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तुलसी शब्द-कोश संगी : सं०पु० (सं० ऋष्यशृङ्ग) । विभाण्डक ऋषि के पुत्र = कौशल्यापुत्री शान्ता
के पति =राम के बहनोई । मा० १.१८६.५ सकाल, ला, सृगाल : सं०पु० (सं० शकाल = शगाल) । सियार । मा० ६.१०२.७;
३०.३; मा० ३.२० छं०१ सृज, सृजइ : आ.प्रए० (सं० सृजति) । रचता है, सर्जन करता है, बनाता है,
उत्पन्न करता है । 'तपबल ते जग सृज इ बिधाता।' मा० १.१६३.२ सृजत : वकृ.पु । रचता-ते, सृष्टि करता-ते । मा० ५.२१.५ सजति : वकृस्त्री० । रचती, सृष्टि करती। मा० २.१२६ छं० सृजि : पूक० । सृष्टि करके, बनाकर । “जो सृजि पालइ हरइ बहोरी ।' मा०
२.२८२.२ सृजी : भूक स्त्री०ब० । उत्पन्न की। 'कत बिधि सृजी नारि जग माहीं ।' मा०
१.१०२.५ सजे : भूकृ००व० । बनाये, उत्पन्न किये, रचे । 'पुरषनि सागर सृजे ।' गी०
५.१२.५ सृजेउ : भूक००कए । बनाया, उत्पन्न किया। 'कुल कलंकु करि सृजेउ
बिधाता।' मा० २.२०१.६ सृज्यो : सृजेउ । 'सृज्यो हौं बिधि बार्य ।' गी० ७.३१.५ सृष्टि : सं० स्त्री० (सं.)। रचना, विश्वरचना, जगत् । 'नाना भांति सृष्टि
बिस्तारा।' मा० ७.८०.७ सेंति : अव्यय । बिना मूल्य, बिना प्रयोजन, मुफ्ती । 'कुसाहेब सेंतिहू खारे।' ____कवि ० ७.१२ सेंदर : संपु० (सं० सिंदूर>प्रा० सेंदूर)। सौभाग्यवती के मांग का प्रसाधन चूर्ण
विशेष । 'राम सीय सिर संदुर देहीं ।' मा० १.३२५.८ । सेंबर : सं०० (सं० शिम्बल = शाल्मल>प्रा० सेंबल)। वृक्षविशेष जिसका लाल
फूल सुन्दर दिखता और फल में-से रूई निकलती है। 'सोई सेंबर तेइ सुवा सेवतः
सदा बसंत ।' दो० २५६ से : (१) वि.पु । समान, तुल्य । 'मोहि से सठ पर ममता जाही।' मा०
७.१२३.३ (२) क्रि०वि० । मानों (उत्प्रेक्षा)। 'कूबरी हाँक से लाए।' कृ० ५० (३) सर्वनाम । वे । 'लायक हे भृगुनायक, से धनु सायक सौपि सुभाय
सिधाए ।' कवि० १.२२ सेइ : (१) पू० । सेवा करके । 'सीतहि से इ कहहु हित अपना ।' मा० ५.११.२
(२) आ०-आज्ञा-मए । 'सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगतिः थिरताइ।' दो० १४०
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