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लुलसी शब्दकोश
संबंध : सं०० (सं.) । (१) अनेक को एकभाव देने वाला आन्तरिक भाव-बन्धन ।
(२) वर पिता और वधू पिता का भाव बन्धन । मा० १.३२६ छं० २ संबत : सं०० (सं० संवत् - अव्यय)। (१) वर्ष । 'प्रति संबत अस होइ अनंदा।'
मा० १.४५.२ (२) ज्योतिष के अनुसार ६० वर्षों के संवत्सर जो नामों से जाने जाते हैं । इनकी ब्रह्म, विष्णु और रुद्र नामों से तीन विशतियाँ मानी गयी हैं। जय, विजय आदि संवतों के नाम हैं । 'जय संबत फागुन सुदि पांचे गुरु दिनु ।'
पा०म० ५ संबतु : संबत+कए । एक वर्ष । 'लघु जीवन संबतु पंच दसा ।' मा० ७.१०२.४ संबरारि : सं०पू० (सं० शम्बरारि=शम्बर दैत्य के शत्रु)। प्रद्युम्न =कामदेव ।
गी० ७.७.३ संबल : सं०० (सं०) । पाथेय, पथिक के लिए मार्गन्यय आदि आवश्य साधन;
साधन-सामग्री । मा० १.३८ संबल : संबल+कए० । कोई साधन । एक भी पाथेय । 'सुरालयहू को न संबलु ___मेरे ।' कवि० ७.६२ संबाद, दा : सं०० (सं० संवाद)। (१) वार्तालाप । मा० ७.५५.५ (२) कथान__ कथन, उपदेशात्मक प्रश्नोत्तर । मा० १.३६ (३) समाचार (खबर)। "छन
महुं ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ।' मा० १.६८ संबाद, दू : संबाद+कए । मा० २.३०८ ६६.३ संबुक : सं०० (सं० शम्बूक) । घोंघा। मा० २.२६१.४ संभव : सं०० (सं०) । (१) उत्पत्ति । 'जग संभव पालन लय कारिनि।' मा०
१.९८.४ (२) (समासान्त में) । उत्पन्न । 'दुसह बिरह-संभव दुख मेटे ।' मा०
७.६.१ संभारि : पूकृ० । (१) संभाल कर, व्यवस्थित कर। 'उठि संभारि सुभट पुनि
लरहीं।' मा० ६.६८.६ (२) स्मरण करके । 'पुनि संभारि उठी सो लंका।'
मा० ५.४.५ संभारी : संभारि। (१) संभाल कर, सोच-विचार कर । 'रे कपिपोत बोल
संभारी ।' मा० ६.२१.१ (२) स्मरण करके । 'दीनदयाल गिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी ।' मा० ५.२७.४ संभार्यो : भूकृ००कए० । स्मरण किया। 'तम मारुतसुत प्रभु संभार्यो।' मा०
६.६५८ संभावित : वि० (सं०) । सम्मानित, कीर्तिशाली। 'संभावित कहुं अपजस लाहू ।
मरन कोटि सम दारु दाहू ।' मा० २.६५.७ संभु : शंभु (प्रा.)। मा० १.१.३
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