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तुलसी शब्द-कोश
सोवनिहारा : वि.पु. । सोने वाला, निद्राशील, सोता रहने वाला। 'मोह निसा
सब सोवनिहारा ।' मा० २.६३.२ । सोवसि : आ०मए० (सं० स्वपिषि>प्रा० सोवसि) । तू सोता है, सोता रहता है ।
'करसि पान सोवसि दिन राती।' मा० ३.२१.७ सोहि : आ०प्रब० । सो रहे हैं (महानिद्रा ले रहे है)। 'संग्राम अंगन सुभट
सोवहिं।' मा० ६.८८ छं० सोवहिगो : आ०भ००मए० । तू सोयेगा। 'सोवहिगो रन भूमि सुहायो ।' गी०
सोवहं : आ०--कामना-प्रब० । सोएँ, सो जाय। 'सोवहुं समर सेज दोउ भाई।'
मा० २.२३०.४ सोवहु : आ०प्रब० । सोवो, शयन करो। 'पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता।' मा०
१.२२६.८ सोवा : (१) भूकृ०० । सोया, निद्रित हुआ। 'राम बिमुख सुख कबहुं न सोवा।'
मा० ७.६६.६ (२) सोवइ । सो रहा है (महानिद्रालीन पड़ा है)। 'प्रगट सो
तनु तव आगें सोवा ।' मा० ४.११.५ सोव : सोवइ । सो रहा हो । 'सोवै सो जगावो। कवि० ५.६ सोष, सोषइ : आ०प्रए० (सं० शोषयति>प्रा० सोसइ)। सोखता है, सुखाता है, नीरस करता है । 'अनहित सोनित सोष ।' दो० ४०० 'जिमि लोभहि सोषइ
संतोषा।' मा० ४.१६.३ सोषक : वि० (सं० शोषक) । (१) सोखने वाला, सुखाने की शक्ति से सम्पन्न ।
'कोटि सिंधु सोषक तव सायक।' मा० ५.५०.७ (२) क्षयकरक । 'ससि पोषक
सोषक...।' मा० १.७ ख सोषत : वकृ०पु० । सुखाता (है) । 'बड़वानल सोषत उदधि ।' दो० ३७४ सोषनहारु : वि०पु०कए० । सोखने वाला, चूसने वाला । 'सो हित सोषनहारु ।'
दो० ४०० सोहि : आ०प्रब० । सुखाते हैं, सुखा सकते हैं । 'सोहिं सिंधु सहित झष ब्याला।'
मा० ५.५५.६ सोषा : (१) भूकृ०पु । सोख लिया, सुखा डाला। 'सायक एक नाभि सर
सोषा।' मा० ६.१०३.१ (२) सुखा डाला गया। 'उदित अगस्ति पंथ जल
सोषा।' मा० ४.१६.३ सोषि : पूकृ० । सुखा (कर) । 'सक सर एक सोषि सत सागर ।' मा० ५.५६.२ सोषिअ, य : आ ०कवा०प्रए० (सं० शोष्यते>प्रा० सोसीअइ)। सुखा डालिए,
सुखाया जाय । 'सोषिअ सिंधु करिअ मन रोपा।' मा० ५.५१.३
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