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तुलसी शब्द-काश
सिखी : (१) भूकृ०स्त्री० । सीखी, पढ़ी। 'के ये नई सिखी सिखाई हरि ।' क० ४१
(२) सीखी हुईं (ऊपरी, अस्वाभाविक, कृत्रिम)। 'लागति प्रीति सिखी सो।' गी० २.५२.४ (३) सं.पु. (सं० शिखिन् -शिखी)। अग्नि । विन० १६१.३
(४) मोर पक्षी। सिखे : भक०पू०ब० । (१) सीखो हुए, दूसरे से सीखकर अभ्यस्त किये हुए
(ऊपरी)। 'सकुचत बोलत बचन सिखो से।' मा० २.३०३.३ (२) सीख गये
(जान गये) । 'अब हीं तें ये सिखो कहा धौं चरित ललित सुत तेरे ।' क० ३ । सिगरिय : (दे० सगरे)। सब-की-सब, पूरी-पूरी। 'सिगरिय हो ही खोही, बलदाऊ
को न देहौं ।' कृ० २ सित : (१) वि० (सं.)। श्वेत । मा० २.२.७ (२) नील (शिति ) । 'तहं जनु
बरिस कमल सित श्रेनी ।' मा० १.२३२.२ सितपख सितपाख : शुक्ल पक्ष (सं० पक्ष>प्रा० पक्का) । गी० १.२.२; पा०म०१ सितलाई : आ०प्रए० (सं० शीतलायते>प्रा० सीअलाइ)। ठंढा हो जाता है।
'अनल सिनलाई ।' मा० ५.५२ सितासित : (सित+असित) श्वेत-कृष्ण (गङ्गा-यमुना का जल)। 'सबिधि
सितासित नीर नहाने ।' मा० २.२०४४ सिथिल : वि० (सं० शिथिल) । ढीला-ढीले ; विशृङ्खल (विकल)। 'ब्याकुल राउ
सिथिल सब गाता ।' मा० २.३५.१ सिद्ध : सं०+वि० (सं.)। (१) सफल, पूर्ण । 'सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।'
मा० १.१८६.७ (२) आणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्त योगी। 'होहिं सिद्ध अनिकादिक पाएँ ।' मा० १.२२.४ (३) युक्त योगी जो साधना पूरी करके असम्प्रज्ञात समाधि में लीन हो जाता है । 'साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी ।' मा० ७.१२४.५ (४) दिव्य जातिविशेष जो यक्ष आदि के समान अंशतः देवों में गिनी जाती है । 'किंनर नाग सिद्ध गंधर्वा ।' मा० ६६१.१ (५) सिद्धि प्राप्त, साधना में सफल । 'जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि । खल मायाबी जीति न जाइहि ।' मा० ६.७५.५ (६) सिद्धान्त, बिना पकाया हुआ दाल, चावल आदि सामग्री ।
'तह तह सिद्ध चला बहु भाँती।' मा० १.३३३.३ सिद्ध नि : सिद्ध+संब० । सिद्धों (ने) । 'सुर सिद्धनि बरदान दए ।' गी० १.४५ ६ सिद्धपीठ : सिद्धपीठ+कए। (१) योगसिद्धि के उपयुक्त स्थान या तीर्थ ।
(२) सिद्धासन, योगसाधना में उपयोगी आसन विशेष । 'लंक सिद्धपीठु निसि
जागो है मसानु सो।' कवि० ५.२८ सिद्धांत : सं०० (सं.)। सिद्ध मत; प्रमाणित मान्यत। । मा० ७.८६.२ सिद्धि : सं०स्त्री० (सं.)। (१) कार्य-फल की प्राप्ति, सफलता । 'सकल सिद्धि
सुख संपत्ति रासी।' मा० १.३१.१३ (२) साधना की पूर्ति । 'कवनिउ सिद्धि
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