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तुलसी शब्द-कोश
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बांचा : भूकृ००। (१) बचा, शेष रहा । 'सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा।' मा०
१.१७५.७ (२) बचाया (उपेक्षित किया)। 'बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।'
मा० १.२७५.४ बांचि : पूकृ० । बच (कर), रक्षित हो (कर) । 'बड़े ही की ओट बलि बांचि आए
छोटे हैं।' विन० १७८.४ (२) पढ़कर। बोचिअ : आ० भावा० । बचा जाय, बचे रहा जा सके। 'देखब कोटि बिआह
जियत जो बांचिअ ।' पा०म० १०७ । बांचिहै : आo-भ०-प्र०+मए । बचेगा, रक्षा पायेगा। 'बांचिहै न पाछे
त्रिपुरारिहू मुरारिहू के ।' कवि० ६.१ बांची : (१) बांचि । पढ़कर। 'नर के कर आपन बध बांची हसेउँ ।' मा०
६.२६.२ (२) भूक०स्त्री०। पढ़ी। 'पुनि धरि धीर पत्रिका बांची।' मा० १.२६०.६ (३) बची, शेष रही। 'बांची रुचिरता रंची नहीं।' जा०म०/०४
(४) बचा गई, छोड़ गयी। 'सो माया रघबीरहि बांची।' मा० ६.८६.७ बांचे : भूकृ.पुब ० । बचे रहे। 'जे नारि बिलोकनि बान ते बाँचे ।' कवि०
७.११८ बांचो : (१) बाँच्यो । बच गया। 'बड़ी ओट राम नाम की जेहि लई सो बांचो।'
विन० १४६.६ (२) आ०-प्रार्थना-मब । पढ़ो। 'बिनय पत्रिका दीन की
वापु आपु ही बांचो।' विन० २७०.३ बांच्यो : भूकृ००कए । बच गया। 'तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो।' मा०
६.६४.७ बांझ, झा : वि.स्त्री० (सं० वन्ध्या>प्रा. वंझा>अ० वंझ)। प्रसवहीन स्त्री।
मा० १.६७.४; २.१६४.४ बांट : सं०पु० (सं० वट) । भाग (बँटवारे में प्राप्य अंश)। 'बिप्रद्रोह जनु बाट
पर्यो ।' विन० १४२.८ बाटि : पूकृ० (सं० वण्टयित्वा>प्रा० वंटिअ>अ० वंटि)। बाँट कर, विभक्त ____ करके । 'जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे ।' मा० १.१७६.७ बांटी : भूक०स्त्री० । विभक्त कर ली। 'बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई ।' मा०
२.३०६.६ 'बाँध बाँधइ : आ०प्रए० (सं० बध्नाति>प्रा० बंधइ)। बांधता है। 'मम पद
मनहि बाँध बरि डोरी।' मा० ५.४८.५ बांधत : वकृ.पु । बांधता-बांधते । 'जटजूट बांधत।' मा० ३.१८ छं० ।। बाँधहु : आ०मब० (सं० बध्नीत>प्रा० बंधह>अ० बंधहु)। बांध लो (बन्दी
बनाओ) । 'धरि बाँधहु नप बालक दोऊ ।' मा० १.२६६.३
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