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तुलसी शब्द-कोश
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-संपानि : पूकृ० । चढ़ाकर, संधान करके । 'संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि ।' मा०
६.८२ छं. संघाने : भूकृ००० । संघान किये, चढ़ाये । अस कहि कठिन बान संधाने ।' __ मा० ६.५०.४ संघाने उ : भूकृ०पु०कए। संधान किया, चढ़ाया। 'संधाने उ प्रभु बिसिख
कराला ।' मा० ५.५८.६ संधिहिं : संधि में, रन्ध्र में, ग्रह-युति (ग्रहयोग) में। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।'
मा० १.२३८.१ संध्या : सं०स्त्री० (सं.)। (१) सम्यक् ध्यान (नित्य कर्म में विहित पूजा जो
प्रातः, मध्याह्न और सायम् की जाती है) । 'रघुबर संध्या करन सिधाए ।' मा० २.८६.६ (२) सायंकाल । 'संध्या समय जानि दस-सीसा ।' मा०
संध्यावंदनु : सन्ध्योपासन (त्रिकाल पूजाविशेष) । मा० १.२२६.१ संनिपात : सं०० (सं.)। (१) संघात, समुदाय । 'गुण-सन्निपातं ।' विन०
५३.६ (२) त्रिदोष ज्वर (जो वात पित्त और कफ तीनों के एक साथ दूषित होने से बनता और मारक होता है)। 'संसृति संनिपात दारुन दुख बिनु हरि
कृपा न नास ।' विन० ८१.४ संन्यास : सं०० (सं.)। कर्म त्याग वाला चतुर्थ आश्रम धर्म । 'बिगरत मन
संन्यास लेत।' विन० १७३.४ संन्यासी : सं०+वि.पु. (सं० संन्यासिन्) । चतुर्थाश्रमी, संसार-त्यागी जन,
विरक्त । मा० ७.२६.५ । संपति : संपत्ति । मा० २.२१५ संपत्ति : सं०स्त्री० (सं०) । वैभव, ऐश्वर्य, पूर्णता। 'रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख ।'
मा० १.६४ संपदा : संपत्ति (सं० संपद) । मा० ७.२२.६ संपन्न : वि० (सं.)। सम्पूर्ण, परिनिष्पन्न, फलित, विभूतियुक्त । 'ससि संपन्न
सदा रह धरनी।' मा० ७.२३.६ संपाति, ती : सं०० (सं.) । जटायु का अग्रज गृध्र । मा० ४.२७.१, ११ संपादन : विपु । सम्पन्न करने वाला, सिद्ध करने वाला। 'सुख संपादन समन
बिषादा।' मा० ७.१३०.१ संपुट : संपु० (सं०) । (१) दो ओर से बन्द वस्तु । (२) सीपी आदि का बन्द
आकार । (३) हथेलियों की संयुक्त मुद्रा । 'कहत कर संपुट किएँ।' मा० १.३२६ छं० १ (४) ढक्कनदार पात्र, डब्बा । 'संपुट भरत सनेह रतन के।' मा० २.३१६.६
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