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तुलसी शब्द-कोश
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सपच्छ, च्छा : वि० (सं० सपक्ष) पंखों वाला-वाले। 'जन सपच्छ धावहिं बहु
नागा।' मा० ६.५०.५, ६७.३ सपथ : सं० (सं० शपथ)। सौंह, कसम । मा० १.२५३ इसके प्रयोग प्रायः स्त्री में
होते हैं । 'तोहि स्याम की सपथ जसोदा।' कृ० ३ सपदि : अव्यय (सं.)। शीघ्र, तत्काल, तुरन्त । मा० ७.११२.१५ सपन, ना : सं०० (सं० स्वप्न)। निद्रावस्था में दिखाई पड़ने वाली मानसी ___ सृष्टि । मा० १.७२ 'सबन्हो बोलि सुनाएसि सपना।' मा० ५.११.२ सपनें, ने : स्वप्न में । ‘सपनें बानर लंका जारी।' मा० ५.११.३ सपनेहुं : स्वप्न में भी। 'बिसरे गह सपनेहुँ सुधि नाहीं।' मा० ७.१६.१ सपनो : सपना+कए । 'अपनो न कछु सपनो दिन द्वै ।' कवि० ७.४१ सपरन : वि० (सं० सपर्ण) । पत्र सहित । मा० १.२८८.२ सपरब : वि० (सं० सपर्वन) । पोरों (गांठों) से युक्त । 'सरल सपरब परहिं नहिं
चीन्हे ।' मा० १.२८८.१ सपरिजन : (दे० परिजन) परिजन (परिवारादि) सहित । मा० २.६६.३ सपल्लव : (सं०) पल्लव-सहित । जा०म० १८४ सपुर : वि० (सं.)। नगर समेत । जा०म० ८९ सपूत : सुपूत (सं० सत्पुत्र>प्रा० सप्पुत्त) । हनु० ८ सपेम, मा : सप्रेम । मा० २.२२२.१; ३२२.७ सपेला : सं०० (सं० सर्पक = ह्रस्वसर्प>प्रा. सप्पिल्ल=सप्पल्ल)। छोटा साप,
तुच्छ सर्प । मा० ६.५१.८ सप्त : संख्या (सं.)। सात । मा० ७.२२.१ सप्तधातु : (सं०) । शरीर रचना के सात तत्त्व रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि,
मज्जा और शुक्र । विन० २०३.८ सप्तरिषि : (दे० रिषि) । सप्तर्षि =मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, ऋतु, पुलह, पुलस्त्य
और वसिष्ठ । मा० १.७७.८ सप्तरिषिन्ह : सप्तरिषि+संब० । सप्तर्षियों (को, से) । मा० १.६१.५ सप्तावरन : (सं० सप्त+आवरण) । (१) भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः तपः और
सत्यम् -इन लोकों के सात वातावरण। (२) अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, मायमय और तुरीय-इन सात कोषों के अवरण (जिनके आधार पर ब्रह्म को सप्तात्मा कहा गया है) । (३) योग की सात भूमियाँ = सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, सानन्द, सस्मित और असंप्रज्ञात समाधियों के आवरण । मा० ७.७९
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