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तुलसी शब्द-कोश
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भजिहौं : आ० भ० उए० । भक्ति करूंगा । 'तुलसिदास भजिहीं रघुबीरहि ।' गी०
५.२८.८ मजी : भूक०स्त्री०ब० । (१) दौड़ पड़ी, भाग चली (२) भक्तियुक्त हुई, समर्पित
हुई। 'तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी भजी तात पति तनय बिसारी ।'
कृ० २२ भजी : भूकृ०स्त्री० । भक्तियुक्त हुई, समर्पित हुई । 'श्री. भजी तुम्हहि सब देव
बिहाई ।' मा० ३.६.७ भजु : आo-आज्ञा-मए । तू भक्ति कर । 'अस बिचारि भजु मोहि ।' मा०
७.८७ ख मजें : भजने से, आराधने से । 'रामु भजे हित नाथ तुम्हारा ।' मा० ५.४१.८ भजे : (१) आ०उए० (सं.)। भजता हूं, आराधित करता हूं। 'भजे सक्ति
सानुजं ।' मा० ३.४.१२ (२) भूकृ००ब० । आराधित किये । 'भजे न राम बचन मन काया ।' विन ८३.१ (३) भाग चले, पलायन कर चले । 'जहँ तह भजे भालु अरु कोसा।' मा० ६.६६.३ (४) भ । 'भजे बिनु रघुपति बिपति
सके को टारी।' विन० १२०.४ भजेसु : आ०--भ०+आज्ञा+मए । तू भक्ति करना । 'सुमिरेसु भजेसु निरंतर
मोही।' मा० ७.८८.१ मजेहु : (१) आ०-भ+आज्ञा+मब० । तुम भक्ति करना । 'अब गृह जाहु सखा
सब, भजेहु मोहि दृढ़ नेम ।' मा० ७.१६ (२) आ० - भूकृ००+मब० ।
तुमने आराधित किया। 'पिय भजेहु नहिं करुनामयं ।' मा० ६.१०४ छं० भज : भजइ । 'भज मोहि मन बच अरु काया ।' मा० ७.८७.८ भजौं : आ० उए । (१) उपासित करूँ। 'जो तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु ।'
विन० ११२.४ (२) अङ्गीकार करता हूं। 'आयो सरन भजौं, न तजौं तेहि ।'
गी० ५.४५.२ भज्यो : भूकृ.पु.कए । भजन किया। 'भज्यो बिभीषन बंधु भय ।' दो० १६० भट : (१) सं०० (सं.)। वीर, योद्धा । मा० १.४.३ (२) कमण्डलु के काम
आने वाली कड़वी लौकी (जिसका श्लेष द्रष्टव्य है) 'मर्दहिं दसानन कोटि
कोटिन्ह कपट भट जो अंकुरे ।' मा० ६.६६ छं. मटकि : पूकृ० । भटक कर, भ्रान्त होकर । 'भटकि कुतरु कोटर गहौं ।' विन०
२२२.२ भटके : आ०ए० (सं० भट भती+अक गतो)। (१) जीविका की खोज में
चलता है । (२) दिग्भ्रान्त होकर घूमता है, भटकता है, मार्ग भूल कर घूमता है। 'कोटि जनम भ्रमि प्रमि भटक ।' विन० ६३.६
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