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तुलसी शब्द-कोश
बड़े रे : वि०पु० (सं० बृहत्तर > प्रा० बड्डयरय ) । अधिक बड़े, महत्तर | एक तें एक बड़ेरे । मा० २.२५५.५
बड़ेरो : वि०पु०कए० (सं० बृहत्तरः > प्रा० बड्डयरो ) | बहुत बड़ा । 'तहँ रिपु राहु
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बड़ेरो ।' विन० ८७.२
बड़ी बड़ + ० | विशाल । 'लाभ राम सुमिरन बड़ो।' दो० २१
बोइ, ई : बड़ा ही । 'सो बड़ोई बजारी ।' कवि० ६.५
'बढ़ बढ़इ : आ०प्र० (सं० वर्धते > प्रा० वड्ढइ ) । बढ़ता है, विकास पाता है । 'घ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई ।' मा० १.२३८.१
बढ़ई : सं०पु० (सं० वर्धक > प्रा० वड्ढई ) । तक्षा, तखा ( काष्ठ शिल्प व्यवसायी
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जातिविशेष) । मा० २-२१२.३
बढ़ : आ० कामना, संभावना - प्रए० (सं० वर्धताम् > प्रा० वड्ढउ ) । बढ़े, बढ़ता रहे। 'चरन रति अनुदिन बढ़उ ।' मा० २. २०५.२
मा० २.७ (२) बढ़ते समय ।
'अधिक
बढ़त : (१) वकृ०पु० । बढ़ता-बढ़ते । विधु बढ़त
'बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा । मा० २.५.७
बढ़ति : वकृ० स्त्री० । बढ़ती । 'राम दूरि माया बढ़ति ।' दो० ६६
बढ़न : भकृ० अव्यय (सं० वधितुम् > प्रा० वड्ढि >> अ० वड्ढण) | बढ़ने ।
'बालधी बढ़न लागी ।' कवि० ५.३ बढ़ह : आ०प्र० (सं० वर्धन्ते > प्रा० वंति > अ० वढहि ) । बढ़ते हैं । (१) उगते हैं । 'काटत बढ़हिं सीस । मा० ६.१०२.१ (२) उफनते हैं, उन्नति करते हैं । 'जग बहु नर सरि सर सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई । * मा० १.८.१३
बढ़हुं : आ० - शुभकामना - प्रब० । बढ़ें। 'बढ़हुं दिवस निसि बिधि सन कहहीं ।' मा० १.३०९.८ (२) अशुभ कामना । 'बेरिन बढ़हुं विषाद ।' गी० १.२.१० बढ़ा : पूकृ० (सं० वर्धयित्वा > प्रा० वड्ढाविअ > अ० वड्ढावि ) । बढ़ाकर | 'कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी ।' मा० २.२७.८
बढ़ाइअ : आकवा०प्र० । बढ़ाया जाय, बढ़ायी जाय। 'तौ न बढ़ाइअ रारि ।'
मा० ६.६
बढ़ाइहौं : आ०भ० उ० । बढ़ाऊँगा । 'प्रभु सो निषादु हवे के बादु ना बढ़ाइहौं ।' कवि० २.८
बढ़ाई : भूकृ० स्त्री० + ब० बड़ी कर रखीं, पाल रखीं । 'तुलसी बढ़ाईं बादि साल तें बिसाल बाहैं ।' कवि० ५.१३
स्त्री० । विकसित की । 'सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ।' मा० ७.२३.२
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बढ़ाई : (१) बढ़ाई | 'बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई ।' मा० ७.४६.४ (२) भूक
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