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तुलसो शब्द-कोश 'सत चेतन धन आनंद रासी।' मा० १.२३.६ (५) वि० (सं० सत्, सत्य) । सच्चा, यथार्थ । 'सत हरि भजन जगत सब सपना ।' मा० ३.३६.५
(६) सं०पू० (सं० सत्त्व>प्रा० सत्त)। साहस, उत्साह, सार, स्वरस । सतकर्मा : शुभ कर्म, पुण्यकार्य । मा० ३.२१.८ सतगुन : (दे० सत) । (१) सत्त्वगुण =प्रकृति का सुखात्मक गुण । (२) (सं०
सद्गुण)। उत्तम गुण, उपकार आदि धर्म । 'बिपति काल कर सतगुन नेहा ।'
मा० ४.७.६ सतगुरु : सं०० (सं० सद्गुरु) । उत्तम गुरु, सत् (परमार्थ तत्त्व) का उपदेशक
आचार्य (वैष्णव मत में आचार्योपदेश ज्ञान तथा भक्ति का आधार है)। 'जहाँ
सांति सतगुरु की दई ।' वैरा० ५१ सतड़ित : वि० (सं० सतडित्) । बिजली सहित । गी० ३.१.१ सतत : संतत । निरन्तर । मा० ४ श्लो० २ सतभाय, व : (दे० सत) सत्यभाव, सात्त्विक भाव, सद्भाव = यथार्थ विनीत
अभिप्राय । 'सूधी सतभाव कहें मिटति मलीनता ।' विन० २६२.४ सतर : वि० (सं० सत्त्वर>प्रा० सत्तर)। भावावेश आदि से वक्र-चञ्चल ।
'कान्हहू पर सतर भौंहैं महरि मनहिं बिचारु ।' कृ० १४ ।। सतरंज : सं०स्त्री० (फा० शतरंज)। गोटों का खेलविशेष । विन० २४६.४ सतराइ : पूक० (दे० सतर)। चिढ़ा हुआ त्वरित प्रतिकूल गति लेकर । इतरा
कर । 'सोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकए।' कवि० ५.१७ (रोकने पर और
भी सत्त्वर चाल से चलता है)। सतरूपहि : शतरूपा को । 'सतरूपहि बिलोकि कर जोरें।' मा० १.१५०.३ सतरूपा : सं०स्त्री० (स० शतरूपा) । स्वायंभुवमनु की पत्नी । मा० १.१४२.१ सतसंग, गा : सं०० (सं० सत्संग) । सज्जनों का सम्पर्क, साधुजन संसर्ग । मा०
१.३.६; ७.३३.८ सतसंगत : (दे० सत) (सं० संगतमंत्री)। सज्जनों का मंत्री सम्बन्ध । 'सत
संगत मुद मंगल मूला ।' मा० १.३.८ सतसंगति : सं०स्त्री० (सं० सत्संगति) =सतसंग। मा० ७.४५.६ सतसमाज : (दे० सत) श्रेष्ठ, उत्तम समाज; सज्जनों का समाज । मा० १.११३ सतां : (सं०) सज्जनों का-की-के । मा० ३.४.११; ६ श्लो० ३ सताइहै : आ०भ०प्रए० (सं० सन्तापयिष्यति>प्रा० संताविहिइ) । सन्तप्त करेगा,
क्लेश देगा। 'सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ।' विन० ६८.२ सतानंद : सं०० (सं० शतानन्द)। अहल्या-गौतम के पुत्र जनकराज के पुरोहित ।
मा० १.२३६
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