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तुलसी शब्द-कोश
1117 सोमामई : वि०स्त्री० (सं० शोभमयी)। (१) शोभा से रचित । (२) शोभा समूह ।
(३) शोभाबहुल । मा० १.३२५ छं० २ सोमामय : वि.पु. (सं० शोभामय) । शोभा सम्पन्न, दीप्ति पुञ्ज, आभाओं से
रचित । गी० १.५.१ सोमित : भूकृ०वि० (सं० शोभित) । शोभायुक्त । मा० ३.२० ख सोभिह : आ०भ०प्रब० । सुशोभित होंगे । गी० ५.५०.४ सोम : (१) सं०० (सं.)। चन्द्रमा । मा० ३.४२ (२) यज्ञोपयोगी लताविशेष
तथा उससे बना पेयविशेष-दे० सोमजाजी। सोमजाजी : वि.पु. (सं० सोमयाजी सोमेन इष्टवान ) । जिसने सोमयज्ञ किया
हो (सोमलता के सन्धान से भजन विशेष सम्पादन किया हो)। 'कोन धों
सोमजाजी अजामिल अधम ।' विन० १०६.३ सोमु : सोम+कए । चन्द्रमा । कवि० १.६ सोयो : भूक००कए । सोया, विश्राम लिया। 'कबहुं न नाथ नीद भरि सोयो ।
विन० २४५.४ सोर : सं०पु० (फा० शोर) । कोलाहल । सोरठ : सं०० (सं० सौराष्ट्र>० सोरटु) । संगीत में रागविशेष । 'शारंग गुंड
मलार सोरठ ।' गी० ७.१६.४ सोरठा : सं०० (सोरठ) । एक छन्द जिसके प्रथम-तृतीय चरणों में ११.११ और
द्वितीय-चतुर्थ में १३-१३ मात्राएं होती हैं (जो दोहे का उल्टा होता है)। संभव है, इस सोरठ राग से सम्बन्ध रहा है। 'छंद सोरठा सुदर दोहा ।' मा०
१.३७.५ सोरह : षोडस (प्रा० सोलह) । मा० ५.२.८ सोरा : सोर । कोलाहल । 'रिपुदल बधिर भयउ सुनि सोरा।' मा० ६.६८.२ सोरु, रू : सोर+कए । कोलाहल । मा० २.१५३ 'गे रघुनाय भयउ अति सोरू ।'
मा० २.८६.१ 'सोव सोवइ : आ०ए० (सं० स्वपिति>प्रा. सोवइ)। सोता है, सो सके, सोए । 'सो किमि सोव सोच अधिकाई।' मा० १.१७०.२ 'करइ पान सोवइ
षटमासा।' मा० १.१८०.४ सोवत : (१) वकृ०० । सोता-ते; सोता हुआ-सोते हुए । 'उठे लखनु प्रभु सोवत
जानी।' मा० २.६०.१ (२) सोते-सोते, सोते से । 'मनहुं बीर रस सोवत
जागा।' मा० २.२३०.१ सोवतहि : सोते-सोते ही। 'पहुंचेहउँ सोवतहि निकेता।' मा० १.१६६.८ सोवन : भकृ० अव्यय । सोने (हेतु) । 'कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ।' मा०
२.६०.१
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