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तुलसी शब्द-कोश
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बंसाटबी : (बंस+मटबी-सं० वंशाटवी) बांस का वन । विन० ५२.७ बंसी : (१) बनसी। मछली फंसने का कांटा । 'जनु बंसी खेलहिं चित दये ।' मा०
६.८८.५ (२) (समासान्त में) वि.पु. । वंश में उत्पन्न, वंश वाला । रघुबंसी
आदि । (३) सं०स्त्री० (सं० वंशी) । बाँसुरी (सुषिर वाद्यविशेष)। बई : (१) भूकृ०स्त्री० । बोयो । 'बई बनाइ बारि बृदाबन ।' कृ० २६ (२) बोयी
हुई (फसल) । 'लुनियत बई।' विन० २५२.३ बएँ : क्रि०वि० । बोने से । 'ऊसर बीज बएँ फल जथा।' मा० ५.५८.४ बए : भूकृ०० (सं० उप्त>प्रा० बविय)। बोये, बोये हुए । 'बए न जामहिं
धान ।' मा० ७.१००.७ (२) बिखराये, फैलाये, प्रचारित-प्रसारित किये।
'बंदिन्ह बांकुरे बिरद बए।' गी० १.३.४ ।। बक : सं०० (सं०) । बगुला पक्षी । मा० १.६.२ (२) कंस राजा का सहायक
बकासुर । 'बकी बक भगिनी काहू ते कहा डरेगी।' हनु० २५ बकउ : बगुला भी, बगुले भी। 'काक होहिं पिक, बकउ मराला ।' मा० १.३.१ बकता : वि०० (सं० वक्ता)। कहने वाला, प्रवचनकर्ता। 'श्रोता बकता
ग्यान निधि ।' भा० १.३० ख बकध्यान : मिथ्या ध्यान, दम्भ । 'इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ।' मा० ६.८५.७ बकराजि : (सं०) =बगाति । गी० ७.१६.२ बकसत : वक०० (फा० बख्शूदन =क्षमा करना (२) बख्शीदन् =देना)।
(१) क्षमा करता-ते । (२) दान करता-ते। 'प्रभु बकसत गज बाजि बसन
मनि।' गी० १.४५.५ बकसीस : सं०स्त्री० (फा० बख्शाइश) । दान, कृपा, पुरस्कार । कृपापूर्वक दान या
पुरस्कार । 'भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ।' मा० १.३०६.३ बहिं : आ०प्रब० (सं० वल्कयन्ति–वल्क शब्दे>प्रा० वक्कंति>अ० वक्कहिं) ।
बकते हैं, बकवास करते हैं । 'भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ।' मा० १.२८१.४ बकती हैं, बकवास करती हैं । 'ठाली ग्वालि उरहने के मिस आइ बकहिं
बेकाहिं ।' कृ. ५ बकहि : आ०मए० (सं० वल्कयस्व>प्रा० वक्कहि) । तू बकवास कर। 'तुलसिदास
जनि बकहि मधुप सठ।' कृ० ५१ बकिहि : बकी=बगुली को । 'बकिहि सराहइ जानि मराली।' मा० २.२०.४ बको : (१) सं०स्त्री० (सं०)। बगुली। (२) असुर स्त्रीविशेष, बकासुर की
बहन पूतना राक्षसी । हनु० २५ बकुचौहीं : वि०स्त्री० । बकुचे के समान वस्त्रादि की बड़ी गठरी जैसी। 'राखी
सचि कुबरी पीठ पर ये बातें बकुचौहीं।' कृ० ४१
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