । ' मा० १.१२१.७ सीदें : सीदह । 'फलैं फूलै फैले खल, सीदें साधु पल पल ।' कवि० ७.१७१ सीद्यमान : वि०पुं० (सं० ) । अवसादग्रस्त । 'लोग सीद्यमान सोचबस ।' कवि० ७.६७ सीधी : (दे० सिद्ध) ए० । सीधा = पकाने से पूर्व सूखा दाल, चावल आदि । 'पान पकवान बिधि नाना के, संधानो, सीधो, बिबिध बिधान धान बरत खारहीं ।' कवि० ५.२३ सीप : (१) सं० स्त्री० (सं० शुक्ति > प्रा० सुत्ती = सिप्पी > अ० सिप्पि ) । सीपी | मा० १.११७ (२) (सं० सीप) नौकाकार पात्र विशेष । For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1071 सीपर : संपुं० (सं० सीप) । ढाल (बचाव) । 'लागति सांगि बिभीषन ही पर ___ सीपर आपु भए हैं ।' गी० ६.५.४ सीपि, पी : सीप । सुत्ती । 'सरसी सीपि कि सिंधु समाई।' मा० २.२५७.४ सीम, सीमा : सं-स्त्री० (सं० सीमन्, सीमा)। मर्यादा, अवधि, छोर । 'जद्यपि रामु सीम समता की।' मा० २.२८६.६ सीयें : सीता ने । 'लखीं सीय सब प्रेम पिआसी।' मा० २.११८.३ सोय, या : (अ.)। सीता । मा० २.४६ सीया : सीता (प्रा० सीया) । मा० २.६६.७ सोरे : सियरे । शीतल । गी० १.८७.३ सील, सोला : (१) सं०० (सं० शील) । प्रकृति, सहज स्वभाव, आचरण, नैतिक भाव, संकोची स्वभाव (जिससे दूसरे के कष्ट में अपने को कष्ट अनुभव होता है । मा० १.७६.५ (२) संकोच, लिहाज, दूसरे के प्रति सम्मान का भाव । 'उतरु देत छोड़उँ बिन मारें। केवल कोसिक सील तुम्हारे ।' मा० १.२७५.७ (३) (समासान्त में) वि० । शील वाला, शीलयुक्त । 'जामवंत मारुति नयसीला ।' मा० ६.१०६.२ (४) सिला । प्रस्तर, चट्टान (अहल्या)। 'कौन कियो समाधान सनमान सीला को।' विन० १८०.४ सीलता : (समासान्त में) संस्त्री० (सं० शीलता) । शीलसम्पन्नता। रिषि मम __ महत-सीलता देखी।' मा० ७.११३.४ सोलनिधान : शील की खानि; उत्तम-शील-सम्पन्न । मा० १.२६ क सीलनिधि : (१) सील निधान । 'साहिब समरथ सीलनिधि ।' रा०प्र० २.४.४ (२) (सं० शीलनिधि)। एक राजा का नाम जो नारद-मोह-प्रसंग में आया है। मा० १.१३०.२ सोलु : सील+कए । अद्वितीय शील । 'राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ ।' मा० २.१.८ सीवं : सीम (अ०) । मा० १.२३३.१ सीव : सिव । परमेश्वर, परमशिव तत्त्व । 'माया प्रेरक सीव ।' मा० ३.१५ सीवां : सीमा (अ.)। मा० १.२४३.८ सोस : सं०० (सं० शीर्ष>प्रा० सीस) । सिर, मस्तक । मा० १.६३.५ सोसताज : सं०स्त्री० (सं० शीर्ष+फा० ताज)। सिर की टोपी, शीर्षावरण । 'मानो खेलवार खोली सीसताज बाज की।' कवि० ६.३० सोसदस : दससीस । रावण । विन० २०४.३ सीसनि, न, न्ह : सीस+संब० । सिरों (का, पर, से आदि) । 'ता तें सुर सीसन्ह चढ़त ।' मा० ७.३७ 'जटा मुकुट सीसनि सुभग ।' मा० २.११५ सीसा : सीस । मा० १.१८.६ For Private and Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1072 तुलसी शब्द-कोश सोसावली : सं०स्त्री० (सं० शीर्षावली>प्रा० सीसावली)। सिरों की श्रेणी, शिरः समूह । विन० १८.४ । सीसु, सू : सीस+कए० । सिर । मा० १.३३१, २१७६ सुघाइ : पूकृ० (सं० शिवयित्वा>प्रा० सुघाविअ>अ. सुधावि) । सुधाकर, घ्राणग्राह्य बनाकर । 'जरी सुघाइ कूबरी कौतुक करि जोगी बघाजुड़ानी ।' कृ०४७ सु : (१) अव्यय (सं.)। उत्तम । इसके बहुत से एसे प्रयोग मिलते हैं जिनमें कुछ भी अतिशय जुड़ता नहीं, या जुड़ता है तो यही कि वस्तु उत्तम है (ऐसे बहुत से शब्दों का पृथक् अर्थ नहीं किया जा रहा है) । जैसे-सुआसन, सुआयसु । मा० २.२८५ सुआश्रम । मा० १.६५.८; सुअंजलि । मा० १.१६१.७, सुकोमल । मा० १ १४ घ; सुजतन । मा० ७.१२०.१०; सुदानी। मा० २.२०४.८%; सुदास । मा० १.१६; सुपल्लवत । मा० १.२१२; सुपुनीत । मा० ७.१२७; सुपुनीता। मा० ७.१२५.८%; सुपुनीत । मा० ७.१२७; सुपुनीता। मा० ७.१२५.८; सुप्रेम। मा० १.२२; सुबास । मा० २.६०; सुबेलि । मा० २.२४४.६; सुबंधु । मा० २.७२; सुमनोहर । मा० ३.२७.३; सुमंगल । मा० ७.३; सुमंगलचार । मा० २.२३; सुसेवक । मा० २.१४३ आदि इनके 'सु' को निकालकर भी लगभग वही अर्थ आका है; केवल उत्तम और अतिशय जोड़ना ही महत्त्व का है। (२) सो वह । 'कहहु स प्रेम प्रगट को करई ।' मा० २२४१.३ 'दीपक काजर सिर धर्यो, धर्यो सु धर्यो धर्योइ।' दो० १०६ सुंदर : वि० (सं0-सु+उन्दीक्लेदने+अर)। अतिशय उत्तम द्रवीभाव लाने वाला, मन को पिघलाने वाला=मनोहर । मा० १.३४ ।। सुंदरतर : अतिशय सुन्दर । गी० ७.७.३ सुंदरता : सुन्दरता से । 'निज सुंदरतां रति को मदु नाए।' कवि० ७.४५ सुंदरता : सं०स्त्री० (सं.)। मनोज्ञता, हृद्यता-हृदय को द्रव बनाने वाली छटा । मा० ७.३३.३ सुंदरताई : सुदरता । मा० १.१३२.१ सुंदरायतना : वि.पु. (सं० सुन्दरायतन)। उत्तम विस्तार वाला, उत्तम भवनों वाला (दीर्घता के अनुपात में चौड़ाई की मनोहरता से युक्त प्रासादों वाला) । मा० ५.३ छं० १ सुंदरि : (१) सुदरी । “गारी मधुर स्वर देहि सुदरि ।' मा० १.६६ छं. (२) सुदरी+संबोधन (सं०) । हे सुन्दरी ! मा० २.६१.७ सुदरी : सुदरी+ब० । सुन्दरियाँ । मा० १.३२२ छं० सुंदरी : (१) सं०स्त्री० (सं.)। प्रमदा, मनोज्ञ युवती । 'निसि सुदरी केर सिंगारा।' मा० ६.१२.३ (२) वधू, स्त्री । 'सुर-सुदरी।' मा० १.६१.४ For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1073 सुम : सुत (प्रा०) । 'केकेई सम ।' मा० २.१७८ सुप्रंग : उत्तम अङ्ग (दे० सु)। मा० १.३१८ छं. सुबंजन : उत्कृष्ट अञ्जन, सिद्ध किया हुआ या अभिमन्त्रित अञ्जन । मा० १.१ सुप्रंसुक : (सं० अंशुक = वस्त्र) । उत्तम परिधान । गी० ७.२१.२१ सुअन : सुवन । पुत्र । मा० २.४३.६ सुअर : सूकर (प्रा० सूअर) । मा० १.६३ छं० सुअवसर : उत्तम अवसर, उपयुक्त समय । मा० ६.११४ क सुअवसरु : सुअवसर+कए । 'दासी देखि सुअवसरु आई।' मा० २.२८१.२ सुमसनु : (दे० असन) कए । उत्तम भोजन । मा० २.१११.६ ।। सुआ : सक (प्रा० सुअ) । तोता। सुमाउ : (दे० आउ) उत्तम आय, दीर्घायुष्य । विन० १८२.२ सुमार, रा : सं०० (सं० सूपकार>प्रा. सूआर)। पाचक, भोजन बनाने का __व्यवसायी । मा० १.३८८; ६६.८ सुआसन : उत्तम सुखद आसन। मा० १.३२१.४ सुआसनु : सुआसन+कए । मा० २.२५७.६ सुआसिनि, नी : सं०स्त्री० (सं० सुवासिनी)। (१) सौभाग्यवती स्त्री (सुहागिन = उत्तम परिधान-सम्पन्न सधवा सुन्दरी)। (२) पिता के घर में रहने वाली विवाहिता अथवा कुमारी कन्या। मा० १.३१३.४ सुआसिनिन्ह, न्हि : सुआसिनी+संब० । सुवासिनियों (ने, को आदि)। मा० १.३२७ छं० २; गी० १.६६.२ सुक : (१) सं०० (सं० शुक)। तोता पक्षी। मा० ७.२८.७ (२) भागवत पुराण के वक्ता मुनिविशेष । मा० ७.१२३.५ (३) रावण का एक गुप्तचर । मा० ५.५७.३ सकंठ : सं० । सुग्रीव (वानरराज)। मा० १.२५.७ सुकंठ : सुकंठ+कए । कवि० ७.१ सकवि : उत्तम कवि, रससिद्ध कवि । मा० १.१०.३ सकर : (१) वि० (सं.) । सरलता से करने योग्य । 'सुकर दुष्कर दुराराध्य दुर्व सनहर ।' विन० ५४.७ (२) सं०० (सं० स्वकर)। अपना हाथ । (३) उत्तम हाथ । 'बारिधार धीर धरि सुकर सुधारिहै ।' कवि० ७.१४२ सुकरमा : उत्तम शुभ कर्म, पुण्य कर्म (शुभ, अशुभ तथा मिश्र कर्मों में केवल शुभ कर्म) । मा० १.२.११ सुकर्कश : वि० (सं०) । अत्यन्त परुष । मा० ३.११.६ सुकर्म : (दे० सफरमा) । कवि० ७.११६ For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1074 तुलसी शब्द-कोश सुकल : (१) वि० (सं० शुक्ल>प्रा० सुक्किल)। श्वेत । (२) मास का पखवारा-प्रतिपदा से पूर्णिमा तक । मा० १.१६१.१ सकाज : (दे० काज) । अपना कार्य+ उत्तम कार्य । दो० १८४ सुकालु : (दे० काल) । सुभिक्षकाल; अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि से रहित सम्पन्न समय । मा० २.२३५ सुकिय : सुकृत (सं० कृत>प्रा० किय) । पुण्य । 'गर्य निघटि फल सकल सुकिय के ।' गी० ४.१.३ सुकीरति : (१) सुकीर्ति । उत्तम कीर्ति; कीर्तनीय सद्गुण । (२) उत्तम कीर्ति __ वाला; सुयशसम्पन्न । 'राम सुकीरति भनिति भदेसा। मा० १.१४.१० सुकीति : सं०स्त्री० (सं०) । सुयश (यशस्वी) । कवि० ७.१० सक: सुक+कए । रावण का गुप्तचर विशेष । कवि० ६.८ सुकुमार : वि०० (सं.) । (१) अति कोमल, मृदुल । 'अति सुकुमार न तनु तप जोगू ।' मा० १.७४.२ (२) तरुण, सुन्दर, किशोर । सुकुमारा : सुकुमार । मा० १.२०३.४ सुकुमारि : सुकुमारी। मा० २.८१ सुकुमारी : सुकुमारी ने । 'मूदे नयन सहमि सकुमारी।' मा० २.२४६.४ सुकुमारी : सुकुमार+स्त्री० (सं०) । मदुल (किशोरी) । मा० २.२८.८ सुकुल : (१) सुकल । (२) उत्तम कुल । 'दियो सुकुल जनम ।' विन० १३५.१ सुकूप : उत्तम कूप । मा० २.३०९ सुकृत : (१) सं०० (सं०)। सत्कर्म, पुण्य, धर्म । 'तुम्ह सम सुमन सुकृत जेहिं दीन्हे ।' मा० २.४३.६ (२) वि० । उत्तम कृत्य (कृत) वाला। सुकृती, पुण्यात्मा। 'भए सुकृत सुख सालि ।' दो० १२ । सुकृतग्य : (सं० सुकृतज्ञ) (१) उत्तम कृतज्ञ । (२) सुकृत (धर्म) का ज्ञाता । 'सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किए हूं।' विन० १७०.५ सुकृतसंकट : धर्म संकट (करने से धर्म हानि और न करने से अर्थ-हानि की दुबिधा) । गी० ५.२७.१ सुकृति : सुकृती । 'सुकृति संभु तन बिमल बिभूती ।' मा० १.१.३ सकृती : सुकृती ने । 'केहि सुकृती केहि घरी बसाए।' मा० २.११३.२ सकृती : वि० (सं० सुकृतिन्) । पुण्यात्मा । 'केहि सकती सन होइहि साथू ।' मा० २.५८.३ सुकृतु : सुकृत+कए० । धर्म, सुकर्म । 'सुकृतु सुजस परलोकु नसाऊ ।' मा० २.७६.४ सुकृपां : श्रेष्ठ कृपा से । ‘राम सकपां बिलोकहिं जेही।' मा० १.३६.५ सकृपा : श्रेष्ठ अतिशय कृपा । मा० ५.१४.६ For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1075 सुकेतुसता : सुकेतु की पुत्री=ताड़का । मा० १.२४.४ सकोमल : (१) अत्यन्त कोमल । (२) कोमल शब्दार्थ योजना वाला (काव्य)। मा० १.१४ घ सुक्र : सं०० (सं० शुक्र) । (१) दैत्याचार्य (का नाम) । 'नाम धरमरुचि सुक्र ___समाना ।' मा० १.१५४.१ (२) वीर्य । 'दच्छ सुक्र संभव यह देही ।' मा० सुख : सं०पू० (सं.)। अनुकूल संवेद्य चैतन्य गुण (दु:ख का विलोम) । मा० १.८ सुखंजन : उत्तम खञ्जन पक्षी । कवि० १.१ सुखकंद, दा : सुख (आनन्द) के मूल कारण । मा० १.१०५; ३.१२.१३ सुखकारी : वि.पु. (सं० सुखकारिन) । सुखप्रद, सुखजनक । मा० ७.२३.८ सुखद : वि० (सं०) । सुखदायक । मा० १.३५.१३ सुखदाई : वि.पु. (सं० सुखदायिन्) । सुखदाता, सुख देने के शील वाला । मा० ७.३७.१ सुखदातहि : सुखदाता को। मा० ७.३०.६ सुखदाता : सुखद । मा० ७.३०.६ सखदायक : सुखद । मा० १.१८.१० सुखदायनी : वि० स्त्री० (सं० सुखा-दायिनी) । सुखा देने के शील वाली, सुखादात्री। मा० ५.३४.१ सुख दारा : (दे० दारा) । सुखादाता । 'जाग जग मंगल सुखदारा।' मा० २.६४.२ सखदैन : सुखदाई । 'निज भगतनि सुखदैन ।' गी० १.८६.११ सुखदैनी : सुखादायनी । 'मूरति सब सुखादैनी ।' गी० १.८१.२ सुखन, नि : सुखा+संब० । सुखों । 'सुखानि समेत ।' गी० ७.२१.२१ सुखप्रद : सुखद (सं.)। मा० १.७३.२ सुखमय : वि० (सं०) । सुखपूर्ण । मा० ७.४६.५ सुखमा : सुषमा । गी० १.६.१५ सुखमूल, ला : सुखा (आनन्द) का मूल कारण । मा० १.१६०; ३.१६.४ सुखरूप : आनन्दस्वरूप, सच्चिदानन्द रूप । मा० ७५१.६ सुखसालि, ली : वि० (सं० सुखशालिन्) । सुख सम्पन्न । दो० १२ सुखसोल, ला : वि० (सं० सुखशील)। आनन्दरूप प्रकृति वाला; सुसाधार+ सुखपूर्ण । मा० १.११०.८ सुखस्वरूप : सुखरूप । मा० २.२०० सुखाई : पूकृ० । सूखा (कर); मुरझा (कर) । 'जेहिं बिलोक सोइ जाइ सुखाई।' मा० ६.१८.१० सुखाकर : सुखों का आकर, आनन्दखानि । मा० ३.४.११ For Private and Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1076 तुलसी शब्द-कोशः सुखात : सूखात । सूख जाते, मुझर्शाते; शुष्कमुखा हो जाते । सहमि सुखात बातजात की सुरति करि ।' कवि० ६.६ सुखाति : सुखात+ब० । सूखाते । 'सालि सफल सुखाति ।' विन० २२१.४ सुखानी : भूक०स्त्री० । सूखा गयी, मुरझायो । 'कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।" मा० २.२०.१ सुखाने : सूख जाने पर । 'का बरषा सब कषी सुखाने ।' मा० १.२६१.३ सुखने उ : सूखे हुए भी । 'पुनि परिहरे सुखानेउ परना।' मा० १.७४.७ सुखानो : भूकपु०कए० । सूखा हुआ (नीरस) । 'लखिा गयंद ले चलत भजि स्वान सूखनो हाड़।' दो० ३८० सुखाय : आ.प्रए० (सं० शुष्कायते>प्रा० सुक्खाइ) । सूखाता है । 'सुखाय अति काय काय ।' कवि० ६.४३ सुखारी : सुखारी+ब० । 'महतारी.. होहिं सुखारी।' मा० २.१७५.६ सुखारी : (१) वि० (सं० सुख कारिन्>प्रा० सुक्खारी)। सुखजनक । 'कहिहउँ कवन संदेस सुखारी ।' मा० २.१४६.२ (२) सुख-भोगी, सुखी। मा० ७.११७.५ इसके स्त्री०पु० दोनों प्रयोग चलते हैं। सुखारे : सुखारी (ब०) । सुखी । 'सब भए सुखारे।' मा० ६.४.७ सुखासन : (सं०) (१) सुखद आसन (२) सुखद आसनयुक्त । 'कहेउ बनावन पाल की सजन सुखासन जान ।' मा० २.१८६ सुखाहि, हीं : आ०प्रब०। (१) शुष्क हो रहे हैं । 'मुखा सुखाहिं लोचन स्रवहिं ।' मा० २.४६ (२) सूखा जाते हैं । मा० ५.२३.६ सुखी : वि० (सं० सुखिन्) । सुखायुक्त । मा० १.३५.८ सुख : सुखा+कए । 'सुख सोहागु तुम्ह कहुं दिन दूना । मा० २.२१.४ सुखेत : (दे० खोत) । उत्तम माङ्गलिक क्षेत्र (भू-भाग)। मा० १.३०३.३ सुखेतु : सुखोत+कए। उपजाऊ उत्तम खोत । 'जा को नाम लेत ही सुखोतु होत ऊसरो।' कवि० ७.१६ सुखेन : (सं०) सुखा से, सुखपूर्वक । 'जाहु सुखोन बनहि ।' मा० २.५७.४ सुखेलनिहारे : अच्छे खिलाड़ी। गी० १.४६.१ सुगंध : (१) सं०० (सं०) । उत्तम गन्ध, सौरभ । 'नव सुमन माल सुगंध लोभे मंजु गुजत मधुकारा ।' गी० ७.१६.३ (२) इत्र, पुष्पादि का सुगन्धित स्नेह । 'संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ।' मा० १.२१३.४ (३) वि० (सं० सुगन्धि)। उत्तम गन्धयुक्त, सुगन्धित । 'सुमन सुगन्ध । रा०प्र० ४.६.४ । सुगंधन : सुगंध+संब। सुगन्धों, इत्रों (से) । केसरि परम लगाइ सुगंधन बोरा. हो।' रा०न०६ For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1077 सुगढ़ : सुधर (सं० सुघट>प्रा० सुघड़-सगढ़) । सुदेश, व्यवस्थित योजना से सम्पन्न-सुन्दर । 'सुगढ़ पुष्ट उन्नत कृकाटिका ।' गी० ७.१७.१० सुगति : सं०स्त्री० (सं.)। सद्गति, उत्तम फल की प्राप्ति, मोक्ष आदि पुरुषार्थ की उपलब्धि । मा० २.७२.७ ।। सुगम : वि० (सं०)। (१) पहुंचने या प्राप्त होने में सरल । मा० ७.७३ (२) सुबोध, सरलता से बाध्य । 'उभय अगम, जुग सुगम नाम तें।' मा० १.२३.५ सुगमु : सुगम+कए० । मा० २.७८.५ सुगाइ : आ०प्रए । दोषी होने का सन्देह करता है या करे । 'तुम्हहि सुगाई मातु कुटिलाई।' मा० २.१८४.६ सगाढ़ि : वि०स्त्री० । अत्यन्त गाढ़ी=सुदढ तथा मोटी । 'बाती करै सुगाढ़ि ।' मा० ७.११७ ग सुगान : उत्तम गीत । पा०म०ई० १२ सुगुन : उत्तम गुण, सद्गुण । दो० २३१ सुगुरु : सतगुरु । वि० ७७.२ सुमेह : ऊत्तम अनुकूल सुखयुक्त आवास । दो० २४ सुग्रंथ : सदग्रंथ । दो० ५५६ सुग्रीवं : सुग्रीव ने । 'तब सुग्रीवं बोलाए।' मा० ४.२२ सुग्रीव : सं०पु० (सं०) । वाली का अनुज जिसे राम ने वानर-राज बनाया था। मा० ४.४.२ सुग्रीवहि : सुग्रीव को। 'तृन समान सुग्रीवहि जानी ।' मा० ४.८.१ सुग्रीवहुं : सुग्रीव ने भी । 'सुग्रीवहुं सुधि मोरि बिसारी ।' मा० ४.१८.४ सुग्रीवा : सुग्रीव । मा० ४.१.२ सुघट : वि० (सं०) । सुकर, जो सरलता से किया जा सके। 'अघटित घटन, सुघट बिघटन ।' विन० ३०.२ (यहाँ 'सुघट' से 'सुघरित' का तात्पर्य विशेष है)। सुघटित : वि० (सं०) । उत्तम रीति गढ़ा-बनाया हुआ, सुनिर्मित । 'धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।' मा० १.२१३ सुघर : (१) वि०पु० (सं० सुघट>प्रा. सुघड)। सुदेश, समञ्जस, यथायोग्य अङ्गरचना वाला । मा० १.३१४.६ (२) उत्तम घर । गी० ७.१६.४ सुघरनि : सुघर+संब । उत्तम घरों में । गी० ७.१६.४ -सुघरि : सुधर+स्त्री० । सुन्दरी, सुव्यवस्थित अङ्गों वाली, कमनीय स्त्री । 'बतिया के सुघरि मलिनिया।' रा०न० For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1078 तुलसी शब्द-कोश सुघरी : (दे० घरी) । उत्तम घड़ी, शुभ मुहूर्त । 'सुदिन सुधरी तात कव होइहि ।" मा० २.६८.८ सुषाय : सं०० (सं० सुघाय>प्रा० सुघात) । सहनीय प्रहार । 'पलक पानि पर ओडिअत समुझि कुघाय सुधाय ।' दो० ३२५ सुचंदन : उत्तम जाति का (सुगन्धित) चन्दन । मा० १.२१६.४ सुचारु : अति मनोहर तथा अतिशय पावन । मा० १.१६६.६ सुचाल : उत्तम चल, सदाचरण । विन० २६०.४ सुचालि, ली : (१) सुचाल । (२) वि० । उत्तम चाल वाला=सदाचारी । 'मातु ___ मंदि मैं साधु सुचाली।' मा० २.२६१.३ सुचि : वि० (सं० शुचि) । उज्ज्वल, दीप्त, पवित्र । मा० १.१०४ सुचितित : वि० (सं.) । भली भाँति अभ्यस्त तथा सुविवेचित । 'सास्त्र सुचितित पुनि पुनि देखिअ ।' मा० ३.३७.८ सुचित : उत्तम चित्त, निर्मल एकाग्र मन । 'सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।' मा० १.२६.३ सुचितई : सं०स्त्री० (सं० सुचित्तता) । निर्मलचित्तता, एकाग्रता । गी० १.६६.३ सुचिता : सं०स्त्री० (सं० शुचिता) । पावनता, स्वच्छता, चारुता । मा० १.३२४ छं० २ सुचिमंत : वि०पु० (सं० शुचिमत्) । पवित्रता से युक्त, शौचयुक्त, निष्कलुष । कवि० ७.३४ सुछंद : वि० (सं० स्वच्छन्द)। स्वतन्त्र, यथेच्छचारी । मा० २.१३४ सुजन : (१) सज्जन । मा० ७.२.४ (२) (सं० स्वजन) आत्मीय जन 'करि पितु मातु सुजन सेवकाई।' मा० २.१५२.५ सुजनन, नि : सुजन+संब० । सज्जनों (ने, को)। गी० १.१०.४ "राम पद सुजननि सुलभ करत को।' गी० ६.१२.३ सुजनी : (सं.) उत्तम स्त्री, सजनी, सखी । कृ० २५ सुजव : उत्तम जी (अंगूठे की सुन्दर यवाकार रेखा) । गी० ७.१७.८ । सुलस : सं०० (सं० सुयशस्>प्रा० सुजस)। सत्कीर्ति । मा० ३.६ क सजसु : सुजस+कए । मा० ६.५.८ सुजाति, ती : सं०+वि० (सं० सुजाति) । (१) उत्तम जाति । (२) उत्तम जाति वाला । 'बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति ।' मा० २.१४४ (३) कुलीन + सुन्दर । 'मनिगन पुर नर नारि सुजाती।' मा० २.१.४ (सं० 'सुजात' सुन्दर-पर्याय है)। सुजान : वि० (सं० सुज्ञ, सुज्ञान>प्रा० सुजाण)। उत्तम ज्ञानयुक्त, विवेकी, बुद्धिमान् । मा० ७.५६; १.११.८ For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1079 सुजानि : सुजान (सं० सुज्ञानिन्>प्रा० सुजाणि) । 'सर्बान सोहात है सेवा-सुजानि टाहली।' कवि० ७.२३ सुजानु, नू : सुजान+कए । मा० २.३१४.३, १७२.५ सुजीवन : (१) स्वजीवन (२) उत्तम जीवन । 'प्रानहु के प्रान से सुजीवन के जीवन से ।' गी० २.२६.४ सुजीवनु : सुजीवन+कए० उत्तम जीवन । मा० १.६.६ सुजोग : (दे० जोग) (१) उत्तम ग्रह-मेलापक । (२) औषधियों का उत्तम मिश्रण (३) उत्तम आधार (पात्र) आदि का सम्पर्क (४) उत्तम भूमि आदि का प्रभाव (५) सिलाई, रंग, काटछाँट आदि का उत्तम संबन्ध । “ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग । होहि कुबस्तु सुबस्तु जग ।' मा० १.७ क सुजोधन : सं०पु० (सं० सुयोधन) । महाभारत में धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र= दुर्योधन । कृ० ६१ सुजोर : वि० (सं० सुजोड) । (१) उत्तम जोड़ों (बन्धनों) वाला; (२) सुदृढ । "बिद्रुम खंभ सुजोर ।' गी० ७.१६.३ सुझाउ : आ०-प्रार्थना-मए । तू सुझा दे, दिखा दे । 'असुझ सुझाउ सो।' विन० १८२.५ सुझाए, ये : भूकृ०पु० । दिखाये (से); शुद्ध किये (जाने पर) । 'तेरे ही सुझाये सूझे ।' विन० १८२.५ सटुकि : पूव० । सटक कर, चाबुक लगाकर । चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ।' मा० १.१५६ सुठान : सं०पु+वि० (सं० सुस्थान>प्रा० सुठाण)। (१) उत्तम स्थिति; (२) युद्ध में व्यूह-बद्ध (मोर्चे की) स्थिति; (३) उस स्थिति में ठहरा हुआ। 'भौंह कमान संधान सुठान जे नारि बिलोकनि बान ते बाँचे ।' कवि० ७.११८ (यहाँ मोर्चे में लक्ष्य पर सुस्थिर से भी तात्पर्य है)। सुठारी : वि०स्त्री० । उचित अङ्गव्यवस्था वाली; सुडोल । रा०न० १५ ।। सुठि : क्रि०वि० अव्यय (सं० सुष्ठ>प्रा० सुटू.)। भली प्रकार; और भी अधिक ; ___ अत्यन्त । 'सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ।' मा० २.१८.७ सुठौरहि : (दे० ठोर) उत्तम स्थान पर; अपने स्थान पर (जहाँ के तहाँ ही)। 'बिसोक ल हैं सुरलोक सुठौरहि ।' कवि० ७.२६ सुडीठि : (दे० डीठि) उत्तम अनुकूल दृष्टि । दो० ७५ सुढंग : क्रि०वि० । उत्तम ढंग से; श्रेष्ठ रीति में । 'नटत सुदेस सुढंग ।' गी० १.२.१४ सुढर : (१) सं०+वि.पु । अनुकूल ढलाव; अनुकुलता। (२) अनुकूल ढलने For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1080 तुलसी शब्द-कोश वाला=अपने अनुकूल । बिधि के सुढर सुदाय के ।' गी० १.६७.४ (नियति की अनुकूलता में दांव की अनुकूलता)। सुढार : वि० । ऊँचे-नीचे क्रम से ढाला हुआ या ढाली हुआ; उत्तम रीति से ढाल कर बनाया हुआ-बनायी हुई। 'महि गच कांच सुढार ।' गी० ७.१६.३ सुत : सं०० (सं.)। पुत्र । मा० १.८२ सुतंत्र : वि० (सं० स्वतन्त्र)। (१) स्वाधीन । 'राखेसि कोउ न सुतंत्र ।' मा० १.१८२ क (२) स्वर, स्वच्छन्द, मनचाही गति लेने वाला-वाली; निर्मर्याद । 'जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारी।' मा० ४.१५.७ (३) निरपेक्ष ; जिसे अपने से बाहर का कुछ भी लेना न हो; स्वयंसिद्ध+ स्वयंसाध्य ; फलस्वरूप । 'भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।' मा० ७.४५.५ सुतघाती : (दे० घाती) । पुत्र का बध करने वाला । मा० ६.८३.२ सुतन : उत्तम तन ; स्वस्थ शरीर । दो० ५६८ सुतनि, न्ह : सुत+संब० । पुत्रों । 'सुतनि सहित दसरथहि देखिहौं ।' गी० १.४८.२ ___ 'आवत सुतन्ह समेत ।' मा० १.३०७ सुतबधुन : सुतबधू+संब० । पुत्रवधुओं । 'सुत सुतबधुन समेत ।' रा०प्र० ४.७६ सुतबधू : सं०स्त्री० (सं० सुतवधू) । पुत्रवधू, पतोहू । मा० २.२८३.१ सुतबहु : सुतबधू (सं० वधू>वहू) । 'गे जनवास राउ संग सुत सुतबहु ।' जा०म० १५८ सुतमाल : (दे० तमाल) उत्तम सदृढ़ तमाल वृक्ष । गी० १.६६.४ सुतरु : उत्तम- शुभ-माङ्गलिक वृक्ष । मा० १.३०३.७ सुतहार : सं०० (स० सूत्रधार>प्रा० सुत्तहार)। (१) नाट्य निर्देशक । (२) बढ़ई (जो लकड़े नापने और चीरने के निमित्त सूत्र रखता है)। 'कनक रतनमय पालनो रच्यो मनहुं मार सुतहार ।' गी० १.२२.१ सतहि : (१) पुत्र को । 'बरबस राज सुतहि तब दीन्हा ।' मा० १.१४३.१ (२) पुत्र का । 'अपर सुतहि अरिमर्दन नामा ।' मा० १.१५३.६ सुता : सं० स्त्री० (सं०) । पुत्री । मा० १.६६ सुताति : वि०स्त्री० (सं० सु-तप्ता>प्रा० सु-तत्ती) । अतिशय उष्ण; अति दाहक । 'रघुबर कीरति सज्जननि सीतल, खलनि सुताति ' दो० १६४ सुतापस : उत्तम निश्छल तपस्वी । मा० ७.१२४.६ सतिय : (दे० तिय) उत्तम स्त्री; सती सुन्दर स्त्री। मा० १.२०.६ सुतीछन : सं०० (सं० सुतीक्ष्ण) । मुनिविशेष । मा० ३.१०.१ सुतीछी : वि०स्त्री० (सं० सुतीक्ष्णा) । अत्यन्त तीखी, तीव्र प्रभाव वाली, हृदय द्रावक । 'नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी ।' मा० २.४६.६ सुतीय : सुतिय । मा० २.१६६ For Private and Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1081 सुतीरथ : उत्तम तीर्थ । मा० २.६.१ सुतु : सुत+कए । एकमात्र पुत्र । 'सोइ सुतु बड़भागी।' मा० २..४१.७ सुपर : सुथल। सुथरु : सुथर+कए । अद्वितीय अनन्य उत्तम स्थल । 'जिन्ह के हिये सुथरु राम प्रेम सुरतरु ।' विन० २५१.११ सुथल : (दे० थल) उत्तम स्थल । (१) योग्य स्थान (तीर्थ आदि)। 'कहउँ सुथल सतिभाउ ।' मा० २.२६१ (२) सुपात्र, योग्य एवम् अधिकारी पुरुष । 'बिद्या बिस्वामित्र सब सुथल समरपित कीन्हि ।' रा०प्र० ४.६.३ (३) उत्तम भूमि ।' 'भरेउ सुमानस सुथल थिराना ।' मा० १.३६.९ सथिर : (दे० थिर) अत्यन्त स्थिर, अचञ्चल, एकाग्र, दृढनिश्चयी । 'नाम सों प्रतीति प्रीति हृदय सुथि र थपत ।' विन० १३०.५ सुदल : उत्तप पत्र (पत्ती)। गी० १.१६.३ सुदरसन : (दे० दरसन) । (१) शुभ दर्शन । (२) विष्णुचक्र। (३) सं०स्त्री० (सं० सुदर्शना) । उत्तम सुन्दर स्त्री। दो० ४६० सुदरसनपानि : (सं० सुदर्शनपाणि) चक्रपाणि =विष्णू । गी० ६.६.५ सुदसा : सं०स्त्री० (सं० सुदशा)। (१) उत्तम अवस्था; (२) अनुकूल परिस्थिति; (३) शुभग्रह की दशा (ज्योतिष में) । तेहि अवसर तिहु लोक की सुदसा जनु जागीं।' गी० १.६.१३ सुवाउ : (दे० दाउ)। अपने पक्ष में (खेल का) दांव । 'बाल दसाहूं न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ।' विन० २६१.२ सुदाता : उत्तम दानी; अभीष्ट वस्तु देने वाला । विन० १७७.५ सुदान : उत्तम दान ; प्रार्थी को अभीष्ट देना । हनु० ११ सुवानि, नी : उच्च कोटि का दानी, अत्यन्त उदार । दो० ३००; मा० २.२०४.८ सुदाम, मा : सं०० (सं० श्रीदामन्) । कृष्ण के सखा एक ग्वाल । (२) (सं. सुदामन्) कृष्ण के सहपाठी सखा एक ब्राह्मण । विन० १६३.३ सुदामिनि : सं०स्त्री० (सं० सौदामिनी, सौदामनी)। विद्युत् । 'बसन सुदामिनि __ माल ।' रा०प्र० ५.७.३ सुदाय : (दे० दाय) । पासे आदि खोल का अनुकल (अपने पक्ष में) दांव । 'बिधि के सढर होत सुढर सुदाय के।' गी० १.६७.४ सुदसि : अनन्य भक्त सेवक, दास भक्त । १.१६ सुदि : अव्यय (सं.)। शुक्ल पक्ष । 'जय संबत फागुन सुदि पांचे गुरु दिनु ।' पा०म० ५ सुदिन : उत्तम दिन । (१) अनुकूल दिवस । 'सुदिन सुधरी तात कब होइहि ।' For Private and Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1082 तुलसी शब्द-कोश मा० २.६८.८ (२) शुभ मुहूर्त । 'सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई।' मा० १.१५४.५ सुदिनु : सुदिन+कए । मा० २.१५.२ सदोठि : सुडीठि । दो० ११० सुदुर्लभ : अत्यन्त दुर्लभ । मा० ३.४ छं० सुदुस्त्यज : वि० (सं०) । जो बड़ी कठिनता से त्यागा जा सके । विन० ५०.५ सुदृढ : अत्यन्त दृढ । मा० ६.४.१ सुदेस : सं०+वि० (सं० सुदेश) । (१) उत्तम देश, श्रेष्ठ भू-भाग । 'जाइ सुराज सुदेस सुखारी।' मा० २.२३५.४ (२) समञ्जस, सुघर । 'सोभा सकल सुदेस ।' मा० १.२१६ (३) उचित एवं यथास्थान स्थित । 'भूषन सकल सुदेस सुहाए।' मा० १.२४८.३ सुदेसे : सुदेस+ब० । संगत, उचित। 'कहि परमारथ बचन सदेसे ।' मा० २.१६६.८ सुदेह : उत्तम तथा उपयोगी शरीर । कवि० ७.८८ सुद्ध : बि० (सं० शुद्ध) । (१) पवित्र, अमिश्रित, मल रहित, निष्कलुष । पद पंकज सेवत सुद्ध हिए।' मा० ७.१४.१५ (२) अशौच या सूतक से निवृत्त । मा० २.२४८.३-४ सद्धता : सं०स्त्री० (सं० शुद्धता) । निर्मलता, पवित्रता, शुचिता। विन० १०६.४ सुद्धि : सं०स्त्री० (सं० शुद्धि) । शोधन, पवित्रीकरण, शुद्धता । विन० ८२.४ सुधन : पर्याप्त उत्तम धन । विन० १८२.२ सुधरत : वकृ.पु । शुद्ध होता-होते, ठीक होते । 'बिगरी जनम अनेक की सुधरत पल लगे न आधु ।' विन० १६३.२ सुधरति : वकृ०स्त्री० । शुद्ध (ठीक) हो जाती। 'बिगरीओ सुधरति बात ।' कवि० ७.७५ सुधरम : (१) सं०पु० (सं० सुधर्म) । सद्धर्म । मा० २.३१६.७ (२) वि.पु. (सं० सुधर्मन्) । धर्मात्मा । 'सुधर सुधरम सुसील सुजाना।' मा० १.३१४.६ सुधरमु : सुधरम+कए० । मा० २.२८६ सुधरहि : आ०प्रब० । शुद्ध (ठीक) हो जाते हैं, निष्कलुष (सीधे) हो जाते हैं । 'सठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।' मा० १.३.६ सुधरी : भूकृ०स्त्री० । शुद्ध (ठीक) हो गयी। 'बिगरी सुधरी कबि कोकिलहू की।' ___ कवि० ७.८६ सुधरै : आ०प्रए० । शुद्ध हो (सँभल) सकता-ती है । 'सुधरै सुधारे भूतनाथ ही के।' कवि ७.१६८ 'सुधरै सबै न सानी ।' कृ० ४६ For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1083 सुपरंगी : आ०भ० स्त्री०ए० । संभल जायगी। 'सुधरेगी बिगरियो।' विन० २५६.३ सुधर्म : सद्धर्म, परम पुरुषार्थ तक पहुंचाने वाला धर्म । रा०प्र० १.१.४ सुधा : सुधा से, में । ‘सील सनेह सुधा जनु सानी।' मा० २.६०.८ सुधा : सं०स्त्री० (सं०) । अमृत । मा० १.५.६ सपाइहु : (दे० सुधाई) सीधेपन भी। 'कतहुं सुधाइहु तें बड़ दोषू ।' मा० १.२८१.५ सुधाई : सीधेपन से । कवि० ७.१३० सुधाई : सं०स्त्री० (सं० शुद्धता)। निश्छलता, सरलता, भोलापन, सीधापन । मा० १.१६४.३ सुधाकर : सं०० (सं०) । अमृत का आकर+अमृतमय किरणों वाला=चन्द्रमा । मा० १.५.८ सुधाकर : सुधाकर+कए । विन० २५५.४ सुधादि : अमृत इत्यादि । मा० २.१२०.१ सुधामु : (दे० धाम) (१) (सं० सुधाम) उत्तम धाम, उत्तम लोक । (२) (सं. स्वधाम) अपना लोक । 'लिए बारक नामु सुधाम दियो।' कवि० ७.७ सुधार : सं०० (सं० शुद्धकार>प्रा० सुद्धार) । शुद्ध (ठीक ) करने की क्रिया। 'बुधि न बिचार न बिगार न सुधार सुधि ।' गी० २.३२.३ सुधारत : वकृ०० । सुधारता-सुधारते, सँभालने, ठीक करते । मा० ६.११.६ सुधारा : भूकृ०० । ठीक किया, संभाला; भली प्रकार साधा । 'सुनि कटु वचन कुठारु सुधारा।' मा० १.२७६.५ सुधारि : पूकृ० । (१) संभालकर । 'चले सुधारि सरासन बाना।' मा० ६.७०.५ (२) शुद्ध (निर्मल) करके । 'निज मन मुकुरु सुधारि ।' मा० २ दोहा। सुधारिए : आ०कवा०प्रए० । शुद्ध (ठीक) कीजिए । 'सुधारिए आगिलो काज ।' गी० १.८४.८ सुधारिबी : भकृ०स्त्री० । सुधारनी (चाहिए)। 'समय संभारि सुधारिबी ।' विन० २७८.३ सुधारिबे : भकृ.पु. शुद्ध करने, ठीक करने । 'बिगरी सुधारिबे को दूसरो दयालु को।' कवि०७.१७ सधारिये : सुधारिए । 'अब मेरियो सधारिये।' विन० २७१.२ सुधारिहि : आ०भ०प्रए० । शुद्ध करेगा, सुधारेगा, सार संभाल कर लेगा। 'मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।' मा० १.२८.३ सुधारिहै : सुधारिहि । कवि० ७.१४२ For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1084 तुलसी शब्द-कोश सुधारी : (१) भूकृस्त्री० । शुद्ध कर दी। ‘राम कृपा अवरेब सुधारी ।' मा० २.३१७.३ (२) सुधारि । 'सुजन सुमति सनि लेह सुधारी।' मा० १.३६.२ सुधारे : भूक००ब० । ठीक किये, सँभाले । 'उठि रघुबीर सुधारे बाना ।' मा० ६.८६.७ सुधासार : अमृत-सार, अमृत का निचोड़ । किवि० ५.२ सुधि : सं०स्त्री० । (१) स्मृति, ध्यान, चिन्तन, स्मरण । 'सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ।' मा० १.२६.२ (२) समाचार (खबर) । 'खेलत रहे तहाँ सुधि पाई ।' मा० १.२६०.७ सुधिबुधि : स्मृति तथा बुद्धि (होशोहवास); चेतना; बिवेक । “उमा नेह बस बिकल देह सुधि-बुधि गइ ।' पा०म० २६ सुधी : वि० (सं.)। उत्तम बद्धि (धी) वाला=विद्वान् । विन० २५५.४ सुधीर : वि० (सं.)। (१) उत्तम बुद्धि वाला, (२) अत्यन्त धेयंशाली । 'बीर सुधीर धुरंधर देवा ।' मा० २.१५०.४ (यहाँ उत्तम धैर्य का भी तात्पर्य आता है-दे० धीर । धैर्य धुरन्धर का भाव भी है)। सुधेनु : उत्तम धेनु । गी० १.१५.१ सुन : सुनइ । 'जो मन लाइ न सुन हरिलीलहि ।' मा० ७.१२८.३ /सुन, सुनइ, ई : आ०प्रए० (सं० शृणोति>प्रा० सुणइ)! सुनता-ती है। 'एक ___ न सुनइ एक नहिं देखा।' मा० ७.६६.६ सुनउँ, ऊँ : आउए । सुनू, सुनता हूं । 'समुझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ।' मा० ७.११०.५; ७.११२.११ सुनख : सुन्दर नख । गी० ७.१७.८ सुनखतु : (दे० नखत) कए० । उत्तम नक्षत्र (जो शुभ मुहूर्त में उपयुक्त हो) । मा० ___ मा० १.६१.४ सुनत : वकृ०००। (१) सुनता, सुनते । (२) सुनते हुए । 'सुनत समुझत कहत हम सब भई अति अप्रबीन ।' कृ० ३५ (३) सुनने से, में । 'सुनत मधुर परिनाम हित ।' मा० २.५० (४) सुनते ही (क्षण) । 'कहत सुनत एक हर अबिबेका।' मा० १.१५.२ सुनति : वकृस्त्री० । श्रवण करती । गी० २.४.३ सुनतिउँ : क्रियाति०स्त्री०ए० । मैं सुनती। 'जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । ____ सुनति सिख तुम्हारि धरि सीसा ।' मा० १.८१.१ सुनतेउँ : क्रियाति०० उए ० । मैं सुनता । सनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई ।' मा० ७.६६.५ सुनब : भकृ०० । सुनना (होगा)। 'देखब सुनब बहुत अब आगे।' मा० २.१८०.२ For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1085 सुनयना : सं०स्त्री० (सं०) । सीरध्वज जनक की पत्नी सीता की माता । मा० १.३२४.४ सुनयनी : (१) वि०स्त्री०ब० । सुलोचनियाँ, उत्तम नेत्रों वाली स्त्रियां। मा० १.२८६.२ (२) संबोधन ब० । हे सुलोचनियो । एहि बिआह बड़ लाहु सुनायनीं।' मा० १.३१०.७ सुनहि, हीं : आ०प्रब० । सुनते हैं, सुनें । 'जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं ।' मा० ७.१५.३; ७.३२.६ सुनहि : आ०मए । तू सुन । 'सुनहि सूद्र मम बचन प्रमाना।' मा० ७.१०६.८ सुनहुं : आ०-कामना-प्रब० । सुनें । 'सुन हुं सकल सज्जन सुख मानी।' मा० १.३०.२ सुनहु, हू : आ०मब० । सुनते हो, सुनो। मा० १.७६ 'राजकुमारि सिखावन सुनहू ।' मा० २.६१.२ सुना : भूकृ०पू० । श्रवण किया। मा० ७.५५.२ सुनाइ : (१) पूकृ० । सुना कर । का सुनाइ बिधि काह सुनावा। मा० २.४८.१ (२) आ०-आज्ञा - मए । तू सुना । 'जाइ अनत सुनाइ मधुकर ज्ञान गिरा पुरानि ।' कृ० ५२ सुनाइअ : आ० कवा०प्रए० । सुनाइए, सुनाया-यी जाय । 'द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूं।' मा० ७.१२८.५ सुनाइहि : आ०भ०प्रए । सुनाएगा, बताएगा। 'सो सब तोहि सुनाइहि सोई।' मा० ७.२१.६ सुनाइहौं : आ०भ० उए० । सुनाऊँगा । 'हौं सब कथा सुनाइहौं ।' गी० १.४८.३ सुनाई : सुनाई+ब० । 'कहि पुरान श्रुति कथा सुनाईं।' मा० २.१६७.३ सुनाई : (१) भूक०स्त्री० । श्रवण करायी, कही, बतायी। 'जो भुसुडि खगपतिहि सुनाई ।' मा० ७.५२.६ (२) सुनाइ । सुनाकर । 'करहिं कूटि नारदहि सुनाई ।' मा० १.१३४.३ सुनाउ, ऊ : आ०-आज्ञा+प्रार्थना-मए । तू सुना, कह, बतला। 'कारन मोहि सुनाउ ।' मा० २.१५; १५१.१ सुनाए : भूकृ.पु । श्रवणगत कराये । मा० ७.२.७ सुनाएसि : आ० - भूकृ.पु+प्रए। उसने सुनाया। 'सबन्हीं बोलि सुनाएसि सपना ।' मा० ५.११.२ सुनाएहि : आ०-भूकृ० + मए । तूने सुनाया। 'प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि भाई।' मा० ६.६३.४ सुनाएहु : आ०-भ०+-आज्ञा--मब० । तुम सुनाना । 'भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु ।' मा० ६.१२१.२ For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1086 तुलसी शब्द-कोश सुनाज : (दे० नाज) उत्तम अन्न । दो० १६७ सुनाजु, जू : सुनाज+कए० । रुचिकर भोज्य अन्न । 'मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू ।' मा० २.२३५.२ सुनात : उत्तम नाता, श्रेष्ठ सम्बन्ध । जा०म० १४८ सुनाभ : सं०० (सं०) । उत्तम नाभि (धुरी) वाला सुदर्शन चक्र । 'ले सुनाभ बाहन तजि धाए।' विन० २४०.७ सुनाम : (१) सं०० (सं.)। उत्तम शुभ नाम । दो० ७ (२) वि० । उत्तम नाम वाला, सरनाम, विख्यात । 'परिहरि सुरमनि सुनाम गुजा लखि लटत।' विन० १२९.४ (यहाँ 'सुनाम' के दोनों अर्थ हैं-प्रसिद्ध सुरमणि तुल्य रामनाम)। सुनायउँ : आ०- भूकृ०+ उए । मैंने सुनाया। 'तुम्हहि सुनायउँ सोइ ।' मा० ७.६२ सुनायउ : भूकृ००कए ० । सुनाया, बतलाया। 'निज नाम सुनायउ ।' मा० सुनायबी : भकृ०स्त्री० । सुनानी (होगी) । 'बिनय सुनायबी परि पाय ।' गी० ६.१४.१ सुनायहु : आ०-भूकृ०+मब० । तुमने सुनाया-सुनाई। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।' मा० १.१२७.७ सुनाये : सुनाए । हनु० १६ सुनायो : सुनायउ । मा० ६.३५:१० सुनारी : उत्तम स्त्री । कवि० ७.१८ सुनाव : (दे० नाव) । उत्तम सुखद नौका पर । 'गुरहि सुनावं चढ़ाइ सुहाई । मा० २.२०२.४ सुनाव सुनावइ : आ.प्रए० (सं० श्रावयति>प्रा० सुणावइ)। सुनाता है, सुनायेगा । 'समाचार मंगल कुशल सुखद सुनावइ कोइ।' रा०प्र० ६.७.३ सुनावई : सुनावहिं । रा०न० २० सुनावउँ : आ०उए । सुनाता हूं, कह रहा हूं। 'सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ।' मा० ७.७४.२ सुनावत : वकृ.पु । सुनाता.ते; बतलाता-ते । मा० ७.६०.१ सुनावहिं, हीं : आ०प्रब० । सुनाते-ती हैं (कहते है)। 'रामचंद्र कर सुजस सुनावहिं ।' मा० ६.४४.५; १.६६ छं० सुनावहु : (१) आ०मब० । सुनावो, कहो। 'अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ।' मा० ७.२.१४ (२) सुनाएहु । तुम सुनाना। 'तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूं।' मा० १.१२७.८ For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1087 सनावा : भूकृ०० । सुनाया, बताया। 'प्रभु प्रभाउ परिजनहि सुनावा ।' मा० ७.२०.५ सुनावों : सुनावउँ । सुनाऊँ, कह लू । मा० ५.२.४ सनासीर : संपु० (सं० शुनाशीर, शुनासीर)। इन्द्र । मा० ६.१० सुनि : (१) पूकृ० । सुनकर । 'सो सुनि रामहि भा अति सोचू ।' मा० २.२२७.३ (२) सुनिअ । सुना जाता है । 'प्रभु आइ परे सुनि सायर काठे ।' कवि० ६.२८ सुनिअ, य, ए : आ०कवा०प्रए० (सं० श्रयते>प्रा० सणीअइ)। (१) सुना जाता है। 'सब कह सुनिअ उचित फल दाता ।' मा० १.२२२.५ (२) सुना जाय । 'सुनिअ माय मैं परम अभागी।' मा० २.६६.३ सुमित, यत : वक००कवा। सुना जाता (है)। 'सुनिअत सुरपुर जाइ ।' दो० ४६७ सुनिप्रति : वकृ०स्त्री०कवा० । सुनी जाती। 'सोभा असि कहुं सुनिअति नाहीं।' मा० २.२२०.६ सुनिए, ये : सुनिअ । कृ० ३७ सुनिबे : भक.पु । सुनने । 'सुनिबे कहें किए कान ।' दो० २५० सुनिबो : भक००कए । सुनना (होगा)। तो सुनिबो देखिबो बहुत अब ।' कृ० ३४ -सुनियो : आ०भ०+आज्ञा-प्रार्थना+मब० । तुम सुनना। 'मेरो सुनियो तात सँदेसो।' गी० ३.१६.१ सुनिहउँ : आ०भ० ए० । सुनूगा। 'तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।' मा० ७.१११.११ सुनिहहिं : आ०भ०प्रब० । सुनेंगे । 'सुनिहहिं बाल बचन मन लाई ।' मा० १.८.८ सुनिहें : सुनिहहिं । गी० १.८०.७ सुनिहौं : सुनिहउँ । 'श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं ।' विन० १०४.३ सुनी : (१) भूक०स्त्री० । मा० ७.५५.४ (२) सुनि । सनकर । कवि० ७.७२ (३) सुनिअ । सुना जाता है, सुनी जाती है । 'उदार दुनी न सुनी ।' मा० ७.१०१.६ सुनु : आ-आज्ञा, प्रार्थना-मए । तू सुन । 'नाम मोर सुनु कृपानिधाना।' मा० ७.२.८ सुने : (१) भूकृ००ब० । श्रवण किये । मा० २.१७६.७ (२) सुने हुए (सुनने)। 'पढ़े सुने कर यह फल सुदर ।' मा० ७.४६.४ (३) सुनकर । 'धनु भंग सुने फरसा लिएं धाए।' कवि० १.२२, For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1088 तुलसी शब्दकोशः सुनेउँ : आ०-भूकृ००+उए । मैंने सुना-सुने । 'सुनेउँ राम गुन भव भय __ हारी।' मा० ७.५२.६ सुनेउ, ऊ : भूकृ.पु०कए ० । सुना । मा० १.१८२.६ 'यह वृत्तांत दसानन सुनेऊ ।' मा० ६.६२.५ सुनेत्र : सं०+वि०पु० (सं०)। (१) उत्तम नेत्र। (२) उत्तम नेत्रों वाला। मा० ७.१०८.७ सुनेम : (दे० नेम) । उत्तम दृढ नियम । दो० २१४ सुनेहि : आ० –भूक००+मए । तूने सुना । 'सुने हि न धवन अलीक प्रलापी।' मा० ६.२५.८ सुनेहु : आ०-भूक००+मब० । तुमने सुना । 'कहा हमार न सुनेहु तब।' मा० १.८६ सुनें : भकृ० अव्यय । सुनने । 'लगी सुनै श्रवन मन लाई ।' मा० ५.१३.६ सुने : (१) सुनें । सुनने । 'बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुने राम के चरित सुहाए ।' मा० ७.६३.४ (२) सुनइ । सुने, सुने सके । 'को न सुनै अस जानि ।' मा० १.११३ (३) पूक० । सुनकर। 'धनु भंग सुने फरमा लिएँ धाए ।' कवि० १.२२ सुनगो : आ०म०पु०प्रए । सुनेगा । 'ताकी सिख ब्रज न सुनगो कोउ भोरे ।' क० ४४ सुननी : वि०स्त्री० (सं० सुनयनी)। सुन्दर विशाल नेत्रों वाली । 'राम नीके के निरखि सुनैनी ।' गी० १.८१.१ सुनया : वि०० । सुनने वाला । 'दूजो को कहैया ो सुनया चख चारि खो।' कवि० १.१६ सुनेहै : आ० भ०मए । तू सुनाएगा-गी। 'सुनि तू संभ्रम आनि मोहि सुनहै ।' गी. ५.५०.१ सुनौं : सुनउँ । सुनती हूं । 'सुनौं न द्वार बेद बंदी धुनि।' गी० २.५१.१ सुनौ : सुनहु । सुन लो । 'सुनौ, सांची कहौं।' कवि ७.७१ सुन्यो : सुनेउ । :मंदोदरी सन्यो प्रभु आयो।' मा० ६.६.२ सुपंथ : (दे० पंथ) सन्मार्ग, धर्मपथ । 'कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।' मा० ४.७.४ सुपंथु : सुपंथ-+कए । अनन्य सन्मार्ग । 'बेद पुरान बिहाइ सुपंथु ।' मा० ७.८५ सुपच : स्वपच । 'तुलसी भगत सुपच भलो।' वैरा० ३८ सुपथ : सुपंथ । विन० २६०.४ सुपन : सपन । 'खोया सो अनूप रूप सुपन जू परे ।' विन० ७४.२ सुपनखां : शूर्पणखा ने । 'जाइ सुपनखां पावन प्रेरा।' मा० ३.२१.५ For Private and Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1089 सुपास, सा : सं०+वि० (सं० सुपार्श्व, सुपश्य>प्रा० सुपास)। (१) देखाने में उत्तम, मनोरम । 'बसे सुबास सुपास होहिं सब फिरि गोकुल रजधानी।' कृ० ४८ (२) अनुकूल वातावरण । 'पराधन नहिं तोर सुपासा।' मा० ३.१७.१३ (३) सुविधा । 'सब सुपास सब भाँति सुहाई ।' मा० १.२१४.५ सुपासी : वि.पु । सखी करने वाला, सुविधा-सुखा देने वाला । 'सीकर तें त्रैलोक सुपासी।' मा० १.१९७.५ सुपासू : सुपास+कए । अनुकूल, सुविधा । 'तुम्ह कहुं बन सब भाँति सुपासू ।' मा० २.७५.७ सुपिता : पूर्ण रक्षा देने में समर्थ उत्तम पिता। विन० ७७.२ सुपीन : अत्यन्त पीन, अति पुष्ट तथा स्थूल । गी० ७.२१.६ सुपुनीत, ता : (दे० पुनीत) । अति पावन । मा० ७.१२४; १२५.८ सुपूत : (सं० सुपुत्र) उत्तम सदाचारी आज्ञापालक पुत्र । दो० ३६८ सुपूरन : (दे० पूरन) सम्पूर्ण । गी० ७.६.२ सुपेती : संस्त्री०ब० । सफेद चादरें। 'कोमल कलित सुपेती नाना ।' मा० १.३५६.२ सुपेम : सुप्रेम । मा० २.२०६.६ सुप्रवृत्ति : प्रवृत्ति (सं०) । सं०स्त्री० अत्यन्त प्रवृत्ति जागतिक व्यवहार, विषयों __ की रुचि, प्रेरणा, क्रिया-कलाप आदि । विन० ५८.२ सप्रेम : अनन्य अविचल प्रेम । मा० १.२२ सुफैसौरि : सं०स्त्री० (सं० सु-पाशावलि) । उत्तम बन्धन । गी० ७.१८.१ सफर : सुफला। सुफरु : सुफर+कए । उत्तम (सरस-सुन्दर) फल । 'कुतरु सुफरु फरत । विन० १३४.४ सुफल : (१) सं०० (सं.)। उत्तम फल, उपलब्धि, साधना की सिद्धि । (२) वि.पु.। उत्तम फल युक्त ; कृतार्थ । 'जन्म सुफल निज जानि ।' मा० ७.११ सफलक : सं०० (सं० श्वफल्क)। मथुरा के एक यादव= अक्रूर के पिता । कृ० २५ सुफेर : (दे० फेर) अनुकूल समय चक्र ; अच्छा फेरा या मोड़ । अभिमत देवगति । _ 'समुझि कुफेर सुफेर ।' दो० ४३७ सबट्ट : वि०+सं० (सं० सुवाट = सुवर्म)। (१) उत्तम मार्गों से सम्पन्न (२) उत्तम मार्ग । मा० ५.३ छं० १ सुबद्ध : वि० (सं.) दृढ़ता से विधिपूर्वक बंधा हुआ । 'घाट सुबद्ध राम बर बानी ।' मा० १.४१.४ For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1090 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सुबनाउ : (दे० बनाऊ) उत्तम बनाव; ठीक-ठाक निर्माण । 'सब भाँति बिगरी है, एक सुबनाउ सो ।' विन० १८२.७ सुबरन : (१) सं०पु० (सं० सुवर्ण) । सोना, काञ्चन । 'काँच तें कृपानिधान किये सुबरन ।' विन० २५७. २ ( २ ) वि० (सं० सुवर्णं ) । उत्तम जाति वाला + सोना + उत्तम रंग वाला । 'हो सुबरन कुबरन कियो ।' विन० २६६.२ (३) श्रेष्ठ वर्ण (रंग) वाला । 'सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर ।' बर० १० सुबल : कृष्ण के एक सखा का नाम । सुबस : (१) वि० + क्रि०वि० (सं० सुवास) । भली प्रकार निवास के साथ । (२) (सं० स्ववश) स्वाधीन । 'सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई । मा० २.३६.३ सुबसन : उत्तम वस्त्र | मा० २.२१५.३ सुबस्तु : उत्तम संग्रहणीय वस्तु, सुन्दर वस्तु । मा० १.७ क सुबाजि : उत्तम अश्व । कवि० ६.३३ सुबानक: (दे० बानक) सुन्दर योग्य बनाव, सजावट, वेषरचना आदि । पा०मं० १०६ सुबानि : (दे० बानि) । (१) उत्तम वचन । श्रेष्ठ कथनरीति । 'कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि समानि । मा० २.२६७ (२) उत्तम स्वभाव । 'राउरि रीति सुबानि बड़ाई ।' मा० २.२६६. १ सुबानी : (दे० बानी) उचित वाणी से + उत्तम सील के साथ = विनय युक्त वाणी से । 'कहि निषाद निज नाम सुबानीं । मा० २.१६६.४ सुबानी (दे० बानी ) | ( १ ) उत्तम वचन : 'आयसु आसिष देहु सुबानी ।' मा० २.१८३.७ (२) उत्तम स्वभाव, विनीत प्रकृति । सुबारि : उत्तम निर्मल जल | मा० १.४३ क सुदास, सा: सं० + वि०पुं० (सं० सुवास) । (१) उत्तम निवास । 'बसें सुबास सुपास होहि सब फिरि गोकुल रजधानी ।' कृ० ४८; मा० २.१० (२) उत्तम गन्ध, सुगन्ध । 'सोइ पराग मकरंद सुबासा ।' मा० १.३७.६ (३) सुगन्धित । ' सुरुचि सुबास सरस अनुरागा । मा० १.१.१ सुबाहु : (१) सं०पु० (सं०) । ताटका का पुत्र - राक्षसविशेष । मा० ३.२५ (२) उत्तम बाहुबल | 'रैअत राज समाज घर तन धन धरम सुबाहु ।' दो० ५२१ 1 सुबाहुहि : सुबाहु राक्षस को, से । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं । मा० १.२०६.३ सुविचार : उत्तम विचार, विवेक । दो० ३४६ सुबिचारी : उच्चकोटि के मनीषी । मा० २.२८४.३ For Private and Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नलसो शब्द-कोश 1091 सुबिचित्र : अत्यन्त विलक्षण, चमत्कारी । मा० २.६० सुबिधा : उत्तम विद्या, अनुकूल फल प्रद विद्या । रा०प्र० २.७.६ सुबिधान : उत्तम विधान, श्रेष्ठ आचार संहिता आदि । गी० १.४.१२ सुबिनीता : अति विनीत, अतिशय शिष्ट एवं विनयशील । मा० ३.२४.४ सुविरति : उत्तम विरति=विषय-वैराग्यपूर्वक चित्त के विश्राम की दशा । मा० १.४०.३ सुबेल, ला : (१) सं०० (सं० सुवेल) । लङका के समीप त्रिकूट पर्वत के पास पर्वतविशेष । मा० ६.६.५; ११.६ (२) सं०स्त्री (सं० स्ववेला–वेला= समुद्र तट) अपना तट, सागरीय मर्यादा । 'जन आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ।' मा० १.३०५ सुबेलि, ली : (दे० बेली) श्रेष्ठ लता । मा० २.२४४.६ सुबेष, षा : (दे० बेष) । (१) । सं० । उत्तम परिधानादि द्वारा रूप सज्जा। मा० १.७.५, ७.४०.८ (२) वि० । उत्तम वेष वाला। 'देखि सुबेष महामुनि जाना।' मा० १.१५८.७ सुबेषु : सुबेष+कए० । 'तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।' मा० सुबेस : सुबेष । दो० १६२ सुबोधा : उत्तम ज्ञान । 'पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ।' मा० ७.१०६.८ सुम : सं०+वि० (सं० शुभ) । (१) कल्याण । 'जाकर नाम जपत सुभ होई ।' मा० १.१९३.५ (२) शोभायुक्त, सुन्दर । 'घर घर बाज बधाव सुभ ।' मा० १.१६४ (३) कल्याण-कारी, कल्याणसूचक । 'मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।' मा० ७.१.७ (४) पुण्य, उत्तम । 'सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता।' मा० ७.४१.५ सुभग : (१) वि०० (सं.)। सम्पन्न सौन्दर्य-युक्त, सर्वाङ्ग-सुन्दर । 'सुभग उर दधि बुद सुदर ।' कृ० १४ (२) विभूतिमय, शोभामय । 'सुभग सनेह बन । मा० सुभगता : सं०स्त्री० (सं०) । सुन्दरता+ सम्पन्नता । मा० १.८६ छं० सुमट : (दे० भट) श्रेष्ठ योद्धा पुरुष । मा० ७.७.८ सुमटनि, न्ह : सुभट+संब० । सुभटों (ने, के)। 'जिन सुभटनि कौतुक कुधर उखारे ।' गी० १.६८.८; मा० ६.७२.१ सुभटु : सुभट+कए । एक भी वीर पुरुष । 'तो अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ .' मा० १.२८३ सुभट्टा : सुभट । मा० ६.४१.४ सुभद : वि० (सं० शुभद) । कल्याणप्रद । मा० ६.१११.२२ For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1092 तुलसो शब्द-कोश सुमदाता : सुभद । मा० १.३०३.१ ।। सुमतीला : वि० (सं० शुभशील) । सुशील, मङ्गल-प्रकृति । सदाचारी, उत्तम स्वभाव-युक्त । मा० ७.८.१ सुभाउ, ऊ : सुभाव+कए० । स्वभाव =शील । 'करुनामय मदु राम सुभाऊ ।' मा० २.४०.३ (२) वैष्णवदर्शन के ३० तत्त्वों में अन्यतम- स्वभावतत्त्व जिसे 'नियति' कहा जा सकता है । 'काल कर्म सुभाउ गुन भच्छक ।' मा० ७.३५.८ सुभाएं : स्वभाव से, प्रकृत्या । 'मृगलोचनि तुम्ह भोरु सुभाएँ । मा० २.६३.४ सुभाग : (दे० भाग्य) । उत्तम भाग्य, सौभाग्य । मा० २.२१०.५ सुमागी : वि० । सौभाग्यशाली। 'सील सनेह सुभाय सुभागी।' मा० २.२२२.८ (अधिक उत्तम भाग वाला =जो शीलादि का भागी हो-इस अर्थ की प्रसंग में संगति है)। सुभाननु : सं०पु०कए० (सं० शुभाननम्) । शोभोदीप्त मुख । कवि० ६.५६ सुभामिनि : सुन्दर भामिनी, उत्तम स्त्री । कवि० २.२ सुभायें : सुभाएँ । स्वभाववश । 'राय सुभायें मुकुरु कर लीन्हा । मा० २.२.६ सुमाय : सुभाव । (१) उत्तम भाव, सद्भाव । 'सनेह सील सुभाय सों।' मा० १.३२४ छं० २ (२) प्रकृति, शील । 'चीन्हो री सुभाय तेरो।' कृ० १५ सुमायन : सुभाय+संब० । स्वाभावों (से) । 'भाषे मदु परुष सुभायन रिसाइ के।' गी० १.८४६ सुमाये : सुभाय । गी० १.३२.५ सुभाव : मं००। (१) (सं० स्वभाव)। वैष्णवमत में तीस तत्त्वों के अन्तर्गत तत्त्वविशेष-नियति, कर्म फल आदि देने का नियमन करने वाली शक्ति । 'काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ।' मा० ७.२१ (२) शील । 'सुभावनिर्मल ।' मा० ३.३२ छं० ४ (३) अन्त.करणवृत्ति, तत्सम्बधी प्रवृत्ति । 'देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ।' मा० १.५३.५ (४) (सं० सुभाव)। सद्भाव, उत्तम वासना या भावना । (५) काव्यभाव-भक्ति, उत्साह रति आदि । 'अरथ अनूप सुभाव सुभासा।' मा० १.३७.६ सुमावसिद्ध : वि० (सं० स्वभावसिद्ध) । प्राकृतिक, सहज, स्वाभाविक, अकृत्रिम । कवि०७.१६१ सुभावहि : स्वभाव को, त्रिगुणात्मक व्यामोहकारी भाव को। 'राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ।' मा० ७.२४ सुभाषा : (१) उत्तम वाणी। (२) उत्तम कथन । 'नृपहि मोदु सुनि सचिव सभाषा।' मा० २.५.७ । सुभाषि : पूकृ० । सुन्दर वार्तालाप करके । 'मिले हरिहि हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि ।' पा०म० ६५ For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सुमासा : सुभाषा (प्रा० ) । उच्चकोटि की ( काव्यात्मक ) भाषा । ' अरथ अनूप सुभाव सुभासा ।' मा० १.३७.६ 1093 सुभासिष : (सं० शुभाशिष्) मङ्गलमय आशीर्वाद । पा०मं० १२८ सुभाशुभ: (सं० शुभाशुभ - दे० सुभ तथा असुभ ) । (१) पुण्य-पाप । 'करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । मा० १.१३७.४ (२) पुण्य तथा पाप के फल | "त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक ।' मा० ७.४१.७ (३) अनुकूल-प्रतिकूल - फलप्रद । 'करम सुभासुभ देइ बिधाता । मा० २.२५५.६ ( यहाँ 'करम' प्रारब्ध वाचक है | ) सुभाहि: आ०प्र० । शुभ लगते हैं, भले प्रतीत होते हैं । 'रंगभूमि पुर कौतुक एक निहारहि । ललकि सुभाहि नयन मन फेरि न पारहि ।' जा०मं० १२ यहाँ 'लुभाहि' पाठ होना चाहिए, तभी 'ललकि' की संगति बैठती है । सुभुज : सुबाहु । राक्षसविशेष । 'जो मारीच सुभुज मदमोचन । मा० १.२२१.५ सुभूमि : उत्तम उपजाऊ भूमि (सुर्खेत) । सुमिरि सुभूमि होत तुलसी सो ऊसरो । विन० ६६.५ सुभोगमय : उत्तम भोगों (भोग्य सामग्रियों से सम्पन्न । मा० २.६० सुभ्र: वि० (सं० शुभ्र ) । दीप्ति, स्वच्छ, सुन्दर, उज्ज्वल । मा० ४.१३.६ सुभ्रवारी : विoस्त्री० । चाँदी (शुभ) से बनी हुई, उज्ज्वल । गी० १.२५.४ सुमंगल : सं०० (सं०) । ( १ ) शुभ समारोह (२) कल्याण | 'सुदिनु सुमंगल दायकु सोई ।' मा० २.१५-२ ( ३ ) मङ्गल गीत । 'करि कुलरीति सुमंगल गाई ।' मा० १.३२२.४ (४) मङ्गलोत्सव का बनाव सिंगार आदि । 'सजि सुमंगल भामिनीं । मा० १.३२२ छं० सुमंगलवार : सं ० ० (सं० ) । मङ्गलोत्सव की सामग्री, रचना, सजावट, वेषभूषा आदि । 'सहि सुमंगलचार ।' मा० २.२३ सुमंगलचारा : सुमंगलचार । मा० १.३१८.५ सुमंगल : सुमंगल + कए । श्रेष्ठ अद्वितीय मङ्गलोत्सव | 'सुदिन सुमंगलु ।' मा० २.४ सुमंत : सुमंत्र । गी० २.५६.१ सुमंत्र : (१) सं०पु० (सं० ) । दशरथ के प्रधानमन्त्री तथा सारथि । मा० १.३०१.६ ( २ ) वि० । उत्तम मन्त्रयुक्त, अभिमन्त्रित । 'गोली बान सुमंत्र सर ।' दो० ५१६ For Private and Personal Use Only सुमंत्र : सुमंत्र + कए० । एक सुमंत्र को (विशेष रूप से ) । ' सेवक सचिव सुमंत्र बोलाए ।' मा० २.५.१ सुमंद : रुचिकारी मन्द गति वाला । मा० १.८६ छं० सुमग: (दे० मग ) उत्तम मार्ग । गी० २.२७.१ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1094 तुलसी शब्द-कोश सुमति : (१) सं०स्त्री० (सं.)। सद-बुद्धि । 'काहू सुमति न खल सँग जामी।" मा० ७.११२.४ (२) वि० । उत्तम बुद्धि से युक्त । सावधान सृनु सुमति भवानी।' मा ० १.१२२.३ सुमन : (सं० सुमनस्) । (१) देवता (२) पुष्प । 'अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोई ।' मा० १.३ क (३) उत्तम निष्कलुष मन । 'माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ।' मा० १.३७ (४) उत्तम मन वाला, मनस्वी। (५) स्वस्थचित्त, सौमनस्ययुक्त, आश्वस्त । 'सुनि मैना भइ सुमन ।' पा०म० १०६ समननि : समन+संब० । फलों (से) । गी० २.४४.४ समनमय : वि० (सं० सुमनोमय) । पुष्पावत, पुष्प निर्मित, फूलों से परिपूर्ण । मा० २.१२१.४ सुमानस : निर्मल मानस । (१) निष्कलुष चित्त । 'भ रेउ सुमानस सुथल थिराना।' मा० १.३६.६ (२) मानस सरोवर । 'नदी पुनीत समानस नंदिनि ।' मा० १.३६.१३ उभयत्र दोनों अर्थ साथ-साथ हैं; प्रधानता की दृष्टि से पथक उदाहत हैं। सुमार : अच्छी मार, मारामार, तीव्र प्रहार । 'समर सुमार सूर मार रघुबीर के।" कवि० ६.३१ सुमित्रहि : सुमित्रा को। 'दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ।' मा० १.१६०.४ सुमित्रां : सुमित्रा ने । 'भेटेउ तनय सुमित्रों ।' मा० ७.६ सुमित्रा : सं०स्त्री० (सं.)। दशरथ की छोटी रानी लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न की माता । मा० १.२२१.८ /सुमिर, सुमिरइ : आ०प्रए० (सं० स्मरति>प्रा० सुमरइ)। स्मरण करता-करती है। 'मन महं रामहि सुमिर सयानी ।' मा० १.५६.५ सुमिरत : वकृ०० । स्मरण करता-करते-करते हुए । 'सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।' मा० १.१२५.४ सुमिरति : वकृ०स्त्री० । स्मरण करती । गी० ५.६.३ सुमिरन : (१) सं०० (सं० स्मरण>प्रा० सुमरण) । ध्यान । मा० ५.६.३ (२) भकृ० अव्यय । स्मरण करने । 'राम नाम सिव सुमिरन लागे ।' मा० १.६०.३ सुमिरहि, हीं : आ०प्रब० (सं० स्मरन्ति>प्रा० सुमरंती>अ० समरहिं) । स्मरण करते हैं-करें। मा० ७.२.१६ 'पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं।' मा० ४.२६.३ सुमिरहु : आ०मब० । स्मरण करो, ध्यान में लाओ। मा० २.२६५.८ सुमिरामि : आ० उए० (सं० स्मरामि>प्रा० सुमरामि)। स्मरण करता हूं। 'ब्रह्म सुमिरामि नर भूप रूपं ।' विन० ५०.८ For Private and Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1095 समिरि : (१) पूव० स्मरण करके, ध्यान करके। मा० ७.१६.४ (२) मा०-आज्ञा-मए। तू स्मरण कर। 'तुलसी अजहुं सुमिरि रघुनाथहि ।' विन० ८३.६ सुमिरिअ : आ०-कवा-प्रए० । स्मरण किया जाय, ध्यान में लाइए। 'रामहि __सुमिरिअ गाइअ रामहि ।' मा० ७.१३०.६ सुमिरिए, ये : सुमिरिअ । सुमिरिये छाडि छल ।' विन० २५४.२ सुमिरिबे : भकृ०० । स्मरण करने । सांकरे के से इबे सराहिब सुमिरिबे को।' कवि० ७.२२ समिरी : भूकृ.स्त्री० । स्मरण की। 'हिये सुमिरी सारदा सुहाई ।' मा० २.२६७.७ समिरु : आ०--आज्ञा-मए । तू स्मरण कर । 'सुमिरु राम सेवक सुखदाता।' मा० ५.१५.६ सुमिरें : स्मरण करने से । 'जो सुमिरे गिरि मेरु सिलाकन होत ।' कवि० २.५ समिरे : (१) भूकृ०० ब० । स्मरण किये । 'सुमिरे सिद्धि गहेस ।' मा० १.३३८ (२) सुमिरें । सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को ।' हनु १० सुमिरेसि : आ० - भूकृ००+प्रए० । उसने स्मरण किया। 'सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ।' मा० ३.२७.१६ सुमिरेसु : आ०-भ०+ आज्ञा-मए । तू स्मरण करना । 'सुमिरेसु भजेसु निरंतर __मोही।' मा० ७.८८.१ सुमिरेहु : आ०-भ० +आज्ञा-मब० । तुम स्मरण करना । 'मोहि सुमिरेहु मन - माहि ।' मा० ६.११६ सुमिरौं : आ०ए० । स्मरण करता हूं। 'हित दै पद सरोज सुमिरौं ।' विन १४१.५ सुमीच : (दे० मीचु) उत्तम मृत्य, सद्गतिदायक मरण । 'मुनि मन अगम सुमीचु। दो० २२० सुमीत : (दे० मीत) निष्कपट उत्तम मित्र । दो० ५५७ सुमुख : वि० (सं०) । सुन्दर मुख वाला+सम्मुख रहने वाला=अपने अनुकूल सुन्दर मुख वाला । 'सुमुखा सुलोचन सरल सुभाऊ ।' मा० २.२७४.६ सुमुखि : वि.स्त्री० (सं० सुमुखी) । सुन्दर मुख वाली, सुन्दरी । मा० ५.६.४ सुमृति : सं०स्त्री० (सं० स्मृति) । धर्मशास्त्र । 'बेद पुरान सुमति कर निंदा।' मा० ७.४८.६ सुमेर, रु, रू : सं०पु० (सं० सुमेरु) । पुराण-वजित स्वर्ण पर्वत । मा० ७.५६.७; २.२८८; २.२६५.४ सुमेर : सुमेरु पर्वत को, सुमेरु तुल्य सुवर्ण-राशि को । समाचार पाइ पोच सोचत सुमेरै । गी० ५.२७.२ For Private and Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1096 तुलसी शब्द काश समोति : (दे० मोती) उत्तम जाति की मुक्तामणि । मा० १.३१६ छं. सुर : (१) सं०० (सं०) । देव । मा० १.२५.६ (२) स्वर । गी० ७.१६.४ सुरंग, गा : वि० (सं० सरङ्ग)। उत्तम रंग वाला । 'तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।' मा० १.३१६.१ सुरंगनि : सुरंग+संब० । उत्तम रंग वालों। कवि० ६.३२ सुरकुल : देवजाति, देव समूह । मा० १.४२.५ सरगन : सुरकुल । मा० २.२४१.७ सुरगाइ : सुरधेनु (दे० गाइ)। काम धेनु । रा०प्र० १.१.२ सुरगुर, गुरु : देवताओं के आचार्म बृहस्पति । मा० २.२६५; २४१.८ सुरगया : सुरगाइ। गी० १.२०.३ सुरघाती : वि० (सं० सुरघातिन्)। देवों का संहारकर्ता । मा० ६.७४.७ सरजूथ, था : (दे० जूथ) देव समूह । मा० १.१८६ छं० ३ सुरतटिनि : (सं० सुरतटिनी) देव नदी=गङ्गा । विन० ४६.४ सुरतरु : सं०० (सं.)। (१) कल्पवृक्ष । मा० १.३२४ (२) यमुना तट पर कदम्ब वृक्षविशेष जिसके नीचे कृष्ण ने लीलाविहार किये थे । 'ठाढ़े सुरतरु तर तटिनी के तट हैं ।' क० २० सुरति : (१) संस्त्री० (सं० स्मृति) । स्मरण । 'सुरति कराएहु मोरि ।' मा. ७.१६ क (२) सुधबुध, होश । देस कोस के सुरति बिसारी।' मा० ३.२१.६ (३) (सं० सुतरां रतिः सरतिः) अनन्य एकाग्र प्रेमयोग । 'स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी।' मा० २.३२५५ यहाँ भी स्मृति का भाव है परन्तु 'रति' का अर्थ मुख्य प्रतीत होता है। सुरतिय : (दे० तिय) देवाङ्गना । मा० १.३१८.६ सुरदावन : वि.पु. (सं० सुरद्रावण) । देवों को खादेड़ भगाने वाला रावण । 'झपटै भट जे सुरदावन के ।' कवि० ६.३४ सुरधनु : इन्द्रधनुष । गी० ७.८.३ सुरधाम, मा : देवधाम, स्वर्गलोक । 'राउ गयउ सुरधाम ।' मा० २.१५५; ६.११२८ सुरधुनि : सं०स्त्री० (सं० सुरधुनी) । देवनदी=गङ्गा । कवि० ७.२१ सुरधेनु, नू : देवों की धेनु कामधेनु । मा० ७.३५.२ सुरधेनुहि : कामधेनु को । 'खारी सेव सुरधेनुहि त्यागी।' मा० ७.११०.७ सुरधेनू : सुरधेनु । मा० १.१४६.१ सुरनगर : देवनगरी अमरावती । गी १.६.८ सरनाथ, था : सुरपति । (१) विष्णु (२) इन्द्र (३) शिव । मा० १.१०६.८ For Private and Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1 मा० १.१५६ छं० सूरनाथ : सूरनाथ + कए० । इन्द्र | मा० २.२२६.१ सुरनायक : सुरनाथ (१) विष्णु । 'जय जय सुरनायक ।' ( २ ) इन्द्र । 'सुरनायक नयन भार अकुलान ।' गी० ५.२२.६ सुरनारि, रो: देवाङ्गना, अप्सरा । मा० १.१२६.४; ३१४.७ सूरनारी: सुरनारी + ब० । देवाङ्गनाएँ । मा० १३१४.७ सुरनि, न्ह: सुर + संब० । देवों (ने आदि) । 'देखि सुरन्ह दुदुभीं बजाई ।' मा० ७.१२.८ -सुरप : सुरपति (सं० ) । इन्द्र । प्रमुदित मन सुनि सुरप सची के हैं ।' गी० २.३०.५ सुरपति : देवराज इन्द्र | मा० ३.१.५ सुरपाल : सुरपति । (१) इन्द्र ( २) विष्णु (आदि) । मा० २.२१६ सुर-पुर : देवनगर । (१) स्वर्ग ( २ ) अमरावती । मा० १.३०६ सुरपुरु : सुरपुर + कए० । स्वर्ग । 'नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ ।' मा० २.४५.१ सुरबधू : देवाङ्गना, अप्सरा । मा० ६.१०६ ख सुरवर : (१) श्रेष्ठ देव । मा० १.३१९ छं० (२) इन्द्र | मा० २.२२०.३ सुरबास, सा: सं०पु० (सं० सुरवास ) । देवालय । मा० १.२८७.४ सुरबासू : सुरबास +कए० | देव निवास | मा० २.१३८.६ : सुरबीपि सं०स्त्री० (सं० सुरवीथी ) । देवमार्ग = आकाशमार्ग = छायापथ = आकाशगङ्गा ( आकाश में घने नक्षत्रों का आरपार मार्ग सा दिखने वाला 1097 लम्बा समूह । मा० २.३२५.५ सुरबेलि : कलपबेलि (सं० सुरवल्ली == कल्पवल्ली = कल्पलता ) अभीष्टदायिनी स्वर्ग की लता । 'सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ ।' जा०मं० १०८ सुरवाता : (दे० ब्रात ) देव समूह । मा० १.६२.७ सुरभवन : देवालय, देवमन्दिर । मा० १.१५५.८ सुरभि: (१) सं० स्त्री० (स० ) । सुगन्ध । 'बेनु सुरभि किमि पावं ।' विन० ११४.४ (२) वि० (सं० ) । सुगन्धित । 'सीतल सुरभि पवन बह मंदा ।' मा० ७.२३.४ (३) सं०स्त्री० (सं०) । कामधेनु गाय । 'स्याम सुरभि पय बिसद अति । मा० १.१० For Private and Personal Use Only . सुरभी : सुरभि । (१) कामधेनु, यथेच्छदायिनी देवधेनु । 'सुर सुरतरु सुरभी सबही कें ।' मा० २.२१५.६ (२) गाय । 'सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।' मा० १.३०३.५ (३) गाय + सुगन्धित । 'सूपोदन सुरभी सरपि । मा० १.३२८ सुरभूपा: ( १ ) विष्णु । मा० १.१६२ छं० (२) राम । मा० ४.१३.३ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1098 तुलसो शब्द-कोश सुरमनि : (दे० मनि) देवमणि =पुराणवणित चिन्तामणि (जो सभी अभीष्ट ___ वस्तुओं का दान करती है) । 'लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी।' मा० २.११४.५. सुरमाया : देवों द्वारा की हुई छलना, देवकृत छद्म प्रभाव । मा० २.१६ सुरमौर : (दे० मौर) सुर-मुकुट; देवों में मुकुट के समान सर्वोपरि; देवोत्तम । कवि० ७.२६ सुरराउ, ऊ : सुरराजु (अ०) । इन्द्र । मा० २.२२०.४ सुरराजु, जू : सुरराज+कए । देवराज = इन्द्र । मा० २.२७२; २६५.१ सुरराया : (दे० राया) देवराज इन्द्र । मा० ७.५४.७ सुरलोक : देवलोक =स्वर्ग। मा० १.११३ सुरलोकु, कू : सुरलोक+कए । मा० २.८१.४ सुरवर : देवोत्तम । मा० २ श्लो० १ सुरस : वि० (सं.)। सुस्वादु रस-युक्त । 'खाहु सुरस सदर फल नाना ।' मा०. ४.२५.२ सुरसर : देवों का सरोवर, मानस-सरोवर । मा० २.६०.४ सुरसरि, री : (दे० सरि) देवनदीगङ्गा। मा० १.२.८; १२५.१ सुरसरित, ता : सुरसरि । मा० १.१०६, ४०.१ सुरसा : सं०स्त्री० (सं.)। सर्पमाता=देव दूतीविशेष । मा० ५.२.२ सुरसाई : (दे० साई) । (१) देवराज इन्द्र । गी० १.१५२ (२) विष्णु, राम । मा० १.१३६.५ सुरसाल : सं०० (सं० सुरशल्य>प्रा० सुरसल्ल)। देव-कण्टक, असुर, राक्षस आदि । मा० १.२७ सुरसुदरी : देवाङ्गना=अप्सरा । मा० १.६१.१ सुर-सुरभी : (दे० सुरभी) देवधेनु =कामधेनु । मा० २.२१५.६ सरसैया : सुरसाईं। इन्द्र । कृ० १६ सरस्वामी : सुरसाईं। मा० १.५३.३ सुरां : सुरा से, में । 'जाहिं सनेह सुरां सब छाके ।' मा० २.२२५.३ सुरा : संस्त्री० (सं.)। मदिरा। मा० १.१३६ सुराई : सं०स्त्री० (सं० शूरता)। पराक्रम । 'जान उमापति जास सुराई ।' मा० ६ २५.२ साऊ : (दे० राऊ) उत्तम राजा । 'सकल अंग संपन्न सुराऊ ।' मा० २.२३५.८ सुराग : (दे० राग) उत्तम राग, श्रेष्ठ स्वर संगति युक्त गेय पद । 'बाज सुराग कि गाँड़र तांती।' मा० २.२४१.६ सराज : (दे० राज)। (१) उत्तम राज्य, निपुण राजा का शासन । जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।' मा० ४.१५.३ (२) उत्तम राजा। For Private and Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सुराजा : ( १ ) उत्तम राजा । 'प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा । मा० ४.१५.११ (२) सुराज । उत्तम राज्य | सुराजू : सुराज + कए० । उत्तम राज्य, निष्कण्टक राज्य । 'मोहि दीन्ह सुख सुजसु सुराजू । मा० २.१८०.५ सुराति, ती : उत्तम रात्रि शुक्ल रजनी, चन्द्र-तारक- खचित निशा । मा० १.१५.६ सुरानीक : (१) (सुर + अनीक) देवों की सेना । (२) (सुरा + नीक) अच्छी मदिरा | 'बहुरि क सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ।' मा० १.४.१० 1099. सुरारि, रो: देवशत्रु दैत्य, दानव, असुर, राक्षस । मा० ३.४ छं०; ६.२१.१ सुरालय : सं०पु० (सं० ) । स्वर्ग । कवि० ७.९२ सुरासुर : (सं०) देव तथा दैत्य-दानव । मा० २.१८६.७ सुरीति : उत्तम रीति । दो० २३ सुरुख : (दे० रुख) अनुकूल उत्तम आकार चेष्टाओं वाला । 'सुरुख सुमुखा एकरस एकरूप |' विन० २४६.३ सुरुचि: सं०वि० (सं०) । (१) श्रेष्ठ रुचि । 'सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल ।' मा० १-१४ (२) श्रेष्ठ रुचि (कान्ति) से सम्पन्न । 'सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।' गा० १.१.१ (३) उत्तानपाद की बड़ी रानी = ध्रुव की माता । विन० ८६.५ सुरुष : सुरुख । गी० ७.३४.६ सुरूप : (१) श्रेष्ठ रूप, सौन्दर्यादि । कवि० ७.६८ (२) उत्तम रूप वाला । सुरूपता : सं० स्त्री० (सं० ) । सुन्दरता । गी० ७.६.१ सुरूप : सुरूपु + कए० । उत्तम रूप । मा० २.१२१.७ सुरेख : उत्तम रेखा । गी० ७.१७.८ 1 सुरेश : (सं०) देवों का स्वामी । (१) इन्द्र । (२) परमेश्वर । मा० ६ श्लो० १ सुरेस : सुरेश ( प्रा० ) । इन्द्र | मा० १.१२५.५ सुरेसहि : इन्द्र को । 'देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू ।' मा० २.२१७.७ सुरेसा : सुरेस | मा० १.१०४.३ सुलग : वि० + क्रि०वि० (सं० सुलग्न > प्रा० सुलग्ग ) । विलोम ), समीपस्थ, पास । 'धनु सायक सुलग हैं ।' गी० २.२७.४ For Private and Personal Use Only संलग्न ( अलग का सुलगइ : आ०प्रए० । धुआँ देकर धीरे-धीरे जलती है । 'अव अनल इव सुलगइ छाती ।' मा० १.१६०.७ सुलगन : उत्तम लग्न के उदय का समय । मा० १.३३८ सुलच्छन : वि० (सं० सुलक्षण) । (१) उत्तम लक्षणों वाला वाली । 'सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । मा० १.६७.७ (२) उत्तम लक्षणों को पहचानने वाले, लक्षित Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1100 तुलसी शब्द-कोश करने वाले । 'लाहिं सुलच्छन लोग।' मा० १.७ क-अथवा (३) सं० । उत्तम लक्षण (चिह्न)। सुलच्छनि : सुलच्छन+स्त्री० । श्रेष्ठ लक्षणों वाली। मा० १.६८.७; १३१.६ (पाठान्तर)। सुलभ : वि० (सं०) । सरलता से प्राप्य । मा० ७.३५.३ सुलभु : सुलभ+कए । मा० २.३०४.३ सुलाखि : पूकृ० । (१) (सं० सुलक्ष्य>प्रा. सुलक्लिाअ>अ० सुलक्खिा)। भली भांति लक्षणों से लक्षित कर, खरा-खोटा पहचान कर । (२) (अरबी-सलाखा -खाल खींचन) परखाने के लिए ऊपर की पत्तं खींच कर (सोने को परखाने के लिए ऐसा करते हैं) । 'और भूप परखि सुलाखि तोलि ताइ लेत।' कवि० ७.२४ सुलाभ : श्रेष्ठ उपलब्धि । गी० १.६२.५ सुलाहु : (दे० लाहु) एकमात्र उपलब्धि । 'एक भरत जनमि जग सुलाहु लहा है।' गी० २.६४.४ सुलोचन : सं०+वि० (सं०) । (१) सुन्दर नेत्र । 'चित सुलोचन कोर ।' दो० २३६ (२) सुन्दर नेत्रों वाला । मा० २.२७४.६ सुलोचनि : वि०+संस्त्री० (सं० सुलोचनी)। श्रेष्ठ नेत्रों वाली सन्दरी। मा० २.२५ सव : सुअ । पुत्र । 'पवन-सुव ।' हनु० १ सुवन : (१) सं०पू० (सं० सुवन =सूर्य, चन्द्र, अग्नि)। पुत्र । 'पांडुसुवन ।' दो० ४१६ (२) वि.पु । उत्पादक, प्रसव करने वाला। रा०प्र० १.५.३ पुत्र अर्थ में यह 'सूनु' का रूपान्तर लगता है। सुवा : सुआ । तोता पक्षी । 'सोई सेंबर तेइ सुवा ।' दो० २५६ सुवेश : वि० (सं०)। उत्तम वेषविन्यास (परिधानालंकार) से सम्पन्न । मा० ३.११.७ सुषमा : सं०स्त्रो० (सं.) । सम संघटना की शोभा; योग्य अङ्गसंयोजन वाली सुन्दरता।' मा० २.२३७.५ सुषमाकर : सुन्दरता (सुषमा) की खानि; अति मनोहर । बर० १० सुषेन, ना : सं०० (सं० सुषेण) । वाल्मीकि के अनुसार चिकित्साविशेषज्ञ वानर यूथपविशेष । गोस्वामी जी के अनुसार लड का निवासी वैद्यविशेष । मा० ६.५५; ५५.७ सुसंग : उत्तम सम्पर्क, सज्जनों का संसर्ग, सत्संगति । मा० ४.१५ सुसंगति : सुसंग। मा० १.७.८ सुसंगू : सुसंग+कए । मा० १.७.४ For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शम्द-कोश 1101 सुसम्पति : उत्तम धन-वैभव । मा० ३.४० सुसचिवन : सुसचिव+संब० । योग्य सचिवों (को)। 'सांत सुसचिवन सौंपि सुख बिलसइ नित नरनाहु ।' दो० ५२१ सुसदसि : (दे० सदसि)। उत्तम सभा । 'बैठे अचल सुसदसि बनाई ।' गी० १.१०८.२ सुसम : सुसमय+कए । अप्रतिम अनुकूल समय । 'पाइ सुसम उ सिवा सन भाषा।' मा० १.३५.११ सुसमय : योग्य उत्तम समय, सम्पत्ति-सौभाग्य-काल । 'सुसमय दिन द्वै निसान सब के द्वार बाज।' विन० ८०.३ सुसरित : उत्तम (पवित्र) नदी । मा० २.२४७.७ सुसाई, ई : (दे० साई) । श्रेष्ठ स्वामी । दो० ५३० सुसाखा : उत्तम पुष्ट हरीभरी डाल । मा० २.५.७ सुसाली : (दे० साखी) । उत्तम साक्षी जो योग्य मध्यस्थता करे तथा दोनों पक्षों को मान्य हो । 'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी।' मा० २.२१.८ ससाजी : वि०० (सं० सुसज्जिन्) । सुसज्जित करने वाला । कृ० ६१ सुसाधन : उत्तम साधन+श्रेष्ठ उपाय । 'अवसि होइ सिधि साहस फलइ सुसाधन ।' पा०मं० २० सुसाधित : भूक दि० (सं.)। भली भांति सिद्ध किया हुआ+योग्य रीति से उपाजित तथा सुरक्षित । 'करम जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दाम को।' विन० १५५.३ सुसामध : (दे० सामध) । समधियों उत्तम योग (मिलन या समधोर) । 'पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुखदायक ।' पा०म० ११७ सुसामुझि : (दे० सामुझि)। सद्बुद्धि, शुद्ध-निर्मल बुद्धि, समत्व बुद्धि । 'अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।' मा० १.२१.२ सुसार, रा : सं०स्त्री० (सं० सुसारा=सुस्वादु वस्तु) । (हिन्दी में) दायज में दी जाने वाली सामग्री अन्न, सीधा, पकवान आदि खाद्य सामग्री । 'पठई जनक अनेक सुसारा।' मा० १.३३३.२ सुसालि, ली : (दे० सालि)। उत्तम जाति का धान । :फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मा० २.२६१.४ सुसावधान : भली भाँति सावधान, पूर्णतया एकाग्र । गी० १.६२.१ सुसिख : (दे० सिख ) । उत्तम उपदेश । गी० २.१६.४ सुसिद्धि : उत्तम फल की उपलब्धि । दो० ५३६ सुसीतल : अतिशीतल, अनुकूल लगने वाली शीतलता से युक्त । गी० ७.१२.१ सुसीतलताई : सं०स्त्री० (सं० सुशीतलता) । सुखकर शीतलता । मा० १.३६.६. For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1102 तुलसी शब्द-कोश सुसीतलि : (दे० सीतलि) । सुखकर शीतलता से युक्त । मा० १.१०६.३ सुसील, ला : (१) वि० (सं० सुशोल)। उत्तम शीलयुक्त । मा० ७.२४.३, ६२.२ (२) सं००० । उत्तम शील, सत्स्वभाव । 'समुझि सुमित्रा राम सिय रूपु सुसीलु सुभाउ।' मा० २.७३ सुसीलता : सं०स्त्री० (सं० सुशीलता)। उत्तम स्वभाव सम्पन्न । मा० १.१२७.३ सुसीलु : सुसील+कए० । मा० २७३ सुसुकत : वकृ.पु । रोदन आदि की ध्वनिविशेष करता, सिसकता । 'कछु न कहि सकत, सुसुकत सकुचत ।' कृ० १७ सुसुकि : वकृ० । सिसक कर, रुआंसी कण्ठध्वनि निकालकर । 'सुसुकि सभीत सकुचि रूखे मुख बातें सकल सवारी ।' कृ० ६ सुसुर : उत्तम स्वर । गी० ७.१६.४ सुमेबित : वि० (सं० सुसेवित) । भली भांति सेवा किया हुआ; उत्तम रीति से ___ उपासित (आराधित) । मा० ३.३७.८ सुसेव्य : वि० (सं० सुसेव्य) । श्रेष्ठ आराध्य, पूजनीय । विन ० १७४.३ सुसेल : श्रेष्ठ सेल (नामक आयुध) । कवि० ६.३३ सुसेवक : उत्तम परिचारक । मा० २.२०३.५ सुसेवनि : सुसेवक+संब० । उत्तम सेवकों (को) । मा० १.२४ सुसेवा : उत्तम सेवा । मा० २.३१२.७ सुसेव्यमन्वहं : अन्वहं प्रतिदिन+भली भाँति सेवा योग्य । प्रतिदिन सेवनीय, नित्य उपासनीय । मा० ३.४ छं. सुस्वामि : वि० (सं० सुस्वामिन्) । उत्तम स्वामी । मा० १.२८.४ सुहव : (१) वि० (सं० सुभग>प्रा० सुहव) । सुन्दर। (२) सं० । संगीत में रागविशेष । गी० ७.१६.४ 'सहा सहाइ : (१) आप्रए० (सं० सुखायते=सुखं वेदयते>प्रा० सुहाइ)। सुखकर प्रतीत होता है। (२) (सं० शुभायते>प्रा. सुहाइ)। शोभा देता है। (३) (सं० सुभाति>प्रा० सुहाइ) । रुचता है, अच्छा लगता है । 'सिरनि सिखा सुहाइ ।' गी० १.५३.२ सुहाइ : (१) पूकृ० । सुशोभित होकर, सुखकर प्रतीत होकर । 'तापस बेष बनाइ, पथिक पथें सुहाइ, चले लोक लोचननि सुफल करन हैं।' कवि० २.१७ (२) सुहाई । दीप्त, शोभित, सुरुचिपूर्ण । 'राम कथा कलिमल हरनि मंगल करनि सुहाइ ।' मा० १.१४१ सुहाई : (१) सुहाई+ब० । शोभित हुई। मा० २.६१.१ (२) सुहाई+अधि करण । सुखदायिनी पर । 'गुरहि सुनावं चढ़ाइ सुहाई।' मा० २.२०२.८ For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शम्द-कोश 1103 सुहाई : (१) सहाइ । शोभायुक्त सुरुचिपूर्ण-सुखकर होती है । 'पारस परस कुधात सहाई ।' मा० १.३.९ (२) भक०स्त्री० । सुख करी, शोभाकरी, रुचिकरी। 'फटिक सिला अति सुभ्र सहाई ।' मा० ४.१३.६ सुहाउँगो : आ०भ०० उए० । रुचिकर-सुखकर लगूगा। 'ज्यों साहिबहि सुहाउँगो।' __ गी० ५.३०.१ सुहाएँ : सुहाए' से; सुन्दर-सुख कर से। 'सेवा करेहु सनेह सुहाएं।' मा० २.१७५.८ सुहाए : भूक०पु०ब० । सुख कर, शोभन, उत्तम । 'सुनि बसिष्ट के बचन सुहाए ।' मा० ७.१०.६ सुहागु : सोहागु । मा० २.२१.४ (पाठान्तर) सुहाड़ : सुदृढ़ हड्डी । 'रन रावन राढ़ सुहाड़ गढ़े।' कवि० ६.६ सुहाथ : (१) उत्तम हाथ, दाहना हाथ । (२) स्वहस्त = अपना हाथ । 'सुहाथ ___ माथे राखि राम रजाइ।' गी० ७.२७.५ सुहाये : सुहाए । 'सहज सुहाए नैन ।' गी० १.३५.१ सुहायो : भूक००कए० । सुखकर, सुरुचिपूर्ण, शोभन । गी० ६.४.४ सुहावन : वि०० (सं० सुखापन>प्रा० सुहावण) । सुखदायी। 'बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा।' मा० ७.३.१० सुहावनि, नी : सुहावन+स्त्री० । सुखदायिनी । मा० ७.४.५; ५.३५ छं० २ सुहावनु : सुहावन+कए । एकमात्र सुखप्रद, शुभ । 'सगुन सुहावनु जानु ।' रा०प्र०६.१.३ सुहावने : सुहावन (रूपान्तर) । कवि० ७.१४१ सुहावनो : सुहावन+कए । कवि० ५.१ सुहावा : वि०पू० (सं० सुखापक>प्रा० सुहावअ) सुखद, सुन्दर । मा० ७.५५.१ सुहित : (१) (दे० हित) श्रेष्ठ हितू । (२) वि.पु. (सं०) । तृप्त (जिसे अन्य अपेक्षा न हो) । विन० ७७.२ सुहृद : सं०+वि० (सं० सुहृद्) । (१) शुभ हृदययुक्त । 'पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी।' मा० २.२७.१ (२) मित्र । मा० ५.४८.४ सुहेत : (दे० हेत) उत्तम साधन । कवि० ७.६३ सुहो : सुहव । रागविशेष । 'गावै सुहो गोंड़ मलार ।' गी० ७.१८.५ सूंड : सं०स्त्री० (सं० शुण्ड, शुण्डा)। हाथी की नाक । दो० ३४५ सूकर : सं०० (सं० सूकर=शूकर) । वराह, सुअर । मा० ६.११०.७ अवतार___वर्णन में वराहावतार से तात्पर्य रहता है । सूकरखेत : सं०० (सं० शूकरक्षेत्र) । तीर्थविशेष । मा० १.३० क सूकरी : सूकर+स्त्री० । विन० २५८.३ For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1104 तुलसी शब्द-कोश सूको : भूकृ००कए० (सं० शुष्क:>प्रा० सुक्को)। सूख गया। 'साँसति सागर सूको।' कवि० ७.६० सूख : (१) भूक.पु. (सं० शुष्क>प्रा० सुक्क सुक्ख)। सूख गया, सूखा हुआ (नीरस) । रस रस सूख सरित सर पानी।' मा० ४.१६.५ 'सूख हाड़ ले भाग सठ।' मा० १.१२५ (२) सूखइ । सूखता है, शुष्क हो रहा है। 'कंठ सूख मुख आव न बानी।' मा० २.३५.२ 'सूख, सूखइ : आ०ए० (सं० शुष्यति>प्रा० सुक्खाइ) । सूखता है, शुष्क होता है। सूख रहा है । मा० २.३५.२ सूखत : वकृ०पु० । सूखता, सूखते । 'जनु जलचर गन सूखत पानी ।' मा० २.५१.६ सूखहिं : आ०प्रब० । सूखा रहे हैं । 'सूखहिं अधर जरइ सब अंगू ।' मा० २.४०.१ सूखि : (१) पूकृ० । सूखा (कर)। 'सिअरें बचन सूखि गए कैसें ।' मा० २.७१.८ (२) भूकृस्त्री० । सूख गई । 'सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी ।' मा० २.४४.२ सूखे : भूकृ००ब० । शुष्क हुए । 'सूखे सकुचात सब ।' कवि० ५.२० 'सूच, सूचइ : आ.प्रए० । (१) (सं० सूचयति) । सूचित करता है। (२) (सं० सूच्यते>प्रा० सुच्चइ) । सूचित होता है, प्रकट हो रहा है । 'अन अहिबातु सूत्र जनु भाबी।' मा० २.२५.७ सूचक : वि० सं० (सं.)। सूचनादायक, प्रतीक, चिह्न, लक्षण । 'भरत आगमनु सूचक अहहीं।' मा० २.७.५ सूचत : वकृ.पु । सूचित करता-करते । 'सूचत किरन मनोहर हासा ।' मा० १.१६८.७ सूची : सं० स्त्री० (सं०) । सूई । 'कपट सार सूची सहस ।' दो० ४१० सूच्छम : वि० (सं० सूक्ष्म)। ह्रस्व, अणु । 'अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका ।' विन० १६७.३ सूझ : (१) सूझइ । 'सूझ न एक उ अंग उपाऊ।' मा० १.८.६ (२) भूक०० । सूझा, सूझता था । 'सूझ न आपन हाथ पसारा ।' मा० ६.५२.४ ।। 'सूझ, सूझइ : आ०प्रए० (सं० सुबुध्यते, शुध्यति>प्रा० सुज्झइ) | दिखता है; ज्ञात होता है, शोधपूर्वक जाना जाता है; प्रकट होता है । 'मुनिहि हरिअरइ सूझ ।' मा० १.२७५ 'अगमु न कछु जग तुम्ह कहें मोहि अस सूझइ ।' पा०म० ४५ सूझत : वकृ.पु । दिखता-दिखते । 'सूझत मीचु न माय ।' दो० ४८२ सूझहिं : आप्रब० । सूझते हैं, प्रकाश में आते हैं, दिखते हैं । 'सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।' मा० १.१.८ For Private and Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1105 सूझा : सूझ । (१) सूझता है, जान पड़ता है। 'चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा।' मा० ६.४०.१० (२) दिखाई पड़ा। दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा ।' मा० ३.१०.११ सूझि : सं०स्त्री० । सूझबूझ, समझ । 'आपनि सूझि कहौं ।' कवि० ६.२८ सूझ : सूझइ । 'देखत सुनत समुझतहू न सूझ सोई ।' कवि० ७.१२० सूझ्यौ : भूक००कए । दिखाई पड़ा । 'स्वामि न सूझ्यो नयन बीस मंदिर के से __ मोखे ।' गी० ५.१२.५। सूत : सं०० (सं.)। (१) सारथि । 'दूसरें सूत बिकल तेहि जाना।' मा० ६.४२.८ (२) चारण (ब्राह्मणी में क्षत्रिय से उत्पन्न संकरवर्ण अथवा क्षत्रिया में वैश्य से उत्पन्न) । 'मागध सूत बंदिगन गायक ।' मा० १.१६४.६ (३) (सं० सूत्र>प्रा० सुत्त) । तागा, डोरी। 'मनहुँ भानु मंडलहि संवारत धर्यो सूत बिधि सुत विचित्र मति ।' गी० ७.१७.३ (४) (फा० सूद) लाभ, मूलधन पर मिलने वाला व्याज, व्यवसाय का नफा । सुहृद समाज दगाबाजिही को सौदा सूत ।' विन० २६४.२ (५) भूक०० (सं० सुप्त>प्रा० सुत्त)। सोया हुआ, सोता है । जिमि टिट्टिभ खाग सूत उताना ।' मा० ६.४०.६ सूतत : सूत+वकृपु० । सोता हुआ। 'महामोह निसि सूतत जाग।' मा० ६.५६.७ सूता : सूत । सोया हुआ । 'देखा बाल तहाँ पुनि सूता।' मा० १.२०१.५ सूतिहों : सूत+भ० उए । सोऊंगा । 'प्रसाद राम नाम के पसारि पाय सूतिहौं ।' कवि० ७.६६ सूत्र : सं०० (सं०) । (१) धागा । (२) कटि भूषणविशेष । 'कल किकिनि कटि सूत्र मनोहर ।' मा० १.३२७.४ सूत्रधर : सं०० (सं.)। (१) नाट्य निर्देशक = सूत्रधार । (२) कठपुतली नचाने वाला जो तागा हाथ में पकड़े हुए पुतलियों को विविध गति देता है । 'सारद दारुनारि सम स्वामी । राम सूत्रधर अंतरजामी।' मा० १.१०५.५ सदन : वि० (सं०) । विनाशक, मारने वाला । जैसे, रिपुसूदन । 'तब सुबाहु-सूदन __ जसु सखिन्ह सुनायउ ।' जा०म० ७८ सुधौ : भूकृ.पु०कए । मार डाला । 'ससि समर सूधी राहु ।' गी० १.६७.४ सूद्र : सं०० (सं० शूद्र) । अन्त्यज, वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ वर्ग । मा० ७.६७.१ सूदु : सूद्र+कए । मा० २.१७२.६ सूध : वि०पू० (सं० शुद्ध>प्रा० सुद्ध)। (१) निष्कलुष, अमिश्रित । 'सूध दूध. ___ मुख करिअ न कोहू ।' मा० १.२७७.१ (२) सरल, निश्छल । 'काह करौं सखि सूध सुभाऊ ।' मा० २.२०.८ सूषि : सूधी । 'जोंक सूधि तन कुटिल गति ।' दो० ४०० For Private and Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1106 तुलसी शब्द-कोश सूधियै : सीधी ही, बेलाग, स्पष्ट । 'सूधियं कहत हौं ।' कवि० ७.१६७ सूधी : वि०स्त्री० । सीधी, सरल, भोली, निश्छल । 'तू सूधी करि पाई ।' कृ०८ सूधे : सीधे क्रम में । 'उलटि जपें जारा मरा सूधे राजा राम ।' दो० ३६७ सूधे : वि.पु०ब० । सरल, निष्कपट, सीधे । 'सूधे मन सूधे बचन ।' दो० १५२ सूधो, धौ : सूध+कए। (१) सीधा, यथाक्रम। 'कोउ उलटो कोउ सूधो जपि...।' गी० ५.४०.३ (२) निश्छल, स्पष्ट । 'सूधौ सति भाय कहें मिटति मलीनता।' विन० २६२.४ सून : वि०+सं० (सं० शून्य>प्रा० सुण्ण)। (१) रिक्त (छूछा)। सून बीच दसकंधर देखा।' मा० ३.२८.७ (२) गणित का अभावसूचक चिह्न । 'नाम राम को अंक है, सब साधन हैं सून ।' दो०१० सनु : संपु० (सं०) । पुत्र । 'समीर-सूनु ।' कवि० ५.२८ सन : सूने से, में । 'सूनें हरि आनिहि पर नारी।' मा० ६.३०.६ सने : वि.पु०ब० । शून्य, रिक्त । सूने सकल दसानन पाए ।' मा० १.१८२.७ सूनो : वि०पु०कए । शून्य, रिक्त । 'सूनो सो भवनु भो ।' गी० १.६६.२ सन्य : सं०+ वि० (दे० सून) । 'सून्य भीति पर चित्र ।' विन० १११.२ सूप : (१) सं०पु० (सं०) । दाल । मा० १.३८८ (२) (सं० शूर्प>प्रा० सुप्प) । अन्न पछोरने (स्वच्छ करने) का उपकरण विशेष । 'भरिगे रतन पदारथ सूप हजार हो।' रा०न० १६ सूपकारी : सं०० (सं० सूपकारिन् = सूपकार)। सुआर, भोजन बनाने का व्यवसायी । मा० १.३२८.७ सपनखहि : शूर्पणखा को। मा० ३.२२ सूपनखा : संस्त्री० (सं० शूर्पणखा>प्रा० सुप्पणहा) । एक राक्षसी =रावण की बहन । मा० ३.१७.३ सपनखाहि : शूर्पणखा को। 'पठ्यो सूपनखाहि लखन के पास ।' बर० २८ सूपसास्त्र : (दे० सास्त्र) भोजन बनाने का शास्त्र -पाक विद्या । मा० १.६६.४ सूपोदन : सं०० (सं० सूपोदन) । दाल-भात । 'सूपोदन सुरभी सरपि ।' मा० १.३२८ सूम : सं०+वि० (फ्रा० शूम =मनहूस) । (१) ऐसा व्यक्ति जिसका नाम कहना सुनना अशुभ माना जाता हो। 'कहि सुनि सकुचिअ सूम खल गत हरि संकर नाम ।' दो० ३६१ (२) कन्जूस, कृपण, अनुदार (अरबी-सूम = महँगा बेचना)। 'बाजीगर के सूम ज्यों खल खोह न खातो।' विन० १५१.२ सूर : (१) सं०पु० (सं०) । सूर्य । 'तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु।' दो० ३६७ (२) वि० (सं० शूर>प्रा० सूर)। वीर, योद्धा । मा० ७.७० (३) (सं० सूरि)। विद्वान् । 'जोगी सूर सुतापस ग्यानी।' मा० ७.१२४.६ For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्द-कोश 1107 सुरता : सं०स्त्री० (सं० शूरता) । वीरता । मा० १.२६६.८ सूरति : सं० स्त्री० । (१) (अरबी-सूरत) । आकृति, चित्र । कृ० २८ (२) शोभा । गी० ७.१७.२ (३) सुरति । स्मृति, सुध । 'भई है मगन, नहिं तन की सूरति।' गी० ५.४७.२ सूरनि : सूर+संब० । शूरों (के, को) । सूरनि उछाहु कूर कादर डरत हैं।' कवि० ६.४६ सूरा : सूर । वीर । मा० ६.२८.३ सूरी : सं०पु+वि० (सं० सूरि) । विद्वान् । 'राम कथा गावहिं श्रुति सूरी। - मा० ७.१२६.२ सूरो : सूर+कए० (सं० शूर:>प्रा० सूरो)। सुभट । हनु० ३ सूर्पनखा : सूपनखा । गी० ६.२१.२ सूल : सं०० (सं० शूल >प्रा० सूल)। (१) शस्त्रविशेष । 'सूल कृपान परिध गिरिखंडा।' मा० ६.४०.८ (२) शिव का त्रिशूल जो त्रिताप का प्रतीक है । मा० ७.१०६.१३ (३) क्लेश, दुःखा। 'त्रिबिधि सूलहर ।' कृ० २१ मा० ७.१२४ (४) कसक, मनोव्यथा । 'एक सूल मोहि बिसर न का काऊ।' मा० ७.११०.२ (५) सूला। सूली+कष्ट, व्यथा। 'मिटी मोहमय सूल।' मा० १.२८५ सूलघर : सं०+वि० (सं० शूलघर)। त्रिशूलधारी शिव । कवि० ७.१४६ सूलपानि : सूलधर । हनु० १२-१३ सूलप्रद : कष्टदायक । मा० ३.४४ सूलहर : कष्टहरण करने वाला । कृ० २१ सूला : (१) सूल । (२) सं०स्त्री० (सं० शूला) । सूली, फाँसी, बन्धन, जकड़न । 'हृदयं हरष बीती सब सूला।' मा० ४.४.१ गोस्वामी जी ने कर्मबन्धन तथा तज्जनित व्यथा के लिए इसका अधिकाधिक प्रयोग किया है। 'मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।' मा० ७.१२१.२६ सखला : सं०स्त्री० (सं० शृङ्खला) । लोहपाश, जंजीर । 'तुलसिदास प्रभु मोह सूखला छुटिहि तुम्हारे छोरे ।' विन० ११४.५ संग : सं०० (सं० शृङ्ग)। चोटी, शिखर । मा० ७.१६.५ सगनि, न्ह : सृग+संब० चोटियों (पर)। 'मेरु के सृगनि जन धन बसे ।' मा० ६.४१.१ (२) चोटियों (में) । 'गिरि सृगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ।' मा० ६.८३.६ संगबेरपुर : सं०पू० (शङ्गवेरपुर)। सिंगरौर=गङ्गातट पर स्थित नगर जिसका राजा गुहनामक निषाद था। मा० २.८७.१ For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1108 तुलसी शब्द-कोश संगी : सं०पु० (सं० ऋष्यशृङ्ग) । विभाण्डक ऋषि के पुत्र = कौशल्यापुत्री शान्ता के पति =राम के बहनोई । मा० १.१८६.५ सकाल, ला, सृगाल : सं०पु० (सं० शकाल = शगाल) । सियार । मा० ६.१०२.७; ३०.३; मा० ३.२० छं०१ सृज, सृजइ : आ.प्रए० (सं० सृजति) । रचता है, सर्जन करता है, बनाता है, उत्पन्न करता है । 'तपबल ते जग सृज इ बिधाता।' मा० १.१६३.२ सृजत : वकृ.पु । रचता-ते, सृष्टि करता-ते । मा० ५.२१.५ सजति : वकृस्त्री० । रचती, सृष्टि करती। मा० २.१२६ छं० सृजि : पूक० । सृष्टि करके, बनाकर । “जो सृजि पालइ हरइ बहोरी ।' मा० २.२८२.२ सृजी : भूक स्त्री०ब० । उत्पन्न की। 'कत बिधि सृजी नारि जग माहीं ।' मा० १.१०२.५ सजे : भूकृ००व० । बनाये, उत्पन्न किये, रचे । 'पुरषनि सागर सृजे ।' गी० ५.१२.५ सृजेउ : भूक००कए । बनाया, उत्पन्न किया। 'कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाता।' मा० २.२०१.६ सृज्यो : सृजेउ । 'सृज्यो हौं बिधि बार्य ।' गी० ७.३१.५ सृष्टि : सं० स्त्री० (सं.)। रचना, विश्वरचना, जगत् । 'नाना भांति सृष्टि बिस्तारा।' मा० ७.८०.७ सेंति : अव्यय । बिना मूल्य, बिना प्रयोजन, मुफ्ती । 'कुसाहेब सेंतिहू खारे।' ____कवि ० ७.१२ सेंदर : संपु० (सं० सिंदूर>प्रा० सेंदूर)। सौभाग्यवती के मांग का प्रसाधन चूर्ण विशेष । 'राम सीय सिर संदुर देहीं ।' मा० १.३२५.८ । सेंबर : सं०० (सं० शिम्बल = शाल्मल>प्रा० सेंबल)। वृक्षविशेष जिसका लाल फूल सुन्दर दिखता और फल में-से रूई निकलती है। 'सोई सेंबर तेइ सुवा सेवतः सदा बसंत ।' दो० २५६ से : (१) वि.पु । समान, तुल्य । 'मोहि से सठ पर ममता जाही।' मा० ७.१२३.३ (२) क्रि०वि० । मानों (उत्प्रेक्षा)। 'कूबरी हाँक से लाए।' कृ० ५० (३) सर्वनाम । वे । 'लायक हे भृगुनायक, से धनु सायक सौपि सुभाय सिधाए ।' कवि० १.२२ सेइ : (१) पू० । सेवा करके । 'सीतहि से इ कहहु हित अपना ।' मा० ५.११.२ (२) आ०-आज्ञा-मए । 'सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगतिः थिरताइ।' दो० १४० For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1109 सेहन, ए : आ०कवा०प्रए० (सं० सेव्यते>प्रा० सेवीअइ =सेईअइ)। सेवन या सेवा कीजिए; सेवित किया जाय । 'प्रभु रघुपति तजि से इअ काही ।' मा० ७.१२३.३ सेहअहिं : आ०कवा०प्रब० । सेए जाते हैं (उनकी सेवा की जाती है)। 'सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।' मा० २.७४.५ सेइबे : भकृ.पु० । सेवा करने । 'सांकरे के से इबे सराहिबे सुमिरिबे को ' कवि० ७२२ सेइयहु : आ०-भ+आo-मब० । तुम सेवा करना । 'सिय से इयहु मन मानि ।' गी० ७.३२.३ सेइये : सेइअ । 'सेइए सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो।' कवि० ७.१४१ सेइहहिं : आ०भ० प्रब० । सेएंगे, सेवन करेंगे (भोगेंगे)। 'भरतु बंदिगृह से इहहिं ।' मा० २.१६ सेइहि : आ०भ०प्रए । सेएगा, सेवा करेगा। 'होइ अकाम जो छल तजि सेइहि ।' मा०६.३.३ सेई : भू कृ०स्त्री० (सं० सेविता)। (१) सेवित की। 'जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ।' मा० २.२६४.८ (२) पाली-पोसी । 'भगिनी ज्यों सेई है।' कवि० २.३ (३) सेइ । 'अवधि पारु पावौं जेहि सेई ।' मा० २.३०७.८ सेएँ : सेवित करने (किये-से) । 'तरहिं न बिनु सेएं मम स्वामी ।' मा० ७.१२४.७ सेए : भूकृ०० ब० । सेवा द्वारा तुष्ट किये । 'जौं मैं सिव सेए अस जानी।' मा० १.६०.४ सेएह : आ०-भ+आज्ञा-मब० । तुम सेवा करना । 'सेएहु मातु सकल सम जानी। मा० २.१५२.४ सेज : सं०स्त्री० (सं० शय्या>प्रा० से ज्जा>4. सेज्ज)। पलंग या बिस्तर । मा० २.१४.६ सेत : (१) वि० सं० श्वेत)। उज्ज्वल, गौरवर्ण, सितवर्ण । 'मन मेचक तन सेत ।' विन० १६०.३ (२) सेतृ । 'सेत सागर तरनु भो।' कवि० ६.५६ सेतु : सं०० (सं०) । (१) धारा रोकने हेतु बांध । (२) नदी, समुद्र आदि के आरपार बनाया जाने वाला मार्ग पुल । मा० ६.१ (३) सीमा, मर्यादा (धर्म-संहिता आदि) । 'रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक ।' मा० ७.३५.८ सेतुबंध : सं०० (सं०) । सेतु का किनारा जहाँ ऊँचा ढेर (बांध) बना होता है। मा० ६.४.३ सेतू : सेतु । मा० १.८४.६ सेन : (१) सेना । 'चतुरंगिनी सेन संग लीन्हे ।' मा० ३.३८.१० (२) सं०'० (सं० सैन्य>प्रा० सेन्न)। सेना, सैनिक समूह । 'असुर सेन सम नरक निकदिनि ।' मा० १.३१.६ For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1110 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश सेनप: सं०पु० (सं० सैन्यप) । सेनापति । मा० २.२४२ सेना : सं० [स्त्री० (सं० ) । फोज (गज, रथ, अश्व और पदाति के चार अङ्ग होते हैं) । मा० ४.२२.३ सेनापति : सं०पुं० (सं० ) । सेनानायक, संचालक सेनाधिकारी । मा० ६.३६.५ सेनि, नी : श्रेनी । पङि क्त, समूह । 'हंस-सेनि संकुल ।' गी० ७.४.४ सेनु : सेन + कए । संन्य समुदाय, सैनिक वर्ग । 'एहि बिधि भरतु सेनु सब संगा । " मा० २.१६७.३ सेबरा : सं०पु० (सं० श्वेतपट > प्रा० सेवडा) । श्वेताम्बर जैन ( लक्षणा से ) प्रच्छन्न दुराचारी साधु । 'सुरा सेबरा आदरहिं निदहि सुरसरि बारि ।' दो० ३२६ ( यहाँ 'सेबरा' वामाचारी का तात्पर्य रखता है) । सेबी : ( समासान्त में ) वि०पु० (सं० सेविन्) । सेवाशील; सेवाकारी । 'खग मृग चरन सरोरुह सेबी |' मा० २.५६.३ सेव्य : सेव्य । मा० ५.४७ सेमर : सेंबर । विन० १९७.२ सेवें: सेएँ । सेवा करने से । कवि० ७.१४० सेये : सेए । 'सेये सीताराम नहि ।' दो० ६६ सेर : सं०पु० (सं०) । सोलह छटांक का परिमाण विशेष (जो आजकल के किलोग्राम से कुछ कम होता है ) । 'कहिअ सुमेर कि सेर सम ।' मा० २.२८८ सेल, ला : सं०पु० ( प्रा० ) । आयुधविशेष ( शक्ति, साँग ) । मा० २.१६१.५. 'सनमुख राम सहेउ सोइ सेला ।' मा० ६.६४.२ सेल्ही : सं० स्त्री० । मालाकार गंडा ( जिसे जोगड़े पहनते हैं) । 'ओझरी की झोरी काँधे तन की सेल्ही बाँधे ।' कवि० ६.५० सेव : ( १ ) सेवा | 'जो कर भूसुर सेव ।' मा० ३.३३ ( २ ) सेवइ । 'अधम सो नारि जो सेवन तेही । मा० ३.५.६ 'सेव सेवइ : आ० प्रए० (सं० सेवते > प्रा० सेवइ ) । सेवा करता ती है | 'सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ।' मा० ७.२४.८ सेबउँ : आ०उए० । सेवा करता हूं ( था ) । 'तेहि सेवउँ मैं कपट समेता ।' मा० For Private and Personal Use Only ७.१०५.५ 1 सेवक : वि०पु० (सं०) । (१) परिचारक । ' सेवक सचिव सुमंत्र बोलाए ।' मा० २. ५.१ (२) दास्य भावना का भक्त ( जो जीव का सहज स्वरूप मान्य है ) | 'एहि ते तव सेवक होत मुदा ।' मा० ७.१४.१४ सेवकनि, वह : सेवक + संब० । सेवकों (को, से) 'राम कहा सेवकन्ह बुलाई ।' मा० ७.११.२; मा० २.१८७ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1111 सेवकपाल : सेवकों (भक्तों) के रक्षक । रा०प्र० ५.४.४ सेवकसेव्यमाव : परमेश्वर को सेव्य (आराध्य स्वामी) तथा अपने को सेवक मान कर किया जाने वाला भक्तिभाव; स्वस्वामिभाव सम्बन्ध । मा० ७.११६ रामानुज, मध्य आदि वैष्णव मतों उपासना की यह पद्धति सम्मत है । रामानन्द ने 'कैकर्य' को सर्वोपरि महत्त्व दिया है और वल्लभ तो दास्य को ही मुक्ति मानते हैं क्योंकि जीव का वही सहज स्वरूप है। सेवकहि : सेवक में, को "। 'प्रभुहि सेवकहि समरु कस ।' मा० १.२८१ को साहेबु सेवकहि नेवाजी..।' मा० २.२६६.५ सेवकाई : सेवकाई में, सेवक भाव से । सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई।' मा० २.६.८ सेवकाई : सं०स्त्री० । सेवक भाव, सेवा कर्म । मा० ७.१६.४ सेवकिनी : सेवक+स्त्री० (सं० सेविका) । परिचारिका । मा० ७.२४.५ सेवको : सेवकिनी । पा०म०/० १५ सेवक : सेवक+कए । 'सेवकु लहइ स्वामि सेवकाई ।' मा० २.६.८ सेवत : वकृ० । सेवा करता-ते । “पद पंकज से वत सुद्ध हिएँ ।' मा० ७.१४.५ सेवा ___ करते हुए को। 'सेवत सुलभ सुखद सब काहू ।' मा० १.३२.११ सेवति : वक०स्त्री० । सेवा करती। मा० ७.२४.४ सेवहिं : (१) आप्रब० । सेवा करते हैं, उपासते हैं । 'सेवहिं सानुकल सब भाई ।' मा० ७.२५.१ (२) सेवा करेंगे। 'सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही।' मा० १.१३१.४ मेवहि : आ०मए० । तू सेवा कर । 'महेसहि सेवहि ।' पामं० २४ सेवह : आ०मब० । सेवा करो। 'सेवहु जाइ कृपा आगारा।' मा० ७.१६६ सेवा : (१) सेवा में। 'पुनि तें मम सेवा मन दयऊ ।' मा० ७.१०६.६ (२) सेवा से । 'तोषे राम सखा की सेवा ।' मा० २.२२१.३ सेवा : (१) भूक०० (सं० सेवित>प्रा० सेविअ) । सेवन किया। 'साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ।' मा० २.१५०.४ (२) सं०स्त्री० (सं.)। उपासना । 'करहि रघुनायक सेवा ।' मा० १.३४.७ (३) परिचर्या । 'करइ सदा नप सब के सेवा ।' मा० १.५५.४ (४) नवधा भक्ति में मूर्ति की सपर्या ।' मा० ७.१६.८ सेवार : सं०पू० (सं० शैवाल>प्रा० सेवाल)। जलाशय में फैलने वाला तृण विशेष । मा० १.३८.४ सेवित : भूकृ०वि० (सं.)। सेवा किया हुआ, पूजित, परिचरित । मा० ६.१११.२१ सेवौं : सेवउँ । (१) सेवा करता हूं। 'देवसरि सेवौं ।' कवि० ७.१६५ (२) सेवा करूं । 'सेवौं अवध अवधि भरि जाई ।' मा० २.३१३.८ For Private and Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1112 तुलसी शब्द-कोश सेव्य : वि० (सं० ) । आराध्य, उपास्य । सेवा का आलम्बन । मा० ७ श्लोक १ सेव्यमान: वकृ०पु० (सं०) कवा ० | सेवा किये जाते हुए । मा० ७ श्लोक १ सेष, षा: सं०पु० (सं० शेष) । (१) ( सर्पराज, शेषनाग | मा० १.४.८ (२) शेषावतार लक्ष्मण । नाना विधि प्रहार कर सेषा ।' मा० ६.५४.५ (३) बचा हुआ अंश । सेषु : सेष + कए० । शेषनाग । 'कहि सकइ न सेषु ।' मा० २.२२५ सेस : सेष । मा० १.१२ सेसू : सेस + कए० । 'सकल धरम धरनी धर सेसू ।' मा० २.३०५.२ सैं : सन | से, प्रति । 'कहेहु दंडवत प्रभु सैं ।' मा० ७.१६ I संतति : वकृ० स्त्री० (सं० समेतयन्ती ) । समटती, बटोरती । 'लेति भरि भरि अंक संतति पैंत जनु दुहुं करनि ।' गी० १.२८.४ से: सय । सो 'संवत सोरह से एकतीसा । मा० १.३४.४ 1 सेन : (१) सेन (सं० सैन्य ) । सेना । 'अनुज सँभारेहु सँन ।' मा० ६.६७ (२) सं० [स्त्री० (सं० संज्ञा > प्रा० सन्ना ) । संकेत, इङ्गित, आंखों से संकेत, इशारा । 'बरजति संन नैन के कोए । कृ० ११ सैनु : सैन + कए० । सेना । 'हारि निसाचर सैनु पचा ।' कवि० ६.१५ सैबल : सेवार (सं० शेवल ) । गी० ७.१७.६ सैल : सं०पु० (सं० शैल > प्रा० सइल ) । शिला समूह = पर्वत । मा० १.१ सैलकुमारी : पार्वती । मा० १.७८.२ सैलजहि : शैलजा = पार्वती को । 'जाइ बिबाहहु संलजहि ।' मा० १.७६ सैनंदिन : पार्वती । गी० १.५.६ संलराज : पर्वतराज हिमालय । मा० १.६६.६ सैला : सैल । 'भागों तुरत तजौं यह सैला ।' मा० ४.१.५ सैल : सैल + कए | पर्वत । मा० १.२६२.८ संलोपरि : पर्वत के ऊपर । मा० ७.५६.१० संसव : सं०पु० (सं० शैशव ) । आठ वर्ष तक की बाल्यावस्था । विन० १३६.६ सों : अव्यय (सं० सह> अ० सहुं) । से ( परसर्ग ) । ' सो माया प्रभु सो भय भाखे । मा० १.२००.४ सोंधी : वि०स्त्री० (सं० सुगन्धि प्रा० सुअंधी ) । अच्छी- भली । ' जो चितवनि सोंधी लगे, चितइए सबेरे ।' विन० २७३.३ सोंधे : वि०पु० (सं० सुगन्धित > प्रा० सुअंधिय ) । सुगन्धयुक्त । 'खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई है ।' कवि० ७.७४ For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1113 सो : (१) सर्वनाम पु०कए० । (सं० स:>प्रा० सो) । वह । 'सो जानब सतसंग प्रभाऊ ।' मा० १.३.६ (२) वि.पु.कए० (सं० सहक>प्रा. सरि=सउ) । सदृश । 'राम-सो प्रभु को कृपा निकेतु ।' मा० २.२३२ (३) मानों (उत्प्रेक्षा)। 'सुसकि सभीत सांच सो रोए ।' कृ० ११ सोआइहौं : आ०भ०ए० (सं० स्वापयिष्यामि>प्रा० सोआविहिमि>अ० ____सोआविहिउँ) । सलाऊँगा-गी। गी० १.२१.१ सोइ : (१) पूक० (सं० सुप्त्वा>प्रा० सोविअ>अ० सोवि) । सो, सोकर । 'जागत रहै जु सोइ।' दो० ४८६ ‘सबरी सोइ उठी। गी० ३.१७.१ (२) सर्वनाम (सं० सएब>अ० सोजि) । वही । 'सोइ फल सिधि सब साधन फूला।' मा० १.३.८ सोइए, ऐ, ये : आ०भावा० । नींद लीजिए, सोया जाय । 'जागिए न सोइए।' कवि० ७.८३ सोइबो : भक.पु.कए । सोना, नींद लेना (हो, चाहिए)। 'जब सोइबो तात यों होकहिं, नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई ।' कृ० १३ सोइहै : आ०मए० (सं. स्वप्स्यसि>प्रा० सोविहिहि) । तू सोएगा । 'तू यहि बिधि सुखा सयन सोइहै ।' विन० २२४.४ सोई : भूकृ०स्त्री०ब० । सो गई, निद्रालीन हुई। 'सुदर बधुन्ह सासु लै सोई।' मा० १.३५८.४ सोई : (१) सोइ । वहीं । 'जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई ।' मा० २.४६.८ (२) (सं० सोपि>प्रा० सोइ) । वह भी। 'तौ कहि प्रगट जनावहु . सोई।' मा० २.५०.६ (३) पूक० । सोकर, सो। 'परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई ।' मा० १.१७१.४ (४) भूक स्त्री० (सं० सुप्ता>प्रा० सोविआ)। सो गई, निद्रालीन हुई। सोउ : सर्वनाम (सं० सोपि>प्रा० सोवि) । वह भी। मा० ७.२२.४ 'राम नाम बिनु सोह न सोऊ ।' मा० १.१०.३ सोएं : सो जाने पर, निद्रावस्था में। 'बैठे उठे जागत बागत सोएं सपनें ।' कवि० ७.७८ सोए : भूक० पु०ब० । निद्रालीन हुए । लेटे। 'ते सिय रामु साथरी सोए।' मा० २.६१.३ सोक, का : सं०० (सं० शोक) । अनिष्ट प्राप्ति या इष्ट हानि से हुई मनोव्यथा । मा० २.५०.१ 'फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका । मा० ३.२.४ सोकप्रद : वि० । शोकदायक । मा० १.२३८.२ For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1114 तुलसी शब्द-कोश सोकु, कू : सोक+कए० । अनन्य शोक । 'अब अपलोकु सोकु सुत तोरा ।' मा० ६.६१.१३; २.८१.४ सोखि : सोषि । सुखाकर । गी० ५.१४.२ सोखिबे : भक०० । सुखाने, शुष्क करने । 'सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिमभानु भो।' हनु० ११ सोखे : भूकृ००० (सं० शुष्क>प्रा० सुक्या = सोक्ष-सं० शोषित>प्रा० सोसिय) । सुखा डाले। 'राम के प्रताप रबि सोच सर सोखे हैं।' गी० सोखेउ : सोषेउ । 'कौतुक सागर सोखेउ ।' बर० ५५ सोख्यो : सोखेउ । सुखा डाला । विन० २४७.३ सोग : सोक (प्रा०) । 'लोग सोग श्रब बस गए सोई।' मा० २.८५.६ सोच : (१) सोचइ । सोचता है, शोक करता है । 'सचिव सोच तेहि भांति ।' मा० २.४४ (२) सं०० (सं० शोच्य>प्रा० सोच्च) । चिन्ता । 'नारद चले सोच मन माहीं ।' मा० १.१३१.६ (३) शोक । 'सोच बिकल बिबरन महि परेऊ।' मा० २.३८.७ (४) खुटका, कसक । 'नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ।' मा० १.२५.८ 'सोच, सोचइ : आ.प्रए० (सं० शोचति, शुच्यति>प्रा० सोच्चइ)। चिन्ता करता है, शोक करता है, सोचता है। जो सोचइ ससिकल हि सो सोचइ रोरेहि।' पा०म० ५५ सोचत : वकृ.पु । सोचता-ते । मा० ७.१६.४ . सोचति : वक स्त्री० । सोचती, शोक या चिन्ता करती। 'बैठि नमित मुख सोचति सीता।' मा० २.५८.२ सोचन : भकृ० अव्यय । सोचने, चिन्ता (शोक) करने । 'तनु धरि सोच लाग जनु सोचन ।' मा० २.२६.७ सोचनीय : वि० (सं० शोचनीय)। सोचने योग्य, शोकालम्बन ; शोच्य । मा० २.१७३.५-६ सोचहि, ही : (१) आप्रब० । शोक या चिन्ता करते हैं। 'समुझि काम सुख सोचहिं भोगी।' मा० १.८७.८ 'सकल अबला सोचहीं।' मा० १.६७ छं० (२) ध्यान करते हैं । इंद्रिय रूपरासि सोचहिं सुठि ।' कृ. २६ सोचहि : आ०मए । तू शोक (या चिन्ता) कर। 'अस बिचारि सोचहि जनि माता।' मा० २ ६७.६ सोचहु : आ०मब० । (१) सोचते हो, शोक मनाते या चिन्ता करते हो । 'जासु बिरह सोचहु दिन राती ।' मा० ७.२.३ (२) सोचो । 'सो सोचहु मन माहीं।' कृ० ३३ For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1115 सोचा : सोच । 'सुनि न भगिरा सती उर सोचा।' मा० १.५७.६ सोचाई : भूकृ०स्त्री० । सोचवाई, बिचरवाई । 'सुदिनु सुनखतु सुछरी सोचाई।' मा० १.६१.४ सोचिअ : आ०कवा०प्रए० । सोचिए, सोचा जाता है, सोचा जाय । मा० २.१७२-७३ सोचिए : सोचिअ । गी० ७.३२.१ सोचिहैं : आ०भ०प्रब । सोचेंगे, शोक करेंगे, चिन्तित होंगे। जिन्हहि बिलोकि सोचिहैं लता द्रुम ।' गी० ६.१८.३ सोची : भूकृ०स्त्री० । सोच में पड़ गई । 'प्रभु गति देखि सभा सब सोची।' मा० २.२७०.३ सोचु, चू : (१) सोच+कए० । कोई चिन्ता । 'पूत बिदेस न सोच तुम्हारें।' मा० २.१४.५ (२) एकमात्र सोच (चिन्ता) । सो सुनि भयउ भूप उर सोचू ।' ___ मा० २.४०.८ सोचें : सोचहिं । 'सोचें सब या के अघ कैसे प्रभु छमिहैं ।' कवि० ७.७१ सोचे : (१) सोचइ । (२) सोचहि । 'तू सोचकर। 'सोचे जनि मन माहूं।' विन० २७५.३ (३) भकृ० अव्यय । सोचने । 'तात राउ नहिं सोच जोग ।' मा० २.१६१.२ सोध : सं०० (सं० शोध)। (१) खोज । (२) शुद्धीकरण, संशोधन । 'खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध ।' दो० २७४ । सोधक : वि० (सं० शोधक)। शोध करने वाला खोजने वाला+ शुद्ध करने ___ वाला । 'साधु सोधक अपान को ।' गी० १.८८.३ सोधत : वकृ०० । (१) खोजते । (२) संशोधन करते। ‘सोधत मख महि जनकपुर ।' रा०प्र० ४.४.५ ।। सोषा : भूक पु० । शोधन किया, खोजा, अनुसंधान किया। 'तात धरम मतु : म्ह सब सोधा । मा० २.६५.२ सोधाइ : पू० । शोध करवाकर, बिचरवाकर । 'सुदिन सोधाइ रिषि चले ।' पा०म०/० १० सोधाए : भूकृ००। शोध करवाए, बिचरवाये । 'नृप सुदिन सोधाए ।' गी० १.६.१ सोघि : (१) प्रकृ० । खोजकर, विचार करके । 'सोधि सुगम मग तिन्ह कहि दीन्हा ।' मा० २.११८.८ (२) बिचरवा कर या विचार कर । 'सुदिन सोधि सबु साजि सजाई ।' मा० २.३१ ८ (३) (धातु आदि) । शुद्ध करके । कवि० ५ २५ सोधिय : आ०कवा०प्रए । सोधिए, विचारिए, खोजिए। 'सोधिय सुदिन सयानी।' कृ०४६ For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1116 तुलसी शब्द-कोश सोधु : सोध+कए । खोज, जानकारी, हालचाल । 'भरत सोध सबही कर लीन्हा ।' मा० २.१९८.१ सोधेउँ : आ०-भूकृ.पु०+ उए । मैंने खोजा, शोध किया और विचारा । 'सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।' मा० २.२१२.२ सोधे : आ०प्रब० । खोजते हैं । 'लिये छरी बेंत सोधें बिभाग ।' पी० ७.२२.५ सोध्यो : (१) भूक००कए । खोजा, खोजा हुआ। (२) शुद्ध किया हुआ । 'सोध्यो राम पानि पाक हौं।' हनु० ४० सोन : (१) सं०+वि० (सं० सुवर्ण>प्रा. सोग्ण)। काञ्चन । 'सोन सुगंध सुधा ससि सारू ।' मा० २.२८८.१ (२) (सं० शोण)। नदविशेष। 'मिलेउ महानदु सोन सुहावन ।' मा० १.४०.२ (३) रक्तवर्ण, लाल । 'सुभग सोन सरसीरुह लोचन ।' मा० १.२१६.६ सोना : सोन । (१) काञ्चन । 'चले रंक जनु लूटन सोना ।' मा० २.१३५.२ (२) लाल । 'मनहुँ साँझ सरसोरुह सोना ।' मा० १.३५८.१ सोनित : सं०० (सं० शोणित) । रुधिर, खून । मा० ६.३३ सोने : सुवर्ण ने । 'इन्ह तें लही दुति मरकत सोने ।' मा० २.११६.८ सोनो : सोना+कए । सुवर्ण । 'गोरे को बरन देखें सोनो न सलोनो लागे । कवि० २.१६ सोपान : (१) सं०० (सं.)। सीढ़ी (घाट का जीना)। 'सोपान सुंदर नीर निमल ।' मा० ७.२९ छं. 'जनु सुरपुर सोपान सुहाई ।' मा० २.१७०.४ (२) ग्रन्थ का अध्याय (रामचरित मानस में-जो मानस सरोवर के रूपक के आधार पर है।) सोपाना : (१) सोपान । 'सलिल सुधा सम मनि सोपाना ।' मा० १.२१२.६ (२) काण्ड (ग्रन्थ के अध्याय) । 'एहि महँ रुधिर सप्त सोपाना ।' मा० ७.१२६.३ सोपि : (सं० सोपि=स:+अपि)। वह भी। 'समुझे मिथ्या सोपि ।' मा० ७ ७१ सोम : सोभा । जा०म०६५ सोमत : वकृ० । सुशोभित होता। 'सोभत भयउ मराल इव संभ सहित ___ कैलास ।' मा० ६.२२ सोभति : वकृ० स्त्री० । सुशोभित होती। 'राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि ।' मा० ७.११ सोमा : सं०स्त्री० (सं० शोभा) । चारुता, सुन्दरता, दीप्ति । मा० १.११ सोमाकर : वि० (सं० शोभाकर)। (१) शोमा का आकार, सौंदर्य खानि, सुन्दरता की राशि । (२) सौन्दर्य की सृष्टि करने वाला। (३) सौन्दर्य विकीर्ण करने वाला । (४) सौन्दर्य रूपी किरणों वाला । 'अनुपम अज अनादि सोभाकर ।' मा० ७.३४.४ For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1117 सोमामई : वि०स्त्री० (सं० शोभमयी)। (१) शोभा से रचित । (२) शोभा समूह । (३) शोभाबहुल । मा० १.३२५ छं० २ सोमामय : वि.पु. (सं० शोभामय) । शोभा सम्पन्न, दीप्ति पुञ्ज, आभाओं से रचित । गी० १.५.१ सोमित : भूकृ०वि० (सं० शोभित) । शोभायुक्त । मा० ३.२० ख सोभिह : आ०भ०प्रब० । सुशोभित होंगे । गी० ५.५०.४ सोम : (१) सं०० (सं.)। चन्द्रमा । मा० ३.४२ (२) यज्ञोपयोगी लताविशेष तथा उससे बना पेयविशेष-दे० सोमजाजी। सोमजाजी : वि.पु. (सं० सोमयाजी सोमेन इष्टवान ) । जिसने सोमयज्ञ किया हो (सोमलता के सन्धान से भजन विशेष सम्पादन किया हो)। 'कोन धों सोमजाजी अजामिल अधम ।' विन० १०६.३ सोमु : सोम+कए । चन्द्रमा । कवि० १.६ सोयो : भूक००कए । सोया, विश्राम लिया। 'कबहुं न नाथ नीद भरि सोयो । विन० २४५.४ सोर : सं०पु० (फा० शोर) । कोलाहल । सोरठ : सं०० (सं० सौराष्ट्र>० सोरटु) । संगीत में रागविशेष । 'शारंग गुंड मलार सोरठ ।' गी० ७.१६.४ सोरठा : सं०० (सोरठ) । एक छन्द जिसके प्रथम-तृतीय चरणों में ११.११ और द्वितीय-चतुर्थ में १३-१३ मात्राएं होती हैं (जो दोहे का उल्टा होता है)। संभव है, इस सोरठ राग से सम्बन्ध रहा है। 'छंद सोरठा सुदर दोहा ।' मा० १.३७.५ सोरह : षोडस (प्रा० सोलह) । मा० ५.२.८ सोरा : सोर । कोलाहल । 'रिपुदल बधिर भयउ सुनि सोरा।' मा० ६.६८.२ सोरु, रू : सोर+कए । कोलाहल । मा० २.१५३ 'गे रघुनाय भयउ अति सोरू ।' मा० २.८६.१ 'सोव सोवइ : आ०ए० (सं० स्वपिति>प्रा. सोवइ)। सोता है, सो सके, सोए । 'सो किमि सोव सोच अधिकाई।' मा० १.१७०.२ 'करइ पान सोवइ षटमासा।' मा० १.१८०.४ सोवत : (१) वकृ०० । सोता-ते; सोता हुआ-सोते हुए । 'उठे लखनु प्रभु सोवत जानी।' मा० २.६०.१ (२) सोते-सोते, सोते से । 'मनहुं बीर रस सोवत जागा।' मा० २.२३०.१ सोवतहि : सोते-सोते ही। 'पहुंचेहउँ सोवतहि निकेता।' मा० १.१६६.८ सोवन : भकृ० अव्यय । सोने (हेतु) । 'कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ।' मा० २.६०.१ For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1118 तुलसी शब्द-कोश सोवनिहारा : वि.पु. । सोने वाला, निद्राशील, सोता रहने वाला। 'मोह निसा सब सोवनिहारा ।' मा० २.६३.२ । सोवसि : आ०मए० (सं० स्वपिषि>प्रा० सोवसि) । तू सोता है, सोता रहता है । 'करसि पान सोवसि दिन राती।' मा० ३.२१.७ सोहि : आ०प्रब० । सो रहे हैं (महानिद्रा ले रहे है)। 'संग्राम अंगन सुभट सोवहिं।' मा० ६.८८ छं० सोवहिगो : आ०भ००मए० । तू सोयेगा। 'सोवहिगो रन भूमि सुहायो ।' गी० सोवहं : आ०--कामना-प्रब० । सोएँ, सो जाय। 'सोवहुं समर सेज दोउ भाई।' मा० २.२३०.४ सोवहु : आ०प्रब० । सोवो, शयन करो। 'पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता।' मा० १.२२६.८ सोवा : (१) भूकृ०० । सोया, निद्रित हुआ। 'राम बिमुख सुख कबहुं न सोवा।' मा० ७.६६.६ (२) सोवइ । सो रहा है (महानिद्रालीन पड़ा है)। 'प्रगट सो तनु तव आगें सोवा ।' मा० ४.११.५ सोव : सोवइ । सो रहा हो । 'सोवै सो जगावो। कवि० ५.६ सोष, सोषइ : आ०प्रए० (सं० शोषयति>प्रा० सोसइ)। सोखता है, सुखाता है, नीरस करता है । 'अनहित सोनित सोष ।' दो० ४०० 'जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।' मा० ४.१६.३ सोषक : वि० (सं० शोषक) । (१) सोखने वाला, सुखाने की शक्ति से सम्पन्न । 'कोटि सिंधु सोषक तव सायक।' मा० ५.५०.७ (२) क्षयकरक । 'ससि पोषक सोषक...।' मा० १.७ ख सोषत : वकृ०पु० । सुखाता (है) । 'बड़वानल सोषत उदधि ।' दो० ३७४ सोषनहारु : वि०पु०कए० । सोखने वाला, चूसने वाला । 'सो हित सोषनहारु ।' दो० ४०० सोहि : आ०प्रब० । सुखाते हैं, सुखा सकते हैं । 'सोहिं सिंधु सहित झष ब्याला।' मा० ५.५५.६ सोषा : (१) भूकृ०पु । सोख लिया, सुखा डाला। 'सायक एक नाभि सर सोषा।' मा० ६.१०३.१ (२) सुखा डाला गया। 'उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।' मा० ४.१६.३ सोषि : पूकृ० । सुखा (कर) । 'सक सर एक सोषि सत सागर ।' मा० ५.५६.२ सोषिअ, य : आ ०कवा०प्रए० (सं० शोष्यते>प्रा० सोसीअइ)। सुखा डालिए, सुखाया जाय । 'सोषिअ सिंधु करिअ मन रोपा।' मा० ५.५१.३ For Private and Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1119 सोषिहैं : आ०भ० प्रब० । सोख लेंगे, सुखा डालेंगे। 'राघो बान एकहीं समुद्र सातौ सोषिहैं।' कवि० ६.२ सोपेउ : भूक०पु०कए । सुखा डाला। 'सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ।' मा० ६.१.२ सौर्षों : आ० उए । सुखा डालू, सोख लू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ।' मा० ५.५८.१ सोसि : (सं० सोसिसः असि) । तू वह है। 'जोसि सोसि तव चरन नमामी।' मा० १.१६१.५ सोसु : (समासान्त में) वि०पु०कए० (सं० शोषः, शोषम् >प्रा० सोसो, सोसं> अ० शोसु) । सोषक, सुखा डालने वाला । 'नाम कुंभज सोच-सागर-सोस् ।' विन० १५६.४ 'सोह, सोहइ, ई : आ०प्रए० (सं० शोभते>प्रा० सोहइ)। सुशोभित होता है, शोभा पाता है । 'सोह न राम पेम बिन ग्यान् ।' मा० २.२७७.५ 'ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ।' मा० ६.६६.२ 'मध्य दिवस जनु ससि सोहई ।' मा० ६.३५.४ सोहत : वकृ०० । सुशोभित होता-होते । मा० २.१४१ सोहति : वकृ०स्त्री० । सुशोभित होती। 'उभय बीच सिय सोहति कैसें ।' मा० २.१२३.२ सोहमस्मि : यह वैदिक महावाव्य है जिसकी अद्वैतपरक व्याख्या है :-स:=ब्रह्म, अहम् = जीव, अस्मि = हूं=में ब्रह्म हूं । अर्थात् जीव ब्रह्म ही है। विशिष्टा द्वैत की व्याख्या कुछ भिन्न है :-जीव अंश होने से अंशी ब्रह्म का अङ्गरूप है अत: वह ब्रह्म से अभिन्न है-पृथक् उसकी सत्ता ही नहीं। जीव जब इसी प्रतीति को सिद्ध कर लेता है तो चित्तवत्ति अखण्ड (अविच्छिन्न) रूप में एकाकारता (अखण्डरूपता) अनुभव करती है। यही अखण्डवृत्ति है । 'सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा।' मा० ७.११८.१ सोहर : शोर (?)। कोलाहल । 'लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहार । भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ।' पा.मं० १११ (यहाँ 'शोहरा' या _ 'शोहरत' से तात्पर्य है जिसका ‘ख्याति' अर्थ होता है)। सोहहि, हीं : आ.प्रब० (अ०) । सुशोभित होते हैं । मा० ६.६५.७, ७.२६ छं० सोहा : (१) भूकृ०० (सं० शोभित >प्रा० सोहिअ)। सुशोभित हुआ। मा० __७.५६.१० (२) सोहइ । 'राम नाम बिन गिरा न सोहा ।' मा० ५.२३.३ सोहाइ, ई : (१) सुहाई । रुचता है, रुचता हो । 'नीति बिरोध सोहाइ न मोही।' मा० ७.१०७.३ 'सुन हु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।' मा० ७.४३.४ (२) सोहइ । 'चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।' बर० १२ For Private and Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1120 तुलसी शब्द-कोश सोहाए : सुहाए। शोभा सम्पन्न । 'बाल दसा के चिकुर सोहाए।' गी० १.२६.५ सोहाग : सं०० (सं० सौभाग्य>प्रा० सोहग्ग)। (१) सधवात्व, पतिपत्नी भाव । 'रहिअहु भरी सोहाग ।' मा० २.२४६ (२) पति-प्रणय; स्वाधीन पति का होने का गर्व । 'तुम्हहि न सोच सोहाग बल ।' मा० २.१७ सोहागिनि : सं०+वि. स्त्री. (सं० सौभाग्यिनी>प्रा० सोहग्गिणी) । सौभाग्यवती (दे० सोहाग)। सधवा+पतिप्रेमिका । 'सदा सोहागिनि होहु तुम्ह ।' मा० २.११७ सोहागिल : वि० (सं० सौभाग्यवत् >प्रा० सोहग्गिल्ल) सौभाग्ययक्त । 'स्वामि ___ सोहागिल भाग बड़। रा०प्र० ५.४.५ (यहाँ सौन्दर्यसम्पन्न का तात्पर्य है)। सोहागु : सोहाग+कए । 'सुख सोहाग तुम्ह कहुं दिन दूना ।' मा० २.२१.४ सोहात : वकृ.पुं० सुहात । रुचता-ते । 'तुम्ह तजि तात सोहात गृह"..।' मा० २.२६० सोहाति, ती : (१) वकृ.स्त्री० । रुचती । जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।' मा० ७.५३.६ (२) रुचती हुई । 'बानी सबिनय तासु सोहाती।' मा० २.३१.४ (३) क्रियाति०स्त्री०ए० । तो क्या रुचती। 'केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।' मा० २.८८.७ सोहाते : क्रियाति०'०ब० । यदि रुचते। राम सोहाते तोहि तो तू सबहि सोहातो।' विन० १५१.४ सोहातो : क्रियाति० पु०ए० । तो रुचता । तो तू सबहि सोहातो।' विन० १५१.४ सोहान, ना : भूकृ.पु० । रुचा, अच्छा लगा। 'नहिं नारदहि सोहान ।' मा० १.१२७ 'मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।' मा० २.४०.७ सोहानि, नी : भूकृ०स्त्री० । रुची, अच्छी लगी। 'सिख... सीतहि न सोहानि ।' मा० २.७८ 'एक बात नहिं मोहि सोहानी ।' मा० १.११४.७ सोहाने : भूकृ००ब० । रुचे, अच्छे लगे। तासु बचन अति सियहि सोहाने ।' मा० १.२२६.७ सोहाये : सोहाए। सोहायो : भूक ००कए । सुशोभित हुआ । गी० १.६.१६ सोहावन : वि.पुं० (सं० शोभन>प्रा० सोहावण)। शोभा बिखेरने वाला, मनोरम । रा०न० २ सोहावनि : वि०स्त्री० । शोभा बिखेरने वाली, मनोरम। गी० २.४६.१ सोहावने : सोहावन+ब० । सुन्दर । गी० १.५.१ सोहावनो : सोहावन+कए । 'सदन सदन सोहिलो सोहावनो।' गी० १.३.१ For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1121 सोहाहि, हीं : आ०प्रब०। (१) रुचते हैं, रुचती हैं। 'जाहि न रघुपति कथा सोहाहीं।' मा० ७.५३.५ (२) शोभित होते हैं । 'मंगल सकल सोहाहिं न कैसें ।' मा० २.३७.७ सोहिले : सं०+वि०० (सं० शोभावत् >प्रा० सोहिल्ल) । (१) सुन्दर, शोभा सम्पन्न, माङ्गलिक (२) मङ्गल गीत, जन्मोत्सव गीत (सोहर)। 'भयो सोहिलो सोहिले भो जन सृष्टि सोहिले सानी।' गी० १.४.७ सोहिलो : सं०+वि.पु.कए । सोहर गीत, बधाई गीत । गी० १.२.१-४ सोहिहै : आ०म०प्रए। सुशोभित होगा, फबेगा। 'को सोहिहै और को लायक ।' गी० १.७०.८ सोही : सोही+ब० । सुशोभित हुई। मा० २.१२१.१ सोही : भूक०स्त्री० । सुशोभित हुई। 'प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।' मा० सोहे : भूकृपु०व० (सं० शोभित>प्रा० सोहिय) । सुशोभित हुए । 'रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे ।' मा० १.१६६.३ सोहैं : सोहहिं । 'लीन्हें जयमाल कर कंज सोहैं जानकी के ।' कवि० १.१३ सोहै : सोहइ । (१) शोभा दे रहा है । 'आगें सोहै सांवरो कुवँरु ।' कवि० २.१५ (२) शोभा पा सकता है । 'दीप सहाय कि दिनकर सोहै ।' मा० २.२८५.५ (३) रुचता है, रुचे । 'कौन कृपालुहि सोहै ।' विन० २३०.२ सौं : सौह । 'सुनु मैया तेरी सौं करौं ।' कृ०८ सौंघाई : सं०स्त्री. (सं० समर्घता)। बाजार भाव की मन्दी (महंगाई का विलोम)। "एक कहहिं ऐसिहु सौंधाई । सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ।' मा० ६.८८.३ (यहाँ वस्तु की प्रचुरता का भी तात्पर्य है)। सौंधे : वि०पू०ब० (सं० समर्घ>प्रा० समग्घ>अ० सर्वग्घ) । सस्ते, मन्दे, अल्प मूल्य से प्राप्य । 'महंगे मनि कंचन किए सोंघे जग जल नाज ।' दो० १४६ सौंज : सं०स्त्री० । घरेलू सामग्री (बर्तन-भाडे आदि) । 'एक कर धौंज, एक कहैं काढ़ी सौंज।' कवि० ५.१८ सौंपि : समपि (अ० सर्वधि) । समाति कर । मा० ६.६ सौंपिए, ये : आ०कवा०ए०। सौंपा जाय, दीजिए । 'यह अधिकार सौंपिये औरहि ।' विन० ५.४ सौंपी : भूकृ स्त्री० । समर्पित की, भार संभालने की व्यवस्था दी। ‘सौंपी सकल मातु सेवकाई ।' मा० २.३२३.२ सौंपु : आo-आज्ञा-मए० (सं० समर्पय>प्रा० समप्प>अ० सर्वप्पु) । तू समर्पित कर दे । 'अजहुँ एहि भांति ले सौंपु सीता ।' कवि० ६.१७ सौंपे : भूकृ००ब० । समर्पित किये। सौंपे भूप रिषिहि सुत ।' मा० १.२०८ For Private and Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1122 तुलसी शब्द-कोश सौंपोसि : आ०-भूकृ.पु. +प्रए । उसने समर्पित किया। 'सौंपोसि मोहि तुम्हहि गहि पानी ।' मा० ६.६१.१५ सौंपेहु : (१) आ० - भूकृ००+मब० । तुमने समर्पित किया। 'तात न रामहि सौंपेहु मोही।' मा० २.१६०.५ (२) भ०+आज्ञा+मब० । तुम समर्पित करना । 'सौंपेहु राजु राम के आएँ।' मा० २.१७५८ सौंप्यो : भूकृपु०कए । समर्पित किया । गी० १.१०६.४ सौंह : सं०स्त्री० (सं० शपथ>प्रा० सवह) । कसम, सौगन्द । 'मार खोज ले सौंह करि'।' दो० ४०६ सौंहें : सौंह+ब० । कसमें । 'कहत हों सौहें किए।' मा० २.२०१ छं० सौंहौं : क्रि०वि० (सं० संमुखम्>प्रा० संमुहं । सामने । 'तोहि लाज न गाल बजावत सौंहौं ।' कवि० ६.१३ सौ : संख्या (सं० शतम>प्रा० स>अ० सउ) । पांचहि मारि न सो सके।' दो० ४२८ सौंदर्ज : सौंदर्य । मा० १.३२७.८ । सौंदर्य : सं०० (सं०) । सुन्दरता, रमणीचता, कमनीयता । विन० ६१.६ सौगुन : सयगुन । जा०म०छं० ५ सौगुनी : वि०स्त्री० (सं० शतगुणा) । गी० २.५७.३ सौच : सं०पु० (सं० शौच) । स्नानपूर्व दैनिक कृत्य (दन्तमज्जन आदि) । मा० २.६४.३ सौति : सवति । कवि० २.३ सौतुक, ख : सं०+वि.पु । प्रत्यक्ष, यथार्थ । 'सपनो के सौतुक, सुख सस सुर सींचत देत निराइ के ।' गी० ५.२८.६ 'देखौं सपन कि सौतुख ससिसेखार सहि।' पा०म०६६ सौदा : सं०० (तुर्की) । क्रय-विक्रय । 'सुहृद समाज दगाबाजिही को सौदा सूत ।' विन० २६४.२ सौध : सं०पु० (सं०) । (सुधा चूने से बना तथा पुता हुआ) विशाल भवन । मा० २.६६.३ सौभग : सं०० (सं०) । सुभगता, सौन्दर्य । मा० ३ श्लोक २ सौभागिनी : वि०स्त्री०ब० । सुहागिनें, सौभाग्य वतियां, सधवाएं, पतिवानियां । 'सौभागिनी बिभूषन हीना।' मा० ७.६६.५ सौभाग्य : सं० । (१) सोहाग (सुभगाया भावः सौभाग्यम्)। (२) (सं० सुभगस्य भावः सौभाग्यम) सौन्दर्य = सौभग । 'सकल सौभाग्य संयुक्त ।' विन. ६१.७ (३) (सं० सुभागस्य भावः सौभाग्यम् ) उत्तम भाग्यशीलता। 'निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना।' मा० १.६६.८ For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1123 सौमित्रि : सं०० (सं०) । सुमित्रा पुत्र लक्ष्मण । मा० २.१२२ सौरज : सं० (सं० शौर्य) । शूरता, वीरता । मा० ६.८०.५ सोरभ : सं०० (सं.)। (१) आम्रवृक्ष । 'सौरभ पल्लव मदनु बिलोक ।' मा० १.८७.५ (२) सुगन्ध । सुरभि सौरभ धूप दीप बरमालिका ।' विन० ४८.२ स्तव : सं०पु० (सं०) । स्तोत्र, स्तुति , प्रार्थना-पद । मा० ३.४.२३ स्थ : वि० (सं.)। स्थित । मा० १ श्लोक २ स्थिति : सं०स्त्री० (सं.) । अवस्था, उपस्थिति । विद्यमानता । मा० १ श्लोक ५ स्पृहा : सं०स्त्री० (सं०) । इच्छा, लालसा । मा० ५ श्लोक २ । स्फुरत् : वकृ० (सं०) । देदीप्यमान, लहराता-ती। मा० ७.१०८.६ स्पंदन : सं०० (सं.)। रथ । मा० ६.४३.८ स्यंदनु : स्यंदन+कए । 'स्यंदन मंजि सारथी मारा।' मा० ६.८३.५ स्थानी : सयानी । चतुरा । कवि० ७.१३३ स्याम : (१) वि० (सं० श्याम) । आकाशवर्ण । 'स्याम सारस जुग मनों ससि स्रवत सुधा सिंगारु ।' कृ० १४ (२) संपुं० । श्री कृष्ण । स्यामतन : श्याम शरीर वाला । रा०प्र० ४.४.२ स्यामता : सं०स्त्री० (सं० श्यामता) नीलिमा । मा० ६.१३.६ स्याममई : वि० (सं० श्याममय) । श्यामरूप, कृष्ण से तदाकार, श्री कृष्ण से एकी भूत । 'उड़ि न लगे हरि संग सहज तजि, द न गए सखि स्याममई ।' कृ० २४ स्यामल : वि० (सं० श्यामल) । श्यामवर्ण । मा० ७.५.८ स्यामसुदर : श्री कृष्ण (श्याम होते हुए सुन्दर)। कृ० ३० स्यामा : (१) स्याम । श्यामवर्ण । 'नील कंज तन सदर स्यामा।' मा० ६.५६.६ (२) सं०स्त्री० (सं० श्यामा) । एक श्यामवर्ण की शुभसूचक चिड़िया । 'स्याम बाम सुतर पर देखी।' मा० १.३०३.७ (३) वयः सन्धि में स्थित सुन्दरी किशोरी; तप्त काञ्चन के ये रूप वाली (जो ग्रीष्म में शीतल और शीत में उष्ण स्पर्श वाली हो); षोडशी । तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।' मा० ३.२२.८ स्यों : अव्यय । सहित । तेहि उर क्यों समान बिराट बपु स्यों महि सरित सिंधु गिरि भारे ।' कृ० ५७ स्योकाई : सेवकाई । हनु० १२ स्रक, ग : सं०स्त्री० (सं० सक, स्रग्) । पुष्पमाला, माला । 'स्रक चंदन बनितादिक भोगा।' मा० २.२१५.८ 'स्रग मह सर्प बिपुल भयदायक ।' विन० १२२.३ मा० १.३५५.२; ३५६.३ स्रम : श्रम । पसीना । 'हम सों कहत बिरह स्रम जैहै गगन कूप खनि खोरे ।' कृ० ४४ For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1124 तुलसी शब्द-कोश समान : श्रमकन । स्वेद बिन्दु । गी० ७.१८.५ स्रमित : श्रमित । विन० १७०.६ 'स्रव, स्रवइ : आ०ए० (सं० स्रवति>प्रा० सवइ>अ० स्रवइ)। चूता या बहता है, बहाता है, टपकाता है 'जनु स्रव सैल गेरु के धारा ।' मा० ३.१८.१ स्त्रवत : वक००। (१) टपकता-ते, बहता-ते । 'स्रवत नयन जल जात ।' मा० ७.१ (२) टपकाता-ते । 'स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए ।' मा० २.५२.४ लवन : श्रवन । कान । 'स्रवन सुजस सुनि लीजै ।' कृ० ४६ । सवननि : स्रवन+संब० । कानों (में, से) । 'लागि स्रवननि करत मेरु की बतकही।' गी०७.६.३ सहि, ही : (१) आ०प्रब । बहाते-ती हैं । 'मन भावतो धेनु पय स्रवहीं।' मा० ७.२३.५ (२) गिरते हैं, च्युत होते हैं। स्रवहिं आयुध हाथ ते ।' मा० ६.७६ छं. सवै : सवइ । (१) चुलाती है, टपकाती है, प्रवाहित करती है। कोमल बानी संत की सर्व अमृतमय आइ । वैरा० १६ (२) चाहे चुलाए, बहाये । 'बिधु विष चवै सवै हिमु आगी।' मा० २.१६६.२ स्रष्टा : वि० सं०पू० (सं.)। सृष्टिकर्ता, विधाता । विन० ५३.७ खाद्ध : श्राद्ध । लाधु : स्राद्ध+कए । 'स्राद्ध कियो गीध को।' कवि० ७.१५ स्वति : श्रुति । वेद । 'कहि न सकत स्रुति सेस उमाबरा।' क० २१ खवा : सं०० (सं० स्रुव) । यज्ञ का उपकरण (पात्र) विशेष जिससे घी आदि ___ अग्नि में डाला जाता है । 'चाप उवा सर आहुति जानू ।' मा० १.२८३.२ लेनी : श्रेनी । गी० ७.१५.२ स्रोत : सं०पु० (सं० स्रोतस्) । स्रोता, प्रवाह । विन० १८.४ स्व : वि०+सं० (सं.)। (१) आत्मा । (२) आत्मीय, अपना । 'चलहिं स्व धर्म निरत श्रुति नीती।' मा० ७.२१.२ (३) स्वमति-बिलास ।' मा० ७.१५.६ (४) धन-जैसे, सर्वस्व । स्व: : अव्यय (सं.) । स्वर्ग, अन्तरिक्ष । मा० ३ श्लोक १ स्वक : वि० (सं०) । स्वकीय, अपना । मा० ३.४.१६ स्वकर : अपना हाथ । मा० १.२१३.२ स्वछंदचारी : वि० (सं.)। (१) मनमाना आचरण करने वाला । (२) निरपेक्ष होकर सर्वत्र गति रखने वाला सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र =परमेश्वर । विन० ५६.४. स्वच्छता : सं०स्त्री० (सं०) । शुद्धता, निर्मलता । मा० १.३६.५ For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसो शब्द-कोश 1125 स्वतंत्र : वि० (सं.)। स्ववश, स्वाधीन, अन्यापेक्षारहित । 'सदा स्वतंत्र एक भगवाना।' मा० ६.७३.१२ स्वदक : वि० (सं० स्वदृक्) । स्वयं द्रष्टा, आत्म द्रष्टा, स्वयं ही सब कुछ देखने वाला, सर्वज्ञ=परमात्मा । विन० ५७.४ स्वधामद : अपना धाम (विष्णु लोक आदि) देने वाला। मा० ३.४ छं० स्वपच : सं०पू० (सं० श्वपच) । कुत्ते का मांस पकाने (खाने वाला) चाण्डाल । मा० ७.१००.५ स्वपचादि : स्वपच आदि अधम जाति वाले । मा० ७.१३० छं० १ स्वपच्छ : सं०० (सं० स्वपक्ष)। (१) अपना मतवाद । (२) अपना पंख । 'सठ स्वपच्छ तव हृदये बिसाला । सपदि होहि पच्छी चंडाला ।' मा० ७.११२.१५ स्वप्रान : अपने प्रान (जीवन) । मा० ५.३०.८ स्वबस : वि० (सं० स्ववश) । (१) आत्माधीन, स्वाधीन, स्वतन्त्र (जिसे बाहर से किसी की अपेक्षा न हो; माया पराधीन न होकर स्वेच्छा से सब कुछ कर सकता हो); सर्वथा आत्मस्थ । 'स्वबस अनंत एक अबिकारी ।' मा० ६.७३.११ (२) अपने अधीन, अपने वश में। 'कीन्हे स्वबस सकल नर नारी ।' मा० १.२२६.५ स्वभक्त : अपना भक्त । मा० ३.४ छं. स्वमति : अपनी बुद्धि । मा० १.१२१.४ स्वयं : अव्यय (सं०) । स्वतः । मा० ६.१०४ छं० स्वयंबर : सं०० (सं० स्वयंवर) । कन्या द्वारा स्वयं ही वर चुनने की प्रथा; उसका अवसर; वर चयन हेतु सभा । मा० १.४१.१ स्वयंवरु : स्वयंबर+कए । 'सीय स्वयंबर देखिअ जाई ।' मा० १.२४०.१ स्वयंसिद्ध : वि० (सं.)। अनायास सफल ; बिना प्रयास के ही अपने आप पूर्ण । 'स्वयंसिद्ध सब काज ।' मा० ६.१७ स्वर : सं०० (सं.)। (१) कण्ठध्वनि, नाद । 'गदगद स्वर ।' मा० ७.१०७ (२) संगीत के स्वर= षड्ज, ऋषभ , गान्धार, मध्यम, और पञ्चम, धैवत और निषाद । इनके तीन भेद-मन्द्र, मध्य और तार । इनकी तीन गतियाँद्रुत, विलम्बित और मध्य लय । इन सबकी योजन से गीत में आरोह अवरोह बनते हैं । 'गारी मधुर स्वर देहिं ।' मा० १.६६ छं० स्वरूप : सं०० (सं.)। (१) एकरूप, तदात्म, तद्रूप, अभिन्न । 'विभुं व्यापक ब्रह्म-वेदस्वरूपं ।' मा० ७.१०८.१ (२) आत्मा का रूप, आत्मतत्त्व । 'कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ।' मा० ७.११२.३ (३) यथार्थ परिचय । 'राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ।' मा० १.१२०.२ For Private and Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1126 तुलसी शब्द-कोश स्वर्ग : सं०पु० (सं.)। (१) सद्गति (नरक का विलोम)। 'नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी ।' मा० ७.१२१.१० (२) दुःख स्पर्श रहित अखंड सुख । 'तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ।' मा० ७.४६.७ (३) सात ऊर्व लोक । भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तप: और सत्यम् । 'सात स्वर्ग अपवर्ग सुख ।' मा० ५.४ (४) देवलोक । स्वर्गउ : स्वर्ग भी । 'स्वर्ग उ स्वल्प अंत दुखदाई।' मा० ७.४४.१ (यहाँ देवलोक से तात्पर्य है-पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से पतन होता है)। स्वनं : सं०पू० (सं० स्वर्ण) । सुवर्ण, काञ्चन । हनु० २ स्वल्प : वि० (सं०) । अत्यन्त अल्प । मा० ७.२८ स्वल्पउ : स्वल्प भी; लेशमात्र भी। 'यहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ।' मा०. ७.१०६.७ स्वांग : सं००। (१) अभिनय, नाटक (वेष परिवर्तन द्वारा स्वरूपावच्छादन) । 'सारदूल को स्वांग करि कूकर की करतूति ।' दो० ४१२ (२) प्रहसन, हास्य विनोद की रूपसज्जा । 'चढ़े खरनि बिदूषक स्वांग साजि ।' गी० ७.२२.८ । स्वागत : सं०० (सं०) । शुभागमन, आदरणीय व्यक्ति के आने में मार्ग की सुख सुविधा । स्वागत पूछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ।' मा० ७.३२ स्वाति, ती : सं०स्त्री० (सं०)। एक नक्षत्र जिसमें बरसने वाले जल से चातक तृप्त होता है, सीपी में मोतो, केले में कपूर, बांस में वंशलोचन और सर्प में विष उत्पन्न होते हैं- ऐसी कवि प्रसिद्धि है । मा० २.५२; १.२६३ ६ स्वाद : (१) सं०० (सं०)। रस । 'सीतल अमल स्वाद सुखकारी ।' मा० ७.२३.८ (२) रसग्रहण । 'स्वाद तोष सम सुगति सुधा के ।' मा० १.२०.७. (३) स्वादु । स्वादयुक्त । 'राधे स्वाद सुनाज।' दो० १६७ स्वादित : भूकृ०वि० (सं०) । स्वाद पाया हुआ, रसतृप्त । 'बस जो ससि उछंग सुधा स्वादित कुरंग।' विन० १६७.१ स्वादु, दू : (१) स्वाद+कए । 'किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ।' मा० २.२४५.६ (२) वि०० (सं० स्वादु)। सरस, सुस्वादयुक्त । 'मधु सुचि सदर स्वादु सुधा सी।' मा० २.२५०.१ स्वान, ना : सं०० (सं० श्वन् = श्वान) । कुत्ता । मा० ७.१०६.१५, ६.१०२.७. स्वानु : स्वान+कए । 'बलवान है स्वान गली अपनी ।' कवि० ६.१३ । स्वन्तः : अव्यय (सं०) । अपना अन्तःकरण, अन्तरात्मा । 'स्वान्तः सुखाय ।' मा०. १ श्लो० ७ ‘स्वान्तस्तप.शान्तये ।' मा० ७.१३० उपसंहार श्लोक । स्वामि : वि.पु. (सं० स्वामिन ) स्वामी । पालक आदि । मा० १.१५.४ स्वामिनि : वि०स्त्री० (सं० स्वामिनी) ! पालिका, प्रभु । मा० २.२१.६ स्वामिभक्त : वि० (सं०) । स्वामी के प्रति अनन्य भावना वाला । मा० ६.२४.३ For Private and Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1127 स्वामी : वि.पुं० (सं०) । स्वत्वधारी, प्रभु । मा० ७.६३ स्वयंभू : सं०० (सं० स्वायंभुव)। स्वयंभू ब्रह्मा के पुत्र (मनुविशेष)। मा० १.१४२.१ स्वारथ : सं०० (सं० स्वार्थ)। अपना प्रयोजन (स्व+अर्थ)। परहित रहित उद्देश्य या विषय । 'स्वारथरत परिवार बिरोधी।' मा० ७.४०.४ (२) परमार्थ विरोध विषय या प्रयोजन (अर्थकाम) । स्वारथी : वि.पु. (सं० स्वाथिन्) । अपना ही प्रयोजन (अर्थ काम) सिद्ध करने वाला (परमार्थ तथा परोपकार से रहित)। मा० ६.११०.२ स्वारथ : स्वारथ+कए । मा० २.२५४.५ स्वास, सा : सं०० (सं० श्वास) । मुख तथा नासिका से आने जाने वाला प्राण वायु । मा० ५.४६ क 'रटै नाम निसि दिन प्रति स्वासा।' वैरा० ४० स्वासु : स्वास+कए । एक श्वास । कवि० ५.२२ स्वाहा : अव्यय (सं.)। हवन करते समय कहा जाने वाला वैदिक मन्त्र (पुराणों __ में स्वाहा को अग्नि पत्री कहा गया है)। कवि० ५.७ स्वेद : सं०पु० (सं०) । पसीना । मा० २.११५ ।। स्व : सोइ । वही । 'सजान सुसील सिरोमनि स्व ।' कवि० ७.३४ स्वहैं : सोइहैं । आ०भ०प्रब० । सोएँगे। 'निलज प्रान सुनि सुनि सुख स्वहैं ।' गी० ६.१७.३ हकरावा : भूकृ.पु । बुलवाया। मेघनाद कहुं पुनि हैकरावा ।' मा० १.१८२.१ हैकारा : सं०० (सं० हक्का-कार>प्रा० हक्कार)। बुलावा, आमन्त्रण । 'गुर __ बसिष्ट कह गयउ हकारा।' मा० १.१६३.७ हकारि : पूकृ० । बुलवा (कर) । 'जाचक लिये हकारि ।' मा० १.२९५ हकारी : भूकृ०स्त्री०ब ० । बुलवायी, बुलायीं । 'पुनि धीरज धरि कुॲरि हकारी ।' मा० १.३३७.६ हकारी : (१) भूकृ०स्त्री० । बुला ली। 'राज करत एहिं मृत्यु हकारी । मा० ६.४२.५ (२) हकारि। बुलवाकर । 'दिए दान बहु बिप्र हकारी।' मा० २.८.४ For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1128 तुलसी शब्द-कोश हकारे : भूक००० । बुलवाए, पुकारे, आमन्त्रित किये। पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे।' मा० ७.११.४ हंसत : वकृ.पु. (सं० हसत्>प्रा. हसंत) । हंसता, हंसते । मा० ६.११८.२ हँसनि : सं०स्त्री० । हंसने की क्रिया। 'हंसनि मिलनि बोलनि मधुर ।' दो० ४०६ हँसब : भकृ०० (सं० हसितव्य>प्रा० हसिअव्व) । हंसना । मा० २.३५.५ हंसहि : आ०प्रब० । हँसते हैं (थे) । 'आवत निकट हँसहिं प्रभु ।' मा० ७.७७ हँसा : भूकृ००। हास कर उठा । 'हंसा दससीसा।' मा० ६.२४.६ हँसाइ : पूकृ० । हँसी करवा कर (उपहसनीय होकर) । 'ख्वै हौं न पठावनी के ह हों न हसाइ के ।' कवि० २.६ हँसाई : हँसाइ । अपनी हंसी करवा कर । 'तौ पनु करि होतेउ न हँसाई ।' मा० १.२५२.६ हैसि : पूकृ० । हकर सा० ६.३२.६ हसिबे : भकृ०० । हंसने, उपहास करने । 'हसिबे जोघ हंसें नहिं खोरी ।' मा० १.६.४ हसिहहिं : आ०भ०प्रब० (सं० हसिष्यन्ति>प्रा० हसिहित>अ० हसिहिहिं) । हंसेंगे परिहास करेंगे । 'हसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।' मा० १.८.१० हसिहहु : आ०भ०मब० (सं० हसिष्यथ>प्रा० हसिहिह>अ० हसिहिह)। हंसोंगे, उपहास करोगे । 'हसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ।' मा० १.७८.४ हँसिहै : आ०भ०प्रए । हंसेगा, उपहास करेगा। 'जग हंसिहै मेरे संग्रहे ।' विन० २७१.३ हँसी : सं०स्त्री० । परिहास । हँसी करहहु पर पुर जाई ।' मा० १.६३.१ हंसें : हंसने से, परिहास करने से । 'हसिबे जोग हसें नहिं खोरी ।' मा० १.६.४ हसे : भूकृ००ब० । हास कर उठे । मा० ६.६१ छं० हंसेचें : (दे० हसेउँ) । मा० ६.२६.२ (पाठान्तर)। हसेहु : (१) आ० - भूकृ००+मब० । तुमने परिहास किया । 'हमहि हंसेहु सो लेहु फल ।' मा० १.१३५ (२) भ०+आ०मब० । तुम परिहास करना। 'बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।' मा० १.१३५ हंस : हंसहिं । हँसते हैं । 'हंसे राघो जानकी लखन तन हेरि हेरि ।' कवि० २.१० हँसैहौं : आ० भ० उए । हँसाउँगा, उपहास कराऊँगा। 'परबस जानि हस्यो इन इंद्रिन निज बस व न हँसहौं।' विन० १०५.३ हँस्यो : भूक ००कए । (१) हंसा । 'हँस्यो कोसलाधीस ।' मा० ६.६६ (२) हँसा गया, परिहासास्पद किया गया। 'परबस जानि हस्यो इन इंद्रिन ।' विन० १०५.३ For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसी शब्द कोश 1129 हं: (समासान्त में) । वि.पु. (सं० हन् । घातक, विनाशक । 'क्लेश हैं।' विन० ४६.५ हंकारहीं : आ०प्रब० । पुकारते हैं, बुलाते हैं। 'आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।' मा० ७.२६ छं० हंता : वि.पु. (सं० हन्त्) । घातक, नाशक । 'त्रास-हंता ।' विन० ५५.६ हंतार : हंता (प्रा०) । विन० २८.४ हंस : सं०पू० (सं.)। (१) पक्षिविशेष जो मानस सरोवर वासी प्रसिद्ध है । 'मुनि मन मानस हंस निरंतर ।' मा० ७.३५.७ (२) सूर्य । 'हंस-बंसु दसरथ जनकु।' मा० २.१६१ (३) आत्मा । (४) परमहंस साधु, जीवन्मुक्त अवधूत । हंसकुमारी : हंसपुत्री हंसी । मा० २.६०.५ हंसगवनि : वि०स्त्री० (सं० हंसगमना)। हंस के समान चाल वाली। मा० २.६३.५ हंसा : हंस । मा० ३.३०.१२ हंसिनि, नी : हंसी । मा० २.१२८ हंसी : हंस+स्त्री० (सं०) । मराली । मा० २.३१४.८ Jह, हइ : अहइ । है । 'हइ तुम्ह कह सब भांति भलाई ।' मा० २.१७४.६ हई : भूक०स्त्री० (सं० हता>प्रा. हई) । मारी हुई। 'बैद मरजाद मानौं हेतुबाद हई है ।' गी० १.८६.३ हउँ : महउँ । हूं। 'समझत हउँ नीकें ।' मा० २.१७७.६ हए : भूकृ०पुब० (सं० हत>प्रा० हय)। (१) मारे, आहत हुए। 'बडु रोग बियोगन्हि लोग हए ।' मा० ७.१४ छं० (२) ताडित किये =बजाए । 'नभ अरु नगर निसान हए ।' गी० १.३.१ हगि : पूकृ० । विष्ठा करके । 'काग अभागें हगि भर्यो।' दो० ३८४ हजारी: वि०० (फा० हजार)। हजार वाला। 'बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी।' कवि० ६.५ हटकह : आ०मब० । रोको, टोको (हटाओ), वजित करो । 'तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा ।' मा० १.२७४.८ हटकि : (१) पू० । हटककर, परे हटाकर । मा० ३.३७ ख (२) भर्सका करके, डॉट कर । 'सकल समहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ।' मा० १.६३ हटके : भूक पुब० । रोके, वजित किये । 'बिहंसि हिये हरकि हटके लखन राम।' गी० १.८५.३ हटक्यो : भू.पुकए । रोका । 'सपनेहुं न हटक्यो ईस ।' विन० २१६.३ हटत : वकृपु । हटकता, रोकता, निषेध करता। लालच लघु तेरो लखि तुलसी तोहि हटत ।' विन० १२९.४ For Private and Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1130 तुलसी शब्द-कोश हटि : हटकि । रोककर । 'नयन नीरु हटि मंगल जानी।' मा० १.३१६.१ हट्ट : सं.पुं० (सं०) । हाट, बाजार । मा० ५.३ छं० १ । हठ : सं०० (सं०) । दुराग्रह, धृष्टतापूर्ण आग्रह, दूसरे की बात न मानने वाली शटता (कहीं-कहीं स्त्रीलिङ्ग प्रयोग भी किया है)। 'ए बालक असि हठ भलि नाहीं।' मा० १.२५६.२ हठनि : हठ+संब० । हठों (से) बराबर हठ करके । 'हठनि बजाइ करि दीठि. पीठि दई है।' कवि० ७.१७५ हठसीस : वि० (सं० हठशील)। हठीला, हठ प्रकृति, दुराग्रही। मा० ७.१२८.३ हठि : पू० । हठ करके, आग्रहपूर्वक । 'हठि फेरु रामहि जात बन ।' मा २.५० छं. हठी : वि.पु. (सं० हठिन्) । आग्रही, हठशील । कवि० ६.३७ हठीले : हठी । 'हाँकि हने हनुमान हठीले ।' कवि० ६.३२ हठीलो : वि०पु०कए । हठी, तत्पर। हनु० ११ हठे : हठ से (हठ करके) । 'हठे दुख पैहहु ।' पा०म० ५६ हडावरि : सं०स्त्री० (सं० हड्डावलि) । अस्थि पञ्जर । कवि० ६.५१ हत : वि० (सं.)। मारा हुआ। (१) हीन । 'हत भागी।' मा० ५.१२.६ (२) (समासान्त में) । श्रीहत । 'विचार-हत ।' दो० ३४६ 'हत, हतइ : हत+प्रए० । मारता है, मार डालता है, मार सकता है । 'प्रभु ताते उर हतइ न तेही।' मा० ६.६६.१३ । हतउँ : हत+उए । मार डालता हूं, मारता हूं। 'हतउँ न तोहि अधम अभिमानी।' मा० ६.२४.११ हतब : हत+भकृ.पु । मारना (होगा); मार जायगा (मारूंगा) । 'सो मैं हतब कराल पाना ।' मा० ६.४२.७ हतभागी : वि०स्त्री. (सं० हतभाग्य)। भाग्य की मारी, अभागिनी। मा० ५.१२.६ हतभाग्य : वि.० (सं.)। भाग्य का मारा, अभागा। मा० ७.१०७.१ हतहि : हत+प्रब० । मारते हैं। 'हतहि कोपि तेहि घाउ न बाजा।' मा० ६.७६.८ हतहु : हत+मब० । मार डालो। 'बेगि हतहु खल ।' मा० ६.७१.१२ हति : (१) हत+पूकृ० । मार कर, नष्ट कर । 'जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।' मा० ७.१२२.१६ (२) आहत करके। ‘रोवहिं नारि हृदय हति पानी।' मा० ६.७२.५ (३) हुती थी। 'महाराज बाजी रची, प्रथम न हति ।' विन० २४६.४ For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobati Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1131 हती : हत+स्त्री० । मारी। 'एक तीर तकि हती ताड़का ।' गी० १.५२.६ हते : भूकृ००० । मारे, मारे गये। 'इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई।' मा० हतेउ : हत+भूकृ००कए । मारा, मार डाला । 'प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा।' मा० ६.६२.१ हतेसि : आ०-भूक००+प्रए । उसने मार डाला । 'बालि हतोसि मोहि मारिहि ___ आई।' मा० ४.६.८ हत : हतइ । 'सनमुख हत गिरा-सर पैना।' वैरा० ४६ हतो : हत्यौ । मारा । जेहिं हतो सीस-दस ।' विन० २०४.३ हतों : हतउँ । मारू, मार डालू । 'हती न खेत खेलाइ खेलाई ।' मा० ६.३५.११ हत्यो : हतेउ । 'लीला हत्यो कबंध ।' मा० ६.३६ हथवांसहु : हथवांस+मब० (सं० हस्तवंश)। हाथ की लग्गी से (धार में) चलाओ । 'हाथवांसहु बोरहु तरनि ।' मा० २.१८६ हथसार : सं०स्त्री० (सं० हस्तिशाला>प्रा० हत्थिसाल>अ० हत्थिसाल)। हाथी का आवास । 'हाथी हथसार जरे घोर घोर सारहीं।' कवि० ५.२३ हथा : हाथ (सं० हस्तक>प्रा० हत्थअ) । 'अपनो ऐपन निज हथा ।' दो० ४५४ (यहां हाथ की छाप से तात्पर्य है।) हयेरी : सं०स्त्री० (सं० हस्ततल>प्रा० हत्थयल)। हथेली, हाथ की गादी (चिकना करतल) । 'हाथ लंका लाइहैं तो रहैगी हथेरी सी।' कवि० ६.१० हव : सं०स्त्र (अरबी) । सीमा । 'कायर कर कपूपतन की हद ।' कवि० ७.१ Jहन, हना : आ०प्रए० (सं० हन्ति>प्रा० हणइ)। मारता है, मार सकता है । 'लछिमनु हनइ निमिष महुं तेते ।' मा० ५.४४.७ हनत : वकृ.पु । मारता, मारते । (१) प्रहार करत, आयुध से आहत करता। 'एकहि एकु हनत करि क्रोधा।' मा० ६६५.६ (२) मारते ही (क्षण) । 'मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।' मा० ५.२८.८ (३) चोट करके मिटाता। 'हनत गुनत गुनि गुनि हनत ।' दो० २४६ हनहिं : आ०प्रब० । (सं ध्नन्ति>प्रा० हणंति>अ० हणहिं) । मारते हैं, तडित ____ करते हैं (बजाते हैं) । 'सुर हनहिं निसाना।' मा० १.३० ६.४ ।। हनि : पूकृ० । (सं० हत्त्वा>प्रा० हणिअ>अ० हणि)। (१) मारकर । 'बिस्वजयी भृगुनायक से बिनु हाथ भये हनि हाथ-हजारी।' कवि० ६.५ (२) ताडित कर (बजाकर) । 'हनि देव दु'दुभि हरषि बरषत फूल ।' गी० १.६६.३ हनिय : आ०कवा०प्रए । मारिए, मारा जाय। 'बलि जाउँ हनिय न हाय। विन० २२०.७ For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1132 तुलसो शब्द-कोश हनी : भूक०स्त्री० । (१) मारी। 'मुठिका एक महाकपि हनी ।' मा० ५.४.४ (२) तडित की (बजायी) । 'दुदुभि हनी ।' मा० १.३२७ छं० ४ हनु : सं०स्त्री० (सं०) । ठुड्ढी, चिबुक । गी० ७.१७.१३ हनुमंत, ता : सं०पु० (सं० हनुमत् >प्रा० हमुमंत)। हनुमान जी। मा० ४.३; ५.७.४ हनुमत : हनुमंत (सं० हनुमत्) । 'हनुमत जन्म सुफल करि माना।' मा० ४.२३.१२ हनुमदादि : (सं०) । हनुमान् इत्यादि (वानरगण) । मा० ७.८.२ हनुमान, ना : हनुमंत । मा० ५.२; १.१७.१० हनुमानू : हनुमान+कए० । मा० १.७.७ हनू : हनुमान (प्रा० हणुव) । मा० ५.४४ हनुमंत : हनुमंत । मा० ६.५०.२ हनूमान : हनुमान । मा० ५.१ हने : भूकृ०० ब० । (१) मारे, मार डाले । 'प्रबल खल भुजबल हने ।' मा० ७.१३ छं० १ (२) ताडित किये (बजाये) । 'हरषि हने गहगहे निसाना।' मा० १.२६६.१ हनेउ : भूक००कए । आहत किया, हत किया । 'दामिनि हनेउ मनहुं तर तालू ।' मा० २.२६.६ हनेसि : आo-भूकृ.पु+प्रए। उसने मारा । 'हनेसि माझ उर गदा ।' मा० ६ ६४.८ हने : हनइ । मा० ६.६४ छं. हन्यो : हनेउ । 'तब मारुत सुत मुठिका हन्यो।' मा० ६.६५.७ हबि : सं०पु+स्त्री० (सं० हविष्- नपुं०) । (१) हव्यः हवन सामग्री जो यज्ञ की आग में डाली जाती है । कवि० ५.७ (२) हविष्यान्न, यज्ञापित नैवेद्य (का शेष खीर आदि) । यह हबि बाँटि देहु नृप जाई ।' मा० १.१८६.८ हबूब : सं०० (अरबी) । धूल उड़ाने वाला वातचक्र, बवडंर, अंधड़ । 'बानी झूठी साची कोटि उठत हबूब है। कवि० ७.१०८ हम : (१) सर्वनाम-उब० (सं. अस्म>प्रा० अम्ह)। मा० १.६२.३ (२) अहंकार, आपा, अपने की अनुभूति । 'हम लखि, लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच ।' दो०१६ हमरि, रो : हमारी । हमरि बेर कस भएह कृपिनतर ।' विन० ७.२ हमरिऔ : हमारी भी। हमरिऔ..'बनि गई है।' गी० २.३४.४ हमरें : हमारे यहाँ । 'हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया।' मा० ७.५.४ हमरे : हमारे । मा० १.१८१.५ हमरेउ : हमारा भी, हमारे भी। 'हमरेउ तोर सहाई।' मा० १.१८४ छं. For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तुलसी शब्द-कोश हमरेहि : हमारे ही । 'सो जनु हमरेहि मार्थे काढ़ा ।' मा० १.२७६.३ हमरो : हमारो । 'हमरो मनु मोहैं।' कवि० २.२१ हम-हम : अव्यय (सं० अहमहमिका - स्त्री० ) । मैं ही कर लूं - पालूं की प्रवृत्ति, पहले 'मैं ही ' वाली अहंकार भावना । 'हम हम करि धन धाम सँवारे ।' विन० १६८.२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमहि: हमको, हमारे प्रति । 'कबहुं कृपाल हमहि कछु कहहीं ।' मा० ७.२५.२ हम : (१) हमने भी । 'हमहुं सुनी कृत पर तिय चोरी ।' मा० ६.२२.५ (२) हमारे द्वारा भी । 'हमहुं कहबि अब ठाकुर सोहाती । मा० २.१६.४ ( हमारे द्वारा भी कहनी होगी ) । हमैं : हमहि । हम को । 'हमैं पूछिहै कोन ।' दो० ५६४ हय: सं०पु० (सं० ) । अश्व, घोड़ा । मा० २.१४२.८ 1133 हमहू : हम भी । 'हमहू उमा रहे तेहि संगा ।' मा० ६.८१.२ हमार, रा : (१) वि० सर्वनाम (सं० अस्मदीय > अ० अम्हार, महार) । मा० १.६६; ७७.२ (२) ममत्व, विषयों के प्रति हमारापन, अपनेपन की भावना | दे० हम - दो० १६ हमारि, री: हमार + स्त्री० (अ० अम्हारि, री) । मा० २.११; १.८१.५ हमारें : (१) हमारे में 'नाथ एक गुनु धनुष हमारें । मा० १.२८२.७ (२) हमारे पास, हमारे यहाँ (हम को ) । 'होउ नास नहि सोच हमारें ।' मा० १.१६६.७ हमारे वि० सर्वनाम (दे० हमार ) । मा० १.६२.८ हमारो : हमारा + कए० । हमारा । कवि० १.१२ गृहँ : अश्वशाला में । मा० १.१७१.८ हमसाला : सं० स्त्री० (सं० हयशाला ) । वाजिशाला, घुड़सार, तबेला । मा० ६.२४.१३ For Private and Personal Use Only हयो : भूकु०पु०कए० (सं० हतः > प्रा० हओ > अ० हयउ ) । मारा (गया) । 'बल तुम्हारें रिपु यो ।' मा० ६.१०६ छं० हर : (१) सं०पु ं० (सं० ) । शिव । मा० २.२३१ (२) (सं० हल ) कृषि का उपकरण - विशेष । 'न तु और सबै बिष बीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि के ।' कवि० ७.३३ (३) (समासान्त में ) वि०पु० (सं० ) । हरने वाला, नाशक, दूर करने वाला | 'त्रिविध सूल-हर ।' कृ० २१ ( ४ ) हरइ । हरण करता है, हटाता है, मिटाता है । 'जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया । मा० ६.५२.७ 'हर, हरइ, ई : आ० प्रए० (सं० हरति > प्रा० हरइ ) । हरण करता है । (१) संहार ( प्रलय ) करता है । 'जो सृजि पालइ हरइ बहोरी ।' मा० २. २८२.२ (२) निरस्त करता है, मिटाता है । 'हरह पाप कह बेद पुराना । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1134 तुलसी शब्द-कोश मा० १.३५.१ (३) छीनकर ग्रहण करता है । 'हरइ सिष्य धन सोक न हरई।' मा० ७.६६.७ हरउ : आ०-प्रार्थना-प्रए० (सं० हरतु>प्रा. हरउ) । हर ले, दूर करे । 'हरउ भगत मन के कुटिलाई ।' मा० २.१०.८ हरको : भूकृ०स्त्री० । हट की, रोकी । 'कलिकाल की कुचाल काहू तो न हरकी। कवि० ७.१७० हरख : हरष । विन० १४३.४ हरखाने : हरषाने । गी० १.८६.६ हरगिरि : शिवजी का पर्वत=कैलास । मा० ६.२५.१ हरण : वि०पू० । हरने वाला। मा०६ श्लो०१; विन० १० हरत : वकृ००। (१) निरस्त करता-करते । 'हरत सकल कलि कलुष गलानी।' मा० १.४३.३ (२) छीन लेता-लेते। 'हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिसे नैन ।' मा० १.३२६ (३) संहार करता। पालत सृजत हरत ।' मा० ५.२१.५ हरता : वि० (सं० हत-हर्ता)। हरण कर्ता, संहारक । कवि० ७.१४६ हरतार : हरता। 'करतार भरतार हरतार ।' हनु० ३० हरति : वकृ०स्त्री०। (१) निरस्त करती। (२) छीन लेती। 'हरति बाल रबि दामिनि जोती।' मा० १.३२७.३ (३) संहार करती। 'जो सजति जगु पालति हरति ।' मा० २.१२६ छं० हरद : सं०स्त्री० (सं० हरिद्रा) । हलदी । मा० १.२६६.८ हरन, ना : हरण । (१) सं० । अपहरण। 'सीता हरन ।' मा० ३.३१ पुनि माया सीता कर हरना।' मा० ७.६६.६ (२) भक० अव्यय । हरने, निरस्त करने । 'सो अवतरेउ हरन महि भारा।' मा० ६.६.८ (३) वि००। हरणशील, हरने वाला। 'तारन तरन हरन सब दूषन ।' मा० ७.३५.६ हरनहार : वि.पु. । हरने वाला, निरस्त करने वाला । 'हरनहार तुलसी की पीर को।' हनु० १० (२) संहारकर्ता। हरनि, नी : वि०स्त्री० । हरणशीला, निरस्त करने वाली। ‘मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ।' मा० १.१० छं. 'स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।' मा० ७.१५.६ हरनिहार : हरनहार । संहारकर्ता। 'हर से हरनिहार जपें जाके नाम ।' गी० ५.२५.२ हरनू : हरन+कए । एकमात्र हरने वाला, नाशक । 'कहत सुनत दुख दूषन हरनू ।' मा० २.२२३.१ For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1135 हरपुरी : (१) शिव-नगरी =कैलास । (२) काशी। विन० २२.६ हरवा : हार । 'चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।' बर० १२ हरष : (१) सं०० (सं० हर्ष>प्रा० हरिस) । प्रसन्नता, आह्लाद । मा० १.२२८ (२) हरषइ । 'पुनि पुनि हरष भुसुडि सुजाना।' मा० ७.१२४.१ 'हरष, हरषइ, ई : आ०ए० (सं० हर्षति>प्रा. हरिसइ)। प्रसन्न होता है, पुलकित होता है। 'देखि चरित हरषइ मन राजा।' मा० १.२०५.८; ६.९७ छं० हरषत : वकृत्पु । (१) प्रसन्न होता-होते । मा० २.३०६.१ (२) पुलकित (रोमाञ्चित) होता-होते । 'पुनि पुनि हरषत गातु ।' मा० १.८१ हरषवंत : वि० (सं० हर्षवत् >प्रा० हरिसवंत) । पुलकित, हर्षयुक्त, प्रसन्न । मा० १.१६४ हरहि, हीं : आ०प्रब० (सं० हर्षन्ति>प्रा० हरिसंति>अ० हरिसहिं)। पुलकित (प्रसन्न) होते हैं । मा० ७.३६.४; १.३२५ छं०४ हरषा : भूक.पु । प्रसन्न हुआ। 'सुर को समाज हरषा।' कवि० ६.७ 'हरषा, हरषाइ : हरषइ (हरष+प्रए०) । प्रसन्न (रोमाञ्चित) होता-ती है । __'नाउनि मन हरषाइ सुगंधन मेलि हो।' रा०न०१८ हरषाइ, ई : पूक० । प्रसन्न (पुलकित) होकर । 'सुनत चलेउ हरषाइ ।' मा० ७.१०७ १.७३.७ हरषाऊँ : आ०उए । प्रसन्न होता हैं (था) । 'बालचरित विलोकि हरषाऊँ।' मा० ७.७५.३ हरषाती : वकृ०स्त्री०। प्रसन्न (पुलकित) होती । मा० १.११३.७ हरषान, ना : भूकृ००। प्रसन्न (पुलकित) हुआ। मा० ७.३ ग; ७.६३.३ हरषानी : भूक०स्त्री०ब० । प्रसन्न (पुल कित) हुई । तासु बचन सुनि सब हरषानी ।' मा०१.२२३.८ हरषानी : भूक०स्त्री० । प्रसन्न (पुलकित) हुई। मा० ७.५२.८ हरषाने : भूकृ००ब० । प्रसन्न (पुल कित) हुई । मा० ७.४७.८ हरषानेउ : भूक.पु०कए। प्रसन्न (पुलकित) हुआ । 'राउ हरषाने उ ।' जा०म० ११७ हरषाय : हरषाइ। मा० १.१५८ (पाठान्तर) । हरषाहि, हीं : हरहिं । 'देखि कटकु भट अति हरषाहीं।' मा० ३.१८.८ हरषि : पू० । प्रसन्न (पुल कित) होकर । 'हरषि चलेउ प्रभु ।' मा० ७.२ हरषित : वि० । हर्षयुक्त । मा० ७.३ हरषिहै : आ०भ०ए० (सं० हर्षिष्यति>प्रा. हरिसिहिइ) । प्रसन्न (पुलकित) होगा। 'प्रभु गुन सुनि मन हरषिहै।' विन० २६८.४ For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1136 तुलसी शब्द-कोश हरषी : भूकृ०स्त्री०व० । प्रसन्न (पुल कित) हुई। 'देखि मातु सब हरषीं।' मा० ७.११ हरषी : (१) भूक०स्त्री० । प्रसन्न (पुलकित) हुई । 'हरषी सकल मर्कट अनी।' मा० ६.८६ छं० (२) हरषि । 'नभ तें भवन चले सुर हरषी ।' मा० ५.३४.८ हरषु : हरष+कए । अद्वितीय हर्ष । 'हरषु बिरह अति ताहु ।' मा०७.४ हरणे : भूकृ.पुब ० । प्रसन्न (पुलकित) हुए। मा० ७.४.८ हरउ : भूक००कए० । प्रसन्न (पुलकित) हुआ । 'देखत हनूमान अति हरषेउ।" मा० ७.२.१ हरष्यो : हरणे उ । 'हरव्यो हिय हनूमानु ।' कवि० ६.३० हरस : हरष । गी० ६.२२.४ हरहाई : वि०स्त्री० । हरहट गाय आदि जो अपना गोल छोड़ कर खेत चरने निकल जाती और रक्षक को देखते ही भागकर गोल में छिप जाती है। 'जिमि कपि लहि घालइ हरहाई । मा० ७.३६.२ हरहिं, ही आ०प्रब० । हरण करते हैं, मिटाते हैं, निरस्त करते हैं । मा० ७.७४ ख; २.६१.२ हरहि : हर को, शिव को । 'परिछन चली हरहि हरषानी।' मा० १.६६.३ हरहु, हू : आ०मब० (सं० हरथ, हरत>प्रा० हरह>अ० हरहु)। हरते हो, हरो। 'हरहु बिषम भव पीर ।' मा० ७.१३०; ३.१३.१६ ।। हरहुगे : आ०भ००मब० । हरोगे । 'दुसह दुख हरहुगे ।' विन० २११.३ हरांसू : हरांस (दे० हरास) कए । अप्रतिम मनोव्यथा । 'बय बिलोकि हिय होइ हरांसू ।' मा० २.५६.४ हराम : वि० (अरबी) । अविहित, वजित, निषिद्ध (हा राम) । 'हराम हो हराम हन्यो।' कवि० ७.७६ हवराहिं : आ०प्रब० । हराते-ती हैं; पराजित करते-करती हैं । 'करहिं आपु सिर धरहिं आन के, बचन बिरंचि हरावहिं ।' कृ० ४ हरास : संपु (फा० हिरास=खौफ; हिरासीदन् =शङ्का करना)। आशङका+नैराश्य+त्रास से युक्त मनोव्यथा । 'धनुष तोरि हरि सब कर हरेउ हरास ।' बर० १६ हरि : (क) पूकृ० (सं० हृत्वा>प्रा० हरिअ>अ० हरि)। हरण करके, अपहृत करके (आदि)। 'सठ सूनें हरि आनेहि मोही।' मा० ५.६.६ (ख) सं०पू० (सं.)। (१) विष्णु । 'बिधि हरि हर पद पाइ।' मा० २.२३१ (२) राम (विष्णुरूप) । 'पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ।' मा० ७.१०.२ (३) राम (दुःख हरने वाला-इरतीति हरिः) । 'धनुष तोरि हरि सब कर हरेउ हरास ।' बर० १६ (४) इन्द्र । जैसे, 'हरिधनु' । गी० ७.१९.२ (५) सिंह । 'जिमि हरि For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1137 बधुहि छुद्र सस चाहा।' मा० ३.२८.१५ (६) वानर । 'मेरे अनुमान हनुमान हरि-गन मैं ।' गी० ५.२३.२ (७) कृष्ण । मा० १.२०.८ हरिअर : वि.पु. (सं० हरित-तर>प्रा. हरिअर)। अत्यन्त हरा, हरा-भरा, हरे रंग का। हरिअरइ : हराही-हरा । 'मुनिहि हरिअरइ सूझ ।' मा० १.२७५ हरिउ : हरि (विष्ण) भी। विन० २५०.२ हरिऐ : आ० कवा०प्रए० (सं० ह्रियते>प्रा. हरीअइ)। दूर कीजिए, निरस्त किया___ की जाय । 'मति मोर बिभेदकरी हरिऐ।' मा० ६.१११.१६ हरिचंद : सं०० (सं० हरिश्चन्द्र>प्रा. हरिच्चंद)। सूर्यवंश प्रसिद्ध सत्यवती राजा । मा० २.६५.३ हरिजन : ईश्वर भक्त । मा० ७.१०५ हरिजान, ना : (दे० जान) विष्णु-वाहन =गरुड़ । मा० ७.७८.३; ७.८७ ख हरित : वि० (सं.) । हरे रंग का । मा० ७.११७.११ हरितमनि : हरे रंग का मणि= पन्ना। हरितमनिन्ह : हरितमनि+संब० । पन्नों (के) । हरितमनिन्ह के पत्र फल ।' मा० हरितमनिमय : वि० (दे० मय) । पन्नों से रचित । 'बेनु हरितमनिमय सब कीन्हे ।' मा० १.२८८.१ हरितोषन : वि० (सं० हरितोषण) । भगवान् को तुष्ट करने वाला (साधन) । _ 'हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ।' मा० ७.१०६.११ हरिधाम : हरिपद । मा० ३.३२ हरिन : सं०० (सं० हरिण) । मृग (विशेष) । बर० २६ हरिनख : सं०० (सं०) । बधनहा (व्याघ्र के नखों की माला जो बच्चों को पहनाई जाती है) । हिय हरिनख अति सोभा रूरी।' मा० १.१६६.५ हरिनबारि : मृगजल, मृगतृष्णा, मृगमरीचिका (भ्रान्ति)। 'पायो केहि घृत बिचार हरिन बारि महत ।' विन० १३३.५ । हरिपद : विष्णु लोक (वैकुण्ठ); रामधाम (साकेत धाम), सालोक्य मोक्ष । मा० १.१६२ छं० ४ (सायुज्य मुक्ति का भी अर्थ आता है-जीव शाश्वत रूप से भगवान का अंशरूप बनने का पद पाता है)। हरिपद : हरिपद+कए । अप्रतिम भगवत्पद । 'पाव नारकी हरिपदु जैसें ।' मा० हरिपुर : विष्णुलोक, रामलोक, मोक्ष पद। विन० २२०.५ हरिप्रीता : विष्णु प्रिय (विष्णु देवता वाला) । 'सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।' मा० १.१६१.१ For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1138 तलसो शब्द-कोश हरिबधुहि : हरि= सिंह की वधू =सिही को। 'जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा । मा० ३.२८.१५ हरिबे : भक०० (सं० हर्तव्य>प्रा० हरिअब्ध)। (१) हरने । 'भारु हरिबे को अवतारु लियो नर को।' कवि० ७.१२२ (२) हरना चाहिए । 'तो अतुलित अहीर अबलनि को हठि न हियो हरिबे हो।' कृ० ३९ हरिय, ये : हरिऐ । विन० १४.६ 'कौन बल ते संसार सोग हरिये।' विन० १८६.५ हरि-रस : हरि-भक्तिरस, लीलारस ; भक्तिरूप परमानन्द का अप्रतिम स्वानुभव । ____ 'पूनों प्रेम-भगति रस हरि-रस जानहिं दास ।' विन० २०३.१६ हरिशंकरी : सं०स्त्री० । विष्णु और शङकर की एक साथ स्तुति का पद । विन० ४६ हरिहउँ : मा०भ० उए० (सं० हरिष्यामि>प्रा० हरिहिमि>अ० हरिहिउँ)। हरूंगा। (१) अपहृत कर (छीन) लाऊंगा। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ।' मा० ३.२६.३ (२) निरस्त करूंगा । 'हरिहउँ सकल भूमि गरुआई ।' मा० १.१८७.७ हरिहि, ही : (क) आ०भ० प्रए० (सं० हरिष्यति>प्रा० हरिहिइ)। हरेगा । (१) ले लेगा। 'हरिहि मम प्राना।' मा० ६.५४.६ (२) निरस्त करेगा। 'प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।' मा० २.२०६.३ (ख) हरि+हि । भगवान् को। 'हरिहि देखि अति भए सुखारी।' मा० १.६५.३ हरिहैं : आप्रब०भ० । हरेंगे, दूर करेंगे । 'रघुनाथ कृपा करि हरिहैं निज वियोग संभव दुख ।' गी० ५.६.१ हरिहै : हरिहि । हरण करेगा, दूर करेगा। 'ईस अजस मेरो हरिहै।' गी० २.६०.४ हरिहौं : हरिहउँ । दूर करूंगा-गी। 'मारग जनित सकल श्रम हरिहौं ।' मा० २.६७.२ हरी : (१) हरि । भगवान् । मा० ७.१३ छं० ३ (२) (समासान्त में) वि॰ स्त्री। हरण करने वाली। 'अवलोकत सोच-बिषाद-हरी है। कवि० ७.१८० (३) भूकृ०स्त्री० । अपहृत की । 'इहाँ हरी निसचर बैदेही ।' मा० ४.२.३ हरीस, सा : (सं० हरि+ईश हरीश) वानर-राज । 'कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा ' मा० ४.१२.७ हरु : (१) आ०-आज्ञा-मए० (सं० प्रा० हर>अ. हरु)। तू दूर कर । 'चंद्रहास हरु मम परितापं ।' मा० ५.१०.५ (२) हर+कए । शिव । 'बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला ।' मा० २.२५४.६ हरु : वि.पु. (सं० लघुक>प्रा० हलु अ) । हलका । मा० १.२५८.७ हरिभाई : सं०स्त्री०। लघुता, हलकापन । 'देह बिशाल परम हरुआई।' मा० For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1139 हए : क्रि०वि० (हरुअ का रूपान्तर) । हलके से (धीरे) । 'लखन पुकारि राम हरुए कहि ।' गी० ३.६.१ हरे : (१) हरि+सम्बोधन (सं०) । हे हरि । मा० ७.१३ छं २ (२) वि.पु.ब० (सं० हरित>प्रा. हरिम)। हरे रंग के (हरिअर) । 'मानों हरे तृन चारु चरें ।' कवि० ७.४४ (३) भूक पु०ब० । दूर किये । 'पाप हरे परिताप हरे।' कवि० ७.५८ (४) अपने अधीन कर लिये । 'सबके मन मनसिज हरे ।' मा० १.८५ (५) हरने से, हटाने पर । 'हरे बनिहि प्रभु तोरे ।' विन० ११६.५ हरेउ, ऊ : भूक००कए । हर लिया, निरस्त किया। 'दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ।' मा० ७.८३.४ हरें : हरिहिं । हरते हैं। 'लोचन कंज की मंजुलताई हरै।' कवि० १.३ हर : हरह। (१) हरता है। 'बुद्धि बल बर बस्त हरै।' जा०म० छं० १ (२) हरण करे, हर सकता है । 'रघुनाथ बिना दुख कौन हरै ।' कवि० ७.५५ 'बिकार श्री रघुबर हरै ।' मा० ७.१३० छं० २ हरैया : वि०पु० (सं० हतका) । हरणकर्ता। 'भूमि के हरैया उखरैया भूमि धरनि के।' गी० १.८५.३ हरो: (१) हर्यो। छीन लिया। 'बचन बिराग-बेष जगतु हरो सो है।' कवि० ७.८४ (२) वि००कए० (सं० हरित:>प्रा. हरिओ) । हरा । 'सूझत रंग हरो।' विन० २२६.२ हरौं : हरउँ। (१) हरता हूं, छीनता, (चुराता) है । 'पर बित जेहि तेहि जुगुति हरौं ।' विन० १४१.५ (२) हर लूं, उखाड़ फेंकू । 'बीस भुजा दस सीस हरौं।' कवि० ६.१३ हर्ता : वि०पू० (सं०) । हरणकर्ता । हर्यो : हरेउ । हर लिया । 'मन हर्यो मूरति साँवरी ।' जा०० छं० १८ हर्ष : संपु (सं०) । पुलक, प्रसन्नता । मा० १.१६० हलक : सं०० (सं० हृदय>प्रा०हडक्क-अरबी-हलक= गला) । मन । 'समर ___समर्थ नाथ हेरिए हलक में ।' कवि० ६.२५ हलधर : सं०० (सं०) । कृष्ण के अग्रज =बलराम । मा० १.२०.८ हलबल : सं०० (अनुकरणात्मक)। हड़बड़ी, हड़कम्प, हलचल । 'गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो।' हनु० ५ हलराइ : पूकृ० । हिला-झुलाकर । 'गाइ गाइ हल राइ बोलिहौं।' गी० १.१६.४ हलराइहौं : आ० भ० उए । हिलाऊँ-झुलाऊँगी। गी० १.२१.३ हलरावति : वकृ०स्त्री० । हिलाती-झलाती। 'बाल केलि गावति हल रावति ।' गी० १.७.२ For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1140 तुलसी शब्द-कोम हलराव : आ०प्रए । हिलाती-झुलाती है। 'ल उछंग कबहूं हलरावं ।' मा०. १.२००८ हलाको : वि०स्त्री० (अरबी-हलाक-नाई)। मड़ने वाली ठगिनी । 'ऊधौ जू क्यों न कहै कुबरी जो बरी नटनागर हेरि हलाकी ।' कवि० ७.१३४ हलावहिं : आ०प्रब० (सं० हल्लयन्ति-हल्लनं कम्पनम् >प्रा. हल्लावंति>अ० हल्लावहिं)। झिटकते हैं, हिलाते कंपाते हैं। 'खाहि मधुर फल बिटप हलावहिं ।' मा० ६.५.६ हलाहल : सं०पु० (सं० हलाहल हालाहल ; फा० हलाहल)। तीव्र विषविशेष । हलाहलु : हलाहल+कए । विन० २४.४ ।। हले : भूकृ०० ब० (सं० हल्लित>प्रा० हल्लिम)। हिल गये । 'धरनीधर धोर धकार हले हैं।' कवि ६.३३ हलोरि : पूकृ० (सं० हिल्लोलयित्वा>प्रा० हिल्लोलिअ>अ. हिल्लोलि)। तरङ्ग उठाकर, विक्षुब्ध कर । 'कपीसु कयो बात घात उदधि हलोरि के।' कवि० ५.२७ हलोरे : सं०पु०ब० (सं० हिल्लोलक>प्रा. हिब्लोलय) । तरङ्ग। 'देखत स्यामल धवल हलोरे ।' मा० २.२०४.५ हवाले : क्रि०वि० (अरबी-हवाला=भयानक) । भमंकर जकड़ में । 'आजु करउँ खालु काल हवाले ।' मा० ६.६०.८ हसि : अहसि । तू है । 'का अनमनि हसि कह हँसि रानी।' मा० २.१३.५ हमेउँ : आ०-भूकृ.पु+उए । मैं हंसा । 'हसेउँ जानि बिधि गिरा असांची।' मा० ६.२६.२ हस्त : सं०० (सं.)। हाथ । मा० १.६७ हहरात : वक०० । थरथराता-ते (कांपते) । 'उछरत उतरात हहरात मरि जात ।' कवि० ७.१७६ हहरान : भूक०पु । थरथरा उठा, कांप गया। 'पाहरूई चोर हेरि हिय हहरान है।' कवि० ७.८० हहरानी : भूक स्त्री०ब० । थरथरा उठीं, कॉप गयीं। 'हहरानी फौज भहरानी जातुधान की ।' कवि० ६.४० हहराने : भूक००० । हरहरा कर (अंधड़ के समान) चले, कांप उठे । 'हहराने __ बात, भहराने भट ।' कवि० ५.८ हहरि : पूकृ० । (१) दहलकर, थरथरा कर, कम्पित होकर । 'बिहरत हृदउ न हहरि हर ।' मा० २.१६६ (२) ह-ह ध्वनि करके । 'हहरि हहरि हंसे ।" कवि० ६.४२ For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1141 हहरी : भूकृ०स्त्री० । थरथरा उठी, कांप गयी । 'हहरी हृदय बिकल भइ भारी।' कृ०६० हहरु : आ० - आज्ञा-मए । तू कम्पित हो, तू थरथरा । 'तुलसी तू मेरो, हारि हिये न हहरु ।' विन० २५०.४ हहरे : भूकृपु०व० । थरथरा उठे, कांप गये । 'हहरे हृदय हरास ।' रा०प्र० ३.७.५ हहर्यो : भूकृ.पु०कए । काँप गया, थरथरा उठा । 'कलि बिलोकि हहर्यो हौं।' विन० २६७.४ हहा : हा-हा । (१) हास ध्वनि । 'हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है ।' कवि० २.७ (२) आति, दैन्य, दुःख का सूचक (अव्यत)। 'काढ़त दंत करत हहा है।' कवि० ७.६६ (३) सं०स्त्री० । आति सूचक ध्वनि । 'तुलसी हहा करी।' कवि० ७.६७ हहिं : अहहिं । हैं । 'करत हहिं निंदा।' मा० ३.३७.४ हहु : अहहु । हो । 'जानति हहु बस नाहु हमारें।' मा० २.१४.५ हो : स्वीकार बोधक अव्यय (सं० आम्, हं) । कवि० ७.१२८ हॉक : सं०स्त्री० (प्रा० हक्का) । (१) पुकार, बुलावा, आमन्त्रण । 'तुम्ह तो कालु हाकि जनु लावा ।' मा० १.२७५.१ (२) आह्वान, ललकार । 'हाँक सुनत रजनीचर भाजे ।' मा० ६.४७.६ (३) सन्देश । 'अब बिसेष देखो तुम्ह, देखो हैं कूबरी हाँक से लाए।' कृ०५० हांकहिं : आ० प्रब० । पुकारते हैं । 'तात यों हाँकहिं ।' कृ० १३ होकहु : आ०मब० । हाँको, परिचालित करो । 'खोज मारि रथ हाँकहु नाता।' मा० २.८४.८ हांकि : पूकृ० । (१) चला (कर)। 'भय रथ हाँकि न जाइ।' मा० ३.२८ (२) हाँक देकर, ललकार कर । 'हेरि हँसि हाँकि फूकि फौज तै उड़ाई हैं।' हनु० ३५ हाँके : भूकृ०पुब० । चलाये हुए । 'चले समीर बेग हय हाँके ।' मा० २.१५८.१ हाँके उ : भूकृपु०कए० । हांका, चलाया । 'रथु हाँकेउ ।' मा० २.६६ हाँड़ी : सं०स्त्री० (सं० हण्डिका>प्रा० हंडिआ>अ० हंडी)। मिट्टी का पात्र विशेष । 'हाँडी हाटक घटित चरु राधे स्वाद सुनाज ।' दो० १६७ होती : वि.स्त्री० (सं० हात्र=नाश, हानि) । नष्ट, क्षीण । 'भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।' मा० २.३१.५ हांसा : हासा, हास । — कुमुद-बंधु-कर-निंदक हाँसा ।' मा० १.२४३.५ हाँसी : हँसी (सं० हास)। उपहास । 'मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।' मा० ५.२५.६ For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1142 तुलसी शब्द-कोश हा: (१) अव्यय (सं.)। शोक, अवसाद, दैन्य आदि का सूचक । 'हा राम हा रघुनाथ ।' मा० ६.१०१.६ (२) (समासान्त में) वि०० (सं० हन्) विलाश__ कारी । रघुबंस बिभूषन दूषन-हा ।' मा० ६.१११.८ हाट : हट्ट। मा० २.११.३ हाटक : सं०० (सं० हटति दीप्यते इति हाटकम्-हट दीप्तो) । देदीप्यमानः सुवर्ण । 'सजे सबहिं हाटक घट नाना।' मा० १.६६.३ हाटकपुर : स्वर्णमयी नगी लङका । मा० ५.३३.८ हाटकलोचन : सं०० (सं0-हिरण्याक्ष= रहिरण्य =हाटक+अक्षि =लोचन)। ___ हिरण्याकशिपु का अनुज असुरविशेष । मा० १.१२२.६ हाटक : हाटक+कए । सुवर्ण कवि० ५.२४ ।। हाड़, डा : सं०० (सं० हड्डी=अस्थि) । हड्डी । मा० १.१२५; ६.५२.३ हाता : वि.पुं० (सं० हात–हाता)। त्याग कराने वाला, नष्ट करने वाला। _ 'यातुधान-प्रचुर हर्ष-हाता ।' विन० २६.५ हामो : वि००कए० (सं० हात्र) । (१) हीन, वञ्चित । 'सोहेब सेवक नाते ते __ हातो कियो।' हनु० १६ (२) क्षीण, त्यक्त, नष्ट । 'हातो कीजै हीय तें भरोसो भुज बीस को।' कवि ६.२२ हाथ : हस्त (प्रा० हत्थ)। (१) कर, पाणि । मा० ७.१७.६ (२) लाभ (लाक्षणिक) । 'नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे ।' मा० २.५०.५ (३) अधीन (लाक्षणिक) । 'मन हाथ पराएँ ।' मा० १.१३४.५ हाथहमारी : (दे० हजारी) सहस्रबाहु । कवि० ६.५ हाथहि : हाथ में, को । 'फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाहि ।' जा०म० १०१ हाथा : हाथ । मा० २.५२.१ हाथिन : हाथी+संब० (सं० हस्तिनाम् >प्रा० हत्थीण) । हाथियों । 'हाथिन सों हाथी मारे।' कवि० ६.४० हाथी : सं०पु० (सं० हस्तिन्>प्रा० हत्थी) । कवि० ५.६ हाथ : हाथ+कए । एक भी हाथ (प्रहार) । 'बहइ न हाथु दहइ रिपु छाती।" मा० १.२८०.१ हानि, नी : सं०स्त्री० (सं०) । क्षति, नाश । मा० १.४.२; १.३६.५ हानिकर : वि०पु० (सं०) । नाशकारी । 'अघहानि-कर ।' दो० २३७ हाय : अव्यय (सं० हा)। विस्मय, क्लेश, क्षोम, शोक आदि-सूचक । मा १.२७६.५ हनु० ३८ हार : (१) सं०० (सं०) । माला । मा० १.१४७.६ (२) मैदान । खेत, उपवन आदि । 'बानरु बिचारो बाँधि आन्यो हटि हार सों।' कवि० ५.११ For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलसी शब्द-कोश 1143 'हार, हारइ, ई : आ०प्रए० (सं० हारयति>प्रा० हारइ) पराजित होता या ____ अनुभव करता है । 'बिधंस कृत मख देखि मन महं हारई ।' मा० ६.८५ छं० हारति : वकृ०स्त्री० । हारती, गवांती । 'यह बिचारि अंतरगति हारति ।' गी० ५.१९.३ हारहिं : आ०प्रब० (अ०) । हार जाते हैं, पराजित (क्षीण) होते हैं । 'हारहिं सकल सलभ समुदाई ।' मा० ७.१२०.५ हारहि : आ०मए० (अ०) । तू हार, खो दे, गवां दे। 'हारहि जनि जनम जाय ।' विन० १३०.२ हारा : भूकृ००। (१) पराजित हुआ । 'हियं हारा भय मानि ।' मा० ४८ (२) दाव पर लगा दिया (रखो दिया)। 'अब मैं जन्म संभु हित हारा।' मा० १.८१.२ हारि : (१) सं०स्त्री० । पराजय । 'मानि हारि मन मैन ।' मा० १.१२६ (२) पूकृ० । हार कर, पराजित होकर । 'हारि परा खल बहु बिधि ।' मा० ३.२६ (३) (समासान्त में) वि.पु. (सं० हारिन्) हरने वाला । 'संसय-भय हारि ।' विन० १०६.१ हारियो : भकृ०पु०कए । हारना । 'प्रभु के हाथ हारिबो जीतिबो नाथ ।' विन० २४६.४ हारी : (१) भकृ-स्त्री० । दाव पर खोदी, गवा दी। 'मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।' मा० २.१५८.८ (२) हारी गई। कहा भयो कपट जुआ जो हौं हारी।' कृ०६० (३) हरि । पराजय । 'प्रगट त दुरत न मानत हारी।' कृ० २२ (४) ग्लानि, थकावट । 'मोहि मग चलत न होइहि हारी।' मा० २.६७.१ (५) (समासान्त में) वि.पु. (सं० हारिन्) । हरने वाला । 'सब विधि तुम्ह प्रनतारति-हारी।' मा० ७.४७.३ हारें : क्रि०वि० । हारे हुए, पराजित दशा में, थके से होकर । 'हिये हारें.. चले जाहिं ।' मा० २.३००.८ हारे : भूक००ब० (सं० हारित>प्रा० हारिय) । (१) पराजित हुए। (२) गवा दिये (दे दिये)। 'मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।' मा० ७.८.८ (३) शिथिल हो गये । थके बिलोकि पथिक हियँ हारे।' मा० २.२७६.५ (४) हारें । हारने से । तिन्ह के हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनपी हारे ।' विन० १०१.३ हारे : आ०-भक००+उए । मैं हार गया। 'हृदयं हेरि हारेउँ सब ओरा।' मा० २.२६१.७ हारेउ : भूक००कए० । हार गया, थक गया । 'हारेउ पिता पढ़ाई पढ़ाई ।' मा० ७.११०.८ For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1144 तुलसी शब्द-कोश हारेहुं : हारने पर भी, हारे हुए में भी। 'हारेहुं खेल जितावहिं मोही।' मा० २.२६०.८ हारो : हार्यो । थक गया । 'मन तो हिय हारो।' हनु० १६ हार्यो : हारेउ । पराजित हुआ। विन० २४७.३ हाल, ला : (१) सं००+स्त्री० (अरबी वर्तमान काल ; फा० स्थिति, गति)। दशा, अवस्था । कनक कसिपु कर पुनि अस हाला।' मा० १.७६.२ 'जैसी हाल करी यहि ढोटा।' कृ०३ (२) परिणाम, फल । 'राम बिमुख अस हाल तुम्हारा ।' मा० ६.१०४.१० हालिहै : आ०भ०प्रए० (सं० हल्लिष्यति>प्रा० हल्लिहिइ)। हिल जायगा, प्रकम्पमान हो उठेगा । 'मसक व कहै, भार मेरे मेरु हालिहै। कवि० ७.१२० हालु : हाल+कए० . दशा, गति । गी० ५.३.४ ।। हास, सा : सं००+स्त्री० (सं० हास) । (१) हंसने की क्रिया । मा० ७.७७.४ (२) हंसी, परिहास । 'तासु नारि सभीत बड़ि हासा।' मा० ५ ३७.४ (३) स्मित, मुसकुराहट । 'सूचत किरन मनोहर हासा।' मा० १.१९८.७ (४) (सं० हास्य>प्रा० हास) । काव्यरस-विशेष जिसका स्थायी भाव हास है तथा मूर्खता आदि आलम्बन होते हैं । 'तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ।' मा० १.६.३ हास-अवास : (सं० हासावास=हास+अवास) कोहबर, घर में देवगृह जहाँ भावर के बाद वर-वधू जाते और हासविनोद क्रीडा करते हैं। पा०म० १३३ हाहा : मनुहार, अनुनय, खेद, आश्चर्य, पश्चात्तम, आक्षेप, निन्दा आदि का बोधक अध्यय (सं.)। मा० ६.७० हाहाकार : सं०० (सं०) । खेद, क्लेश, संकट आदि का सूचक कोलाहल शब्द = _हा-हा ध्वनि । मा० १.८७.७; ६.४२.४; ६.६३.५; ६६.७; ७.१०७ क हाहाकारा : हाहाकार । मा० १.६४.८ हिं : (क) अव्यय (सं० हि-निश्चयार्थक) । ही। 'होइ मरन जेहिं बिनहिं श्रम् ।' मा० १.५९ (ख) (१) हि । को . 'करि बिनती गिरिजहिं गृह ल्याए ।' मा० १.८२.१ (२) अधिकरण विभक्ति-में । 'तपहिं मन लागा।' मा० १.७४.३ (३) से, साथ। 'अस बरु तुम्हहिं मिलाउब आनी। मा० १.८०.४ (ग) आख्यात विभक्ति ब० । 'जहँ चितवहिं तह प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना । मा० १.५४.६ हिंकरि : पूकु० । हिं-हिं ध्वनि करके । 'हिकरि हिकरि हित हेरहिं तेही।' मा० २.१४३.७ हिंडोर, रा : संपु० (सं० हिन्दोल)। झूला, पालना । 'पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा।' मा० २.५६.५ For Private and Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द कोश 1145 हिंडोल, ला : हिंडोरा । गी० ७.१८.४ हिंडोलना : हिंडोल (सं० हिन्दोलनक)। 'आलि री राघो के हिंडोलना झूलन जैए।' गी० ७.१८.१ हिंडोलसाल : सं०पु० (सं० हिन्दोल-साल) । वह वृक्ष (साल) जिस में हिंडोला बंधा हो । गी० ७.१८.४ हि : (क) निश्चयार्थक अव्यय (सं.)। ही । मा० १ श्लोक ३ (ख) अवधी विभक्ति जो 'प्रति' के समान अर्थ देती है । 'भरतहि अवसि देहु जुबराजू (भरत को)।' मा० २.५०.२ 'रामहि तिलकु काल्हि जौं भयऊ (राम का, राम के लिए)।' मा० २.१६.६ 'राजहि तुम्ह पर प्रीति विसेषी (राजा में) ।' मा० २.१८.५ 'हिंस : सं०स्त्री० (सं० ह्रषा)। हींस, हीसना (अश्व-शब्द) । 'रथ रव बाजि हिंस चहुं ओरा।' मा० १.३०१.१ हिंसक : वि० (सं.)। हिंसा करने वाला-वाले, जीवघाती । मा० १.१७६.८ "हिंसा : सं०स्त्री० (सं.)। परपीडन, प्राणिवध, स्वार्थ हेतु या अकारण जीबघात । मा० १.१८३ हिएं : हृदय से, में । 'पदपंकज सेवत सुद्ध हिएँ ।' मा० ७.१४ छं० हिए : (१) हिय । हृदय । 'कहउँ हिए अपने की।' मा० २.३०१.२ (२) हिएं। हृदय में । 'मग लोग कुभोग सरेन हिए-हति ।' मा० ७.१४ छं० । हित : (१) वि० (सं.)। हितकारी, मित्र, प्रियजन । 'हित अनहित मध्यम श्रम फंदा ।' मा० २.६२.५ (२) इष्ट कार्य, कल्याण । 'मम हित लागि जन्म इन्ह हारे ।' मा० ७.८.८ (३) सं०पु० । प्रति । 'हित दे पद सरोज सुमिरौं ।' विन० १४१.५ (४) क्रि०वि० । को, के लिए (प्रयोजन, साध्य) 'हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ।' मा० १.१५३.८ (५) ओर । 'हिंकरि हिंकरि हित हरेहिं तेही ।' मा० २.१४३.७ हितकारक : हितकारी (सं०) । मा० १.१५४.१ हितकारी : वि०पू० (सं० हितकारिन्) । अपने अनुकूल आचरण करने वाला, हितू, उपकारी । मा० ७.२२.८ हितनि : हित+संब० । हितों, इष्ट वस्तुओं। हितनि के लाह की।' गी. १.६६.५ हिताहित : (हित+अहित) । अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल । गी० ५.१२.४ हितु : हित+कए । (१) कल्याण (इष्ट फल प्रप्ति) । 'राम सों सामु किए हितु है।' कवि० ६.२८ (२) उपकार । 'करि हितु हरहु चाप गरुआई।' मा० १.२५७.६ (३) प्रियजन । 'चितवहिं हितु जानी।' मा० १.२६६.३ हितू : हितु । (१) प्रियजन, सगे संबंधी । 'जेउ कहावत हितू हमारे ।' मा० १.२५६.१ (२) हितकार्य करने वाला-वाले । 'उधो परम हितू हित सिखवत ।' For Private and Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1146 तुलसी शब्द-कोश कृ० ४५ यह शब्द स्वतन्त्र रूप से विशेषण का कार्य करता है, यद्यपि मुलतः एक वचन का है। हिते : हित ही, हितकारी ही । 'बिनव करी अपभयहं तें, तुम्ह परम हित हो।' विन० २७०.३ हितही : आ०भ० उए । हित होऊँगा, हितकर=सुपथ्य बनू गा, सुपच हो सकूगा (रुचिकर होऊंगा)। 'त्योंहीं तिहारे हिएं न हितंहीं ।' कवि० ७.१०२ हिम : सं०० (सं.)। (१) बर्फ । 'जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ।' मा० १.११६.३ (२) पाला, ओस (कुहरा), जाड़ा । 'घोर घाम हिम बारि बयारी।' मा० २.६२.४ (३) हेमन्त । हिम रितु अगहन मास सुहावा ।' मा० १.३१२.५ हिमकर : सं०० (सं.) । शीतल किरणों वाला=चन्द्रमा । मा० १.१६.१ हिमगिरि : हिमालय । मा० १.६५.६ हिममानु : सं.पु. (सं.) । शीतल (हिम) किरणों (भान) वाला = चन्द्रमा । हनु० ११ हिमभूधर : हिमगिरि । मा० १.१०१ छं० हिमराती : जाड़े का रात, हेमन्त-रजनी । मा० २.१२.१ हिमवंत : सं०पु. (सं० हिमवत् >प्रा० हिमवंत) । हिमालय । मा० १.६८ हिमवंतु : हिमवंत+कए० । मा० १.८२.१ हिमवान, ना : हिमवंत । मा० १.१०३.२ हिमवानु : हिमवान+कए । पा०म०६ हिमसैलसुता : हिमालय पुत्री पार्वती। मा० १.४२.२ हिमाचल : (हिम+अचल) सं० (सं.)। हिमालय । मा० २.१३८.७ हिमु : हिम+कए । बफी या जाड़ा । 'सवै हिम आगी।' मा० २.१६६ हिय : हृदय में (से) । 'सुमति हिय हुलसी।' मा० १.३६.१ हिय : सं०० (सं० हृदय>प्रा० हिय) । मा० ७.४२ हियउ : हिय+कए० (अ.) । हृदय । 'तन पुलकित हरषित हियउ ।' मा० ६ १७. हियरें, रे : हृदय पर, में। 'जानि पर सिय हियरें जब कुंभिलाइ ।' बर० १२ 'मूरति ___ मधुर बस तुलसी के हियरे ।' गी० १.४३.३ हिया : हिय । विन० ३३.५ हियाउ : सं००कए । साहस । 'कासों कहीं काहू सो न बढ़त हियाउ सो।' विन० १८२.३ हिये : हिए । हृदय में । हनु०६ हियो : हियउ । 'प्रेम परिपूरन हियो।' मा० १.१०१ ई० हिरदय : हृदय । जा०म० ८५ For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1147 हिन्याच्छ : सं०पुं० (सं० हिरण्याक्ष) । दैत्यविशेष जो हिरण्यकशिपु का भाई और प्रह्लाद का पितव्य था । मा० ६.४८ हिलि : पूकृ० (सं० हिलित्वा-हिल भावकरणे>प्रा. हिलिअ>अ0 हिलि) । हिल कर, कम्प (सात्त्विकभाव) अनुभव कर, प्रेभाई होकर । 'बार-वार हिलि मिलि दुहुँ भाई।' मा० २.३२०.५ हिलोरि, री : हलोरि । तरङ्गित करके । गी० १.१०५.४ हिलोरे : हलोरे । तरङ्ग । 'राम प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मगजल जलधि हिलोरे ।' विन० १६४.३ हिसिषा : सं० । प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, होड़, यह भावना कि दूसरे की अच्छाई का अधिकार अपने को मिल जाय (आधुनिक अवधी में हिसका') । अरवी हस्क' दूसरे का भेद खोलने का अर्थ देता है और 'हस्साक' रहस्य खोलने वाले को कहा जाता है । इस प्रकार गुप्त रूप से दूसरे की बराबरी करने की प्रवृत्ति 'हिसका' है । 'जों अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान .“जीव कि ईस समान ।' १.६६ हिहिनात : वकृ०० । हि-हि (अश्व ध्वनि) करते। हींसते । 'हर हाँके फिरि दखिन दिसि हेरि हेरि हिहिनात ।' रा०प्र० २.३.४ हिहिनाहि, हीं : आप्रब० । हिनहिनाते हैं, हींसते हैं । मा० २.६६ देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं।' मा० २.१४२.८ ही : हिं। (१) में, से । कोतकहीं गिरि गेह सिधाए।' मा० १.६६ (२) निश्च यार्थक--'त्यों हीं।' कवि० ७.१०२ 'अब हीं।' मा० २.३४.७ (३) आख्या तविभक्ति- 'खाहीं।' मा० १.६६.६ हो : (१) हिय । हृदय । 'हरषे हेतु हेरि हर ही को।' मा० १.१६.७ (२) ह+ स्त्री० । घातक, नाशक ! 'हास त्रय-तास ही।' गी० ७.६.४ (३) /ह+ भूकृ०स्त्री० । थी। 'हमहं कछुक लखी ही तब की औरेबै नंदलला की।' कृ० ४३ (४) हि (निश्चय) । 'खेलत ही देखौं निज आँगन ।' कृ० ५ (५) हि (विभक्ति) । को । 'हृदय जानि निज नाथही ।' गी० ७.६.२ हीचे : आ.प्रए० (सं० ह्रीच्छति-हीच्छलज्जायाम>प्रा. हिच्छइ) । संकुचित (लज्जित) होता होती है। हिचकता-ती है। 'कहत सारदहु कर मति हीचे ।' __ मा० २.२८३.४ हीतल : सं० पु. (सं० हृत्तल)। हृदयतल, कलेजा। 'तनु पूजि भी हीतल सीतलताई ।' कवि० ७.५८ होन : वि०० (सं०) । (१) रहित, शून्य । 'सकल कामना हीन ।' मा० १२२ (२) नीच, क्षुद्र । 'जाति हीन ।' मा० ३.३६ For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1148 तुलसी शब्द-कोश हीनता : सं०स्त्री० (सं०) । तुच्छया, निस्सारता । 'यह बरनत हीनता घनेरी।' मा० ७.२२.३ होना : हीन । (१) रहित । 'बल हीना ।' मा० ७.१८.६ (२) क्षुद्र, तुच्छ । 'कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।' मा० ५.७.७ होनी : हीन+स्त्री० (सं० होना) । रहित । 'श्रुति नासा हीनी।' मा० ३.१८.६ हीन : हीन+कए० । एकमात्र शून्य । 'सब बिद्या-हीनू ।' मा० १.६.८ होने : हीन (ब०) । 'दया-दान-हीने ।' विन० १०६.२ होय : हिय । कवि० ६.२२ हीयो : हियो । कवि० ७.१७६ हीर, रा : सं०० (सं० हीर, होरक>प्रा० हीर, हीरअ)। (१) उत्तम रत्न विशेष । मा० १.१६६.८ (२) सार तत्त्व (गूदा) । 'सेमर सुमन आस करत तेइ फल बिनु होर ।' विन० १६७.२ हीरक : हीरा । गी० ७.१७.१५ हीर : हीरे को । 'सोभा सुख छति लाहु भूप कहें, केवल कांति मोल हीरै ।' गी० ६१५.२ हुं : हु । भी । 'हमहुं कहबि अब ठाकुर सोहाती।' मा० २.१६.४ 'सपनेहुँ तोपर ___कीपु न मोही।' मा० १.१५.१ हुकरि : पूकृ० (सं० हुंकृत्य>प्रा० हुंकरिअ>अ० हुंकरि)। 'हु' ध्वनि करके । 'हंकरि हुंकरि सुलवाइ धेनु जन धावहिं ।' पा०म० १४३ हंति : वि०स्त्री० पर सर्ग (दे० हुंते) । अपेक्षा वाली, ओर की (ओर से) । 'सासु ससुर सन मोरि हुंति बिनय करबि परि पायें ।' मा० २.६८ हुँते : वि.पु० परसर्ग (दे० हुंति) (सं० भूत>प्रा० हुत्त = अभिमुख; सं० भवत् >प्रा. होत हुत-से) । ओर से, अपेक्षा में । 'पिय बिनु तियहि तरनि हुँते ताते।' मा० २.६५.३ हु : अव्यय (सं० खलु>प्रा० हु)। भी (निश्चय) । हंकार : सं०० (सं०) । ध्वनिविशेष जो कष्ठ-नासिका-जनित होती है जिससे विविध भाव (स्नेह, दया, खेद, निषेध आदि) व्यक्त होते हैं। वात्सल्य सूचक प्रयोग द्रष्टव्य है-'हुंकार करि धावत भई ।' मा० ७.६ छं० हुआहि : आ०प्रब० । हू-हू ध्वनि करते हैं । 'खाहिं हुआहिं अधाहिं दपट्टहिं ।' मा० ६.८८.६ हुत : भूक०० (सं०) । हवन किया हुआ । विन० ४६.८ हुतासन : सं०० (सं० हुताशन) । अग्नि । हनु० १६ हुते : भूकृ००ब० (सं० भूत>प्रा० हुत्त) । थे । 'दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई ।' कवि० २.२ For Private and Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्दकोश 1149 हुतो : भूक०पु०कए० (सं० भूत:>प्रा० हुत्तो) । था। 'हुतो पोसात दान दिनः दीबो।' कृ०६ हुनर : सं०पु० (फा०) । कारीगरी, कला, कौशल । मा० ७.३१.६ हुनिए : आ०कवा०प्रए० (सं० हूयते>प्रा० हुणीअइ)। होम कर दीजिए, हवन किया जाय । 'बिषम बिवोग अनल तनु हुनिए ।' कृ० ३७ हुने : भूक०० ब० (सं० हुत>प्रा० हुणिय) । होम कर दिये । मा० ६.२८ हुने : आ०प्रब० (सं० जुह्वति>प्रा० हुणंति>अ० हुणहिं) - होम करते हैं । 'स्वाहा ___ महा हाँकि हाँकि हुनै हनुमान हैं।' कवि० ५.७ हुमगि : पूकृ० (सं० उन्मङ ग्य>अ० उम्मग्गि)। उछल कर । 'हुमागि लात तकि कूबर मारा ।' मा० २.१६३.४ हुमुकि : हुमगि । 'तुलसी हुमुकि हिए हन्यो लात ।' गी० ५.२५.४ (सं० उन्मुक्त >प्रा० उम्मुक्क)। /हुलस, हुलसइ : आ०ए० (सं० उल्लसति>प्रा. उल्हसइ)। उल्लास लेता लेती है; सानन्द उच्छलन करता-करती है । 'हुलस तुलसी छबि सो मन मोरे।' कवि० २.२६ हुलसत : वकृ०० (सं० उल्लसत् >प्रा० उल्हसंत)। उल्लसित होता-होते । गी.. हुलसति : वकृ०स्त्री० । उल्लास लेती, उच्छलन करती, हुमसती। 'जा के हिये हुलसति हाँक हनुमान की।' हनु० १३ हुलसानी : भूक०स्त्री० । उल्लसित हुई; उमड़ पड़ी । 'भगत बछलता हिय हुलसानी।' ___ मा० १.२१८.३ हुलसि : पूकृ० (सं० उल्लस्य>प्रा० उल्हसिअ>अ. उल्हसि) । उल्लास युक्त हो कर । 'हुलसि हुलसि हिये तुलसिहं गाये हैं।' गी० १.७४.४ हुलसी : (१) सं०स्त्री० । तुलसीदास की माता (का नाम)। (२) भूक स्त्री०. (सं० उल्लसिता>प्रा० उल्हसिआ)। उल्लसित हुई । 'तुलसिदास हित हिये हुलसी सी।' मा० १.३१.१२ 'संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी।' मा० हुलस : हुलसइ ! कवि० ७.१ हुलस्यो : भूकृ००कए । उल्लसित हुआ। 'हुलस्यो हियो।' मा० १.३२४ छं० ३ हुलास, सा : सं०० (सं० उल्लास>प्रा० उल्हास) । उत्साह, हर्षोच्छल न, आमोद तरङ्ग । मा० ६.१०८ ६ हुलासू : हुलास+कए । 'लेहु सब सवति हुलासू ।' मा० २.२२.६ हूं, हू : हुं । भी । अजहूं, तबहूं, अबहूं आदि । 'तेरे हेरें लोप लिपि बिधिहू गनक की ।' कवि० ७.२० For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1150 तुलसी शब्द-कोश हूहा, हा : सं०पु० (सं० अव्यय-ह)। अभिमान, तिरस्कार आदि को सूचक शब्द । 'धाए कपि करि हूह ।' मा० ६.६६ ‘सुनि कपि भालु चले करि हूहा।' मा० ६.१.१० हृद : सं०० (सं० १-हृद् २-हृद)। हृदयरूपी सरोवर । 'संकर हृद पुंडरीक .."हरि चंचरीक ।' गी० ७.३.६ हृदउ : हृदय+कए । 'दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू ।' मा० २.२७.४ हृदय : (१) हृदय में। 'अति अभिमान हृदयं तब आवा।' मा० १.६०.७ (२) हृदय से । 'भेंट हृदयं लगाइ।' मा० ७.५ हृदय : सं.पु. (सं.)। (१) अन्तःकरण । 'हृदय सिंधु मति सीप समाना।' मा० १.११.८ (२) वक्ष । 'हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं।' मा० १.५५.६ हृदयनिकेत : सं०+वि० पु० (सं०) । मनोभव (मन में रहने वाला) । कामदेव । मा० १.८६ हृदये : (सं०) हृदय में । मा० ५ श्लोक २ हृदयेस, सा : विल (सं० हृदयेश) । अन्तःकरण का स्वामी =अन्तर्यामी प्रेरक । मा० ७.१११.३ हृदि : हृदये (सं.) । हृदय में । 'हृदि बसि राम काम मद गंजन ।' मा० ७.३४.८ हुदै : हृदय । विन० ८८.४ हृषीकेस : संपु. (सं० हृषीकेश-हृषीका=इन्द्रिय) । इन्द्रियों का स्वामी या प्रेरक =परमेश्वर । 'हृषीकेस सुनि नाउँ जाउँ बलि अति भरोस जिय मोरे । तुल सिदास इंद्रिय संभव दुख हरे बनिहिं प्रभु तोरे ।' विन० ११६.५ हृष्ट : वि० (सं.)। प्रसन्न । हृष्टपुष्ट : प्रसन्न तथा स्वस्थ । मा० १.१४५.८ हे : (१) अव्यय (सं०) । सम्बोधन । 'हे खग मृग हे मधुकर स्रनी।' मा० ३.३०.६ (२) /ह+भूक०पु०ब० । थे । 'हे हम समाचार सब पाए।' कृ० ५० हेठ : (१) सं००+वि० (सं० अधः--हेठ>प्रा० हेट्ठ) । नीचा । (२) क्रि०वि० । नीचे । 'ऊपर आपु हेठ भट ।' मा० ६.४१ हेत, ता : हेतु । 'जग माहीं विचरत एहि हेता।' वैरा०६ हेति : (हा+इति) 'हा' शब्द । 'हाहा हेति पुकारि ।' मा० ६.७० हेतु, तू : सं०पु० (सं० हेतु) (१) कारण । 'राम जन्म कर हेतु ।' १.१५२ (२) प्रयोजन, साध्य । 'दूसर हेतु तात कछु नाहीं।' मा० २.७५.३ (३) के लिए । 'सवन्हि बनाए मंगल हेतू ।' मा० ७.६.२ (४) हित । प्रेम । 'देखि भरत पर हेतु ।' मा० २.२३२ (५) बीज (बीजमन्त्र) । 'बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।' मा० १.१६.१ र=अग्निबीज; For Private and Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1151 आ = सूर्यबीज; म= चन्द्रबीज (जमदग्निपुत्र, सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राम-इन तीनों का बोध 'राम' शब्द)। हेतुबाद : सं०० (सं० हेतुवाद =तर्कशास्त्र) । तकंवाद, तार्किक विवद; युक्ति प्रतियुक्यिों द्वारा खण्डन-मण्डन परक मतवाद । 'बेदमरजाद मानों हेत्बाद हुई है।' गी० १.८६.३ हेम : सं०० (सं० हेमन) । सुवर्ण । मा० ७.३.६ हेमलता : (१) स्वर्ण निर्मित लता । (२) स्वर्णमाला। (३) सोनजुही । (४) स्वर्ण चम्पक । 'हेमलता सिय मूरति ।' बर० २६ हेरंब : सं०० (सं०) । गणेश जी। विन० १५.३ हेर, हेरइ : आ०प्रए । देखता-देखती है। 'सीय सनेह सकुच बस पिय तन हेरइ ।' जा०म० १०८ हेरत : वकृत्यु । (१) देखता-ते । 'जिय की जरनि हरत हैसि हेरत ।' मा० २.२३६.८ (२) खोजता-ते । 'बालक भभरि भुलान फिरिहिं घर हेरत ।' पा०म०१०४ हेरनि : सं०स्त्री० । देखने (या खोजने) की क्रिया । 'हेरनि हँसनि हिय लिय हैं चोराई।' गी० २.४०.३ हेरहिं : आ०प्रब० । (१) देखते हैं । 'अढकि परहिं फिरि हेरहिं पीछे।' मा० २.१४३.६ (२) खोजते हैं । 'बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं ।' मा० ४.२४.२ हेरा : भूकृपु । (१) देखा। 'जाइ न हेरा।' मा० २.३८.४ (२) खोजा । ___ 'जतनु हिय हेरा।' मा० २.२५७.३ हेराई : पूकृ० । खो (कर) । 'जेहि जानें जगु जाइ हेराई ।' मा० १.११२.२ हेरि : पू० । (१) देखकर । 'हरषे हेतु हेरि हर हीको।' मा० १.१६.७ (२) खोजकर । 'हृदयं हेरि हारेउँ सब ओरा ।' मा० २.२६१.७ (३) आ० आज्ञा-मए । तू देख । 'हेरि हेरि हेरि हेली ।' गी० २.२६.३ हेरिए, ये : आ०-कवा०-प्रए० । देखिए, खोजिए । 'हेरिए हलक में।' कवि० ६.२५ हनु० ३४ हेरी : (१) हेरि। देखकर । 'हरष कपि रघुपति तन हेरी।' मा० ६.१.४ (२) भूक०स्त्री० । देखी । 'सपनेहुं सो (करतूति) न राम हियँ हेरी।' मा० १.२६.७ हेरें : क्रि०वि० । देखा देने से । 'तेरे हेरें लोपै लिपि बिधिह गनक की।' कवि० ७.२० हेरे : (१) भूकृ००ब० । देखो हुए, खोजे हुए । 'तुम्ह ही बलि ही मो को ठाहरु हेरे ।' कवि० ७.६२ (२) देखाकर । 'बैठो सकुचि साधु भयो चाहत मातु बदन तन हेरे।' कृ०३ For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1152 हेरें : हेरहि । गी० ३.६.३ हेरं : आ० - आज्ञा - मए० । तू खोज, देख । 'राम की सरन जाहि, सुदिनु न तुलसी शब्द-कोश हेरे ।' गी० ५.२७.२ हेरो : (१) भूकृ०पु०कए० | देखा । ' मैं सामुहें न हेरो ।' गी २.७३.२ (२) सं०पु०कए० । खोज, पता । 'पाइबो न हेरो ।' विन० १४६.४ हेलया : (सं०) हेलासे, खोल-खेल में । 'हेलया दलित भूभार भारी ।' विन० ४४.४ हेला : सं० स्त्री० (सं० ) । खोल, लीला, खिलवाड़ । मा० ६.३७.१ हेली : सम्बोधन - स्त्री० (सं० हे आलि > प्रा० हेल्लि ) । हे सखी । 'हेरि हेरि हेरि हेली ।' गी० २.२६.३ हैं: हहि = अहहिं । मा० ६.६३.३ है : हइ = अहइ । 'को है बपुरा आन ।' मा० ७.६२ होंही : होहीं । 'लोचन ओट रामु जनि होंही ।' मा० २.४५.२ हो : (१) खोद, आश्चर्य, विषाद आदि का सूचक अव्यय (सं० अहो ) । 'हराम हो हराम हन्यो ।' कवि० ७.७६ (२) सम्बोधन, आह्वान, ललकार आदि का सूचक अव्यय ( सं ० हो ) । 'बिहँसत आउ लोहारिनि हाथ बरायन हो ।" रा०न० ५ (३) /ह + भूकृ०पु० ए० | था । 'हठि न हियो हरिबे हो ( हरना चाहिए था ) ।' कृ० ३६ 'हो, होइ, ई : आ०ए० (सं० भवति > प्रा० होइ) । (१) होता है । 'होइ न बिषय बिराग । मा० १.१४२ ' राम कीन्ह चाहहि सोइ होई ।' मा० १.१२५.१ (२) हो, होवे । 'जौं परिहास कीन्हि कछु होई ।' मा० २.५०.६ (३) (आशीर्वाद ) 'होइ अचल तुम्हार अहिबाता ।' मा० ७.७.२ होइ : पूकृ० । होकर । 'दास तव जे होइ रहे ।' मा० ७.१३.३ होइअ : आ०भावा० (सं० भूयते भूयताम् > प्रा० होईअइ होईअउ ) । हुआ जाय ( होना चाहिए ) । 'होइअ नाथ अस्व असवारा ।' मा० २.२०३.५ होइगी : आ०भ० स्त्री०ए० । होगी । 'तुलसी त्यों त्यों होइगी गरुई ज्यों ज्यों कामटि भीजं ।' कृ० ४६ होइहउँ : आ०भ० उ० । होऊँगा । 'होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें ।' मा० १.१५२.१ होइहि : आ०भ० प्रब० । होंगे । 'भए जे अहहि जे होइह हि आगें ।' मा० १.१४.६ होइहहु : आ०भ०म० (सं० भविष्यथ > प्रा० होइहिह > अ० होइहहु ) होओगे । 'हो हहु मृकुत ।' मा० १.१३६.७ होइहि : होइहहि । बैठिअ, होइहि, पाय पिराने । मा० १.२७८.२ होइहि : आ०भ० प्र० । होगा, होगी । 'अप्रतिहत गति होइहि तोरी ।' मा० ७.१०६.१६ हो हैं : होइह हि । 'होइहैं सफल आजु मम लोचन ।' मा० ३.१०.ε For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1153 होइहै : होइहि । होगा। गी० १.६.२७ होई : होइ । होता है । 'बिनु सतसंग बिबेक न होई ।' मा० १.३.७ दे० हो। हो, ऊ : आ० उए० (सं० भवामि>प्रा० होमि>अ० होउँ) । हूं, होता हूं। 'कवि न होउँ ।' मा० १.६८ होउ, ऊ : आ०-संभावना आदि-प्रए० (सं० भवन >प्रा. होउ)। हो, होवे । 'अजसु होइ जग ।' मा० २.४५.१ "नित नव नेह राम पद होऊ ।' मा० ७.११४.३ होएहु : आ०-भ०+कामना, आशी:, आज्ञा-मब । तुम होना । 'होऐहु संतत __पियहि पिआरी। मा० १.३३४.४ होड़ : सं०स्त्री० (सं० होड़ अनादरे) । प्रतिस्पर्धा, लागडाट । 'मुखचंद सों चंद सों होड़ परी है ।' कवि० ७.१८० होत : (१) वकृ०० । होता-ते, हो रहा-रहे । 'होत महारन रावन रामहि ।' मा० ६.५७.५ (२) क्रियाति पु०ए० । यदि होता। जौं नहिं होत मोह अति मोही।' मा० ७.६६.४ होति, ती : वकृ०स्त्री० । हो रही। 'होति प्रतीति न मोहि महतारी।' मा० २.४२.६ (२) क्रियाति०स्त्री०ए० । यदि होती। 'जौं रघुबीर होति सुधि पाई ।' मा० ५.१६.१ 'जो पै राम चरन रति होती।' विन० १६८.१ होते : क्रियाति.पुब ० । (न जाने कितने) होते । 'सावकरन अगनित हय होते ।' मा० १.२६६.५ होतेउ : क्रियाति०'०उए० । तो मैं होता । 'तौ पनु करि हते उँ न हँसाई ।' मा० १.२५२.६ होतो : हात+कए० (क्रियाति०) । यदि होता । 'तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ ।' दो० ४६३ होन : भक० अव्यय। होने । 'दस दिसि दाह होन अति लागा।' मा० ६.१०२.९ होनिहार, रा : वि०पू० । होने वाला । भावी । 'होनिहार का करतार ।' मा० १.८४ छं. 'सोच हृदयं बिधि का होनिहारा ।' मा० २.७०.४ होनी : (१) भक०स्त्री० । होने वाली। बीती है वय किसोरी जोबन होनी ।' गी० २.२२.१ (२) सं०स्त्री० । उत्पत्ति, जन्म । 'निज निज मुखनि कही निज होनी।' मा० १.३३ होने : भकृ०० ब० । होने वाले, होनहार । 'भे न भाइ अस अहहिं न होने ।' मा० २.२००.१ होनेउ : होने वाले भी । 'भय उ न है कोउ होनेउ नाहीं।' मा० १.२६४.५ होनो : भक००कए० । होना । 'होनो दूजी ओर को।' दो० ३६१ For Private and Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1154 तुलसी शब्द-कोश होब : भकृ०० (भाववाच्य) । होना (होगा)। 'तै होब पुनीता ।' मा० ४.२८.८ __ 'तब मैं होब तुम्हार सुत ।' मा० १.१५१ होम : सं०० (सं.)। हवन । मा० २.१२६.७ । होमु : होम+कए । 'करि होम बिधिवत गाँठि जोरी ।' मा० १.३२४ छं० ४ होय : होइ। (१) होता-ती है । 'होय दूबरी दीनता।' दो० ६६ (२) हो सकता है। 'तुम्हतें कहा न होय ।' हनु० ४४ होयगी : होइगी । दो० ४६ होरी : होलिका । गी० २.४६.२ होलिका : सं०स्त्री० (सं०) । होली (होलिका दहन की अग्नि ज्वाला)। 'होलिका __ ज्यों लाई लंक ।' हनु० ६ होलिय : होलिका (प्रा० होलिया>अ० होलिय =होली) । 'त्रिबिध सूल होलिय जरै ।' विन० २०३.१७ होसि : आ०मए० (सं० भवसि >प्रा० होसि) । तू होता-ती है; तू हो। 'बिकल होसि जब कपि के मारे ।' मा० ५.४.७ 'मन जनि होसि पतंग।' मा० ३.४६ होसियार : वि० (फा० होशियार) । सावधान, सतर्क । हनु० १६ होसौं : वहौं (सं० भविष्यामि>अ० होसउँ) । होऊँगा । 'फिरि घाटि न होसौं।' कवि० ७.१३७ होहिं, हीं : आ०प्रब० (सं० भवन्ति>प्रा. होति>अ० होहिं)। होते-ती हैं। 'होहिं सगुन सुभ ।' मा० ७.६ (२) हों, होवें । 'पठए बालि होहिं ।' मा० ४.१.५ (३) होइहिं । भरत भुआल होहिं ।' मा० २.२१.७ (४) होरहे-रही हैं । 'बस्तु अनेक निछावरि होहीं।' मा० १.३५०.५ होहिंगे : आ०भ००प्रब० । होंगे । 'अंत फजीहत होहिंगे गनिक के से पूत ।' दो० होहि, ही : (१) होइहि । होगा-होगी। 'कहहु लालसा होहि न केही ।' मा० १.३४५.४ (२) आ०मए० (सं० भवसि>प्रा० होसि>अ० होहि) । तू होता है। रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही।' मा० ३.२६.११ (३) तू हो, हो जा । सपदि होही पच्छी चंडाला।' मा० ७.११२.१५ होहुँ : आ०-कामना -प्रए । हों, होवे । 'होहुं राम सिय पूत पुतोहू ।' मा० २.१५.७ होहु, हू : आ०मब० (सं० भवत>प्रा० होह>अ० होह)। हो ओ। 'जाइ निसाचर होहु ।' मा० १.१७३ 'सोक कलंक कोठि जानि होहू ।' मा० २.५०.१ हौं : (१) अहउँ। मैं हूं। 'मैं न लोगनि सोहात हौं।' कवि० ७.१२३ (२) सर्वनाम-उए० (सं० अहम् >प्रा० हं>अ० हउँ) । मैं । 'हौं मारिहउँ भूप दो भाई ।' मा० ६.७६.१२ For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुलसी शब्द-कोश 1155 हाँह : मैं भी । 'होहु कहावत सब कहत।' मा० १.२८ ख हो : हह अहहु । तुम हो । 'जान सिरमनि हो हनुमान ।' हनु० १६ खा: इहाँ । यहाँ, इस स्थान पर । 'ऊधो, यह ह्यां न कछु कहिबे ही ।' कृ० ४० हब : सं०पु० (सं.)। सरोवर, तड़ाग। मा० १.२२ व: होइ । होकर, रहकर । 'कहूं ह्रजीबो ।' कृ. ६ बबे : भकृ०० (सं० भवितव्य >प्रा० होइअव्व) । होने । 'एक टेक हबे की।' कवि० ७.८२ ह्र हैं : होइहहिं । कवि ७.१३६ ह है : होइहै। होगा। 'ह है कीच कोठिला धोए।' कृ० ११ ह हौं : होइहउँ । होऊँगा, रहूंगा । 'दोष सुनाये ते अगेहं को होसियार हहौं।' हनु० १६ व हो : होइहहु । होओगे । 'ह ही लाल कबहिं बड़े बलि मैया ।' गी० १.८.१ ज्ञानेन संगृहीत तुलसी-साहित्य-कोश-कुसुमाली । रमयतु रमा-समेतं श्रीराम मानसारामे ॥ For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan Bc N' Books 042942 gyanmandir@kobatirth.org 77, Tagore Park, DELHI-110009 (INDIA) For Private and Personal Use Only