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तुलसी शब्द-कोश
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राखउँ : आ० उए । (१) रोकता हूं। 'सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।' मा.
२.६१.८ (२) रोक रखू। 'राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू ।' मा० २.५५.४
(३) रखता हूं (बचाता हूं) । 'इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ ।' मा० ७.११६.१ राखत : वकृ०० । (१) स्थित करता । 'बन असोक महँ राखत भयऊ ।' मा०
३.२६.२६ (२) पालन करते । 'राजनीति राखत सुरत्राता।' मा० ४.२३.१३
(३) रक्षा करते, बचाते । 'राखत नयन निपुन रखवारे ।' कृ० ५६ राखति : वकृ० स्त्री० । रखती, स्थित करती+रक्षित करती। 'कबहूं राखति लाइ
हिये ।' गी० १.७.२ राखन : भकृ० अव्यय । रखने । (१) रोकने । 'राय राम राखन हित लागी।'
मा० २.७८.१ (२) रक्षा करने । 'मुनि मख राखन गयउ कुमारा।' मा०
३.२५.५ राखब : भकृ० । रखना, बचाना। 'तात भांति तेहि राखब राऊ।' मा०
२.१५२.६ राखबि : भकृ स्त्री० । रखनी । 'मया राख बि मन ।' जा०म० १६८ राखहि : आ०प्रब० (सं० रक्षन्ति>प्रा. रक्खंति>अ० रक्ख हिं)। (१) रक्षा
करते हैं। 'राहिं निज श्रुति-सेतु ।' मा० १.१२१ (२) रोकते हैं। 'राखहिं जनकु सहित अनुरागा।' मा० १.३३२.२ (३) धारण करते हैं। अवधि आस सब राखहिं प्राना।' मा० २.८६.८ (४) बचने देते हैं । 'जन अभिमान न
राखहिं काऊ ।' मा० ७.७४.५ राखहुं : आ०-आशीर्वाद-प्रब० । रक्षा करें। 'देव पितर सब राखहुं पलक
नयन की नाईं।' मा० २.५७.१ राखहु : आ०मब० । (१) रक्षा करो। 'कस न राम राखहु तुम्ह नीती।' मा०
१.२१८.७ (२) बचाओ। 'सोउ दयाल राखहु जनि गोई ।' मा० १.१११.४ (३) धारण करो। 'तनु राखहु ताता।' मा० ३.३१.५ (४) स्थित करो। 'राखहु सरन ।' मा० ७.१८.६ (५) रोक लो। ‘राखहु राम कान्ह यहि
अवसर ।' कृ०१८ राखा : (१) भूकृ०० । रक्षित किया। 'ईस्वर राखा धरम हमारा।' मा०
१.१७४.२ (२) गुप्त कर लिया। 'रचि महेस निज मानस राखा।' मा० १.३५.११ (३) बचा दिया, छोड़ दिया । 'अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।' मा० १.१८८.६ (४) स्थिर किया। 'तहाँ बेद अस कारन राखा ।' मा० १.१३.२ (५) राखइ । बचा सकता है, बचाता है। द्विज गुर कोप कहहु को
राखा ।' मा० १.१६६.५ राखि : (१) पूकृ० । रख कर । स्थापित कर । 'चली राखि उर स्यामल-मरति ।'
मा० १.२३५.१ (२) सुरक्षित कर । सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।' मा०
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