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तुलसी शब्द-कोश
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सेहन, ए : आ०कवा०प्रए० (सं० सेव्यते>प्रा० सेवीअइ =सेईअइ)। सेवन या
सेवा कीजिए; सेवित किया जाय । 'प्रभु रघुपति तजि से इअ काही ।' मा०
७.१२३.३ सेहअहिं : आ०कवा०प्रब० । सेए जाते हैं (उनकी सेवा की जाती है)। 'सेइअहिं
सकल प्रान की नाईं।' मा० २.७४.५ सेइबे : भकृ.पु० । सेवा करने । 'सांकरे के से इबे सराहिबे सुमिरिबे को ' कवि०
७२२ सेइयहु : आ०-भ+आo-मब० । तुम सेवा करना । 'सिय से इयहु मन
मानि ।' गी० ७.३२.३ सेइये : सेइअ । 'सेइए सनेह सों बिचित्र चित्रकूट सो।' कवि० ७.१४१ सेइहहिं : आ०भ० प्रब० । सेएंगे, सेवन करेंगे (भोगेंगे)। 'भरतु बंदिगृह से इहहिं ।'
मा० २.१६ सेइहि : आ०भ०प्रए । सेएगा, सेवा करेगा। 'होइ अकाम जो छल तजि सेइहि ।'
मा०६.३.३ सेई : भू कृ०स्त्री० (सं० सेविता)। (१) सेवित की। 'जिन्ह गुर साधु सभा नहिं
सेई ।' मा० २.२६४.८ (२) पाली-पोसी । 'भगिनी ज्यों सेई है।' कवि० २.३
(३) सेइ । 'अवधि पारु पावौं जेहि सेई ।' मा० २.३०७.८ सेएँ : सेवित करने (किये-से) । 'तरहिं न बिनु सेएं मम स्वामी ।' मा० ७.१२४.७ सेए : भूकृ०० ब० । सेवा द्वारा तुष्ट किये । 'जौं मैं सिव सेए अस जानी।' मा०
१.६०.४ सेएह : आ०-भ+आज्ञा-मब० । तुम सेवा करना । 'सेएहु मातु सकल सम
जानी। मा० २.१५२.४ सेज : सं०स्त्री० (सं० शय्या>प्रा० से ज्जा>4. सेज्ज)। पलंग या बिस्तर ।
मा० २.१४.६ सेत : (१) वि० सं० श्वेत)। उज्ज्वल, गौरवर्ण, सितवर्ण । 'मन मेचक तन
सेत ।' विन० १६०.३ (२) सेतृ । 'सेत सागर तरनु भो।' कवि० ६.५६ सेतु : सं०० (सं०) । (१) धारा रोकने हेतु बांध । (२) नदी, समुद्र आदि के
आरपार बनाया जाने वाला मार्ग पुल । मा० ६.१ (३) सीमा, मर्यादा
(धर्म-संहिता आदि) । 'रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक ।' मा० ७.३५.८ सेतुबंध : सं०० (सं०) । सेतु का किनारा जहाँ ऊँचा ढेर (बांध) बना होता
है। मा० ६.४.३ सेतू : सेतु । मा० १.८४.६ सेन : (१) सेना । 'चतुरंगिनी सेन संग लीन्हे ।' मा० ३.३८.१० (२) सं०'०
(सं० सैन्य>प्रा० सेन्न)। सेना, सैनिक समूह । 'असुर सेन सम नरक निकदिनि ।' मा० १.३१.६
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