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तुलसी शब्द-कोश
पोषेउ : भूक००कए । पुष्ट = सम्पन्न किया, बढ़ाया। 'जानकी तोषि पोषेउ
प्रताप ।' गी० ५.१६.१० पोसात : पोषत । पोषक होता, पुष्टि देता। 'हुतो पोसात दान दिन दोबो।'
कृ०६ पोसु : (समासान्त में) वि.पु.कए० (सं० पोष:>प्रा० पोसो>अ. पोसु)।
पोषण= अनुग्रह देने वाला । 'नाथ अनाथ आरत-पोसु ।' विन० १५६.१ पोसें : क्रि०वि० (सं० पोषेण>प्रा० पोसेण>अ० पोसें) । अनुग्रह करने से, पोसने
से । 'बनइ प्रभु पोसें।' मा० ४.३.४ पोसे : पोषे । 'मोसे दोस-कोस पोसे ।' विन० १७९.३ पोसों : आ० उए० (सं० पोषयामि>प्रा० पोसमि>अ० पोसउँ)। पुष्ट कर रहा
हूं। पातकी पावर प्राननि पोसों।' कवि० ७.१३७ पोसो : पोसेउपोषेउ । अनग्रहीत किया। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।'
मा० १.२८.४ पोहत : वकृ०० । गूंथते, गुम्फित करते। 'तुलसी प्रभु जोहत पोहत चित ।' गी०
पोहनी : दे० सिल पोहनी। जा०म०/०८ पोहहीं : आ०प्रब० । गुहते हैं, गुम्फित करते हैं, छेद कर ग्रथित कर रहे हैं । 'जन
कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुतुद पोहहीं।' मा० ६.६२ छं० पोहिअहि : आ०कवा०प्रब० । पोहे जाते हैं, पोहे जायँ. मालाबद्ध किये जायें।
'पोहिअहिं राम चरित बर ताग । मा० १.११ पोही : पूक० । पोह कर, गूंथ कर । छेद कर गुम्फित कर । 'चारु चितवनि चतुर
लेति चित पोही।' गी० १.१८.३ पौरि : पौरि । गी० ७.१८.१ पौ : पउ । जैसे, अपनपौ । विन० १०१.३ पौढ़ाए : भूक पुब० । लिटाए, सुलाए । 'करि सिंगार पलना पौढ़ाए।' मा०
१.२०१.१ पौंढ़ि : पू० । लेट (कर), शयन कर । 'नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई ।' क० १३ पौढ़िये : आ०भावा० । शयन कीजिए। 'पौढ़िये लालन पालने हौं झुलावौं ।' गी०
१.१८.१ पौढ़े : भूक००ब० । शय्यासीन हुए, लेटे । 'पौढ़े धरि उर पद जलजाता।' मा०
१.२२६.८ पौन : पवन । हनु० ८ पौरि : सं०स्त्री० (सं० प्रतोली>प्रा० पओली) । मार्ग, द्वार । 'परत पराई पौरि ।'
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