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तुलसी शब्द-कोश
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लरिकाइअ : लड़कपन ही । ‘जो बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ ।' पा०म० ४६ लरिकाइहि : लड़कपन ही, बचपन ही। मा० २.२७४.५ ।। लरिकाई : लड़कपन में, शिशुकाल में । 'बह धधहीं तोरी लरिकाईं।' मा०
१.२७१.७ लरिकाई : (१) सं०स्त्री०। लड़कपन, शैशव, बचपन । मा० २.१०५
(२) बचकाना स्वभाव (अज्ञता)। कृ० १३ (३) बालसुलभ चञ्चलता
(अशिष्टता) । 'कहबि न तात लखन लरिकाई।' मा० २.१५२.८ लरिकिनी : सं०स्त्री०ब० । लड़कियाँ। 'बधू लरिकिनी पर घर आईं ।' मा०
१.३५५.८ लरिक : लड़का ही। 'अंत तो हौं लरिक ।' गी० १.७२.२ लरिको : लड़के भी, पुत्र भी। 'जा के जिये मुये सोच करिहैं न लरिको।' हनु०
४२ लरिबे : भकृ० पु. (सं० लडितव्य>प्रा० लडिअव्व) । लड़ने, युद्ध करने । 'जिन्ह __के लरिबे कर अभिमाना।' मा० १.१८२.२ लरिहै : आ०भ० प्रए । लड़ेगा। 'लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।' कवि० १.२० लरे : भूकृ००ब० । लडे, युद्धरत हुए । 'लोहे ललकारि लरे हैं।' गी० ६.१३.१ लर : आ०प्रए० (सं० लडति>प्रा० लडइ)। लड़ता है, युद्ध करता है । ‘मृगराज
के साज लरे।' कवि० ६.३६ । लरौं : आउए० । लड़ता हूं। कलह करता हूं। 'निज पाप........ सुनत लरौं ।'
विन० १४१.४ लर्यो : भूक ००कए । लड़ा, युद्ध किया । 'राम काज खगराज आज लर्यो ।'
गी० ३ ८.३ ललक : सं०स्त्री० । लालसा, स्पृहा, लिप्सा=प्राप्त करने की तीव्र इच्छा ।
दो० ६७ ललकत : वकृ००। तीव्र लिप्सा से लपकते । 'ललकत लखि ज्यों कंगाल पातरी
सुनाज की।' कवि० ६.३० ललकारि : पूकृ० । ललकार कर, चुनौती देकर, प्रतिद्वन्द्विता में आह्वान करके ।
'लोहे ललकारि लरे हैं ।' गी० ६.१३.१ ललकि : पूकृ० (सं० लालक्य-लक रसने) । ललक कर, तीव्र लालसा से चञ्चल
होकर । 'लगे ललकि लोचन ।' मा० १.२४८.८ ललचानी : भूक०स्त्री० । ललचायी, लुब्ध हुई। 'रसना 'त्यों न ललकि ललचानी ।'
विन० १७०.३ ललचाने : भूक००० । ललच उठे, लुब्ध हुए। 'देखि रूप लोचन ललचाने ।'
मा० १.२३२.४
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