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तुलसी शब्द-कोश
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प्रौढ : वि० (सं.)। (१) प्रगल्भ, परिपक्व, वयस्क । 'प्रौढ भएँ मोहि पिता
पढ़ावा ।' मा० ७.११०.५ (२) पुष्ट, दृढ ; बद्धमूल । 'प्रौढ अभिमान चित.
वृत्ति छीजै ।' विन० ४७.२ प्रोढि : सं०स्त्री० (सं०) । प्रौढोक्ति, अतिरञ्जना, अतिवाद, अर्थवाद, प्रशंसापरक ___ अत्युक्ति। 'प्रोढि सुजन जनि जानहिं जनकी ।' मा० १.२३.३ प्लव : सं०पु० (सं.)। नौका । 'यत्पदो प्लव एक एव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावताम् ।'
मा० १ श्लोक ६
फेंग : संपु । फंदा, जाल, जकड़, बन्धन । 'मातु पितु भाग बस गए परि फैग हैं।'
गी० २.२७.२ फंसावत : वकृ०० (सं० पाशयत्>प्रा० पासावंत) । पाश में जकड़ता, जाल में
___ डालता । 'काम फंद जन चंदहि बनज फँसावत।' जा०म० १०६ फंसोरि : सं०स्त्री० (सं० पाशावलि)। फंदा, बन्धन । गी० ७.१८.१ फंद, दा : सं०० (सं० स्पन्द>प्रा० फंद) । पाश, जाल, बन्धन । 'मनहुं मनोभव
फंद संवारे ।' मा० १.२८६.१ बन्धन के अर्थ में 'स्पन्द' धातु का प्रयोग संस्कृत में भी द्रष्टव्य है- 'स्पन्दिताः पाश-जालश्च निर्यत्नाश्च शरैः कृताः।' हरिवंश
पर्व ४५.१० फग : फंग। 'हाय हाय करत परीगो काल फग में ।' कवि० ७.७६ फगुप्रा : फागु । वसन्तोत्सव । 'लोचन आँजहिं फगुआ मनाइ।' गी० ७.२२.७ फजीहत : सं० (अरबी-फजीअत, फजअत – मुसीबत, दर्देसख्त)। उत्पीडन,
विपत्ति । (२) (विशेषणात्मक प्रयोग में) क्लेशयुक्त, पीडित, संकटग्रस्त ।
‘अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत ।' दो० ६५ /फट फटइ : (सं० स्फटति>प्रा० फट्टइ) आ०ए० । विशीर्ण होता है (स्कट विशरणे); विदीर्ण हो जाता है, फटता है। 'संकट सोच ..... फट मकरी के से
जाले ।' हनु० १७ फटत : वकृ०० (सं० स्फटत् >प्रा० पटुंत) । विशीर्ण होता, फटता । 'दिनकर के
उदय जैसे तिमिर तोम फटत ।' विन० १२६.२
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