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तुलसी शब्द-कोश
लय उ, ऊ : (१) भूक०पु०कए । लिया। ग्रहण किया। 'दमके उ दामिनि जिमि
जब लयऊ ।' मा० १.२६१.६ (२) आरम्भ किया। 'आपन नाम कहन तब
लयऊ।' मा० १.१६३.७ लयलीन, ना : (दे० लीन)। (१) ध्यानमग्न, समाधिलीन । मा० १.१३१
(२) अनुरक्त, आसक्त । 'बिषय लयलीना।' मा० २.१७२.३ लये : लए। लिये । गी० १.१११ लयो : लयउ । (१) लिया, ग्रहण किया। हरि अवतार लयो।' गी० १.४७.२
(२) पाया। 'लयो बयो बिनु जोतो।' विन० १६१.४ लरखरत : वकृ०० । लड़खड़ाता-ते । 'दिग्गयंद लरखरत ।' कवि० १.११ लरखरनि : सं०स्त्री० । लड़खड़ाने की क्रिया, गिरना-पड़ना । गी० १.२७.६ लरखरे : भूकृ००ब० । लड़खड़ाए, स्खलित हुए । 'भूधर लरखरे ।' जा०म०/०
लरत : वकृ.पु. (सं० लडत्>प्रा० लडंत) । लड़ाई करता-ते । 'लरत निसाचर
भालु कपि ।' मा०६.८० लरन : सं०० (सं० लडन)। लड़ना-झगड़ना। 'या की टेव लरन की; सकुच
बेचि सी खाई।' कृ०८ लरनि : सं०स्त्री० । लड़ने की क्रिया, युद्ध-कोशल । 'देखो देखो लखन लरनि हनुमान
की।' कवि० ६.४० लरहिं, ही : (१) आप्रब० । लड़ते हैं। 'जहें तहँ परहिं उठि लरहिं ।' मा०
३.२० छं० १ (२) आ० उब० । हम लड़ते हैं। 'लरहिं सुखेन कालु किन
होऊ ।' मा० १.२८४.२ 'एक बार कालहुँ सन लरहीं।' मा० ३.१६.१० लराई : लराई+ब० । लड़ाइयां । 'जहें तह परी अनेक लराई।' मा० १.१५४.६ लराई : संस्त्री०। लड़ाई, युद्ध । बिबिध भांति नित होइ लराई ।' मा०
१.१७५.५ लरि : पूकृ० । लड़कर । रिपु दल लरि मर्यो ।' मा० ३.२० छं० ४ लरिकई : लरिकाई । बचपन । गी० १.८६.४ लरिकनी : लरिकिनीं। लड़कियाँ । मा० १.३५५.२ (पाठान्तर) लरिकन्ह : लरिका+संब० । लड़कों (ने) । ‘बात असि लरिकन्ह कही ।' मा०
१.६५ छं० लरिकपन : (दे० पन)। बचपन । 'खेलत खात लरिकपन गो चलि ।' विन०
२३४.२ लरिकवनि : लरिकवा (लरिका) संब० । लड़कों। 'कहँ सिव चाप, लरिकवनि
बूझत ।' गी० १.६२.४ . लरिका : सं०० (सं० लटक) । लड़का, बालक । मा० १.२७७.३
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