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तुलसी शब्द-कोश
परें : पड़ने पर, पड़ने से । जिमि जवास परें पावस पानी।' मा० २.५४.२ परे : भूकृ००ब० । (१) लुण्ठित हुए। 'भूतल परे मुकुट अति सुंदर ।' मा०
६.३२.५ (२) गिर पड़े । 'परे भूमि कपि बीर ।' मा० ६.५० (३) प्राप्त हुए, गोचर हुए । 'राम लखन जब दृष्टि परे री।' गी० १.७६.१ (४) प्रणत हुए । 'परे दंड इव गहि पद पानी।' मा० १.१४८.७ (५) डाले (परोसे) गये । 'भांति अनेक परे पकवाने ।' मा० १.३२६.२ (६) टूट पड़े । 'गज परे रिपु कटक मझारी।' मा० ६.४४.७ (७) पड़ाव डालकर रहे । 'प्रभु आइ परे सुनि
सायर कोठे ।' कवि० ६.२८ परेउ : आ०-भूकृ०पु+उए । मैं गिर पड़ा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा।'
मा० ४.२८.४ परेउ, ऊ : भूकृ००कए । (१) गिर पड़ा। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।'
मा० १.१७४.८ (२) लेट गया । 'परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।' मा० १.१७२.१ (३) हो सका । 'राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ ।' मा० १.१२०.२ (४) प्रणत हुआ । 'प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।' मा० ४.२.५ (५) फॅस
गया । 'फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ।' मा० १.१५७.८ परेखो : सं०पू०कए०। (१) परख, परीक्षण, सोच-विचार । 'इतनो परेखो, सब
भांति समरथ ।' हनु० २६ (२) प्रतीक्षा, आदरभाव; सम्मान देकर विचार ।
'सोइ बावरि जो परेखो उर आने ।' कृ० ३८ परेश, स : वि० सं०० (सं०-पर+ईश) । सर्वोपरि स्वामी, परमेश्वर । मा०
७.१०८ छं. ६ परेस : परेश (प्रा.)। मा० १.११६.८ परेहु : आ०-भूक००+मब० (१) आ फंसे हो । 'परेहु कठिन रावन के पाले।'
मा० ६.६०.८ (२) लोट रहे हो। आजु परेहु अनाथ की नाईं।' मा.
६.१०४.८ पर : परहिं । 'बड़े अलेखी लखि परें।' विन० १४७.५ परै : (१) परइ। पड़ जाय । 'सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें। मा० ४.३.१
(२) (जा) सके । 'सुभगता न पर कही।' मा० १.८६ छं० (३) हो सकता है। 'पर उपास कुबेर घर ।' दो० ७२ (४) घटित होता है । 'सब दिन रूरो
पर पूरो।' हनु० १२ परंगी : आ०भ०स्त्री०प्रए । (१) वह पड़ेगी। 'साँचिये परंगी सही।' विन०
२५४.३ (२) मए । तू पड़ेगी। 'गुनी के पाले परैगी।' हनु० २५ परों: परहुं । परसों । 'आज कि कालि परों कि नरों।' कवि० ७.१७९ परो : पर्यो। (१) डाला हुआ। रहीं दरबार परो लटि लूलो।' हनु० ३६
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