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तुलसी शब्द-कोश
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'फरक, फरकइ : (सं० स्फरति == स्फुरति>प्रा० फरक्कइ) आ०प्रए । फरकता
ती है; स्पन्दित होता-ती है। 'दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।' मा०
२.२०.५ फरकत : वकृ०० । फरकता-ते। 'फरकत अधर कोप मन माहीं।' मा० १.१३६.२ फरकन : भकृ० अध्यय । फरकने, स्पन्दन करने । 'बाम अंग फरकन लगे।' मा०
फरहिं : आ०प्रब० । फरकते हैं, स्पन्दन करते हैं। ‘फरकहिं सुभद अंग सुनु
भ्राता ।' मा० १.२३१.४ फरकि : पूकृ० । स्पन्दित हो (कर)। 'फरकि उठी दो भुजा बिसाला।' मा०
४.६.१४ फरके : भूकृ००ब० । स्पन्दित हुए, फरक उठे । 'फरके बाम बाहु लोचन बिसाल।"
गी० ३.६.१ फरके उ : भूकृ.पु०कए । स्पन्दित हुआ। 'फरके उ बाम नयन अरु बाहू ।' मा०
६.१००.५ फरत : (१) फ्लत । 'सरस सुख फूलत फरत ।' विन० २५१.१ (२) फलतो।
___ 'अभिमत फरनि फरत को।' गी० ६.१२.३ फरन : भकृ० अव्यय । फलने, फल सम्पन्न होने । 'उकठे बिटप लागे फूलन फरन।'
विन० २५७.२ फरनि : फलनि । फलों (को, से, में) । 'सोउ बिष फरनि फर ।' विन० १३७.५ फरसा : सं०० (सं० परश्वध =परशु>प्रा० परस्सह परसु) । कुल्हाड़ा। मा०
२.१६१.५ फरहार : सं०० (सं० फलाहार) फल भोजन । मा० २.२७९ फरहि, ही : फलहिं । 'फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन ।' मा० ७.२३.१ फराक : वि०+क्रि०वि० (अरबी-फराक =जुदाई)। अलग । 'दूरि फराक __ रुचिर सो घाटा।' मा० ७.२६.१ फरि : फलि । 'बेलि ज्यों बौंडी' फैलि फूलि फरिक ।' गी० १.७२.३ फरित : फलित । विन० १६.१ फरी : फली । 'जनक मनोरथ कलप बेलि फरी है।' गी० १.६२.४ फर : फलु । (१) फल (२) साध्य । 'को न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें।' ___ कृ० १७ (३) भक्तिरूप परम पुरुषार्थ । 'नाम प्रेम चारि फलहू को फरु है।'
विन० २५५.३ फरें : फलने पर । 'फरें पसारहिं हाथ ।' दो० ५२ फरे : फले । (१) फलों से लद गये । 'सब तरु फरे राम हित लागी ।' मा० ६.५.५
(२) सिद्ध हुए । 'फरे चरु फल चारि ।' रा०प्र० ४.२.२ फरै : फरइ । 'सोउ बिष फरनि फरै ।' विन० १३७.५
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