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तुलसी शब्द-कोश
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फहराही : आ०प्रब० । फरफराते हैं, आकाश में लहराते हैं। 'सख करहिं पाइक
फहराहीं।' मा० १.३०२.७ फांस : पास । बन्धन, जाल । 'माधव मोह फांस क्यों टूटै ।' विन० ११५.१ फागु : सं०० (सं० फल्गु>प्रा० फग्गु) । वसन्तोत्सव । 'त्रिबिध सूल होलिय जरै,
खेलिय अब फागु ।' विन० २०३.१७ फागुन : सं०० (सं० फाल्गुन>प्रा० फग्गुण) । एक मास का नाम जिसकी पूर्णिमा
को ‘फल्गुनी' नक्षत्र होता है। पा०म० ५ फाटत : फटत । ‘समुझि नहिं फाटत हियो।' विन० १३६.७ फाटहुं : आ०-कामना, संभावना-प्रब० । चाहे फट जाये, अच्छा हो फट जायें। ___हिय फाटहुं फूटहुं नयन ।' दो० ४१ फाटी : पूकृ० (सं० स्फटित्वा>प्रा० फट्टिअ>अ० फट्टि) । विदीर्ण हो (कर) । __ जिमि रबि उएं जाहिं तम फाटी।' मा० ६.६७.१ फाडो : भूक०स्त्री० (दे०/फब)। (१) फबी, ठीक बैठ गई । 'रहसी चेरि घात __जनु फाबी।' मा० २.१७.२ (२) सुशोभित हुई, पुर गयी। कुमतिहि कसि
कुबेषता फाबी।' मा० २.२५.७ फारहिं : आ०प्रब० (सं० स्फाटयन्ति =पाटयन्ति>प्रा० फाडंति>अ० फाडहिं)।
चीड़ डालते हैं । 'धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं ।' मा० ६.८१ छं० २ फारि : पूक० (अ० फाडि) । पीड़कर । 'फेरि फेकरि फेरु फारि फारि पेट खात।'
कवि० ६.४६ फार : फारहिं । 'दस आठ को पाठु कुकाठु ज्यों फारें।' कवि० ७.१०४ फारो : भूकृ.पु०कए । फाड़ डाला, छिन्न कर दिया। 'परमत पनवारो फारो।'
विन० ६४.३ फिर : फिरि । पुनः । हनु० ६ फिर, फिरइ : (सं० स्फिरति>प्रा० फिरइ) आ०प्रए। फिरता-ती है। (१) विचरण करता-ती है। 'देखत फिरइ महीप सब ।' मा० १.१३४ (२) यात्रा करता घूमता है । 'रन मद मत्त फिरइ जग धावा।' मा० १.१८२.६ (३) पीछे को मुड़ता-ती है। 'देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि ।' मा० १.२३४ (४) लौट आता-ती है । 'फिरइ त होइ शान अवलंबा।' मा० २.८२.६ (५) भ्रान्त-घूमता रहता है। 'तव माया बस जीव जड़ संतत
फिरइ भुलान ।' मा० ७.१०८ ग फिरउँ : आ० उए० (सं० स्फिरामि>प्रा. फिरामि>अ० फिरउँ)। फिरता हूं।
(१) घूमता-भटकता हूं। 'तव माया बस फिरउँ भुलाना ।' मा० ४.२.६ (२) विचरण करता हूं। 'कौतुक देखत फिरउँ बेरागा।' मा० ७.५६.६
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