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तुलसी शब्द-कोश
रसोई : रसोई में । 'भयउ रसोई भूसुर मांसू ।' मा० १.१७३.७ रसोई : (१) सं०स्त्री० (सं० रसवती>प्रा० रसवई) । पाकशाला । (२) पाकशाला
में पकाने का कार्य । 'जौं नरेस मैं करौं रसोई ।' मा० १.१६८.५ रहँट : सं०० (सं० अरघट्ट>प्रा० रहट्ट)। बालटियों की शृङ्खला से बना यन्त्र
विशेष जिससे सिंचाई का काम होता है। 'रहँट नयन नित रहत नहे री।'
मा० ५.४६.२ रहँसि : पू० । रभसहर्षावेग से भरकर । 'बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी ।' मा०
२.४.१ रहँसेउ : भूक ००कए । रभस-वेग से भर गया अथवा रहस्-वेग से युक्त
हुआ, उल्लसित हुआ । 'सुनि रहँसेउ रनिवासु ।' मा० २.७ रह : (१) रहइ । रहता है । 'लोचन जल रह लोचन कोना।' मा० १.२५६.२
(२) रहउ । रहे । 'सदा सो सानुकूल रह मो पर।' मा० १.१७.८ 'रह, रहइ, ई : आ.प्रए० (सं० रहयति = रहति>प्रा० रहइ)। (१) छूटता
है । (२) बचा रहता है। 'जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा ।' मा० १.४६.२ (३) निवास करता है, स्थित रहता है। 'एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई।' मा० १.११८.१ (४) रुकता-ती है । 'कहि देखा हर जतन बहु, रहइ न दच्छ
कुमारि ।' मा० १.६२ रहउँ, ऊ : आ०उए० । रहता-ती हूं। रहूं। 'बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ।' मा०
१.८१.५; २.५६.६ रहउ : आ०-संभावना-प्रए०। (१) रहे, रहने दे। 'रहउ चढ़ाउब तोरब
भाई ।' मा० १.२५२.२ (२) यथा स्थित रहे । 'कुरि कुआरि रहउ का करऊँ ।'
मा० १.२५२.५ रहत : व.पु. । रहता-ते, रुकता-ते । 'उर अनुराग रहत नहिं रोके ।' मा०
२.२१६.७ रहति, ती : (१) वक०स्त्री० । रहती, रुकती, बचती। ‘रहति न प्रभुचित चूक किये
की।' मा० १.२६.५ (२) क्रियाति० स्त्री०ए० । (यदि, तो) रहती। 'होती
जो अपने बस, रहती एक ही रस..'न लालसा रहति ।' विन० २४६.२ रहतु : रहत+कए । रहता । 'मरिबेई को रहतु हौं।' कवि० ७.१६७।। रहते : क्रियाति०पुब० । यदि "तो." रहते । 'जो पै हरि जन के औगुन गहते ।
तो कत.. गोप गेह बसि रहते।' विन० १७.१-२ रहन : भकृ० अव्यय । रहने को । 'कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू।' मा०
२.१८५.७ रहनि : संस्त्री० । रहने की क्रिया, रहने की रीति, ढंग, रखरखाव । 'भरत रहनि
समुझनि करतूती।' मा० २.३२५.७
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