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तुलसी शब्द-कोश
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५.५६.६ (२) (सं० शकल>सकल) खण्ड, अंश, लेश । 'जहँ सुख सकल सकल
दुख नाहीं। यहां द्वितीय 'सकल' लेशपर्याय है। सकलंक : कलङ कयुक्त (लाञ्छित+चिह्नयुक्त)। मा० १.२३७ सकलंक : सकलंक+कए । मा० २.११६.३ सकसि : आ०मए० (सं० शक्नोषि>प्रा० सक्कसि) । तू सकता है, सके । 'जों मम
चरन सकसि सठ टारी ।' मा० ६.३४.६ सहि, हीं : आ० प्रब० (सं० शक्नुवन्ति>प्रा० सक्कंति>अ० सक्कहि) । सकते हैं।
सेष सहस सत सहहिं न गाई ।' मा० ७.११.६; ६.२६७.८ सकहु : आ० मब० (सं० शक्नुथ>प्रा. सक्क ह>अ० सक्कहु) सकते हो, सको।
'सकहु त आयसु धरहु सिर ।' मा० २.४० सकाई : सकइ । 'जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।' मा० ७.११६.५ सकाना : भूकृ००। शक किया, शङ्काकुल हो गया, हिचका, सहम गया । ___ 'छत्रिय तनुधरि समर सकाना ।' मा० १.२८४.३ सकानी : भूकृ०स्त्री० । शङिकत हुई, सहम गयी। 'कोलाहल सुनि सीय
सकानी ।' मा० १.२६७.५ सकाम : वि० (सं.)। कामनासहित, लौकिक फल प्राप्ति की इच्छा से युक्त ।
मा० ७.१५.३ सकारें : क्रि०वि० (सं० श्वःकाले>प्रा० सकाले =सकालेण>अ. सकालें)।
सबेरे, प्रातः । 'अवधेस के द्वार सकारें गई।' कवि० १.१ सकाहि : आ०प्रब० । शङ का करते हैं, हिचकते हैं, संकोच अनुभव करते हैं।
'बरनत अगम सुकबि सकाहिं ।' गी० ७.२६.४ सकिअ : आ०भावा० । सकिए, सका जाय । 'बुधि बल जीति सकिअ जाही सों।' __मा० ६.६.५ सकिलि : पू० (सं० संकिल्य)। सिकल कर, सब ओर से एकत्र होकर । ‘सकिलि
श्रवन मग चलेउ सुहावन ।' मा० १.३६.८ सकिहि : आ०भ० प्रए० । सकेगा-गी। 'सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ।' मा.
२.६६.६ सकी : भूक०स्त्री० । समर्थ हुई । 'न सकी सँभारि ।' मा० २.२८६ सकु : सक+कए । कुछ भी शक, शङका । 'हम हैं तुम्हरे तुम्ह में सकु नाहीं।'
कवि० ७.६४ सकुच : सं०स्त्री० । संकोच । 'सीय सकुच बस उतरु न देई ।' मा० २.७६.१ 'सकुच, सकुचइ : आ०ए० (सं० संकुचित>प्रा० संकुच्चइ) । संकोच करता है, सिकुड़ता है, मन में सिमटन-सी अनुभव करता-ती है। 'छुअत जो सकुचइ सुमति सो।' दो० ४०६
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