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तुलसी शब्द-कोश
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भंजी : भूकृ०स्त्री० । नष्ट की। भंजी सकल मुनिन्ह के त्रासा ।' मा० ७.६६.२ भंजेउ : भूकृ००कए । तोड़ा । 'भंजेउ रामु आपु भवचापू ।' मा० १.२४.६ भंजेहु : तोड़े ही । 'बिनु भंजेहुं भव धनुषु बिसाला।' १.२४५.३ भंजौं : आ० उए । तोड़ डालू, तोड़ सकता हूं।' ले धावौं भंजौं मृनाल ज्यों।' गी०
१.८६.६ भंज्यो : भंजेउ । नष्ट किया । 'भंज्यो दारिद काल ।' दो० १६० भंड : भांड़। दो० ५४६ भई : भई । हुईं। 'कुटिल भइँ भौंहैं।' मा० १.२५२.८ भइ : भई । हुई । 'भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।' मा० १.३६ भहउँ : भइ+उए । मैं हुई । 'आरतिबस सनमुख भइउँ ।' मा० २.६७ मइन्ह : भइ+उब० । हम हुईं। 'भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ।' मा० २.२२३.३ 'मइया : भैया । गी० १.४५.४ मइसि : (१) भइ+प्रए । वह हुई । 'कैकेई.. भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।'
मा० २.२०१.४ (२) भइ+मए० । तू हुई। 'बहे जात के भइसि अधारा।'
मा० २.२३.२ भइह : भइ+मब० । तुम हो गयीं। 'भामिनि भइहु दूध कइ माखी।' मा०
२.१६७ भई : भूकृ०स्त्री०ब० । हुईं । मा० १.५५.५ मई : भूकृ०स्त्री० । हुई । मा० १.६६.४ भएँ : होने पर, से । 'क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।' मा० १.२८०.५ भए : भूकृ०० ब०। (१) हुए। ‘भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ।' मा० १.२६.७
(२) भएँ । ‘ब्रज सुधि भए लौकिक डर डरिबे हो।' कृ० ३६ (३) परसर्ग ।
से (होकर, स्थित होकर)। 'बैंचहिं गीध आंत तट भए।' मा० ६.८८.५ भएसि : आ०-भूकृ००+मए । तू हुआ। ‘भएसि काल बस निसिचर-नाहा।'
मा० ३.२८.१५ भक्त : सं०+वि०पू० (सं०) । (१) निष्ठायुक्त (२) उपासक, आराध्य के प्रति
आनन्दमय एकान्त-भावना से सम्पन्न आराधक । (मूल अर्थ सेवक है कि अत: गोस्वामी जी दासभावना को ही भक्ति मानते और आराध्य के प्रति दास्यनिष्ठा वाले को भक्त कहते हैं ।) मा० ६.६४.२-३ । (३) भक्त चार प्रकार
के हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी । दे० भगत । भक्तानुकूल : भक्त के हितकारी । विन० ५३.६ भक्तानुवर्ती : भक्तानुकूल । विन० २७.३ भक्ति : सं०स्त्री० (सं.)। उपासना, आराधना, आनन्दपूर्ण अनन्य निष्ठा, आराध्य
के प्रति ज्ञान-निष्ठा । गोस्वामी जी दासभावना से ब्रह्म-राम के प्रति आनन्दपूर्ण
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