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तुलसी शब्द-कोश
रंगो : आ०-संभावना-प्रए । चाहे कोई रंग ले । 'चरन चोंच लोचन रंगो चलो
मराली चाल ।' दो० ३३३ रंग्यो : भूकृ००कए ० । रंगा हुआ+अनुरक्त । 'राम रँग्यो रुचि राच्यो न
केहो।' कवि० ७.३६ रंक : (१) वि० (सं.) । दरिद्र, अकिञ्चन । मा० १.८.६ (२) हीन, तुच्छ । रंकतर : अतिशय दरिद्र । 'कबहुं दीन मतिहीन रंकतर ।' विन० ८१.३ रंकन, न्ह : रंक+संब० । रंकों (ने)। 'लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी।' मा०
२.११४.५ रंका : रंक । (१) दरिद्र (२) तुच्छ। 'मोहि ते अधिक ते जड़मति रंका ।' मा०
१.१२.८ रंकु : रंक+कए । अद्वितीय रंक । 'रंकु नाकपति होइ ।' मा० २.६२ रंग, गा : सं०० (सं.)। (१) वर्णक (जिसमें रंगा जाय)। 'मृग बिहंग बहु
रंग ।' मा० २.२४६ (२) प्रेम। 'हरि रेंग रए।' मा० ३.४६ छं० (३) उत्साह । 'कुंभकरन दुर्मद रन रंगा ।' मा० ६.६४.२ (४) पंडाल । 'रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।' मा० १.२४४.५ (५) नाट्यादि के दर्शकों, संगीतादि के श्रोताओं का समाज । (६) रञ्जन, हर्षोल्लास । 'मुख प्रसन्न मन
रंग न रोष।' मा० २.१६६.१ रंगभूमि : सं०स्त्री० (सं.)। पण्डाल, दृश्य-श्रव्य-शाला। 'रंगभूमि आए दोउ
भाई।' मा० १.२४०.५ रंच : वि० । थोड़ा-सा, लेशमात्र । 'रिपु रिन रंच न राखब काऊ।' मा०
२.२२६.२ रंचक : रंच । बहुत थोड़ा-सा । 'रति को जेहिं रंचक रूपु दियो है ।' कवि० २.१६ रंचौ : रंच भी, लेशमात्र भी । 'बाँची रुचिरता रंची नहीं।' जा०म०छं० ४ रंजन : वि०० (सं.)। रंगने वाला+अनुरक्त करने वाला, रागयुक्त तथा
तन्मय करने वाला । 'कृपासिंधु सेवक मन रंजन ।' मा० १.७०.७ रंजनि : रंजन+स्त्री० (सं० रञ्जनी) । 'सकल जन रंजनि.. रामकथा ।' मा०
१.३१.५ रंजित : भक०वि० (सं.)। रंगे हुए । रंजित अंजन नैन।' कवि० १.१ रंतिदेव : सं०० (सं०) । एक सूर्यवंशी राजा जिसने अपना सम्पूर्ण धन दान,
यज्ञादि सत्कर्मों में लगाया । उसके यज्ञों में इतनी गौ बलियां हुई कि चमड़ों के
पहाड़ से चर्मण्वती (चम्बल) नदी निकली। मा० २.६५.४ रंध्र : सं०० (सं.)। छिद्र, बिल । मा० १.११३.२ रंमादिक : रम्भा इत्यादि (देवाङ्गनाएँ) । मा० १.१२६.४
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