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तुलसी शब्द-कोश
(४) विविधतायुक्त । 'ते बिचित्र जल बिहग समाना ।' मा० १.३७.११ (५) चित्रवर्ण, रंगबिरंगा । 'अति बिचित्र कछु बरनि न जाई । कनक देह मनि
रचित बनाई।' मा० ३.२७.२ (सभी अर्थ गुम्फित-से मिलते हैं)। बिचित्रा : बिचित्र+स्त्री० । मा० २.२८२.१ बिछाइ : पूकृ० (सं० विच्छाद्य>प्रा० विच्छइअ>अ० विच्छाइ)। बिछा कर ।
__ 'आछे आछे बीछे बीछे बिछौना बिछाइ के ।' गी० १.८४.३ बिछुरत : वकृ०० (सं० विच्छुरत्>प्रा० विच्छुडंत)। वियुक्त होता होते ।
बिछुड़ते ही । 'बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं ।' मा० १.५.४ बिछुरनि : सं०स्त्री० । बिछड़ने की क्रिया, वियोग । 'तब तें बिरह रबि उदित एक
रस सखि बिछुरनि रबि पाई।' कृ० २६ बिछुरें : बिछुड़ने पर, से । 'बिछुरें कैसे प्रीतम लागु जियो है ।' कवि० २.२० बिछरे : भूक००ब० । वियुक्त हुए । 'बिछुरे कृपानिधान ।' गी० २.५६.१ बिछुर्यो : भूक.पु०कए । बिछुड़ गया, छूट गया। 'संग सकल बिछुर्यो।' विन०
९१.४ 'बिछोह, बिछोहइ : (सं० विक्षोभयति>प्रा. विच्छोहइ) आ०प्रए। अलग
करता है-करती है; दूर करता-ती है । 'सुमिरत सकृत मोहमल सकल बिछोहइ।'
जा०म० ६६ बिछोहनि : वि०स्त्री० । अलग करने वाली, हटाने वाली । 'सब मल बिछोहनि जानि ___ मूरति ।' जा०म०ई० १२ बिछोही : भूक०स्त्री०ब० । वियुक्त की हुईं। 'के ये नई सिखी सिखई हरि निज
__ अनुराग बिछोहीं।' कृ० ४१ बिछोही : भूकृ०स्त्री० । वियुक्त की । जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही ।' मा०
बिछोह : बिछोह+कए । वियोग । 'जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू ।' मा० ६.६१.६ बिछोहे : भूकृ.पुब । वियुक्त किये, रहित किये । 'राम प्रेम अतिसय न
बिछोहे ।' मा० २.३०२.४ । बिछोहै : विछोहइ । '(नाम) अघ अवगुननि बिछोहै ।' विन० २३०.३ बिछौना : सं०० (सं० विच्छादन>प्रा. विच्छावण) । बिछावन, शयास्तरण । __गी० १.८४.३ बिजई : वि.पु. (सं० विजयी)। विजेता, जयशील,उत्कृष्ट । मा० १.१२२ बिजय : (१) विजय । मा० ६.८४ (२) विष्णु के एक द्वारपाल का नाम । मा०
१.१२२.४ बिजयी : विजई । कवि० १.२२
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