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तुलसी शब्द-कोश
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सत्व : सं०पु० (सं०) । (१) त्रिगुण प्रकृति का प्रथम गुण जो सुखात्मक तथा ज्ञान-प्रकाशरूप होता है । मा० ७.१०४.२-४ (२) सार, निष्कर्ष । (३) जन्तु | (४) सत्ता, होना, विद्यमानता । मा० १ श्लोक ६ सत्वगुण: प्रकृति का प्रथम गुण (दे० सत्त्व) | सत्वगुणप्रमुख : सत्त्वगुण आदि = त्रिगुण सत्त्व, रज
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और तमस् तीनों प्रकृतिगुण जो क्रमश: ज्ञान-सुख, क्रिया- दुःख तथा मोह के कारण हैं । विन० ५८.२
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सत्संग : (दे० सतसंग ) । विन० ५७.१
सदई : सदैव । सदा ही । 'गई बहोर बिरद सदई है ।' विन० १३६.१२
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सदगुन: सं०पु० (सं० सद्गुण) । (१) उत्तम मानवीय गुण = दया, क्षमा, सन्तोष, प्रेम आदि । मा० ७.२ छं० (२) ब्रह्म के कल्याणगुण = सत्यसंकल्पता, सत्यकामता, सर्वज्ञता, सर्वकर्त ता, अजरामरता, ७.१३ छं० ६
क्षुधा पिपासा - हीनता आदि । मा०
सदगुनाकर : (दे० सदगुन ) । कल्याण गुणों का आधार । सदगुनाकर ।' मा० ७.१३ छं० ६
सदन : सं०पु० (सं० ) । भवन, घर । मा० २.६.५
सदननि: सदन + संब० । घरों । गी० २.५१.२
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सबगुर, रु: सतगुरु । ब्रह्मोपदेशक आचार्य । मा० ७.४४.८
सवग्रंथ : सं०पु० (सं० सद्ग्रन्थ) । बेद, शास्त्र आदि प्रामाणिक उत्तम ग्रन्थ । मा०
७.३३
'करुनायतन प्रभु
सदनि: सदन + स्त्री० । आवास, आधार, आवास देने वाली । विन० १६.१ सदनु: सदन + कए० । घर । 'सुरपति सदनु न पटतर पावा ।' मा० २.६०.७
सदय : (१) वि० (सं० ) । दयालु । 'सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी ।' मा० २.८५.१ (२) क्रि०वि० । दयापूर्वक । 'हहरि हिय में सदय बूझ्यो ।' विन० २१९.३
सदल : वि० (सं० ) । सेनासहित । मा० ६.११६.६
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सदसि : (सं० सदसि सभा में सदस् = सभा ) । 'पांडु सुवन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि ।' दो० ४१६ ( सदसि ते = सभा में रहने की अपेक्षा । ) सदा : अव्यय ( सं ) । सर्वदा, सभी समयों में । मा० १.४.११
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सदाई : सदई, सदैव । सभी दशाओं में, सभी अवसरों पर । 'जथा - लाभ संतोष
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सदाई ।' मा० ७.४६.३
सदाचार : सं०पु० (सं०) । उत्तम आचरण, विहित कर्म करने की प्रवृत्ति । मा०
१.८४.८
सदासिव : सं०पु० (सं० सदाशिव ) | ( १ ) शङकर शिव । चाहिअ सदसिवहि भरतारा ।' मा० १.७८.७ (२) परम शिव (ब्रह्म) के तीन रूप हैं - सदाशिव,