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तुलसी शब्द-कोश
सकल संताप समाज ।' मा० २.३२६.७ (३) क्लेश= अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (योग में परिगणित मायिक चित्तदोष)। मा०
७.१०८.१४ संताप, पू : संताप+कए । एकमात्र मनोव्यथा । मा० १.५६; २.१८०.४ संतुष्ट : भूकृ०वि० (सं.)। परितृप्त, पूर्ण काम । विन० ५३.५ संतोष : सं०० (सं.)। तुष्टि, तृप्ति । कामना-हीनता की सुखात्मक अनुभूति ।
मा० ७.१३.८ संतोषमय : वि० (सं०) । सन्तोषपूर्ण । रा०प्र० १.६.१ संतोषा : संतोष । मा० ४.१६.३ संतोषि : प्रकृ० । संतुष्ट (पूर्ण काम) करके । मा० १.१०२ छं० संतोषु, षू : संतोष+कए । 'उपजा डर संतोषु बिसेषी।' मा० १.३०७.६;
२.३०७.३ संतोषे : भूकृ.पु.ब. (सं० संतोषित् >प्रा. संतोसिय) संतुष्ट किए । 'जाचक
दान मान संतोषे।' मा० २.८०.४ संत्रास : संपु० (सं.)। अधिक भय, अतिशय आतङ्क । विन० ४६.६ संदग्ध : भूकृ.वि० (सं.)। पूर्णतया जला हुआ (दग्ध) । विन० २८.६ संदनु : स्यंदन । रथ । 'राम सखा सुनि संदनु त्यागा।' मा० २.१६३.७ संदेस : सं०पू० (सं० संदेश)। किसी के द्वारा भेजा हुआ संवाद (मौखिक
समाचार) । मा० ७.२.१३ संदेसु, सू : संदेस+कए । मा० ६.१०८.३; २.१४६.५ संदेह : सं०पू० (सं०) । संशय, अनिश्चय (यथार्थ-निर्णय-रहित मनोवत्ति) । मा०
संदेहा : संदेह । मा० १.१६१.४ संदेहु, हू : संदेह+कए० । मा० २.२७; ३१.७ संदोह, हा : सं०० (सं.)। सम्पूर्ण समवाय, सकल राशीभूत समूह । 'कृपानंद
संदोह ।' मा० ७.३६ संदोहा : संदोह । मा० ७.७२.६ संधान : सं०० (सं.)। (१) चढ़ाना, मिलाना, संहित करना । 'सर संधान
कीन्ह करि दापा।' मा० ६.७६.१५ (२) सिरका, मदिरा आदि बनाने की
प्रक्रिया। (३) उस प्रक्रिया से बनाए हुए अचार, खटाई आदि । दे० संधानो। संघाना : (१) संधान । 'तुरत कीन्ह नृप सर संधाना।' मा० १.१५७.२
(२) भूकृ०० । चढ़ाया, संयुक्त किया। 'चाप चढ़ाइ बान संधाना।' मा० ६.१३.८
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